भारतीय स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत राजस्थानी योद्धाओं में शेखावाटी के सीकर संस्थान के बठोठ पाटोदा के ठाकुर डूंगरसिंह (Dungji), ठाकुर जवाहरसिंह शेखावत (Jawaharji), बीकानेर के ठठावते का ठाकुर हरिसिंह बीदावत, भोजोलाई का अन्नजी (आनन्दसिंह), ठाकुर सूरजमल ददरेवा, जोधपुर के खुशालसिंह चांपावत, ठाकुर बिशनसिंह मेड़तिया गूलर, ठाकुर शिवनाथसिंह प्रासोप, ठाकुर श्यामसिंह बाड़मेरा चौहट्टन, सिरोही राज्य के भटाना का ठाकुर नाथूसिंह देवड़ा, बूदी राज्य के गोठड़ा का महाराज बलवन्तसिंह तथा कोटा नरेश के अनुज महाराज पृथ्वीसिंह हाड़ा प्रादि का पंक्तिय स्थान गिना जाता है।
बठोठ पाटोदा के डूंगरसिंह जवाहरसिंह (Dungji-Jawaharji) का विद्रोहात्मक संघर्ष बड़ा संगठित, सशक्त और अग्रेज सत्ता को आतंकित कर देने वाला था। ठाकुर जवाहरसिंह और ठाकुर डूंगरसिंह के साथ शेखावाटी के खीरोड़, मोहनवाड़ी, मझाऊ, खड़ब तथा देवता ग्रामों के सल्हदीसिंहोत, ठाकुर सम्पतसिंह के नेतृत्व में आ मिले थे। यह अंग्रेज विरोधी संघर्ष केवल ठाकुर जागीरदारों तक ही सीमित नहीं था अपितु जाट, मीणें, गूजर, लुहार, नाई आदि जातियों के जागृत लोगों के सक्रिय सहयोग से आरम्भ हुआ था। सांवता मीणा, लोटिया जाट, बालिया नाई, करणिया मीणा आदि के उल्लेख से यह तथ्य स्पष्ट ही सत्य प्रकट होता है। इस संगठित अभियान को संचालित करने में ठाकुर जवाहरसिह प्रमुख थे।
ठाकुर जवाहरसिंह और डूंगरसिह चचेरे भ्राता थे। सीकर के अधिपति राव शिवसिंह शेखावत (सं. 1778-1805) के लघुपुत्र ठाकुर कीर्तिसिंह के पुत्र ठाकुर पदमसिह को बठोठ पाटोदा की जागीर मिली थी। ठाकुर पदमसिंह ने सीकर के पक्ष में सं. 1837 में खाटू के प्रसिद्ध युद्ध में भाग लिया था। तदनन्तर वि.सं. 1844 में कासली के युद्ध में काम आए। ठाकुर पदमसिंह के दलेलसिंह, बख्तसिंह, केशरीसिह और उदयसिंह चार पुत्र थे। पदमसिंह के वीरगति प्राप्त करने के बाद दलेलसिंह बठोठ का स्वामी बना और उपरोक्त नाम निर्देशित तीनों भ्राताओं को पाटोदा दिया गया। ठाकुर दलेलसिंह बठोठ के पुत्र विजयसिंह और जवाहरसिह तथा उदयसिंह के डूंगरसिंह और रामनाथसिंह थे। इस प्रकार जवाहर सिंह तथा डूंगरसिंह चचेरे भ्राता थे।
जयपुर राज्य की सन् 1818 ई. में अंग्रेजों के साथ संधि हुई। यह संधि शेखावाटी के स्वामियों को पसंद नहीं थी। राव हनुवन्तसिंह शाहपुरा, रावराजा लक्ष्मणसिंह सीकर और ठाकुर श्यामसिह बिसाऊ आदि शेखावत जयपुर अंग्रेज संधि के विरुद्ध थे। फलतः शेखावाटी प्रदेश के रावजी के, लाडखानी और सल्हदीसिंहोत शेखावतों ने अपनी शक्तिसामर्थ्वानुसार अंग्रेज शासित भू-भागों में धावे मारकर अराजकता की स्थिति उत्पन्न की। बीकानेर के चूरू तथा जोधपुर के डीडवाना क्षेत्र के स्वतन्त्रा प्रमी ठाकुरों ने शेखावाटी का अनुसरण कर ब्रिटिश सत्ता को चुनौती-सी दे दी। संवत् 1890 वि. रावराजा लक्ष्मणसिंह का देहान्त हो गया ओर उनके पुत्र रावराजा रामप्रतापसिंह सीकर की गद्दी पर बैठे तब जयपुर में शिशु महाराजा रामसिंह द्वितीय सिंहासनारूढ़ थे। जयपुर की जनता ने अंग्रेज विरोधी भावना से उद्वेलित होकर जयपुर के पोलिटिकल एजेण्ट के सहायक अंग्रेज अधिकारी मि. ब्लेक को मार डाला। इस घटना से अंग्रेज और भी भयभीत और सतर्क हुए और जयपुर के सुसंगठित शेखावत संगठन का दमन करने के लिए ‘‘शेखावाटी ब्रिगेड’’ अभिधेय सैनिक संगठन गठित किया और मिस्टर फास्टर को उसका कमाण्डर नियुक्त किया।
शेखावाटी ब्रिगेड की स्थापना का उद्देश्य शेखावाटी, तंवरावटी, चूरू और लुहारू क्षेत्र में पनप रहे ब्रिटिश सत्ता विरोधी विद्रोह को शान्त करना था। यद्यपि राजनैतिक परिस्थितियों से पीड़ित रियासती राजाओं ने अंग्रेजों से संधियां की थीं, पर वस्तुतः वे भी अंग्रेजों के बढ़ते हुए प्रभाव को पसन्द नहीं कर रहे थे। किन्तु खुले रूप में अथवा खुले मैदान में उनका विरोध करने का साहस भी उनमें नहीं था। सबसे प्रबल कारण तो यह था कि मरहठों और पिंडारियों की लूट-खसोट और आए दिन के बखेड़ों से अंग्रेजों के माध्यम से छुटकारा मिला था। मरहठों की लोलुपता और अत्याचारों का धुंआ थोड़ा-थोड़ा दूर ही हुआ था। इसलिए राजाओं के सामने सांप-छुंछूदर की सी स्थिति थी। पर ठिकानेदार, छोटे भू-स्वामी और जनमानस अंग्रेजों के साथ हुए संधि समझौते से क्षुब्ध थे और वे अग्रेजों की छत्रछाया को अमन चैन के नाम पर गलत मानते थे। फलतः अंग्रेज सत्ता और उनके प्रच्छन्न-अप्रच्छन्न समर्थक सहयोगियों से स्वातंत्रयचेता वीर अनवरत सक्रिय विरोध करते आ रहे थे।
शेखावाटी ब्रिगेड में शेखावाटी के ठाकुर अजमेरीसिंह पालड़ी और ठाकुर डूंगरसिह पाटोदा प्रभावशाली व्यक्ति थे। डूंगरसिंह पाटोदा तो अश्वारोही सेना में रिसलदार के पद पर थे।
सीकर के रावराजा रामप्रतापसिंह और उनके उत्तराधिकारी वैमात्रेय भ्राता रावराज भैरवसिंह, खवासवाल भ्राता रावराज भैरवसिंह, खवासवाल भ्राता मुकुन्दसिंह सिंहरावट, हुकमसिंह सीवोट रामसिंह नेछवा आदि के पारस्परिक अनबन चल रही थी। राव राजा रामप्रतापसिंह के सगोत्रीय बंधु ठिकानेदार बठोठ, पाटोदा तथा सिंहासन और पालड़ी के अधीनस्थ जागीरदार रावराजा के विरुद्ध उनके वैमातृक भ्राता भैरवसिंह तथा खवासवाल बंधुओं की सहायता कर रहे थे। इधर अंग्रेज सत्ता इस विग्रह के सहारे सीकर और शेखावाटी में अपने हाथ-पैर फैलाने का अवसर दूंढ रही थी और उधर राव राजा रामप्रतापसिंह अपने बल से उन्हें दबाने में सबल नहीं थे। अतएव अंग्रेजों की सहायता से वे उनका दमन करना चाहने लगे। शेखावाटी की इस राजनैतिक परिस्थिति की अनुभूति कर ठाकुर डूंगरसिह सं. 1891 वि. में अपने कुछ साथियों को तैयार कर शेखावाटी ब्रिगेड से विद्रोह कर बैठा और वहां से शस्त्र, घोड़े और ऊंट छीनकर विद्रोही बन गया। वह अंग्रेज शासित गांवों में लूट मार करने लगा। उधर सिंहरावट के खवासवाल ठाकुर बन्धु सीकर और अंग्रेज सरकार का विरोध कर ही रहे थे। इस स्थिति की विषमता का मूल्यांकन कर कर्नल एल्विस ने बीकानेर के महाराजा रतनसिंह से प्रबल अनुरोध किया कि डूंगरसिंह को येनकेन प्रकारेण बन्दी बनाया जाय। डूंगरसिंह की सिंहरावट के जागीरदारों के साथ सक्रिय सहानुभूति थी। बीकानेर नरेश ने लोढ़सर के ठाकुर खुमानसिंह को विद्रोहियों का पता लगाने पर नियत किया। वह ठाकुर जवाहरसिंह बठोठ का साला था और स्वयं भी अंग्रेजों के विरुद्ध था। उसने उनका मार्गण कर किशनगढ़ राज्य के ढसूका नामक गांव में उनकी उपस्थिति की सूचना दी। डूंगरसिंह ने इसी काल में मथुरा के एक धनाढ्य सेठ की हवेली पर धावा मारकर पर्याप्त द्रव्य लूट लिया और सेठ के परिवार को धन के लिए अपमानित भी किया। ठाकुर डूंगरसिंह और जवाहरसिंह का अजमेर मेरवाड़ा के प्रमुख भूपति राजा बलवन्तसिंह भिनाय तथा राव देवीसिंह खरवा तथा झड़वामा के गौड़ भैरवसिंह से निकट का सम्बन्ध था। राजा बलवन्तसिह के उत्तराधिकारी राजा मंगलसिंह का पणिग्रहण भोपालसिंह बठोठ की पुत्री तथा राव देवीसिंह खरवा के पुत्र कु. विजयसिंह करणेस का विवाह डूंगरसिह की सहोदरा के साथ हुआ था और डूंगरसिंह स्वयं भड़वासा के गौड़ों के वहां विवाहा था। डूंगरसिंह का इसलिए भी अजमेर मेरवाड़ा में आवागमन बना रहता था।
राव राजा रामप्रतापसिंह की असमर्थताजन्य आपत्ति पर कर्नल सदरलैड ने शेखावाटी ब्रिगेड के सर्वोच्च अंग्रेज अफसर फास्तर को जयपुर, सीकर और अपनी अधीनस्थ सेना सहित आदेश दिया कि सिंहरावट दुर्ग को हस्तगत कर विद्रोह को समाप्त करें। मेजर फास्तर ने सिंहरावट को चारांे ओर से घेरकर किले पर श्राक्रमण किया। ठाकुर मुकुंदसिंह वगैरह एक माह तक सामुख्य कर अन्त में यकायक किला त्यागकर लड़ते हुए निकल गए।
उधर डूंगरसिह ने संवत् 1893 चैत्रमास में सीकर राज्य के कतिपय गांवों पर धावे मारकर ठाकुर जवाहरसिंह के ससुराल लोड़सर ठाकुर खुमानसिंह के पास चला गया। बीकानेर राज्य की सेना ने ठाकुर हरनाथसिंह मघरासर और माणिक्यचन्द सुराना के नेतृत्व में लोढ़सर दुर्ग पर आक्रमण किया। तब ठाकुर जवाहरसिंह, भीमसिंह और ठाकुर खुमानसिंह बीदावत लोढ़सर से निकल कर जोधपुर की ओर चले गए।
संबत् 1895 वि. ठाकुर जवाहरसिंह, डूंगरसिंह, ठाकुर खुमानसिह बीदावत लोढ़सर, हरिसिंह बीदावत, अन्नजी बीदाबत भोजोलाई तथा कर्णसिह बीदावत रूतेली आदि ने बीकानेर के लक्ष्मीसर आदि अनेक ग्रामों को लूट लिया और बाीकानेर से जोधपुर, किशनगढ़ होते हुए अजमेर मेरवाड़ा की ओर चले गए। ठाकुर डूंगरसिह अपने ससुराल भड़वासा (अजमेर से दक्षिण में 10 मील दूर) स्थान पर विश्रांति के लिए जा ठहरा। उपयुक्त घटनाओं से अंग्रेज सत्ता और भी आतंकित होकर उत्तेजित हो गयी और इन स्वातंत्रय संग्राम के सक्रिय योद्धाओं को पकड़ने, मारने और विश्रंखलित करने के लिए सभी उपाय करने लगी। भड़वासे का भैरवसिह गौड़ डूंगरसिंह का सम्बन्धी और विक्षुब्ध व्यक्ति था। अंग्रेजों ने उसे भय, आतंक और लोभ दिखाकर डूंगरसिंह को पकड़वाने के लिए सहमत कर लिया। भैरवसिंह गौड़ ने डूंगरसिंह के साथ कृत्रिम प्रात्मीयता प्रकट कर उसे दावत दी और छल पूर्वक मद्यपान से छकाकर अर्द्ध संज्ञाहीन कर दिया और उधर गुप्त रूप से अजमेर नसीराबाद में सूचना भेज दी। अजमेर और नसीराबाद की छावनी स्थित अंग्रेज सेना ने युद्ध सज्जा में सुसज्जि होकर भड़वासा में विश्राम करते उस स्वातंत्रय समर के पंक्तिय योद्धा को यकायक जा घेरा। गौड़ों ने उसके शस्त्र पहिले ही अपने अधिकार में कर लिए थे। ऐसी अर्द्धचेतन-अवस्था में उस नर शार्दूल डूंगरसिह को अंग्रेजों ने बन्दी बनाकर सुरक्षा की दृष्टि से राजपूताना से दूर अगरा के लालकिले की कारागार में ले जाकर बन्द कर दिया। इस छलाघात से जहां गौड़ों की पुष्कल निन्दा हुई वहां शेखावतों और डूंगरसिह के सहयोगियों में अपार रोष भड़क उठा। वे लोग प्रतिशोध के लिए उद्यत होकर आगरा दुर्ग पर आक्रमण कर डूंगरसिह को कारावास से मुक्त करवाने के लिए कटिबद्ध हो गए।
ठाकुर जवाहरसिंह ने आगरा दुर्ग पर आक्रमण कर डूंगरसिंह और उन्हीं की तरह पकड़े गए अन्य कतिपय ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी स्वतन्त्रता सेनानियों को उन्मुक्त करने की योजना बनाई। इस योजना की सफलता के लिये अपने ग्राम बठोठ के नीठारवाल गोत्र के जाट, लोटिया और मीणा जाति के योद्धा सांवता को आगरे भेजा तथा वहां की अन्तःबाह्य स्थिति की जानकारी मंगवाई और समस्त सूचनाएं प्राप्त कर विक्रमी संवत् 1903 में ठाकुर जवाहरसिंह ने ठाकुर भोपाल सिंह, ठाकुर बख्तावरसिंह श्यामसिंहोत श्यामगढ़ (शेखावाटी), ठाकुर खुमान सिंह बीदावत लोढ़सर, अलसीसर, कानसिंह, उजीणसिंह मींगणा, जोरसिंह खारिया-बैरीशालसिंह, हरिसिंह प्रभृति बीदावत योद्धा तथा हठीसिह कांधलोत, मानसिंह लाडखानी, सिंहरावट के हुकमसिंह, चिमनसिंह, लोटिया जाट, सांवता, करणिया मीणा, बालू नाई और बरड़वा के लाडखानी शेखावतों आदि कोई चार सौ पांच सौ वीरों ने बारात का बहाना बना कर आगरा की ओर प्रस्थान किया और उपयुक्त अवसर की टोह में दूल्हा के मामा के निधन का कारण बना कर पन्द्रह दिन तक आगरा में रुके रहे। तदन्तर मुहर्रम के ताजियों के दिन यकायक निश्रयणी (सीढ़ी) लगा कर दुर्ग में कूद पड़े। किले के रक्षकों, प्रहरियों और अवरोधकों को मार काट कर डूंगरसिंह सहित समस्त बंदियों को मुक्त कर निकाल दिया। इस महान् साहसिक कार्य से अंग्रेज सत्ता स्तब्ध रह गई। अंग्रेजों की राजनैतिक पैठ उठ गई। आजादी के बलिदानी योद्धाओं के देश भर में गुण गीत गूजने लगे। आगरा के कथित युद्ध में ठाकुर बख्तावरसिंह शेखावत श्यामगढ़, ठाकुर उजीणसिह मींगणा (बीकानेर) हणू तदान मेहडू चारण ग्राम दांह (सुजानगढ़ तहसील) आदि लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
ठाकुर जवाहरसिंह के प्रयत्न से उन्मुक्त भारतीय आजादी के दिवाने डूंगरसिह वगैरह ने आगरा से प्रस्थान कर भरतपुर तथा अलवर राज्य के गिरि भागों को त्वरिता से पार करते हुए भिवानी समीपस्थ बड़बड़ भुवाणां ग्राम के विकट अरण्य में विश्राम लिया। तदुपरांत बठोठ पाटोदा में पहुंच कर राजस्थान के अंग्रेजों के पांव उखाड़ने की योजना तैयार करने लगे। अन्त में आगरा दुर्ग से मुक्त होने के कुछ ही समय पश्चात् सीकर राज्य के सेठों के रामगढ़ के धनाढ्य सेठ अनंतराम घुसमिल पोद्दार गौत्र के अग्रवाल वैश्यों से पन्द्रह हजार की नकद राशि प्राप्त कर ऊंट, घोड़े और अस्त्र-शस्त्रों की खरीद कर राजस्थान के मध्य में अजमेर के निकटस्थ सैनिक छावनी नसीराबाद पर आक्रमण किया। शेखावाटी, बीकानेर और मारवाड़ के अंग्रेज विरोधी वीरों को सुनिश्चित स्थान, समय तथा कार्यक्रम की सूचना देकर ठाकुर जवाहूरसिंह व ठाकुर डूंगरसिंह ने बठोठ पाटोदा से प्रस्थान किया। अंग्रेजों के आदेश पर बीकानेर नरेश रतनसिंह ने शाह केशरीमल को डूंगरसिंह को पकड़ने के लिए सेना देकर भेजा। बीकानेर के पूंगल तथा बरसलपुर के पास दोनों पक्षों में मुठभेड़ हुई उसमें नव विद्रोही पकड़े गये और शेष लड़ते हुए सेना को चीर कर निकल गये।
नसीराबाद के आक्रमण में स्वातंत्रय सेनानियों ने तीन समूहों में विभिन्न दिशाओं से कूच किया था। एक दल शेखावाटी की ओर से प्रस्थान कर जयपुर राज्य के मालपुरा खण्ड से होते हुए रात्रि को डिग्गी ठिकाने के ग्राम में ठहरा और वहां से प्रयाण कर किशनगढ़ राज्य के करकेड़ी, रामसर होता हुआ नसीराबाद पहुंचा। डिग्गी ठिकाने के ग्राम में रात्रि विश्राम करने के कारण अंग्रेजों ने डिग्गी के ठाकुर मेघसिंह के दो ग्राम जप्त कर लिए थे।
दूसरा मारवाड़ की ओर का दल अजमेर नांद, रामपुरा, पिसांगन होता हुआ मसूदा के पास से गुजरा और तृतीय दल मेवाड़ के बनेड़ा के वनों से निकल कर नसीराबाद आया। तीनों दल जिनके पास एक सौ ऊंट और चार सौ घोड़े थे-ने मिल कर अर्द्धनिशा में जनरल ब्योरसा द्वारा सुरक्षित छावनी पर धावा मारा और छावनी के प्रहरियों में से छह को मार तथा सात को गिरफ्तार कर बक्षीखाने के कोष से कोई 27 हजार रुपए लूट लिए। सेना के तम्बू जल दिए। यह राशि सैनिकों को वेतन चुकाने के लिए एक दिन पूर्व नसीराबाद छावनी के कोष में जमा हुई थी। यों लूट-मार कर जांगड़ी दोहों के सस्वर बोल-सुनते हुए शाहपुरा राज्य के प्रसिद्ध माताजी के मन्दिर धनोप में देवी को द्रव्य भेंट कर मेवाड़, मारवाड़, सांभर तथा नांवां की ओर यत्र तत्र निकल गये। नसीराबाद के आक्रमण में स्वतन्त्रता सेनानियों में दूजोद का कालूसिंह चांदसिंहोत भी शामिल था।
नसीराबाद की इस प्रथित छावनी तथा राजकीय कोष की परिहृती से अंग्रेजों का राजस्थान से प्रभाव विलीन होकर चारों ओर अपार परिवाद फैल गया। स्वतंत्रता भिलाषी जनमानस में असीम गौरव का संचार हो गया। कवियों, याचकों और विरुद्ध वाचकों के कण्ठों पर जवाहरसिंह डूंगरसिंह के नाम नृत्य करने लगे। तब कर्नल जे. सदरलैंड ने राजस्थान के राजाओं को डूंगरसिंह जवाहरसिंह को पकड़ने के लिए सशक्त आदेश भेजे और कैप्टिन डिक्सन, मेजर फास्तर, कप्तान शां और बीकानेर के सेनानायक ठाकुर हरनाथसिंह नारणोत मधरासर के नेतृत्व में सेनायें भेजी गई। जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह ने मेहता विजयसिंह, कुशलराज सिंघवी तथा किलादार औनाड़सिंह के नेतृत्व में राजकीय सेना भेजी और जोधपुर के जागीरदारों को अपनी जमीयत के साथ इनकी सहायतार्थ सम्मिलित होने का आदेश भेजा। फलतः ठाकुर इन्द्रभानु जोधा भाद्राजून, ठाकुर केशरीसिंह मेड़तिया जावला, ठाकुर बहादुरसिंह लाडनंू, ठाकुर विजयसिंह लूणवा और ठाकुर शार्दूलसिंह पिपलाद आदि रियासती सेना में शामिल हुए। ब्रिटिश सेना के ई. एच. मेकमेसन तथा कप्तान हार्डकसल भी डीडवाना पहुंच कर सदल-बल उससे जा मिले। घड़सीसर ग्राम में उभय पक्षों में सामुख्य हुआ। दोनों ओर जम कर लड़ने के बाद स्वतन्त्रताकांक्षी विद्रोही योद्धा शासकीय सेना के घेरे में फंस गये। ठाकुर हरनाथसिह कैप्टिन शां के विश्वास, आग्रह और नम्रता के व्यवहार से आश्वस्त होकर ठाकुर जवाहरसिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया। ठाकुर जवाहरसिंह को तदनंतर बीकानेर ले जाया गया जहां महाराजा रतनसिंह ने ससम्मान अपने वहां रखा और अंग्रेजों को प्रयत्न पूर्वक मांगने पर भी उन्हें नहीं सौंपा।
ठाकुर डूंगरसिंह घड़सीसर के सैनिक घेरे से निकल कर जैसलमेर राज्य की ओर चला गया। जैसलमेर के गिरदड़े ग्राम के पास मेड़ी में हुकमसिंह और मुकुन्दसिंह भी उससे जा मिले। राजकीय सेना ने फिर उन्हें जा घेरा। दिन भर की लड़ाई के बाद ठाकुर प्रेमसिह लेड़ी तथा नींबी के ठाकुर आदि के प्रयत्न से मरण का संकल्प त्याग कर आत्म समर्पण कर दिया। हुकमसिंह और चिमनसिह को जैसलमेर के भज्जु स्थान पर शस्त्र त्यागने के लिए सहमत किया गया।
इस प्रकार राजस्थान में भारतीय स्वतन्त्रता के संघबद्ध सशस्त्र प्रयत्न का प्रथम दौर संवत् 1904 वि. में समाप्त हुआ।
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