एक ऐसे योद्धा, जिन्होंने अपने जीवनकाल में महाराणा बनने के बाद १८ वर्षों तक संघर्ष करते हुए १७ बड़ी लड़ाईंयों में बहादुरी दिखाई व १०० से अधिक मुगल थानों पर विजय प्राप्त की और लगभग डेढ़ वर्ष तक २० हजार मेवाडी बहादुरों ने तकरीबन ४ लाख से अधिक फौजी दस्तों से छापामार संघर्ष जारी रखा
" चक्रवीर महाराणा अमरसिंह जी मेवाड़"
* जन्म : १६ मार्च, १५५९ ई.
मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह जी का परिचय :- ये वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप व महारानी अजबदे बाई पंवार के पुत्र थे। इनका जन्म 16 मार्च, 1559 ई. को हुआ था। महाराणा अमरसिंह का ननिहाल बिजोलिया था। इनके नाना जी राव माम्रख/राम रख पंवार थे। महाराणा अमरसिंह के दादाजी महाराणा उदयसिंह जी थे।
महाराणा अमरसिंह के जन्म के विषय में कुछ मतभेद हैं। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म मचीन्द गांव में हुआ, जो कि वर्तमान राजसमंद जिले में स्थित है। यह पहाड़ी क्षेत्र है, जहां महाराणा प्रताप के महलों के खंडहर हैं। लेकिन यह तथ्य इसलिए उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि महाराणा प्रताप मचीन्द गांव में छापामार युद्धों के दौरान रहे थे। इसलिए 1559 ई. में चित्तौड़गढ़ के महलों में ही महाराणा अमरसिंह का जन्म हुआ होगा।
इतिहास में महाराणा अमरसिंह का स्थान :-
महाराणा अमरसिंह के संघर्ष, बलिदान, वीरता, साहस के साथ न्याय नहीं हुआ। इनके बारे में सिर्फ एक बात मशहूर है कि इन्होंने मुगलों से सन्धि की। बेशक महाराणा अमरसिंह ने मुगलों से सन्धि की, लेकिन 1615 ई. में। जबकि उन्होंने राज्यभार 1597 ई. में संभाला था। बीच के इन 18 वर्षों में महाराणा अमरसिंह ने जो भीषण संघर्ष किया, वो आज महज़ कुछ ग्रन्थों तक ही सीमित है।
इन ग्रन्थों से कोई बात यदि बाहर निकली, तो वो है मुगलों से सन्धि की। निस्संदेह महाराणा अमरसिंह महान शासकों में से एक थे, जिन्होंने अपने पिता की भांति अनेक युद्धों में पराक्रम दिखाया और लगातार मुगल सल्तनत के विरुद्ध संघर्ष को जारी रखा।
कर्नल जेम्स टॉड लिखता है कि “राणा अमर अपने पिता प्रताप व अपने कुल का सुयोग्य वंशधर था। वह वीर पुरुष के समस्त शारीरिक और मानसिक गुणों से सम्पन्न तथा मेवाड़ के राजाओं में सबसे अधिक ऊंचा और बलिष्ठ था। वह उदारता और पराक्रम आदि सदगुणों के कारण सरदारों को और न्याय व दयालुता के कारण अपनी प्रजा को प्रिय था।”
प्रसिद्ध इतिहासकार ओझा लिखते हैं कि “महाराणा अमरसिंह नीतिज्ञ, दयालु, विद्वानों के आश्रयदाता, न्यायी व सुकवि थे। ये अपने पिता महाराणा प्रताप से भी अधिक लड़ाईयाँ लड़े, किन्तु अन्त में मजबूरी के चलते सन्धि के कारण इनकी ख्याति भारत में वैसी न हुई जैसी इनके पिता की है।”
कविराजा श्यामलदास ग्रन्थ वीरविनोद में लिखते हैं कि “महाराणा अमरसिंह का कद लम्बा, रंग गेहुवां, आँखें बड़ी, चेहरा रौबदार और मिजाज़ तेज़ था। वे दयावान, सच्चे व मिलनसार, दोस्ती के पूरे, इक्रार को पूरा करने वाले थे।”
महाराणा अमरसिंह के इतिहास को बहुत वर्षों से भ्रमित किया जाता रहा है, जिससे कई किस्से ऐसे भी जुड़ गए जिनका कोई अस्तित्व नहीं है और बेहतर शोध से उनका झूठ भी पकड़ना संभव है। ऐसी घटनाएं समकालीन ग्रंथों में नहीं मिलती, बल्कि बाद में प्रचलन में आई हैं, जो कि मेवाड़-मुगल सन्धि के कारण महाराणा अमरसिंह को कमतर आंककर लिखी गई हैं।
महाराणा अमरसिंह
महाराणा अमरसिंह का कुंवरपदे काल (राज्याभिषेक से पूर्व) :- इनका संघर्ष 1567 ई. से ही शुरु हुआ, जब चित्तौड़ का तीसरा शाका हुआ व इन्हें चित्तौड़ छोड़ना पड़ा, तब इनकी उम्र 8 वर्ष थी। 1572 ई. में महाराणा प्रताप का विधिवत राजतिलक कुम्भलगढ़ में हुआ। इस अवसर पर कुँवर अमरसिंह भी उपस्थित थे।
महाराणा अमरसिंह के कुछ वर्ष बाद लिखे गए ग्रंथ राणा रासो में लिखा है कि “महाराणा प्रताप के राजतिलक दरबार में शत्रुओं के देशों का दग्धकर्ता, उन्नतकाय, लंबी भुजाओं वाला युवराज अमरसिंह भी उपस्थित था। युवराज अमरसिंह साक्षात अमर देवता का अवतार था। युवा होने पर उसकी आँखों में लालिमा छा गई।”
अप्रैल, 1573 ई. में महाराणा प्रताप को सन्धि के लिए मनाने जब कुंवर मानसिंह कछवाहा उदयपुर आए, तब महाराणा प्रताप ने अपने 14 वर्षीय पुत्र कुंवर अमरसिंह को वार्ता हेतु भेजा था।
सितम्बर-अक्टूबर, 1573 ई. में महाराणा प्रताप को सन्धि हेतु मनाने के लिए राजा भगवानदास कछवाहा गोगुन्दा आए। अकबर के दरबारी लेखक अबुल फजल ने अकबरनामा में सन्धि प्रयासों की असफलता को छुपाने के लिए मनगढंत कहानी लिखी।
अबुल फजल लिखता है कि “राजा भगवानदास जब राणा को मनाने गोगुन्दा पहुंचा, तो राणा ने उसकी बड़ी खातिरदारी की। राणा का दिल उजाड़ था, इसलिए उसने खुद ना आकर अपने बेटे अमरसिंह को राजा भगवानदास के साथ शाही दरबार में भेजा। कुछ वक्त बाद शहंशाह ने अमर को फिर से मेवाड़ भेज दिया”
अबुल फजल की इस बात को गलत साबित करने वाला खुद जहांगीर था। तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “राणा अमरसिंह ने कभी किसी बादशाह को नहीं देखा। उसने और उसके बाप-दादों ने घमंड और पहाड़ी मकामों के भरोसे किसी बादशाह के पास हाजिर होकर ताबेदारी नहीं की है”
1576 ई. में 17 वर्षीय कुंवर अमरसिंह ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग नहीं लिया, क्योंकि महाराणा प्रताप ने युद्ध से पहले रनिवास की सुरक्षा का उत्तरदायित्व कुंवर अमरसिंह को दिया था। जेम्स विन्सेट लिखता है कि “हल्दीघाटी युद्ध में रुपा नाम का एक भील युद्ध की शुरुआत में ही भाग गया था, जिसे कुंवर अमरसिंह ने उदयपुर के राजमहलों में प्रतिशोध स्वरुप मार डाला।”
उदयपुर राजमहल का भीतरी दृश्य
1576 ई. के बाद जब महाराणा प्रताप ने जंगलों में जीवन बिताया, तब कुंवर अमरसिंह ने भी इस संघर्षपूर्ण जीवन को स्वीकार किया। तलवारबाजी और भाला चलाने की कला उन्होंने स्वयं अपने महान पिता महाराणा प्रताप से सीखी। महाराणा प्रताप से उनको छापामार युद्धों में काम में ली जाने वाली कूटनीति भी सीखने को मिली।
1580 ई. में अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना की बेगमों को बन्दी बनाना :- रहीम ने शेरपुर में अपने परिवार व सेना सहित पड़ाव डाला। रहीम अपने परिवार को एक फौजी टुकड़ी की निगरानी में रखकर खुद फौज समेत महाराणा प्रताप के पीछे गया। इस वक्त कुंवर अमरसिंह गोगुन्दा में थे। कुंवर अमरसिंह को जब इस बात का पता चला, तो उन्होंने रहीम का ध्यान महाराणा से हटाने के लिए शेरपुर पर हमला कर दिया।
कुंवर अमरसिंह शाही फौजी टुकड़ी को पराजित करके रहीम की बेगमों को बन्दी बनाकर महाराणा प्रताप के समक्ष प्रस्तुत हुए। इन बेगमों में से दो के नाम ज़ीनत व आनी बेगम है। महाराणा प्रताप ने कुंवर अमरसिंह को जोरदार फटकार लगाते हुए रहीम की बेगमों को सुरक्षित रहीम तक पहुंचाने का आदेश दिया।
मेवाड़ के ग्रंथ वीरविनोद में छापामार युद्धों के दौरान घटित एक घटना लिखी है, जो कुछ इस तरह है :- “एक दिन महाराणा प्रतापसिंह किसी पहाड़ पर फूस के झोंपड़ों में अपनी रानियों सहित रह रहे थे। मेह बरसने लगा। उस समय महाराणा एक झोंपड़ी में हाथ में तलवार लिए होशियार बैठे थे और दूसरे छप्पर में कुँवर अमरसिंह मौजूद थे। जब ऊपर से पानी टपकने लगा, तो कुंवरानी ने लंबा सांस खींचकर कहा कि हम इस दुःख से कभी पार उतरेंगे या नहीं। तब महाराजकुमार अमरसिंह ने जवाब दिया कि हम क्या करें, हम दाजीराज के बर्ख़िलाफ़ नहीं जा सकते।”
वीरविनोद में आगे लिखा है कि “कुँवर और कुंवरानी की बातें सुनकर महाराणा प्रतापसिंह ने सवेरे उठकर सब सरदारों को बुलाया और रात को सुनी हुई बात के इशारे स्वरूप कुँवर अमरसिंह को ताना मारते हुए सरदारों से कहा कि अमरसिंह तो आरामपसंद है। मेरे पीछे ये बादशाही ताबेदारी कुबूल करके खिलअत पहनेगा। यह सुनकर कुँवर अमरसिंह बहुत शर्मिंदा हुए पर कुछ न बोले, लेकिन मन में मज़बूत इरादा किया कि मैं कभी बादशाहों का फर्माबर्दार नहीं बनूंगा।”
इस घटना की वास्तविकता का कोई ठोस प्रमाण नहीं है, परन्तु यह सम्भव है कि कुँवर अमरसिंह के हृदय में उस भयंकर संघर्ष के दौरान कमजोरी के भाव आए हों। यदि इस घटना में थोड़ी भी वास्तविकता मानी जाए, तो भी ये घटना महाराणा प्रताप के दिवेर विजय अभियान से पूर्व की रही होगी। इस घटना के पश्चात कुँवर अमरसिंह ने अनेक युद्धों में महाराणा प्रताप के साथ रहकर वीरता दिखाई। ये महाराणा प्रताप का विश्वास ही था, तभी उन्होंने कुँवर अमरसिंह को दिवेर युद्ध व अन्य लड़ाइयों में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व सौंपा।
* १५८२ ई. :- दिवेर युद्ध में सेनापति बने व अकबर के सेनापति सुल्तान खां को उसके कवच व घोड़े समेत भाले से कत्ल किया
दिवेर विजय शौर्य स्थल
महाराणा प्रताप के साथ कुँवर अमरसिंह
अक्टूबर, 1582 ई. में विजयादशमी के दिन दिवेर का भीषण युद्ध हुआ, जिसमें महाराणा प्रताप ने कुंवर अमरसिंह को मेवाड़ का सेनापति घोषित किया। अकबर के सेनापति सुल्तान खां का सामना कुंवर अमरसिंह से हुआ। कुंवर अमरसिंह ने सुल्तान खां पर भाले से भीषण प्रहार किया।
भाला इतने तेज वेग से मारा था कि सुल्तान खां के कवच, छाती व घोड़े को भेदते हुए जमीन में घुस गया और वहीं फँस गया। टोप उड्यो बख्तर उड्यो, सुल्तान खां रे जद भालो मारियो। राणो अमर यूं लड्यो दिवेर में, ज्यूं भीम लड्यो महाभारत में।।
सुल्तान खां मरने ही वाला था कि तभी वहां महाराणा प्रताप आ पहुंचे। सुल्तान खां ने कुंवर अमरसिंह को देखने की इच्छा महाराणा के सामने रखी, तो महाराणा ने किसी और राजपूत को बुलाकर सुल्तान खां से कहा कि यही अमरसिंह है। सुल्तान खां ने कहा कि नहीं ये अमरसिंह नहीं है, उसी को बुलाओ। तब महाराणा ने कुंवर अमरसिंह को बुलाया।
सुल्तान खां ने कुंवर अमरसिंह के वार की सराहना की। महाराणा ने सुल्तान खां को तकलीफ में देखकर कुंवर अमरसिंह से कहा कि ये भाला सुल्तान खां के जिस्म से निकाल लो। कुंवर अमरसिंह ने खींचा पर भाला नहीं निकला, तो महाराणा ने कहा कि पैर रखकर खींचो। तब कुंवर अमरसिंह ने सुल्तान खां की छाती पर पैर रखकर भाला निकाला।
1586 से 87 ई. के बीच मुगल थाने उठाने में महाराणा प्रताप का सहयोग :- दिवेर विजय के बाद महाराणा प्रताप ने जो 36 मुगल थाने उखाड़ फेंके थे, उनमें कुंवर अमरसिंह ही सेनापति थे। एक दिन तो कुंवर अमरसिंह ने गज़ब की तेजी दिखाते हुए 5 मुगल थाने उखाड़ फेंके। कुंवर अमरसिंह ने मोही, मदारिया, आमेट, देवगढ़ वगैरह मुगल थानों पर भी आक्रमण किए व विजयी हुए।
* १५८७ ई. :- गुजरात के किसी शाही थाने पर लूटमार की
कुँवर अमरसिंह द्वारा गुजरात के शाही थानों पर आक्रमण :- जब मेवाड़ में तैनात अधिकतर मुगल थानों पर विजय प्राप्त कर ली गई, तो महाराणा प्रताप ने कुँवर अमरसिंह के नेतृत्व में एक सेना गुजरात की तरफ भेजी। कुँवर अमरसिंह ने गुजरात के शाही थानों को चीरते हुए अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया और 70 हज़ार रुपए दण्डस्वरूप वसूल करके महाराणा प्रताप को भेंट किए।
* १५९९ ई. :- अकबर ने मानसिंह व अपने बेटे जहांगीर को महाराणा अमरसिंह के खिलाफ मेवाड़ भेजा
> जहांगीर ने उदयपुर पर हमला किया
महाराणा अमरसिंह ने मुगल फौज को आमेर तक खदेड़
दिया व मालपुरा (आमेर) को लूटते हुए मेवाड़ आए
* महाराणा अमरसिंह ने अपने हाथों से सुल्तान खां खोरी को मारकर बागोर पर अधिकार किया व इसी तरह रामपुरा पर भी कब्जा किया
* १६०० ई. :- अकबर ने मिर्जा शाहरुख को फौज समेत मेवाड़ भेजा, पर महाराणा के खौफ से मिर्ज़ा भागकर बांसवाड़ा चला गया
* १६०० ई. :- महाराणा अमरसिंह ने अपने हाथों से ऊँठाळा दुर्ग में तैनात कायम खां को मारकर दुर्ग पर अधिकार किया
* १६०३ ई. :- अकबर ने शहजादे जहांगीर को दोबारा मेवाड़ भेजा, पर महाराणा अमरसिंह से मिली पिछली पराजय से घबराकर वह मेवाड़ अभियान छोड़कर गुजरात चला गया।
* १६०५ ई. :- जहांगीर मुगल बादशाह बना व उसने आसफ खां और शहजादे परवेज को २०,००० जंगी सवारों समेत मेवाड़ भेजा।
* १६०६ ई. :- देबारी के युद्ध में महाराणा अमरसिंह ने शहजादे परवेज को पराजित किया।
* १६०८ ई. :- जहांगीर ने शहजादे परवेज को बुलाकर
महाबत खां को १५,००० की फौज समेत मेवाड़ भेजा
महाराणा अमरसिंह ने महाबत खां को पराजित किया
* १६०९ ई. :- महाराणा अमरसिंह ने मांडल के थाने पर हमला किया, जहां मुगल फौज का सेनापति जगन्नाथ कछवाहा (राजा भारमल का बेटा) घावों के चलते कुछ दिन बाद मारा गया
* १६०९ ई. :- जहांगीर ने फौज समेत अब्दुल्ला खां
को मेवाड़ भेजा
* १६११ ई. :- रणकपुर के युद्ध में महाराणा अमरसिंह ने अब्दुल्ला खां को पराजित किया
* १६११ ई. :- जहांगीर ने अब्दुल्ला खां को बुलाकर
राजा बासु को मेवाड़ भेजा
* १६१३ ई. :- महाराणा अमरसिंह ने शाहबाद थाने पर हमला किया, जिसमें राजा बासु कत्ल हुआ
* १६१३ ई. :- जहांगीर ने फौज समेत मिर्जा अजीज कोका को मेवाड़ भेजा, पर वह भी महाराणा अमरसिंह से पराजित हुआ
* १६१३ ई. :- जहांगीर अजमेर पहुंचा और वहां से उसने शाहजहां को कुल हिन्दुस्तान की फौज समेत मेवाड़ भेजा।
सितम्बर, १६१३ ई.
"मुगल बादशाह जहाँगीर द्वारा कुल हिन्दुस्तान की फौज समेत मेवाड़ पर इतिहास का सबसे बड़ा आक्रमण"
* जहाँगीर ने आगरा से निकलने से पहले ही तमाम हिंदुस्तान के बादशाही सिपहसालारों को पैगाम भिजवाकर ये हुक्म दिए कि वे अपने-अपने इलाकों में जरूरत की फौज तैनात करके बाकी फौजों के साथ अजमेर पहुंचे | साथ ही बीकानेर, आमेर, बूँदी, मारवाड़, अमरकोट, किशनगढ़, नूरपुर के राजपूत राजाओं को उनकी फौज समेत अजमेर पहुंचने का हुक्म दिया |
जहाँगीर ने अपने बेटे खुर्रम (शाहजहाँ) को भी उसकी तमाम फौज के साथ हाजिर होने को कहा
१६ सितम्बर, १६१३ ई.
* इस दिन जहांगीर अजमेर पहुंचा
सितम्बर, १६१३ ई.
* जहांगीर पुष्कर पहुंचा | वहां उसने एक मन्दिर देखा | ये मन्दिर मेवाड़ के सगर (जगमाल के छोटे भाई) ने १ लाख के धन से बनवाया था | जहांगीर ने इसे ध्वस्त कर दिया |
* तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है "ख्वाजा की मजार पर जाने के बाद मेरा मकसद बागी राणा अमर के मामले को खत्म करना था, तो मैंने अजमेर में ही रुककर खुर्रम को मेवाड़ भेजने का फैसला किया"
* जहांगीर लिखता है "खानआजम की कमान में जो फौज पहले से मेवाड़ में तैनात थी, उसके अलावा मैंने अपने बेटे खुर्रम को १२,००० जंगी सवार और दिये | ये फौज सिर्फ खुर्रम के लिए थी | मेवाड़ जाने वाली कुल फौज की गिनती बता पाना मुश्किल है"
* खुर्रम की कमान में मेवाड़ जाने वाले सिपहसालार :-
> फिदायत खां :- इसे फौज का बख्शी बनाया गया
> ज़माल खां तुर्की :- इसे मांडल के थाने पर भारी फौज के साथ तैनात किया, ताकि मेवाड़ में तैनात मुगल फौज तक जाने वाली रसद को महाराणा अमरसिंह के साथी लूट ना पाएं
> जादूराय :- इसे दीवान बनाया गया
> बैरमबेग :- इसे बीजापुर में तैनात किया
> मिर्जा बदीउज्ज़मा :- ये मिर्जा शाहरुख का बेटा था | इसे अच्छे बन्दूकधारों समेत कुम्भलगढ़ दुर्ग पर तैनात किया |
> सैयद सैफ खां :- इसे झाड़ौल में तैनात किया
> सगर सिंह सिसोदिया :- ये जगमाल का छोटा भाई था | इसे गोगुन्दा में भारी लश्कर के साथ तैनात किया | इस लश्कर के साथ महाराज शक्तिसिंह का पौत्र नारायणदास शक्तावत भी था | इस लश्कर में मेवाड़ के विश्वासघाती सिसोदिया राजपूत भी महाराणा अमरसिंह के खिलाफ तैनात थे |
> फरेदूं खां :- इसे ओजणे में तैनात किया
> राव रत्नसिंह हाडा (बून्दी) :- इसे हाडा राजपूतों समेत मेवाड़ की राजधानी चावण्ड में तैनात किया
> इब्राहिम खां :- इसे जावर में तैनात किया
> अरब खां :- इसे नाहरमगरे में तैनात किया
(नाहरमगरे का इलाका शुरु से ही मेवाड़ महाराणाओं के शिकार करने का मनपसंद स्थान रहा है)
> मारवाड़ नरेश राजा सूरसिंह :- इनको मारवाड़ के राठौड़ राजपूतों की हज़ारों की फौज के साथ सादड़ी में तैनात किया
(जहाँगीर द्वारा मेवाड़ पर इस हमले में भेजी जाने वाली फौज का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजपूताने की सबसे बड़ी रियासत मारवाड़ के राजा को उनकी कुल फौज समेत महज़ एक थाने पर तैनात किया गया)
> मिर्जा मुराद :- इसे मादड़ी में तैनात किया
> राजा किशनसिंह राठौड़ :- ये किशनगढ़ का पहला राजा था | इसे किशनगढ़ रियासत की फौज समेत मेवाड़ में तैनात किया |
> राजा सूरजमल तंवर :- ये पंजाब के नूरपुर का राजा था | ये १६१३ ई. में मेवाड़ पर हमला करने वाले राजा बासु का बेटा था |
> राजा जगतसिंह तंवर :- ये राजा बासु का दूसरा बेटा था | इसे जहाँगीर ने राजा का खिताब दिया था |
> बारहा का सैयद शिहाब :- मुगलों में सैयदों की फौज सबसे काबिल मानी जाती थी, इस खातिर इसे सैयदों की भारी जमात के साथ डबोक व देबारी के थाने पर तैनात किया, जो कि उदयपुर का प्रवेश द्वार था
> सैयद हाजी :- इसे ऊँठाळे में तैनात किया
> दोस्तबेग :- इसे कपासन के थाने पर तैनात किया
> ख्वाजा मुहसिन :- इसे भी दोस्तबेग के साथ कपासन के थाने पर तैनात किया
> सुलेमानबेग
> मीर हिसामुद्दीन
> अबुल फतह
> राजा विक्रमाजीत भदौरिया चौहान
> तरवियत खां
> सैयद अली (सलावत खां)
> रज़ाक बेग उज़बक
> मुहम्मद तकी मीरबख्शी
> नवाजिश खां
* खुर्रम (शाहजहाँ) ख़ुद हज़ारों मुगलों समेत उदयपुर में तैनात रहा | मारवाड़ नरेश राजा सूरसिंह ने खुर्रम को सलाह दी कि आप ऊँठाळा में पड़ाव डालें, लेकिन खुर्रम ने उदयपुर में ही तैनात रहना तय किया |
* इस फौज के अलावा जहाँगीर ने मालवा की फौज समेत सरदार खां, मिर्ज़ा अजीज कोका समेत बहुत से सिपहसालारों को मेवाड़ भेजा
* जहाँगीर के आदेश से गुजरात में तैनात मुगल फौज नीचे लिखे बादशाही सिपहसालारों की कमान में मेवाड़ भेजी गई :-
> फिरोज़ जंग (अब्दुल्ला खां) - ये १६०९ ई. से १६११ ई. तक मेवाड़ में ही था | ये भारी लश्कर के साथ मेवाड़ी पहाड़ों में चला गया, क्योंकि इसे मेवाड़ की पहाड़ियों के रास्ते पता थे |
> दिलावर खां काकड़ - इसे आंजणे में तैनात किया
> सज़ावार खां - इसे पानड़वे में तैनात किया | पानड़वा भीलों का इलाका था |
> ज़ाहिद :- इसे केवड़े में तैनात किया
> यारबेग
* जहाँगीर के आदेश से दक्षिण भारत में तैनात शहज़ादा परवेज़ हज़ारों की मुगल फौज व मध्य प्रदेश की बहुत सी फौज मिलाकर नीचे लिखे सिपहसालारों समेत मेवाड़ पहुंचा :-
> वीरसिंह देव बुंदेला :- इसने अबुल फज़ल का वध किया था | ये जहाँगीर का खास सिपहसालार था |
> मुहम्मद खां
> याकूब खां नियाज़ी
> हाजीबेग उज़बक
> गजनी खां जालौरी
> मिर्ज़ा मुराद सफ़वी
> अल्लाहयार कूका
> शिर्ज़ा खां
* कविराज श्यामलदास लिखते हैं "इन थानों में हर एक पर इतनी फौज रक्खी गई, कि एक-दूसरे की मदद का सहारा न देखे | जहांगीर अजमेर में बैठकर कुल हिन्दुस्तान की फौज को मेवाड़ के पहाड़ों में विदा कर चुका था"
* ऊपर जिन-जिन थानों के नाम लिखे गए हैं, वहां हर एक पर मुगल फौज के कब्ज़े से पहले मेवाड़ी राजपूतों ने अपने व शत्रु के लहू से धरती लाल कर दी, हज़ारों शत्रु मारे गए, लेकिन संख्या में ज्यादा होने के कारण समतल स्थान के हर थाने पर मुगलों का कब्ज़ा हुआ
* महाराणा अमरसिंह बहुत सी प्रजा को मेवाड़ के पहाड़ों में ले गए, लेकिन बहुत से लोग समतल इलाके छोड़कर पहाड़ों में नहीं गए, वे सभी मुगल फौज के अत्याचारों तले मारे गए, बहुत से बन्दी बना लिए गए, घर जला दिए गए, फ़सलें लूट ली गईं
* ये समस्त राजपूताने के इतिहास में शत्रु सेना की संख्या का सबसे बड़ा आंकड़ा था।
*फिर भी डेढ़ वर्ष तक २० हजार मेवाडी बहादुरों ने तकरीबन ४ लाख से अधिक फौजी दस्तों से छापामार संघर्ष जारी रखा।
* महाराणा अमरसिंह पिछले १७ वर्षों में मुगलों से १७ युद्ध लड़ चुके थे, इसलिए इनकी कुल फौज राजपूतों व भीलों को मिलाकर भी ७-८ हज़ार से ज्यादा नहीं बची थी |
(सोचने वाली बात है कि एक राजपूत के स्वाभिमान को झुकाने के लिए जहांगीर को पूरे मुल्क की फौज लानी पड़ी, आप और हम कल्पना नहीं कर सकते, कि वो योद्धा महाराणा अमरसिंह कितने रुतबे, साहस और स्वाभिमान से ओतप्रोत रहे होंगे)
* १६१५ ई. :- मेवाड़ के बन्दी नागरिकों की रक्षा की खातिर महाराणा अमरसिंह ने मुगलों से सन्धि कर ली | सन्धि के बाद चित्तौड़ पर महाराणा अमरसिंह का अधिकार हुआ |
१६१५ ई. से १६२० ई. :- महाराणा अमरसिंह संधि की ग्लानि से उदयपुर में एकान्तवास में रहे।
२६ जनवरी, १६२० ई. :- महाराणा अमरसिंह का देहान्त।
१६१५ ई. से १६२० ई. :- महाराणा अमरसिंह संधि की ग्लानि से उदयपुर में एकान्तवास में रहे।
२६ जनवरी, १६२० ई. :- महाराणा अमरसिंह का देहान्त।
जय महाराणा अमरसिंह जी मेवाड़
जय राजपुताना
जय एकलिंग जी
:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)