Saturday, May 25, 2019

SHRAVASTI BHUKTIPALA MAHARAJA SUHIRDADHWAJ - IMMORTAL RAJPUTS

आत्मारामप्हलादुपार्ज्यविजरं देवेनदित्यद्विशः

ज्योतिर्व्विजमकृत्तिमे गुणवती क्षेत्रे यदुप्तं पुरा।

श्रेयः कन्दवपुस ततस्सम्भवद्भास्वान्तशोहापरे

मन्विक्ष्वाकु ककुत्स्थ मूल पृथवः क्ष्मापाल कल्पद्रुमः।।

तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहितपदे धाम्नि वज्रेषु घोरं

रामः पौलस्त्यहिंस्रक्षतविहित समित् कर्मचक्रे पलाशैः।

श्लाघ्यस्तस्यानुजो सौ मघवामदमुशो मेघनादस्यसंख्ये

सौमित्रृस्तिवरडण्डः प्रतिहरणविधेर्यः प्रतिहारासीत्।।





प्रतिहार राजवंश का इतिहास अयोध्या के सूर्यवंश से ही सम्पृक्त है। प्रतिहार-नरेश मिहिरभोज (833-885 ई.) की ग्वालियर-प्रशस्ति के अनुसार मनु, इक्ष्वाकु तथा ककुत्स्थ जिस वंश के मूल सम्राट् थे, उनके ही वंशज और रावणान्तक राम के अनुज, जो राम के सशक्त प्रतिहार थे, और जिन्होंने मेघनाद जैसे शत्रु को युद्ध में परास्त किया था, उन लक्ष्मण से ही यह प्रतिहार वंश प्रचलित हुआ।
810 ई. से 1036 ई. के मध्य


नागभट्ट द्वितीय (810-833 ई.),
रामभद्र (833-836 ई.),
मिहिरभोज (836-885 ई.),
महेन्द्रपाल प्रथम (885-910 ई.),
भोज द्वितीय (910-912 ई.),
विनायकपाल (912-944 ई.),
महेन्द्रपाल द्वितीय (944-947 ई.),
देवपाल (947-953 ई.),
विनायकपाल द्वितीय (953-957 ई.),
विजयपाल (957-988 ई.),
राज्यपाल (988-1019 ई.),
त्रिलोचनपाल (1019-1035 ई.)
एवं यशपाल (1035-1036 ई.) नामक 13 प्रतिहारवंशीय शासकों का कन्नौज पर शासन रहा।
इस कालावधि में भी अयोध्या कन्नौज के ही अधीन रही। अवधवासी लाला सीताराम लिखते हैं- 'आठवीं शताब्दी में अयोध्या कन्नौज के शासन में चली गयी। प्रतिहारों का राज कन्नौज से 160 मील उत्तर श्रावस्ती से काठियावाड़ तक और कुरुक्षेत्र से बनारस तक फैला हुआ था।'


प्रतिहारों के समय में कोसलप्रान्त अथवा श्रावस्तीभुक्ति के भुक्तिपाल बैस क्षत्रिय थे। बैस राजवंश के राजा त्रिलोकचन्द्र ने सन् 918 ई. में दिल्ली के राजा विभवपाल को परास्त कर कोसलप्रान्त पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। श्रावस्तीभुक्ति का राज्य त्रिलोकचन्द्र के पुत्र भुक्तिपाल मयूरध्वज को मिला। उसके बाद क्रमश: त्रिलोकचन्द्र के वंशजों - हंसध्वज, मकरध्वज, सुधन्वाध्वज और सुहृदध्वज के अधिकार में ही श्रावस्तीभुक्ति का शासन रहा। भुक्तिपाल सुहृदध्वज की लोकप्रसिद्धि वर्तमान में महाराज सुहेलदेव के नाम से है। महाराज सुहृदध्वज उपाख्य सुहेलदेव अत्यन्त वीर एवं साहसी शासक थे।


प्रतिहार वंश के बारहवें शासक त्रिलोचनपाल (1019-1035 ई.) के राजत्वकाल में महमूद ग़ज़नवी के भांजे सैयद सालार मसऊद ग़ाज़ी ने अयोध्या पर आक्रमण किया। 1033 ई. में सालार मसऊद ने अयोध्या के रामजन्मभूमि-मन्दिर को ध्वस्त करने की इच्छा से अयोध्या पर चढ़ाई की, किन्तु उस समय सम्राट् त्रिलोचनपाल की श्रावस्तीभुक्ति के महाबली भुक्तिपाल महाराज सुहृदध्वज ने सत्रह स्थानीय राजपूत राजाओं का संघ बनाकर सालार मसऊद से भयंकर युद्ध किया। महाराज सुहृदध्वज ने 14 जून, 1033 ई. को बहराइच से 7 कोस दूर पयागपुर के सन्निकट घाघरा नदी के तट पर सालार मसऊद समेत उसकी सेना को नष्ट कर डाला। सूर्यवंश की बैस क्षत्रिय शाखा में पैदा हुए महाराज सुहृदध्वज की वीरता को अमरत्व प्रदान करने के लिए अवधप्रान्त के प्रतिष्ठित कवि कीर्तिशेष पण्डित गुरुसहाय दीक्षित 'द्विजदीन' ने 'श्रीसुहेल-बावनी' का प्रणयन किया है। महाराज सुहृदध्वज से सालार मसऊद के अत्याचार का वर्णन करते हुए रक्षा की गुहार करती प्रजा के मनोभावों का चित्रण करते हुए कविवर द्विजदीन लिखते हैं-


भानुकुल भूप विनै सुनौ श्री सुहृदध्वज,


घाघरा पै घोर सेन घुमड़ति आवै है।


तोरत जनेऊ और काटत गऊगन त्यों,


झोंटी झूड़ि बाँधे झण्डा झुमड़ति आवै है।


कवि 'द्विजदीन' समुहान सूरमा न कोऊ,


मान गरुआन अति अकड़ति आवै है।


गजनी निवासी साहू सैयद सलार संग,


जीत की उमंग मढ़्यौ उमड़ति आवै है।।


उपर्युक्त छन्द में कवि द्विजदीन ने स्पष्ट रूप से महाराज सुहृदध्वज को भानुकुल भूप (सूर्यवंशी नरेश) कहा है। इसी तरह एक अन्य घनाक्षरी में 'अंशुमाली अंश है कि अंशुमान तेरे सर, अन्धाधुन्ध वेधि डारै बैरिन के झुण्ड को' लिखकर कवि द्विजदीन ने महाराज सुहृदध्वज के सूर्यवंशी शौर्य का स्मरण किया है। वर्तमान में जातीय राजनीति के कुचक्र-जाल में फँसे कतिपय स्वार्थी नेताओं ने महाराज सुहृदध्वज को राजभर कुल में पैदा हुआ बताकर महाराज सुहृदध्वज के गौरवशाली इतिहास को नष्ट करने का अक्षम्य अपराध किया है। भारत की एकता-अखण्डता के लिए विदेशी आक्रान्ताओं का दमन करनेवाले महाराज सुहृदध्वज स्वप्न में भी नहीं सोचे होंगे कि कभी ऐसा भी समय आयेगा, जब उनकी जाति ही बदल दी जायेगी। श्रावस्ती से युद्ध के लिए निकले महाराज सुहृदध्वज की वीरता का वर्णन करते हुए कवि की लेखनी का चमत्कार देखने योग्य है-


स्रावती नगर तै कढ़्यौ है श्री सुहृदध्वज,


संग चतुरंग रन रंग भरकै लगे।


हय लागे हींसन त्यों गज चिक्करन लागे,


ज्वानन के आँख के तरेरे तरकै लगे।


कवि 'द्विजदीन' दिग्गजन पै दरेरा पर्यो,


हेरा पर्यो हर की औ' सेस सरकै लगे।


आतुर तुरक दल खण्डन को मण्डि रन,


भानुकुल भूप भुजदण्ड फरकै लगे।।


कविवर द्विजदीन ने 'श्रीसुहेल-बावनी' में महाराज सुहृदध्वज और सालार मसऊद की सेना के मध्य हुए भीषण संग्राम का रोमांचक वर्णन किया है। महाराज सुहृदध्वज की तलवार का वर्णन करते हुए द्विजदीन लिखते हैं-


देखत मियान कौं मियान तैं निकरि आयी,


नंगी नंगी नचति नहानी सोन कन में।


रुण्ड पिचकारी करि मारति फुहारे लाल,


लाल लाल मुण्डन उछारे कुम्कुमन में।


'द्विजदीन' घाघरा कौ घोरि लाल लाल कीन्ह्यो,


पावै ताहि लाल करि डारै एक छन में।


भूपति सुहृदध्वज तेरी करवाल है कि,


बार-बनिता है होली खेलत नरन में।।


सालार मसऊद युद्ध में मार डाला गया। सैयद सालार मसऊद की मृत्यु के तुरन्त बाद अजमेर से मुज़फ़्फ़र ख़ान सहायता के लिए आया। महाराज सुहृदध्वज ने मुज़फ़्फ़र ख़ान का भी वध कर दिया। सैयद सालार मसऊद का अयोध्या-विजय का स्वप्न इसलिए भी अधूरा रह गया कि उसके विरुद्ध अयोध्या के दिगम्बर साधुओं ने भी विद्रोह कर दिया। तत्कालीन इतिहासकार शेख़ अब्दुर्रहमान चिश्ती ने इस युद्ध का रोमांचक वर्णन करते हुए अपनी पुस्तक 'मीरात-ए-मसूदी' में लिखा है- 'वे नाकूस बजाते थे, घण्टा हिलाते थे। बड़े सोरहे आतफाक थे। वे बड़े महन्त जो मोहनभोग लगाते थे, वे बढ़कर तलवार का वार भी करते थे। चोटी के जरार थे। हिन्दू में नामूदार थे। लात-वमनात पर जान से फिदा थे।...इस्लाम के नाम पर जो अन्धड़ अयोध्या, बहराइच तक जा पहुँचा था, वह सब नष्ट हो गया। इस युद्ध में अरब-ईरान के हर घर का चिराग़ बुझा। दो सौ वर्षों आगे तक मुसलमान भारत पर हमला करने का मन नहीं बना सके। दो सौ वर्षों तक के ज़्यादा समय तक यहाँ बुतपरस्ती जारी रही और हुनूद (हिन्दू) की अमलदारी रही।' अवधवासी लाला सीताराम लिखते हैं- 'सैयद सालार मसऊद ग़ाज़ी ने अवध पर आक्रमण किया और बहराइच में अपनी हड्डियाँ सड़ने को छोड़ गया।'

A statue erected in the honour of MahaRaja Suhirdadhwaj.


The tale begins in 1011, when the Muslims of Ajmer sought help of Sultan Mahmud against the local Hindu rulers. The Sultan accepted their demands, thereby establishing his influence on Ajmer. Soon enough, Salar Saiyyad Sahur defeated the rulers of Ajmer, bringing it under the rule of Sultan Mahmud. Pleased with his performance, the Sultan married off his sister to Salar Sahur, with whom Sahur bore a son, Saiyyad Salar Masud in 1014. As barbaric and cruel as his uncle, it was upon Masud’s suggestion that the Sultan sought to tear apart the Somnath Temple. Seeking to invade the Indian Peninsula, Masud, at the bare age of 16 had managed to bring Delhi, Multan, Meerut, Kannauj and Varanasi, under his fold. He faced some resistance in meerut by remaining dor rajputs, which was eventually dispelled with the arrival of his father, Salar Sahu. With the ambition of bringing whole of India under Islamic rule, Salar Masud was just an extension of the brute barbarian that Sultan Mahmud had been. However, fate had something else in store for him.

Now it happened to be that there was a province near Bahraich named Shravasti Bhukti, whose Bais- Rajput ruler Mordhwaj had rebelled against Masud. Losing against Masud, Mordhwaj had to face great difficulties in his route to the throne of Shravasti Bhukti, and none knew it better than his eldest son, Suhirdadhwaj. Maharaja Suhirdadhwaj was resolute in his aim: defeat the invading forces from Ghaznavi kingdom and restore the pride of Sanatan Dharma.




The nephew of Mahmood Gazni, known as Masud Gazni, invaded India with army of more than 100,000 men in may 1031 AD. This time, the army was not a raiding party like that of Mahmood who came with intention of raiding, looting and retreating with the loot to Afghanistan. They were backed by the imperial army Persian empire and came here with the intention of permanent conquest and Islamization of India.


After victories across North Indian plains, Masood Gazni settled at Bahraich near Lucknow. He stayed here up to mid 1033.


Meanwhile, 17 Rajput Kings of north India forged an alliance. This is biggest confederation that have ever existed in India. The head of this confederation was MahaRaja Suhirdadhwaj, a Bais-Rajput King. It would be interesting to know how the alliance was forged and how was the game of chess played before the final showdown on 14th June.

It is not that it is a hidden history this whole battle of bahraich is mentioned in the "Gazetteer of the Province of Oudh" by W C Bennett



As per the Gazetteer

Suhel dev was the killer of Sayyid Salar Gazi.

This account is taken from the book written by And ur Rahman Chishti during the reign Jahangir taken from Taarikh I Mahmudi written by Mulla Muhammad Ghaznavi who was the servant of Subutgain.




Sayyad Salar made Mahmud the master of North West of India. Though he quit Mahmud's army at the age of 16 at the request of his uncle but driven religious fervour begged to be allowed to return to the army to carry deep strikes within the heart of India


After Capturing Delhi, Meerut and Kannauj Salar reached Satrikh which is said to be in Barabanki but it's description tallies better with Ayodhya.




In June 1033, as per Hindu traditions, Masood Gazni was intimated by Rajput confederation that the land belonged to Rajputs and Hindus and Masood should evacuate these lands. Masood replied that all land belongs to Khuda and hence he would not retreat. He sent his deputies to fight at Benaras, Gopaman and Bahraich. But despite multiple attempts by Masud, the rulers at bahraich refused to accept his suzerainty ( The Pagans of Bahraich were putting a brave front.). In order to suppress the rebellion, Saiyyad Salar Masud himself arrived at Bahraich in 1033. 




In the battle of Bahraich the Salar Massud destroyed the Sun temple near Bahraich. On seeing the ruins of a Temple dedicated to the Sun God, he was livid by its grandeur and aura. He wanted to destroy the entire complex and replace it with the mosque, which turned out to be the greatest mistake of his life.



The Hindus were being defeated one by one untill the arrival of Shravasti Bhuktipal Suhirdadhwaj who declared war against Salar Masud. Maharaja Suhirdadhwaj had managed to bring thousands of warriors under one fold. And then began the war of 1034. On 13th June, Morning, all the Ra'es around Bahraich Assembled at the banks of the river Kosala. Rajput army of about 120,000 descended on Gazni camp of Bahraich. Masood's army was completely besieged and encircled. The battle continued for hours. In the end, each and every man in Masood's camp was killed. No POW's were taken, no mercy was shown on the Afghan army. The location of this battle to be precise was near Chittaura Jheel, a lake about 8 KM away from modern Bahraich on Bahraich-Gond Road. The battle ended on 14th June with Victory of MahaRaja Suhirdadhwaj and his Rajput alliance.

The invasion was completely crushed and such resounding was this victory that none of the king from Northwest dared to invade India for 160 years..

Unfortunately, not much has been written about the war.  However, according to the historical epic Mirat-e-Masudi, written by Sufi saint Abdur Rehman Chishti, Suhirdadhwaj brutally defeated Saiyyad Salar Masud and left him to die on the battlefield and with this, we conclude the story of Raja Suhirdadhwaj. His Victory over Saiyyad Salar Masud was so brutal that no invader dared to set his eyes on India for the next 150 years. May be he didn’t find a mention in the ancient history which we’ve been taught since our childhood. But that doesn’t matter. His story is of utmost bravery. And yes, we didn’t give him the legacy he deserved. But, sometimes, heroes don’t look for recognition. They look for salvation. And what greater salvation than protecting and defending one’s motherland. For sometimes it doesn’t matter what the future reminisces about you. What matter is who you choose to be. And that is what defines you. That is what defines heroes.

This is one of the golden pages of Indian History. India is indebted to series of Rajput Kings along the western border of India and in Central India. They were extremely instrumental in keeping Arab invaders at bay for 3 centuries. This was the time when Arabs were at their zenith. The Khilafat extended from Western Sindh to Spain.. However, they could not defeat Rajputs and enter Indian heartlands.

Rajputs were also instrumental in initial defeat of Muslim invaders from Northwest. The Battle of Bahraich was the peak point of Rajput valor. Their resistance waned with time over next 5 centuries. MahaRana Pratap was perhaps last famous Rajput general to fight invaders.

The shameful thing is that Gazi Masud's garve has been transformed into Gazi Baba ki mazar and is being revered by many of the idiot and stupid Hindus from whom this history has been hidden from the mainstream history books. 

Mausoleum of Saiyyad Salar Masud.

The tomb of Masood Gazni is still present at Bahraich. People there have elevated him to the status of peer and Gaazi and worship him. And there is no single mention of this glorious victory of Hindus. This, in my opinion, is an insult of Rajput valor. Same is the case with tomb of Afzal Khan at Pratapgarh in Maharashtra who was slain by Shivaji.


We do not oppose theistic beliefs. However, people worshiping the tombs of people like Masood Gazni and Afzal Khan should be made aware of their heinous deeds.



We came across this verse written by Goswami Tulasidas pertaining to Bahraich and tomb of Gazni..


लही आँखि कब आँधरे बाँझ पूत कब ल्याइ ।
कब कोढ़ी काया लही जग बहराइच जाइ ॥
--Dohavali


When did a blind person regain his eye sight?, when did a barren woman get son? And when a leper was cured for his leprosy and got his beautiful body back?. But even then people visit Baharaich. (for no particular reason out of misplaced superstition)


It is for every one to decide now; even the contemporary Indic saints were opposed to idea of worshipping the tombs of invaders and mass-murderers and elevating them to the higher pedastle of sainthood.




सन्दर्भ


Epigraphia Indica, (1925-26), Vol. XVIII, Verses 2-3, p. 107


अवधवासी लाला सीताराम : अयोध्या का इतिहास, पृ. १४०


पण्डित गुरुसहाय दीक्षित 'द्विजदीन' : श्रीसुहेल-बावनी, छन्द संख्या १९,२७,२८,३४




ब्रजगोपाल राय 'चंचल' : मन्दिर वहीं बनायेंगे मगर क्यों?, पृ. ५६ पर उद्धृत


अवधवासी लाला सीताराम : अयोध्या का इतिहास, पृ. १४१


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