रानी सारन्धा बुंदेला
नमन करूँ भारत जननी को,जग में गौरव वाली है।
जिसकी गोद भरी रत्नों से,अनुपम छटा निराली है।।
टौंस, बेतवा, यमुना के संग,चम्बल सरि सोहै पानी।
चंदेलों के साथ चल रही, बुन्देलों की अमर कहानी।।
जगनिक की ललकार यही है,रामचरित- तुलसी की बानी।
गुप्त मैथिलीशरण राष्ट्र,कवि हैं स्वतंत्रता सेनानी।।
विंध्याचल के दर्प दलन की,ऋषि अगस्त की कथा पुरानी।
भायक भगत भरत की देखो,पछता रही कैकेयी रानी।।
पांच पांडवों की स्मृति में, पंचमढ़ी है सोह रही।
चित्रकूट में मां अनुसुइया,की महिमा मन मोह रही।।
खजुराहो की अमर कलाकृति,है रसवन्ती मधुशाला।
पन्ना हीरो से मण्डित है,पान आन का रखवाला।।
लुटा दिया सर्वस्व आन पर,वह सारन्धा रानी है।
चंचल लहरों में धसान की,जिगनी अमर निशानी है।।
उसके यश की गाथा अब भी,सबको याद जबानी है।
मातृभूमि की बलिवेदी पर,उसकी कीर्ति सुहानी है।।
जिसने अपने रक्त बिंदु से,कुल गौरव चमकाया था।
अपना सुख सौभाग्य लुटा कर,पति का मान बढ़ाया था।।
कांटो पर चलने का उसने,बीड़ा स्वयं उठाया था।
हंसकर आगे बढ़ना उन पर,मन को बहुत लुभाया था।।
कठिन दुखों के आने पर भी,हिम्मत कभी ना हारी थी।
सत्साहस रण कौशल के बल,पति की पाग संवारी थी।।
कण-कण से बुन्देलखण्ड के,गूंज रही है कुर्बानी।
वीर-भूमि बुन्देलखण्ड की,जग जाहिर है क्षत्राणी।।
आज लेखनी तू भी,चलकर क्षत्रियत्व सतीत्व देख।
उस पति परायणा सारन की,गाथा गुरुत्व की खींच रेख।।
अपनी क्षमता से सारन का,एक ऐसा चित्र बना दे तू।
जिसकी समता का दुनिया में,है अन्य नहीं बतला दे तू।
पति पर प्राण निछावर कर दे,ऐसी नारी मिल जावेंगी।।
नारी ने नर को मुक्त किया,यह कवि बाणी बतलावेंगीं।
सरि धसान के तट पर सुन्दर,दृढ़ दुर्ग एक था खड़ा हुआ।।
बुंदेला अनिरुद्ध सिंह के,यश का ध्वज था गड़ा हुआ।
उस युग में अपने भुजबल पर,विश्वास सभी को रहता था।
बुंदेली सेना के संग में,सरदार सदा वह बहता था।।
उसके साहस रण कौशल से,अरि-दल सारे भयभीत हुए।
नाम श्रवण कर शत्रु वर्ग के,मन-घर सारे रीत गए।।
सदा युद्ध में रत रहता था,नहीं शत्रु की दाल गली।
त्याग दिया सुख-भोग राज्य का,प्रजा भलाई आन मिली।।
अश्व पीठ पर घर उसका था,युद्ध भूमि क्रीड़ांगन था।
थे वन के कंद-मूल भोजन,"विजय"श्री को सब अर्पण था।।
युद्धानल की विभीषिका में,जब अनिरुद्ध मचलता होता।
तब रानी शीतला के उर में,भय का भूत भटकता होता।।
इस भय-भूत भगाने को ही,विनय मंत्र अपनाया था।
सब राजपाट को छोड़ छाड़,सन्यास मार्ग बतलाया था।।
पत्नी की मृदु मनुहारों से वह,कभी नहीं पथ-भ्रष्ट हुआ।
हास-विलास के आघातों से,तनिक ना उसको कष्ट हुआ।।
शीतल वाणी कहे शीतला-रानी सुनो जीवनाधार।
सुख की घड़ियां और जवानी,मनुज ना पाता बारम्बार।
बुंदेलो की धवल ध्वजा पर,तन मन धन सब कुछ वार दिया।।
मृग नयनी के मोह जाल को,छिन्न-भिन्न कर पार किया।
भयाक्रान्त पत्नी के सम्मुख,निशा निराशा विनसाता।
पौरुष को प्रत्यक्ष प्रकट कर,"विजय" पताका फहराता।।
होनी होकर ही रहती है,कोई इसे ना टाल सका।
होता कितना है भाग्य प्रबल,अनिरुद्ध इसे न संभाल सका।।
नियति नटी ने दृष्टि फेर कर,उसे पराजित बना दिया।
प्राण बचाकर घर में लाकर,क्षात्र-धर्म से गिरा दिया।।
गिरना कोई बात नहीं है,चलने वाले ही गिरते हैं।
उनको क्या जो पड़े पड़े,पर दोषारोपण करते हैं।।
आओ भाई-बहिन देख लो,भारत का आदर्श देख लो।
कहना करना एक बात है,सारन का उत्सर्ग देख लो।।
भाई के भगकर आने से,अरि को पीठ दिखा आने से।
सेना सभी गवां आने से,अस्त्र-शस्त्र छिनवा आने से।।
बुंदेल रक्त को पतित देख,सारन का पारा गरम हुआ।
रजपूती धर्म निभाने को,था स्वाभिमान का मरम हुआ।।
फिर हृदय सिंधु में ज्वार उठा,आनन पर दामिनि सी दमकी।
सिंघनी सदृश गर्जन करके,स्नेह-भरी निकली धमकी।।
हे वीर! आज तुमने कुल की,सब शान-आन धो डाली है।
जो हुआ न था अब तक कुल में,वह ऐसी करनी कर डाली है।।
अच्छा होता रण क्षेत्र मध्य,यदि वीर-गति को पा जाते।
यह कलंक कुल पर लगने से,मेरे अरमान न जा पाते।।
सुनकर ऐसे वचन बहिन के,उसका होश ठिकाने आया।
अरि से अपमान चुकाने को,वह घमासान मचाने आया।
निर्भय होकर लड़ा शत्रु से,बुंदेलो की शान बढ़ाई।
रक्त बहाकर अपयश धोया,फिर से जय की ज्योति जलाई।।
इधर ननद की बातों से थी,भावज को झल्लाहट आई।
कहा तुम्हारा पति होता, तो होती अकुलाहट बाई।।
पति का प्रेम समझ पाना,है नहीं कुमारी के वश की।
जिस दिन साथी के संग होगी,याद न होगी अपयश की।
आंचल में छिपाती घूमोगी,यह बात गांठ में रख लेना।।
कथनी-करनी में क्या अन्तर,इसको भी जरा परख लेना।
तब देवी सारन सहज भाव से,बोली यों मुसका करके।
मेरा पति होता ऐसा यदि,तो छुरा भोंकती धाकर के।
क्षात्र-धर्म के पालन में,है क्षत्राणी का पंथ निराला।।
रण में पति केसरिया बाना,घर में जौहर की ज्वाला।
याद नहीं क्या आती तुमको,गौरव गाथा रजपूतानी।
पीठ दिखाकर पति जब आता,लज्जित होती थी क्षत्रानी।।
गर्व वही करती थी पति पर,लड़ते हुए वीरगति पाता।
मृत्यु मिले या "विजय" मिले,पथ राजपूत को मन भाता।।
चलो कुमारी सारन्धा के,दर्शन कर जीवन सुफल करें।
पाकर अकलुष सौंदर्य सलिल,मन-पट को धोकर धवल करें।।
है जितना रूप मनोहर उसका,उससे भी मंजुल मन है।
है आन उसे बस प्यारी,जो उसका जीवन धन है।
खोडश वर्षीया सारन की,आकृति है भोली भाली।
यौवन का रंग सुशोभित,साड़ी है लज्जा वाली।।
सिर पर है उसके सुंदर,काली नागिन सी वेणी।
है नाग सोभती जैसे,नभ में सुरसरि तम रैणी।।
मंजुल मयंक सम आनन पर,पलकें है पर्दा वाली।
संजन सम आंखों की छवि,है चिन्ता हरने वाली।।
नासिका सुए सी लसती,नक बेसर छटा दिखाती।
लख दन्त पंक्ति की सुषमा,चंचला स्वयं शरमाती।
लालिमा सरस अधरों की,है अमृत रस बरसाती।।
बिंबा फल से भी बढ़कर,कमनीय कान्ति छिटकाती।
छोटी सी चिबुक सुशोभित,है सुंदर काले तिल से।
सुर्खी श्रवणों की देती,संकेत शील बोझिल से।।
लज्जा संकोच शील-वश,है उसकी आंखें नीचे।
जैसे सावन में बदली,पर्वत की आंखें मीचे।।
कटिभार वहन करने से,यों लचक लूम जाती है।
ज्यों कमल कोष में ओस बिंदु,फिसल झूम जाती है।।
उस कदलि खम्भ सी शोभित,जो पार पद्म पर लसते।
उस रूप राशि को लखकर,है नयन लाभ सब लहते।।
प्रत्येक अंग की सुषमा,सांचे में ढली निराली।
कञ्चन सी देह-लता यों,ज्यों कल्पवृक्ष की डाली।।
वीर वंश बुंदेला घर में,शिवा रूप धरकर आई।
उसके अंतस में कुल की, मर्यादा एक थी समाई।।
कनक कमल कमनीय कांति की,ऐसी छटा छिटकती जाती।
खोडश कला पूर्ण राशि से ही,जीवन सुधा बरसती जाती।।
सम्पूर्ण कलाएं बढ़ने से,प्रतिभाषित सभी दिशाएं थीं।
उसका पति वीर यशस्वी हो,यह उसकी शुभ आशाएं थीं।।
लज्जादि आवरण से लिपटी,हिरनी सभीत सी रहती है।
यह रूप कहीं बदनाम ना हो,इसलिए विरक्ति झलकती है।।
एक साथ थे उदय हुए,नक्षत्र सभी सारन्धा में।
बन गई दृष्टि का आकर्षण,जैसे अली रजनीगंधा में।
था सावधान अनिरुद्ध सिंह,वैरी का मान मिटाने को।।
एक दिवस विजयोत्सव में,शीतल गई याद दिलाने को।
हे नाथ ना होवे अब विलम्ब,सारन का ब्याह रचाने में।
हर काम समय से शुभ होता,विनसाता बात बढ़ाने में।।
जब सुनी प्रिया की ये बातें,भाई ने मन में ठान लिया।
शुभ घड़ी गनक से पूछ-ताछ,वर खोज में अपना ध्यान दिया।।
भाई के सतत परिश्रम से,परिणाम सुफल का क्षण आया।
ओरछा के राजा चम्पत से,सारन का परिणय रचवाया।।
चम्पत नरेश बलशाली अरु,कुल तिलक बुंदेला स्वामी थे।
फहराती विजय पताका थी,उनके ही सब अनुगामी थे।।
मंगल बेला के आने से,अनिरुद्ध हृदय में हरषाया।
निज भगिनी का कर दिया दान,फिर रत्न राशि को बरषाया।
वर के सम्मुख भाई ने,यह सादर विनय सुनाई है।।
मेरी यह छोटी बहिन आपकी,चेरी बनकर आई है।
कोमल सी घर उपवन में,सूनापन सदा मिटाती थी।
मुख से मधुर मनोहर बातें,बोल खेद बिनसाती थी।।
बड़े प्यार से अब तक हमने,है इसको पोषा पाला।
अब सौंप रहा हूं थाती यह,हो जिसके जीवन रखवाला।।
हो जाएं अगर इससे त्रुटियां,तो क्षमा करें मेरी विनती है।
है अबोध यह समझ ह्रदय में,दोषों की करे नहीं गिनती।
वधू वेश में सारन की,सुंदरता कही नहीं जाती।
मानो सुषमा सरस सदय में,दिव्य दर्श हो दरसाती।।
सिर पर सुहाग की रेख देख,कुछ ऐसा भाषित है होता।
मानो नीलम पर दिनकर का,हो प्रथम प्रकाश लसित होता।।
सुन्दर लिलार पर शोभित है,बिंदिया सुहाग की अति प्यारी।
मानो चन्दा पर पड़ती है,मंगल की शोभा रतनारी।
झीनी चूनर के पट से,मुख चन्द्रप्रभा यों छवि देती।।
जैसे सुरमई बदरिया में,बिजली अंगड़ाई हो लेती।
चम्पत-सारन की शोभा लख,होता पुलकित अनिरुद्ध सिंह।।
जैसे लक्ष्मी नारायण पा,हरषाता अनुपम क्षीर सिन्धु।
जैसे हिमगिरि पर शोभित हो,गिरिजा माता त्रिपुरारी।
वैसे ही राजा रानी से,ओरछा हुई थी उर हारी।
घर-घर में खुशियां छाई थी,सुख की शहनाई थी बजती।।
वधू रूप में सारन्धा की,चरचा थी सभी जगह चलती ।
नगरी सारन के आने से,बन गई दिव्य शोभा वाली।।
जैसे फणिधर के घर में,छाई हो मणि की उजियाली।
सारन संतुष्ट हुई मन में,इच्छानुसार वर पाया था।।
मन वचन कर्म से पति पद में,अपना ध्यान लगाया था।
अल्प समय की सेवा से ही,प्राणनाथ ने जान लिया।
यह रमणी रत्न अनोखा है,नत-शिर हो खुद को दान किया।।
दया माया ममता के साथ,मधुरिमा कर दी उसने भेंट।
ले अटूट विश्वास समर्पण,दिया अहम को मेट।।
तरुवर से जैसे लिपट लता,जीवन सुख पाती मधुर मधुर।
वैसे ही राजा संग रानी,हुलसित होती थी सिहर सिहर।।
उसके सुख का सौभाग्य तेज,त्रिभुवन में दिनकर सा छाया।
महाराज चम्पत के यश से,दिल्ली का शासक थर्राया।।
दिल्लीपति का दिल दहल गया,ओरछा नरेश को बुलवाया।
सम्मान किया जागीर दिया,मित्रता भाव फिर दर्शाया।।
राजा चम्पत विलासिता के,सागर में इतना डूब गए।
आन भुला पर वैभव में,निज स्वाभिमान से दूर हुए।।
खो दिया प्रतिष्ठा उसी भांति,दल-बदलू नेता सदृश हुए।
कुर्सी से चिपके रहे सदा,इस इच्छा से है विवश हुए।।
पद लोलुप भ्रष्टाचाररी है,दल की उनको है चाह नहीं।
अपना ही स्वारथ सधा रहे,मिट जाए देश परवाह नहीं।।
बहुरूपिये और फरेबी है,इनकी कोई पहचान नहीं।
क्षण-क्षण में रूप बदलते हैं,इनका कोई ईमान नहीं।।
दिल्ली में दासी दास सभी,सुख में सब के मन लीन हुए।
भूषण वस्त्रों की चकाचौंध से,नारियों के मन रंगीन हुए।।
नृत्यगान की सभा वहां,प्रतिदिन आयोजित होती थी।
चम्पत नरेश की सेवा भी,अति सुनियोजित होती थी।।
पग नूपुर की झनकारों से,झंकृत था दिल्ली राज महल।
सुख की शहनाई बजती थी,छाया सुंदर संगीत नवल।।
विलासिता के महा पंक में,नरपति चम्पत थे सने हुए।
सारा विवेक था नष्ट हुआ,इसलिए कुपंथी बने हुए।।
लेकिन इनके मध्य एक,कुल लक्ष्मी सारन रानी थी।
पति का गिरता सम्मान देख,उसके मन में हैरानी थी।।
इस महापतन से मुक्ति मिले,इसमें वह ध्यान लगाए थी।
बुंदेलो का हो यश ललाम,यह चिंता उसे सताए थी।।
दिल्ली के सुखमय जीवन से,रानी सारन्धा उदासीन।
चिंता की ज्वाला पर देवी,थी स्वर्ण कमल सी पदासीन।।
कुत्सित और अधम जीवन तज,क्षत्राणी भरती थी आहें।
मुख कमल म्लान हो गया और,मिट गई सभी उसकी चाहें।
मुरझाया मुख कमल देख,पूछा उदास क्यों रहती हो?
वह कौन हो वस्तु भाती है प्रिये,जिसके बिन व्याकुल रहती हो?
सारन ने हंसकर कहा नाथ,जिस जगह आप सुख पाते हैं।
उसमें मेरा है सुख-सुहाग,सद् ग्रंथ यही बतलाते हैं।।
पति के सुख में है छिपी हुई,नारी की सब अभिलाषाऐं।
पति बिन सूना संसार लगे,मिट जाती है सुख सुविधाएं।।
प्राणनाथ ने कहा प्रिये,फिर क्यों रहती हो मुरझाई?
सच-सच बतलाना प्रेमलता,कुम्हलाने की नौबत आई।
बिजली सी कौंध गई तन में,यों विनय सुनाई है पति को।।
क्रोध त्याग कर क्षमा करें,यह नहीं शोभती है धृति को।
आज्ञा से श्रीमान आपकी,कहते अंतस भर आया।।
रुंध गया कंठ रुक गई गिरा,नयनों में नीर झलक आया।
रानी बन ओरछा में आई,था मेरा अंतस हरषाया।।
अब दिल टूटा है जिल्लत में,चेरी का दरजा जब पाया।
ये रौनक दिल से है उतर गई,फूटी आंखों भी भली नहीं।।
उस जीवन से है मृत्यु भली,जिसमें स्वतंत्रता मिली नहीं।
पराधीन हो जीवन के सुख,लगते विष से हैं कड़ुए।।
जैसे सोने के पिंजरे में,सुख न मानते कभी सुए।
कलतक जिसके स्वागत में,सब शीश झुकाते थे अपना।।
वह खुद ही सेवा में आकर,अव शीश झुकाता है अपना।
कलतक जिसके नाम मात्र से,शहंशाह था भय खाता।
आज उसी की समता में है,अरि का मन भी ललचाता।।
आप सुशोभित है ऐसे,जैसे स्यारों में सिंह रहे।
है स्वाभिमान को ताक धरा,मेरे कष्टों को पूछ रहे।।
मुझको इसमें अपमान मिला,गौरव ने ठोकर खाई है।
है आश दीप स्नेह शून्य,इसलिए उदासी छाई है।।
मेरे शरीर में दौड़ रहा,बुंदेलो का है गर्म रक्त।
जो अपनी आन निभाते थे,कहलाते थे प्रजाभक्त।।
मेरे जीवन की साध रही इच्छा,मेरा पति गौरवशाली हो।
फहराती विजय पताका हो,कुल तिलक और बलशाली हो।।
अब आप बताएं रानी से,चेरी बनना क्या सुखमय है?
राजा से सेवक का दरजा,क्या कभी बना गौरवमय है?
शाही आमंत्रण पर जिस क्षण,चम्पत जी ने प्रस्थान किया।
बुंदेलो ने अनुशासन तज,मनमानी को ही ठान लिया।।
मनमाना शासन होने से,इस तरह प्रजा को कष्ट मिला।
जिस तरह भयंकर वर्षा से,है प्रलय काल का दृश्य मिला।
जिस तरह बाढ़ के आने से,धन जन सब स्वाहा होता है।।
इस तरह अराजक तत्वों से,विध्वंस भयावह होता है।
बुंदेले पथभ्रम में पढ़ कर,इस तरह कुराही बन बैठे।
एक दूसरे से लड़ने में,सारी ताकत तज बैठे।।
जैसे आपस की फूटन से,संविद(मिलीजुली)सरकारें खूब बनी।
कल जिनका शासन चलता था,वे शासित है यह धूम ठनी।
जब जब आपस में फूट पड़ी,परिणाम तबाही के आए ।।
परतंत्र और पद दलित हुए,शोषण अपमान सभी पाए।
सर्द लहू हो जाए गरम,ऐसी उर मे थी चाह लिए।।
इसलिए ओजमय वाणी से,था जगा दिया उत्साह लिए।
जननी जन्मभूमि की मन में,सोई यादें जाग पड़ी।।
हर एक भावकी चित्र सहित,झांकियों की मन में धाक पड़ी।
नयनों से नीर लगा बहने,हिचकियों का तांता था जारी।।
जैसे कोई शिशु माता तज,क्रंदन करता हो भारी।
कुछ क्षण चिंता में बीत गए,फिर ध्यान अचानक यों आया।।
जैसे खोया धन मिलने पर,मुख कमल हर्ष से विकसाया।
उल्लास सहित चम्पत जी ने,ये कहा ओरछा चलना है।।
उसकी उन्नति में अपना,तन मन धन अर्पण करना है।
सारन्धा यह आज्ञा सुनकर,मन ही मन मोद मनाती थी।।
प्रस्थान घडी ज्यो ज्यो आती,वह फूली नहीं समाती थी।।
ऐसी प्रसन्नता थी उसको,जैसी दरिद्र धन पाने पर।
नयनों से हर्ष झलकता यों,ज्यों पुलके यू जल पाने पर।।
सानन्द ओरछा आ पहुंचे,सारन ने मानो निधि पाई।
महाराज के शुभागमन से,ओरछा नगरी हरषाई।।
जो कुम्हलाई कीर्ति लता थी,फिर पौरुष से पनप रही थी।
विजय पताका नील गगन में,शत दामिनि सी दमक रही थी।।
चलती को गाड़ी कहते हैं,यह नियम विश्व का अटल रहा।
आहुति दे जो आदर्शों पर,उनका जीवन सफल रहा।।
इसलिए बुंदेली आन बान की,झलक एक दिखलाते हैं।
नारी नर की अक्षय शक्ति,यह घटना नई सुनाते हैं।।
अधिनायक बुंदेलखंड के,चम्पतराय धैर्य बलवाले।
ऐसी कीर्तिलता थी उनकी,जिनमें सुमन खिले छवि वाले।।
सुखद चांदनी चंद दिनों की,जाते देर नहीं लगती।
बिगड़े काम सभी बन जाते,कोई फिकर नहीं रहती।।
अपनी गति से समय जा रहा,नहीं प्रतीक्षा कभी करें।
कदम मिलाकर साथ चला जो,दाह दुख की बुझी रहे।।
चारु चन्द्रिका सा शोभित यश,अरि उडगण से लगते थे।
डींग मारने वाले रिपुगण,आकर पानी भरते थे।।
घड़ियां बीती दिन भी बीते,और महीने गुजर गए।।
क्रम से ऋतुएँ भी आईं,फिर नये रूप हैं उदित हुए।
सरद चांदनी बड़ी सुहावन,शिशिर शरीर कंपाता है।।
ऋतु हेमन्त हिमपात के द्वारा,सारी सुषमा विनसाता है।
फिर बसंत मदमस्त पवन से,मादकता सब में भरता है।।
थप्पड़ जड़ती लू जब चलती,श्रमसीकर तन से झरता है।
सूखा सलिल सरित सर का है,मेंढक छिपे गर्भ धरती में।।
कृषक मोर मन लगे गगन में,स्वाति बूंद चातक मस्ती में।
वर्षा अपने शुभागमन से,सबको नवजीवन देती है।।
रसहीन रसा को रस देकर,सब पंथ अगम कर देती है।
सब ओर धरा जलमय होकर,हरियाली ऐसी थी फैली।।
जैसे मिथ्या आडंबर से है,लुप्त हो गई सद्शैली।
देव दुंदुभी साधन गर्जन,नया निमंत्रण ले आया।।
बुंदेलो की आन बान का,क्या है रूप दिखाने आया।
शहंशाह शाहजहां इस समय,रोगों से थे ग्रसित हुए।।
उत सिंहासन पाने हित थे,शहजादे उछ्रंखलित हुए।
युवराज हुए दाराशिकोह उत,फिर शासन प्रबंध में ध्यान दिया।।
इत दाराशिकोह को करे पृथक,मिलकर षडयन्त्र विधान किया।
कैसे सिंहासन हाथ लगे,यह गुणा भाग करते आते।।
दक्षिण से सेनाएं लेकर,कूच कर दिए हरषाते।
बढ़ते बढ़ते चंबल तक,अपना अधिकार जमाया था।।
शाही सेना को देख वहां,फिर मन में सोच समाया था।
करते विचार मन में मुराद,कैसे मुराद पूरी होवे।।
उड़ गया होश रह गए दंग,बिन केवट नाव नदी होवे।
अब तक थे खड़े विचारों में,खामोश मोहिउद्दीन साथ।।
कर मौन भंग छेड़ा प्रसंग,चल दिए भाग्याधीन पाथ।
मग में पग पड़ते इधर-उधर,मानो कुछ करते याद भूत।।
खिल उठा अचानक यों आनन,मानो बंध्या को मिला पूत।
मधुर मंत्रणा में मन को,जलमग्न सरिस अवलंब मिला।।
इस विजय श्री के पाने में,चम्पत जी का खंभ मिला।
लिख संधि पत्र भेजा तुरंत,अब आप हमारे रक्षक हैं।।
उद्धार करें मेरा जनाब,अब कोई नहीं सहायक है।
चल दिया दूत तत्परता से,ओरछा मिलते देरी न लगी।।
महाराज को दिया पत्र,फिर उत्तर की थी फिकर लगी।
पढ़ते ही पत्र चढ़ी त्योरी,फिर शशोपंज में डूब गए।।
समाधान सारन से करने,अंत:पुर को कर कूच गए।
प्रत्युत्तर में सविनय हाथ जोड़,अशरण को शरण प्रदान करें।।
है यही हमारा क्षात्र धर्म,इसको ना तजें यह ध्यान रहे।
शरणागत को ठुकराना ही,है सबसे बड़ा अधर्म नाथ।
दाराशिकोह का मोह छोड़,इनके कर दे सुदृढ़ हाथ।।
उत्साह देख प्रिय रानी का,केवल इतना ही कह पाया।
शूलों का हार मिले हर दम,यह मार्ग मुझे है दिखलाया।।
फूलों से प्यार सभी करते,शुलों को मिलता उपालंभ।
यदि शूल न होते जीवन में,संघर्ष ना होता समारम्भ।
संघर्ष ना हो यदि जीवन में,तो शून्य भाग इसका प्रतिफल।।
संघर्ष वही जो औरो हित,नर करके पाता पद अविचल।
शरणागत की रक्षा में,संघर्ष हो रहा शुभारंभ।।
नियति नटी ने इधर किया,क्षण क्षण परिवर्तन समारंभ।
परहित लागि तजय निज जीवन,उनकी कौन करे समता।।
यह धरा धर्म से सधी हुई,इसके बिनु कौन हरे जड़ता।
मानव में मानवता पनपे,जीव भाग की मिटै विषमता।।
सत साहस कर्तव्यनिष्ठ हो,नित्य बढै सब की क्षमता।
जो लड़ा स्वत्व के लिए नहीं,वह मनुज रूप में केवल पशु।।
न्यायार्थ न जिसने दंड दिया,निज भाई को खो दिया सुयत्न।
अब उठती तलवार देख लो,जांचों बुंदेला पानी।।
चंबल की घाटी में बढ़कर,बाचो बुंदेली बानी।
महाराज चम्पत नरेश ने,सेना में ऐलान किया।।
शरणागत की रक्षा में है,वीरो का आह्वान किया।
अस्त्र शस्त्र सब धारण करके,शंख युद्ध का बजा दिया।।
रानी ने आरती उतारी,कर करवाल है थमा दिया।
केसरिया ध्वज देख बुंदेले,हर हर महादेव यह कहते।।
वीर बांकुरे रण मतवाले,भूखे सिंहों से लसते।
सेना लेकर अल्पकाल में,शहजादों से जाए मिले।।
उत्साह युद्ध का देख प्रबल,भय और पराजय भाग उठे।
कुछ क्षण में चंबल उतर पार,शाही सेना से युद्ध हुआ।।
कुछ हवा बही ऐसी उल्टी,पराभूत तम रुद्ध हुआ।
शहजादे भय से कम्पित थे,सब और निराशा छाई थी।।
विश्वास गया परिहास हुआ,यह बात बनी दुखदाई थी।
ढल चला दिवस उल्लास पूर्ण,दुख निशा निराशा ले आई।।
लोथों से परिपूर्ण भूमि,और रक्त नदी थी लहराई।
रुण्ड मुण्ड थे तैर रहे,जो मनि व्याल से लगते थे।।
कोई कराहता आह कोई,कोई पानी को कहते थे।
मेघों में दामिनि सी दमकी,झंझा झकोर चीत्कार हुआ।
शाही सेना पर जोरों से,था एक अचानक वार हुआ।
इस प्रबल आक्रमण से क्षण में,शाही सेना घबराए उठी।।
प्राण बचा रणक्षेत्र छोड़,नैराश्य गर्त में जाए पड़ी।
साधारण लोगों ने समझा,दैवी सहायता आई है।
शहजादों की मदद हेतु,विजया देवी खुद आई है।।
तत्क्षण सारन ने आकर,राजा को शीश झुकाया है।
प्रेमाश्रु बिंदुओं से पति को,अपना अर्घ्य चढ़ाया है।।
अब निशा निराशा दूर हुई,अरुणोदय सुख का आ पहुंचा।
चंबल की लहरें बोल उठी,सारन का मस्तक हो ऊंचा।
मस्तक ऊंचा है किसका,चम्बल की घाटी बतलाती।
उस युद्धभूमि की दैन्य दशा,इस समय न देखी है जाती।।
मानव कितना है पतित,कल्पना न इस की हो सकती।
है उसकी भूख बड़ी इतनी,जो हर विडंबना सह सकती।।
जिस युद्ध भूमि में कुछ पहले,मर्दों से मर्द जूझते थे।
कुछ समय बाद उस स्थल में,मुर्दों को मर्द लूटते थे।।
यह पशुता नर की आंखों से,देखने योग्य क्या हो सकती।
अन्याय स्वार्थ कर भला कभी,मानवता है अपना सकती।।
छीना झपटी में सैनिक गण,ऐसे दिखलाई थे देते।।
जैसे मरे ढोर पर घों घों,करके गिद्ध झुंड भिड़ते।
समर भूमि अवलोकन में,दृष्टि पड़ी राजा की उस पल।।
जहां पड़ा था घायल होकर,बली बहादुर खान सबल।
उस पर उसका प्यारा घोड़ा,दुम से मक्खी उड़ा रहा था।।
सांचे में था ढला अंग,वह अश्रु नयन से बहा रहा था।
उसकी स्वामि भक्ति को लखकर,राजा को अति हर्ष हुआ।।
श्रम सीकर सारे सूख गए,सद्भावों का उत्कर्ष हुआ।
इस प्रेमी पर कोई भी,हथियार न छोड़े हुक्म हुआ।।
इन ओज पूर्ण शब्दों से सबका,सभी कलुष है खत्म हुआ।
घोड़े को जीवित जो पकड़े,मुंह मांगा उसको दूं प्रतिफल।।
लग गया सैनिकों का मेला,पर चाल हुई सब की असफल।
कोलाहल सुनकर सारन भी,निज खेमे से बाहर आई।।
निर्भीक भाव से पहुंच वहां,घोड़े की गर्दन सहलाई।
उस स्वामि भक्त ने रानी के,आगे यों झुका दिया सिर को।।
ज्यों माँ को पा शिशु होवे खुश,और ढक ले आंचल में मुख को।
रानी ने हय की पकड़ रास,जैसे ही पैर बढ़ाया था।।
आज्ञाकारी सेवक जैसा,घोड़े ने भाव दिखाया था।
यह घोड़ा रत्न जड़ित मृग सा,इस कुल में आकर ठहर गया।।
आगे चलकर सर्वनाश का,कारण केवल धहर गया।
होनी होना है स्वयं सिद्ध,टाले टल कभी नहीं सकती।।
अनहोनी होती है जब भी,वह छाप कभी क्या मिट सकती।
यह जग जो सोने सा सुंदर,देता विश्राम सभी को है।।
लेकिन कुछ ऐसे वंचक हैं,करते जो क्लांत सभी को है।
नई-नई विपदाओं का जो,हरदम सृजन किया करते।।
इन सबसे मुक्ति दिलाने को,सज्जन है यजन किया करते।
हैं जलते हाथ उन्हीं के जो,औरो हित यजन किया करते।।
है बनी कसौटी उनको ही,जो खुद को शुद्ध किया करते।
होनी अनहोनी का अंतर,इस क्रम में अब दिखलाऊंगा।।
पौरुष होता है फलीभूत,यह मंत्र साथ समझाऊंगा।
विजया देवी ने आकर,औरंगजेब का तिलक किया।।
जय माला अर्पित की उसको,पथ भी निष्कंटक तिलक किया।
इस तरह "विजय" की बेला में,शहजादों की किस्मत जागी।।
सौभाग्य सूर्य के उगते ही,थी निशा निराशा भरमाया।
दुर्दिन असफलता मार्ग छोड़,सुख और सफलता थे हंसते।।
मधुर मधुर सपनों में डूबे,डगर डगर पथ थे धरते।
दारा शिकोह का भाग्य सूर्य,अस्ताचलगामी सा लगता।।
वह उदार गंभीर उदधि सा,नहीं आत्मबल था तजता।
दयावान श्रद्धेय पुरुष था,"सन्त"हृदय पाया उसने।
निर्भय कालचक्र ने उसके,बदल दिए सारे सुख सपने।।
असफलता ने बेड़ी डाली,दुर्दिन मृत्यु रूप में आई।
लेकिन उसने दानवीरता,अंतिम क्षण तक दिखलाई।।
भारत का वह रत्न अनोखा,ऐसे ही बर्बाद हुआ।
बदल गया इतिहास यहां से,शुरू नया अध्याय हुआ।।
आगरे पहुंचकर शहजादा,था आलमगीर प्रसन्न बड़ा।
सौभाग्य मोरछल करता था,सिंहासन था रिक्त पड़ा।।
खलबली मची शहजादों में,खुद शहंशाह भयभीत हुआ।
समुचित करके सब का प्रबंध,शासक बन सबका मीत हुआ।।
राजमुकुट को धारण कर,सिंहासन पर आसीन हुआ।
कुछ को धन से कुछ को पद से,फिर दण्डनीति मे लीन हुआ।।
शासन का भार ग्रहण करके,शाहजहां को बंदी बना दिया।
सेनापतियों सरदारों को,पहले जैसा ही बना दिया।।
पितृ प्रेम परिवार प्रेम,भाई का रिश्ता है कैसा।
राजमुकुट के सम्मुख इनको,गिनता नगण्य कुछ है ऐसा।।
राजा चंपत का दिल्ली में,सब भांति मान सम्मान किया।।
मनसबदारी के ओहदे से,जीवन सुखमय बना दिया।
साहित्य कला की सुंदरता,सब नष्ट हुई उस निर्भय से।।
स्मारक चकनाचूर हुए,कहरता के कहर पन से।
वह कहर सुन्नी मुसलमान था,आडम्बर का प्रबल विरोधी।।
अपनी जिद में आकर वह,हो जाता था अति ही क्रोधी।
क्रोधानल में जब होता वह,अविवेक भाव से भर जाता।।
सरमद जैसे संतों की वह,खाल तुरत था खिंचवाता।
ज़िद्दी कहना बादशाह को,सबके बस की बात नहीं।।
जिन महापुरुष की वाणी यह,उनमें कोई प्रतिवाद नहीं।
आत्मशक्ति से निभा लिया,अपना हठअपनी दंड नीति।।
औरंगजेब की राजनीति,की नीव रही थी धर्म नीति।
उसका अनुशासन अति कठोर,जिससे पाषाण सिहरते थे।।
जिस ओर भृकुटी तिरछी होती,पथ पर अंगार दहकते थे।
शनैः शनैः परिजन भी उससे, महसूस घुटन को करते थे।।
वाणी को बंद किए रहते,सब शांत भाव से सहते थे।
बनिनी होती है बात जभी,तब अनायास बन जाती है।।
जब वक्त बुरा आता है देखो,रस्सी नागिन बन जाती है।
राजा नल पर जब विपद पड़ी,निकला खूंटी ने शुघर हार।।
दुर्दिन में सबके जीवन की,बदला करती है सरस धार।
चंपत राय पुनः सेवक के,पद पर कार्य लगे करने।।
रानी सारन भी हो उदास,जीवन पथ पार लगी करने।
पलटी किस्मत थी राजा की,कुछ ऐसा खेल रचा विधि ने।।
खान साहब के घोड़े पर चढ़,छत्रसाल जी गए घूमने।
खान साहब ऐसे अवसर के,बस इंतजार में रहते थे।।
किस तरह हाथ घोड़ा आए,इस चिंता में वे घुलते थे।
घोड़े को लखकर खान साहब,पाने का यत्न लगे करने।।
सैनिकों को हुक्म दिया फौरन,फिर उत्सुक होकर लगे देखने।
सैनिकों ने जाकर झटपट ही,बालक से घोड़ा छीन लिया।।
बली बहादुर खां को फौरन,घोड़े पर आसीन किया।
इत छत्रसाल जी रोते-रोते,माता से जाकर हाल कहा।।
सारन्धा ने क्रोधित होकर,छत्रसाल का हाथ गहा।
क्रोधानल तन में फैल गई,हुंकार उठी सिंघनी सदृश।।
घोड़ा देने से पहले,दिखलाते कुल का धवल सुयत्न।
बुंदेले बालक से उसका,घोड़ा लेना है कठिन काम।।
तुम प्राण गवां कर दिखलाते, बुंदेल वेश का यश ललाम।
सारन ने कर में ले कृपाण,सैनिकों को ये आदेश दिया।।
प्राणों का सब मोह छोड़कर,मिटो आन पर घोष किया।
कुछ क्षण में रानी सारन्धा,थी पहुंच गई खाँ के घर पर।।
उत बली बहादुर पहले से ही,दरबार गए चढ़ घोड़े पर।।
सुंदर अश्वों पर चढ़े हुए,थे वीर बाकुरें सैनिक गण।
रानी ने खाँ को ललकारा,थर्राया दिल्ली का कण-कण।।
जो आज वीरता खान साहब,बालक से तुमने दिखलाई।
चंबल की घाटी पूछ रही,क्या वही सो गए थे भाई।।
रणक्षेत्र मध्य तलवारों से,वस्तुएं प्राप्त है की जाती।
छल कपट और वंचकता से,कायरता केवल दिखलाती।।
है दगाबाज वह दुनिया में,जिसका रहस्य सब खुल जाए।
ठग ले आंखों में धूल झोंक,वह सभा चतुर नर कहलाए।।
ठोकर खाकर ही जग में जन,जीवन को सफल बना पाते।
जो संभल न पाते ठोकर से,वह सिर्फ हाथ मल रह जाते।।
धोखा देना है नीच कर्म,इसलिए लोभ में पड़ना मत।
चाहे जितनी विपदाएं हों,सन्मार्ग कभी भी तजना मत।।
यह घोड़ा मेरा मुझको दें,इसमें है तेरा कुशल क्षेम।
अन्यथा बहेगी रुधिर धार,टूटेगा तेरा अश्व प्रेम।।
खाँ सहम गए सुन परुष वचन,फिर धीरे से यों बोल उठे।।
घोड़े के बदले जो मांगे,सब नजर करुं मत यों रूठे।
सिवा अश्व के और नहीं कुछ,तुमसे लेने आई है।।
सिर पर देखो कफन बांधकर,तुम्हें जताने आई है।।
इस बीच बुंदेला तलवारें,चपला सी चम चम चमक उठीं।
मुर्दनी छा गई वहां तुरत,शत्रुओं की छाती दरक उठी।।
कोलाहल सुन औरंगजेब,क्या हुआ देखने आ पहुंचे।
कैफियत देख कर बोल उठे,है पारा चढ़ा बहुत ऊंचे।।
रानी रोको बुंदेलो को,ये दिल्ली पति ने फरमाया।
यह घोड़ा तेरा है अवश्य,चंबल ने हमको बतलाया।।
इस घोड़े के लिए तुम्हें अब,कीमत बहुत चुकानी होगी।
राज-पाट जागीर सभी कुछ,इसपर तुम्हें लुटानी होगी।।
सिंघनी सदृश गर्जन करके,रानी ने सब स्वीकार किया।
घोड़े की है यह बात नहीं,है आन कि जिसपर वार दिया।।
वह व्यक्ति जी रहा मुर्दे सा,जो स्वाभिमान को बेंच चुका।
पराधीन जीवन पाकर भी,आगे जीने से नहीं रुका।।
जिसकी मर्यादा टूट जाए,और स्वाभिमान भी हो विनष्ट।
वह कायर है इस दुनिया में,मुख लखना उसका है अनिष्ट।।
चरण चूमती मंजिल उसके,जिसने केवल चलना सीखा।।
रहा बनाता हवामहल जोशीत, घाम वर्षा में भीगा।
करे देव का वही भरोसा,जो आलसवश कायर होता।।
प्रगति द्वार से दूर सदा रह,जीवन भर है दुख को ढोता।
सदा उद्यमी पाता लक्ष्मी,भाग्य सदा उसका होता।।
यदि प्रतिकूल समय भी आए,तो अनुकूल बना सोता।
कर्म प्रमुख या भाग्य प्रमुख,दोनों ही नर के हाथों में।।
दोनों के संबल से मानव,है सफल हुआ आघातों में।
घोड़े पर सब कुछ लुटा दिया,उस परमवीर क्षत्राणी ने।।
मर मिटो आन पर सिखा दिया,उसकी इस अमर कहानी ने।
हो विमुक्त मनसबदारी से,ऐसा महसूस किया मन में।।
स्वर्ण जाल से निकल पखेरू,जैसा पुलकित हो नील गगन में।
दिल्ली का करके परित्याग,फिर जन्मभूमि ओरछा आए।।
पर वैभव रहित सुशोभित यों,ज्यों मेघ रहित शशि उग आये।
सारन्धा के इस साहस से,दिल्ली पति का दिल दहल गया।।
मिट्टी में उसे मिलाने को,मन में निश्चय था अटल किया।
राजा चम्पत ने राजकार्य,सब भली भांति था गृहण किया।।
अपने विवेक और साहस से,वीरत्व भाव स्फुरण किया।
औरंगजेब ने चुने चुने,सरदारों को आदेश दिया।।
जैसे भी हो सके शेर के,गौरव का बुझ जाए दिया।
अगणित सेना हथियारों से,सज धज कर उमड़ पड़ी ऐसे।।
नभ में मेघ खंड रवि को,आच्छादित कर लेवे जैसे।
भीषण विनाश की लीला को,मानव ने गौरव माना है।।
भाई ने भाई पर अपनी,तलवार चलाना जाना है।
जो कल तक साथ निभाते थे,वे आज विपक्षी बने हुए।।
सब साथ निभाते बनी बनी,बिगड़ी में सब ही तने हुए।
रणचण्डी का आवाहन सुन,बुंदेले ऐसे निकल पड़े।।
केशरी कंदरा से निकले,लोहा लेने सब उमड़ पड़े।
सेना के इस रौद्र रूप को,महाराज ने जान लिया।।
रण मदिरा का उत्साहित हो,सबने मिलकर पान किया।
हर हर महादेव गर्जन से,अरि दल के छक्के छूट गए।।
सारी उमंग चंचलता तज,सब शोक सिंधु में डूब गए।
तेजोमय आनन से चंपत के,नेत्र अनल थे बरसाते।।
एक कर में नागिन सी कृपाण,दूसरे में ध्वज थे फहराते।
शत्रुओं की सेना पर बढ़कर,इस तरह क्रोध कर छा जाते।।
जैसे सर्पों के समूह को,पक्षिराज हों विनसाते।
वैरियों की घटती शक्ति देख,बुंदेले हर्ष मनाते थे।।
देश प्रेम का मधुर तराना,साथ-साथ सब गाते थे।
महाराज के रण कौशल से,उत्साह युद्ध का उमड़ पड़ा।।
वैरीदल का कर मान भंग,फिर विजय पताका दिया गड़ा।
इस रण में जीत बुंदेलो की,हो गई धैर्य,बल, साहस से।।
बल घटा पड़ गई थी दरार,जाना अरि ने अकुलाहट से।
सेनापतियों ने शहंशाह,औरंगजेब को बतलाया।।
इस शेर बबर का खुद शिकार,आकर कर ले जतलाया।
औरंगजेब था बड़ा चतुर,वापस लौटो आदेश दिया।।
महाराज चम्पत नरेश को,भ्रम में लाकर था डाल दिया।
वापसी देख वैरी दल की,राजा ने समझा अच्छा है।।
बुंदेलो से ललकार कहा,करना स्वदेश की रक्षा है।
लगातार के युद्धों से,थी जनता ऐसे अकुलाई।।
भीषण जल प्लावन से जैसे,सारी सुषमा ही अलसाई।
अल्प शांति के आने से,थी जनता ऐसे भरमाई।।
जैसे जनतंत्र प्रणाली में,शासन की गति हो शरमाई।
यह तम था भ्रम का बड़ा उग्र,जिसने विनाश दिखलाया था।।
इसकी ज्वाला की लपटों से,बुन्देलखण्ड झुलसाया था।
दिल्ली पति को यह खबर मिली,चम्पत अशक्त और रोगी हैं।।
आपस में उनके फूट भी है,और सबके सब सुख भोगी हैं।
ऐसे अवसर को शहंशाह,पाकर कैसे खो सकता था।।
चम्पत का मर्दन किए बिना,वह चैन कहां पा सकता था।
इसलिए ओरछा किला घिरा,शाही सेना के तोपों से।।
दिल्लीपति का दल दहल गया,नक्कारों की उन चोपों से।
प्यास बुझाने को तलवारें,जभी म्यान से निकल पड़ी।।
किलक कालिका कदम बढ़ा कर,रक्तपान को मचल पड़ी।
पांच-पांच आयुध मन भाए,कैसे बुंदेला सैनिक गण।।
लोहा लेने को वैरी से,मन ही मन कर डाला प्रण।
तन में तो तेजी थी अवश्य,मन निरुत्साह दिखलाता।।
दुखद निराशा तिमिर घना,सैनिकों में बढ़ता जाता था।
शाही तोपें गरज गरज कर,वीरों को ललकार रही थी।।
गर्जन कर बढ़ते बुंदेलो का,मौत चबेना चबा रही थी।
मुगलों की सेना का हल्ला,अल्लाह हू अकबर होता था।।
राजपूत सैनिकों के सम्मुख,अपशकुन बराबर होता था।
दुर्ग दुष्ट दस्युओं से दुर्गति,पाकर क्रंदन करता था।।
शाही तोपों की मारों से,जड़का भी रुदन उभरता था।
किले के अंदर ब्याप रही,दुःख चिंता और निराशा थी।।
राजा चम्पत अस्वस्थ हुए,फैली दुर्दशा दुराशा थी।
तीरों की संख्या दिन पर दिन,रणक्षेत्र मध्य घटती जाती।।
हथियार रसद भी नष्ट हो हुई,यह चिंता बढ़ती थी जाती।
रानी सारन इस समय बहुत,चिंतित उदास सी रहती थी।।
कैसे विपदा यह दूर टले,वह उपाय सोचा करती थी।
दयनीय दशा अबलाओं की,आंखों से देखी ना जाती।।
खुद निराहार रह करके भी,पति बच्चों की थी कुशल मनाती।
रानी सारन भी नारी थी,इसलिए दया रस भरा हुआ।।
पति के प्राणों की रक्षा का,था मोह उसे उत्पन्न हुआ।
वैरी की होती "विजय" देख,सारन का साहस कांप गया।।
इस समय शत्रु से लड़ने में,केवल विनाश था आंक लिया।
इस समय नीति यह कहती है,शठ से शठता करनी चहिए।।
जैसे जिस समय बहे वायु,वैसा बचाव होना चहिए।
सारन को प्राणों की ममता,सपने में नहीं सताती थी।।
वीरत्व भरा उसके उर में,बस "आन" उसे ही भाती थी।
बैरी से बचकर कुछ दिनों को,हम संग्रह शक्ति करें भरसक।।
राजा निरोग अरु स्वस्थ बने,तब मरने से होगी नहीं कसक।
भयभीत न थी वह मरने से,सिंघनी रूप क्षत्राणी थी।।
जीवन और मरण की बातें,सब प्रकार पहचानी थी।
मृत्यु सहेली बचपन से थी,उसको गले लगाया था।।
आन बचाने हेतु उसी ने,भाई को उकसाया था।
राजा चम्पत के संग में,उसने तलवार चलाई थी।।
भय और पराजय के तम को,जय ज्योति जला विनसाई थी।
अब उसके जीवन का सूरज,अस्ताचल गामी लगता था।।
वैरी की "विजय" ज्योत्सना से ही,उसका पथ तम मय होता था।
जिसके मुख्य मंडल की आभा,दुःख से भी नहीं मलीन हुई।।
बड़ी बड़ी विपदाओं की,ठोकर से कभी न क्षीण हुई।
जीवन में सबके एक सदृश,हैं दिवस न जाते बात सत्य।
उत्थान, पतन,अपकीर्ति, कीर्ति,विधि के बस में है जन्म मर्त्य।।
साहस समेटकर रानी ने,राजा को विनय सुनाई यह।
हम किला छोड़ प्रस्थान करें,कैसी योजना बनाई यह।।
प्रस्ताव कान में पड़ते ही,बिजली शरीर में दौड़ गई।
शैय्या से उठकर खड़े हुए,जीने की इच्छा गौड़ हुई।।
वीर भावना जाग उठी,था मोह प्रजा का घिर आया।
अबलाओ और अनाथों के,संग मरना मुझको है भाया।।
जीवन भर सुख दुख में जो,रह चुके हमारे साथी हैं।।
उनको छोड़े इस संकट में,यह सुई हृदय में नाथी है।
न्याय नहीं यह कहता है,कर जाएं पलायन चोरों सा।।
मर जाए प्रजा के संग में हम,गौरव होगा बलबीरो सा।
नतमस्तक होकर रानी ने,राजा के यह उद्गार सुने।।
क्या करूं सोचने लगी तुरत,जिससे स्वामी सिर नहीं धुने।
सहसा सारन ने हाथ जोड़,प्रस्ताव संधि का कह डाला।।
सहमति स्वामी की मिलने से,भावना उदधि फिर मथ डाला।
अरिगण अपनी विजय देख,क्यों संधि लगे हमसे करने।।
हे प्रभु!राह दिखला दो अब,जिससे अरि के टूटे सपने।
न्योछावर कर दूं उसको मैं,जो मेरीआंखों का तारा।।
वही भवँर से करे पार,मिट जाए कष्ट की यह धारा।
छत्रसाल से अपने मन की,स्थिति सारी कह डाली।।
अरि छुटकारा पाने की,योजना एक फिर रच डाली।
शर्त सन्धि की ऐसी हो,जिसमें गौरव अक्षुण्ण रहे।।
सांप मरे ना लाठी टूटे,ऐसा तेरा नैपुण्य रहे।
माता के मन की दशा देख,यों छत्रसाल थे सिहर गए।।
पावक में तपते लौह सरिस,अरि मनवाने को पिघल गए।
स्पर्श किए मां के पद पंकज,पिता को मन में नमन किया।।
आशीष लिया नतमस्तक हो,उल्लास सहित फिर गमन किया।
चलते चलते संकेत दिया,पूजन की बेला बतलाई।।
प्रत्युत्पन्नमति से उसकी,दुश्मन बुद्धि चकराई।
मुगलों के सेनानायक ने,जब छत्रसाल की बात सुनी ।।
मुख से स्वीकृति दे दी लेकिन,मन में अपने यह बात गुनी।
नई कौन सी बात हुई,यह मोड़ अचानक क्यों आया।।
निश्चित ही कोई है रहस्य,जो नया रूप धर कर आया।
उत छत्रसाल ने माता को,अपना निश्चित संकेत दिया।।
एक पत्र तीर में बांध तुरत,बाहर से भीतर फेंक दिया।
इत पूजन के लिए चली,रानी यह विनय सुनाती थी।।
हे प्रभु !आन रखना मेरी,यह मन में फिर दोहराती थी।
वह तीर थाल में आया जब,रानी ने वर सम पाया था।।
रख दिया थाल फिर पत्र पढ़ा,नयनों में हर्ष समाया था।
तदनन्तर विधिवत पूजा की,फिर लौट महल में वह आई।।
प्राणनाथ के सम्मुख जाकर, अरि की स्वीकृति दोहराई।
ले लिया पत्र चम्पत जी ने,मन ही मन उसको पढ़ डाला।।
रानी से पूछा बतलाओ,इसका क्या मूल्य चुका डाला।
आंखों में आंसू भरे हुए,आहों से हूक निकलती थी।।
इसकी कीमत बतलाने में,रानी की जीभ अटकती थी।
प्रत्युत्तर में नतमस्तक हो,इतना ही केवल कह पाया।।
दे दिया बहुत कुछ मैंने है,कहते ही अंतस भर आया।
चिंतित, विस्मित, स्तंभित हो,राजा ने पूछा बतलाओ।।
क्या दिया छुपाओ तनिक न तुम,मुझ पर भी प्रिये!तरस खाओ।
दे दिया हृदय का टुकड़ा है,था कुल का दीपक अति प्यारा।।
छत्र नाम सुनते यों तड़पा,ज्यों पंख हीन खग लख मारा।
स्मरण किया था इष्ट देव,किस तरह चले समझा बुझा।।
मध्य रात्रि में किला छोड़,प्रस्थान करे मन में सूझा।
जो सोच समझ कर कार्य करें,उनको सुख और सफलता है।।
बिना विचारे कार्य करें जो,उनको मिलती असफलता है।
कुछ गिने-चुने विश्वासपात्र,सैनिकों को सम्मुख बुलवाया।।
प्राणनाथ के लिए पालकी,अश्व स्वयं को मंगवाया।
कुछ वर्षों पहले एक रात्रि,ऐसी ही काली आई थी।।
भावज के चुपते वचनों की,अब याद शूल बन आई थी।
ऐसी भयावनी अंधियारी,था कुछ भी नजर नहीं आता।।
ऐसी निरवता छाई थी,सांसो का सफर नहीं भाता।
पहले वाली निशा आज फिर,नया रूप धरकर आई।।
सारन की करें परीक्षा चल,इसलिए कसौटी संग लाई।
पौरुष कष्टों में जगता ,सुख में प्रसुप्त सा रहता है।।
शुद्ध स्वर्ण पावक में जैसे,तपकर अधिक निखरता है।
दुख निशा अधिक ज्यों ज्यों बढ़ती,त्यों पुलक प्रात आता जाता।।
अतिक्रमण सदा है निंदनीय,यह मार्ग पतन को है जाता।
अति अशांति भैरव नर्तन,खुलेआम जब होता है।।
न्याय अन्याय विवेक शून्य जन,जीवन पशुवत् होता है।
शासन की सुदृढ़ श्रंखला ही,जन जीवन को सही सजा सकती।।
भ्रष्टाचारी अन्यायी में,सद्भाव वहीं उपजा सकती।
निशा सुंदरी कितनी सुंदर,सब का चित्त चुराती है।।
मीठे मीठे सपने देकर,सुख की नींद सुलाती है।
सारे पाप चुरा करके यह,अपने गले लगाती है।।
भेदभाव की भीति गिरा कर, सभी विषमता विनसाती है।
गुप्त मंत्रणा से रानी ने,दुर्ग द्वार खुलवाया था।।
अंतिम कर प्रणाम माँ भू को,नयन वारि भर आया था।
था अंधकार का पूर्ण राज्य,होता केवल उर कंपन था।।
श्वास और विश्वास बनी यों,ज्यों शोकातुर क्रंदन था।
राजा चम्पत भीषण ज्वर में,बिल्कुल अचेत थे पड़े हुए।।
सारन के उर में भावज के,वे वाक्य वाण थे गड़े हुए।
हे ईश! आज सारन्धा की,क्या बात बिगड़ने वाली है।
तू लाज बचा देना उसकी,जो"आन" पर मरने वाली है।।
आंचल छिपाती फिरती है,यह कैसी उलटी बात हुई।
समय बदलते ही देखो,किस्मत पलटी यह घात हुई।।
है समय बली जग जीवन में,अपमान मान यह देता है।
सज्जन दुर्जन का अंतर भी,सम विषम भाव बन दरसा देता है।।
सुख दुख में सज्जन की आकृति का,तनिक नहीं परिवर्तन होता।
चंचल चित्त सदा दुर्जन का,परिवर्तन क्षण क्षण में होता।।
सारन साहस की मूर्तिमान,अवतार दिखाई देती थी।
रिपु राहु केतु से बच निकले,शशि सरिस दिखाई देती थी।।
निज पथ पर पति को साथ लिए,थी शनैःशनैः बढ़ती जाती।
संकट की काली चादर भी,पीछे से हटती सी जाती।।
अनुमान यही था उन सब का,खतरे से बाहर आ पहुंचे।
सांपों की बांबी से बचकर,अब देव क्षेत्र में जा पहुंचे।।
यह देख देवता से शंका से,थे इधर उधर को झांक रहे।।
कैसा परिवर्तन आया है,सशरीर मनुज है आय रहे।
झटपट ही बैठी एक सभा,फिर निर्णय भी कर डाला यह।।
पहले इनका हो देवकरण,प्रस्ताव पास कर डाला यह।
कुछ चुने हुए विश्वासपात्र,थे दूत पधारे मृत्युलोक।।
वे सोच रहे थे मन ही मन,यह तो दिखते हैं पूज्य लोग।
अमरलोक का लोभ नहीं,यह तो अपवर्गी लगते हैं।।
सुख-दुख को है ये जीत चुके,सन्यास मार्ग पर चलते हैं।
श्रद्धा से नतमस्तक होकर,ऐसे वे अंतर्ध्यान हुए।।
जैसे संध्या में दिनकर के,अरमान सभी हों म्लान हुए।
उन दूतों ने जा देवलोक में,इंद्रदेव को बतलाया।।
वे वीतराग हैं सभी लोग,है सांख्य योग को अपनाया।
जीवन का अर्थ समझ लेना,हरेक के बस की बात नहीं।।
जो समझ गया यह गुड तत्व,है मौत से उसकी मात नहीं।
जीवन का अवसान उसे तो,शांति सिंधु सा लगता है।।
निर्भीक भाव से सहज रूप में,सरित सरिस मिल रहता है।
ऋतु ग्रीष्म आज निज यौवन की,अति रुप धूप दिखलाती थी।।
आंख मिलाने में उससे,हरेक दृष्टि सकुचाती थी।
नभ मंडल भय से कांप रहा,धरती का धैर्य विदीर्ण हुआ।।
जल हीन सरोवर से उरका,हर एक अंग था जीर्ण हुआ।
दश दिशिमें जलता दावानल,ज्यों ज्वालामुखी दहकता था।।
वन उपवन सब थे झुलस रहे,पत्ता तक नहीं खड़कता था।
मध्यान्ह काल का प्रखर सूर्य,बरसाता वन्हि भयानक था।।
कण कण भीषण चिनगारी वन,लगता प्राणों का ग्राहक था।
श्रम सीकर से थे सराबोर,यों बुंदेले पथ पर बढ़ते जाते।।
ज्यो त्रसित व्यक्ति के नयन,खोजने मरुस्थल में जल को जाते।
एक तपन दूसरे जलन,तीसरे थकन पवन सर्राती थी।
पथभ्रष्ट भ्रमित उद्विग्न सतत,उलझन झंझा फर्राती थी।
छाया का नाम न कोसों तक,रज कण जलकन से लगते थे।
कण्ठ सूखता पथिकों का,चातक सम जल को लखते थे।।
सारन्धा अपने पथ पर यों,थी सावधान बढ़ती जाती।
ज्यों मृगी शिकारी से बचकर,हो कुलांच भर्ती जाती।।
गहन निराशा की घड़ियों में,आश किरन ज्यों साहस दे।
घनघोर घटाओं में बिजली,ज्यों चमक चमक कर पावस दे।।
ज्यों श्रावण के तम में जुगनू,दे प्रकाश पथ दिखलाएं।
त्यों आशा संबल ले सारन,पथ पर अपने बढ़ती जाए।।
सलील खोजने हेतु दृष्टि थी,इत उत ऐसे चकराती।।
आने से पतंगे के जैसे,दीपक की आत्मा थर्राती।
सहसा सारन ने पीछे को,जैसे ही नजर घुमाई थी।।
आते सैनिक कुछ घोड़ों पर,यह लिखकर कुछ भरमाई थी।
सोचा शायद मम पुत्रों ने,करने सहायता इनको भेजा।।
इसलिए गौर से फिर देखा,तब रंग मिला उसको बेजा।
यह तो सैनिक है मुगलों के,जो हमें निगलने हैं आए।।
कर्तव्य भाव तय करते ही,मेघों सम घुमड़ निकट छाये।
कटि कसी बुंदेलो ने फौरन,फिर बदल पैंतरा ललकारा।।
दामिनि सी दमकी तलवारें,बह चली रुधिर की एक धारा।
ज्वर पीड़ित चम्पत जी ने जब,अस्त्रों की झंकार सुनी।।
पालकी का पर्दा पलट तुरंत,प्रत्यञ्चा कानों तक तानी।
कंप-कंपी हुई पद पद्मों में,कर वज्र मोम से पिघल गए।।
चक्कर आने से विजयश्री के,स्वप्न सभी थे विफल हुए।
जब तलक होश में आए वह,बुंदेलो ने जोहर दिखलाया।।
आहुति देकर बलवीरों ने,यश ध्वज नभ में फहराया।
अब सोच रहे थे चम्पत जी,यह लाश कहां तक ठोऊँगा।
किस तरह मुक्ति हो सुलभ हमें,उस पथ को ही मैं खोजूंगा।।
कुछ सोच समझकर सारन से,चम्पत जी ने संकेत किया।।
है यही समय कुछ करने का,असि लेने का आदेश दिया।
असि लेकर सारन ने फौरन,अपने उर पर रखनी चाही।।
ठहरो पहले कुछ बात सुनो,दो मुक्ति मुझे बस मनचाही।
इतना सुनते ही रानी का,सारा विवेक था शून्य हुआ।।
किंकर्तव्यविमूढ़ हुई पल,इससे जीवन अवमूल्य हुआ।
पतिव्रता पति हन्ता हो,यह विषम समस्या समुहाई।।
पति आज्ञा के संग सती धर्म,निभ जाए विनय है हरि राई।
हरि को जैसे ही याद किया,उर में आलोक हुआ न्यारा।।
पति आज्ञा पालन करने का,मिल गया सुगम अति पथ प्यारा।
फिर स्वप्नलोक से तत्क्षण ही,थी यथार्थ धरती पर आई।।
प्रियतम की दैन्य दशा देखी,अपने पर झुंझलाहट आई।
उलझन उतार कर फेंक तुरंत,प्रियतम पर बीथी वजराई।।
राहु केतु सी अरि टुकड़ी,ग्रस लेने हित थी संभल गई।
वह क्षण समीप था जब बढ़कर,वैरी बंधन में करें शरें।।
इत कर्तव्य निभाने में,इक पल की भी थी नहीं देर।
जो नारी पति के चरणों,अपना जीवन बलिदान करें।।
वह नारी अपने हाथों से,अपने सुहाग का दान करें।
इक आन दूसरे पति आज्ञा,फिर क्षत्रिय धर्म निभाना था।।
जीवन पथ कर ले साथ पार,यह मर्म उसे समझाना था।
सारन का देखो यह कृतित्व,किरपान स्वयं बतलाती हैं।।
लेखनी चित्र चित्रण करने में,कांप कांप रह जाती है।
दीपक पर शलभ निछावर हो,है प्रेम अमर यह बतलाता।।
पर दीपक की कंपती लव से,कठिन कर्म जीवन पाता।
सारन्धा अपने हाथों से,अपना सिंदूर मिटायेगी।।
मातृभूमि की बलिवेदी पर,जीवन धन पुष्प चढ़ाएगी।
जिस मन मंदिर में शोभित थी,उसके पति की प्रीति निराली।।
जिस पर गर्व टीका था उसका,और छिपी मधुरिम लाली।
कर दिया जिन चरणाम्बुज में,अपना मन मधुकर मतवाला।।
आज उसी हृदयारबिंदु को,छेद उठी मन में ज्वाला।
पति पर वार किया था जिस क्षण,कांपी धरती हिल उठा गगन।।
चेतन ही व्याकुल हुए नहीं,जड़ में भी होने लगा रुदन।
यह देख दृश्य रह गए दंग,मुख सूख गए थे मुगलों के।।
वे सोच रहे थे औरत है?अवरुद्ध गले थे हकलों के।
धीरे से सेनापति बोले,क्या हुक्म देवि ! इन दासों को।।
जीवित हों मम पुत्र अगर,सौपना उन्हें इन लाशों को।
जिस कृपाण से जीवन धन को,सुरपुर में था बसा दिया।।
उसी खड्ग से छेद स्वयं को,सती धर्म को निभा दिया।
ढल चला सूर्य अस्ताचल को,आंखों में झलक रही करुणा।।
वीरभूमि बुंदेलखंड में,व्याप्त हो गई थी अरुणा।
अखिल विश्व में दृष्टि डालकर,नहीं खोज सकते तुलना।।
सारन का जैसा है चरित्र,वैसे है कौन अन्य ललना?
निज आन मान मर्यादा का,पालन करके था दिखा दिया।।
जिस देश जाति में जन्म लिया,सर्वस्व उसी पर लुटा दिया।
कथन कर्म का किया समन्वय,सत् से सतीत्व था बचा लिया।।
है यथार्थ-आदर्श मनुज हित,अपना कर इसको सिखा दिया।
भारत है वह देश जहां,रमणी को सम्मान मिला।
नारी नर की सिर पगड़ी है, इसलिए रत्न सा मान मिला।।
मानवता का अंकुर रोपा,मानव में इससे मिला श्रेय।
है मिला त्याग में भोग,सुख से नारी सब की प्रेम।।
आहूति और समर्पण से ही,नारी जीवन आदर्श बना।
मनु को कर्तव्य निरत करने में,श्रद्धा का उत्कर्ष घना।।
पुरुषों में पौरुष जभी घटा,नारी ने नर में जगा दिया।
मां बहन रूप धर जागृत कर,तम गहन निराशा नसा दिया।।
स्नेह शून्य नर हुआ जभी,आशा का दीपक जला दिया।।
पत्नी बन पतित अवस्था से,उच्चासन पर भी बिठा दिया।
जब कभी कृपणता घिर आई,पुत्री बन उसे मिटाया है।।
काली दुर्गा सरस्वती,लक्ष्मी बन विश्व सजाया है।
नारी नर की है अक्षय शक्ति,जो सतत प्रेरणा देती है।।
हो जाए अगर पथभ्रष्ट कभी,अविरल प्रताड़ना देती है।
सारन साहस की प्रतिमा है,उर में उदारता निधि पाई।।
स्नेहमयी वाणी से उसने,जग की मापी गहराई।
है यही प्रार्थना ईश्वर से,सारन सी नारी फिर होवे।।
सती धर्म पालन की दीक्षा,। हर नारी सारन से लेवे।।
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अंधेरी रात के सन्नाटे में धसान नदी चट्टानों से टकराती हुई ऐसी सुहावनी मालूम होती थी जैसे घुमुर-घुमुर करती हुई चक्कियां. नदी के दाहिने तट पर एक टीला है. उस पर एक पुराना दुर्ग बना हुआ है जिसको जंगली वृक्षों ने घेर रखा है. टीले के पूर्व की ओर छोटा-सा गांव है. यह गढ़ी और गांव दोनों एक बुंदेला सरकार के कीर्ति-चिह्न हैं. शताब्दियां व्यतीत हो गयीं बुंदेलखंड में कितने ही राज्यों का उदय और अस्त हुआ मुसलमान आये और बुंदेला राजा उठे और गिरे-कोई गांव कोई इलाक़ा ऐसा न था जो इन दुरवस्थाओं से पीड़ित न हो मगर इस दुर्ग पर किसी शत्रु की विजय-पताका न लहरायी और इस गांव में किसी विद्रोह का भी पदार्पण. न हुआ. यह उसका सौभाग्य था.
अनिरुद्धसिंह वीर राजपूत था. वह ज़माना ही ऐसा था जब मनुष्यमात्र को अपने बाहुबल और पराक्रम ही का भरोसा था. एक ओर मुसलमान सेनाएं पैर जमाये खड़ी रहती थीं दूसरी ओर बलवान राजा अपने निर्बल भाइयों का गला घोंटने पर तत्पर रहते थे. अनिरुद्धसिंह के पास सवारों और पियादों का एक छोटा-सा मगर सजीव दल था. इससे वह अपने कुल और मर्यादा की रक्षा किया करता था. उसे कभी चैन से बैठना नसीब न होता था. तीन वर्ष पहले उसका विवाह शीतला देवी से हुआ था मगर अनिरुद्ध विहार के दिन और विलास की रातें पहाड़ों में काटता था और शीतला उसकी जान की ख़ैर मनाने में. वह कितनी बार पति से अनुरोध कर चुकी थी कितनी बार उसके पैरों पर गिर कर रोई थी कि तुम मेरी आंखों से दूर न हो मुझे हरिद्वार ले चलो मुझे तुम्हारे साथ वनवास अच्छा है यह वियोग अब नहीं सहा जाता. उसने प्यार से कहा जिद से कहा विनय की मगर अनिरुद्ध बुंदेला था. शीतला अपने किसी हथियार से उसे परास्त न कर सकी.
अंधेरी रात थी. सारी दुनिया सोती थी तारे आकाश में जागते थे. शीतला देवी पलंग पर पड़ी करवटें बदल रही थीं और उसकी ननद सारन्धा फ़र्श पर बैठी मधुर स्वर से गाती थी…
बिनु रघुवीर कटत नहिं रैन
शीतला ने कहा-जी न जलाओ. क्या तुम्हें भी नींद नहीं आती
सारन्धा-तुम्हें लोरी सुना रही हूं.
शीतला-मेरी आंखों से तो नींद लोप हो गयी.
सारन्धा-किसी को ढूंढ़ने गयी होगी.
इतने में द्वार खुला और एक गठे हुए बदन के रूपवान पुरुष ने भीतर प्रवेश किया. वह अनिरुद्ध था. उसके कपड़े भीगे हुए थे और बदन पर कोई हथियार न था. शीतला चारपाई से उतर कर ज़मीन पर बैठ गयी.
सारन्धा ने पूछा-भैया यह कपड़े भीगे क्यों हैं?
अनिरुद्ध-नदी तैर कर आया हूं.
सारन्धा-हथियार क्या हुए
अनिरुद्ध-छिन गये.
सारन्धा-और साथ के आदमी
अनिरुद्ध-सबने वीर-गति पायी.
शीतला ने दबी ज़बान से कहा-ईश्वर ने ही कुशल किया. मगर सारन्धा के तीवरों पर बल पड़ गये और मुखमण्डल गर्व से सतेज हो गया. बोली-भैया तुमने कुल की मर्यादा खो दी. ऐसा कभी न हुआ था. सारन्धा भाई पर जान देती थी. उसके मुंह से यह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और खेद से विकल हो गया. वह वीराग्नि जिसे क्षणभर के लिए अनुराग ने दबा लिया था फिर ज्वलंत हो गयी. वह उलटे पांव लौटा और यह कह कर बाहर चला गया कि सारन्धा तुमने मुझे सदैव के लिए सचेत कर दिया. यह बात मुझे कभी न भूलेगी.
अंधेरी रात थी. आकाश-मण्डल में तारों का प्रकाश बहुत धुंधला था. अनिरुद्ध क़िले से बाहर निकला.
पलभर में नदी के उस पार जा पहुंचा और फिर अन्धकार में लुप्त हो गया. शीतला उसके पीछे-पीछे किले की दीवारों तक आयी मगर जब अनिरुद्ध छलांग मार कर बाहर कूद पड़ा तो वह विरहिणी चट्टान पर बैठ कर रोने लगी.
इतने में सारन्धा भी वहीं आ पहुंची. शीतला ने नागिन की तरह बल खा कर कहा-मर्यादा इतनी प्यारी है?
सारन्धा-हां.
शीतला-अपना पति होता तो हृदय में छिपा लेती.
सारन्धा-ना छाती में छुरा चुभा देती.
शीतला ने ऐंठकर कहा-चोली में छिपाती फिरोगी मेरी बात गिरह में बांध लो.
सारन्धा-जिस दिन ऐसा होगा मैं भी अपना वचन पूरा कर दिखाऊंगी.
इस घटना के तीन महीने पीछे अनिरुद्ध महरौनी को जीत करके लौटा और साल भर पीछे सारन्धा का विवाह ओरछा के राजा चम्पतराय से हो गया मगर उस दिन की बातें दोनों महिलाओं के हृदय-स्थल में कांटे की तरह खटकती रहीं.
राजा चम्पतराय बड़े प्रतिभाशाली पुरुष थे. सारी बुन्देला जाति उनके नाम पर जान देती थी और उनके प्रभुत्व को मानती थी. गद्दी पर बैठते ही उन्होंने मुग़ल बादशाहों को कर देना बन्द कर दिया और वे अपने बाहुबल से राज्य-विस्तार करने लगे. मुग़लों की सेनाएं बार-बार उन पर हमले करती थीं पर हार कर लौट जाती थीं.
यही समय था कि जब अनिरुद्ध ने सारन्धा का चम्पतराय से विवाह कर दिया. सारन्धा ने मुंहमांगी मुराद पायी. उसकी यह अभिलाषा कि मेरा पति बुन्देला जाति का कुल-तिलक हो पूरी हुई. यद्यपि राजा के रनिवास में पांच रानियां थीं मगर उन्हें शीघ्र ही मालूम हो गया कि वह देवी जो हृदय में मेरी पूजा करती है सारन्धा है.
परन्तु कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि चम्पतराय को मुग़ल बादशाह का आश्रित होना पड़ा. वे अपना राज्य अपने भाई पहाड़सिंह को सौंपकर देहली चले गये. यह शाहजहां के शासन-काल का अन्तिम भाग था. शाहज़ादा दारा शिकोह राजकीय कार्यों को संभालते थे. युवराज की आंखों में शील था और चित्त में उदारता. उन्होंने चम्पतराय की वीरता की कथाएं सुनी थीं इसलिए उनका बहुत आदर-सम्मान किया और कालपी की बहुमूल्य जागीर उनको भेंट की जिसकी आमदनी नौ लाख थी. यह पहला अवसर था कि चम्पतराय को आये-दिन के लड़ाई-झगड़े से निवृत्ति मिली और उसके साथ ही भोग-विलास का प्राबल्य हुआ. रात-दिन आमोद-प्रमोद की चर्चा रहने लगी. राजा विलास में डूबे रानियां जड़ाऊ गहनों पर रीझीं मगर सारन्धा इन दिनों बहुत उदास और संकुचित रहती-वह इन रहस्यों से दूर-दूर रहती ये नृत्य और गान की सभाएं उसे सूनी प्रतीत होतीं.
एक दिन चम्पतराय ने सारन्धा से कहा-सारन तुम उदास क्यों रहती हो मैं तुम्हें कभी हंसते नहीं देखता.
क्या मुझसे नाराज़ हो?
सारन्धा की आंखों में जल भर आया. बोली-स्वामीजी आप क्यों ऐसा विचार करते हैं जहां आप प्रसन्न हैं वहां मैं भी ख़ुश हूं.
चम्पतराय-मैं जब से यहां आया हूं मैंने तुम्हारे मुख-कमल पर कभी मनोहारिणी मुस्कराहट नहीं देखी.
तुमने कभी अपने हाथों से मुझे बीड़ा नहीं खिलाया. कभी मेरी पाग नहीं संवारी. कभी मेरे शरीर पर शस्त्र न सजाये. कहीं प्रेम-लता मुरझाने तो नहीं लगी सारन्धा-प्राणनाथ आप मुझसे ऐसी बात पूछते हैं जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है. यथार्थ में इन दिनों मेरा चित्त उदास रहता है. मैं बहुत चाहती हूं कि ख़ुश रहूं मगर बोझ-सा हृदय पर धरा रहता है.
चम्पतराय स्वयं आनन्द में मग्न थे. इसलिए उनके विचार में सारन्धा को असन्तुष्ट रहने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता था. वे भौंहें सिकोड़ कर बोले-मुझे तुम्हारे उदास रहने का कोई विशेष कारण नहीं मालूम होता. ओरछे में कौन-सा सुख था जो यहां नहीं है?
सारन्धा का चेहरा लाल हो गया. बोली-मैं कुछ कहूं आप नाराज़ तो न होंगे?
चम्पतराय-नहीं शौक़ से कहो.
सारन्धा-ओरछे में मैं एक राजा की रानी थी. यहां मैं एक जागीरदार की चेरी हूं. ओरछे में वह थी जो अवध में कौशल्या थीं यहां मैं बादशाह के एक सेवक की स्त्री हूं. जिस बादशाह के सामने आज आप आदर से सिर झुकाते हैं वह कल आपके नाम से कांपता था. रानी से चेरी हो कर भी प्रसन्नचित्त होना मेरे वश में नहीं है.
आपने यह पद और ये विलास की सामग्रियां बड़े महंगे दामों मोल ली हैं.
चम्पतराय के नेत्रों पर से एक पर्दा-सा हट गया. वे अब तक सारन्धा की आत्मिक उच्चता को न जानते थे.
जैसे बे-मां-बाप का बालक मां की चर्चा सुन कर रोने लगता है उसी तरह ओरछे की याद से चम्पतराय की आंखें सजल हो गयीं. उन्होंने आदरयुक्त अनुराग के साथ सारन्धा को हृदय से लगा लिया.
आज से उन्हें फिर उसी उजड़ी बस्ती की फ़िक्र हुई जहां से धन और कीर्ति की अभिलाषाएं खींच लाई थीं.
मां अपने खोये हुए बालक को पा कर निहाल हो जाती है. चम्पतराय के आने से बुन्देलखण्ड निहाल हो गया. ओरछे के भाग जागे. नौबतें बजने लगीं और फिर सारन्धा के कमल-नेत्रों में जातीय अभिमान का आभास दिखाई देने लगा!
यहां रहते-रहते महीनों बीत गये. इस बीच में शाहजहां बीमार पड़ा. पहले से ईर्ष्या की अग्नि दहक रही थी.
यह ख़बर सुनते ही ज्वाला प्रचण्ड हुई. संग्राम की तैयारियां होने लगीं. शाहज़ादे मुराद और मुहीउद्दीन अपने-अपने दल सजाकर दक्खिन से चले. वर्षा के दिन थे. उर्वरा भूमि रंग-बिरंग के रूप भर कर अपने सौन्दर्य को दिखाती थी.
मुराद और मुहीउद्दीन उमंगों से भरे हुए क़दम बढ़ाते चले आ रहे थे. यहां तक की धौलपुर के निकट चम्बल के तट पर आ पहुंचे परन्तु यहां उन्होंने बादशाही सेना को अपने शुभागमन के निमित्त तैयार पाया.
शाहज़ादे अब बड़ी चिंता में पड़े. सामने अगम्य नदी लहरें मार रही थी किसी योगी के त्याग के सदृश.
विवश हो कर चम्पतराय के पास संदेश भेजा कि ख़ुदा के लिए आ कर हमारी डूबती हुई नाव को पार लगाइये.
राजा ने भवन में जा कर सारन्धा से पूछा-इसका क्या उत्तर दूं?
सारन्धा-आपको मदद करनी होगी.
चम्पतराय-उनकी मदद करना दारा शिकोह से वैर लेना है.
सारन्धा-यह सत्य है परन्तु हाथ फैलाने की मर्यादा भी तो निभानी चाहिए चम्पतराय-प्रिये तुमने सोचकर जवाब नहीं दिया.
सारन्धा-प्राणनाथ मैं अच्छी तरह जानती हूं कि यह मार्ग कठिन है. और अब हमें अपने योद्धाओं का रक्त पानी के समान बहाना पड़ेगा परंतु हम अपना रक्त बहायेंगे और चम्बल की लहरों को लाल कर देंगे.
विश्वास रखिये कि जब तक नदी की धारा बहती रहेगी वह हमारे वीरों की कीर्तिगान करती रहेगी. जब तक बुन्देलों का एक भी नामलेवा रहेगा ये रक्त-बिन्दु उसके माथे पर केशर का तिलक बन कर चमकेंगे.
वायुमण्डल में मेघराज की सेनाएं उमड़ रही थीं. ओरछे के क़िले से बुन्देलों की एक काली घटा उठी और वेग के साथ चम्बल की तरफ चली. प्रत्येक सिपाही वीर-रस से झूम रहा था. सारन्धा ने दोनों राजकुमारों को गले से लगा लिया और राजा को पान का बीड़ा दे कर कहा-बुन्देलों की लाज अब तुम्हारे हाथ है.
आज उसका एक-एक अंग मुस्करा रहा है और हृदय हुलसित है. बुन्देलों की यह सेना देख कर शाहज़ादे फूले न समाये. राजा वहां की अंगुल-अंगुल भूमि से परिचित थे. उन्होंने बुन्देलों को तो एक आड़ में छिपा दिया और वे शाहज़ादों की फौज को सजा कर नदी के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर चले. दारा शिकोह को भ्रम हुआ कि शत्रु किसी अन्य घाट से नदी उतरना चाहता है. उन्होंने घाट पर से मोर्चे हटा लिये. घाट में बैठे हुए बुन्देले उसी ताक में थे. बाहर निकल पड़े और उन्होंने तुरन्त ही नदी में घोड़े डाल दिये. चम्पतराय ने शाहज़ादा दारा शिकोह को भुलावा देकर अपनी फौज घुमा दी और वह बुन्देलों के पीछे चलता हुआ उसे पार उतार लाया. इस कठिन चाल में सात घण्टों का विलम्ब हुआ परन्तु जा कर देखा तो सात सौ बुन्देलों की लाशें तड़प रही थीं.
राजा को देखते ही बुन्देलों की हिम्मत बंध गयी. शाहज़ादों की सेना ने भी अल्लाहो अकबर की ध्वनि के साथ धावा किया. बादशाही सेना में हलचल पड़ गयी. उनकी पंक्तियां छिन्न-भिन्न हो गयीं हाथोंहाथ लड़ाई होने लगी यहां तक कि शाम हो गयी. रणभूमि रुधिर से लाल हो गयी और आकाश में अंधेरा हो गया.
घमासान की मार हो रही थी. बादशाही सेना शाहज़ादों को दबाये आती थी. अकस्मात् पश्चिम से फिर बुन्देलों की एक लहर उठी और इस वेग से बादशाही सेना की पुश्त पर टकरायी कि उसके क़दम उखड़ गये.
जीता हुआ मैदान हाथ से निकल गया. लोगों को कुतूहल था कि यह दैवी सहायता कहां से आयी. सरल स्वभाव के लोगों की धारणा थी कि यह फ़तह के फ़रिश्ते हैं शाहज़ादों की मदद के लिए आये हैं परन्तु जब राजा चम्पतराय निकट गये तो सारन्धा ने घोड़े से उतर कर उनके पैरों पर सिर झुका दिया. राजा को असीम आनन्द हुआ. यह सारन्धा थी.
समर-भूमि का दृश्य इस समय अत्यन्त दुःखमय था. थोड़ी देर पहले जहां सजे हुए वीरों के दल थे वहां अब बेजान लाशें तड़प रही थीं. मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए अनादि काल से ही भाइयों की हत्या की है.
अब विजयी सेना लूट पर टूट पड़ी. पहले मर्द मर्दों से लड़ते थे. वह वीरता और पराक्रम का चित्र था यह नीचता और दुर्बलता की ग्लानिप्रद तसवीर थी. उस समय मनुष्य पशु बना हुआ था अब वह पशु से भी बढ़ गया था.
इस नोच-खसोट में लोगों को बादशाही सेना के सेनापति वली बहादुर ख़ां की लाश दिखायी दी. उसके निकट उसका घोड़ा खड़ा हुआ अपनी दुम से मक्खियां उड़ा रहा था. राजा को घोड़ों का शौक़ था. देखते ही वह उस पर मोहित हो गया. यह इराकी जाति का अति सुन्दर घोड़ा था. एक-एक अंग सांचे में ढला हुआ सिंह की-सी छाती चीते की-सी कमर उसका यह प्रेम और स्वामिभक्ति देखकर लोगों को बड़ा कुतूहल हुआ.
राजा ने हुक्म दिया-ख़बरदार! इस प्रेमी पर कोई हथियार न चलाये इसे जीता पकड़ लो यह मेरे अस्तबल की शोभा बढ़ायेगा. जो इसे मेरे पास ले आयेगा उसे धन से निहाल कर दूंगा.
योद्धागण चारों ओर से लपके परन्तु किसी को साहस न होता था कि उसके निकट जा सके. कोई चुमकार रहा था कोई फन्दे में फंसाने की फिक्र में था पर कोई उपाय सफल न होता था. वहां सिपाहियों का मेला-सा लगा हुआ था.
तब सारन्धा अपने खेमे से निकली और निर्भय होकर घोड़े के पास चली गयी. उसकी आंखों में प्रेम का प्रकाश था छल का नहीं. घोड़े ने सिर झुका दिया. रानी ने उसकी गर्दन पर हाथ रखा और वह उसकी पीठ सहलाने लगी. घोड़े ने उसके अंचल में मुंह छिपा लिया. रानी उसकी रास पकड़ कर खेमे की ओर चली.
घोड़ा इस तरह चुपचाप उसके पीछे चला मानो सदैव से उसका सेवक है.
पर बहुत अच्छा होता कि घोड़े ने सारन्धा से भी निष्ठुरता की होती. यह सुन्दर घोड़ा आगे चल कर इस राज-परिवार के निमित्त स्वर्णजटित मृग साबित हुआ.
संसार एक रण-क्षेत्र है. इस मैदान में उसी सेनापति को विजयलाभ होता है जो अवसर को पहचानता है. वह अवसर पर जितने उत्साह से आगे बढ़ता है उतने ही उत्साह से आपत्ति के समय पीछे हट जाता है. वह वीर पुरुष राष्ट्र का निर्माता होता है और इतिहास उसके नाम पर यश के फूलों की वर्षा करता है.
पर इस मैदान में कभी-कभी ऐसे सिपाही भी जाते हैं जो अवसर पर क़दम बढ़ाना जानते हैं लेकिन संकट में पीछे हटाना नहीं जानते. ये रणवीर पुरुष विजय को नीति की भेंट कर देते हैं. वे अपनी सेना का नाम मिटा देंगे किन्तु जहां एक बार पहुंच गये हैं वहां से क़दम पीछे न हटायेंगे. उनमें कोई विरला ही संसार-क्षेत्र में विजय प्राप्त करता है किंतु प्रायः उसकी हार विजय से भी अधिक गौरवात्मक होती है. अगर अनुभवशील सेनापति राष्ट्रों की नींव डालता है तो आन पर जान देनेवाला मुंह न मोड़नेवाला सिपाही राष्ट्र के भावों को उच्च करता है और उसके हृदय पर नैतिक गौरव को अंकित कर देता है. उसे इस कार्यक्षेत्र में चाहे सफलता न हो किन्तु जब किसी वाक्य या सभा में उसका नाम जबान पर आ जाता है श्रोतागण एक स्वर से उसके कीर्ति-गौरव को प्रतिध्वनित कर देते हैं. सारन्धा आन पर जान देनेवालों में थी.
शाहज़ादा मुहीउद्दीन चम्बल के किनारे से आगरे की ओर चला तो सौभाग्य उसके सिर पर मोर्छल हिलाता था. जब वह आगरे पहुंचा तो विजयदेवी ने उसके लिए सिंहासन सजा दिया!
औरंगजेब गुणज्ञ था. उसने बादशाही अफ़सरों के अपराध क्षमा कर दिये उनके राज्य-पद लौटा दिये और राजा चम्पतराय को उसके बहुमूल्य कृत्यों के उपलक्ष्य में बारह हजारी मनसब प्रदान किया. ओरक्षा से बनारस और बनारस से जमुना तक उसकी जागीर नियत की गयी. बुन्देला राजा फिर राज-सेवक बना वह फिर सुख-विलास में डूबा और रानी सारन्धा फिर पराधीनता के शोक से घुलने लगी.
वली बहादुर ख़ां बड़ा वाक्य-चतुर मनुष्य था. उसकी मृदुता ने शीघ्र ही उसे बादशाह आलमगीर का विश्वासपात्र बना दिया. उस पर राजसभा में सम्मान की दृष्टि पड़ने लगी.
ख़ां साहब के मन में अपने घोड़े के हाथ से निकल जाने का बड़ा शोक था. एक दिन कुंवर छत्रसाल उसी घोड़े पर सवार होकर सैर को गया था. वह ख़ां साहब के महल की तरफ़ जा निकला. वली बहादुर ऐसे ही अवसर की ताक में था. उसने तुरन्त अपने सेवकों को इशारा किया. राजकुमार अकेला क्या करता पांव-पांव घर आया और उसने सारन्धा से सब समाचार बयान किया. रानी का चेहरा तमतमा गया. बोली मुझे इसका शोक नहीं कि घोड़ा हाथ से गया शोक इसका है कि तू उसे खो कर जीता क्यों लौटा क्या तेरे शरीर में बुंदेलों का रक्त नहीं है घोड़ा न मिलता न सही किन्तु तुझे दिखा देना चाहिए था कि एक बुन्देला बालक से उसका घोड़ा छीन लेना हंसी नहीं है.
यह कह कर उसने अपने पच्चीस योद्धाओं को तैयार होने की आज्ञा दी. स्वयं अस्त्रा धारण किये और योद्धाओं के साथ वली बहादुर ख़ां के निवास-स्थान पर जा पहुंची. ख़ां साहब उसी घोड़े पर सवार हो कर दरबार चले गये थे सारन्धा दरबार की तरफ चली और एक क्षण में किसी वेगवती नदी के सदृश बादशाही दरबार के सामने जा पहुंची यह कैफ़ियत देखते ही दरबार में हलचल मच गयी. अधिकारी वर्ग इधर-उधर से आ कर जमा हो गये. आलमगीर भी सहन में निकल आये. लोग अपनी-अपनी तलवारें संभालने लगे और चारों तरफ़ शोर मच गया. कितने ही नेत्रों ने इसी दरबार में अमरसिंह की तलवार की चमक देखी थी. उन्हें वही घटना फिर याद आ गयी.
सारन्धा ने उच्च स्वर से कहा-ख़ां साहब बड़ी लज्जा की बात है आपने वही वीरता जो चम्बल के तट पर दिखानी चाहिए थी आज एक अबोध बालक के सम्मुख दिखायी है. क्या यह उचित था कि आप उससे घोड़ा छीन लेते?
वली बहादुर ख़ां की आंखों से अग्नि-ज्वाला निकल रही थी. वे कड़ी आवाज़ से बोले-किसी ग़ैर को क्या मजाल है कि मेरी चीज़ अपने काम में लाये?
रानी-वह आपकी चीज़ नहीं मेरी है. मैंने उसे रणभूमि में पाया है और उस पर मेरा अधिकार है. क्या रणनीति की इतनी मोटी बात भी आप नहीं जानते?
ख़ां साहब-वह घोड़ा मैं नहीं दे सकता उसके बदले में सारा अस्तबल आपकी नज़र है.
रानी-मैं अपना घोड़ा लूंगी.
ख़ां साहब-मैं उसके बराबर जवाहरात दे सकता हूं परन्तु घोड़ा नहीं दे सकता!
रानी-तो फिर इसका निश्चय तलवार से होगा बुन्देला योद्धाओं ने तलवारें सौंत लीं और निकट था कि दरबार की भूमि रक्त से प्लावित हो जाय बादशाह आलमगीर ने बीच में आ कर कहा-रानी साहबा आप सिपाहियों को रोकें. घोड़ा आपको मिल जाएगा परन्तु इसका मूल्य बहुत देना पड़ेगा.
रानी-मैं उसके लिए अपना सर्वस्व खोने को तैयार हूं.
बादशाह-जागीर और मनसब भी !
रानी-जागीर और मनसब कोई चीज़ नहीं.
बादशाह-अपना राज्य भी.
रानी-हां राज्य भी.
बादशाह-एक घोड़े के लिए.
रानी-नहीं उस पदार्थ के लिए जो संसार में सबसे अधिक मूल्यवान है.
बादशाह-वह क्या है?
रानी-अपनी आन.
इस भांति रानी ने अपने घोड़े के लिए अपनी विस्तृत जागीर उच्च राज और राज-सम्मान सब हाथ से खोया और केवल इतना ही नहीं भविष्य के लिए कांटे बोए इस घड़ी से अन्त दशा तक चम्पतराय को शान्ति न मिली.
राजा चम्पतराय ने फिर ओरछे के क़िले में पदार्पण किया. उन्हें मनसब और जागीर के हाथ से निकल जाने का अत्यन्त शोक हुआ किन्तु उन्होंने अपने मुंह से शिकायत का एक शब्द भी नहीं निकाला वे सारन्धा के स्वभाव को भली-भांति जानते थे. शिकायत इस समय उसके आत्म-गौरव पर कुठार का काम करती. कुछ दिन यहां शान्तिपूर्वक व्यतीत हुए लेकिन बादशाह सारन्धा की कठोर बात भूला न था. वह क्षमा करना जानता ही न था. ज्यों ही भाइयों की ओर से निश्चिन्त हुआ उसने एक बड़ी सेना चम्पतराय का गर्व चूर्ण करने के लिए भेजी और बाईस अनुभवशील सरदार इस मुहीम पर नियुक्त किये. शुभकरण बुन्देला बादशाह का सूबेदार था. वह चम्पतराय का बचपन का मित्र और सहपाठी था. उसने चम्पतराय को परास्त करने का बीड़ा उठाया. और भी कितने ही बुन्देला सरदार राजा से विमुख हो कर बादशाही सूबेदार से आ मिले. एक घोर संग्राम हुआ. भाइयों की तलवारें रक्त से लाल हुईं. यद्यपि इस समर में राजा को विजय प्राप्त हुई लेकिन उसकी शक्ति सदा के लिए क्षीण हो गयी. निकटवर्ती बुन्देला राजा जो चम्पतराय के बाहुबल थे बादशाह के कृपाकांक्षी बन बैठे. साथियों में कुछ तो काम आये कुछ दगा कर गये. यहां तक कि निज सम्बन्धियों ने भी आंखें चुरा लीं परन्तु इन कठिनाइयों में भी चम्पतराय ने हिम्मत नहीं हारी धीरज को न छोड़ा. उन्होंने ओरछा छोड़ दिया और वह तीन वर्ष तक बुंदेलखंड के सघन पर्वतों पर छिपे फिरते रहे.
बादशाही सेनाएं शिकारी जानवरों की भांति सारे देश में मंडरा रही थीं. आये-दिन राजा का किसी न किसी से सामना हो जाता था. सारन्धा सदैव उनके साथ रहती और उनका साहस बढ़ाया करती. बड़ी-बड़ी आपत्तियों में जब कि धैर्य लुप्त हो जाता और आशा साथ छोड़ देती-आत्मरक्षा का धर्म उसे संभाले रहता है.
तीन साल के बाद अंत में बादशाह के सूबेदारों ने आलमगीर को सूचना दी कि इस शेर का शिकार आपके सिवाय और किसी से न होगा. उत्तर आया कि सेना को हटा लो और घेरा उठा लो. राजा ने समझा संकट से निवृत्ति हुई पर वह बात शीघ्र ही भ्रमात्मक सिद्ध हो गयी.
तीन सप्ताह से बादशाही सेना ने ओरछा घेर रखा है. जिस तरह कठोर वचन हृदय को छेद डालते हैं उसी तरह तोपों के गोलों ने दीवारों को छेद डाला है. किले में 20 हजार आदमी घिरे हुए हैं लेकिन उनमें आधे से अधिक स्त्रियां और उनसे कुछ ही कम बालक हैं. मर्दों की संख्या दिनों दिन न्यून होती जाती है. आने-जाने के मार्ग चारों तरफ़ से बंद हैं. हवा का भी गुजर नहीं. रसद का सामान बहुत कम रह गया है. स्त्रियां पुरुषों और बालकों को जीवित रखने के लिए आप उपवास करती हैं. लोग बहुत हताश हो रहे हैं. औरतें सूर्य नारायण की ओर हाथ उठा-उठा कर शत्रु को कोसती हैं. बालकवृन्द मारे क्रोध के दीवार की आड़ से उन पर पत्थर फेंकते हैं जो मुश्क़िल से दीवार के उस पार जा पाते हैं. राजा चम्पतराय स्वयं ज्वर से पीड़ित हैं.
उन्होंने कई दिन से चारपाई नहीं छोड़ी. उन्हें देखकर लोगों को कुछ ढाढ़स होता था लेकिन उनकी बीमारी से सारे किले में नैराश्य छाया हुआ है.
राजा ने सारन्धा से कहा-आज शत्रु ज़रूर क़िले में घुस आयेंगे.
सारन्धा-ईश्वर न करे कि इन आंखों से वह दिन देखना पड़े.
राजा-मुझे बड़ी चिंता इन अनाथ स्त्रियों और बालकों की है. गेहूं के साथ यह घुन भी पिस जायेंगे.
सारन्धा-हम लोग यहां से निकल जायं तो कैसा रहेगा?
राजा-इन अनाथों को छोड़ कर?
सारन्धा-इस समय इन्हें छोड़ देने में ही कुशल है. हम न होंगे तो शत्रु इन पर कुछ दया ही करेंगे.
राजा-नहीं यह लोग मुझसे न छोड़े जाएंगे. मर्दों ने अपनी जान हमारी सेवा में अर्पण कर दी है उनकी स्त्रियों और बच्चों को मैं कदापि नहीं छोड़ सकता.
सारन्धा-लेकिन यहां रह कर हम उनकी कुछ मदद भी तो नहीं कर सकते.
राजा-उनके साथ प्राण तो दे सकते हैं. मैं उनकी रक्षा में अपनी जान लड़ा दूंगा. उनके लिए बादशाही सेना की खुशामद करूंगा कारावास की कठिनाइयां सहूंगा किन्तु इस संकट में उन्हें छोड़ नहीं सकता.
सारन्धा ने लज्जित हो कर सिर झुका लिया और सोचने लगी निस्संदेह प्रिय साथियों को आग की आंच में छोड़ कर अपनी जान बचाना घोर नीचता है! मैं ऐसी स्वार्थान्ध क्यों हो गयी हूं लेकिन एकाएक विचार उत्पन्न हुआ. बोली-यदि आपको विश्वास हो जाय कि इन आदमियों के साथ कोई अन्याय न किया जायगा तब तो आपको चलने में कोई बाधा न होगी.
राजा-(सोच कर) कौन विश्वास दिलायेगा.
सारन्धा-बादशाह के सेनापति का प्रतिज्ञा-पत्र.
राजा-हां तब मैं सानन्द चलूंगा.
सारन्धा विचार-सागर में डूबी. बादशाह के सेनापति से क्योंकर यह प्रतिज्ञा कराऊं कौन यह प्रस्ताव ले कर वहां जायगा और निर्दयी ऐसी प्रतिज्ञा करने ही क्यों लगे उन्हें तो अपनी विजय की पूरी आशा है. मेरे यहां ऐसा नीति-कुशल वाक्पटु चतुर कौन है जो इस दुस्तर कार्य को सिद्ध करे छत्रसाल चाहे तो कर सकता है.
उसमें ये सब गुण मौजूद हैं.
इस तरह मन में निश्चय करके रानी ने छत्रसाल को बुलाया. यह उसके चारों पुत्रों में बुद्धिमान और साहसी था. रानी उससे सबसे अधिक प्यार करती थीं. जब छत्रसाल ने आ कर रानी को प्रणाम किया तो उनके कमल-नेत्र सजल हो गये और हृदय से दीर्घ निःश्वास निकल गया.
छत्रसाल-माता मेरे लिए क्या आज्ञा है?
रानी-आज लड़ाई का क्या ढंग है?
छत्रसाल-हमारे पचास योद्धा अब तक काम आ चुके हैं.
रानी-बुन्देलों की लाज अब ईश्वर के हाथ है.
छत्रसाल-हम आज रात को छापा मारेंगे.
रानी ने संक्षेप में अपना प्रस्ताव छत्रसाल के सामने उपस्थित किया और कहा-यह काम किसे सौंपा जाए?
छत्रसाल-मुझको.
रानी-तुम इसे पूरा कर दिखाओगे?
छत्रसाल-हां मुझे पूर्ण विश्वास है.
अच्छा जाओ परमात्मा तुम्हारा मनोरथ पूरा करे.
छत्रसाल जब चला तो रानी ने उसे हृदय से लगा लिया और तब आकाश की ओर दोनों हाथ उठा कर कहा-दयानिधि मैंने अपना तरुण और होनहार पुत्र बुन्देलों की आन के आगे भेंट कर दिया. अब इस आन को निभाना तुम्हारा काम है. मैंने बड़ी मूल्यवान वस्तु अर्पित की है इसे स्वीकार करो.
दूसरे दिन प्रातःकाल सारन्धा स्नान करके थाल में पूजा की सामग्री लिए मन्दिर को चली. उसका चेहरा पीला पड़ गया था और आंखों तले अंधेरा छाया जाता था. वह मंदिर के द्वार पर पहुंची थी कि उसके थाल में बाहर से आ कर एक तीर गिरा. तीर की नोक पर एक कागज का पुरजा लिपटा हुआ था. सारन्धा ने थाल मंदिर के चबूतरे पर रख दिया और पुर्जे को खोलकर देखा तो आनन्द से चेहरा खिल गया लेकिन यह आनन्द क्षण-भर का था. हाय! इस पुर्जे के लिए मैंने अपना प्रिय पुत्र हाथ से खो दिया है. काग़ज़ के टुकड़े को इतने महंगे दामों किसने लिया होगा मन्दिर से लौटकर सारन्धा राजा चम्पतराय के पास गयी और बोली-प्राणनाथ आपने जो वचन दिया था उसे पूरा कीजिये. राजा ने चौंक कर पूछा तुमने अपना वादा पूरा कर दिया रानी ने वह प्रतिज्ञा-पत्र राजा को दे दिया. चम्पतराय ने उसे ग़ौर से देखा फिर बोले-अब मैं चलूंगा और ईश्वर ने चाहा तो एक बार फिर शत्रुओं की ख़बर लूंगा. लेकिन सारन सच बताओ इस पत्र के लिए क्या देना पड़ा है?
रानी ने कुंठित स्वर से कहा-बहुत कुछ.
राजा-सुनूं…
रानी-एक जवान पुत्र.
राजा को बाण-सा लग गया. पूछा-कौन अंगदराय?
रानी-नहीं.
राजा-रतनसाह?
रानी-नहीं.
राजा-छत्रसाल?
रानी-हां.
जैसे कोई पक्षी गोली खाकर परों को फड़फड़ाता है और तब बेदम हो कर गिर पड़ता है उसी भांति चम्पतराय पलंग से उछले और फिर अचेत होकर गिर पड़े. छत्रसाल उनका परम प्रिय पुत्र था. उनके भविष्य की सारी कामनाएं उसी पर अवलम्बित थीं. जब चेत हुआ तब बोले सारन तुमने बुरा किया.
अंधेरी रात थी. रानी सारन्धा घोड़े पर सवार चम्पतराय को पालकी में बैठाये क़िले के गुप्त मार्ग से निकली जाती थी. आज से बहुत काल पहले एक दिन ऐसी ही अंधेरी दुःखमयी रात्रि थी. तब सारन्धा ने शीतलादेवी को कुछ कठोर वचन कहे थे. शीतलादेवी ने उस समय जो भविष्यवाणी की थी वह आज पूरी हुई. क्या सारन्धा ने उसका जो उत्तर दिया था वह भी पूरा होकर रहेगा?
मध्याह्न था. सूर्यनारायण सिर पर आकर अग्नि की वर्षा कर रहे थे. शरीर को झुलसाने वाली प्रचण्ड प्रखर वायु वन और पर्वत में आग लगाती फिरती थी. ऐसा विदित होता था मानो अग्निदेव की समस्त सेना गरजती हुई चली आ रही है. गगनमण्डल इस भय से कांप रहा था. रानी सारन्धा घोड़े पर सवार चम्पतराय को लिये पश्चिम की तरफ़ चली जाती थी. ओरछा दस कोस पीछे छूट चुका था और प्रतिक्षण यह अनुमान स्थिर होता जाता था कि अब हम भय के क्षेत्र से बाहर निकल आये. राजा पालकी में अचेत पड़े हुए थे और कहार पसीने में सराबोर थे. पालकी के पीछे पांच सवार घोड़ा बढ़ाये चले आते थे प्यास के मारे सबका बुरा हाल था. तालू सूखा जाता था. किसी वृक्ष की छांह और कुएं की तलाश में आंखें चारों ओर दौड़ रही थीं.
अचानक सारन्धा ने पीछे की तरफ़ फिर कर देखा तो उसे सवारों का एक दल आता हुआ दिखायी दिया.
उसका माथा ठनका कि अब कुशल नहीं है. यह लोग अवश्य हमारे शत्रु हैं. फिर विचार हुआ कि शायद मेरे राजकुमार अपने आदमियों को लिये हमारी सहायता को आ रहे हैं. नैराश्य में भी आशा साथ नहीं छोड़ती.
कई मिनट तक वह इसी आशा और भय की अवस्था में रही. यहां तक कि वह दल निकट आ गया और सिपाहियों के वस्त्र साफ़ नज़र आने लगे. रानी ने एक ठण्डी सांस ली उसका शरीर तृणवत् कांपने लगा. यह बादशाही सेना के लोग थे.
सारन्धा ने कहारों से कहा-डोली रोक लो. बुन्देला सिपाहियों ने भी तलवारें खींच लीं. राजा की अवस्था बहुत शोचनीय थी किन्तु जैसे दबी हुई आग हवा लगते ही प्रदीप्त हो जाती है उसी प्रकार इस संकट का ज्ञान होते ही उनके जर्जर शरीर में वीरात्मा चमक उठी. वे पालकी का पर्दा उठा कर बाहर निकल आये. धनुष-बाण हाथ में ले लिया किन्तु वह धनुष जो उनके हाथ में इन्द्र का वज्र बन जाता था इस समय ज़रा भी न झुका. सिर में चक्कर आया पैर थर्राये और वे धरती पर गिर पड़े. भावी अमंगल की सूचना मिल गयी. उस पंखरहित पक्षी के सदृश जो सांप को अपनी तरफ़ आते देख कर ऊपर को उचकता और फिर गिर पड़ता है राजा चम्पतराय फिर संभल उठे और फिर गिर पड़े. सारन्धा ने उन्हें संभालकर बैठाया और रो कर बोलने की चेष्टा की परन्तु मुंह से केवल इतना निकला-प्राणनाथ! इसके आगे मुंह से एक शब्द भी न निकल सका.
आन पर मरने वाली सारन्धा इस समय साधारण स्त्रियों की भांति शक्तिहीन हो गयी लेकिन एक अंश तक यह निर्बलता स्त्रीजाति की शोभा है.
चम्पतराय बोले-सारन देखो हमारा एक वीर जमीन पर गिरा. शोक! जिस आपत्ति से यावज्जीवन डरता रहा उसने इस अन्तिम समय में आ घेरा. मेरी आंखों के सामने शत्रु तुम्हारे कोमल शरीर में हाथ लगायेंगे और मैं जगह से हिल भी न सकूंगा. हाय! मृत्यु तू कब आयेगी! यह कहते-कहते उन्हें एक विचार आया.
तलवार की तरफ़ हाथ बढ़ाया मगर हाथों में दम न था. तब सारन्धा से बोले-प्रिये तुमने कितने ही अवसरों पर मेरी आन निभायी है.
इतना सुनते ही सारन्धा के मुरझाये हुए मुख पर लाली दौड़ गयी. आंसू सूख गये. इस आशा में कि मैं पति के कुछ काम आ सकती हूं उसके हृदय में बल का संचार कर दिया. वह राजा की ओर विश्वासोत्पादक भाव से देख कर बोली-ईश्वर ने चाहा तो मरते दम तक निभाऊंगी.
रानी ने समझा राजा मुझे प्राण देने का संकेत कर रहे हैं.
चम्पतराय-तुमने मेरी बात कभी नहीं टाली.
सारन्धा-मरते दम तक न टालूंगी.
राजा-यह मेरी अन्तिम याचना है. इसे अस्वीकार न करना.
सारन्धा ने तलवार को निकाल कर अपने वक्षस्थल पर रख लिया और कहा-यह आपकी आज्ञा नहीं है. मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मरूं तो यह मस्तक आपके पद-कमलों पर हो.
चम्पतराय-तुमने मेरा मतलब नहीं समझा. क्या तुम मुझे इसलिए शत्रुओं के हाथ में छोड़ जाओगी कि मैं बेड़ियां पहने हुए दिल्ली की गलियों में निन्दा का पात्र बनूं?
रानी ने जिज्ञासा की दृष्टि से राजा को देखा. वह उनका मतलब न समझी.
राजा-मैं तुमसे एक वरदान मांगता हूं.
रानी-सहर्ष मांगिए.
राजा-यह मेरी अन्तिम प्रार्थना है. जो कुछ कहूंगा करोगी?
रानी-सिर के बल करूंगी.
राजा-देखो तुमने वचन दिया है. इनकार न करना.
रानी-(कांप कर) आपके कहने की देर है.
राजा-अपनी तलवार मेरी छाती में चुभा दो.
रानी के हृदय पर वज्रपात-सा हो गया. बोली-जीवननाथ! इसके आगे वह और कुछ न बोल सकी. आंखों में नैराश्य छा गया.
राजा-मैं बेड़ियां पहनने के लिए जीवित रहना नहीं चाहता.
रानी-मुझसे यह कैसे होगा?
पांचवां और अन्तिम सिपाही धरती पर गिरा. राजा ने झुंझला कर कहा-इसी जीवन पर आन निभाने का गर्व था?
बादशाह के सिपाही राजा की तरफ़ लपके. राजा ने नैराश्यपूर्ण भाव से रानी की ओर देखा. रानी क्षण भर अनिश्चित रूप से खड़ी रही लेकिन संकट में हमारी निश्चयात्मक शक्ति बलवान हो जाती है. निकट था कि सिपाही लोग राजा को पकड़ लें कि सारन्धा ने दामिनी की भांति लपक कर तलवार राजा के हृदय में चुभा दी.
प्रेम की नाव प्रेम के सागर में डूब गयी. राजा के हृदय से रुधिर की धारा निकल रही थी पर चेहरे पर शान्ति छाई हुई थी.
कैसा हृदय है! वह स्त्री जो अपने पति पर प्राण देती थी आज उसकी प्राणघातिका है! जिस हृदय से आलिंगित होकर उसने यौवनसुख लूटा जो हृदय उसकी अभिलाषाओं का केन्द्र था जो हृदय उसके अभिमान का पोषक था उसी हृदय को सारन्धा की तलवार छेद रही है. किसी स्त्री की तलवार से ऐसा काम हुआ है?
आह! आत्माभिमान का कैसा विषादमय अंत है. उदयपुर और मारवाड़ के इतिहास में भी आत्म-गौरव की ऐसी घटनाएं नहीं मिलतीं.
बादशाही सिपाही सारन्धा का यह साहस और धैर्य देखकर दंग रह गये.
सरदार ने आगे बढ़कर कहा रानी साहिबा ख़ुदा गवाह है हम सब आपके ग़ुलाम हैं. आपका जो हुक़्म हो उसे ब-सरो-चश्म बजा लायेंगे.
सारन्धा ने कहा-अगर हमारे पुत्रों में से कोई जीवित हो तो ये दोनों लाशें उसे सौंप देना.
यह कह कर उसने वही तलवार अपने हृदय में चुभा ली. जब वह अचेत हो कर धरती पर गिरी तो उसका सिर राजा चम्पतराय की छाती पर था.
लेखक: मुंशी प्रेमचंद
प्रस्तुत "रानी सारन्धा खण्डकाव्य" रानी सारन्धा के जीवन चरित्र से प्रेरित सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय"सन्त" जी के भावों और विचारों का स्फुटन है। वे इस चरित्र से इतना प्रभावित हुए कि उनके विचार शब्दों के रूप में प्रकट हो गए, और उन्होंने इसे अपने शब्दों में लिपिबद्ध किया।