दिग्दिगन्त कीर्तिमान् षडभाषाविद अचूक शब्द वेधी तीरंदाज धर्म मातृभूमि रक्षार्थ सर्वस्व न्यौछावर कर्ता यशोमूर्ति पृथ्वीराज को सश्रद्ध नमन।
पृथ्वीराज चौहान स्मारक, अजमेर, 1996:
सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने हिंदुस्तान को पदाक्रान्त करने के विदेशी विधर्मी आक्रामकों के स्वप्न को जीवन परयन्त साकार नहीं होने दिया।
भारत वर्ष के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को उनकी जयंती पर समर्पित खोज परक लेखों की एक विशेष श्रंखला जिसका उद्देश्य पृथ्वीराज चौहान के विराट और महान व्यक्तित्व को सही ढंग से प्रस्तुत करना है। पृथ्वीराज चौहान भारतीय इतिहास का एक ऐसा चेहरा है जिसके साथ वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों ने सबसे ज्यादा ज्यादती की है।
पृथ्वीराज जैसे महान, निर्भीक योद्धा, स्वाभिमानी युगपुरुष, अंतिम हिन्दू सम्राट, तत्कालीन भारतवर्ष के सबसे शक्तिशाली एवं प्रतापी राजा को इतिहासकारों ने इतिहास में बमुश्किल आधा पन्ना दिया है और उसमें भी मोहम्मद गौरी के हाथों हुयी उसकी हार को ज्यादा प्रमुखता दी गयी है।
विसंगतियों से भरे पड़े भारतीय इतिहास में विदेशी, विधर्मी, आततायी, मलेच्छ अकबर महान हो गया और पृथ्वीराज गौण हो गया। विडंबना देखिये आज पृथ्वीराज पर एक भी प्रामाणिक पुस्तक उपलब्ध नहीं है। महान पृथ्वीराज का इतिहास आज किंवदंतियों से भरा पड़ा है। जितने मुँह उतनी बात। जितने लेखक उतने प्रसंग। तमाम लेखकों ने सुनी सुनाई बातों या पुराने लेखकों को पढ़कर बिना किसी सटीक शोध के पृथ्वीराज चौहान पर पुस्तकें लिखी हैं। जन सामान्य में पृथ्वीराज चौहान के बारे में उपलब्ध अधिकांश जानकारी या तो भ्रामक है या गलत। आधी अधूरी जानकारी के साथ ही हम पृथ्वीराज चौहान जैसे विशाल व्यक्तित्व, अंतिम हिन्दू सम्राट, पिछले 1000 साल के सबसे प्रभावशाली, विस्तारवादी, महत्वकांक्षी, महान राजपूत योद्धा का आंकलन करते हैं, जो सर्वथा अनुचित है।
पृथ्वीराज चौहान के जन्म से लेकर मरण तक इतिहास में कुछ भी प्रमाणित नहीं मिलता। विराट भारत वर्ष के विराट इतिहास का पृथ्वीराज एक अकेला ऐसा महानायक, जिसके जीवन की हर छोटी बड़ी गाथा के साथ तमाम सच्ची झूंठी किंवदन्तिया और कहानियां जुड़ी हुयी हैं। इस नायक की जन्म तिथि 1149 से लेकर 65, 66, 69 तक मिलती है। इसी तरह मरने को लेकर भी तमाम कपोल कल्पित कल्पनायें हैं। कोई कहता है कि अजमेर में मृत्यु हुयी तो कोई कहता है अफगानिस्तान में, कोई कहता है मरने से पहले पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को मार दिया था तो कोई कहता है गौरी पृथ्वीराज के बाद भी लम्बे समय तक जीवित रहा। पृथ्वीराज और मोहम्मद गौरी के युद्धों की संख्या से लेकर उनके युद्धों के परिणामों तक, पृथ्वीराज को दिल्ली की गद्दी मिलने से लेकर अनंगपाल तोमर या तोमरों से उसके रिश्तों तक सब जगह भ्रान्ति है। यही नहीं पृथ्वीराज और जयचंद के संबंधों की बात करें या पृथ्वीराज-संयोगिता प्रकरण की कहीं भी कुछ भी प्रामाणिक नहीं। पृथ्वीराज के विवाह से लेकर उसकी पत्नियों तथा प्रेम प्रसंगों तक, हर विषय पर दुविधा और भ्रान्ति मिलती है।
पृथ्वीराज से जुड़े तमाम किस्से कहानियां जो आज अत्यंत प्रासंगिक और सत्य लगते हैं, इतिहास की कसौटी पर कसने और शोध करने पर उनकी प्रमाणिकता ही खतरे में पड़ जाती है। इनमें सबसे प्रमुख है पृथ्वीराज और जयचंद के सम्बन्ध। इतिहास में इस बात के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलते कि गौरी को जयचंद ने बुलाया था या उसने पृथ्वीराज के खिलाफ गौरी का साथ दिया था, क्योंकि किंवदंतियों तथा चारणों के इतिहास में इस बात की प्रमुख वजह पृथ्वीराज द्वारा संयोगिता का बलात् हरण करना बताया गया है। जबकि इतिहास में कहीं भी प्रामाणिक तौर पर संयोगिता का जिक्र ही नहीं मिलता। जब संयोगिता ही संदिग्ध है तो संयोगिता की वजह से दुश्मनी कैसे हो सकती है? लेकिन हाँ ! इतना तय है कि पृथ्वीराज और जयचंद के सम्बन्ध मधुर नहीं थे और शायद अत्यंत कटु थे। लेकिन इसकी वजह उनकी आपसी प्रतिस्पृधा तथा महत्वाकांक्षाओं का टकराव था। यह बात दीगर है कि पृथ्वीराज चौहान उस समय का सबसे शक्तिशाली एवं महत्वाकांक्षी राजा था। जिस तेजी से वो सबको कुचलता हुआ, हराता हुआ साम्राज्य का विस्तार कर रहा था, वो तत्कालीन भारतवर्ष के प्रत्येक राजवंश के लिये खतरे की घंण्टी थी। पृथ्वीराज तत्कालीन उत्तर और पश्चिम भारत के सभी छोटे बड़े राजाओं सहित गुजरात के भीमदेव सोलंकी तथा उत्त्तर प्रदेश के महोबा के चंदेल राजा परिमर्दिदेव को हरा चूका था, जिसके पास बनाफर वंश के आल्हा उदल जैसे प्रख्यात सेनापति थे। मोहम्मद गौरी के कई आक्रमणों को उसके सामंत निष्फल कर चुके थे।
ये पृथ्वीराज चौहान ही था जिसके घोषित राज्य से बड़ा उसका अघोषित राज्य था। जिसका प्रभाव आधे से ज्यादा हिंदुस्तान में था और जिसकी धमक फारस की खाड़ी से लेकर ईरान तक थी। जो 12 वीं शताब्दी के अंतिम पड़ाव के भारत वर्ष का सबसे शक्तिशाली सम्राट और प्रख्यात योद्धा था। जो जम्मू और पंजाब को भी जीत चुका था। गुजरात के सोलंकियों, उज्जैन के परमारों तथा महोबा के चन्देलों को हराने के बाद बड़े राजाओं तथा राजवंशों में सिर्फ कन्नौज के गहड़वाल ही बचे थे, जिन्हें चौहान को हराना था। उस समय की परिस्थितियों का अवलोकन करने तथा पृथ्वीराज के शौर्य का अवलोकन करने के बाद यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि पृथ्वीराज चौहान, जयचंद गहड़वाल को आसानी से हरा देता।
राजपूत काल के (13 वीं सदी ) से राजतन्त्र की समाप्ति तक (1947) पूरे राजपूत इतिहास में कोई भी राजपूत राजा पृथ्वीराज के समक्ष शक्तिशाली, महत्वाकांक्षी नहीं दिखता है। एक भी राजा ऐसा पैदा नहीं हुआ जिसने इतनी महत्वाकांक्षा दिखायी हो, इतना सामर्थ दिखाया हो जो आगे बढ़कर किसी इस्लामिक आक्रांता को ललकार सका हो, चुनौती दे सका हो, जिसने कभी दिल्ली के शासन पर बैठने की इच्छा रखी हो (अपवाद स्वरूप राणा सांगा का नाम ले सकते हैं)।
यदि पृथ्वीराज चौहान को युगपुरुष कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पृथ्वीराज दो युगों के बीच का अहम केंद्र बिंदु है। हम इतिहास को दो भागों में बाँट सकते हैं एक पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु से पहले का एक उसकी मृत्यु के बाद का। सन 712 (प्रथम मुस्लिम आक्रमण ) से लेकर 1192 (पृथ्वीराज की हार) तक का युग है राजपूतों के मुस्लिमों से संघर्ष का उन्हें हराने का उनसे जमकर मुकाबला करने का उनके प्रत्येक हमले को विफल बनाने का। जबकि 1192 में पृथ्वीराज की हार के बाद का युग है राजपूतों का मुसलमानों के मातहत उनका सामंत बनकर अपना राज्य बचाने तथा उनको देश की सत्ता सौंप उन्हें भारत का भाग्य विधाता बनाने का। पृथ्वीराज चौहान की हार सिर्फ पृथ्वीराज की हार नहीं थी बल्कि पूरे राजपूत समाज की, राजपूत स्वाभिमान की, सम्पूर्ण सनातन धर्म की, विश्व गुरु भारत वर्ष की तथा भारतीयता की हार थी। इस एक हार ने हमारा इतिहास सदा सदा के लिये बदल दिया। 800 साल में एक राजा पैदा ना हुआ जिसने विदेशी-विधर्मियों को देश से बाहर खदेड़ने का प्रयास किया हो। जिसने सम्पूर्ण भारत की सत्ता का केंद्र बनने तथा उसे अपने हाथ में लेने का प्रयास किया हो।
"सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पूर्वज"
"वासुदेव"
* सपादलक्ष के चौहान वंश के वास्तविक संस्थापक
* कहा जाता है कि सांभर झील का निर्माण इन्होंने ही करवाया था
"पृथ्वीराज चौहान प्रथम (1090-1110 ई.)"
वासुदेव चौहान के वंशज पृथ्वीराज प्रथम हुए
"अजयदेव/अजयराज द्वितीय (1110-35 ई.)"
* इन्होंने अजयमेरु दुर्ग का निर्माण करवाया
"अर्णोराज/आनाजी"
* अजयदेव के पुत्र अर्णोराज (आनाजी) के समय मुसलमानों ने राजपूताने पर चढ़ाई की और पुष्कर को नष्ट करते हुए उनकी फौज अजमेर की तरफ बढ़ी और आनासागर स्थान पर पहुंची, जहां अर्णोराज ने उनको सख़्त लड़ाई के बाद परास्त किया
इस लड़ाई में इतना रक्त बहा कि उसे साफ़ करवाने के लिए अर्णोराज ने आनासागर नामक तालाब का निर्माण करवाया
* 1150 ई. में चालुक्य शासक कुमारपाल ने अजमेर पर हमला करके उसे लूटा और अर्णोराज से अधीनता स्वीकार करवाई
* जगदेव ने अपने पिता अर्णोराज की हत्या कर दी
"विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) (1150-64 ई.)"
* अर्णोराज के बेटे बीसलदेव ने अपने भाई जगदेव का वध किया
(जगदेव का बेटा पृथ्वीभट्ट हुआ)
* बीसलदेव के समय मुस्लिम फौज बब्बेरा तक पहुंच गई
(बब्बेरा :- शेखावाटी के किसी इलाके का प्राचीन नाम)
बीसलदेव ने मुस्लिम फौज को परास्त कर आर्यावर्त से उनको खदेड़ने के लिए उत्तर की तरफ चढ़ाई की
* बीसलदेव ने संस्कृत विद्यालय की स्थापना की, बीसलसर नामक झील बनवाई व बीसलपुर नामक कस्बा बसाया
* बीसलदेव के 2 पुत्र हुए :- अपरगांगेय और नागार्जुन
"अपरगांगेय (1164-65 ई.)"
पितृहन्ता जगदेव के बेटे पृथ्वीभट्ट ने तोमरों के गढ़ हांसी पर कब्ज़ा कर लिया और फिर कुछ समय बाद बीसलदेव चौहान के पुत्र अपरगांगेय को मार दिया
"पृथ्वीराज चौहान द्वितीय (1165-69 ई.)"
पृथ्वीराज द्वितीय ने सतलज नदी के निकट स्थित नगर पंचपुर पर अधिकार किया|
"सम्राट पृथ्वीराज चौहान का परिचय"
* जन्म :- 1166 ई. (संवत 1223) में ज्येष्ठ माह की 12वीं तिथि को अन्हिलपाटन - गुजरात में
(कई इतिहासकार सम्राट के जन्म का वर्ष 1149 ई. बताते हैं, जो निश्चित रूप से गलत है, क्योंकि जयानक ने सम्राट के राज्याभिषेक के समय उनको एक बालक बताया है)
* पिता :- सोमेश्वर देव :- ये अर्णोराज व रानी कंचन देवी के पुत्र थे
* माता :- कर्पूरी देवी जी :- ये चेदिदेश की राजधानी त्रिपुरी के हैहय (कलचुरी) वंश के राजा अचलराज की पुत्री थी
* सम्राट के उपनाम :- रायपिथौरा, सपादलक्षेश्वर, भारतेश्वर
* सम्राट को 6 भाषाओं का ज्ञान था :- संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंस, पैशाची, मागधी, शूरसेनी
* दरबारी कवि :- जयानक, चंदबरदाई, बागीश्वर, जनार्दन, जिनपाल सूरी, पद्मप्रभा सूरी, आशाधर, विद्यापति
(कुछ इतिहासकार चंदबरदाई को उस ज़माने का न मानकर 16वीं सदी का एक भाट मानते हैं)
"जन्म के कुछ वर्ष बाद"
* दशावतार मुद्रित कण्ठाभरण (कण्ठ का आभूषण) और दुष्टग्रहों से रक्षा के लिए व्याघ्रनख से निर्मित आभरण बालक पृथ्वीराज को पहनाया गया
1173 ई.
"शहाबुद्दीन गौरी"
गज़नी और हिरात के बीच गोर का एक छोटा सा राज्य था, जिसकी राजधानी थी फ़िरोज़कोह
इस वक़्त फिरोज़कोह पर बहाउद्दीन मुहम्मदशाह के बड़े बेटे गयासुद्दीन का राज़ था
गयासुद्दीन ने अपने छोटे भाई शहाबुद्दीन गौरी को सेनापति नियुक्त कर रखा था
गयासुद्दीन गौरी ने गजों को हराकर गज़नी जीता
उसने गज़नी का राज शहाबुद्दीन गौरी को सौंपा और ख़ुद फिरोज़कोह आ गया
शहाबुद्दीन गौरी का दूसरा नाम मुईजुद्दीन मुहम्मद बिन साम था
शहाबुद्दीन गौरी का जन्म 1149 ई. को हुआ था
1174 ई.
* शहाबुद्दीन गौरी ने कुर्देज़ का मुल्क फ़तह किया
1175 ई.
* शहाबुद्दीन गौरी ने करामितह को शिकस्त देकर मुल्तान पर फ़तह हासिल की
* इन्हीं दिनों गुजरात के अजयपाल ने चौहानों पर हमला किया और सोमेश्वर देव को कर देने हेतु विवश किया
(उक्त घटना प्रबंध चिंतामणि ग्रंथ में लिखी है)
1176 ई.
* शहाबुद्दीन गौरी ने सनकरान वालों को शिकस्त दी
1177 ई.
* अजमेर के चौहान शासक सोमेश्वर देव का देहांत हुआ
* सोमेश्वर देव ने अपने शासनकाल में वैद्यनाथ के विशाल मंदिर का निर्माण करवाया व 5 अन्य विशाल मंदिर बनवाए
1177-78 ई.
"राज्याभिषेक"
पिता सोमेश्वर देव के देहांत के बाद अजयमेरु दुर्ग में बालक पृथ्वीराज चौहान का राज्याभिषेक हुआ
"पृथ्वीराज विजय के अनुसार सम्राट की दिनचर्या"
दिन के पहले पहर में सम्राट पृथ्वीराज चौहान स्नान आदि करके प्रातःकालीन प्रार्थना करते थे।
दूसरे पहर में सम्राट दरबार का आयोजन करते थे। दरबार में राज्य प्रशासन पर विचार विमर्श, नीति निर्धारण, अपराधों पर निर्णय, विदेशी राजदूतों से भेंट और उनसे उपहार प्राप्त किए जाते थे।
तीसरे पहर में सम्राट विश्राम व मन बहलाने के लिए चित्रशाला जाते थे। दोपहर के पश्चात पुनः राजकाज के कार्य करते।
फिर मल्लयुद्ध आदि का आनंद लेते व संगीतज्ञों से संगीत सुनते।
रात में राजमहल हज़ारों लैम्पों से रोशन होता था। शास्त्रार्थ, संगीत, नृत्य आदि का प्रदर्शन होता था, जिसके बाद सम्राट शयन कक्ष की ओर प्रस्थान करते।
* पृथ्वीराज विजय के अनुसार सम्राट के शासनकाल में नमक से साम्राज्य को बहुत आय होती थी। घोड़ों का भी काफी क्रय-विक्रय किया जाता।
"सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सामंत व मंत्री"
* अमात्य :- वामन
* अमात्य, सेनापति व महादण्डनायक :- गुजरात के नागर ब्राम्हण स्कंद (वामन का भाई)
* भुवनैक मल्ल :- कर्पूरी देवी जी के काका
* कैमास (कदम्बवास) :- ये सम्राट पृथ्वीराज के मुख्य सेनापति व संरक्षक थे। ये दाहिमा वंश के थे।
* राजा सूर परमार :- डाहल देश के शासक मधुदेव परमार के पुत्र
* प्रताप सिंह बड़गूजर :- राजौरगढ़ महाराज पृथ्वीपालदेव बड़गूजर के तीसरे पुत्र
* राजा संग्राम सिंह बड़गूजर :- ये देवती शाखा से संबंधित थे
* महासामंत कतिया सांखला :- ये वीकमपुर के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र फलौदी के शासक थे। फलौदी वर्तमान में जोधपुर जिले में स्थित है।
* हरिराज :- ये सम्राट पृथ्वीराज के भाई थे। सम्राट ने इनको हांसी दुर्ग में नियुक्त किया था।
* मायापुर के शासक चंद पुण्डीर :- सम्राट ने इनको पंजाब सीमा पर नियुक्त किया था। इन्हीं के पुत्र धीर पुण्डीर हुए।
* मेड़ता के सामन्त उदग (उदय)
* ददरेवा के गोपाल सिंह चौहान
* रामदेव
* सोमेश्वर
* धांधूराय
* प्रतापसिंह
* पद्मनाम
* विजयराय
* उदयराज
* रामराय बड़गूजर
* कनकराय बड़गूजर
1177 ई.
"नागार्जुन से लड़ाई"
विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) के पुत्र व सम्राट पृथ्वीराज चौहान के चचेरे भाई नागार्जुन ने बग़ावत करते हुए गुड़पुर दुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया
सेनापति कैमास व भुवनैक मल्ल समेत सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने फौज समेत चढ़ाई की
इस लड़ाई में नागार्जुन की माँ देसलदेवी भी उसके साथ थीं
(देसलदेवी दिल्ली के राजा मदनपाल तोमर की पुत्री थीं)
नागार्जुन तो भाग निकला, पर उसके सेनापति देवभट्ट व गुणभट्ट मारे गए
(देवभट्ट को फौज समेत दिल्ली के राजा पृथ्वीपाल तोमर ने भेजा था, जिससे पता चलता है कि इस समय अजमेर के सम्राट पृथ्वीराज चौहान और राजा पृथ्वीपाल तोमर के बीच वैमनस्य था)
(पाठकों को दिल्ली के राजा पृथ्वीपाल तोमर का नाम सुनकर अजीब लग सकता है, लेकिन इनसे संबंधित पोस्ट इसी सीरीज़ में आगे की जाएगी)
पृथ्वीराज चौहान नागार्जुन की पत्नी और माता को साथ लेकर अजमेर लौट गए
इस लड़ाई में गुणभट्ट व अन्य सैनिकों के सिरों को काटकर उनकी मुंड माला बनवाकर अजयमेरु दुर्ग के सामने वाले मैदान में लटका दी गई। विद्रोहियों को कठोर दंड दिया गया, ताकि दोबारा कोई बग़ावत करने का साहस ना करे।
(उक्त कठोर दंड का उल्लेख पृथ्वीराज विजय में मिलता है)
(जिन लोगों को ये भ्रम अब भी हो कि सम्राट ने गौरी को 17 बार जीवनदान दिया था, वे उक्त घटना को गौर से पढ़ें और विचार करें कि जब सम्राट अपने संबंधी शत्रुओं का ये हश्र करते थे तो गौरी जैसे शत्रु को जीवनदान क्यों देते !!!!)
"हांसी पर कार्रवाई"
* इसी वर्ष सम्राट ने हांसी के सामंत को पद से खारिज करके अपने भाई हरिराज को वहां नियुक्त किया
1178 ई.
"प्रस्ताव ठुकराना"
शहाबुद्दीन गौरी अन्हिलपाटन के चालुक्यों को पराजित करने से पहले चौहानों को अपने अधीन करना चाहता था
इस उद्देश्य से उसने अपना एक दूत सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पास भेजा और अधीनता स्वीकार करने को कहा
दूत का नाम कवामुल्मुल्क रुकनुद्दीन हम्जा था, जिसका ललाट काफी बड़ा था
दूत ने अपने सुल्तान का फ़रमान पढ़ते हुए कहा कि "तुम अपने कानों में दासता के ज़ेवर पहनकर सुल्तान के सामने हाज़िर हो जाओ और इस्लाम कुबूल करो"
यह प्रस्ताव सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने सुना तो क्रोधित होकर दूत से कहा कि "मैंने उस (गौरी) जैसे नरभक्षक का वध करने के लिए ही अपना विजय अभियान प्रारंभ किया है। ये जानते हुए भी उसने उसके दरबार में अधीनता का प्रस्ताव लेकर दूत भेज दिया, जिसे लोग 'अजयमेरु का सिंह' कहते हैं"
यह जवाब गौरी तक पहुंचा तो उसने किराडू के पास स्थित सोमेश्वर महादेव मंदिर को नष्ट कर दिया और फिर नाडौल में तबाही मचाई|
1178 ई.
"गाडरारघट्ट की लड़ाई"
शहाबुद्दीन गौरी नेहरवाला पहुंचा, जहां सोलंकी राजा मूलराज द्वितीय की माँ नाइकीदेवी ने उसका सामना किया
(राजा मूलराज द्वितीय बालक थे, इसलिए फौज का नेतृत्व नाइकीदेवी ने किया
कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस समय राजा भीमदेव का शासन था)
इस आक्रमण की ख़बर पृथ्वीराज चौहान को मिली, तो वे सोलंकी राजा की मदद करने को आतुर हो गए
तब सेनापति कैमास ने पृथ्वीराज चौहान को 'सुंदोपसुन्दन्याय' का उपदेश दिया और उन्हें सोलंकी राजा की मदद हेतु न जाने के लिए समझाया
बहरहाल, अर्बुद पर्वत के निकट गाडरारघट्ट के रणक्षेत्र में हुई इस लड़ाई में शहाबुद्दीन गौरी का विजय रथ रोकते हुए नाइकीदेवी ने उसको करारी शिकस्त दी
इस लड़ाई में पराजित होकर गौरी को भागना पड़ा
"हिंदुस्तान की स्थिति"
भारत के बड़े भू-भाग पर चौहानों का राज था, जिसकी राजधानी थी अजमेर
राजपूताने में दूसरा बड़ा राज्य मेवाड़ के गुहिलों का था
दिल्ली में तोमरों, मालवा में परमारों, गुजरात में सोलंकियों, पूर्व में कन्नौज, काशी आदि पर गहड़वालों का और वहां से पूर्व में बंगाल के सेनवंशियों का राज था
1179 ई.
* शहाबुद्दीन गौरी ने पेशावर पर हमला किया और फ़तह हासिल की
1180 ई.
* शहाबुद्दीन गौरी ने ख़ुसरो मलिक को गिरफ़्तार करके लाहौर पर फ़तह हासिल की
गौरी ने अली किर्माख को लाहौर का हाकिम नियुक्त किया
"श्योपुर विजय"
सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने सेनापति भुवनैकमल्ल को फौज समेत विदा किया
भुवनैकमल्ल ने चंबल के पश्चिमी भाग पर हमला किया और वहां के एक भाग (वर्तमान मध्यप्रदेश की श्योपुर तहसील) को विजय किया। इस विजय से चौहानों को कई हाथी प्राप्त हुए।
"महाराज पृथ्वीपाल देव पर आक्रमण"
अलवर वाला भादानक राज्य का हिस्सा बड़गूजर महाराज पृथ्वीपाल देव के अधिकार में था, जिस पर सम्राट ने आक्रमण किया
इस लड़ाई में सम्राट की विजय हुई, जिसके बाद महाराज पृथ्वीपाल ने अपने पुत्र रामराय की पुत्री नंदकंवर बड़गूजर का विवाह सम्राट के साथ किया|
1180 ई.
"भादानकों से युद्ध"
यह लड़ाई अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग समय पर होना बताई गई है, इसलिए इसका समयकाल 1177 ई. से 1181 ई. के बीच होना चाहिए
भादानकों का राज गुड़गांव, भिवानी, बयाना आदि इलाकों पर था
यदुवंशियों की राजधानी तिमनगढ़ थी, जिनका सामंत सोहनपाल भादानक (वर्तमान बयाना नगर) पर राज करता था
भादानकों से लड़ाई में विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) को भी क़ामयाबी नहीं मिली थी
सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने भादानकों की फौजी ताकत का सटीक अंदाज़ा लगाकर हमले की पहल की
सम्राट ने नारायन नामक स्थान पर अपनी कुल फौज जमा की
(वर्तमान में अजमेर के निकट स्थित नरायणा)
सम्राट ने सेनापति कैमास के साथ नारायन से कूच किया
सम्राट ने भादानकों को परास्त कर बयाना पर अधिकार कर लिया
जिनपति सूरी ने अपने ग्रंथ में सम्राट पृथ्वीराज चौहान को 'भादानकोर्वीपति' नामक उपाधि दी
1182 ई.
"चंदेलों से लड़ाई"
सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर चढ़ाई की
चंदेल नरेश जेजामुक्ति के राजा परमर्दिदेव ने अपने सामंत मलखान को फौज देकर विदा किया
सिरसागढ़ में सम्राट और मलखान के बीच हुई लड़ाई में सम्राट के सेनापति कैमास ने मलखान और उसके भाई सलखान को मार गिराया
राजा परमर्दिदेव ने संदेश भिजवाकर कन्नौज से आल्हा और ऊदल को बुलाया
आल्हा और ऊदल बड़े दर्जे के वीर योद्धा थे
गहड़वाल राजा जयचंद ने आल्हा और ऊदल को एक फौज देकर विदा किया
इस तरह इस मिली-जुली फौज को सम्राट पृथ्वीराज ने शिकस्त दी
इस लड़ाई में सम्राट की तरफ से विजयराय व चंदराय वीरगति को प्राप्त हुए
(मदनपुर शिलालेख के अनुसार सम्राट ने उन्हें शिकस्त देकर उनके इलाकों को खूब लूटा। शिलालेख केवल लूटने की बात लिखता है, ना कि अधिकार करने की। कुछ इतिहासकारों ने तर्कों सहित यह निष्कर्ष निकाला कि सम्राट ने कालिंजर और महोबा पर अधिकार नहीं किया, बल्कि इन इलाकों को लूटा और सिरसागढ़ पर जरूर अधिकार किया। इसीलिए इस अभियान को सम्राट का अपूर्ण अभियान भी कहा जाता है। जो क्षेत्र सम्राट ने जीता वह भी राजा परमर्दिदेव ने तराइन की लड़ाई के बाद फिर से चौहानों से छीन लिया।)
(आल्हा और ऊदल :- इनके बारे में हमें समकालीन ग्रंथों में काफी अलग-अलग बातें मिली। कोई लिखता है कि दोनों को सम्राट ने मारा तो कोई लिखता है केवल एक को सम्राट ने मारा। किसी ने लिखा है कि दोनों को सम्राट ने नहीं मारा। यह बात भी सामने आती है कि कन्नौज से फौज लेकर केवल आल्हा ही रवाना हुआ था, ऊदल नहीं। इसलिए इस मुद्दे पर हम किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाए हैं।)
"सतलज घाटी की लड़ाई"
कुछ इतिहासकारों ने 1182-83 ई. में सम्राट पृथ्वीराज चौहान और शहाबुद्दीन गौरी के बीच एक लड़ाई होने का ज़िक्र किया है, जो सतलज किनारे हुई
(हमें इस लड़ाई का वर्णन समकालीन ग्रंथों या किसी प्रामाणिक पुस्तक से नहीं मिला है। इस घटना का एक शिलालेख है जो फलौदी-जोधपुर में है, परन्तु यह शिलालेख भी 1555 ई. का है, जो विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता, इसलिए इस लड़ाई का वर्णन हमने नहीं लिखा है)
1184 ई.
* शहाबुद्दीन गौरी ने देवल की तरफ़ चढ़ाई करके समुद्र के किनारे का मुल्क फ़तह किया
* इसी वर्ष गौरी ने सियालकोट का किला बनवाया
1184 ई.
"नागौर की लड़ाई"
गुजरात के भीमदेव सोलंकी ने जगदेव व धारावर्ष को फौज देकर नागौर की तरफ भेजा
नागौर में चौहानों से हुई लड़ाइयों के बाद संधि हुई
1187 ई.
अजमेर से कुछ व्यापारी गुजरात गए
अभयड नामक दंडनायक ने उनको लूटने की सलाह जगदेव को दी पर जगदेव ने संधि के नियमों का उल्लंघन नहीं किया
1189 ई.
* दिल्ली के राजा पृथ्वीराज तोमर का देहांत हुआ व राजा चाहड़पाल तोमर दिल्ली की गद्दी पर बैठे
राजा चाहड़पाल को ही ग्रंथों में गोविंदराय, चंद्रराज आदि लिखा गया है
* शहाबुद्दीन गौरी ने तबरहिन्द (भटिंडा) का किला फ़तह करके काजी ज़ियाउद्दीन तोलक को सौंप दिया
"राजाओं से संबंध सुधारना"
शहाबुद्दीन गौरी के बढ़ते वर्चस्व को देखकर सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने अन्हिलपाटन के चालुक्यों और दिल्ली के तोमरों से पुरानी शत्रुता भुलाते हुए मित्रता कर ली
1191 ई.
"तराइन का पहला युद्ध"
हम्मीरमहाकाव्य में लिखा है कि
"जब पृथ्वीराज अपनी प्रजा पर न्यायपूर्ण शासन कर रहा था और अपने शत्रुओं को भयभीत किए हुए था, तब शहाबुद्दीन विश्व विजय के प्रयासों में लगा हुआ था। शहाबुद्दीन के हाथों प्रताड़ित होकर पश्चिम के भूमिहारों ने चंद्रराज (दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर) को अपना प्रमुख बनाया और वे सब पृथ्वीराज के पास पहुंचे। पृथ्वीराज ने उनके मुख देखकर क्लेश का कारण पूछा, तब चंद्रराज ने कहा कि शहाबुद्दीन नामक एक शक राजाओं का विनाश कर रहा है। वह हमारे नगरों को लूट रहा है और मंदिरों का विध्वंस कर रहा है। शहाबुद्दीन से हमारी भूमि बचाने के लिए सभी राजागण आपसे सहायता की आस लिए आए हैं"
सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने विचार किया कि दिन-दिन सुल्तान की शक्ति बढ़ती जा रही है, अगर इस वक्त उसे नहीं रोका, तो गज़नी से दोबारा आकर वह हावी हो सकता है
शहाबुद्दीन गौरी गज़नी की तरफ जाने की फ़िराक़ में था, लेकिन उसे ख़बर मिली कि अजमेर के सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने कई राजाओं की फ़ौजें मिलाकर तबरहिन्द (भटिंडा) के किले की तरफ कूच किया है
सम्राट के साथ कैमास, उदयराज, स्कन्द, भुवनैकमल्ल भी थे
फिरिश्ता के अनुसार सम्राट पृथ्वीराज की फौज :- 3 लाख पैदल सैनिक और 3000 हाथी
पृथ्वीराज प्रबंध के अनुसार सम्राट की फौज :- 2 लाख सैनिक व 5000 हाथी थे
(आधुनिक इतिहासकार इतनी भारी फौज के आंकड़ों को सही नहीं मानते)
गौरी ने ख़बर सुनते ही राजपूतों को मार्ग में ही रोकने के लिए तराइन के मैदान में पड़ाव डाला। गौरी की फौज में मुख्य सेनापतियों में कुतुबुद्दीन ऐबक भी था।
तराइन के प्रथम युद्ध में सम्राट ने गजसेना को मध्य में रखा और गजसेना के दायीं व बायीं तरफ अश्व सेनाओं को रखा। पैदल सेना को गजसेना के पीछे रखा।
गजसेना के बीच में सम्राट स्वयं एक गज पर तीर-कमान व भाले के साथ युद्ध का नेतृत्व कर रहे थे
दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर भी हाथी पर विराजमान थे।
शहाबुद्दीन गौरी ने भी ठीक इसी तरह अपनी फ़ौजों को जमाया, लेकिन उसके पास हाथियों की संख्या सम्राट के हाथियों से आधी भी नहीं थी। वह खुद एक घोड़े पर बैठकर युद्ध का नेतृत्व कर रहा था।
यह लड़ाई संभवतः 1191 ई. के जनवरी माह में हुई
सम्राट की तरफ से लड़ते हुए प्रतापसिंह बड़गूजर वीरगति को प्राप्त हुए
इस लड़ाई में गौरी बरछा लेकर घोड़े पर सवार था
हाथी पर सवार दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर का सामना गौरी से हुआ
गौरी ने राजा पर बरछा चलाया, जिससे बरछा राजा के कंठ तक चला गया और 2 दांत गिर गए
फिर राजा चाहड़पाल ने भी ज़ख्मी हालत में बरछा चलाया, जिससे सुल्तान की बाज़ू पर गहरा घाव लगा और घोड़े से गिरने ही वाला था कि तभी एक खिलजी सिपाही ने फ़ौरन सुल्तान के घोड़े पर सवार होकर उसको संभाला और घोड़ा भगाकर उसे युद्धभूमि से बाहर ले गया
"जीवनदान की धारणा"
यह धारणा प्रचलित है कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने गौरी को जीवनदान दिया। यही बात बढ़ा चढ़ाकर लिखकर बहुत से लेखकों ने सम्राट को एक नासमझ योद्धा करार दिया, जबकि हक़ीक़त ये थी कि गौरी को सुरक्षित वहां से बचा लिया गया था, वरना निश्चित रूप से गौरी का वध किया जाता।
इस विषय में एक तर्क ये है कि सम्राट ने इस युद्ध की पहल ही इसीलिए की थी ताकि गौरी को मारकर संभावित आक्रमणों को रोका जा सके।
सम्राट ने नागार्जुन से लड़ाई के वक्त भी अपने संबंधी विद्रोहियों को कठोर दंड देते हुए उनके सिर काटकर अजयमेरु दुर्ग के बाहर वाले मैदान में लटका दिए थे, तो सम्राट द्वारा क्रूर आक्रमणकारी गौरी को जीवनदान देना असंभव था।
कई राजाओं के संघ ने तराइन की लड़ाई से पूर्व सम्राट से गौरी के वध का निवेदन किया था। यदि सम्राट गौरी को जीवित छोड़ देते, तो वे राजा-महाराजा जो सम्राट के अधीन न होने के बावजूद भी तराइन की लड़ाई में उनके साथ थे, वे दोबारा तराइन की दूसरी लड़ाई में हरगिज़ सम्राट का साथ न देते।
अज्ञानवश बहुत से राजपूत भी जीवनदान वाली बातें लिखकर सम्राट के उच्च आदर्शों को दिखाने के चक्कर में अनजाने में ही सम्राट को नासमझ करार दे देते हैं, जिससे वामपंथी इतिहासकारों को मौका मिल जाता है।
बहरहाल, तराइन की इस लड़ाई में सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने सुल्तान शहाबुद्दीन गौरी को करारी शिकस्त दी
गौरी ने लाहौर में अपने घावों का इलाज करवाया और फिर गज़नी लौट गया
"गौरी की पराजय का प्रमुख कारण"
सम्राट के हाथियों ने गौरी के हाथियों को पीछे हटने पर विवश कर दिया, जिससे गौरी के अश्व घबरा गए और अश्व अपने सवारों समेत भागने लगे।
"कैमास वध"
सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने अपने संरक्षक व सेनापति कैमास को मार दिया
ग्रंथों से 3 अलग-अलग कारण जानने जो मिले :-
1) पृथ्वीराज प्रबंध के अनुसार यह हत्या इसलिए की गई, क्योंकि कैमास शहाबुद्दीन गौरी से मिल चुका था।
2) कुछ अन्य इतिहासकारों का मानना है कि 1182 ई. के बाद कैमास ने अपनी मनमानी करना शुरू कर दिया, जिससे सम्राट और उसके बीच तनाव बढ़ता गया और इसी कारण सम्राट ने उसकी हत्या की।
3) सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सेनापति स्कंद के पौत्र लक्ष्मीधर ने विरुद्ध-विधि-विध्वंस नामक ग्रंथ में सम्राट को बाल्यकाल में योजनापूर्वक तरीके से विलासिता की घुट्टी पिलाने की बात लिखी गई है। सम्राट के अंदर यह चित्तविकार कैमास द्वारा अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए उत्पन्न किया गया था। इस घटना का उल्लेख पृथ्वीराज विजय व कान्हड़दे प्रबंध में भी मिलता है।
तात्पर्य ये है कि कैमास का चाल चलन निश्चित रूप से अनुचित रहा होगा।
सम्राट ने बाल्यावस्था को पार करते ही इस चित्तविकार पर नियंत्रण पा लिया था और जब धीरे-धीरे उन्हें कैमास के मन के मैल का पता लगा होगा, तब उसे मार दिया गया।
1191-92 ई.
"तबरहिंद का युद्ध"
तराइन के पहले युद्ध में सुल्तान शहाबुद्दीन गौरी को करारी शिकस्त देने के बाद सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने तबरहिंद के किले पर चढ़ाई की
(तबरहिंद भटिंडा का किला था, जो बाद में सरहिंद नाम से जाना गया)
तबरहिंद के किले पर गौरी ने काजी ज़ियाउद्दीन तोलक को 12000 की फौज के साथ तैनात कर रखा था
सम्राट ने फौजी जमावट करके किला घेर लिया
13 महीनों तक सम्राट ने घेरा डाले रखा और फिर दोनों फ़ौजों में लड़ाई शुरू हुई
इस लड़ाई में काजी ज़ियाउद्दीन तोलक पराजित हुआ और तबरहिंद के किले पर सम्राट पृथ्वीराज चौहान का अधिकार हुआ
(बहुत से इतिहासकारों ने लिखा है कि तराइन की पहली लड़ाई के बाद सम्राट ने संयोगिता से विवाह किया और रास-रंग और अभिमान में इतने डूब गए कि तराइन की दूसरी लड़ाई में सम्भल ही नहीं पाए, जबकि हक़ीक़त ये थी कि सम्राट ने तराइन की पहली लड़ाई के बाद 13 महीनों तक घेरा डालकर सरहिंद के किले को फ़तह किया ताकि सुल्तान की शक्ति को और कमज़ोर कर दिया जाए)
"गहड़वालों का कोई क्षेत्र लूटना"
सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने अपने सेनापति स्कंद को राजा जयचंद गहड़वाल के किसी क्षेत्र को लूटने के लिए भेजा
"जम्मू पर हमला"
तबकात-ए-नासिरी में लिखा है कि "अपनी फ़तह से ग़ुरूर में डूबे राय पिथौरा ने जम्मू के राजा पर हमला कर दिया"
1 मार्च, 1192 ई.
"तराइन का दूसरा युद्ध"
ताजुल मआसिर में लिखा है कि "राय पिथौरा के दिमाग में उसकी जर्रार फ़ौज की वजह से दुनिया फ़तह करने का भूत सवार हो चुका था"
तराइन की पहली शिकस्त के बाद बौखलाया गौरी हार का दंश झेलकर अपने ही सैनिकों को दंडित करने लगा, तब उसे उसकी माँ ने समझाया और दोबारा हमला करने को कहा
शहाबुद्दीन गौरी ने पिछली शिकस्त से बहुत कुछ सीखकर सुनियोजित तरीके से युद्ध की तैयारियां शुरू कर दीं
सुल्तान ने तुर्क, ताजिक और अफगानों को तैयार करवाकर 1 लाख 20 हज़ार की जर्रार फौज इकट्ठी की
इस विशाल फौज के साथ वह लाहौर पहुंचा
शहाबुद्दीन गौरी की फौज के प्रमुख सिपहसालार व साथी :-
* कुतुबुद्दीन ऐबक :- मुख्य सेनापति
* नासिरुद्दीन कुबाचा :- हरावल का नेतृत्वकर्ता
* खारबक :- यह भी हरावल का नेतृत्वकर्ता था
* नरसिंहदेव :- जम्मू के राजा विजयदेव ने अपने बेटे नरसिंहदेव को शहाबुद्दीन गौरी का साथ देने के लिए फौज समेत भेजा था
* मुहम्मद बिन महमूद
* अल्बा
* मुकलबा
* खरमेल
* ताजुद्दीन यलदुज
सम्राट पृथ्वीराज चौहान भी बहुत से राजा-महाराजाओं को साथ लेकर गौरी का सामना करने पहुंचे। सम्राट की फौज व हाथियों की संख्या गौरी के मुकाबले लगभग दुगुनी थी।
फरिश्ता के अनुसार इस लड़ाई में 150 छोटे-बड़े राजाओं ने भाग लिया
दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर, उदयराज, स्कन्द, पदमशा रावल, भुवनैक मल्ल, रामराय बड़गूजर सम्राट के साथ थे
"गौरी की पहली कूटनीति"
इस लड़ाई में शहाबुद्दीन गौरी ने कूटनीति का प्रयोग करते हुए अपने सैन्य का मध्य भाग, सामान, झंडे व हाथी कई मील पीछे छोड़ दिए
सूर्योदय से पहले ही 40 हज़ार घुड़सवारों को उसने 4 दलों में विभक्त करके राजपूतों की फ़ौज के चारों तरफ़ से अचानक हमले करवाए
जब राजपूत फौज निद्रावस्था में थी, तब ज़िरहबख़्तरों और अश्वों से सुसज्जित 40 हज़ार के सैन्य ने राजपूत खेमों में तबाही मचा दी
हज़ारों राजपूत बिना लड़े ही खेत रहे और फिर शेष राजपूतों ने जैसे-तैसे फौजी जमावट की
सम्राट से इस बार चूक हुई और उन्होंने युद्धनीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। तराइन की पहली लड़ाई के अनुसार ही उन्होंने अपनी फौज जमाई।
गजसेना को बीच में रखा गया, बाईं व दाईं तरफ अश्वसेना रखी गई, पीछे पैदल सेना रखी गई
"गौरी की दूसरी कूटनीति"
तराइन की पहली लड़ाई में गौरी के हाथियों के भागने के कारण गौरी के अश्व भी घबराकर भाग गए थे, इसलिए इस बार गौरी ने सैंकड़ों लकड़ी के हाथी बनवाए और गजसेना में खड़े कर दिए, जिससे सम्राट के हाथियों ने जब हमला किया, तो नकली हाथी जस के तस खड़े रहे, जिससे गौरी की फौज में शामिल घोड़ों की हिम्मत बंधी रही
इस लड़ाई में दिल्ली के राजा गोविंदराय तोमर ने गौरी की फ़ौज के हरावल के सेनापति खारबक को पीछे धकेल दिया
गौरी फौज के पांचवे भाग में तैनात 12000 घुड़सवारों का नेतृत्व करते हुए लड़ाई में शामिल हुआ
सम्राट पृथ्वीराज चौहान की गजसेना को पराजित करने के लिए गौरी ने अपने तीरंदाज़ आगे किए और हाथियों व महावतों पर तीर बरसाकर गजसेना को छिन्न-भिन्न कर दिया
दिन के तीसरे पहर तक युध्द चलता रहा
तीसरे पहर में गौरी ने पीछे खड़ी फौज को लड़ाई में शामिल होने का हुक्म दिया, जिसमें करीब 70 हज़ार सैनिक थे
इस लड़ाई में गौरी ने फ़तह हासिल की
रामराय बड़गूजर वीरगति को प्राप्त हुए
दिल्ली के राजा गोविंदराय तोमर आख़री श्वास तक लड़ते रहे। अंत में उनका सिर काट दिया गया और रणभूमि में ही यह सिर गौरी के समक्ष ले जाया गया। गौरी ने इनकी पहचान इनके टूटे हुए दांतों से की।
सम्राट पृथ्वीराज चौहान हाथी से उतरकर घोड़े पर सवार हुए और सरस्वती नदी के किनारे शत्रुओं द्वारा घेर लिए गए
इतिहास के इस युगपरिवर्तनकारी युद्ध में 1 लाख राजपूतों ने अपने प्राणों की आहुतियां दी
मालवा के महाराजा हरिश्चंद्र के पुत्र महाराजकुमार उदयवर्मन को तराइन की दूसरी लड़ाई में आने का निमंत्रण दिया गया था, लेकिन वे जब तक आए तब तक परिणाम सम्राट के विरुद्ध जा चुका था
"राजकोष से चोरी"
जैसे ही तराइन की लड़ाई में सम्राट की पराजय की खबर अजमेर पहुंची, तो सम्राट का अमात्य वामन अजयमेरु दुर्ग के राजकोष से धन चुराकर फ़रार हो गया
"सम्राट पृथ्वीराज चौहान का अंतिम समय"
* फ़ारसी तवारीखों के अनुसार :-
हसन निजामी ताजुल मआसिर (1205-30 ई.) में लिखता है कि "सुल्तान राय पिथौरा को बंदी बनाकर अजमेर ले गया और कुछ दिन बाद मौत की सज़ा दी"
मिनहाज सिराज तबकात-ए-नासिरी (1227-59 ई.) में लिखता है कि "राय पिथौरा अपने हाथी से उतरा, घोड़े पर बैठा और भागा, पर सरसुती नदी (सरस्वती/घग्गर) के पास पकड़ा गया और नरक भेज दिया गया। दिल्ली का राजा गोविंद (चाहड़पाल तोमर) लड़ाई के मैदान में मारा गया। सुल्तान ने गोविंद के सिर को उसके 2 टूटे हुए दांतों से पहचान लिया, जो सुल्तान ने ही पिछली लड़ाई में तोड़े थे"
मिनहाज सिराज का ही समकालीन लेखक ऊफी तवारीख जामीउल हिकायात में लिखता है "राय कोला (पृथ्वीराज) को बंदी बना लिया गया और कुछ दिन बाद अजमेर में मौत के घाट उतार दिया"
फरिश्ता लिखता है "राय पिथौरा लड़ाई के मैदान में ही मारा गया"
* हिन्दू ग्रंथों के अनुसार :-
हम्मीर महाकाव्य के अनुसार "लड़ाई में पृथ्वीराज को एक सिपाही ने धनुष का फंदा गले में डालकर अन्य सिपाहियों की मदद से बंदी बनाकर मार दिया"
सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सेनापति स्कंद का पौत्र लक्ष्मीधर ग्रंथ विरुद्ध-विधि-विध्वंस में लिखता है "युद्ध में पृथ्वीराज चौहान तुर्कों द्वारा मार दिए गए"
* पृथ्वीराज विजय में जयानक ने सम्राट के देहांत का वर्णन नहीं किया। इसके पीछे का मूल कारण यही प्रतीत होता है कि जयानक द्वारा लिखित ग्रंथ रामायण पर आधारित है और वह अपने नायक का अंत पराजय से नहीं करना चाहता था।
* पृथ्वीराज रासो का वर्णन तो आप सब जानते ही हैं।
"निष्कर्ष"
समकालीन हिन्दू ग्रंथों व फ़ारसी तवारीखों से ज्ञात होता है कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान को बंदी बनाकर अजमेर ले जाया गया, जहां उन्हें इस्लाम कुबूल करने व गौरी की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया गया। यातनाओं का सिलसिला करीब 10 दिन तक चलता रहा, लेकिन सम्राट टस से मस न हुए। तब गौरी के आदेश से एक सैनिक ने मोतियों से जड़ित सोने की तलवार से सम्राट का शिरच्छेदन कर दिया।
यह घटना सम्भवतः 11 मार्च, 1192 ई. को हुई
सम्राट के भाई हरिराज ने अजयमेरु दुर्ग में ही सम्राट का अंतिम संस्कार किया
"तराइन की दूसरी लड़ाई के घातक दुष्परिणाम" (1192 ई. से 1206 ई. तक)
शहाबुद्दीन गौरी ने सम्राट पृथ्वीराज चौहान की राजधानी अजमेर, सवालक, हांसी व सरस्वती पर फ़तह हासिल की
शहाबुद्दीन गौरी ने सम्राट के पुत्र गोविंदराज से अधीनता स्वीकार करवाकर उसको अजमेर की गद्दी पर बिठाया
गौरी ने अजमेर में मंदिरों का विध्वंस करके मस्जिदें बनवाने का हुक्म दिया
फिर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के भाई हरिराज ने गौरी की अधीनता स्वीकार करके गोविन्दराज से अजमेर छीन लिया
गोविन्दराज रणथंभौर में रहने लगे
"तराइन की दूसरी लड़ाई के 16 दिन बाद की घटना"
तराइन की लड़ाई में दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर के पुत्र तेजपाल द्वितीय भी मौजूद थे, जो अन्य जीवित बचे राजाओं को साथ लेकर दिल्ली पहुंचे
दिल्ली में फिर लड़ाई हुई, जिसके बाद तेजपाल तोमर ने संधि करके अधीनता स्वीकार की
सुल्तान जब गज़नी की तरफ लौट गया तो एक वर्ष बाद 1193 ई. में तेजपाल तोमर ने फिर से दिल्ली जीतने की कोशिश की। तेजपाल ने राजपूतों व हरियाणा के जाट, अहीर, गूजरों की मिली-जुली फौज एकत्र की, लेकिन गौरी का ग़ुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक विजयी रहा।
हसन निजामी के अनुसार कुतुबुद्दीन ने तेजपाल का सिर काटकर लालकोट किले पर टांग दिया और इस तरह दिल्ली पर तोमर राजवंश का अंत हुआ
कुतुबुद्दीन ने तोमरों द्वारा निर्मित 27 मंदिर-प्रासाद तुड़वाकर उनके अवशेषों पर चूना चढ़वाकर कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद बनवाई
फिर अजमेर के हरिराज चौहान ने दिल्ली से कुतुबुद्दीन को निकालने के लिए अपने सेनापति चतरराय को भेजा, लेकिन चतरराय पराजित होकर लौट आया
1194 ई. में शहाबुद्दीन गौरी फिर हिंदुस्तान आया
गौरी ने बनारस व चन्दवाल पर फ़तह हासिल की
गौरी ने कन्नौज के राजा जयचंद गहड़वाल को चंदावर की लड़ाई में शिकस्त दी
इन लड़ाइयों में गौरी ने 300 हाथी और बहुत सा सामान लूटा और अपने साथ गज़नी ले गया
1195 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने हरिराज को पराजित करके उससे अजमेर छीन लिया और वहां मुस्लिम हाकिम नियुक्त किया
इस तरह प्रतापी चौहान साम्राज्य का अंत हुआ और राजपूताने के मध्य (अजमेर) में मुस्लिमों का कब्ज़ा हो गया
इसी वर्ष कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुजरात पर हमले किए, जिसका बदला लेने के लिए गुजरात वालों ने मेरों की मदद लेकर कुतुबुद्दीन को अजमेर तक खदेड़ दिया और अजमेर पर घेरा डाल दिया
तब गौरी ने ग़ज़नी से फौज फिजवाकर यह घेरा उठवाया
इसी वर्ष गौरी और कुतुबुद्दीन ऐबक ने मिलकर तिमनगढ़ फ़तह किया
फिर शहाबुद्दीन गौरी ने गुजरात वालों को सज़ा देने के लिए उनसे आबू के निकट लड़ाई की, जिसमें शिकस्त खाकर गौरी को भागना पड़ा
इस हार का बदला लेने के लिए कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुजरात पर चढ़ाई कर फ़तह हासिल की और गुजरात को लूटता हुआ लौट गया
1202 ई. में शहाबुद्दीन गौरी ने गरजिस्तान के किले लखान में खुसरो मलिक को उसके बेटे समेत क़त्ल किया
इस तरह गौरी ने गज़नवी खानदान का ख़ात्मा किया
13 मार्च, 1206 ई. को शहाबुद्दीन गौरी लाहौर से गज़नी की तरफ लौटते वक्त गज़नी के इलाके धमेक (दमयक) में इस्माइलियो के हाथों कत्ल हुआ
गौरी का ग़ुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली के तख़्त पर बैठा, जहां से गुलाम वंश की शुरूआत हुई
पृथ्वीराज चौहान को क्यूं याद किया जाए?
अंतिम दिल्ली सम्राट होने के कारण!!
हारे हुए सम्राट को याद कर भला कौन सी सभ्यता जीवित रहती है?
पृथ्वीराज चौहान को स्मरण करने का एकमात्र कारण है, कि जूझते रहने की परंपरा पृथ्वीराज चौहान के वैभव के अंत से ही शुरू होती है।
हम अंतिम दिल्ली सम्राट को याद नहीं कर रहे, हम उस परंपरा सरणी को स्मृति में जिलाए रखते हैं, जब गद्दी रहे न रहे पर धर्म रहना चाहिए, इस अंतराल में जयस्तंभपुर यानि रणस्तंभंवर (रणथंभौर) का पहला यमगृह व्रत (जौहर) में हम्मीर देव चौहान की रानी रंग देव द्वारा और पद्मला, देवलदेह आदि राजकुमारियों की जलसमाधि हो, या फिर कान्हड़देव चौहान, वीरमदेव चौहान का जालौर शाका हो।
हाडा़ चौहान, बूंदी चौहान, सोनागरा चौहान, खींची चौहान सब लड़ते रहे, बिखरते रहे, पुनः पुनः उठ खडे़ होते रहे पर जूझना ना भूले, भले ही दिल्ली साम्राज्य समाप्त हो गया परंतु चौहानों का जूझना नहीं छूटा।
इस जूझने की परंपरा की शुरूआत पृथ्वीराज चौहान से लगातार जुडी़ हुई है, इसलिए पृथ्वीराज चौहान को हम याद करते हैं, भले ही कितने ही चौहान आज कलमा पढे़ मिलेंगे पर जूझौती न छूटे, मर गये, मिट गये पर दिल्ली संकल्प नहीं भूले।
यहूदियों को ईजराईल से निर्वासित हुए दो हजार साल से ऊपर हो गये थे, पूरे विश्व में बिखरे यहूदी जब आपस में मिलते तो विदा लेते समय अभिवादन रहता था, अगले वर्ष जेरूशलम में मिलेंगे ।
चौहानो यह संकल्प हम भी नहीं भूले हैं, अगले वर्ष दिल्ली में मिलेंगे।
"इस इतिहास लेखन में उपयोग में लिए गए ग्रंथ व तवारीखें"
* पृथ्वीराज विजय (जयानक) :- जयानक का जन्म कश्मीरी ऋषि उपमन्यु के भार्गव कुलीन ब्राम्हण परिवार में हुआ था।
जयानक कश्मीर से पृथ्वीराज चौहान के दरबार में आए और कविता सुनाई जिससे खुश होकर सम्राट ने उनको आश्रय दिया।
पृथ्वीराज विजय में सम्राट से जुड़ी कई जानकारियां प्राप्त होती हैं, लेकिन इस ग्रंथ में काफी पक्षपात भी किया गया है।
पृथ्वीराज विजय रामायण को आधार मानकर लिखा गया है। जयानक ने स्वयं को वाल्मीकि का अवतार, सम्राट पृथ्वीराज को श्री राम, तिलोत्तमा (संयोगिता) को सीता, हरिराज को लक्ष्मण, भुवनैक मल्ल को गरुड़, कदम्बवास को हनुमानजी व गौरी को रावण का अवतार बताया है। जयानक खुद के बारे में लिखता है कि उसको 6 जन्मों की कठोर तपस्या के बाद माँ सरवस्ती ने आशीर्वाद दिया कि हरि (सम्राट पृथ्वीराज) की वीरता और यशगान को लिपिबद्ध करोगे।
जयानक ने तराइन की लड़ाई व सम्राट के देहांत का वर्णन नहीं लिखा है।
सम्राट को जयानक ने भारतेश्वर की उपाधि दी।
जयानक ने चौहानों को सूर्यवंशी बताया है। बिजनौर अभिलेख। इसके अनुसार चौहान राजपूत का प्रथम शासक चहमान था। उसका पुत्र वासुदेव चहमान था। वासुदेव 5 वीं सदी में था। इनकी उत्पत्ति अहिच्छत्र के वत्स गौत्रिय ब्राह्मण से हुई थी। यदि राजपूत शकों के वंशज होते तो यहां शक होता न कि वत्स गौत्रिय विप्र|
* विरुद्ध-विधि-विध्वंस :- सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सेनापति स्कंद के पौत्र लक्ष्मीधर द्वारा लिखित ग्रंथ। यह एक प्रामाणिक ग्रंथ है, जिसमें व्यर्थ का पक्षपात देखने को नहीं मिलता।
* पृथ्वीराज प्रबंध
* प्रबंध चिंतामणि (मेरुतुंग)
* पृथ्वीराज विजय व उसका ऐतिहासिक महत्व
* राजपूताने का इतिहास (ओझा जी)
* ओझा निबंध संग्रह
* अजमेर का वृहद इतिहास (डॉ. मोहनलाल गुप्ता)
* वीरविनोद (श्यामलदास जी)
* एनल्स एंड एंटिक्वीटीज़ ऑफ राजस्थान (कर्नल जेम्स टॉड)
* हम्मीरमहाकाव्य (नयचंद्र सूरी)
* तबकात-ए-नासिरी (मिनहाज सिराज)
* जामीउल हिकायात (ऊफी)
* तारीख यमीनी
* तारीख-ए-फिरिश्ता
* ताजुल मआसिर :- हसन निजामी द्वारा 1205-30 ई. में लिखित
* दिल्ली के तोमर (हरिहर द्विवेदी) :- दिल्ली के तोमर वंश की सत्य, सटीक व प्रामाणिक जानकारी। यदि कोई लेखक दिल्ली के तोमर वंश का इतिहास पढ़े बगैर सम्राट पृथ्वीराज चौहान का इतिहास लिखे तो ये महज़ उसकी नादानी होगी।
* पुरातन प्रबंध संग्रह (राजशेखर)
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा - मेवाड़)
अंतिम दिल्ली सम्राट होने के कारण!!
हारे हुए सम्राट को याद कर भला कौन सी सभ्यता जीवित रहती है?
पृथ्वीराज चौहान को स्मरण करने का एकमात्र कारण है, कि जूझते रहने की परंपरा पृथ्वीराज चौहान के वैभव के अंत से ही शुरू होती है।
हम अंतिम दिल्ली सम्राट को याद नहीं कर रहे, हम उस परंपरा सरणी को स्मृति में जिलाए रखते हैं, जब गद्दी रहे न रहे पर धर्म रहना चाहिए, इस अंतराल में जयस्तंभपुर यानि रणस्तंभंवर (रणथंभौर) का पहला यमगृह व्रत (जौहर) में हम्मीर देव चौहान की रानी रंग देव द्वारा और पद्मला, देवलदेह आदि राजकुमारियों की जलसमाधि हो, या फिर कान्हड़देव चौहान, वीरमदेव चौहान का जालौर शाका हो।
हाडा़ चौहान, बूंदी चौहान, सोनागरा चौहान, खींची चौहान सब लड़ते रहे, बिखरते रहे, पुनः पुनः उठ खडे़ होते रहे पर जूझना ना भूले, भले ही दिल्ली साम्राज्य समाप्त हो गया परंतु चौहानों का जूझना नहीं छूटा।
इस जूझने की परंपरा की शुरूआत पृथ्वीराज चौहान से लगातार जुडी़ हुई है, इसलिए पृथ्वीराज चौहान को हम याद करते हैं, भले ही कितने ही चौहान आज कलमा पढे़ मिलेंगे पर जूझौती न छूटे, मर गये, मिट गये पर दिल्ली संकल्प नहीं भूले।
यहूदियों को ईजराईल से निर्वासित हुए दो हजार साल से ऊपर हो गये थे, पूरे विश्व में बिखरे यहूदी जब आपस में मिलते तो विदा लेते समय अभिवादन रहता था, अगले वर्ष जेरूशलम में मिलेंगे ।
चौहानो यह संकल्प हम भी नहीं भूले हैं, अगले वर्ष दिल्ली में मिलेंगे।
"इस इतिहास लेखन में उपयोग में लिए गए ग्रंथ व तवारीखें"
* पृथ्वीराज विजय (जयानक) :- जयानक का जन्म कश्मीरी ऋषि उपमन्यु के भार्गव कुलीन ब्राम्हण परिवार में हुआ था।
जयानक कश्मीर से पृथ्वीराज चौहान के दरबार में आए और कविता सुनाई जिससे खुश होकर सम्राट ने उनको आश्रय दिया।
पृथ्वीराज विजय में सम्राट से जुड़ी कई जानकारियां प्राप्त होती हैं, लेकिन इस ग्रंथ में काफी पक्षपात भी किया गया है।
पृथ्वीराज विजय रामायण को आधार मानकर लिखा गया है। जयानक ने स्वयं को वाल्मीकि का अवतार, सम्राट पृथ्वीराज को श्री राम, तिलोत्तमा (संयोगिता) को सीता, हरिराज को लक्ष्मण, भुवनैक मल्ल को गरुड़, कदम्बवास को हनुमानजी व गौरी को रावण का अवतार बताया है। जयानक खुद के बारे में लिखता है कि उसको 6 जन्मों की कठोर तपस्या के बाद माँ सरवस्ती ने आशीर्वाद दिया कि हरि (सम्राट पृथ्वीराज) की वीरता और यशगान को लिपिबद्ध करोगे।
जयानक ने तराइन की लड़ाई व सम्राट के देहांत का वर्णन नहीं लिखा है।
सम्राट को जयानक ने भारतेश्वर की उपाधि दी।
जयानक ने चौहानों को सूर्यवंशी बताया है। बिजनौर अभिलेख। इसके अनुसार चौहान राजपूत का प्रथम शासक चहमान था। उसका पुत्र वासुदेव चहमान था। वासुदेव 5 वीं सदी में था। इनकी उत्पत्ति अहिच्छत्र के वत्स गौत्रिय ब्राह्मण से हुई थी। यदि राजपूत शकों के वंशज होते तो यहां शक होता न कि वत्स गौत्रिय विप्र|
* विरुद्ध-विधि-विध्वंस :- सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सेनापति स्कंद के पौत्र लक्ष्मीधर द्वारा लिखित ग्रंथ। यह एक प्रामाणिक ग्रंथ है, जिसमें व्यर्थ का पक्षपात देखने को नहीं मिलता।
* पृथ्वीराज प्रबंध
* प्रबंध चिंतामणि (मेरुतुंग)
* पृथ्वीराज विजय व उसका ऐतिहासिक महत्व
* राजपूताने का इतिहास (ओझा जी)
* ओझा निबंध संग्रह
* अजमेर का वृहद इतिहास (डॉ. मोहनलाल गुप्ता)
* वीरविनोद (श्यामलदास जी)
* एनल्स एंड एंटिक्वीटीज़ ऑफ राजस्थान (कर्नल जेम्स टॉड)
* हम्मीरमहाकाव्य (नयचंद्र सूरी)
* तबकात-ए-नासिरी (मिनहाज सिराज)
* जामीउल हिकायात (ऊफी)
* तारीख यमीनी
* तारीख-ए-फिरिश्ता
* ताजुल मआसिर :- हसन निजामी द्वारा 1205-30 ई. में लिखित
* दिल्ली के तोमर (हरिहर द्विवेदी) :- दिल्ली के तोमर वंश की सत्य, सटीक व प्रामाणिक जानकारी। यदि कोई लेखक दिल्ली के तोमर वंश का इतिहास पढ़े बगैर सम्राट पृथ्वीराज चौहान का इतिहास लिखे तो ये महज़ उसकी नादानी होगी।
* पुरातन प्रबंध संग्रह (राजशेखर)
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा - मेवाड़)
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