Thursday, February 25, 2021

1857 REBELLION AMARVEER THAKUR RANMAT SINGH BAGHEL - IMMORTAL RAJPUTS


आदिकाल से धर्म की ध्वजा को विश्व में फैलाने वाला 'चित्रकूट' खुद में अबूझ पहेली है। तप और वैराग्य के साथ स्वतंत्रता की चाह में अपने प्राण का न्योछावर करने वालों के लिये यह आदर्श भूमि सिद्ध होती है। राम-राम की माला जपने वाले साधुओं ने वैराग्य की राह में रहते हुये मातृभूमि का कर्ज चुकाने के लिये अंग्रेजों की सेना के साथ दो-दो हाथ कर लड़ते-लड़ते मरना पसंद किया। लगभग तीन हजार साधुओं के रक्त के कण आज भी हनुमान धारा के पहाड़ में उस रक्तरंजित क्रांति की गवाह हैं।

बात 1857 की है। पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बज चुका था। यहां पर तो क्रांति की ज्वाला की पहली लपट 57 के 13 साल पहले 6 जून को मऊ कस्बे में छह अंग्रेज अफसरों के खून से आहुति ले चुकी थी।


यह बात 1857 की है। पन्ना और रीवा अलग-अलग रियासतें रही हैं, तब भी थी और आज भी दोनों राजघराने के वंशज मौजूद है। रणमत सिंह की जागीर पन्ना रियासत के अंतर्गत आती थी।


शहीद ठाकुर रणमत सिंह बाघेल


रणमत सिंह मूलत: बघेल क्षत्रिय थे। इतिहास में बघेले अपने शौर्य और वफादारी के लिए मशहूर रहे हैं। इसी वफादारी के कारण पन्ना रियासत ने रणमत सिंह के पूर्वजों को सवा लाख सालाना की कोठी जागीर में मिली थी। इसी जागीर के अंतर्गत ग्राम मनकहरी रणमत सिंह के पिता को दिया गया था। रणमत सिंह का जन्म इसी ग्राम में हुआ। पन्ना का राज परिवार बघेल नहीं था जबकि रीवा राज परिवार बघेल था। कहते है रणमत सिंह और रीवा राज परिवार के साथ हमेशा रहा। इसी बीच पन्ना और रीवा रियासतों के बीच मन मुटाव हो गया। दोनों रियासतों ने युध्द की तैयारियाँ शुरू की। यह घटना 1850 के आसपास की है। यह बात अलग है कि अंग्रेजों की मध्यस्थता के कारण युध्द नहीं हो पाया। लेकिन युध्द की तैयारियों के बीच रणमत सिंह को यह बात अच्छी नहीं लगी कि वे अपने ही पूर्वजों के वंशज रीवा के बघेलों के विरूध्द हथियार उठाएँ। रणमत सिंह जागीर छोड़कर पन्ना रियासत से चले गए। पन्ना रियासत ने उनकी जागीर जब्त कर ली। बाद में दोनों रियासतों के समझौते के बाद पन्ना राजा के आग्रह पर रणमत सिंह रीवा रियासत में जगह नहीं मिली। वे अपने कुछ साथियों के साथ सागर आ गए। जहाँ वे अंग्रेजी सेना में लेफ्टिनेंट हो गए। कुछ दिनों बाद उन्हें पदोन्नति देकर नौगाँव भेज दिया गया। जहाँ उन्होंने केप्टन के रूप में पदभार संभाल लिया। तभी 1857 का दौर शुरू हुआ। अंग्रेजों के विरूध्द गुस्सा फूटा और क्रांति ने जोर पकड़ा। क्रांति का सर्वाधिक प्रभाव बुन्देलखण्ड में देखा गया। केप्टन रणमत सिंह की पलटन को आदेश मिला कि वे क्रांतिकारी बख्तबली और मर्दन सिंह को पकड़ने का अभियान चलाएँ। रणमत सिंह ने यह अभियान नहीं चलाया बल्कि वे दिखावे के लिए यहाँ-वहाँ डोलते रहे। यह बात अंग्रेजों को पता चल गई। उन्होंने रणमत सिंह और उनके साथियों को बर्खास्त कर दिया और गिरफ्तारी आदेश जारी कर दिए। अंग्रेज फौज में रहते हुए रणमत सिंह ने लगभग 300 लोगों की एक टुकड़ी बना ली थी, बर्खास्त होने के बाद यह टोली खुलकर क्रांति में शामिल हो गई।

एक अप्रैल 1858 को मप्र के रीवा जिले की मनकेहरी रियासत के जागीरदार ठाकुर रणमत सिंह बघेल ने लगभग तीन सौ साथियों को लेकर नागौद में अंग्रेजों की छावनी में आक्रमण कर दिया। मेजर केलिस को मारने के साथ वहां पर कब्जा जमा लिया। इसके बाद 23 मई को सीधे अंग्रेजों की तत्कालीन बड़ी छावनी नौगांव का रुख किया। पर मेजर कर्क की तगड़ी व्यूह रचना के कारण यहां पर वे सफल न हो सके। रानी लक्ष्मीबाई की सहायता को झांसी जाना चाहते थे पर उन्हें चित्रकूट का रुख करना पड़ा। यहां पर पिंडरा के जागीरदार ठाकुर दलगंजन सिंह ने भी अपनी 1500 सिपाहियों की सेना को लेकर 11 जून को 1858 को दो अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर उनका सामान लूटकर चित्रकूट का रुख किया। यहां के हनुमान धारा के पहाड़ पर उन्होंने डेरा डाल रखा था, जहां उनकी सहायता साधु-संत कर रहे थे। लगभग तीन सौ से ज्यादा साधु क्रांतिकारियों के साथ अगली रणनीति पर काम कर रहे थे। तभी नौगांव से वापसी करती ठाकुर रणमत सिंह बघेल भी अपनी सेना लेकर आ गये। इसी समय पन्ना और अजयगढ़ के नरेशों ने अंग्रेजों की फौज के साथ हनुमान धारा पर आक्रमण कर दिया। तत्कालीन रियासतदारों ने भी अंग्रेजों की मदद की। सैकड़ों साधुओं ने क्रांतिकारियों के साथ अंग्रेजों से लोहा लिया। तीन दिनों तक चले इस युद्ध में क्रांतिकारियोंको मुंह की खानी पड़ी। ठाकुर दलगंजन सिंह यहां पर वीरगति को प्राप्त हुये जबकि ठाकुर रणमत सिंह बघेल गंभीर रूप से घायल हो गये। करीब तीन सौ साधुओं के साथ क्रांतिकारियों के खून से हनुमानधारा का पहाड़ लाल हो गया।

महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के अधिष्ठाता डा. कमलेश थापक कहते हैं कि वास्तव में चित्रकूट में हुई क्रांति असफल क्रांति थी। यहां पर तीन सौ से ज्यादा साधु शहीद हो गये थे। साक्ष्यों में जहां ठाकुर रणमत सिंह बघेल के साथ ही ठाकुर दलगंजन सिंह के अलावा वीर सिंह, राम प्रताप सिंह, श्याम शाह, भवानी सिंह बघेल (भगवान् सिंह बघेल), सहामत खां, लाला लोचन सिंह, भोला बारी, कामता लोहार, तालिब बेग आदि के नामों को उल्लेख मिलता है वहीं साधुओं की मूल पहचान उनके निवास स्थान के नाम से अलग हो जाने के कारण मिलती नहीं है। उन्होंने कहा कि वैसे इस घटना का पूरा जिक्र आनंद पुस्तक भवन कोठी से विक्रमी संवत 1914 में राम प्यारे अग्निहोत्री द्वारा लिखी गई पुस्तक 'ठाकुर रणमत सिंह बघेल' में मिलता है।


ARMS OF THE REWA STATE

Arms:Tiger statant,in chief a tilak proper.

Crest-A dexter hand ensigned with a flame proper.

Supporters-Tigers.

Motto-मृगेंद्र प्रति द्वन्द्व ताम्मा प्रयात्॥
"Do not fight with or make war against tigers."

The Katar is Favourite weapon of the Baghels Rajputs. 

The State belongs to the Baghel branch of the Solanki or Chaulukya Kshatriyas Which played a very important part in the history of Gujrat before the Baghels migrated to the country called "Baghelkhand" after them.

The founder of Baghel Branch of Solanki Rajputs was Vyaghra Deo. The popular account connects the house of Rewah with the village of Vyaghrapalli 'the tiger’s lair,’ lying some ten miles to the south west of Anhilwara,which gave the name of Baghela to the dynasty. It further states
that Vyaghradeva, son of Viradhavala, made his way into the north and took
possession of the fort of Marpha lying 18 miles north of Kalanjar.
It was provided to them by the Chandela Rajputs.

Some interesting facts
1st White tiger was caught in Rewa.
Tansen used to be court singer in Rewa before he went to Akbar.
Thakur Ranmat Singh was a Baghel Rajput rebel who led the 1857 revolt in Baghelkhand: 

India's Independence struggle, built on the backs of forgotten bravehearts

The year 1857 has been historically known for the first large-scale revolt staged by Indians against the British East India Company wherein a sea of patriotic citizens, led by the then kings and queens, managed to upset the mighty Queen Victoria of the British Empire. People from all the nooks and corners of the country participated in the uprising, but history has been kind to the contribution of only a few villages.
One such lost village is Pindra. Located 51 km away from modern-day Satna in Madhya Pradesh, Pindra was significantly instrumental during the freedom struggle where nearly 135 bravehearts valiantly fought with the British soldiers and defeated them. However, this saga of bravery has not been given its deserved recognition in the annals of history.
A pillar called as 'Shaheed Stambh' at the village entrance marks the heroic deed, with the names of all the 135 fighters etched into black granite.


According to historical records, Thakur Ranmat Singh of Mankahri had called the revolutionary Kunwar Singh and his younger brother Amar Singh from Bihar, especially to fight against the British forces. This gave rise to a new awakening within the villagers, leading to the formation of a Revolutionary Group that was taught tactics of warfare under Amar Singh. However, when a battle ensued, the villagers with their bare-minimum training were no match for the well-equipped English warriors. It was then the brave fighters crossed the Payaswini river and organised an armed protest against the enemy; they emerged victorious that day. However, the British enhanced their onslaught the following day and ruthlessly massacred villagers. However, the Indians stood firm and won the prolonged battle.
Thereafter, the villagers of Pindra participated in large numbers, contributing to freedom movements throughout 1930, 1940 and 1942.
"Our forefathers had stormed and destroyed the camps of the station officers. Not only this, some villagers fought with them," recalled Devendra Singh, one of the descendants. However, the villagers are not happy, as they recount the neglect of the callous authorities. "Our village has not received the attention it deserved. Though the village has been declared as the village of freedom fighters but it has not been treated so," added Singh.

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