Monday, March 22, 2021

1857 REVOLUTIONARY THAKUR KALU SINGH MAHRA - UTTRAKHAND FIRST FREEDOM FIGHTER - IMMORTAL RAJPUTS

कालू सिंह महरा (१८३१-१९०६): 

भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखण्ड की भी अपनी भूमिका रही. उत्तराखण्ड के काली कुमाऊँ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हाथ मजबूत करते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत का बीज बोया गया.

काली कुमाऊं में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आन्दोलन का परचम बुलंद करने वाले सेनानियों का नेतृत्व किया आजादी के दीवाने कालू सिंह महरा ने. उन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में काली कुमाऊँ के लोगों के ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गुस्से को स्वर दिया और उसका नेतृत्व किया. वे भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने वाले उत्तराखण्ड के पहले सेनानी थे.

जन्मः 

काली कुमाऊँ में कुटौलगढ़ क्षेत्र के एक गांव में। सन १८५७ की आजादी की पहली लड़ाई का वीर, साहसी और देशभक्त जननायक। 

सशस्त्र क्रान्तिकारी कालू सिंह महरा के वंश की पृष्ठभूमि संक्षेप में इस प्रकार है- 

चन्द राजा सोमचन्द को कत्यूरी राजा ने अपनी पुत्री से शादी के उपलक्ष्य में चम्पावत में दहेज के रूप में एक छोटी जागीर प्रदान की थी। उस समय सम्पूर्ण कुमाऊँ छोटे-छोटे गढ़पतियों में विभक्त था। इस छोटी रियासत को चम्पावत, अस्कोट, सीरा, चौगर्खा, चौभसी, पाली-पछांव तथा माल-भाबर तक फैलाने में जिन लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं, उनमें विसंग के मारा, फाल, करायत, देव आदि अधिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। 

क्षेत्र के बीचों बीच एक किला आज भी अप्रतिम सौन्दर्य लिए हुए है। इस किले को अंग्रेजों ने 'फोर्ट हेस्टिंग्स' नाम दिया था। मारा लोग इस किले के किलेदार थे। इन्हें कोट्याल मारा कहा गया है। 

चन्दों के परवर्ती काल में भीमराज मारा को वंश सहित इस किले में मारे जाने से यहाँ के बचे हुए लोग किले के सामने वाले क्षेत्र में बस गए। इसी गांव में ठाकुर रतिभान सिंह के यहाँ कालू सिंह महरा का जन्म हुआ था। 

ठाकुर रतिभान सिंह का तिब्बत के साथ अच्छा व्यापार था। कालू महरा बचपन से ही अक्खड़ और दबंग थे। घुड़सवारी का उन्हें बहुत शौक था। एक ही दिन में वे अल्मोड़ा से लौटकर वापस विसंग पहुँच जाते थे। ठिगना कद, चपटी नाक, सांवली आकृति तथा गठीला शरीर। कमर में खुकरी, चारों ओर शरीर पर लबादा, यह उनका बाहरी व्यक्तित्व था।

कालू सिंह महरा के रोहेला नवाब खान बहादुर खान और टिहरी नरेश से अच्छे सम्बन्ध थे। 1857 में जब कुम्मैएं लोग भाबर गए थे तो अवध की बेगमों का कालू सिंह महरा के पास दूत आया। बेगमों ने कालू महरा को अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन में कूदने की दावत दी थी। नवाब खान बहादुर खान द्वारा संधि वार्ता करने के लिए कालू महरा को संदेश भेजा गया। अन्ततः कालू महरा और खान में समझौता हो गया। 

समझौते के अनुसार 

1. जहाँ तक रथ का पहिया चलेगा, वह क्षेत्र नवाब का होगा; उसके बाद का क्षेत्र कालू महरा का होगा।

2. नवाब कालू सिंह महरा को आर्थिक सहायता प्रदान करेगा तथा सैन्य सामग्री की पूर्ति भी करेगा। 


इस वार्ता के पश्चात काली कुमाऊँ अंचल में संघर्ष की तैयारियां शुरू हो गयीं। रुहेला नवाब खानबहादुर खान के आह्वाहन पर १८५७ के सयम क्रांतिवीर संस्था बनाई। कालू महरा के नेतृत्व में सभी लोग इकट्ठे हो गए। चौड़ापित्ता के बोरा, रैधों के बैडवाल, रौलमेल के लडवाल, चकोट के क्वाल, धौनी-मौनी, करायत, देव, बोरा व फालों ने आपस में सलाह मशविरा कर कालू महरा को अपना सेनापति नियुक्त किया।

इन लोगों ने लोहाघाट में अंग्रेजों की बैरकों में धावा बोलकर उन्हें वहाँ से भगा दिया और बैरकों में आग लगा दी। इस विजय के पश्चात धन प्रबन्ध की जिम्मेदारी खुशाल सिंह को सौंपकर कालू सिंह महरा वस्तिया की ओर बढ़े। लोहाघाट से भागे हुए सैनिकों ने अल्मोड़ा पहुँचकर कमिश्नर रैमजे को आपबीती सुनाई। 

कूटनीतिज्ञ रैमजे ने तत्काल सैनिकों की एक टुकड़ी ब्रह्मदेव (टनकपुर) और दूसरी लोहाघाट भेजी। ब्रह्मदेव में मैदानी क्षेत्रों से पहाड़ को आने वाले आन्दोलनकारियों को रोकना था। लोहाघाट पहुँची सैनिक टुकड़ी ने कालू महरा के विश्वस्त सहयोगी खुशाल सिंह को अपनी कूटनीति से पराजित कर दिया। अमोड़ी के पास क्वैराला नदी के समीप किरमोली गांव में, जहाँ क्रान्तिकारियों का धन व अस्त्र-शस्त्र रखने का गुप्त अड्डा था, स्थानीय लोगों की मुखबिरी पर अंग्रेजों ने लूट लिया। अधिकतर क्रान्तिकारी मार दिए गए। वस्तिया में कालू महरा के साथ गोरे सैनिकों का संघर्ष हुआ। कालू को पराजित होकर पीछे हटना पड़ा। 

अंग्रेजों ने अपनी चाल से माधोसिंह और नरसिंह सहित कई लोगों को अपनी ओर मिला लिया। घर और साथियों द्वारा छोड़ दिए जाने पर भी कालू ने हिम्मत नहीं हारी और बचे-खुचे सहयोगियों को एकत्र कर अल्मोड़ा की ओर ऐतिहासिक कूच किया। रास्ते में कालू को एक प्रमुख सहयोगी वारि गांव के रामकृष्ण वारियाल मिले। 22 जोड़ी हल बैल रखने वाला यह व्यक्ति सम्पन्न किसान था। क्रान्ति के बाद वह निःसन्तान ही मर गया। कालू सिंह महरा और रामकृष्ण वारियाल अंग्रेजों के लिए आतंक के पर्याय बन गए थे। 

Almora bazaar, C1860

ढौर नामक स्थान पर क्रांतिकारियों के साथ पहुँचने पर रात्रि में उन्होंने बैलों के सींगों पर मशालें बाँध दी। इससे भीड़ की संख्या सैकड़ों मे ज्ञात हुई। अंग्रेजों ने इस भीड़ को देखकर सामान बाँधना शुरू कर दिया था। और परिवारों को नैनीताल भेजने लगे थे। क्रांतिकारियों के अल्मोड़ा पहुँचने पर अंगे्रजी सेना के सामने ज्यादा देर टिक नहीं सके और अनेक क्रांतिकारी शहीद हो गये। कुछ समय पश्चात अंग्रेजों ने पूरी क्रान्तिकारी सेना को बुरी तरह छिन्न-भिन्न कर परास्त कर दिया। इस प्रकार कुमाऊँ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम असफल हो गया।

इस सशस्त्र क्रान्ति के बाद कई लोगों को गोली से उड़ा दिया गया। आनन्द सिंह फर्त्याल और विशन सिंह करायत इनमें प्रमुख थे। कालू सिंह महरा के घर को अग्निसात कर दिया गया। रामकृष्ण वारियाल भागकर नेपाल चले गए। कई सहयोगी जंगलों में भटकते-भटकते भूख-प्यास से मर गए। अंग्रेज समर्थकों को पुरस्कृत किया गया। माधोसिंह को बरेली तथा नरसिंह को सैय्यदपुर किरौड़ा व दूरदासपुर की ५३९ रुपये १४ आना की जागीर दी गई।

कुमाऊं में  1857 के विद्रोह संबंधी सरकारी रिपोर्ट

१८५७ के गदर के बाद जुलाई १८५८ में रैमजे ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी. अपनी रिपोर्ट में रैमजे ने बताया कि जून १८५७ के समय डाक व्यवस्था पूरी तरह भंग हो गयी थी और अंगेजों को मैदानी इलाक़ों से किसी भी प्रकार की सूचना नहीं मिला रही थी. पहाड़ो में गदर की किसी भी घटना के शुरू होने से पहले ही काबू पा लिया गया था. जुलाई अंत तक मसूरी के रास्ते डाक व्यवस्था पुनः प्रारंभ की गयी. इस दौरान बरेली और मुरादाबाद से अनेक शरणार्थी नैनीताल पहुँचने लगे. हैनरी रैमजे ने इस दौरान पूरे कुमाऊं में मार्शल लॉ लागू किया था. हैनरी रैमजे पिछले 15 सालों से कुमाऊँ क्षेत्र में विभिन्न पदों पर रह चुका था. हैनरी रैमजे कुमाऊँ क्षेत्र से इतना परिचित हो चुका था कि वह स्थानीय लोगों से टूटी-फूटी कुमाऊंनी में ही बातचीत भी करता था. उसकी इसी पकड़ के कारण ही उत्तराखण्ड में 1857 की क्रान्ति का बड़े पैमाने पर प्रभाव नहीं देखा गया।


काली कुमाऊँ को बागी घोषित कर दिया गया। १९३७ तक यहाँ के लोगों को सेना में नहीं लिया गया। अंग्रेज सरकार ने यहाँ के सभी विकास कार्य रुकवा दिए. कालू माहरा के घर पर हमला बोलकर उसे जला दिया गया।

कुछ समय उपरान्त कालू सिंह महरा अपने गांव लौट आये। मकान न होने के कारण उन्होंने अपना निवास मायावती के नजदीक जंगल में खाटकुटुम में बना लिया। कहा जाता है कि १९०६ में खाटखुटुम नामक स्थान पर एकांतवास करते निधन हुआ।

उनकी मृत्यु के संबंध में इतिहास मौन है। कुमाऊँ केसरी श्री बद्रीदत्त अनुसार उन्हें ५२ जेलों में घुमाया गया। कुछ का मानना है कि कालू को फाँसी पर लटका दिया गया था। इतना सशस्त्र विद्राेह करने पर भी उन्हेंं सजा नहीं हुई- कुछ लोग इसे कमिशन कुटनीतिक चाल बताते है। 

स्वाधीनता प्रेमी, क्रान्ति पुत्र, वीर कालू महरा द्वारा काली कुमाऊँ में सुलगाई क्रान्ति की चिन्गारी शोला बनकर नहीं फूट सका। कालू सिंह महरा को उनके शौर्य और वीरता के लिये उत्तराखण्ड का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी कहा जाता है। 


सन्दर्भ-

"कुमाऊँ का स्वाधीनता संग्राम में योगदान" पत्रिका (लोहाघाट)




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