गिर्री तोरे गार में लंबी वधी खजूर ।
जैते कूंपे आखिया, स्वर्ग नेड़ो, घर दूर ।।
गिरी- सुमेल युद्ध के महान योद्धा , मारवाड़ की आन बान और शान राव कुंपा जी राठौर जी की जयंती पर उन्हें शत शत नमन
१ दिन में ४० हजार सैनिकों का सिर हुआ था कलम, मंजर देख हिल गया था शेरशाह सूरी।
राजस्थान में पाली जिले के गिरी समेल का नाम आते ही लोगों में एक नया जोश भर जाता है. हर जाति वर्ग का व्यक्ति अपने आप पर गर्व करता है कि इसी रणभूमि में उनके पूर्वज हिंदुत्व की रक्षार्थ काम आए थे. बात तब की है जब दिल्ली के शहंशाह शेरशाह सूरी ने षडयंत्र पूर्वक मारवाड़ पर आक्रमण किया था। उस समय जोधपुर के महाराजा मालदेव हुआ करते थे। मारवाड़ के सामंतों के पास मात्र ८ हजार की फौज थी और शहंशाह के पास भारी भरकम ३२ हाथियों के साथ अस्सी हजार की सेना थी, लेकिन इन सामंतों ने जीते जी हिंदुत्व पर आंच नहीं आने दी। अगली स्लाइड्स में पूरे मामले के साथ पढ़ें- क्या था बोला था शेरशाह सूरी?
बोल्यो सुरी बैन स्यू, गिरी घाट घमसान
मुठ्ठी खातर बाजरी, खो देतो हिंडवान..!!
आक्रमण के दौरान लड़ाई में एक दिन में ही चालीस हजार सैनिकों के सर कलम हुए थे और महिलाएं अपने सतीत्व को लेकर जौहर में कूद पड़ी थीं। भले ही धोखे से शेरशाह युद्ध जीत गया, लेकिन इस युद्ध में सामंतों की वीरता को देखकर शेरशाह सूरी ये कहना पड़ा थी कि 'मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं दिल्ली की सल्तनत खो बैठता'। ये वाक्य आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है।
सुमेल के रण स्थल पर उन शहीद हुए सामंतों और छत्तीस कौम की छतरियां बनी हुई हैं। जो आज भी उनकी शहादत की गवाह हैं. यहीं पर महासतियों की छतरियां भी बनी हैं। हर वर्ष यहां पांच जनवरी को क्षत्रिय वर्ग के साथ हर जाति के लोग बलिदान दिवस मनाते हैं।
पांच जनवरी को बलिदान दिवस मनाया जाता है। इसमें लोग गांव-गांव, घर-घर जाकर लोगों को बलिदान दिवस पर आने के आमंत्रण रूप में पीले चावल बांट रहे हैं। इस युद्ध स्थल को लेकर पुरातत्व विभाग ने भी सर्वे करवाया और जल्द ही इसे पर्यटन स्थल के रूप में संवारने की भी योजना है।
गिरी सुमेल युद्ध -
बोल्यो सूरी बैन यूँ, गिरी घाट घमसाण,
मुठी खातर बाजरी, खो देतो हिंदवाण.
मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए दिल्ली की सल्तनत गवां देता -
ये वाक्य शेरशाह सूरी ने आज ही के दिन आज से ४७६ वर्ष पूर्व कहे थे
जब मुट्ठी भर रणबंका राठौडों ने दिल्ली सल्तनत को दहला दिया था।
एक ऐसा युद्ध जो सामाजिक मूल्यों और स्वाभिमान का प्रतीक है तथा विश्व इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से अंकित यह युद्ध जोधपुर-मारवाड़ के सेनानायक राव जैता और राव कूँपा राठौड़ के नेतृत्व में मुट्ठी भर सैनिक और शेरशाह सूरी की ८० हजार की विशाल सेना के बीच सुमेल गिरी स्थान पर लड़ा गया था। शेरशाह मारवाड़ के शासक राव मालदेव पर आक्रमण करने आया था शेरशाह आया जरूर लेकिन यहां राजपूतों का शौर्य देखकर उसका विश्वास डगमगाने लगा और वह मालदेव पर आक्रमण की पहल करने का साहस नहीं कर सका। फिर उसने छल एवं कपट से युद्ध जीतने की योजना बनाई। जिसके तहत मालदेव के प्रमुख सरदार और सेनानायकों के नाम झूठे फ़रमान लिखवाये गये। शेरशाह ने इससे पहले कई युद्ध चालाकी से जीते थे।
मालदेव जी ने उसे एक माह का समय दिया था वापस जाने को
शेरशाह ने इस एक माह में पहले तो अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया उसके बाद उसने कूटनीति का सहारा लेते हुए चालाकी से मेड़ता के वीरमदेव द्वारा मालदेव के सरदार कूंपा और जैता जी को २०-२० हजार सिक्के दिए और वीरमदेव ने दोनों सरदारों को अपने लिए कुछ कम्बल और सिरोही की तलवारे खरीदने का आग्रह किया और दूसरी तरफ शेरशाह ने मालदेव के पास अपना गुप्तचर भेजा जो ऐसा लगे की वो मालदेव को शेरशाह- की रणनीति के बारे में बता रहा हो उस गुप्तचर ने मालदेव को बताया की शेरशाह ने उसके दोनों सरदारों जैता और कूंपा को पैसे देकर युद्ध में उसकी और से लड़ने का वादा लिया है और उधर शेरशाह ने कुछ जाली पत्र तैयार करवाये उसमे लिखवाया गया की आप चिंता ना करें हम मालदेव को युद्ध के समय पकड़ कर आपके सम्मुख ले आएंगे, इस प्रकार शेरशाह ने चालाकी से काम लिया और मालदेव के मन में संकोच पैदा कर दिया मालदेव को तब अपने ही सरदारों जैता और कुम्पा पर शक होने लगा।
मालदेव क्रोधित व निराश हुए और वह रात के अँधेरे में अपनी मुख्य सेना लेकर वहा से पलायन करने का मन बना चुके थे इस पर सेना नायक वीर जैता, कूँपा तथा अन्य सरदारों ने मालदेव को समझाने का बहुत प्रयास किया ।
सभी ने अपनी स्वामीभक्ति अपनी मातृभूमि की दुहाई भी दी लेकिन राव मालदेव ने अपनी सेना सहित वापसी का निर्णय ले लिया था और वो नहीं रुके और वापस लौट गए उसके बाद में वहा पर अपनी मुट्ठी भर सेना के साथ राव जैता और राव कूंपा जी रह गए।
जैता और कूंपा राजपूत वीर थे उन्होने सोचा की जो विश्वासघात का आरोप उन पर लगा है उसे केवल शेरशाह से युद्ध करके ही गलत सिद्ध किया जा सकता है।
इसलिए यह युद्ध स्वाभिमान का प्रतीक बना ।
कुछ प्रमुख सरदारों ने भी युद्ध भूमि में ही रुकने का निश्चय किया उनका कहना था,
‘‘उठा आगली धरती रावजी सपूत होय खाटी थी, तिण दिसा राव जी फुरमायों सु म्हैं कीयों।
नै अठा आगली धरती रावले माइतें ने म्हारे माइते भेला हुये खाटी हुती।
आ धरती छोड़ नै म्है नीसरण रा नहीं।’’
मारवाड़ रे परगना री विगत अनुसार इसका मतलब है कि -
इससे आगे की धरती तो आपने अपने भुजबल से जीती है, किन्तु इससे पीछे की धरा जो हमारे और आपके पूर्वजो ने जीती है, इससे पीछे हम नहीं हट सकते।
यह हमारी आन, बान और शान के साथ ही स्वाभिमान की प्रतीक है
किन्तु मालदेव ने अपना निर्णय नहीं बदला और वह जोधपुर लौट आया।
नियति को कुछ और ही मंजूर था
रण-क्षेत्र में उनके सेनानायक राव जैता और कूँपाजी अपने मुट्ठी भर वीरों के साथ अद्धितीय साहस और अपने शौर्य से अविस्मरणीय अमर गाथा लिखने को तैयार थे।
वीर जैता और कूँपा ने रजपूती गौरव और मूल्यों की रक्षा के लिये, अपने ऊपर लगे कलंक को धोने के लिए युद्ध करने का निश्चय किया ।
४ जनवरी सन १५४४ की रात्रि को गिरी से, सुमेल के लिये रवाना हुये। उनके साथ लगभग ८६०० वीरों की सेना थी। दुर्भाग्य से बीच के पहाड़ी और जंगली क्षेत्र में अधिक अंधकार होने की वजह से वह रास्ता भटक गये । ५ जनवरी (पोष शुक्ला ११, वि.सं. १६००) को प्रातः लगभग ६ हज़ार घुड़सवार ही पठानपुरा के मोर्च पर पहुँच सके।
ये जानते हुए भी कि शेरशाह की विशाल सेना से भिड़ना मौत को दावत देने जैसा था। फिर भी इन रणबांकुरो के स्वाभिमान को यह क़तई गवारा नहीं था कि उनके रहते हुए विदेशी हमलावर उनकी मातृभूमि पर कदम रखे।
जब इन वीरों ने शेरशाह की मज़बूत छावनी सुमेल नदी के तटपर पहुँच कर अपनी पूर्ण शक्ति से आक्रमण किया तो शत्रू सेना में खलबली मच गई । जोधपुर ख्यात के अनुसार शेरशाह ने इन वीर घुड़सवारों का सामना करने के लिये हाथियों पर सवार दस्ता भेजा।
शेरशाह की सेना के उस दस्ते के पीछे तीरंदाज़ थे और और उनके पीछे तोपख़ाना दल को रखा गया था फिर भी रणभूमि में राजपूत योद्धाओं के शौर्य के आगे शेरशाह के सब प्रयास निष्फल रहे । हालांकि संख्याबल के लिहाज से शेरशाह के लिये यह बेहद आसान युद्ध था फिर भी राजपूत वीरों की इस टुकड़ी ने बड़ी वीरता के साथ मुक़ाबला किया और विजय लगभग निश्चित सी हो गई थी, जैता और कूंपा ने शेरशाह की सेना पर जोरदार प्रहार किया शेरशाह ८० हजार की सेना मुट्ठी भर राजपूत योद्धाओं के सामने पहले हमले में टिक नहीं सकी और ७ मील पीछे गयी इस हमले से शेरशाह घबरा कर बीच युद्ध मैदान में ही नवाज अदा करने लगा शेरशाह को लगने लगा की अब वह ये युद्ध नहीं जीत सकता लेकिन शेरशाह की किस्मत अच्छी थी उसी समय उसका सेनानायक जलालखां जुलानी अपनी सेना लेकर युद्ध मैदान में आ गया और युद्ध का माहौल ही बदल गया राजपूत शेरशाह की ८० हजार सेना से लड़ते हुवे थक गए थे और शेरशाह के पास ये एक नई सेना थी जिसकी मदद से शेरशाह ने राजपूत सेना को हरा दिया ।
जैता कुंपा समेत कई मारवाड़ के सरदार वीरगति को प्राप्त हुए पूरी राजपूती सेना युद्ध क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुई ,
गिरी सुमेल का युद्ध १५४४ ई. में लड़ा गया था। इस युद्ध को अगर मालदेव अपनी पूरी सेना के साथ लड़ते तो आज का इतिहास ही कुछ और होता परन्तु राव मालदेव ने अपने सरदारों पर विश्वास नहीं करके बहुत बड़ी भूल की थी जिसका खामियाजा मारवाड़ को भुगतना पड़ा। इस युद्ध के बाद शेरशाह ने कहा था की में एक मुठी बाजरे के खातिर दिल्ली की सल्तनत खो देता।
नमन है ऐसे रणबांकुरों को
राव जैता जी , राव कुंपा जी , अखैराज सोनीगरा और अनगिनत राजपूत कौम के बलिदान का साक्षी सुमेल गिरी की माटी को शत शत नमन
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