वीरवर - झाला मान " को समर्पित
निज शरीर की आहूति दूँगा ,
किसी बात की चाह नही |
मैं प्रताप के लिए मरूँगा ,
हटो ! हटो ! परवाह नही || १ ||
देख खून पर खून बन्धु का ,
मरना अब इन्कार नही |
पराधीन की बेड़ी में ,
रहना है स्वीकार नही || २ ||
राजपूत , हूँ राजपूत छाती -
- उत्तान करूँगा अब |
मातृ - भूमि बलिवेदी पर ,
अपना बलिदान करूंगा अब || ३ ||
यही समय है मर मिटने का ,
फिर मेरा उद्धार कहाँ ?
कहाँ - कहाँ भीषण भाला है ,
बरछी - तीर - कटार कहाँ ? || ४ ||
खौल रहा है खून रगों में ,
लड़ने के हथियार कहाँ ?
बिजली सी गिरने वाली ,
वह नागिन सी तलवार कहाँ ? || ५ ||
कहाँ - कहाँ मेरा घोड़ा है ,
आगे पैर बढ़ाऊंगा |
माँ के चरणों पर प्रताप के ,
पहले शीश चढ़ाऊँगा || ६ ||
मैं जलता अंगार एक ,
अरि-वन में आग लगाऊंगा |
प्यासी है अपने शोणित से ,
माँ की प्यास बुझाऊंगा || ७ ||
अड़ जाऊँगा जय प्रताप की ,
जय करता अड़ जाऊंगा |
अब स्वदेश के लिए उठा हूँ ,
वैरी से लड़ जाऊंगा || ८ ||
झाला मान मुग़लदीप का ,
मतवाला परवाना है |
दीपक उसे बुझा देना है ,
या जलकर मर जाना है || ९ ||
टोके तो मुझ रण - यात्री को ,
कौन टोकने वाला है ?
भभक उठा झाला मान अब ,
कौन रोकने वाला है ? || १० ||
तब तक झाला ने देखलिया ,
राणा प्रताप है संकट में |
बोला न बाल बांका होगा ,
जब तक है प्राण बचे घट में || ११ ||
अपनी तलवार दुधारी ले ,
भूखे नाहर - सा टूट पड़ा |
कलकल मच गया अचानक दल ,
आश्विन के घन - सा फूट पड़ा || १२ ||
राणा की जय , राणा की जय ,
वह आगे बढ़ता चला गया |
राणा प्रताप की जय करता ,
राणा तक चढ़ता गया || १३ ||
रख लिया छत्र अपने सिर पर ,
राणा - प्रताप - मस्तक से ले |
ले स्वर्ण पताका जूझ पड़ा ,
रण - भीम - कला अन्तक से ले || १४ ||
झाला को राणा जान मुग़ल ,
फिर टूट पड़े वे झाला पर |
मिट गया वीर जैसे मिटता ,
परवान दीपक - ज्वाला पर || १५ ||
झाला ने राणा - रक्षा की ,
रख दिया देश के पानी को |
छोड़ा राणा के साथ - साथ ,
अपनी भी अमर कहानी को || १६ ||
अगरमहाराणा प्रताप का इतिहास याद करें और उसमें झाला मान या झाला मन्ना का जिक्र हो, यह संभव नहीं। खानवा के युद्ध में बाबर को लोहे के चने चबाने वाले राणा सांगा के एक सेनापति थे अज्जाजी। वे बड़ी सादड़ी के थे। वे 17 मार्च 1527 को इसी रणभूमि में सांगा को बचाते हुए बलिदान हुए। बलिदान का यह सिलसिला ऐसा चला कि महाराणा प्रताप और अज्जाजी के खानदान की विरासत एक साथ रही।
बहादुर शाह गुजराती ने 1535 में चित्ताैड़ पर हमला किया तो अज्जाजी के बेटे सिंहाजी ने 1535 में प्राण निछावर किए। यह महज संयाेग नहीं था। यह अज्जाजी के परिवार और संस्कारों का एक ऐसा जीवंत स्मारक था, जिसने आगे भी अपने बलिदानी कर्म से मेवाड़ को धरा को महकाने में कभी कमी नहीं रखी।
अकबर की सेना ने 1568 में आक्रमण किया तो अज्जा जी के पोते सुरताणसिंह जमकर लड़े और शहीद हुए। क्या कोई परिवार ऐसा हो सकता है, जो इस तरह बलिदानों को निरंतर रखे और युद्ध भूमि में अपने प्राणों की बलि देकर मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम को प्रकट करे।
जैसे-जैसे महाराणा परिवार का नेतृत्व बदलता गया, इस परिवार के बलिदानी भी तैयार होते रहे।
महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध में उतरे तो झाला मान एक शूरवीर सेनापति के रूप में मौजूद थे। कहते हैं, विश्व में झाला को छोड़ ऐसा कोई राजवंश नहीं, जिसने अपने नरेश की रक्षा के लिए ढाल की तरह योगदान किया हो। झाला मान का एक नाम बीदा जी भी था।
नाथू सिंह महियारिया का एक दूहा है
दीधाफिर देसी घणां, मालिक साथै प्रांण।
चेटक पग दीधी जठै, सिर दीधौ मकवांण।।
यानी जहां चेतक ने सिर दिया, वहां झाला मान ने प्राण दिए। जहां औरों ने सिर्फ पैर दिए, वहां झाला ने प्राण देकर अपना सर्वस्व दिया।
मेवाड़ के शासकों पर जब-जब मौत का साया लहराता दिखा, उसे लपक कर अपनी मुट्ठी में बंद करने का जिस वंश ने लगातार सात पीढ़ियों तक इतिहास रचा, वह झाला राज वंश ही है।
सच में मेवाड़ का इतिहास प्रताप की सेना के बहादुर सरदार झाला मानसिंह या मन्नाजी के बलिदान से महकता है।
कहते हैं, झाला मान दिखने में प्रताप जैसे थे। ये झाला मान ही थे, जिन्होंने हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप की सेना के पांव उखड़ते समय मुगल सैनिकों को घायल प्रताप पर आक्रमण के लिए आतुर भांप लिया था।
कहते हैं, हल्दीघाटी के युद्ध में जिस समय प्रताप ने अपने घोड़े चेतक को मानसिंह के हाथी पर चढ़ाया और अपने भाले का प्रहार किया तो मानसिंह तो बच गया, लेकिन महावत मारा गया। प्रताप को उसी समय चारों तरफ मुगल सैनिकों ने घेर लिया और जख्मी भी कर दिया। ऐसे में प्रताप का रणभूमि में ज्यादा समय टिके रहना खतरनाक हो सकता था, क्योंकि मुगल सेना का एकमात्र मकसद प्रताप को पकड़ना या माैत के घाट उतारना ही था। इसे प्रताप ने पूरा होने देने के लिए युद्ध की रणनीति बदली और झाला मान ने इसमें पूरा सहयोग किया।
झाला ने प्रताप को बचाने के लिए राज्य छत्र, चंवर आदि उतार कर खुद धारण कर लिए। रणनीति समझ प्रताप चेतक पर सवार हो निर्जन स्थान की ओर निकल पड़े। राज चिह्नों से भ्रमित मुगल सेना झाला को प्रताप समझ उन पर टूट पड़ी।
नाथूसिंहने आंखें भिगो देने वाले अंदाज में लिखा है
राणगया गिरि ऊपरां, चेटक मोटै ठांण।
मुगल गया कबरां महीं, सुरग गया मकवांण।।
श्यामनारायण पांडेय ने ठीक ही लिखा है
तबतक झाला ने देख लिया, राणा प्रताप हैं संकट में। बोला ना बाल बांका होगा, जब तक है प्राण बचे घट में। अपनी तलवार दुधारी ले, भूखे नाहर सा टूट पड़ा। कल-कल मचा अचानक दल, अश्विन घन सा फूट पड़ा। रख लिया छत्र अपने सर पर, राणा प्रताप मस्तक से ले। ले स्वर्ण पताका जूझ पड़ा, रण भीम कला अंतक से ले। झाला को राणा जान मुगल, फिर टूट पड़े थे झाला पर। मिट गया वीर जैसे मिटता, परवाना दीपक ज्वाला पर। स्वर्ण पताका जूझ पड़ा, रण भीम कला अंतक से ले। झाला को राणा जान मुगल, फिर टूट पड़े थे झाला पर। मिट गया वीर जैसे मिटता, परवाना दीपक ज्वाला पर। स्वर्ण पताका जूझ पड़ा, रण भीम कला अंतक से ले। झाला को राणा जान मुगल, फिर टूट पड़े थे झाला पर। मिट गया वीर जैसे मिटता, परवाना दीपक ज्वाला पर।
मेवाड़ शिरोमणि के अछूते पहलू
हिन्दुस्तान के इतिहास में थमोर्पाली के संबोधन से अभिहित मेवाड़ में बलिदान की बुलंदी का प्रतीक एक ऐसा कस्बा है जहाँ जन्मा था महाराणा प्रताप का हमशक्ल जिसने हल्दी घाटी के युद्ध में अपना उत्सर्ग करके अपने राजा महाराणा प्रताप का जीवन बचाया। उस वीर के बलिदान की वह गाथा भारत के इतिहास में अधिक स्थान नहीं पा सकी अतः मैंने उस कस्बे और उस वीर की पूरी शौर्य गाथा जानने के लिए बड़ी सादड़ी कस्बे का रूख किया।
उपखंड स्तर का यह कस्बा झीलों की नगरी उदयपुर से एक सौ ग्यारह तथा जिला मुख्यालय चित्तोड़गढ से चौंसठ किलोमीटर दूर स्थित है। इस कस्बे की आबादी तकरीबन अठारह-बीस हजार है। रियासत काल में यह उदयपुर राज्य का एक ठिकाना था। बड़ी सादड़ी का इतिहास में उल्लेख सर्वप्रथम महाराणा सांगा समय मिलता है। जब अजोजी के छोटे भाई सजोजी को यह ठिकाना बख्श दिया गया था। इस प्रकार सजोजी यहाँ के प्रथम राजपुरूष थे। अजोजी ने झालामण्ड बसाया था। ये दोनों भाई हलवद (काठियावाड़ राज्य) के शासक राजोधर के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनका एक सौतेला भाई राणोजी भी था और उन दोनों से छोटा था। पिता राजोधर के देहावसान के पश्चात् जब अजोजी और सजोजी दोनों भाई उनके अंतिम संस्कार की क्रिया संपन्न कर लौटे तो देखा कि उनकी अनुपस्थिति में राणोजी के मामा ने अल्पवयस्क राणोजी को हलवद का राजा घोषित कर दिया था। महल के द्वार उनके लिए सदा के लिए बंद हो चुके थे। दोनों भाईयों की गुहार किसी ने एक न सुनी। हार कर अजोजी अपने सगे भाई सजोजी को लेकर मेवाड़ चले आए। वहाँ राणा रायमल ने उनकी दुख भरी दास्तां सुनकर उन दोनों को अपने राज्य में आश्रय दे दिया।
मेवाड़ के राणा रायमल के पुत्र संग्रामसिंह हुए, जिन्हें इतिहास राणा सांगा के नाम से जानता है। संग्राम सिंह का संपूर्ण जीवन रण करते हुए व्यतीत हुआ था और उन्हें अस्सी घाव लगे थे। कथन है कि वे सिंहासन पर नहीं बल्कि जमीन पर ही बैठते थे। उनका तर्क था कि इस क्षत-विक्षत शरीर के साथ मुझे सिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं है। बाबर और राणा संग्राम सिंह के बीच हुए इतिहास प्रसिद्ध खानवा के संग्राम में अजोजी भी युद्ध में लड़ रहे थे। उस रण में राणा सांगा के चेहरे पर तीर का एक घातक वार लगा और वे मूर्छित हो गए। सरदारों ने राणा को एक पालकी में लिटाया और सुरक्षित स्थान की ओर रवाना कर दिया। उसके बाद सरदारों ने अजोजी को सैन्य संचालन की जिम्मेदारी सौंपी। सरदारों ने अजोजी को राजचिन्ह धारण करवाए और उन्हीं के नेतृत्व में आगे का युद्ध प्रारंभ हुआ। वीरता पूर्वक रण करते हुए अजोजी वीर गति को प्राप्त हुए। महाराणा सांगा ने अजोजी के प्राणोत्सर्ग से प्रसन्न होकर देलवाड़ा, गोगुंदा और बड़ी सादड़ी की जागीर उनके छोटे भ्राता सजोजी को प्रदान की। सजोजी ने बड़ी सादड़ी को अपना ठिकाना चुना। उस समय इस जागीर में एक सौ दो गांव थे तथा 1400 रुपए वार्षिक की आमदनी होती थी।
कालांतर में इस ठिकाने की सात पीढियों ने अपने शासकों के प्रति अप्रतिम बहादुरी प्रदर्शित करते हुए अपना उत्सर्ग किया। इनमें सबसे अनूठा बलिदान झाला सरदार मानसिंह का था। उन्हें झाला मन्ना और झाला बींदा भी कहा गया है। इस आधार पर कुछ इतिहासकार राणा बींदा को अलग व्यक्ति मानते है। बहरहाल, महाराणा प्रतापसिंह के अनुपम शौर्य के संग जुड़कर, झाला मन्ना का बलिदान बेहद बुलंद हो गया।
हल्दीघाटी काव्य के सुविख्यात कवि श्याम नारायण पांडेय लिखते हैं-
"झाला को राणा जान
मुगल फिर टूट पड़े थे झाला पर।
मिट गया वीर जैसे मिटता,
परवाना दीपक-ज्वाला पर।।
झाला ने राणा रक्षा की,
रख लिय देश के पानी को।
छोड़ा राणा के साथ-साथ
अपनी भी अमर कहानी को।।"
अब, मैं उस अप्रतिम कहानी को प्रस्तुत करता हूँ-
हल्दीघाटी में युद्धरत महाराणा प्रताप को अकबर की सेना ने घेर लिया था और अपनी सारी शक्ति उन पर प्रहार करने में लगा दी थी। प्रतापसिंह उस घेरे से तीन बार उबरे किन्तु मुगलों की अपार सेना से वे कब तक पार पाते? शनैः शनैः प्रताप पस्त होने लगे थे। दुश्मन के हाथी की सूंड में बंधी तलवार से उनके अश्व चेतक का भी एक पैर टूट गया था। बड़ीसादड़ी के झाला सरदार मानसिंह ने अपने स्वामी की उस दशा को लक्ष्य किया और उस घेरे को चीरकर महाराणा प्रताप के पास पहुँचे और झपट कर मेवाड़ के राजचिन्ह 'स्वर्णसूर्य' को अपने सिर पर पहना तथा छत्र व चंवर को धारण करते हुए राणा प्रताप से बोले, “अन्नदाता! आप रणक्षेत्र से दूर चले जाएँ।" चूंकि राजपूत युद्ध के मैदान से पीठ दिखाकर भागना कायरता मानते हैं, इसलिए महाराणा ने आनाकानी की तो वह वीर बोला, "स्वामी, आप जीवित रहे तो पुनः शक्तिशाली होकर दुश्मन के दांत खट्टे कर सकेंगे।" यह सुनकर महाराणा प्रताप रणक्षेत्र से बाहर जाने को तत्पर हो गए। तभी झाला मन्ना जोर-जोर से चिल्लाने लगे "प्रताप आ गया है.. प्रताप आ गया है.."
उस चिल्लाहट से मुगल सैनिक भ्रमित हो गए और असली प्रताप को छोड़कर झाला मानसिंह पर टूट पड़े। झाला मानसिंह की शक्ल महाराणा प्रताप से बहुत साम्य रखती थी और उनकी कद-काठी भी लगभग वैसी ही थी (देखिए यहाँ प्रस्तुत उन दोनों के चित्र) इस प्रकार राणा प्रताप युद्ध के मैदान से सुरक्षित बाहर चले गएइतिहास में आगे उल्लेख है कि दो मुगल अश्वारोहियों ने महाराणा को घाटी से बाहर जाते देख लिया था और वे तेजी से उनका पीछा करने लगे। चूंकि राणा का हवा से बात करने वाला प्रिय अश्व चेतक एक पैर के टूट जाने से तीव्र गति से दौड़ नहीं पा रहा था। अतः दुश्मन के सैनिक प्रतिपल पास आते जा रहे थे कि सामने एक नाला आ गया। चेतक वहां ठिठक गया। महाराणा ने उसके आयालों (गर्दन के बालों) को सहलाया और पीठ थपथपायी। चेतक समझ गया कि उसे हर हाल में अपने स्वामी की रक्षा करनी है। उसने अपनी सारी शक्ति संचित की और एक छलांग में उस नाले को पार कर गया। जबकि मुगल सैनिकों के अश्व वैसा नहीं कर सके।
नाले के दूसरी ओर चेतक गिर पड़ा था। उसने अंतिम सांस ली और प्राण त्याग दिए। मेवाड़ की धरा पर चेतक ने स्वामीभक्ति का एक अलग और अदभुत इतिहास रच दिया था। उस स्थल पर चेतक का स्मारक उस अनूठी दास्तां का आज भी मूक गवाह है।
डिंगल के कवियों ने लिखा है.
"टूटो पग चेटक तणो
साम बचाय सरीर।
राण मान सिर राखिया,
छत्र चंवर छंहगीर॥
रक्त तलाई - खमनौर, राजसमन्द
(हल्दीघाटी के वीर योद्धा राजराणा झाला मानसिंह जी की छतरी)
उधर मुगलों से युद्ध में वीरता पूर्वक लड़ते हुए बड़ी सादड़ी ठिकाने के झाला सामंत मानसिंह ने वीरगति पायी। महाराणा संग्रामसिंह की रक्षार्थ अजोजी के प्रथम उत्सर्ग के पश्चात् मानसिंह और उसके बाद भी अगली पीढियों ने कुल सात शहादतें निरंतर दी और उसके प्रतिफल में मेवाड़ रियासत के राज चिन्हों को धारण करने का गौरव भी बड़ीसादड़ी के ठिकाने के वंशधरों को प्राप्त हुआ था। कैसी विडंबना रही कि अपने पैतृक राज्य हलवद (गुजरात) से निर्वासित किए गए दो राजकुमार ने राजपूताना (राजस्थान) में केमेवाड़ राज्य में शरणागत होकर, अपने अभूतपूर्व शौर्य और बलिदानों से राजाओं जैसा सम्मान अर्जित किया।
बड़ी सादड़ी कस्बे के पुराने बस स्टैण्ड चौराहे पर उस झाला सरदार की प्रस्तर प्रतिमा जिरह-बख्तर सहित अवस्थित है, जिसे देखते ही महाराणा प्रताप की प्रतिमा होने का आभास होता है। कस्बे में राजराणाओं की उन्नत हवेली है, जो अपने स्वामियों की शहादतों की दास्तानों की मूक बयानी कर रही है। बड़ीसादड़ी के मध्य में सूर्य सागर सरोवर है जिसका निर्माण प्रतापगढ नरेश सूरजमल द्वारा करवाया गया था नीमच रोड़ की पहाड़ी पर एक अधूरा किला है। इसका निर्माण संवत् 1835 में सुल्तानसिंह ने प्रारंभ करवाया था किन्तु किसी कारणवश अधूरा रह गया। इसी जगह पर तोपखाना भी है। कस्बे के दूसरे छोर पर पहाड़ से गिरने वाले झरने को रोककर शिव सागर तालाब ठाकुर शिवसिंह ने करवाया था। इस स्थान पर हरियाली अमावस को लोग पिकनिक मनाने आते हैं। ब्रह्मपुरी की बावड़ी स्थापत्य कला का नायाब नमूना है। फतहकुंवरी द्वारा निर्मित बड़ा कुंड और अनेकानेक बावड़ियाँ भी इस कस्बे में हैं। धार्मिक महत्व के अनेक प्राचीन मंदिर और मस्जिदें हैं जिनमें दाउदी बोहरा समाज की मस्जिद विशेष आस्था का प्रतीक है। राजपूती शौर्य के बड़ीसादड़ी कस्बे के राजराणाओं के बारे धांग्रधा के महाराजा श्रीराज ने अपनी पुस्तक 'ए ब्लड ऑफरिंग' में बड़ी सार्थक पंक्ति लिखी है. "राजाओं का इतिहास, मेवाड़ के इतिहास के बिना क्या है? और मेवाड़ का इतिहास, झालाओं के इतिहास के बिना क्या है?"
HARIHAR TEMPLE - BADRANA - JHADOOL (UDAIPUR)
The ruins of traditional historical architecture from the Hindva Surya MahaRana Pratap Era stand testimony to the same. Though a major part of his life was spent on the battlefield yet
he managed to establish several monuments under his direction and patronage. These
monuments have become the traditional evidence of Mewar archeology.
Out of many such the establishment of Harihar temple at Badrana in Jhadol district stands out distinctively
The idol in Harihar
temple, a beautiful fused representation of Vishnu (Hari) and Shivaa (Hara) from crown to toe is
one of a kind. In this statue Shivaa and Vishnu share the same body. The ornamentation,
beautification, and sculpting of the idol is an unparalleled specimen.
झाला ने देख लिया , राणा प्रताप है संकट में
बोला न बाल बांका होगा , जब तक हैं प्राण बचे घट में
अपनी तलवार दुधारी ले , भूखे नाहर सा टूट पड़ा
कल कल मच गया अचानक दल , अश्विन के घन सा फूट पड़ा
राणा की जय, राणा की जय , वह आगे बढ़ता चला गया
राणा प्रताप की जय करता , राणा तक चढ़ता चला गया
रख लिया छत्र अपने सर पर , राणा प्रताप मस्तक से ले
ले सवर्ण पताका जूझ पड़ा , रण भीम कला अंतक से ले
झाला को राणा जान मुगल , फिर टूट पड़े थे झाला पर
मिट गया वीर जैसे मिटता , परवाना दीपक ज्वाला पर
झाला ने राणा रक्षा की , रख दिया देश के पानी को
छोड़ा राणा के साथ साथ , अपनी भी अमर कहानी को
अरि विजय गर्व से फूल उठे , इस त रह हो गया समर अंत
पर किसकी विजय रही बतला , ऐ सत्य सत्य अंबर अनंत
Jhala Maan singh is an outstanding dazzling example of extraordinary valour, bravery and sacrifice who shrouded with the glory of struggle for freedom. In the battle of Haldi Ghati in 1576, Jhala Maan decorated himself with the Crown and the royal emblem from Pratap and started fighting valiantly.
Jhala Maan has set a unique example of bravery and courage by sacrificing his life to save the life of Pratap for his country.
दानव समाज में अरुण पड़ा
जल जन्तु बीच हो वरुण पड़ा
इस तरह भभकता था राणा
मानो सर्पो में गरुड़ पड़ा
हय रुण्ड कतर, गज मुण्ड पाछ
अरि व्यूह गले पर फिरती थी
तलवार वीर की तड़प तड़प
क्षण क्षण बिजली सी गिरती थी
राणा कर ने सर काट काट
दे दिए कपाल कपाली को
शोणित की मदिरा पिला पिला
कर दिया तुष्ट रण काली को
पर दिन भर लड़ने से तन में
चल रहा पसीना था तर तर
अविरल शोणित की धारा थी
राणा क्षत से बहती झर झर
घोड़ा भी उसका शिथिल बना
था उसको चैन ना घावों से
वह अधिक अधिक लड़ता यद्दपि
दुर्लभ था चलना पावों से
तब तक झाला ने देख लिया
राणा प्रताप है संकट में
बोला न बाल बांका होगा
जब तक हैं प्राण बचे घट में
अपनी तलवार दुधारी ले
भूखे नाहर सा टूट पड़ा
कल कल मच गया अचानक दल
अश्विन के घन सा फूट पड़ा
राणा की जय, राणा की जय
वह आगे बढ़ता चला गया
राणा प्रताप की जय करता
राणा तक चढ़ता चला गया
रख लिया छत्र अपने सर पर
राणा प्रताप मस्तक से ले
ले सवर्ण पताका जूझ पड़ा
रण भीम कला अंतक से ले
झाला को राणा जान मुगल
फिर टूट पड़े थे झाला पर
मिट गया वीर जैसे मिटता
परवाना दीपक ज्वाला पर
झाला ने राणा रक्षा की
रख दिया देश के पानी को
छोड़ा राणा के साथ साथ
अपनी भी अमर कहानी को
अरि विजय गर्व से फूल उठे
इस त रह हो गया समर अंत
पर किसकी विजय रही बतला
ऐ सत्य सत्य अंबर अनंत ?
∼ श्याम नारायण पाण्डेय