‘अल्त्या रे मस मूरताऊं बाथ्यां आवै, जैत नीं पावै तो नागदो हलगावै।’
सहस्त्रबाहु मंदिर(उदयपुर मेवाड़)
यह मंदिर एकलिंग जी मंदिर के १ किलोमीटर नजदीक स्थित है।यह मंदिर इल्तुतमिश ने रावल जैत्रसिंह के समय आक्रमण कर नष्ट कर दिया और मेवाड़ की राजधानी नागदा को तहस नहस कर दिया,तब रावल जैत्रसिंह ने भूताला के ऐतिहासिक युद्ध में इल्तुतमिश को करारी शिकस्त दी।
रावल जैत्रसिंह"
मेवाड़ का एक गुहिल शासक जिसने दिल्ली के सुलतान इल्तुतमिश के दांत खट्टे कर दिए थे और अपनी तलवार के बल पर अपने समकालीन शासको के मन में भय उत्पन्न कर दिया था किन्तु जिसे भारतीय इतिहास ने विस्मृत कर दिया|
१२१३ ई. रावल जैत्रसिंह मेवाड़ के शासक बने। रावल जैत्रसिंह ने अपने जीवनकाल में दिल्ली के ६ सुल्तानों का शासन देखा व २ को पराजित किया। जिन्हें जयतल, जयसल, जयवंत सिंह, जीतसिंह के नाम से भी जाना जाता था| जिन्होंने अपनी तलवार के बल पर अपने आस पास के समकालीन सभी शासको को पराजित किया था| उदयपुर के पास स्थित चिरवे गाँव के शिलालेख के अनुसार “जैत्रसिंह शत्रु राजाओं के लिए प्रलयमारुत के सदृश था, उसको देखते ही किसका चित्त न कांपता ? मालवावाले, गुजरातवाले, मारवाड़ निवासी और जंगलदेश वाले, तथा मलेच्छो का अधिपति सुलतान भी उसका मानमर्दन न कर सका| तलवार के धनी जैत्रसिंह के समकालीन धोलका (गुजरात) के शासक राणा वीरधवल के मंत्रियो वास्तुपाल और तेजपाल का कृपापात्र आचार्य जयसिंह सूरी ने अपने ग्रन्थ “हम्मीरमदमर्दन” नाटक में वीरधवल से कहलाता है की “शत्रुराजाओं के आयुषरूपी पवन का पान करने के लिए चलती हुई कृष्ण सर्प जैसी तलवार के अभिमान के कारण मेद्पाट (मेवाड़) के राजा जयतल ने हमारे साथ मेल न किया|” चीरवा के और आबू के शिलालेखो के अनुसार जैत्र सिंह द्वारा किये गए प्रमुख युद्धों का ब्यौरा कुछ इस प्रकार है।
गुजरात की पराजय और कोटडा पर अधिकार
चीरवे के शिलालेख के अनुसार ईस्वी सन 1242 – 43 में जैत्रसिंह ने गुजरात के शासक त्रिभुवनपाल को पराजित करके कोटडा पर अधिकार कर लिया था जिसमे जैत्रसिंह के नागदा के तलारक्ष योगराज के पुत्र महेंद्र का पुत्र बालाक जैत्रसिंह के आगे लड़ता हुवा मारा गया|
नाडोल पर प्रभुत्व तथा वैवाहिक संबंध
रावल समरसिंह के आबू के शिलालेख के अनुसार “जैत्रसिंह ने नाडोल को जड से उखाड़ डाला”। नाडोल के चौहान शासक कीर्तिपाल ने कुछ समय के लिए मेवाड़ पर अधिकार किया था जिसका प्रतिकार लेने के लिए जैत्रसिंह ने नाडोल पर चढ़ाई की और कीर्तिपाल के पोते और तत्कालीन नाडोल और जालोर राज्य के शासक उदयसिंह को परास्त किया तथा उदयसिंह ने अपनी पौत्री तथा चाचिगदेव की पुत्री रुपादेबी का विवाह जैत्र सिंह के पुत्र तेजसिंह के साथ कर मेवाड़ के साथ अपने राज्य का प्राचीन शत्रुता समाप्त की।
मालवा के परमार शासको का मानमर्दन
चीरवे के शिलालेख के अनुसार जैत्रसिंह ने नागदा के तलारक्ष योगराज के पुत्र क्षेम को चित्तौड़ की तलारक्षता प्रदान की थी और उसके छोटे पुत्र मदन ने उत्थुणक (अरथुना-बाँसवाड़ा) जो की मालवा के परमारों के अधीन था। मालवा के शासक जैत्रमल्ल जो की देवपाल का पुत्र था और जयतुगीदेव के नाम से जाना जाता था तथा जिसे पंचगुडलिक की उपाधि भी प्राप्त थी, से युद्ध कर मेवाड़ की सेना का बल प्रगट किया था। बाद में गुहिलवंशी सामंत सिंह के वंशजो ने ही परमारो को परास्त कर अरथुना पर कब्जा कर उसे वागड़ राज्य में मिलाया था।
जलालुद्दीन मंगबरनी की सेना को परास्त करना
रावल समरसिंह के आबू के शिलालेख के अनुसार “ सिन्धुको की सेना का रुधिर पी कर मत बनी हुई पिशाचनियो के आलिंगन से आनंद से मग्न पिशाच रणखेत में जैत्रसिंह के भुजबल की प्रशंसा करते है|” शिलालेख से ये ज्ञात होता है की जैत्रसिंह ने सिंध की किसी सेना को नष्ट किया था किन्तु किस सेना को नष्ट किया था इसके बारे में हमें फ़ारसी तवारीखो से पता चलता है की ये सेना जलालुद्दीन मंगबरनी की थी जो खयासखा के नेतृत्व में नहरवाले (अन्हील्वाड़े) पर आक्रमण करने के लिए भेजी गई थी और बड़ी लुट के साथ मेवाड़ के रास्ते से लौट रही थी| शिलालेख में सिधुको की सेना को नष्ट करने के बारे में लिखा गया है अत सिन्धुको की सेना के अन्हीलवाडे से लौटते समय ही उस पर जैत्रसिंह की सेना ने आक्रमण किया होगा|
भूताला की घाटी में सुल्तान शमशुद्दीन इल्तुतमिश के दांत खट्टे होना
रावल जैत्रसिंह ने दिल्ली के शासक नासिरुद्दीन को पराजित किया।
१२२२ ई. दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने नागदा पर आक्रमण किया।
इसके आक्रमण ७ वर्षों तक (१२२९ ई. तक) लगातार जारी रहे व इसने नागदा को नष्ट कर दिया।
चीरवे के शिलालेख तथा भड़ूच (गुजरात) के जैन मुनिसुव्रत के मंदिर के आचार्य जयसिंह सूरी के ग्रन्थ हम्मीरमदमर्दन में सुल्तान इल्तुतमिश के साथ मेवाड़ के रावल जैत्रसिंह के भुताला घाटी के युद्ध के बारे में जानकार प्राप्त होती है| इस युद्ध के बारे में डा श्री कृष्ण जुगनू ने अपनी पुस्तक मेवाड़ का प्रारंभी इतिहास में रोंगटे खड़े करने वाला वर्णन किया है| डा जुगनू लिखते है “यह इस्लामी सल्तनत के खिलाफ मेवाड़ का पहला संघर्ष था...सुलतान ने गुहिलो के अब तक के सबसे ताकतवर शासक को कैद करने की रणनीति अपनाई। यह योजना पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ मोहम्मद गोरी की निति से कोई अलग नहीं थी।
हल्दीघाटी की लड़ाई से भी बड़ी जंग भूतालाघाटी की थी और इस्लामी सल्तनत के खिलाफ यह मेवाड़ का पहला संघर्ष था। इसके चर्चे लम्बे समय तक बने रहे। यहां तक कि १२७३ ईस्वी के चीरवा शिलालेख में भी इस जंग की चर्चा है। 'भूतालाघाटी की लड़ाई' की ख्याति के कारण ही 'खमनोर की लड़ाई' भी हल्दीघाटी की लड़ाई के नाम पर जानी गई।
गुलाम वंश के संस्थापक कुतुबुद्दीन एबक के उत्तराधिकारी अत्तमिश या इल्तुतमिश (१२१०-१२३६ ईस्वी) ने दिल्ली की गद्दी संभालने के साथ ही राजस्थान के जिन प्रासादाें के साथ जुड़े विद्या केंद्रों को नेस्तनाबूत कर अढाई दिन के झोंपड़े की तरह आनन फानन में नवीन रचनाएं करवाई, उसी क्रम में मेवाड़ पर यह आक्रमण भी था। तब मेवाड़ का नागदा नगर बहुत ख्याति लिए था और यहां के शासक जैत्रसिंह के पराक्रम के चर्चे मालवा, गुजरात, मारवाड़, जांगल आदि तक थे। कहा तो यह भी जाता है कि नागदा में ९९९ मंदिर थे और यह पहचान देश के अनेक स्थलों की रही है। अधिक नहीं तो नौ मंदिर ही किसी नगर में बहुत होते हैं और इतनों के ध्वंसावशेष तो आज भी मौजूद हैं ही। ये मंदिर पहाड़ी और मैदानी दोनों ही क्षेत्रों में बनाए गए और इनमें वैष्णव सहित लाकुलिश शैव मत के मंदिर रहे हैं।
जैत्रसिंह के शासन में मेवाड़ की ख्याति चांदी के व्यापार के लिए हुई। गुजरात के समुद्रवर्ती व्यापारियों तक भी यह चर्चा थी किंतु व्यापार अरब तक था। इस काल में ज्योतिष के खगोल पक्ष के कर्ता मग द्विजों का प्रसार नांदेशमा तक था। कहने को तो वे सूर्य मंदिर बनाते थे मगर वे मंदिर वास्तव में वर्ष फल के अध्ययन व वाचन के केंद्र थे।
अल्तमिश की आंख में जैत्रसिंह कांटे की तरह चुभ रहा था क्योंकि वह मेवाड़ के व्यापार पर अपना कब्जा करना चाहता था। जैत्रसिंह ने उसके हरेक प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पर अल्तमिश ने अजमेर के साथ ही मेवाड़ को अपना निशाना बनाया। चौहानों की रही सही ताकत को भी पद दलित कर दिया और गुहिलों के अब तक के सबसे ताकतवर शासक काे कैद करने की रणनीति अपनाई। यह योजना पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ मोहम्मद गौरी की नीति से कोई अलग नहीं थी। उसने तत्कालीन मदारिया-मियांला, केलवा और देवकुलपाटन के रास्ते नांदेशमा के नव उद्यापित सूर्य मंदिर को तोड़ा, रास्ते के एक जैन मंदिर को भी धराशायी किया। नांदेशमा का सूर्यायतन मेवाड़ में टूटने वाला पहला मंदिर था।
तूफान की तरह बढ़ती सल्तनत सेना को जैत्रसिंह ने मुंहतोड़ जवाब देने का प्रयास किया। तलारक्ष योगराज के ज्येष्ठ पुत्र पमराज तांतेड के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने हरावल की हैसियत से भूताला के घाटे में युद्ध किया। हालांकि वह बहुत वीरता से लड़ा मगर खेत रहा। उसने जैत्रसिंह पर आंच नहीं आने दी। गुहिलों ही नहीं, चौहान, चदाणा, सोलंकी, परमार आदि वीरवरों से लेकर चारणों और आदिवासी वीरों ने भी इस सेना का जोरदार ढंग से मुकाबला किया। गोगुंदा की ओर से नागदा पहुंचने वाली घाटी में यह घमासान हुआ। लहराती शमशीरों की लपलपाती जबानों ने एक दूसरे के खून का स्वाद चखा और जो धरती बचपन से ही सराहा होकर मां कहलाती है, उसने जवान ख्ाून को अपने सीने पर बहते हुए झेला।
इसमें जैत्रसिह को एक शिकंजे के तहत घेर लिया गया किंतु उसको योद्धाओं ने महफूज रखा और पास ही नागदा के एक साधारण से घर में छिपा दिया। अल्तमिश का गुस्सा शांत नहीं हुआ। उसने आगे बढ़कर नागदा को घेर लिया। एक-एक घर की तलाशी ली गई। हर घर सूनसान था। उसने एक एक घर फूंकने का आहवान किया। यही नहीं, नागदा के सुंदरतम एक एक मंदिर को बुरी तरह तोड़ा गया। हर सैनिक ने अपनी खीज का बदला एक एक बुत से लिया। सभी को इस तरह तोड़ा-फोड़ा कि बाद में जोड़ा न जा सके...। तभी तो यहां कहावत रही है-
'अल्त्या रे मस मूरताऊं बाथ्यां आवै, जैत नीं पावै तो नागदो हलगावै।'
इस पंक्ति मात्र चिरस्थायी श्रुति ने भूतालाघाटी के पूरे युद्ध का विवरण अपने अंक में समा रखा है।
१२२७ ई. भूताला का युद्ध - ये युद्ध रावल जैत्रसिंह व इल्तुतमिश के बीच गोगुन्दा के पास हुआ। तलारक्ष योगराज के पुत्र पमराज नागदा नगर नष्ट होने के समय भूताला के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।
१२२९ ई. नागदा पर इल्तुतमिश का अन्तिम हमला।
१२३४ ई. दोनों सेनाओं के बीच फिर युद्ध हुआ, पर इस बार रावल जैत्रसिंह ने इल्तुतमिश को पराजित किया।
इस घमासान में किस-किस हुतात्मा के लिए तर्पण किया जाता। जब पूरा ही नगर जल गया था। घर-घर मरघट था। चौदहवीं सदी में इस नगर को एक परंपरा के तरह जलमग्न करके सभी हुतात्माओं के स्थानों को स्थायी रूप से जलांजलि देने के लिए बाघेला तालाब बनवाया गया..।
इस युद्ध की स्मृतियां तक नहीं बची हैं, इतिहास में एकाध पंक्तिभर मिलती है, मगर यह बहुत खास तरह का संघर्ष था।
१२३६ ई. बीमारी के चलते इल्तुतमिश की मृत्यु हुई और उसकी पुत्री रज़िया सुल्तान दिल्ली के तख्त पर बैठी।
१२३७ ई. रावल जैत्रसिंह ने सुल्तान बलबन को पराजित किया।
(ये बात कुछ ख्यातों में गलत दर्ज कर ली गई, क्योंकि इस वक्त दिल्ली पर रज़िया सुल्तान का राज था, जबकि बलबन तो रावल जैत्रसिंह के देहान्त के बाद दिल्ली के तख्त पर बैठा)
१२५३ ई. रावल जैत्रसिंह का देहान्त।
विडंबना देखीये की इतने महान शासक के सम्बन्ध में हमें भारतीय इतिहास में बिलकुल जानकारी प्राप्त नहीं होती है। संभवत इसका कारण ये रहा होगा की इल्तुतमिश की विफलता के कारण इल्तुतमिश के दरबारी इतिहासकारों ने इस युद्ध का वर्णन करना मुनासिब न समझा हो तथा इसी प्रकार जैत्रसिंह के समकालीन शासक जो उससे परास्त हुवे थे उन्होंने भी जैत्र सिंह का उल्लेख अपने शिलालेखो में नहीं किया होगा। जैत्रसिंह के सम्बन्ध में हमें नान्देशमा के चारभुजा मंदिर के समीप स्थित सूर्यमंदिर के एक स्तम्भ से एक शिलालेख (1222 ईस्वी)प्राप्त होता है तथा दूसरा एकलिंग जी के मुख्य मंदिर के सामने स्थित नदी की प्रतिमा के पास रक छोटे से स्मारक शिला लेख (1213)जैत्रसिंह से सम्बंधित है। इसके अलावा जैत्र सिंह से सम्बंधित आहाड़ में रचित दो जैनग्रन्थ जो की ताड़ पत्रों पर निर्मित किये गए थे गौरीशंकर ओझा के अनुसार खम्भात नगर के शान्तिनाथ के मंदिर में विद्यमान है जो की संभवत वहा से किसी संग्रहालय में रखवा दिए गए होंगे। जैत्रसिंह के युध्हो के संभंध में हमें केवल चीरवा के और रावल समर सिंह के आबू के शिलालेखो से जानकारी प्राप्त होती है।
मित्रो जब भी मेवाड़ के इतिहास के बारे में पढ़े या लिखे या किसी से बात करे तो मेवाड़ के महान शासक रावल जैत्रसिंह की स्मृति अवश्य करे।
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* चीरवा अभिलेख - वियाना ऑरियंटल जर्नल, जिल्द २१
* इंडियन एेटीक्वेरी, जिल्द २७
* नांदेशमा अभिलेख - राजस्थान के प्राचीन अभिलेख (श्रीकृष्ण 'जुगनू')
In Indian state of Rajasthan, the state of Mewar of Guhil rajputs was very prominent and Jaitra singh was from same Guhil dynasty of Mewar, the dynasty was not very prominent that time and after a chaotic period, Mewar was fortunate to see this man sitting on royal throne in 1213 AD. The situation of Mewar was very challenging as not only it was under dominance of Solankis of Gujarat but Turks had already reached Ajmer and occupied that as a place to expand further into Rajputana( I will post a map later on ), the Delhi Sultanate was ruled by energetic slave king Iltutmish at that time. The task was to expand boundaries of Mewar and withstand Turkic attacks. Jaitra singh( who is also called Jaitrasimha, simha being correct term meaning lion) achieved both these major activities.
Around modern day Jodhpur, there was a petty state of Nadol which was ruled by Chauhans. Jaitra singh attacked this state and annexed it to Mewar, the defeated king also married his daughter with son of Jaitrasimha. During his first year of reign, Jaitra Singh defeated the Devapal the Paramar Rajputs ruler of Malwa who rule Chittor, reinstating its fort as the capital of Mewar. This probably occurs shortly after Sultan Iltutmish of Delhi has destroyed Nagda.
Mewar was dominated and infact was sort of vassal to Solankis of Gujrat and till 1182, capital of Mewar, Aghata was in hands of solankis. Jaitra Singh wanted to free his state completely and so attacked first Lavanya Prasad and then Virdhawal and the Solankis were forced to hand over Aghata completely to Mewar as also recognizing formal independence.
Iltutmish the Turk Sultan had expanded his rule till Ajmer and so now decided to attack Mewar itself. He set out with a large army and succeeded in capturing Nagda the main city of Singh and mercilessly destroyed the city after massacring women and children. Jaitra Singh collected his forces and made a daring attack on Sultan's army just 12 miles away from destroyed city, the Turk army was defeated with very heavy losses and fled. We have many inscriptions which tell us about this brilliant victory( Iltutmish was a sultan of a very vast empire while Jaitra Singh was ruler of petty state). The battle was fought around 1225 AD.
The destruction of Nagda led to Jaitra Singh transferring his seat of governance to Chittaur and aghata completely. Rawal Jait Singh developed Aaghtapur (aayad) as a new capital. Rawal Tez Singh (1250 - 1273 AD), the son of Rawal Jait Singh, made Chittor his capital.
Son of Sultan of Khwarizm Allauddin, Jalaluddin Manbarni had asked for shelter at court of Iltutmish which was refused, while he was returning, he attacked Sindh and also faced Jaitra Singh who expelled him without much difficulty.
Iltutmish was dead by 1236 and after a succession crisis, his son Nasiruddin sat on throne around 1246. This Sultan had a great minister that is Balban and so he ruled without much difficulty. One of his brothers Jalalauddin rebelled and took refuge in court of Jaitra Singh, this led Sultan to chase him and in a sort of long series of skirmishes in areas around Chittaur extending to a period of around 8 moths, Sultan went away without getting any success.
This was second times when a Turk army returned from Chittaur after being mauled.
These were his military achievements which are quite great on their own when we look at vastness of Turkic empire and their strength( they were successfully fighting Mongols in 1240s). His chief ministers were Dungarsingh and Jagatsingh while royal treasury was looked after by Talhana a very capable man who served king for all these years.
The fort of Chittaurgarh which was one of strongest in India was already there but it was he who strengthened it by stone walls and the most advanced siege weapons of that time were powerless against this fort in 1303.
The King died in 1263 after a long reign of 40 years and was succeeded by his able son Tejsingh.
As for information, we have many inscriptions of his as well as his successors which tell us about his achievements. Besides two books, 'Oghaniryukti' and 'pakshikavriti' written during his reign also throw a lot of information about him.
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