राजपूताना की सभी राजाओं ने स्वाभिमान व स्वतंत्रता को तिलांजलि दे सुख, वैभव व ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए मुगलों की दासता को स्वीकार कर लिया। वंश परंपरागत गौरव, स्वाधीनता व स्वतंत्रता के प्रति समर्पित प्रताप ही एक ऐसे शासक थे जिसने अपने व्यक्तिगत सुख व वैभव की चिंता किए बिना देश हित में कष्टमय जीवन निर्वाह करना अंगीकार किया। अकबर द्वारा दिए गए प्रलोभनों का प्रताप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इस तथ्य को प्रताप के समकालीन कवियों ने अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। जाड़ा महडू लिखता है कि -
.
.
हाथी बंध घणां, घणा हेमर बंध कसूं हजारी गरब करौ।
पातल राण हंसै त्यां, पुरसां भाडै़ महलां पेट भरौ।।
.
.
अकबर के मनसबदार सुख वैभव और ऐश्वर्य का घमंड करते हैं वह भूल जाते हैं कि यह सब उन्हें अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेने पर प्राप्त हुए हैं । लेकिन प्रताप को स्वतंत्रता व स्वाभिमान प्रिय है।
.
.
हाथी बंध घणां, घणा हेमर बंध कसूं हजारी गरब करौ।
पातल राण हंसै त्यां, पुरसां भाडै़ महलां पेट भरौ।।
.
.
अकबर के मनसबदार सुख वैभव और ऐश्वर्य का घमंड करते हैं वह भूल जाते हैं कि यह सब उन्हें अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेने पर प्राप्त हुए हैं । लेकिन प्रताप को स्वतंत्रता व स्वाभिमान प्रिय है।
हिंदूवा सूर्य, छत्तीस राजकुल रतन, स्वाभिमान के प्रतीक
वीरता और दृढ़ साहस ओर संकल्प के प्रतीक महान योद्धा वीर शिरोमणि
हिंद के गौरव,महा पराक्रमी वीर योद्धा ‘मेवाड़-मुकुट-मणि’
एकलिंगनाथ अवतार
"वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की ४८१वीं जयंती पर उनका संक्षिप्त जीवनकाल"
* ९ मई, १५४० ई. :- कुंभलगढ़ में जन्म
* १५५२ ई. :- कुंभलगढ़ से चित्तौड़गढ़ प्रस्थान
* १५५५ ई. :- १५ वर्ष की उम्र में जैताणा के युद्ध में करण सिंह को मारकर वागड़ की फ़ौज को परास्त किया
* १५५६ ई. :- छप्पन के इलाके को जीता
* गोडवाड़ पर विजय प्राप्त की
* १५५८ ई. :- बिजोलिया की राजकुमारी अजबदे बाई सा से विवाह
* १५६३ ई. :- भोमठ पर विजय
* अक्टूबर, १५६७ ई. :- कुंभलगढ़ पर हुसैन कुली खां के आक्रमण को विफल किया
* १५७२ ई. :- मेवाड़ के महाराणा बने व सिरोही पर कल्ला देवड़ा के ज़रिए अधिकार किया, कुछ समय बाद सिरोही राव सुरताण से मित्रता कर ली।
* १५७२ ई. :- महाराणा द्वारा मंदसौर के मुगल थानों पर हमले व विजय
* १५७३ ई. :- गुजरात से आगरा जाती हुई मुगल फौज पर हमला किया व खजाना लूट लिया
* १५७२ ई. से १५७३ ई. के बीच अकबर द्वारा भेजे गए 4 सन्धि प्रस्तावों को खारिज किया :-
१) जलाल खां
२) राजा मानसिंह
३) राजा भगवानदास
५) राजा टोडरमल
* १५७४ ई. :- चुंडावत जी के ज़रिए सिन्हा राठौड़ को परास्त कर सलूम्बर पर विजय
* १५७६ ई. :- हल्दीघाटी का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ, जो कि अनिर्णित रहा।
* २३ जून, १५७६ ई. :- राजा मानसिंह द्वारा गोगुन्दा पर हमला। यहां तैनात मात्र २० मेवाड़ी बहादुर काम आए।
* अगस्त, १५७६ ई. :- महाराणा प्रताप द्वारा अजमेर, गोडवाड़, उदयपुर की मुगल छावनियों पर आक्रमण
* सितम्बर, १५७६ ई. :- महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा पर आक्रमण किया व कईं मुगलों को मारकर गोगुन्दा पर अधिकार किया
* अक्टूबर, १५७६ ई. :- मुगल बादशाह अकबर का ८०,००० जंगी सवारों समेत मेवाड़ पर हमला
अकबर एक वर्ष तक मेवाड़ व उसके आसपास ही रहा व महाराणा प्रताप पर कईं हमले किए, पर हर बार नाकामयाबी मिली
* अकबर द्वारा कुतुबुद्दीन, राजा भगवानदास, राजा मानसिंह को गोगुन्दा पर हमला करने भेजना। छोटे-बड़े कई हमलों के बाद अंततः गोगुन्दा पर महाराणा की दोबारा विजय।
* महाराणा प्रताप के खौफ से हज यात्रियों के जुलूस की हिफाजत में अकबर द्वारा २ फौजें भेजी गईं
* महाराणा प्रताप ने दूदा हाडा को बूंदी जीतने में फ़ौजी मदद की
* १५७७ ई. :- महाराणा प्रताप द्वारा दिबल दुर्ग पर अधिकार
* २३ फरवरी, १५७७ ई. :- महाराणा प्रताप व राय नारायणदास राठौड़ ने मिलकर लड़ा ईडर का युद्ध
* १५७७ ई. :- ईडर के दूसरे युद्ध में मुगलों की रसद व खजाना लूट लिया
* मई-सितम्बर, १५७७ ई. :- महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा, उदयपुर में तैनात मुगल थाने उखाड़ फेंके
चढ़ चेतक पर तलवार उठा, रखता था भूतल पानी को,राणा प्रताप सिर काट काट करता था भेट भवानी को !!
* अक्टूबर, १५७७ ई. :- महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के सबसे बड़े मुगल थाने मोही पर आक्रमण किया। थानेदार मुजाहिद बेग कत्ल हुआ व मोही पर महाराणा का अधिकार हुआ।
* अक्टूबर, १५७७ ई. :- अकबर ने शाहबाज खां को फौज समेत मेवाड़ भेजा
* नवम्बर, १५७७ ई. :- महाराणा प्रताप द्वारा केलवाड़ा मुगल थाने पर आक्रमण, ४ मुगल हाथी लूटे गए
* १५७८ ई. :- कुम्भलगढ़ का युद्ध :- शाहबाज खां ने कुम्भलगढ़ पर अधिकार किया
महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ की पराजय के प्रतिशोध स्वरुप जालौर व सिरोंज के सभी मुगल थाने जलाकर खाक किये
* १५७८ ई. :- वागड़ की फौजों से हुए युद्ध में महाराणा प्रताप द्वारा भेजे गए रावत भाण सारंगदेवोत की विजय
* १५ दिसम्बर, १५७८ ई. :- शाहबाज खां का दूसरा असफल मेवाड़ अभियान
* १५७८ ई. :- भामाशाह को फौज देकर मालवा पर हमला करने भेजना
* १५ नवम्बर, १५७९ ई. :- शाहबाज खां का तीसरा असफल मेवाड़ अभियान
* १५८० ई. :- अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना का असफल मेवाड़ अभियान, महाराणा प्रताप ने कुँवर अमरसिंह द्वारा बंदी बनाई गई रहीम की बेगमों को मुक्त कर क्षात्र धर्म का पालन किया
* १५८० ई. :- मालवा में भामाशाह के भाई ताराचंद के ज़ख़्मी होने पर महाराणा प्रताप द्वारा मालवा से ताराचंद को सुरक्षित चावण्ड लाना व रास्ते में आने वाली मुगल चौकियों को तहस-नहस करना, साथ ही मंदसौर के सबसे बड़े मुगल थाने पर आक्रमण व विजय
* अक्टूबर, १५८२ ई. :- दिवेर का युद्ध :- महाराणा प्रताप द्वारा मुग़ल सेनापति सुल्तान खां की पराजय। कुँवर अमरसिंह द्वारा सुल्तान खां का वध।
दिवेर - राजसमन्द स्थित वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की दिवेर विजय (१५८२ ई.) का भव्य स्मारक
इस विजय का प्रभाव ऐसा रहा कि ३६ मुगल थानो से मुगलो को खदेड़ दिया गया इस विजय में प्रमुख भूमिका अमरसिंह व भामाशाह वे राणा पुंजा की भी रहे।
जेम्स टॉड ने इस युद्ध को मेवाड़ का मैराथन कहा है।
* १५८३ ई. :- महाराणा ने हमीरपाल झील पर तैनात मुगल छावनी हटाई
* १५८३ ई. :- कुम्भलगढ़ का दूसरा युद्ध :- महाराणा प्रताप ने मुगल सेनापति को मारकर दुर्ग पर अधिकार किया।
* १५८३ ई. :- महाराणा प्रताप द्वारा मांडल के थाने पर आक्रमण व विजय। मुगलों की तरफ से इस थाने के मुख्तार राव खंगार कछवाहा व नाथा कछवाहा मारे गए। राव खंगार की छतरी विद्यमान है, जिसपे इस लड़ाई में मरने वालों के नाम खुदे हैं।
* १५८३ ई. :- बांसवाड़ा में मानसिंह चौहान से युद्ध
* १५८४ ई. :- उदयपुर के राजमहलों में तैनात मुगलों पर महाराणा प्रताप का आक्रमण व विजय। अकबर द्वारा 1576 ई. में उदयपुर का नाम 'मुहम्मदाबाद' रखने पर महाराणा द्वारा फिर से नाम बदलकर उदयपुर रखना।
* १५८४ ई. :- अकबर ने जगन्नाथ कछवाहा को फौज समेत मेवाड़ भेजा, पर जगन्नाथ कछवाहा भी 2 वर्ष तक मेवाड़ में रहकर असफल होकर लौट गया
* १५८४ ई. :- अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना का दोबारा असफल मेवाड़ अभियान
* १५८५ ई. :- लूणा चावण्डिया को पराजित कर चावण्ड पर अधिकार व चावण्ड को राजधानी बनाना
* १५८६ ई. :- मेवाड़ में लूटमार करने वाले नवाब अली खां का दमन
* १५८६ ई. :- अकबर द्वारा १५६८ ई. में चित्तौड़गढ़ का नाम 'अकबराबाद' रखने के कारण महाराणा प्रताप द्वारा चित्तौड़ के एक शाही थाने पर हमला व विजय, गढ़ नहीं जीतने के बावजूद महाराणा ने नाम बदलकर पुनः चित्तौड़गढ़ रखा, क्योंकि मेवाड़ की जनता ने भी अकबराबाद नाम स्वीकार नहीं किया।
* १५८५ - ८७ ई. :- महाराणा प्रताप व कुँवर अमरसिंह द्वारा मोही, मदारिया समेत कुल ३६ मुगल थानों पर आक्रमण व विजय
* १५८८ ई. :- महाराणा प्रताप की जहांजपुर विजय
* १५८९ ई. महाराणा प्रताप द्वारा सूरत के शाही थानों पर आक्रमण व हाथी पर सवार सूरत के मुगल सूबेदार को भाले से कत्ल करना
* १५९१ ई. :- राजनगर के युद्ध में महाराणा की फौज द्वारा दलेल खां की पराजय
* १५९१ ई. :- दिलावर खां से कनेचण का युद्ध
* २९ जनवरी, १५९७ ई. :- वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का देह
पंचतत्व में विलीन
महाराणा प्रताप, न केवल हर मेवाड़ी बल्कि हर देशवासी के लिए गौरवशाली है। उनका नाम आते ही गर्व से सीना फूल उठता है और सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है। मगर विडम्बना देखिए कि ऐसी महान विभूति से जुड़े पावन स्थल बरसों से उपेक्षा का शिकार हैं। प्रताप की राजतिलक और निर्वाण स्थली देखकर वेदना के स्वर फूटने लाजिमी है। उदयपुर शहर, हल्दीघाटी में तो प्रताप से जुड़े स्मारकों की सार-संभाल खूब हो रही है, लेकिन गोगुन्दा व चावंड में नहीं। बातें खूब हुई और बजट भी खूब आया। इधर, सरकारी खानापूर्ति में बजट खपाया और उधर, जयंती के एक दिन समारोह करने के बाद आयोजकों ने भी इन स्थलों की सुध लेने की जहमत नहीं उठाई। इससे शर्मनाक बात क्या होगी कि जिन प्रताप का स्वाधीनता के लिए जीवनभर संघर्ष हर देशवासी के लिए अभिमान का विषय है, उन्हीं प्रताप के स्मारक स्थलों पर कतिपय लोग तोडफ़ोड़ कर दरवाजे तक चुरा ले गए।
प्रताप के गौरव को और आगे बढ़ाने के लिए राज्य सरकार ने मेवाड़ कॉम्पलेक्स योजना में प्रताप के राजतिलक स्थल को शामिल कर धन खर्च कर सूरत बदली लेकिन पीछे उसकी सार-संभाल नहीं हुई तो तस्वीर ही बदसूरत हो गई। नवविकसित पुरा क्षेत्र समाजकंटकों का अड्डा बन गया।
जानिए गोगुंदा के बारे में
उदयपुर से करीब 38 किलोमीटर दूर पिंडवाड़ा हाइवे पर गोगुंदा कस्बा स्थित है। अरावली की पहाडिय़ों में बसे गोगुंदा को महाराणा उदय सिंह ने चित्तौड़ के पश्चात मेवाड़ की राजधानी बनाया था। पर्यटन विभाग के अनुसार 1572 ई. में महाराणा उदयसिंह के निधन के बाद महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुंदा में होली के दिन किया गया। बताते है कि पहले गोगुन्दा रियासत थी, जिसका उल्लेख भी बड़ी रियासतों में किया गया।
तब ये सब किया था वहां
- पाथ-वे का निर्माण
- संग्रहालय
- एम्पीथियेटर
- रेस्टोरेंट का विस्तार
- बावड़ी का जीर्णोद्धार
अब है यहां के चिन्ताजनक हालात
उदयपुर से करीब 38 किलोमीटर दूर पिंडवाड़ा हाइवे पर गोगुंदा कस्बे में स्थित प्रताप के राजतिलक स्थल के विकास व संरक्षण के लिए मेवाड़ कॉम्पलेक्स योजना में वर्ष 2007 में 6,5 करोड़ रुपए स्वीकृत किए थे जिससे वहां की फिजा ही बदल गई, लेकिन सब भूल गए। धीरे-धीरे स्थल को समाजकंटकों ने अड्डा बना डाला। पत्रिका टीम ने गुरुवार को उस स्थल को बारीकी से देखा, जाना, समझा और वहां मौजूद लोगों से बातचीत की तो मन मसौस लिया कि सरकारी धन की बर्बादी के अलावा वहां कुछ नहीं हुआ। स्वयं पर्यटन विभाग मानता है कि जो कुछ वहां लगाया गया, वह सब तोड़ दिया गया और लोग ले भागे।
सब कुछ ऐसे बर्बाद किया
- राजतिलक स्थल पर एम्पीथियेटर में दर्शकों के बैठने के लिए बनाई गोलाकार सीढिय़ों का तोड़ दिया गया।
- पाथ-वे जगह-जगह से टूटा पड़ा है, उसके पत्थर उखड़े हुए हैं।
- बावड़ी का जीर्णोद्धार किया गया लेकिन बावड़ी की सीढिय़ां टूटी पड़ी हैं और उसमें पानी भी पूरा गंदा है।
- महाराणा प्रताप की प्रतिमा के नीचे और आगे-पीछे की तरफ लगाए गए फव्वारे और उनके पाइप तोड़ ले गए हैं।
- प्रताप की प्रतिमा का निचला हिस्सा भी पूरी तरह खोखली हो चुका है, उसके लोहे में जंग लग गया है।
- जिस मैदान में पार्क बनाना था, वहां जगह-जगह झाडिय़ां उग गई हैं, कचरा पड़ा हुआ है।
- मुख्य प्रवेश द्वार पर सुरक्षाकर्मी के कक्ष के खिड़़कियां व किवाड़ तोड़ ले गए।
- प्रवेश द्वार के बाहर प्रताप के राजतिलक स्थल लिखा बोर्ड भी अपना स्वरूप खो चुका है।
- संग्रहालय के बाहर जनसुविधा स्थल से समाजकंटक नल की टोंटिया, डब्ल्यूसी, किवाड़ आदि खोल ले गए।
महाराणा प्रताप ने कितना कुछ सहा, क्या कुछ झेला.... इसकी कल्पना हम और आप जैसे साधारण लोगों के बस की बात नहीं। हम बस उनसे प्रेणा ले सकते है।
वे घटनायें, जिनमें महाराणा प्रताप के नाम ने प्रेरणा का काम किया :-
"महाराजा मानसिंह द्वारा महाराणा का उदाहरण देना"
एक समय जोधपुर में अंग्रेज सरकार के खिलाफ बहुत उपद्रव होने लगे, तो अंग्रेजों की एक पलटन जोधपुर भेजी गई
जोधपुर महाराजा मानसिंह ने अपने सर्दारों से सलाह की, तो सर्दारों ने अंग्रेजी फौज को प्रबल बताया
कुचामन ठाकुर ने कहा "प्रबल हुकूमत से बगावत करना ठीक नहीं होगा महाराज साहब | मेवाड़ के महाराणा प्रताप लड़े थे बादशाह से, तो पैर-पैर पर्वतों में फिरे थे"
तब महाराजा मानसिंह ने कुचामन ठाकुर के कथन के विरोध में ये दोहा फर्माया :-
"गिरपुर देस गमाड़,
भमिया पग-पग भाखरां |
सह अँजसै मेवाड़,
सह अँजसै सिसोदिया ||"
अर्थात्
अपने पर्वत, नगर और देश गमाकर पैदल ही पर्वतों में घूमते रहे, पर महाराणा ने अपने धर्म की रक्षा की, जिससे आज मेवाड़ का देश गर्व करता है व सिसोदिया जाति घमंड करती है |
"बाजीराव पेशवा का मेवाड़ आगमन"
आधे हिन्दुस्तान पर मराठाओं का ध्वज फहराने वाले बाजीराव पेशवा का जब मेवाड़ आगमन हुआ, तब महाराणा जगतसिंह (महाराणा प्रताप के प्रपौत्र) ने बाजीराव को अपने साथ सिंहासन पर बैठने के लिए आमंत्रित किया
तब बाजीराव पेशवा ने ये कहते हुए मना कर दिया कि "ये सिंहासन महाराणा प्रताप जैसे योद्धाओं की धरोहर है, यहाँ हम नहीं बैठ सकते हैं"
"महाराणा फतेहसिंह द्वारा दिल्ली दरबार में न जाना"
१९०३ ई. में लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में सभी राजाओं के साथ मेवाड़ के महाराणा का जाना राजस्थान के जागीरदार क्रान्तिकारियों को अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए उन्हें रोकने के लिए शेखावाटी के मलसीसर के ठाकुर भूरसिंह ने ठाकुर करण सिंह जोबनेर व राव गोपाल सिह खरवा के साथ मिलकर महाराणा फतेहसिंह को दिल्ली जाने से रोकने की जिम्मेदारी क्रांतिकारी कवि केसरी सिंह बारहठ को दी | केसरी सिंह बारहठ ने "चेतावनी रा चुंग्ट्या" नामक सौरठे रचे जिन्हें पढकर महाराणा अत्यधिक प्रभावित हुए और दिल्ली दरबार में न जाने का निश्चय किया | वे दिल्ली आने के बावजूद समारोह में शामिल नहीं हुए |
इस रचना में केसरी सिंह बारहठ ने बार-बार महाराणा प्रताप का जिक्र किया व महाराणा फतेहसिंह के सोये हुए स्वाभिमान को जगाया |
"कर्नाटक में एकीकरण"
कर्नाटक के नेता कर्नाटक कुल पुरोहित आलूर वेंकटराव ने कर्नाटक के एकीकरण की लड़ाई में महाराणा प्रताप के आदर्श को अपनाया | इस बात को उन्होंने अपने वक्तव्यों व लेखों में प्रकट किया व लोगों में स्वतंत्रता की भावना जगाई |
"केसरी सिंह बारहठ द्वारा पुत्र का नामकरण"
मेवाड़ के क्रान्तिकारी केसरी सिंह बारहठ महाराणा प्रताप के विचारों व स्वाभिमान से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने पुत्र का नाम 'प्रताप सिंह बारहठ' रख दिया |
"प्रताप पत्रिका का प्रकाशन"
अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी महाराणा प्रताप के परम भक्त थे | उन्होंने अपने राष्ट्रीय पत्र 'प्रताप' का नाम भी महाराणा प्रताप की पुण्य स्मृति में ही रखा |
भारत माता के सपूत और अपनी वीरता, पराक्रम और प्रजा कल्याण के लिए देश-विदेश में प्रख्यात, राष्ट्र-नायक महाराणा प्रताप जी का पूरा जीवन त्याग एवं बलिदान की पराकाष्ठा है।
फौलाद थे उनके इरादे
डिगा न सका कोई भी संताप,
जन्म जयंति पर शत्-शत् नमन
⚔️🕉️⚔️है वीर श्रीओमणी महाराणा प्रताप महान⚔️🕉️⚔️
His personality emerges as a unique warrior and as first freedom fighter; he has become a symbol of struggle, renunciation, sacrifice, generosity and perseverance. He was a brave and capable successor. Royal who lived most of life in the Wilderness of foothills.
Partap succeeded to the titles and renown of an illustrious house, but without a capital, without resources, his kindred and clans dispirited by reverses: yet possessed of the noble spirit of his race, he meditated the recovery of Chitor, the vindication of the honour of his house, and the restoration of its power.
Elevated with this design, he hurried into conflict with his powerful antagonist, nor stooped to calculate the means which were opposed to him. Accustomed to read in his country’s annals the splendid deeds of his forefathers, and that Chitor had more than once been the prison of their foes, he trusted that the revolutions of fortune might co-operate with his own efforts to overturn the unstable throne of Delhi. The reasoning was as just as it was noble; but whilst he gave loose to those lofty aspirations which meditated liberty to Mewar, his crafty opponent was counteracting his views by a scheme of policy which, when disclosed, filled his heart with anguish. The wily Mogul arrayed against Partap his kindred in faith as well as blood. The princes of Marwar, Amber, Bikaner, and even Bundi, late his firm ally, took part with Akbar and upheld despotism. Nay, even his own brother, Sagarji, deserted him, and received, as the price of his treachery, the ancient capital of his race, and the title which that possession conferred.
He had the question before himself when he became the ruler of Mewar, to either "accept the mandate of the Mughal Empire in the future or adopt a path of struggle, Pratap adopted the path of resistance. In rejecting the Mughal authority by Akbar, Akbar sent ambassadors with the proposals of the treaty, but he remained firm on his pre-fulfillment. Therefore, on 18th June 1576 in Haldighati (Khamanor), the battle with the Mughal army started.
This battle resulted in high casualties at both ends. Akbar's intention for the battle of 1576 was to completely destroy Pratap and his pride. On the other end, Akbar reached Ajmer to find a dejected army and missing Mughal supremacy. This made him furious and he closed his doors on Man Singh and Asaf Khan. This was the moral and strategic victory of Maharana Pratap.
In 1582 CE, Pratap attacked a Mughal outpost in village Dewair situated about 40 km northeast of Kumbhalgarh. After the success of Dewair battle, He took control of Kumbhalgarh and Zawar. Amar Singh and all the nobles of Mewar pledged before Maharana Pratap that they will never surrender to the Mughal forces. On 30 January 1597, with this satisfaction in his heart, Pratap took his last breath. His cremation took place on the bank of a river near village Badoli situated about 2 km. from Chawand.
"Remembering the Greatest Warrior Maharana Pratap on his 481st Birth Anniversary.
He symbolises the glorious saga of #Rajput valour and the spirit of self sacrifice!! 🌞⚔️
* May 9, 1540 AD: - Born in Kumbhalgarh
* 1552 AD: - Departure from Kumbhalgarh to Chittorgarh.
* 1555 AD: - At the age of 15, after defeating Karan Singh in the battle of Jaitana, he defeated the army of Vagad.
* 1556 AD: - Won the area of Chappan
* Conquered Godwad
* 1557 AD: - Married to Ajabde Bai Sa, Princess of Bijolia.
* 1563 AD: - Victory over Bhomath
* October, 1567 AD: - Hussain Quli Khan's invasion of Kumbhalgarh thwarted
* 1572 AD: - Became Maharana of Mewar and took control over Sirohi through Kalla Deora, Sirohi Rao befriended Surtana after some time.
* 1572 AD: - Maharana attacked and conquered the Mughal police stations of Mandsaur.
* 1573 AD: - The Mughal army going from Gujarat to Agra attacked and looted the treasure.
* Rejected 4 treaty proposals sent by Akbar between 1572 AD and 1573 AD: -
1) Jalal Khan
2) Raja Mansingh
3) King Bhagwandas
4) Raja Todarmal
* 1574 AD: - Through Chundavat ji, defeating Sinha Rathore and conquering Salumbar
* 1576 AD: - The world famous war of Haldighati took place, which remained inconclusive.
* 23 June, 1576 AD: - Attack on Gogunda by King Mansingh. Only 20 Mewari Bahadur deployed here came in handy.
* August 1576 AD: - Maharana Pratap invaded the Mughal cantonments of Ajmer, Godwad, Udaipur.
* September, 1576 AD: - Maharana Pratap attacked Gogunda and killed Gogunda by killing many Mughals.
* October 1576 AD: - Mughal emperor Akbar attacked Mewar with 80,000 war riders.
Akbar remained in and around Mewar for a year and made many attacks on Maharana Pratap, but every time he failed.
* To send Qutubuddin, King Bhagwan Das, King Mansingh to attack Gogunda by Akbar. After several attacks, small and big, the Maharana again conquered Gogunda.
* 2 forces were sent by Akbar to protect the procession of Haj pilgrims from the awe of Maharana Pratap.
* Maharana Pratap helped Duda Hada to win Bundi.
* 1577 AD: - Empress of Dibal fort by Maharana Pratap
* 23 February, 1577 AD: - Maharana Pratap and Rai Narayan Das Rathore fought the war of idar
* 1577 AD: - In the second war of idar, the logistics and treasure of the Mughals were looted.
* May-September, 1577 AD: - Maharana Pratap overthrew the Mughal police station at Gogunda, Udaipur.
* October, 1577 AD: - Maharana Pratap attacked Mohi, the largest Mughal police station in Mewar. Sho Mujahid Beg was killed and Mohana was empowered over Mohi.
* October 1577 AD: - Akbar sent Shahbaz Khan along with the army to Mewar.
* November 1577 AD: - Maharana Pratap attacked Kelwara Mughal police station, 4 Mughal elephants looted
* 1578 AD: - Battle of Kumbhalgarh: - Shahbaz Khan took over Kumbhalgarh.
Maharana Pratap, in retaliation for the defeat of Kumbhalgarh, burnt all the Mughal police stations of Jalore and Sironj.
* 1578 AD: - The victory of Rawat Bhan Sarangadevot sent by Maharana Pratap in the battle of the forces of Vagad
* December 15, 1578 AD: - Shahbaz Khan's second unsuccessful Mewar campaign
* 1578 AD: - Sending Bhamashah to army and attacking Malwa
* November 15, 1579 AD: - Shahbaz Khan's third unsuccessful Mewar campaign
* 1580 AD: - Abdurrahim Khan-e-Khana's unsuccessful Mewar campaign, Maharana Pratap practiced Kshatra Dharma by liberating the Begums of Rahim imprisoned by Kunwar Amarsingh
* 1580 AD: - In the wake of the death of Bhamashah's brother Tarachand in Malwa, Maharana Pratap brought Tarachand from Malwa to safe moon and destroyed the Mughal outposts en route, along with the invasion of Mandsaur's largest Mughal station and victory
* October, 1582 AD: - Battle of Diwar: - The defeat of the Mughal commander Sultan Khan by Maharana Pratap. Slaughter of Sultan Khan by Kunwar Amarsingh.
* 1583 AD: - Maharana removed the Mughal camp stationed on Lake Hamirpal
* 1583 AD: - Second Battle of Kumbhalgarh: - Maharana Pratap killed the Mughal commander and took control of the fort.
* 1583 AD: - Maharana Pratap attacked and conquered the police station of Mandal. Mukhtar Rao Khangar Kachhwaha and Natha Kachhwaha of this police station were killed on behalf of the Mughals. There is an umbrella of Rao Khangar, on which the names of those who died in this battle are inscribed.
* 1583 AD: - Battle of Mansingh Chauhan at Banswara
* 1584 AD: - Maharana Pratap's invasion and victory over the Mughals posted in the palaces of Udaipur. Maharana renamed Udaipur after Akbar renamed Udaipur as 'Muhammadabad' in 1576 AD.
* 1584 AD: - Akbar sent Jagannath Kachhwaha along with the army to Mewar, but Jagannath Kachhwaha also failed after returning to Mewar for 2 years.
* 1584 AD: - Abdurrahim Khan-e-Khana's failed Mewar campaign again
* 1585 AD: - After defeating Luna Chawandia, the authority over Chawand and making Chawand the capital
* 1586 AD: - Suppression of Nawab Ali Khan who plundered Mewar.
* 1586 AD: - Maharana Pratap renamed Chittorgarh again in 1568 AD, despite Maharana Pratap attacking and conquering a royal police station in Chittor due to the name of Chittorgarh as 'Akbarabad' in 1568 AD, because of Mewar. The public also did not accept the name Akbarabad.
* 1585 - 87 AD: - The invasion and conquest of 36 Mughal police stations including Mohi, Madariya by Maharana Pratap and Kunwar Amarsingh.
* 1588 AD: - Jahanpur victory of Maharana Pratap.
* 1589 AD. Maharana Pratap attacked the royal Thanas of Surat and killed the Mughal Subedar of Surat with a spear.
* 1591 AD: - Dalel Khan's defeat by the army of Maharana in the battle of Rajnagar.
* 1591 AD: - The war of connection with Dilawar Khan
* January 29, 1597 AD: - Veer Shiromani Maharana Pratap's demise due to injuries sustained in a hunting accident,at Chavand on 19 January 1597,aged 56.He was succeeded by his eldest son, Amar Singh I.
On his death bed, Pratap told his son never to submit to the Mughals and to win
Chittor back.
Shat shat Naman to Maharana Pratap The Greatest on His Jayanti!!
Maharana Pratap Ji life, filled full of exemplary valor, Stoicness in face of crushing circumstances and unparalleled struggle for Hindu independence will guide and inspire the future generations of hindus forever and ever as like portraying the values of moralities and braverism. He's epitomise always flown as saffronism rehabilitation with his devotees.
Untamed, Unconquered, Forever Independent
The resistance offered by Maharana Pratap is incomparable and will continue to inspire generations as it did in past for example Maharana Raj Singh and his son Maharana Jagat Singh's defiance of Aurangzeb. One can say that Man Singh and others did not had the benefit of terrain and proximity which Mewar had but to say that Man Singh contributed to Hindu cause more than Pratap is ludicrous to say the least.
Had there not been a Pratap there would have been no Raj Singh who protected Lord Shrinathji, when no Hindu ruler had the courage to defy Aurangzeb. Maharana Raj Singh by constantly challenging the Mughal authority either by refusing to impose Jizya or by giving shelter to Durgadas Rathore or by leading the rebellion against Aurangzeb which drew him into an endless campaign proved why Pratap's sacrifice was important.
_/\_ Let's celebrate the Birth Anniversary of The Greatest Warrior and Bravest Son of Maa Bharatee Maharana Pratap Ji _/\_
Post author credits: - Tanveer Singh Sarangadevot Banna (Laxmanpura-Mewar)
No comments:
Post a Comment