1857 के स्वाधीनता संग्राम में राजा दरियाव चंद्र ने अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए थे। रसूलाबाद तहसील का खजाना लूटने के बाद उन्होंने कई दिन तक अंग्रेजों से संघर्ष किया। बाद में बौखलाई अंग्रेजी हुकूमत ने तहसील परिसर में खड़े नीम के पेड़ से लटका कर उन्हें फांसी दे दी।
भवनपुर का किला आज भी उनके पराक्रम की गवाही दे रहा है। हालांकि अब किला खंडहर का रूप ले चुका है।
राजा दरियाव चंद्र सकर्सी महल के राजा सूर्य चंद्र के छोटे पुत्र थे। बड़े भाई लायक चंद्र के आकस्मिक देहावसान के बाद उन्होंने गद्दी संभाली और नार खुर्द को अपनी राजधानी बनाया। इसी के समीप भवनपुर में एक और महल का निर्माण कराया गया। 1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हुई तो राजा दरियाव चंद्र ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तथा बिठूर के नाना साहब के संपर्क में रहकर अंग्रेजों से मुकाबले की योजना बनाई। उसी दौरान उन्होंने रसूलाबाद तहसील के खजाने को लूटा। इसका फाटक और खजाने का दरवाजा स्मृति के बतौर आज भी किले में मौजूद है। इस घटना के बाद बौखलाए अंग्रेजी शासन ने उन्हें बागी घोषित करते हुए जिदा या मुर्दा पकड़ने के आदेश दिए। कुछ दिन बाद पकड़े जाने पर उन्हें तहसील परिसर में खड़े नीम के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गई और उनकी रियासत जब्त कर ली गई।
गौङ राजपूत राजा दरियावचंद्र ने अपनी बहादुरी से पूरी अंग्रेजी फौज को गंगापार खदेड दिया। दहशतजदा अंग्रेज बौखला गये और घात लगाकर राजा को पकडकर फांसी पर लटका दिया।
कानपुर देहात -आज आज़ादी का दिन है, लोग जश्नों में डूबे हैं। हर तरफ खुशियों का माहौल है।स्कूलों, सरकारी दफ्तरों व निजी संस्थानों में लोग हर्षोउल्लास कर मिष्ठान वितरण कर रहे हैं लेकिन उस ग़दर में शहादत को सुपर्द हुए उन वीर सपूतों की पीढ़ी गुजरने के बाद आज भी उनके घरों में सिसकारियां निकल जाती हैं। आज भी उन दरकती गुम्बदों व जर्जर ऊंची दीवारों को देख उनकी आंखों के सामने वह मंजर गुजर जाता है। शायद उन्होंने इस आज़ादी के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था। फिर चाहे वो रियासत हो या कई जिंदगियां। ऐसी ही एक रियासत गौर राजा दरियावचंद्र की थी। जनपद के उत्तरी छोर पर नार कहिंजरी में स्थित वह ध्वस्त किला और उसकी चाहरदीवारी को छूती रिन्द नदी की लहरें आज भी उस बर्बरता की दास्तां कह जाती हैं।
राजा ने अंग्रेजों को गंगा पार खदेड़ दिया
ररसूलाबाद क्षेत्र में रिन्द नदी किनारे तक्षशिला के राजा नार ऋषिदेव ने इस किले का निर्माण कराया था। इसके बाद यहां नार कालिंजर नगर बसाया था। जिसे आज लोग नार कहिंजरी के नाम से जानते हैं। इस किले में गौर राजा अपनी रियासत के लोगों की समस्याओं का निराकरण करते थे। 1857 का दौर आया और जंग-ए-आज़ादी का ऐलान हो गया। रणबांकुरे घरों से निकलकर अंग्रेजों से मुकाबले में डट गए। दरियावचंद्र गौर वंशी थे, उन्होंने भी आज़ादी की जंग में शंखनाद कर दिया। इधर अंग्रेजी सेना उनकी रियासत को लूटने की फिराक में थी। राजा ने अपने इसी किले में बैठकर अंग्रेजों से लोहा लेने की रणनीति बनाई। फिर उन्होंने अपनी सेना के साथ बहादुरी के साथ अंग्रेजी फौज को गंगा पार तक खदेड़ दिया था। इसके बाद उन्होंने तहसील का सरकारी खजाना लूट लिया था।
राजा के कौशल को देख अंग्रेज भयभीत हुए
गौङ राजा दरियाव चंद्र के इस हमले के बाद अंग्रेजी अफसर दहशत में आ गए और अपनी हार को देख बुरी तरह बौखला गए। अब अंग्रेज अफसरों के लिए राजा एक निशाना बने हुए थे। अफसरों ने नए तरीके से रणनीति तैयार की और फिर घात लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद उन्हें ले जाकर रसूलाबाद के धर्मगढ़ परिसर में खड़े नीम के पेड़ से लटका कर फांसी पर लटका दिया। जिसके बाद अंग्रेजी फौज ने उनके किले पर हमला बोला दिया। किले की ऊंची व मोटी दीवारें ढहाने में सेना लगी रही लेकिन पूरी तरह किले को ध्वस्त नहीं कर सके। धीरे धीरे समय गुजरता गया और उनकी रियासत जमींदार पहलवान सिंह को सौंप दी गयी।
शहीद हुए थे सैंकड़ों क्रांतिकारी
राजा की गिरफ्तारी के लिए षणयंत्र बनाने के बाद अंग्रेजी सेना जब राजा की गिरफ्तारी के लिए पहुंची तो भयावह जंग छिड़ गई, जमकर युद्ध हुआ। जेहन में आज़ादी का जुनून पाले आक्रोशित क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेना को लगभग परास्त कर ही दिया था कि तभी धोखेबाज गोरों ने अपनी फितरती चाल से राजा को गिरफ्तार कर लिया गया। लंबी चले इस रण में बड़ी तादाद में देश के वीर सपूत शहीद हुए थे। आज उन दरकते पत्थरों में जंग की वो इबारत लिखी हुई है।
जिस स्थान पर उन्हें फांसी दी गई उसी के समीप आज धर्मगढ़ बाबा मंदिर है। हालांकि भवनपुर किला के अब खंडहर ही अवशेष रह गए हैं। राजा दरियाव चंद्र को फांसी देने के बाद रसूलाबाद तहसील समाप्त करके उसका कुछ हिस्सा बिल्हौर और शेष डेरापुर से जोड़ दिया गया। बाद में रसूलाबाद तहसील बनाने की मांग के लिए भवनपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विद्याधर ने की और उन्होंने एकला चलो..सन 57 की याद हो.. तहसील रसूलाबाद हो का नारा दिया।
Revolution knocked the doors of Kanpur also. In the mid night of 4th June Revolt began with firing. Next day, platoon no. 1 of Indian troops rose in revolt but they did not harm any English officer. They proceeded towards Nawabganj and plundered treasury and court gate of the jail was opened with the help of two more platoons that rose in revolt later. Nana Saheb was declared the King and Subedar Tikka Singh was deputed with Leadership of platoon no. 53. The flag of freedom was put on an elephant and a procession was taken out. It was declared that the reign of Nana Saheb had begun. On 6th June, Nana Saheb attacked the fort of English and three days later, platoon no. 48 staying at Chaubepur also revolted. All English officers were killed except one named Bolton who succeeded in fleeing away. On the same day, from Fatehgarh, 60 to 70 English men, women and children reached to Nawabganj by a boat, through the course of Ganges. All were killed. Fort was under the siege and ration was gradually exhausted. 4th and 5th platoons of Awadh Local Infantry also joined the forces of Nana Saheb. Eventually, English surrendered and accepted the terms of Nana.
Among the main subordinates of Nana Saheb, who assisted him, were Azimullah, Baba Rao, Jwala Prasad and Tikka Singh etc.
Apart from them a number of reputed people of Kanpur also supported him of which one is King of Nar- Dariyav Chand, This fort was built by Nar Rishidev, the king of Taxila, on the banks of the Rind River in Rarsulabad region. After this, Nar Kalinjar city was established here. Which today people know by the name of Nar Kahinjari. In this fort, the Gaur kings used to solve the problems of the people of their princely state. The era of 1857 came and Jung-e-Azadi was announced. Ranbankure got out of the house and fought against the British. Dariyavachandra was a Gaur vanshi Rajkul, He with other also participated in siege of Wheeler. Besides them, Zamindars and Powerful people of Bithur, Jajmau, Shivrajpur, Narval and Rasulabad openly participated in revolt. Here the British army was in the process of looting their princely state. The king made a strategy to sit in his fort to take on the British. Then, with his army, he had bravely repulsed the English army across the Ganges. After this, he taken hold of the treasury of the tehsil.
The British were frightened to see the skill of the king
After this attack by Gaur king Dariyav Chandra, the English officers were in panic and were horrified to see their defeat. But this victory could not last for long. On 17th July, Kanpur once again slipped into the hands of English forces. Now the king was a target for the British officers. The officers devised strategies in a new way and then ambushed them and arrested them. After this, he was taken and hanged from the Neem tree standing in Dharamgarh campus of Rasulabad. After which the British army attacked their fort. The army continued to collapse the high and thick walls of the fort but could not completely destroy the fort. Time passed slowly and his princely state was handed over to the landowner Pahalwan Singh.
Hundreds of revolutionaries were martyred
After making a conspiracy to arrest the king, when the English army arrived for the arrest of the king, a terrible war broke out, fiercely war broke out. The British army was almost defeated by the raging revolutionaries, who were obsessed with freedom in mind, when the king was arrested by the deceitful whites by his deceitful tricks. In this long run, a large number of brave sons of the country were martyred.
Today the writing of war in those cracking stones is written, Presently the head of Gaur's of this estate is
Kunwar Rishi Pratap Singh Gaur
As for Nana Saheb after this setback fled away and took shelter in Bithur to organise his forces again. On 16th August, General Havelock attacked Nana Saheb. A fierce battle took place between revolutionaries and English forces which resulted in a lot of causalties. Finally, English emerged victorious and General Stephenson occupied Bithoor with the help of Sikh and English force. General burnt the palace of Nana Saheb and plundered its treasure. November 10th, Tatya Tope, an able army chief of Nana closed Yamuna river to attack English forces at Kanpur and occupied Bhognipur, Shivla, Akbarpur, Shivrajpur and half of the Kanpur. In the month of December, Kanpur once again fell into the hands of English and revolt came to an end. British confiscated the property of those who supported for the cause of Nana Saheb.
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