Friday, December 4, 2020

VALOROUS TALE OF MAHARANI JIYA (MAA) MAULA DEYI KATYURI - IMMORTAL RAJPUTS

 


लगभग 800 साल पुरानी बात है जब कुर्मांचल और केदारेश्वर में कत्यूरी राजवंश का न्यायकारी राज या प्रभाव था। कत्यूरी राजवंश की राजधानी 5वीं 6वीं शताब्दी से नौवीं शताब्दी तक जोशीमठ रही। इसके बाद उन्होंने अपनी राजधानी कार्तिकेयपुर रणचुलिहाट ( गरुड़)  कत्यूर घाटी बागेश्वर में स्थापित की थी और शीतकालीन राजधानी लखनपुर बैराठ (चौखुटिया) जिसे नाम से जाना जाता है। इस बीच 12वीं सदी से दिल्ली में अफगानों, तुर्को का शासन स्थापित हो गया था। तुर्कों ने गढ़वाल हरिद्वार के रास्ते  उत्तराखंड लूटने के लिये  हमला किया तथा कुमाऊँ में हल्द्वानी के रानीबाग से हमला किया था,  जिसमें विदेशी आक्रांताओं को कत्यूरी सेना से मुंह की खानी पड़ी और बुरी तरह हार गये।

इसी कत्यूरी राजवंश की एक रानी थी जिया जो खातस्यूंगढ़ के राजा और रानी पियुलों देवी की पुत्री थी। उनका बचपन का नाम मौला देवी था तथा उनके दो भाई थी जिनका नाम अजब राय और गजब राय था। उस समय कत्यूरी वंश के राजा प्रीतमदेव यानि पृथ्वीपाल थे जिनसे मौला देवी का विवाह हुआ था। राजा प्रीतमदेव की पहली पत्नी धर्मा यानि गंगावती थी। मौला देवी उनकी दूसरी रानी थी। न्याय, शक्ति, भक्ति, प्रजापालन के कारण उन्हें राजमाता का दर्जा प्राप्त था। पहाड़ों में मां को जिया भी कहा जाता है तथा मौला देवी प्रजापालक थी इसलिए लोग उनकी नंदा देवी के रूप में पूजा करने लगे थे। लोग उन्हे नंदा देवी का अवतार मानने लगे थे और इस तरह से मौला देवी का प्रचलित नाम जिया रानी हो गया था। 

उत्तराखण्ड के इतिहास में जियारानी को परम सम्मान मिला है। कत्यूरी राजवंश के अवसान के दौर में आम जनता के हितों एवं मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए महारानी जिया की जीवटता जग-जाहिर है। कत्यूरी शासकों के आपसी कुचक्रों के बीच महारानी जिया की दूरदर्शिता ने इतिहास को रक्तरंजित होने से बचाया था। अपने पुत्र धामदेव तथा आम जनता के लिए उसके संघर्ष और साहस की वीरकथा जियारानी के जागरों में आज भी उत्तराखण्ड के ग्रामीण जनजीवन में गूंजती है। जिया रानी उत्तराखण्ड के जनजीवन में इस कदर लोकप्रिय हुयी कि किन्हीं इलाकों एवं जातियों में आज भी 'मां' के लिए जिया' शब्द का उच्चारण किया जाता है। जिया की प्रतिष्ठा महारानी से कहीं बढ़कर जन्मदायिनी मां के रूप में आम जनता में होना एक अतिविशिष्ट परम्परा है।

उत्तराखंड के प्रसिद्ध कत्यूरी राजवंश का किस्सा

कत्यूरी राजवंश भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक मध्ययुगीन राजवंश था। इस राजवंश के बारे में माना जाता है कि वे अयोध्या के शालिवाहन शासक के वंशज थे और इसलिए वे सूर्यवंशी क्षत्रिय कहलाते थे। इतिहासकारों के अनुसार सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्तराखण्ड में कत्यूरी राज स्थापित हुआ। इनका कुमाऊँ क्षेत्र पर छठी से ग्यारहवीं सदी तक शासन था। राहुल सांकृत्यायन तो पहले से कहते जब आदिशंकराचार्य जोशीमठ पहुंचे तो उन्होंने मठाधीश से शास्त्रार्थ का अवसर चाहा। उसमें शर्त थी, जो जीतेगा, उसकी बात दूसरे पक्ष को माननी होगी। सात दिन के घमासान शास्त्रार्थ के बाद मठाधीश हार गए। शर्त के अनुसार शंकराचार्य जी ने अयोध्या के राजा के अनुज को आमंत्रित किया उसका राज्याभिषेक किया। यह भी कहा गया है कि कत्यूर काबुल के कछोर वंशी थे। अंग्रेज पावेल प्राइस कत्यूरों को 'कुविन्द' मानता है। कार्तिकेय पर राजधानी होने के कारण वे कत्‍यूर कहलाए। कुछ कत्यूरों व शकों को कुषाणों के वंशज मानते हैं। बागेश्वर बैजनाथ की घाटी को भी वो कत्यूर घाटी कहते हैं।

बागेश्वर-बैजनाथ स्थित घाटी को भी कत्यूर घाटी कहा जाता है। कत्यूरी राजाओं ने ‘गिरिराज चक्रचूड़ामणि’ की उपाधि धारण की थी। उन्होंने अपने राज्य को ‘कूर्मांचल’ कहा, अर्थात ‘कूर्म की भूमि’। ‘कूर्म’ भगवान विष्णु का दूसरा अवतार था, जिस वजह से इस स्थान को इसका वर्तमान नाम ‘कुमाऊँ’ मिला।

कत्यूरी राजवंश उत्तराखंड का पहला ऐतिहासिक राजवंश माना गया है। कत्यूरी शैली में निर्मित द्वाराहाट, जागेश्वर, बैजनाथ आदि स्थानों के प्रसिद्ध मंदिर कत्यूरी राजाओं ने ही बनाए हैं। प्रीतम देव 47वें कत्यूरी राजा थे जिन्हें ‘पिथौराशाही’ नाम से भी जाना जाता है। इन्हीं के नाम पर वर्तमान पिथौरागढ़ जिले का नाम पड़ा।




जिया रानी



लिखित इतिहास न होने के कारण इतिहासकारों और अन्वेषकों ने अलग-अलग टुकड़ों को जोड़कर कुछ गाथाए तैयार की हैं। फिर भी रिक्त स्थान बहुत हैं। कोई जिया को मालव देश के राजा की पुत्री कहते हैं। मालव मध्यप्रदेश और पंजाब में दो स्थान हैं। हो सकता है कोई तब छोटा पहाड़ी राज्य मालवा रहा हो, जिसकी कन्या जिया हो। जिया को अधिकतर खाती (राजपूत) वंश की बेटी माना जाता है। वे कुमाऊँ के बड़े जुझारू राजपूत थे।

जिया रानी का वास्तविक नाम मौला देवी था, जो हरिद्वार (मायापुर) के राजा अमरदेव पुंडीर की पुत्री थी। सन 1192 में देश में तुर्कों का शासन स्थापित हो गया था, मगर उसके बाद भी किसी तरह दो शताब्दी तक हरिद्वार में पुंडीर राज्य बना रहा। मौला देवी, राजा प्रीतमपाल की दूसरी रानी थी। मौला रानी से 3 पुत्र धामदेव, दुला, ब्रह्मदेव हुए, जिनमें ब्रह्मदेव को कुछ लोग प्रीतम देव की पहली पत्नी से जन्मा मानते हैं। मौला देवी को राजमाता का दर्जा मिला और उस क्षेत्र में माता को ‘जिया’ कहा जाता था इस लिए उनका नाम जिया रानी पड़ गया।

राजा प्रीतमदेव और राजमाता जिया रानी के पुत्र थे कत्यूरी वंश के महान शासक धामदेव जिन्होंने दिल्ली के शासक को सागरघाट के युद्ध में पराजित किया था। जब धामदेव छोटे थे तो राजमाता जिया रानी राज्य का कार्यभार देखने के लिये अपने पुत्र के साथ चित्रशिला गोलाघाट चली गयी। जहां उन्होंने खूबसूरत रानी बाग बनवाया था। जिया रानी यहां बहुत समय तक रही तथा रानीबाग का नाम भी मां जिया रानी के नाम पर पड़ा है।  


पुंडीर राज्य के बाद भी यहाँ पर तुर्कों और मुगलों के हमले लगातार जारी रहे और न सिर्फ हरिद्वार बल्कि उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊँ में भी तुर्कों के हमले होने लगे। ऐसे ही एक हमले में कुमाऊँ (पिथौरागढ़) के कत्यूरी राजा प्रीतम देव ने हरिद्वार के राजा अमरदेव पुंडीर की सहायता के लिए अपने भतीजे ब्रह्मदेव को सेना के साथ सहायता के लिए भेजा जिसके बाद राजा अमरदेव पुंडीर ने अपनी पुत्री मौला देवी (रानी जिया) का विवाह कुमाऊँ के कत्यूरी राजवंश के राजा प्रीतमदेव उर्फ़ पृथ्वीपाल से कर दिया।


उस समय दिल्ली में तुगलक वंश का शासन था। मध्य एशिया के लूटेरे शासक तैमूर लंग ने भारत की महान समृद्धि और वैभव के बारे में बहुत बातें सुनी थीं। भारत की दौलत लूटने के मकसद से ही उसने आक्रमण की योजना भी बनाई थी। उस दौरान दिल्ली में फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के निर्बल वंशज शासन कर रहे थे। इस बात का फायदा उठाकर समरकंद के लुटेरे शासक तैमूर लंग ने भारत पर आक्रमण कर दिया। वर्ष 1398 में समरकंद का यह लूटेरा शासक तैमूर लंग, मेरठ को लूटने और रौंदने के बाद हरिद्वार की ओर बढ़ रहा था। उसने मेरठ से आगे बढ़कर हरिद्धार, गढ़वाल और कुमांऊ पर भी हमला कर दिया। उस समय वहाँ वत्सराजदेव पुंडीर शासन कर रहे थे। उन्होंने वीरता से तैमूर का सामना किया मगर शत्रु सेना की विशाल संख्या के आगे उन्हें हार का सामना करना पड़ा।  

उत्तर भारत में गंगा-जमुना-रामगंगा के क्षेत्र में तुर्कों का राज स्थापित हो चुका था। इन लुटेरों को ‘रूहेले’ (रूहेलखण्डी) भी कहां जाता था। रूहेले राज्य विस्तार या लूटपाट के इरादे से पर्वतों की ओर गौला नदी के किनारे बढ़ रहे थे। इस दौरान इन्होंने हरिद्वार क्षेत्र में भयानक नरसंहार किया। जबरन बड़े स्तर पर मतपरिवर्तन हुआ और तत्कालीन पुंडीर राजपरिवार को भी उत्तराखंड के नकौट क्षेत्र में शरण लेनी पड़ी जहाँ उनके वंशज आज भी रहते हैं और ‘मखलोगा पुंडीर’ के नाम से जाने जाते हैं। तैमूर की सेना की एक टुकड़ी पहाड़ों पर आक्रमण करने के लिये आगे बढ़ी। जब सूचना राजा पृथवीदेव पाल को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने कुमाऊनी राजपूतो की एक बड़ी सेना तैयार कर दी। तैमूर की सेना और कत्यूरी वीरों के बीच रानीबाग क्षेत्र में युद्ध हुआ था। 



कत्यूरी सेना का नेतृत्व कोई और नहीं बल्कि राजमाता जिया रानी कर रही थी। उनकी वीरता, साहस और पराक्रम के सामने तैमूर की सेना की एक नहीं चली। उनके छक्के छूट गये। तैमूर की सेना को मुंह की खानी पड़ी। उसके बचे हुए सैनिक कायरों की तरह भाग खड़े हुए लेकिन वे कायर ही नहीं धूर्त भी थे। तैमूर की एक दूसरी अतिरिक्त सेना ने कत्यूरी सेना पर छिपकर हमला किया। राजा प्रीतमदेव को जब इसका पता चला तो वह स्वयं सेना लेकर आये और उन्होंने मुस्लिम हमलावरों को मार भगाया। इस तरह से तैमूर लंग को दो बार कत्यूरी सेना से हार का सामना पड़ा था।


पिता की मृत्यु के बाद अल्पवयस्क धामदेव बने उत्तराधिकारी

जब प्रीतमदेव का निधन हुआ तब धामदेव छोटी उम्र के थे और ऐसे में राजमाता जिया रानी ने उनके संरक्षण में स्वयं राजकाज संभाला था। अपने न्यायप्रिय, धर्मप्रिय शासन के कारण राजमाता जिया रानी की पूरे देश में जय जयकार होने लगी थी।



अब बात करते हैं राजमाता जियारानी के दैवीय प्रभाव की। कुमांऊ में काठगोदाम से एक जगह है रानीबाग। कुछ इतिहासकार बताते हैं कि जिया रानी के पिता ने उनकी शादी राजा प्रीतम देव के साथ उनकी इच्छा के विरुद्ध की थी जबकि कुछ कथाओं के आधार पर मान्यता है कि राजा प्रीतमदेव ने बुढ़ापे में जिया से शादी की। विवाह के कुछ समय बाद जिया रानी की प्रीतम देव से अनबन हो गयी और वो अपने पुत्र के साथ गौलाघाट चली गई, जहाँ उन्होंने एक खूबसूरत रानीबाग़ बनवाया। इस जगह पर जिया रानी 12 साल तक रही थी।


दूसरे इतिहासकारों के अनुसार एक दिन जैसे ही रानी जिया नहाने के लिए गौला नदी में पहुँची, वैसे ही उन्हें तुर्कों ने घेर लिया। रानी जिया शिव भक्त और सती महिला थी। उन्होंने अपने ईष्ट देवता का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गई। 

लूटेरे तुर्कों ने उन्हें बहुत ढूंढा लेकिन उन्हें जिया रानी कहीं नहीं मिली। कहते हैं उन्होंने अपने आपको अपने लहँगे में छिपा लिया था और वे उस लहँगे के आकार में ही शिला बन गई थीं। गौला नदी के किनारे आज भी एक ऐसी शिला है जिसका आकार कुमाऊँनी पहनावे वाले लहँगे के समान हैं। उस शिला पर रंगीन पत्थर ऐसे लगते हैं मानो किसी ने रंगीन लहँगा बिछा दिया हो। वह रंगीन शिला जिया रानी का स्मृति चिन्ह माना जाता है।


रानीबाग (काठगोदाम) स्थित घाघरे के आकार का रंगीन शिला जिसे आज पूजा जाता है।


इस रंगीन शिला को जिया रानी का स्वरुप माना जाता है और कहा जाता है कि जिया रानी ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए इस शिला का ही रूप ले लिया था। रानी जिया को यह स्थान बेहद प्रिय था। यहीं उन्होंने अपना बाग़ भी बनाया था और यहीं उन्होंने अपने जीवन की आखिरी साँस भी ली थी। रानी जिया के कारण ही यह बाग़ आज रानीबाग़ नाम से मशहूर है।


गौला नदी के किनारे आज भी एक ऐसी शिला है, जिसका आकार कुमाऊँनी घाघरे के समान हैं। उस शिला पर रंग-विरंगे पत्थर ऐसे लगते हैं - मानो किसी ने रंगीन घाघरा बिछा दिया हो। वह रंगीन शिला जिया रानी के स्मृति चिन्ह माना जाता है। रानी जिया को यह स्थान बहुत प्यारा था।  माना जाता है कि इस शिला में ब्रह्मा, विष्णु, शिव की शक्ति समाहित है। माँ जिया की याद में यह स्थान रानीबाग के नाम से विख्यात है। कुमाऊं के प्रवेश द्वार काठगोदाम स्थित रानीबाग में जियारानी की गुफा का ऐतिहासिक महत्व है।




कुमाऊँ स्थित जिया माता मंदिर

रानी जिया हमेशा के लिए चली गई लेकिन उन्होंने वीरांगना की तरह लड़कर आख़िरी वक्त तक तुर्क आक्रान्ताओं से अपने सतीत्व की रक्षा की।




वर्तमान में प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर 14 जनवरी को चित्रशिला में सैकड़ों ग्रामवासी अपने परिवार के साथ आते हैं और ‘जागर’ गाते हैं। इस दौरान यहाँ पर सिर्फ ‘जय जिया’ का ही स्वर गूंजता है। लोग रानी जिया को पूजते हैं और उन्हें ‘जनदेवी’ और न्याय की देवी मना जाता है। रानी जिया उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र की एक प्रमुख सांस्कृतिक विरासत बन चुकी हैं।

प्रतिवर्ष संक्रांति 14 जनवरी को उत्तरायणी चित्रशिला में सैकडों परिवार, ग्रामवासी आते हैं। जागर लगाते हैं। सारे दिन, सारी रात जैजिया, जिया के स्वर गूंजते हैं। जिया को पूजते हैं। जिया कुमाऊँ की जनदेवी, न्याय की देवी बन गयी है। गाँव-गाँव कई परिवारों में चैत्र और अश्विन की नवरात्रियों में जागर (जागरण) जिसमें प्रशस्ति गायी जाती है, ढोल-ढमके बजाकर देवी-देवता अवतरित होते हैं, जागर लगायी जाती है। अब जिया कुमाऊँ की सांस्कृतिक विरासत बन गयी है।



कुमायूं के राजपूत आज भी वीरांगना जिया रानी पर बहुत गर्व करते हैं,
उनकी याद में दूर-दूर बसे उनके वंशज (कत्यूरी) प्रतिवर्ष यहां आते हैं। पूजा-अर्चना करते हैं। कड़ाके की ठंड में भी पूरी रात भक्तिमय रहता है।

महान वीरांगना सतीत्व की प्रतीक पुंडीर वंश की बेटी और कत्युरी वंश की राजमाता जिया रानी को शत शत नमन.....



4 comments:

  1. Law of karma works everywhere. Bharat ki histrory me nahi lekin vaha ke local logo me unki story abhi bhi jivit hai .

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    1. Ram Ram baisa hukum ji, Law is a coercive force from outside. Honor is a regulatory force from within society.

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    2. Both are based on karma
      If all the great rulers and brave warriors of our history had been concerned about the outcome of all their actions too badly, they could hardly have done anything. As like arjun before the war.
      कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्।
      मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।।
      And pls don't tell.that you don't believe in law of karma already hve done a big debate on that so.....

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