Friday, April 2, 2021

1857 REVOLT FORGOTTEN PATRIOTIC KING DARIYAV CHANDRA GAUR DURING SIEGE OF WHEELER - IMMORTAL RAJPUTS




1857 के स्वाधीनता संग्राम में राजा दरियाव चंद्र ने अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए थे। रसूलाबाद तहसील का खजाना लूटने के बाद उन्होंने कई दिन तक अंग्रेजों से संघर्ष किया। बाद में बौखलाई अंग्रेजी हुकूमत ने तहसील परिसर में खड़े नीम के पेड़ से लटका कर उन्हें फांसी दे दी।

भवनपुर का किला आज भी उनके पराक्रम की गवाही दे रहा है। हालांकि अब किला खंडहर का रूप ले चुका है।

राजा दरियाव चंद्र सकर्सी महल के राजा सूर्य चंद्र के छोटे पुत्र थे। बड़े भाई लायक चंद्र के आकस्मिक देहावसान के बाद उन्होंने गद्दी संभाली और नार खुर्द को अपनी राजधानी बनाया। इसी के समीप भवनपुर में एक और महल का निर्माण कराया गया। 1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हुई तो राजा दरियाव चंद्र ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तथा बिठूर के नाना साहब के संपर्क में रहकर अंग्रेजों से मुकाबले की योजना बनाई। उसी दौरान उन्होंने रसूलाबाद तहसील के खजाने को लूटा। इसका फाटक और खजाने का दरवाजा स्मृति के बतौर आज भी किले में मौजूद है। इस घटना के बाद बौखलाए अंग्रेजी शासन ने उन्हें बागी घोषित करते हुए जिदा या मुर्दा पकड़ने के आदेश दिए। कुछ दिन बाद पकड़े जाने पर उन्हें तहसील परिसर में खड़े नीम के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गई और उनकी रियासत जब्त कर ली गई। 

गौङ राजपूत राजा दरियावचंद्र ने अपनी बहादुरी से पूरी अंग्रेजी फौज को गंगापार खदेड दिया। दहशतजदा अंग्रेज बौखला गये और घात लगाकर राजा को पकडकर फांसी पर लटका दिया।

कानपुर देहात -आज आज़ादी का दिन है, लोग जश्नों में डूबे हैं। हर तरफ खुशियों का माहौल है।स्कूलों, सरकारी दफ्तरों व निजी संस्थानों में लोग हर्षोउल्लास कर मिष्ठान वितरण कर रहे हैं लेकिन उस ग़दर में शहादत को सुपर्द हुए उन वीर सपूतों की पीढ़ी गुजरने के बाद आज भी उनके घरों में सिसकारियां निकल जाती हैं। आज भी उन दरकती गुम्बदों व जर्जर ऊंची दीवारों को देख उनकी आंखों के सामने वह मंजर गुजर जाता है। शायद उन्होंने इस आज़ादी के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था। फिर चाहे वो रियासत हो या कई जिंदगियां। ऐसी ही एक रियासत गौर राजा दरियावचंद्र की थी। जनपद के उत्तरी छोर पर नार कहिंजरी में स्थित वह ध्वस्त किला और उसकी चाहरदीवारी को छूती रिन्द नदी की लहरें आज भी उस बर्बरता की दास्तां कह जाती हैं।


राजा ने अंग्रेजों को गंगा पार खदेड़ दिया

ररसूलाबाद क्षेत्र में रिन्द नदी किनारे तक्षशिला के राजा नार ऋषिदेव ने इस किले का निर्माण कराया था। इसके बाद यहां नार कालिंजर नगर बसाया था। जिसे आज लोग नार कहिंजरी के नाम से जानते हैं। इस किले में गौर राजा अपनी रियासत के लोगों की समस्याओं का निराकरण करते थे। 1857 का दौर आया और जंग-ए-आज़ादी का ऐलान हो गया। रणबांकुरे घरों से निकलकर अंग्रेजों से मुकाबले में डट गए। दरियावचंद्र गौर वंशी थे, उन्होंने भी आज़ादी की जंग में शंखनाद कर दिया। इधर अंग्रेजी सेना उनकी रियासत को लूटने की फिराक में थी। राजा ने अपने इसी किले में बैठकर अंग्रेजों से लोहा लेने की रणनीति बनाई। फिर उन्होंने अपनी सेना के साथ बहादुरी के साथ अंग्रेजी फौज को गंगा पार तक खदेड़ दिया था। इसके बाद उन्होंने तहसील का सरकारी खजाना लूट लिया था।


राजा के कौशल को देख अंग्रेज भयभीत हुए

गौङ राजा दरियाव चंद्र के इस हमले के बाद अंग्रेजी अफसर दहशत में आ गए और अपनी हार को देख बुरी तरह बौखला गए। अब अंग्रेज अफसरों के लिए राजा एक निशाना बने हुए थे। अफसरों ने नए तरीके से रणनीति तैयार की और फिर घात लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद उन्हें ले जाकर रसूलाबाद के धर्मगढ़ परिसर में खड़े नीम के पेड़ से लटका कर फांसी पर लटका दिया। जिसके बाद अंग्रेजी फौज ने उनके किले पर हमला बोला दिया। किले की ऊंची व मोटी दीवारें ढहाने में सेना लगी रही लेकिन पूरी तरह किले को ध्वस्त नहीं कर सके। धीरे धीरे समय गुजरता गया और उनकी रियासत जमींदार पहलवान सिंह को सौंप दी गयी।



शहीद हुए थे सैंकड़ों क्रांतिकारी

राजा की गिरफ्तारी के लिए षणयंत्र बनाने के बाद अंग्रेजी सेना जब राजा की गिरफ्तारी के लिए पहुंची तो भयावह जंग छिड़ गई, जमकर युद्ध हुआ। जेहन में आज़ादी का जुनून पाले आक्रोशित क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेना को लगभग परास्त कर ही दिया था कि तभी धोखेबाज गोरों ने अपनी फितरती चाल से राजा को गिरफ्तार कर लिया गया। लंबी चले इस रण में बड़ी तादाद में देश के वीर सपूत शहीद हुए थे। आज उन दरकते पत्थरों में जंग की वो इबारत लिखी हुई है।

जिस स्थान पर उन्हें फांसी दी गई उसी के समीप आज धर्मगढ़ बाबा मंदिर है। हालांकि भवनपुर किला के अब खंडहर ही अवशेष रह गए हैं। राजा दरियाव चंद्र को फांसी देने के बाद रसूलाबाद तहसील समाप्त करके उसका कुछ हिस्सा बिल्हौर और शेष डेरापुर से जोड़ दिया गया। बाद में रसूलाबाद तहसील बनाने की मांग के लिए भवनपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विद्याधर ने की और उन्होंने एकला चलो..सन 57 की याद हो.. तहसील रसूलाबाद हो का नारा दिया।




Revolution  knocked  the  doors of  Kanpur  also.  In  the mid  night  of  4th June Revolt  began  with  firing.  Next day,  platoon  no.  1  of  Indian  troops  rose in  revolt  but  they  did  not  harm  any English officer.  They  proceeded towards  Nawabganj   and plundered treasury  and  court  gate  of  the  jail  was opened with  the  help  of  two  more platoons  that  rose  in revolt  later.  Nana Saheb  was  declared the  King and Subedar  Tikka Singh  was  deputed with Leadership  of  platoon  no.  53.  The  flag  of  freedom  was  put  on an  elephant  and  a procession  was  taken out.  It  was  declared that  the reign of Nana  Saheb  had  begun.   On  6th June,  Nana  Saheb attacked  the  fort  of  English and three days  later,  platoon  no.  48 staying at Chaubepur  also  revolted.  All  English officers  were  killed  except  one  named Bolton  who  succeeded  in  fleeing away. On  the  same  day,  from  Fatehgarh,  60 to  70  English  men,  women and children  reached to  Nawabganj  by  a boat,  through  the course  of  Ganges.  All were  killed.  Fort  was  under the  siege and ration  was  gradually  exhausted. 4th  and 5th platoons  of  Awadh  Local Infantry  also  joined the  forces  of  Nana Saheb.  Eventually,  English  surrendered and accepted the  terms  of  Nana.

Among  the  main  subordinates of  Nana  Saheb,  who  assisted  him,  were Azimullah,  Baba  Rao,  Jwala Prasad and Tikka Singh  etc.  

Apart  from  them a number  of  reputed  people  of  Kanpur also  supported him of which one is King  of  Nar- Dariyav  Chand, This fort was built by Nar Rishidev, the king of Taxila, on the banks of the Rind River in Rarsulabad region. After this, Nar Kalinjar city was established here. Which today people know by the name of Nar Kahinjari. In this fort, the Gaur kings used to solve the problems of the people of their princely state. The era of 1857 came and Jung-e-Azadi was announced. Ranbankure got out of the house and fought against the British. Dariyavachandra was a Gaur vanshi Rajkul, He with other also  participated  in  siege of Wheeler.  Besides  them,  Zamindars  and Powerful  people  of  Bithur,  Jajmau, Shivrajpur,  Narval  and Rasulabad openly   participated  in  revolt.   Here the British army was in the process of looting their princely state. The king made a strategy to sit in his fort to take on the British. Then, with his army, he had bravely repulsed the English army across the Ganges. After this, he taken hold of the treasury of the tehsil.


The British were frightened to see the skill of the king

After this attack by Gaur king Dariyav Chandra, the English officers were in panic and were horrified to see their defeat. But  this victory  could  not last  for  long.  On  17th July,  Kanpur  once  again slipped into the  hands  of  English  forces.   Now the king was a target for the British officers. The officers devised strategies in a new way and then ambushed them and arrested them. After this, he was taken and hanged from the Neem tree standing in Dharamgarh campus of Rasulabad. After which the British army attacked their fort. The army continued to collapse the high and thick walls of the fort but could not completely destroy the fort. Time passed slowly and his princely state was handed over to the landowner Pahalwan Singh.

Hundreds of revolutionaries were martyred

After making a conspiracy to arrest the king, when the English army arrived for the arrest of the king, a terrible war broke out, fiercely war broke out. The British army was almost defeated by the raging revolutionaries, who were obsessed with freedom in mind, when the king was arrested by the deceitful whites by his deceitful tricks. In this long run, a large number of brave sons of the country were martyred. 


Today the writing of war in those cracking stones is written, Presently the head of Gaur's of this estate is
Kunwar Rishi Pratap Singh Gaur 

As for Nana Saheb after this setback fled  away  and  took  shelter  in Bithur  to  organise  his  forces  again.  On 16th  August,  General  Havelock attacked Nana  Saheb.  A  fierce battle took  place  between revolutionaries  and English  forces  which  resulted  in  a  lot of  causalties.  Finally,  English  emerged victorious  and  General  Stephenson occupied  Bithoor  with  the  help  of  Sikh and English  force.  General  burnt  the palace  of  Nana  Saheb and  plundered its  treasure. November  10th,  Tatya Tope,  an able  army  chief  of  Nana closed Yamuna  river  to  attack  English  forces at  Kanpur  and occupied Bhognipur, Shivla,  Akbarpur,  Shivrajpur  and  half of  the  Kanpur.  In  the  month of December,  Kanpur  once  again  fell into the  hands  of  English and  revolt  came to  an  end.  British  confiscated the property  of  those who  supported  for the  cause  of  Nana  Saheb.

An example from Kanpur district


British noticed, post 1857 nothing was more striking in the general history of the district than the disappearance of the old estates of the Rajputs, whose Rajas, Rawats and Raos had either disappeared or had been reduced to the greatest straits.

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