Friday, March 26, 2021

1857 REVOLT IMMORTAL BABU SAHEB BANDHU SINGH SHRINET - IMMORTAL RAJPUTS

भड़ भवानी रो भगत, बंधू सिंह सुजाण।
फिरंगी माथा बाढ़ने, देतो जगदम्बा जल् पाण।।


१२ अगस्त १८५७ को गोरखपुर में अली नगर चौराहा पर अंग्रेज अधिकारी एक व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका कर मृत्युदण्ड की सजा दे रहे थे। लेकिन छः बार फांसी के फंदे पर झुलाने के बाद भी उस व्यक्ति की मृत्यु तो क्या, उसकी सांसों पर तनिक भी असर नहीं पड़ा। छः बार प्रयास करने के बाद भी फांसी की कार्यवाही में सफलता नहीं मिलने व दोषी पर फांसी के फंदे का कोई असर नहीं होने पर अंग्रेज अधिकारी जहाँ हतप्रद थे, वहीं स्थानीय जनता, जो वहां दर्शक के रूप में उपस्थित थी, समझ रही थी कि फांसी के फंदे पर झुलाया जाने वाला व्यक्ति देवी का भक्त है और जब तक देवी माँ नहीं चाहती, इसकी मृत्यु नहीं होगी और अंग्रेज फांसी की कार्यवाही में सफल नहीं हो सकेंगे।

आखिर फांसी के तख्त पर खड़े व्यक्ति ने आँखे बंद की और वह कुछ प्रार्थना करते नजर आया। जैसे ईश्वर या देवी माँ से आखिरी बार कोई प्रार्थना कर रहो हो। उसकी प्रार्थना के बाद अंग्रेज अधिकारीयों ने सातवीं बार उसे फांसी के फंदे पर लटकाया और उस व्यक्ति के प्राण पखेरू उड़ गए। स्थानीय लोगों का मानना है कि बंधू सिंह ने आखिर खुद देवी माँ से प्रार्थना कर उसके प्राण हरने का अनुरोध किया, तब सातवीं बार फंदे पर लटकाने के बाद उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु का दृश्य देख दर्शक के रूप में खड़ी भीड़ के चेहरों पर अचानक दुःख व मायूसी छा गई। भीड़ में छाई मायूसी और भीड़ के हर व्यक्ति के चेहरे पर दुःख और क्रोध के मिश्रित भाव देखकर लग रहा था, कि फांसी पर झूल रहा व्यक्ति उस भीड़ के लिए कोई आम व्यक्ति नहीं, खास व्यक्ति था।


जी हाँ ! वह खास व्यक्ति थे देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र गुरिल्ला युद्ध करने वाले, इस देश के महान स्वतंत्रता सेनानी, डूमरी रियासत के जागीरदार ठाकुर बाबू बंधू सिंह। बाबू साहेब बंधू सिंह (Babu Saheb Bandhu Singh Shrinet) तरकुलहा देवी के भक्त थे, वे जंगल में रहकर देवी की उपासना किया करते थे।



तरकुलहा देवी का मंदिर गोरखपुर से २० किलो मीटर दूर तथा चौरी-चौरा से ५ किलो मीटर दूर स्थित है। इस इलाके में कभी घना जंगल हुआ करता था। जंगल से होकर गुर्रा नदी गुजरती थी। इसी जंगल में डूमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह रहा करते थे। नदी के तट पर तरकुल (ताड़) के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित कर वह अपनी इष्ट देवी की उपासना किया करते थे। आज भी तरकुलहा देवी का यह मंदिर (Tarkulha Devi Temple) हिन्दू भक्तो की धार्मिक आस्था का प्रमुख स्थल हैं।

बाबू साहेब बंधू सिंह अंग्रेजी अत्याचारों व अंग्रेजों द्वारा देश को गुलाम बनाकर यहाँ की धन-सम्पदा को लूटने, भारतीय संस्कृति तहस-नहस करने की कहानियां बचपन से ही सुनते आ रहे थे। सो उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ बचपन से ही रोष भरा था। जब वे जंगल में देवी माँ की उपासना करते थे, तब जंगल के रास्तों से उन्होंने कई अंग्रेज सैनिकों को आते जाते देखा। वे मानते थे कि यह धरती उनकी माँ है और उधर से आते जाते अंग्रेज उन्हें ऐसे लगते जैसे वे उनके माँ के सीने को रोंदते हुए गुजर रहे है। इस सोच के चलते उनके मन में उबल रहा रोष क्रोधाग्नि में बदल गया और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध पद्दति, जिसमें वे माहिर थे, से युद्ध का श्री गणेश कर दिया। बाबू बंधू सिंह उधर से गुजरने वाले अंग्रेज सैनिकों पर छिप कर हमला करते व उनके सिर काट कर देवी माँ के मंदिर में बलि चढ़ा देते।



उस जंगल से आने जाने वाला कोई भी अंग्रेज सिपाही, जब अपने गंतव्य तक नहीं पहुंचा, तब अंग्रेज अधिकारीयों ने जंगल में अपने गुम हुये सिपाहियों की खोज शुरू की। अंग्रेजों द्वारा जंगल के चप्पे चप्पे की जाँच की गई तब उन्हें पता चला कि उनके सैनिक बाबू बंधू सिंह के शिकार बन रहे है। तब अंग्रेजों ने जंगल में उन्हें खोजना शुरू किया, लेकिन तब भी बंधू सिंह उन पर हमले कर आसानी से उनके हाथ से निकल जाते। आखिर मुखबिर की गुप्त सूचना के आधार पर एक दिन बाबू साहेब बंधू सिंह अंग्रेजी जाल में फंस गए और उन्हें कैद कर फांसी की सजा सुनाई गई।



बाबू साहेब बंधू सिंह का जन्म डूमरी रियासत के जागीरदार बाबू शिव प्रसाद सिंह के घर १ मई १८३३ को हुआ था। उनके दल हम्मन सिंह, तेज सिंह, फतेह सिंह, जनक सिंह और करिया सिंह नाम के पांच भाई थे। अंग्रेज सैनिकों के सिर काटकर देवी मंदिर में बलि चढाने के जूर्म में अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर १२ अगस्त १८५७ को गोरखपुर में अली नगर चौराहा पर सार्वजनिक रूप फांसी पर लटका दिया था।
बाबू बंधू सिंह द्वारा फांसी के फंदे पर झूलते हुए देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने के बाद स्थानीय जनता ने उनके द्वारा अंग्रेज सैनिकों की बलि देने की परम्परा को प्रतीकात्मक रूप से कायम रखने के लिए आज भी देवी मंदिर में बकरे की बलि देकर जीवित रखा है। बलि के दिन मंदिर प्रांगण में विशाल मेले का आयोजन होता है। तथा बलि दिए बकरे के मांस को मिट्टी के बरतनों में पका कर प्रसाद के रूप में बांटा जाता हैं साथ में बाटी भी दी जाती हैं।



बाबू साहेब बंधू सिंह के बलिदान स्थल पर उनकी याद को चिरस्थाई बनाने के लिए कृतज्ञ राष्ट्रवासियों ने एक स्मारक का निर्माण किया है। जहाँ देश की आजादी, अस्मितता के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले इस वीर को उनकी जयंती व बलिदान दिवस पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने वाला ताँता लगता है।


उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ जी ने १८ फरवरी २०१९ को सरदारनगर ब्लाक के ग्राम करमहा में शहीद बंधु सिंह डिग्री कालेज के भवन का लोकार्पण और अमर शहीद बाबू बंधु सिंह की प्रतिमा का अनावरण किया.

इस अवसर पर अपने सम्बोधन में मुख्यमंत्री ने कहा कि अंग्रेजों के लिए बाबू साहेब बंधु सिंह दहशत के पर्याय थे। वर्ष १८५७ के समर में गोरखपुर का नेतृत्व करते हुए बंधु सिंह ने अंग्रेजों के सामने जो चुनौती पैदा की उससे अंग्रेज अधिकारियों के छक्के छूट गये। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में बर्बर अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ मध्य व उत्तर भारत में भड़के सशक्त जन विद्रोही समर के नायक अंग्रेजी हुकूमत को हिला देने के लिए बाबू साहेब बंधु सिंह के संघर्ष की अनूठी शैली के कारण वह फिरंगियों में दहशत और भय का पर्याय बन गये थे। बाबू साहेब बंधु सिंह चौरी चौरा क्षेत्र डुमरी के निवासी थे।

मुख्यमंत्री ने कहा कि ऐसे महा पुरूषों को शिक्षण संस्थाओं में संचालित पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाया जाये ताकि उनके आदर्शों से प्रेरण मिल सके।



Whenever anyone think about 1857 revolt, the name of Meerut suddenly comes to mind and then the history of the Kali Paltan Temple of Meerut floats in a sequential manner. History records how many revolutionary activities were planned by sitting in the courtyard of Kali Paltan. But the Gorakhpur metropolis of Uttar Pradesh, about 700 km from Meerut, also has no less role in the revolution. The Tarkulaha Devi temple here and the story of Amarveer Babu Bandhu Singh Shrinet, the ultimate devotee of Mother, is immortal.

AmarVeer Babu Bandhu Singh a Srinet Rajput born on 1 May 1833 in a Zamindar family of Babu Shiv Prasad Singh of Dumari Riyasat.



He was a devotee of Tarkulha Devi. Tarkulha Devi temple used to be his favorite place to visit. He used to fight Britishers using guerrilla war-fare tactics. It is also said that he used to sacrifice British heads in Tarkulha Devi temple.

He was later arrested by Britishers and was hanged to death publicly at Ali Nagar Chauraha in Gorakhpur, Uttar Pradesh (then called United Provinces) on 12th August 1857. People say that 7 times the hangman was unable to hang him due to rope breaking every time by the grace of Tarkulha Devi. He could be successfully hanged only on the 8th attempt when Babu Bandhu Singh prayed to Mata Tarkulha Devi. Th is legend lived only 25 years. But he made it so large in his small lifespan, that one cannot make in 100 years.


Every year, a month long fun-fair is conducted at Tarkulha Devi Temple starting from Chaitra Ramnavami where people travel long distances to come and commemorate Amarveer Babu Bandhu Singh and enjoy the fair. This fair is called "Tarkulha Fair". Also, this temple is the only temple in the country where mutton is still given as offering as Babu Bandhu Singh, who started the tradition of offering the Severed head of the Britisher, is still continued here. Now instead of britisher heads the goat head is offered to goddess here, after which goat meat is cooked in earthen pots and distributed. Baati is also given along with it. The walls of the revolutionaries have Tilak on its walls and the courtyard is a witness to their many stories.



Those fake distorians who have the audacity to question Rajput contribution in freedom struggle against Britishers when Padmavat movie was released, need to read about these legend too(which they systematically tried to erase from history). Infact there is a very long list of Rajput Noble's who have sacrificed their everything not just lives for their nation.


Veer Bhogya Vasundhara!

VALIANT NANT RAM SINGH NEGI - IMMORTAL RAJPUTS

 


नन्तराम नेगी (नती राम नेगी) का जन्म सन 1725 में बेराट खाई, जौनसार परगना, देहरादून में हुआ था। मुगल सेना को धूल चटाने वाला अप्रतिम वीर, साहसी, देशभक्त और राजभक्त। देहरादून के सुदूर-पश्चिम में स्थित जौनसार- भाभर एक जनजातीय क्षेत्र है। भौतिक दृष्टि से पिछड़ा किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न, सादा व निश्छल सामाजिक जीवन का धनी, प्राकृतिक सौन्दर्य व पौराणिक परम्पराओं से युक्त यह क्षेत्र वीर—भूमि के रूप में भी प्रसिद्ध है।


रोहिला सरदार गुलाम कादिर खान मध्य हरिद्वार में खून की नदियाँ बहाता हुआ देहरादून पंहुचा। उसने देहरादून को तहस नहस करके गुरुद्वारा गुरु राम राय में गोऊ हत्या कर के गुरूद्वारे में आग लगा दी। देहरादून से वो नाहन सिरमौर,हिमांचल प्रदेश की ओर बड़ा। उसने पौंटा साहिब में डेरा डाल दिया। नाहन का राजा उस बड़ी फौज को देखकर घबरा गया। उस समय सिरमौर के राजा जगत प्रकाश जी थे। राजा के नाबालिक होने के कारण राज-काज उनकी माता देखती थी। उन्होंने घोषणा करवाई कि इस कठिन परिस्थिति में नाहन राज्य को कौन बचा सकता है? राज–दरबारियों ने राजमाता को सलाह दी कि वीर नन्तराम नेगी इस कार्य के लिए आगे आ सकता है।


नाहन के राजा ने तत्काल अपने सेनापति को बेराट खाई भेजा। दुर्गम पर्वतीय मार्ग से होता हुआ वह सेनापति नन्तराम के गढ़ बेराट खाई पहुँचा। सेनापति ने राजा का सन्देश उस नवयुवक को दिया। नन्तराम तुरन्त तैयार होकर नाहन की ओर चल दिया। राजा इस सुगठित नौजवान को देखकर प्रसन्न हुआ। उसने नन्तराम की परीक्षा लेने के लिए दरबार में एक भारी-भरकम तलवार मंगाई आर दरबार के बीच रखकर उसे उठाने का आदेश दिया। नन्तराम तलवार की ओर बढ़ा और उसने तुलवार को उठाकर बहुत सरलता से हवा में घुमा दिया। उसके इस सामर्थ्य को देखकर सारा दरबार नन्तराम की जय-जयकार से गूंज उठा। इसके बाद एक सैनिक टुकड़ी की बागडोर नन्तराम की सौंप दी गई। उसको लेकर नन्तराम यमुना के तट पर पहुंचा जहां मुगल सेना पड़ाव डाले हए थी। मुस्लिम सिपहसालार शक्ति के नशे में चूर थे। उन्हें यह कल्पना तक न थी कि कहीं कोई अवरोध भी हो सकता है। इधर नन्तराम ने पहुंचते ही आक्रमण प्रारम्भ कर दिया। मुगल हक्के-बक्के रह गये। अभी वे संभल भी न पाये थे कि पर्वतीय सैनिकों ने भारी मारकाट मचा दी। स्वयं नन्तराम बहादुरी से आगे बढ़ा और मुगल सेनापति के तम्बू में जा घुसा। मुगल शराब के नशे में डूबे थे। वे प्रतिकार के लिए तत्पर हो इसके पहले ही नन्तराम ने मुगल सेनापति का सिर धड़ से अलग कर दिया। सेनापति विहीन माल फौज भाग खड़ी हुई। अनेक सैनिक यमुना के तज बहाव में बह गये। मुगल सैनिको ने नेगी नती राम के साथ कोलर तक लड़ाई लड़ी जिस कारण नेगी नती राम व उनका घोड़ा बुरी तरह से घायल हो कर वापिसी में मारकनडे की चढाई में 14 फरवरी सन 1746 विक्रम सम्वत को वीरगती को प्राप्त हुए। तत्पश्चात माहराजा सिरमौर ने नेगी नती राम के परिवार वालो को गुल्दार की उपाधि से सम्मानित किया और बतौर ईनाम में कालसी तहसील जो अब उत्तराखंड में है की स्थाई वजीरी व ग्राम मलेथा उत्तराखंड और ग्राम मोहराड तथा सियासु हिमाचल प्रदेश दिया गया जिसकी कोई माल गुजारी न होती थी आज भी नेगी नती राम के वंशज ग्राम मोहराड तहसील शिलाई जिला सिरमौर हिमाचल प्रदेश व ग्राम मलेथा तहसील चकराता जिला देहरादून उत्तराखंड मे रहते है जिनको नेगी गुल्दार, चाक्करपूत व बेराठीया के उप नाम से जाना जाता है।


The Great Rajput warrior Nant Ram Singh Negi lived in mid. of the 17th Century. It was the Infamous reign of Mughal emperor Aurangzeb in Delhi. Mughal Army had come to capture Himalayan Hill states (Sirmaur onward) and settling camps at Paonta Sahib dun. Raja King of Sirmaur ( Capital- Nahan) was worried by this Large Mughal Army and he inquired for a person who can save Sirmaur. Courtiers of Raja advised him to call Nant Ram Singh Negi, who was a great warrior. Raja sent an invitation to the Nant Ram Singh Negi, which was accepted. Nant Ram Singh presented himself in a court of Nahan and demonstrated his strength and sword skills. Amazed by his skills king made him commander of a battalion, to lead an attack on Mughal army camps at Yamuna bank in Paonta dun.

Mughal army was expecting the surrender of Raja, but this unanticipated attack on their camps, left Mughals baffled. Before Mughals could retaliate; Nant Ram Singh Negi bravely entered the Mughal commander Camp killing all guards and chopped -off the head of the Mughal Commander. This caused huge panic in the Mughal army and forced the Mughal army of several thousand to retreat. The Rajput King of Nahan gracefully honoured the victorious warrior with Waziri of Kalsi Tehsil, called Both Waziri. He guarded boundaries of Jaunsar-Himachal till badshahi bagh. and didn’t let Mughals to enter in. This victory over Mughals was celebrated in all over sirmaur state 

Although because of the lack of historical texts, history books might not have mentioned valour of this warrior he still lives on in Harul songs of Hills

Wednesday, March 24, 2021

EXTRAORDINARY STORY OF INDIA'S BRAVEST HERO CAPTAIN UMMED SINGH MAHRA WHO AWARDED WITH ASHOK CHAKRA FOR EXCEPTIONAL BRAVERY IN OPERATION ORCHID - IMMORTAL RAJPUTS


Capt Ummed Singh Mahra was one of the courageous heroes of Indian Army. For the intense display of courage, bravery and balanced Leadership, Captain Mahra was awarded with the most prestigious award Ashok Chakra. Let’s know more about his courage and incredible story:-


Captain Ummed Singh Mahra

Service No: IC 17696M
Date of Birth: 21 Jan 1942
Place of Birth : Almora Dist (U'Khand)
Service: Army
Last Rank: Captain
Unit : 19 Raj Rif
Arm/Regt : The Rajputana Rifles
Operation : Op Orchid
Award : AC
Date of Martyrdom : 06 Jul 1971



Ummed Singh Mahra Son of Thakur Kunwar Singh Mahra, was born in Rajput family on 21st January 1942. He basically hailed from Uttar Pradesh (Present Kumaon, Uttrakhand) . He was born in a village of Champawat Tehsil in Almora district. he graduated from the Indian Military Academy on 11 June 1967 at the age of 25 years. He was commissioned into 19 Raj Rif of the Rajputana rifles Regiment, an infantry Regiment with a rich history of gallantry and various battle honours.

Throughout his short military career he served with the same unit and involved in various actions. He was involved in action with his unit in Nagaland in Op Orchid from 4th July to 6th July 1971.

An out of the ordinary tale of Captain Ummed Singh Mahra:- 



In July 1971, Captain Ummed Singh Mahra was posted in Nagaland with 19 Rajputana Rifle. During July 1971, Capt Ummed Singh Mahra’s unit was deployed in Nagaland as part of Operation Orchid. As a number of insurgents were active in the AOR(Area of Responsibility) of the unit, the unit troops were regularly engaged in counter insurgency operations. Captain Mahra was tasked for one such operation on 05 July 1971. Based in the information from the local intelligence network about the HQs of a local insurgent group a search and destroy operation was planned.

As per plan Captain Mahra led a raiding party with 60 men against the headquarters of an rebellious group in Nagaland. After walking for 12 hours and crossing difficult mountainous terrain and overflowing nallahs they reached near about 500mts away from the insurgents’ camp.


After studying the terrain near the insurgents’ camp, Capt Mahra decided to launch a multi-directional attack to achieve the element of surprise. He deployed his troops tactically and attacked the camp form two directions. As the troops reached within 30 meters of the camp, the militants panicked and started firing indiscriminately at the troops. Capt Mahra leading from the front charged at the camp with full force. 


In the ensuing fight, he shot dead the sentry and some militants but sustained serious injuries in his abdomen and right hand. Despite profusely bleeding, he continued to battle holding his abdomen with right hand and gun in left, encouraging his men to charge at the camp.

Inspired by the brave action of their leader, the platoon gallantly charged from both sides. Surprised by the dual attack and courageous action, the militants fled leaving behind their dead, arms and ammunition. Victorious RAJPUTANA RIFLES boys carried their bleeding and wounded leader, Captain Mahra back to camp who endured the long journey but succumbed to his injuries on reporting back to base with "mission accomplished". For his incredible leadership and bravery, Captain Mahra was awarded posthumously the Ashok Chakra.


Nagaland is with India today because of the gallant action and sacrifices of soldiers like Captain Umeed Mahra who didn't let the rebels, backed by external forces, break India apart.

HERO OF AUGUST KRANTI LAL PADMADHAR SINGH BAGHEL - IMMORTAL RAJPUTS

'करें हम आओ जतन मादरे वतन के लिए, शहीदे हो गए कितने जवां अमन के लिए।'


पूरा देश जंग-ए-आजादी की 70वीं वर्षगांठ मानाने जा रहा है, जिसको इसको लेकर देश भर तैयारियां अंतिम चरण में हैं। स्वाधीनता दिवस पर पूरा हिंदुस्तान आसमान में तिरंगे को फहराने को बेताब है। आजादी की लड़ाई की बात हो और इलाहाबाद का नाम ना आए बिना कहानी अधूरी रह जायेगी। आपको आजादी के इन दीवानों के बारे में बताते है, जिन्हें इतिहास के पन्नों पर सही जगह तक नहीं मिली। पूरा हिंदुस्तान अंग्रेजी हुकूमत की जंजीरों में जकड़ा था। हर तरफ मुक्त होने की बेताबी थी।

देश में अंग्रेजों की दास्ता से मुक्त करवाने में न जाने कितने भारतीय वीर सपूतों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया। विषम परिस्थतियों का सामना करते हुए स्वाधीनता संघर्ष को आगे बढ़ाते रहे। इन्हीं वीरों में अमर शहीद लाल पद्मधर सिंह भी हैं। जिनका जन्म सतना के कृपालपुर में 14 अक्टूबर 1913 को हुआ। संपूर्ण जीवन स्वाभिमान से भरा था। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि, जीवन की सुख-सुविधाएं तथा क्रांति दोनो मार्ग भिन्न हैं।

स्वर्गीय मेजर महेन्द्र सिंह(भतीजे) के अनुसार, पद्मधर सिंह विद्यार्थी जीवन से ही स्वाभिमानी थे। विषम परिस्थतियों में भी चरित्रबल डिगने नहीं दिया। एक बार हाईस्कूल में अध्ययन के दौरान प्रयोगशाला में भौतिक उपकरण प्रिज्म चोरी हो गया। कश्मीरी प्रधानाध्यापक एसके टोपे ने चोरी का आरोप लगाकर कमरे की तलाशी ली। किन्तु न पाकर टोपे परेशान हुए। लेकिन आत्मसम्मान में आघात पद्मधर सिंह स्वीकार न कर सके। उन्होंने टोपे को गोली मार दी। सात साल कारावास की सजा हुई। रीवा जेल जाना पड़ा। यहां पर परिचय गुढ़ स्कूल के हेडमास्टर हनुमंत प्रसाद से हुआ। जिनके सहयोग से जेल में हिन्दी विशारद उत्तीर्ण किया। लगन के कारण हाईस्कूल भी पास हुए। अच्छे आचरण और व्यवहार से कारावास घटाकर तीन साल कर दिया गया। इसके बाद प्रयाग विश्वविद्यालय चले गए। अन्य निकटतम मित्र स्व. लखन प्रताप सिंह 'उर्गेशÓ निवासी कटिया(रिटायर्ड विक्रयकर आयुक्त) के अनुसार, पद्मधर सिंह खादी का कुर्ता एवं पैजामा पहनते थे। साहित्य में गहरी रुचि थी। राजपूत प्रभात नामक हस्तलिखित पत्रिका का शुभारंभ किया। मौलिक कहानियां परिवर्तन, मित्रता, पड़ोसी, बहते हुए तिनके, दरबार इंटरमीडिएट कॉलेज की पत्रिका में प्रकाशित हुए।


अमकुईं के पूर्व सरपंच मोतीमन सिंह के अनुसार, पद्मधर सिंह डॉक्टर बनना चाहते थे। इसलिए इंटर में विज्ञान विषय चुना। नया विषय होने से एक वर्ष नष्ट करना पड़ा। विचार की दृढ़ता से सफलता मिली। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष स्व. शिवानंद के अनुसार, संवेदनशील व्यक्ति जब असामान्य एवं अमानवीय वातावरण में विकसित होगा तो उसके संवेदनशील स्नायुओं को क्षति पहुंचेगी और उस अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार हो जाएगा। अंतिम पत्र 81 हिन्दू बोर्डिंग विश्वविद्यालय इलाहाबाद से लिखा था, उसमें तत्कालीन घटनाओं से मानसिक उहापोह और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना को दर्शाता है। पत्र डॉ. लक्ष्मीकांत मिश्रा(संयुक्त संचालक स्वास्थ्य) को इलाहाबाद से 7 अगस्त 1942 को लिखा गया। जो 11 अगस्त को पूर्ण हुआ और 12 को वे शहीद हो गए।

'देश की आवाज बलिबेदी की ओर बढऩे के लिए पुकार रही है। हमारे नेताओं की यह आखिरी तैयारी है, अंतिम लड़ाई है और अंतिम आह्वान है। शायद बहुतों का अंतिम प्रण है, उन्हें हम नवयुवकों विशेषकर विद्यार्थी जगत से बड़ी आशा है। बूढ़ों को गोलियों का निशाना बनते देखकर हमारे नवयुवक बैठे न रह जाएं, इस वक्त अगर हम पीछे हटते हैं तो धोखेबाज एवं कायर कहलाएंगे। हालात यह हैं कि मेरी गति उस तराजू की तरह हो जाती है जिसके एक पलड़े में कर्तव्य पालन रखा है और दूसरे में सुख और वैभव के मीठे-मीठे प्रलोभन। कभी यह पलड़ा झुकता है तो कभी वह मस्तिष्क में एक क्षण के लिए भी स्थिरता नहीं।

कभी जब मैं देखता हूं उन चुलबुलाती हुवे युवक युवतियों को पार्क की मंद-मंद शीतल पवन में घूमते हुए उन युगल जोड़ों को मोटर और बग्घी में चलने वाले उन रईशों को तो इस वैभव की स्वर्णमयी प्रतिमा नाचने लगती है। मैं सोचने लगता हूं कि मुझे ही क्या पड़ी है, यह जीवन के आनंद को त्यागकर इस जलती हुई ज्वाला में कूदूं। दोनों बड़ी समस्याएं मेरे सामने हंै एक में जाने से सुख पर कायरता से दूसरे में जाने से दु:ख है परंतु कर्तव्य पालन के साथ। भाई यह समय कितना बहुमूल्य है घटनाएं इतने जोरों से पलटा खा रही हैं कि उनके साथ-साथ चलना कठिन पड़ रहा है। कल जो बातें सोचकर तुम्हे पत्र लिखा था वह आज के लिए बेकार हैं। कल मंसूबे बांधता था आगे बढऩे से हिचकिचाता था, आज अब उसके लिए अवसर ही नहीं रह गया कि किसी से सलाह लूं।


बात अगस्त 1942 की है, जब महात्मा गांधी ने मुम्बई से भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा कर दी थी। मुम्बई, दिल्ली, पटना, वाराणसी और फिर इलाहाबाद तक आंदोलन चिंगारी पहुंच चुकी थी। अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा बुलंद हो रहा था। गांधी जी की अगुवाई में देश भर के युवा बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। उस आंदोलन में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के युवाओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इलाहाबाद में आंदोलन की शुरुआत 11 अगस्त को हुई। अंग्रेजों के खिलाफ शहरभर में जुलूस निकाले गए और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन हुए जिसमें इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने मुख्य भूमिका निभाई।

विवि के छात्रों ने 12 अगस्त को कलेक्ट्रेट को अग्रेजों से मुक्त कराने और तिरंगा फहराने की योजना बनाई लेकिन इसकी भनक अंग्रेजी हुकूमत को लगते ही कलेक्ट्रेट तक आने वाले रास्ते पर पुलिस तैनात कर दी गई। 12 अगस्त की सुबह इविवि के छात्रसंघ भवन से छात्र-छात्राओं का जुलूस तिरंगा लेकर कलेक्ट्रेट के लिए रवाना हुआ। इसका नेतृत्व इविवि की छात्राएं कर रही थीं।

ब्रिटिश सैनिकों ने भीड़ को रोक लिया और वापस जाने की चेतावनी देते हुए छात्राओं पर बंदूक तान दी। इविवि की छात्र-छात्राएं वापस नहीं लौटी तो फिरंगी फौज ने हवाई फायरिंग कर दी, जिससे भगदड़ मच गई। इस भीड़ में शामिल नौजवान लाल पद्मधर सिंह ने सामने आकर सिपाहियों को चुनौती दी लड़कियों पर क्या गोली तान रहे हो मेरे सीने पर गोली चलाओ। इसके बाद लाल पद्मधर तिरंगा हाथ में लेकर कलेक्ट्रेट की जोर बढ़े ही थे, तभी अंग्रेज सिपाहियों की गोली से उन्हें छलनी कर दिया। विवि के उनके साथी उन्हें अस्पताल तक पहुंचाते उसके पहले ही भारत मां के लाल की सांसे थम गई। यह खबर फैलते ही पूरे शहर में कोहराम मच गया। विवि के छात्रों ने अंग्रेजों भारत छोड़ो, हिंदुस्तान हमारा है का नारा बुलंद किया।

इलाहाबाद विवि अपने वीर सपूत पर गर्व करता है। 1942 के बाद से अब तक विवि छात्रसंघ में निर्वाचित होने वाले छात्रनेता लाल पद्मधर के नाम की ही शपथ लेते हैं। इविवि के पूर्व अध्यक्ष रामाधीन सिंह ने बताया, लाल पद्मधर सिंह मध्यप्रदेश के सतना-रीवा के माधवगढ़ घराने से थे। वे विवि में स्नातक के छात्र थे। 11 अगस्त की रात छात्र संघ भवन में जिन 31 क्रान्तिकारी छात्रों ने आंदोलन की शपथ ली उनमें लाल पद्मधर भी थे। इविवि छात्रसंघ भवन और कलेक्ट्रेट परिसर में उनकी मूर्ति स्थापित है।


How small we look when in the midst of quota stir we compare ourselves with those selfless, devoted, dedicated freedom fighters who sacrificed their lives to save the honour of the country, to fight for the liberation of one and all and who gave us the message that India is one, we are all one irrespective of our faiths and castes. What the freedom fighters strove for was highlighted in a patriotic song that stirred the nation into a wave of unity during the days of our peril: ‘Awaz do hum Ek Hain’.

Today what do we find? Bureaucracy is divided, police is divided, students are divided, states are being divided, people are being divided to satisfy the lust of provincial lords ordering those of other regions to quit the state or face their wrath. It was not for this India that martyrs like Lal Padamdhar Singh laid down their lives. They were martyrs. We should seek inspiration from their lives and let us not forget their sacrifices or insult their memories by doing just the reverse of what they had striven for. But first remember them: ‘Jo shaheed hue hain un ki zara yad karo qurbani’

Lal Padmadhar Singh of Allahabad University became the uncrowned king of the hearts of all University students when on August 12, 1942 he sacrificed his life by facing the British bullets to protect the tricolour during the students march towards the Collectorate. Lal Padmadhar was barely 29 when he gained martyrdom; and since then, on this day, the young martyr is always remembered by a grateful nation, especially the youth of Allahabad and students of Allahabad University who continue to be inspired and motivated by the bravery and valour exhibited by him to show to the British that the youth were not lagging behind in the pursuit of freedom from the tyranny of their oppressive rule.
We pay our respectful homage to that noble soul of whom Even Today, Allahabad University's Student Take Oath of...


TRIBUTE TO A YOUNG MARTYR OF 1942
WHEN EVEN STUDENTS WERE NOT SPARED

Lal Padmadhar Singh Baghel was born around 1913 in Village “Kripalpur Garhi” of Rewah State of Baghelkhand agency modern Kripalpur Village of Satna District Madhya Pradesh. The son of Vindhya Pradesh sacrificed his life at a young age for the pride and dignity of his country.

August 12 is a Red Letter day in Allahabad’s history of freedom movement because it was on this day when the ‘Quit India’ agitation reached its deadly climax in the city with the gunning down of a young and bright University student Lal Padmadhar Singh when he was leading a procession of protesting students from the University to the Collectorate. The next day the British stooges opened fire near Kotwali when a promising young lad Ramesh Malaviya attained martyrdom. Two others also fell to the British-ordered firing , one a washer-man and the other a barber. Some stirring and inspiring glimpses of that deadly occasion have been given by an eye-witness Pannalal Gupta Manas who was then 11 years old and was studying in Class 4 in Lukerganj Primary School. Now a columnist and a writer, Manas vividly remembers that occasion when the University students led by Lal Padmadhar Singh started marching towards the Kutcherry. The police soon surrounded them and asked them to disperse. But the students were adamant not to give in. Manas says that when the procession of protestors reached the Manmohan Park they were served with the warning to go back or else they will be riddled with bullets. It was then that Lal Paadmadhar bared his chest and shouted at the British stooges:’ Open fire, let us see how many bullets are there in the armoury of the British’. The moment Lal Padmadhar advanced further the police guns started booming and Lal Padmadhar fell down. According to some others, the moment he fell, the flag in his hands was not allowed to touch the ground but was immediately retrieved from the dying martyr’s hand by another freedom fighter. ‘Jhanda ooncha rahe hamara’ was the slogan that was renting the air till the cruel British bullets snatched away a young life and made a martyr of him.

He recalls that this led to furious reaction in the city. Railway stations and post offices were being attacked by the angry mobs. He recalls that he too joined a procession of his schoolboys protesting against the outrage. The students had planned to set afire the post office located in the Leader Press buildings. They too were chanting Jhanda ooncha rahe hamara and had barely reached the Khusraubagh Road when the police spotted them, chased them and apprehended many including Manas himself. He was questioned by Khuldabad police and asked to reveal who had instigated them. But they had nothing to reveal. They were put up in the lockup and had to remain there the whole night. 


The British were frightened even of 11-year old boys. Then how could they spare Lal Padamadhar who was a fiery youth and had come ready to shed his blood for the motherlland? We once again salute Lal Padmadhar and other martyrs, especially the unknown ones, who laid down their lives for the freedom of the motherland.






Monday, March 22, 2021

1857 REVOLUTIONARY THAKUR KALU SINGH MAHRA - UTTRAKHAND FIRST FREEDOM FIGHTER - IMMORTAL RAJPUTS

कालू सिंह महरा (१८३१-१९०६): 

भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखण्ड की भी अपनी भूमिका रही. उत्तराखण्ड के काली कुमाऊँ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हाथ मजबूत करते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत का बीज बोया गया.

काली कुमाऊं में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आन्दोलन का परचम बुलंद करने वाले सेनानियों का नेतृत्व किया आजादी के दीवाने कालू सिंह महरा ने. उन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में काली कुमाऊँ के लोगों के ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गुस्से को स्वर दिया और उसका नेतृत्व किया. वे भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने वाले उत्तराखण्ड के पहले सेनानी थे.

जन्मः 

काली कुमाऊँ में कुटौलगढ़ क्षेत्र के एक गांव में। सन १८५७ की आजादी की पहली लड़ाई का वीर, साहसी और देशभक्त जननायक। 

सशस्त्र क्रान्तिकारी कालू सिंह महरा के वंश की पृष्ठभूमि संक्षेप में इस प्रकार है- 

चन्द राजा सोमचन्द को कत्यूरी राजा ने अपनी पुत्री से शादी के उपलक्ष्य में चम्पावत में दहेज के रूप में एक छोटी जागीर प्रदान की थी। उस समय सम्पूर्ण कुमाऊँ छोटे-छोटे गढ़पतियों में विभक्त था। इस छोटी रियासत को चम्पावत, अस्कोट, सीरा, चौगर्खा, चौभसी, पाली-पछांव तथा माल-भाबर तक फैलाने में जिन लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं, उनमें विसंग के मारा, फाल, करायत, देव आदि अधिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। 

क्षेत्र के बीचों बीच एक किला आज भी अप्रतिम सौन्दर्य लिए हुए है। इस किले को अंग्रेजों ने 'फोर्ट हेस्टिंग्स' नाम दिया था। मारा लोग इस किले के किलेदार थे। इन्हें कोट्याल मारा कहा गया है। 

चन्दों के परवर्ती काल में भीमराज मारा को वंश सहित इस किले में मारे जाने से यहाँ के बचे हुए लोग किले के सामने वाले क्षेत्र में बस गए। इसी गांव में ठाकुर रतिभान सिंह के यहाँ कालू सिंह महरा का जन्म हुआ था। 

ठाकुर रतिभान सिंह का तिब्बत के साथ अच्छा व्यापार था। कालू महरा बचपन से ही अक्खड़ और दबंग थे। घुड़सवारी का उन्हें बहुत शौक था। एक ही दिन में वे अल्मोड़ा से लौटकर वापस विसंग पहुँच जाते थे। ठिगना कद, चपटी नाक, सांवली आकृति तथा गठीला शरीर। कमर में खुकरी, चारों ओर शरीर पर लबादा, यह उनका बाहरी व्यक्तित्व था।

कालू सिंह महरा के रोहेला नवाब खान बहादुर खान और टिहरी नरेश से अच्छे सम्बन्ध थे। 1857 में जब कुम्मैएं लोग भाबर गए थे तो अवध की बेगमों का कालू सिंह महरा के पास दूत आया। बेगमों ने कालू महरा को अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन में कूदने की दावत दी थी। नवाब खान बहादुर खान द्वारा संधि वार्ता करने के लिए कालू महरा को संदेश भेजा गया। अन्ततः कालू महरा और खान में समझौता हो गया। 

समझौते के अनुसार 

1. जहाँ तक रथ का पहिया चलेगा, वह क्षेत्र नवाब का होगा; उसके बाद का क्षेत्र कालू महरा का होगा।

2. नवाब कालू सिंह महरा को आर्थिक सहायता प्रदान करेगा तथा सैन्य सामग्री की पूर्ति भी करेगा। 


इस वार्ता के पश्चात काली कुमाऊँ अंचल में संघर्ष की तैयारियां शुरू हो गयीं। रुहेला नवाब खानबहादुर खान के आह्वाहन पर १८५७ के सयम क्रांतिवीर संस्था बनाई। कालू महरा के नेतृत्व में सभी लोग इकट्ठे हो गए। चौड़ापित्ता के बोरा, रैधों के बैडवाल, रौलमेल के लडवाल, चकोट के क्वाल, धौनी-मौनी, करायत, देव, बोरा व फालों ने आपस में सलाह मशविरा कर कालू महरा को अपना सेनापति नियुक्त किया।

इन लोगों ने लोहाघाट में अंग्रेजों की बैरकों में धावा बोलकर उन्हें वहाँ से भगा दिया और बैरकों में आग लगा दी। इस विजय के पश्चात धन प्रबन्ध की जिम्मेदारी खुशाल सिंह को सौंपकर कालू सिंह महरा वस्तिया की ओर बढ़े। लोहाघाट से भागे हुए सैनिकों ने अल्मोड़ा पहुँचकर कमिश्नर रैमजे को आपबीती सुनाई। 

कूटनीतिज्ञ रैमजे ने तत्काल सैनिकों की एक टुकड़ी ब्रह्मदेव (टनकपुर) और दूसरी लोहाघाट भेजी। ब्रह्मदेव में मैदानी क्षेत्रों से पहाड़ को आने वाले आन्दोलनकारियों को रोकना था। लोहाघाट पहुँची सैनिक टुकड़ी ने कालू महरा के विश्वस्त सहयोगी खुशाल सिंह को अपनी कूटनीति से पराजित कर दिया। अमोड़ी के पास क्वैराला नदी के समीप किरमोली गांव में, जहाँ क्रान्तिकारियों का धन व अस्त्र-शस्त्र रखने का गुप्त अड्डा था, स्थानीय लोगों की मुखबिरी पर अंग्रेजों ने लूट लिया। अधिकतर क्रान्तिकारी मार दिए गए। वस्तिया में कालू महरा के साथ गोरे सैनिकों का संघर्ष हुआ। कालू को पराजित होकर पीछे हटना पड़ा। 

अंग्रेजों ने अपनी चाल से माधोसिंह और नरसिंह सहित कई लोगों को अपनी ओर मिला लिया। घर और साथियों द्वारा छोड़ दिए जाने पर भी कालू ने हिम्मत नहीं हारी और बचे-खुचे सहयोगियों को एकत्र कर अल्मोड़ा की ओर ऐतिहासिक कूच किया। रास्ते में कालू को एक प्रमुख सहयोगी वारि गांव के रामकृष्ण वारियाल मिले। 22 जोड़ी हल बैल रखने वाला यह व्यक्ति सम्पन्न किसान था। क्रान्ति के बाद वह निःसन्तान ही मर गया। कालू सिंह महरा और रामकृष्ण वारियाल अंग्रेजों के लिए आतंक के पर्याय बन गए थे। 

Almora bazaar, C1860

ढौर नामक स्थान पर क्रांतिकारियों के साथ पहुँचने पर रात्रि में उन्होंने बैलों के सींगों पर मशालें बाँध दी। इससे भीड़ की संख्या सैकड़ों मे ज्ञात हुई। अंग्रेजों ने इस भीड़ को देखकर सामान बाँधना शुरू कर दिया था। और परिवारों को नैनीताल भेजने लगे थे। क्रांतिकारियों के अल्मोड़ा पहुँचने पर अंगे्रजी सेना के सामने ज्यादा देर टिक नहीं सके और अनेक क्रांतिकारी शहीद हो गये। कुछ समय पश्चात अंग्रेजों ने पूरी क्रान्तिकारी सेना को बुरी तरह छिन्न-भिन्न कर परास्त कर दिया। इस प्रकार कुमाऊँ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम असफल हो गया।

इस सशस्त्र क्रान्ति के बाद कई लोगों को गोली से उड़ा दिया गया। आनन्द सिंह फर्त्याल और विशन सिंह करायत इनमें प्रमुख थे। कालू सिंह महरा के घर को अग्निसात कर दिया गया। रामकृष्ण वारियाल भागकर नेपाल चले गए। कई सहयोगी जंगलों में भटकते-भटकते भूख-प्यास से मर गए। अंग्रेज समर्थकों को पुरस्कृत किया गया। माधोसिंह को बरेली तथा नरसिंह को सैय्यदपुर किरौड़ा व दूरदासपुर की ५३९ रुपये १४ आना की जागीर दी गई।

कुमाऊं में  1857 के विद्रोह संबंधी सरकारी रिपोर्ट

१८५७ के गदर के बाद जुलाई १८५८ में रैमजे ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी. अपनी रिपोर्ट में रैमजे ने बताया कि जून १८५७ के समय डाक व्यवस्था पूरी तरह भंग हो गयी थी और अंगेजों को मैदानी इलाक़ों से किसी भी प्रकार की सूचना नहीं मिला रही थी. पहाड़ो में गदर की किसी भी घटना के शुरू होने से पहले ही काबू पा लिया गया था. जुलाई अंत तक मसूरी के रास्ते डाक व्यवस्था पुनः प्रारंभ की गयी. इस दौरान बरेली और मुरादाबाद से अनेक शरणार्थी नैनीताल पहुँचने लगे. हैनरी रैमजे ने इस दौरान पूरे कुमाऊं में मार्शल लॉ लागू किया था. हैनरी रैमजे पिछले 15 सालों से कुमाऊँ क्षेत्र में विभिन्न पदों पर रह चुका था. हैनरी रैमजे कुमाऊँ क्षेत्र से इतना परिचित हो चुका था कि वह स्थानीय लोगों से टूटी-फूटी कुमाऊंनी में ही बातचीत भी करता था. उसकी इसी पकड़ के कारण ही उत्तराखण्ड में 1857 की क्रान्ति का बड़े पैमाने पर प्रभाव नहीं देखा गया।


काली कुमाऊँ को बागी घोषित कर दिया गया। १९३७ तक यहाँ के लोगों को सेना में नहीं लिया गया। अंग्रेज सरकार ने यहाँ के सभी विकास कार्य रुकवा दिए. कालू माहरा के घर पर हमला बोलकर उसे जला दिया गया।

कुछ समय उपरान्त कालू सिंह महरा अपने गांव लौट आये। मकान न होने के कारण उन्होंने अपना निवास मायावती के नजदीक जंगल में खाटकुटुम में बना लिया। कहा जाता है कि १९०६ में खाटखुटुम नामक स्थान पर एकांतवास करते निधन हुआ।

उनकी मृत्यु के संबंध में इतिहास मौन है। कुमाऊँ केसरी श्री बद्रीदत्त अनुसार उन्हें ५२ जेलों में घुमाया गया। कुछ का मानना है कि कालू को फाँसी पर लटका दिया गया था। इतना सशस्त्र विद्राेह करने पर भी उन्हेंं सजा नहीं हुई- कुछ लोग इसे कमिशन कुटनीतिक चाल बताते है। 

स्वाधीनता प्रेमी, क्रान्ति पुत्र, वीर कालू महरा द्वारा काली कुमाऊँ में सुलगाई क्रान्ति की चिन्गारी शोला बनकर नहीं फूट सका। कालू सिंह महरा को उनके शौर्य और वीरता के लिये उत्तराखण्ड का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी कहा जाता है। 


सन्दर्भ-

"कुमाऊँ का स्वाधीनता संग्राम में योगदान" पत्रिका (लोहाघाट)




THE FORGOTTEN HERO OF 1930 PESHWARA REVOLT VEER HAV. MAJOR CHANDRA SINGH GARHWALI - IMMORTAL RAJPUTS



Veer Chandra Singh was the leader of Garhwal rifle regiment that revolted against Britishers by refusing to open fire on unarmed satygarahis at Peshawar, preventing another Jallianwalla Bagh. 



As soon as Captain Ricket ordered the soldiers to fire three rounds on Unarmed protestors, Chandra Singh shouted loudly to his regiment, ‘Garhwalis, cease fire! Garhwali, do not fire.’


Captain Ricket was astonished at the definace and asked for the reason, Chandra Singh replied:-

"We won't open fire on Unarmed Civilians, whatever be the consequences".


Chandra Singh received great applause from National political leaders post the incident, but he and his associates were ultimately court-martialed for defying a direct order and CS was given death sentence. The Garhwali soldiers were later advocated by another great icon Mukundi Lal who after tireless efforts converted the death sentence into a prison sentence. During this all the property of Chandra Singh Garhwali was confiscated and his uniform was cut off from his body. In 1930, Chandra Singh Garhwali was sent to the Abbottabad jail for 14 years of imprisonment. After which they were transferred to different jails. But his sentence was reduced and after 11 years of imprisonment, he was freed on 26 September 1941. But their entry was restricted, due to which he had to wander here and there and in the end, he went to Wardha to MK Gandhi and joined Quit India Movement of 8 August 1942, he took an active part in this movement by staying in Allahabad and was again arrested for three years.



He was liberated in 1945.

In Dec 1946, due to the efforts of local leaders, Chandra Singh was able to enter Garhwal again. On 1 October 1979, Chandra Singh Garhwali died after a prolonged illness. A postage stamp was also issued in his honor by the Government of India in 1994. 



Veer Chandra Singh Garhwali Uttarakhand University of Horticulture & Forestry was named in his honour. Veer Chandra Singh Garhwali Govt. Institute of Medical Science & Research was also named after him, but very few people know this great soul beyond UK. He was a Chauhan Rajput.







Sunday, March 21, 2021

RAJA SUCHET SINGH DOGRA - IMMORTAL RAJPUTS

Jai Baba Kaliveer

Last Stand 45 dogra Rajput's against 20000 Strong Lahore Darbar forces


Raja Gulab Singh, Raja Dhyan Singh and Raja Suchet Singh these three brothers were most powerful officials in the Darbar of Maharaja Shri Ranjeet Singh Ji Sahib Bahadur. Three brothers had a motto *He who hits my brother, hits me. By displaying unparalleled integrity, character, bravery, subordination and intelligence, these three brothers became most powerful officials in the the state of Punjab under Maharaja Ranjit Singh ji sahib Bahadur.

Rajah Suchet Singh was the Youngest of the Dogra Brothers. He like, Gulab Singh remained at his Jagir and kept mostly away from politics of Lahore Darbar until the death of Dhian Singh.


He was known to be the most handsome men in lahore darbar at that time. He was a trained marksman probably the bravest of the three brothers and was also the commander of the Sawars Regiment. He was born in 1801 to Mian Kishore Singh. His first campaign came alongside Gulab Singh during the capture of Garh-Damala fort. Raja Suchet Singh were also part of Maharaja Ranjit Singh’s armies that along with General Hari Singh Nalwa,General Zorawar Singh and Thakur dass liberated Kashmir from the Afghans finally in 1819. 


Both brothers showed great courage in the battlefield after which both were granted jagirs by Ranjit Singh.He got Ramnagar, Samba, Basoli and Jastota. After this he spent most of his time in his own jagirs only going to lahore when summoned for campaigns.

Raja Suchet Singh Dogra and Raja Dhian Singh Dogra, ca. 1840

When Sher Singh, son of Ranjit Singh was assassinated on 15th September 1843, then a few hours after Raja Dhian Singh, the Dogra minister, met the same fate. He and Sher Singh was killed by their common enemies, the Sindhianwala Sirdars who destroyed them both. Dalip Singh, another son of Maharaja Ranjit Singh, was then installed as Maharaja, with Raja Hira Singh, son of the murdered Dogra Minister, as prime minister. Pandit Jallah Advisor/Mentor of Hira Singh. There is also Jawahir Singh Brother of Rani Jidhan n uncle of Maharaja Dileep.

When Hira Singh became Prime Minister he gave civil powers to Pandit Jallah.Jawahar Singh was made the Guardian to the Maharaja.Jawahar singh wanted to be the Prime Minister and had support of Rani too. On the other hand Pandit Jallah who wanted to be the lone power started inciting Hira Singh against his uncles Gulab Singh and Suchet Singh.Suchet singh knew about this and wanted to get rid of Jallah. Jawahar Singh called Suchet Singh to lahore to help him but Gulab Singh took Suchet Singh back to Jammu. Jawahar Singh tried inciting the Army But Hira Singh had him imprisoned. Even the army was fed up of Jallah's involvement and influence on Prime Minister.Jallah had Hira Singh attack the jagirs of remaining sons of Ranjit Singh Kashmira Singh and Peshaura Singh.Jallah also fabricated accounts to levy unpaid dues on part of Gulab  and Suchet singh

There was however a party in the kingdom who encouraged Raja Suchet Singh of Samba and Ramnagar who was the brother of Raja Dhian Singh to aspire to the office of minister, and he also had the support of a section of the Khalsa.


The army then called Suchet singh to lahore assuring him assistance in removing Hira Singh. It was decided that Hira Singh will be taken back to Jammu and  Jallah to be handed over to Khalsa army.Suchet Singh on this assurance went to lahore with only 43 of his soldiers. But Jallah gave each soldier a bracelet worth 30 rupees and the khalsa army again switched loyalties.

On the invitation of those who favoured his claim, Suchet Singh came down front the hills to Lahore on 26th March 1844. After his failed attempt at a coup at Lahore Raja Suchet Singh was resting at an old mosque when he was surrounded by approx 14-15000 infantry,3-4000 cavalry & 56 cannons of Hira Singh


Raja Suchet Singh had with him 200 cavalry & 150 infantry which deserted him in the night with exception of 45 of his loyal followers

(according to Gulabnama he had been joined by a body of 3-400 sikhs earlier so it would be safe to say the deserters were mostly sikhs)


Suchet Singh remarked:

"It is not brave to retreat from a battlefield and to be afraid of being killed. The saying goes ‘come what may, we have burnt our boats. At last we have to disappear from this transitory world. What else can be better then to leave this fickle world bravely”

With these words the Dogras prepared from martyrdom & passages were read out to them from their holy book.

Hira Singh wanted to meet his uncle and negotiate terms with him but Jallah presented a potli with false astrological claim that only one of them would be alive. Courtiers like Jawahar mal, Ganda singh and Labh Singh who wanted to make a reconciliation bw them were dismissed. The commander of artillery before firing came back to Hira Singh for confirmation twice but Hira Singh kept quite and Jallah then angrily ordered the commander to start firing, The Dogra Force was surrounded by Khalsa army. Suchet Singh asked his soldiers to leave if they want to but everyone stayed.Rai kesari singh asked Suchet Singh to leave while they keep the enemy engaged but he was too brave to agree.


As artillery pounded & demolished the walls of the mosque the reader went on undaunted & unafraid.

Finally when the walls no longer provided protection Suchet Singh remarking "This numerous imperial force & artillery sent against us verily presents a fair fun" led his 45 men into battle as 15000 Khalsa infantry advanced upon them with their bayonets gleaming.

 Last stand of Raja Suchet Singh & his 45 valiant Dogras against the hoards of Lahore Darbar


Even then his dauntless courage did not forsake him, and refusing to flee, Suchet Singh Roared 'Relying on your good faith i came to lahore. You have forsaken me and now you have come to kill me. I beseech you at this moment behave like true soldiers. 

"Come on one by one and let the world see the worth of a rajput soldier'

 slew over 30 men & forced 4 battalions to flee before them driving the Khalsa infantrymen into the batonets of their own comrades at the back!!

he and his brave band of heroes charged, sword in hand, into the midst of their foes, In their initial charge this handful of Rajput heroes fell upon the enemy. Within a moment 30 of the khalsa soldiers lay dead. The desperate valor of the dogras stuck a panic in the enemy and their gunners started fleeing & forced 4 battalions to flee before them driving the Khalsa infantrymen into the bayonets of their own comrades at the back!!

Rai kesari singh with his own hands killed no less than 17 khalsa soldiers & cut off the arm of Nidhan Singh Panjhatha, before he fell down to bullet wounds. Raja Suchet singh two was stuck by 2 bullets but still killed 3 soldiers before perished to a man.


But this brave band had extracted a heavy price for their death for they had slain The total loss of khalsa side was 160 killed and more than 200 wounded. Hira singh then Visited the battlefield and saw Rai kesari singh who saluted him by saying ' Jaidev' and then Hira Singh saw his uncle's mangled body and burst into tears on seeing it and well he might for his own end was also near. He ordered his troops to carry his uncle's body in his own palki.

Bodies of Rai kesari Singh and Rai Bhimsen were given an Honorable cremation. Other dead soldiers were also treated well according to their ranks.

Raja Gulab Singh was agonized and perturbed on hearing d news of his youngest brothers demise. Pandit Jalla was successful in creating rift in the all powerful Dogra Family of Lahore Durbar. He persuaded Hira Singh not to attend funeral of his uncle Raja Suchet Singh. Pandit Jalla was successful in sowing the seeds of evil in Dogra Family. He persuaded Hira Singh to confiscate territory of Raja Gulab Singh’s servants and irked many other in the Kingdom. Rani Jind Kour also didn’t like the influence of Hira Singh. One day Pandit Jalla publicly disrespected the Maharaja and Rani Jind Kour. Rani Jind Kour and her brother Jawahar Singh wanted to get rid of Loyal Dogras but the troops wanted only Pandit to go. Hira Singhs mistake of not letting Pandit go resulted in disgruntled troops. Rani Jind Kour asked the troops to choose between Hira Singh Dogra or Rani Jind Kour and Child King. Troops choose their Queen and Hira Singh and Pandit Jalla were left with no choice but to flee. Sohan Singh, Son of Raja Gulab Singh was also with them. 

All three were slain. Their heads were chopped off and paraded in the streets of Lahore. With the end of Dogra Family dominance in Lahore Durbar Sikh empire shattered in two Anglo Sikh Wars.


On hearing of his death Suchet Singh's Ranis in Ramnagar placed his turban before them on the pyre and became sati. Same practice was done by his Ranis residing in Samba. He died childless and his fief was merged in Jammu.

Raja Suchet Singh’s wives in the Samba Palace upon hearing the news of his assassination at Lahore Court proceeded to commit Sati.


That place where Raja Suchet Singh Was Assasinated, at present, is being identified and known as Suchetgarh, near RS Pura.

The Samadhi now in ruins was on the banks of Basantar River & the inner chambers had pindis/moortis of Raja Suchet Singh & his wives.


Very little remained of the Samadhi after destructive floods in Basantar River. The Baisakhi Mela that used to be held near the Samadhi stopped after 1947.

The queen just before dying declared that they would reunite with Raja Suchet Singh after two days and upon their union there would occur a storm followed by sounds of thunder and rain.


Close to this ruined Samadhi is the Rani Temple,


renovated and maintained by JK Dharmarth Trust.


There is a Samadhi of Maharani at the site where the sati was performed.


Lying in the shadow of the Ramnagar Fort, is the Samadhi of Rani of Raja Suchet Singh, the brother of the Founder of the State of JK, Maharaja Gulab Singh. The Rani performed Sati after Raja Suchet Singh was murdered by the Lahore Court, in March 1844.


Samadhi was built by Raja Suchet Singh's nephew Raja Ranbeer Singh. Samadhi has a Central Shrine, a Parakrima Path, Tulsi in the courtyard, floral motifs and murals depicting ascetics and Krishna Leela. One of the central mural shows Raja Suchet Singh holding Court.


Ramnagar's 19th-century palace complex consisting of three sections was built by Raja, Suchet Singh (ruled 1822 to 1844), brother of Jammu Raja Gulab Singh - a prominent Dogra warrior in the campaign to oust Bhupendra Dev and by Ram Singh, son of Rajah Ranbir Singh.


Old Palace was built by Raja Suchet Singh (A.D1801-1844) brother of Jmu Raja Gulab Singh a prominent Dogra warrior.


Who was given the Jagir of Bandralta and title of Raja by Maharaja Ranjit singh.


The place is fairly big complex of rooms situated in front of a big courtyard. He had done much to improve the town of Ramnagar by the erection of new bazars and also a baronial palace for himself which is still in good order.