Thursday, April 29, 2021

FORGOTTEN SAGA OF CHANDERI

  पग पग पर लाल न्यौछाबर हुए।

बजासे लाल भई जा चन्देरी की माटी।।


मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले में स्थित चंदेरी एक छोटा लेकिन ऐतिहासिक नगर है। मालवा और बुन्देलखंड की सीमा पर बसा यह नगर शिवपुरी से १२७ किलोमीटर, ललितपुर से ३७ किलोमीटर और ईसागढ़ से लगभग ४५ किलोमीटर की दूरी पर है। बेतवा नदी  के पास बसा चंदेरी पहाड़ी, झीलों और वनों से घिरा एक शांत नगर है, जहां सुकून से कुछ समय गुजारने के लिए लोग आते हैं। राजपूतों और मालवा के सुल्तानों द्वारा बनवाई गई अनेक इमारतें यहां देखी जा सकती है। इस ऐतिहासिक नगर का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। ११वीं शताब्दी में यह नगर एक महत्वपूर्ण सैनिक केंद्र था और प्रमुख व्यापारिक मार्ग भी यहीं से होकर जाते थे।

प्रतिहार नरेश कीर्तिपाल द्वारा स्थापित कीर्तिदुर्ग (चंदेरी,मध्यप्रदेश) 

वर्तमान चंदेरी शहर की स्थापना के कई दिलचस्प अवलोकन हैं। जिसमें एक अनुवर्ती आपको प्रस्तुत किया जाता है। कई शताब्दियों तक यह दुर्ग प्रतिहार राजपूतों के नियन्त्रण में रहा, चन्देरी राज्य की स्थापना १०वीं शताब्दी में हुई थी और तभी इस चंदेरी दुर्ग का निर्माण हुआ। ११ वीं शताब्दी ईस्वी में, पुराने चंदेरी के उत्तराधिकारी प्रतिहार वंश का शासक कीर्तिपाल था। कदवाहा अभिलेख में कीर्तिपाल को सूर्यवंशी बतलाया है। महाराज कीर्तिपाल कुष्ठ रोग से घातक हो गए थे, और इसी कारण से उन्हें कूर्मदेव के नाम से भी जाना जाता था। एक दिन, कुर्मदेव शिकार करने के लिए जंगल में गए। शिकार करते हुए, वह बहुत दूर और प्यासा हो गया, उसने पानी की तलाश शुरू कर दी। जब राजा ने एक पेड़ पर देखा, तो उसने देखा कि कुछ पक्षी आकाश में तैर रहे हैं। जिससे उन्हें विश्वास था कि वहां पानी उपलब्ध होगा। जब वह उस स्थान पर पहुंचा, तो उसने पानी का एक स्रोत देखा। महाराज कूर्मदेव घोड़े से उतरे और पानी में चले गए और उन्होंने अपने हाथ पानी से धोए, तब वह आश्चर्यचकित थे कि उनका कुष्ठ रोग समाप्त हो गया। उसके बाद उसने अपने कपड़े उतार दिए और पूरा स्नान किया, फिर उसकी पूरी बीमारी खत्म हो गई। यह चमत्कारी स्थान और कोई नहीं भगवान टांडा लक्ष्मण जी मंदिर चंदारी था। तब उन्होंने इस स्थान पर अपना निवास स्थान बनाने का फैसला किया।

तब उन्होंने चंडारी की पहाड़ी पर एक कीर्तिदुर्ग, एक कीर्तिसागर और एक कीर्तिनारायण मंदिर का निर्माण किया। सफल प्रतिहार वंश के तेरह राजकुमारों का वर्णन "चंदेरी क्षेत्र के उत्तराधिकारी प्रतिहार वंश के शासक" के पिछले पोस्ट में किया गया है। महाराजा कीर्तिपाल इस वंश के सातवें शासक थे। वर्तमान चंद्र नगर की स्थापना किसने की। इस वंश के अंतिम शासक जैतवर्मन का एक शिलालेख चंदारी से लिया गया है, जिसमें चंदेरी (तब चंद्रपुर नाम दिया गया था) में कीर्तिदुर्ग, कीर्तिसागर और कीर्तिनारायण मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। कीर्ति नाम के आधार पर, पुरातत्वविदों ने इसे कीर्तिपाल द्वारा निर्मित किया जाना बताया है।

इस वंश के कई शिलालेख चंदारी, कदवाहा, थूबोन और पचराई से प्राप्त हुए हैं। इस आधार पर, इस राजवंश का राज्य इन क्षेत्रों में कहीं अधिक विस्तृत माना जाता है। वी। सी। १०४० ईस्वी सन् (१०८३ ई।) के महाराज हरिराज का ताम्र पत्र, १०५५ ई। (९९८ ई।) का थुबन पत्थर लेख, १० वीं -११ वीं शताब्दी ईस्वी के शिलालेख, कदवाहा (इसहागढ़), महाराजा रणपाल का शिलालेख। पचराई (शिवपुरी) के श्री शांतिनाथ मंदिर से प्राप्त देव ११०० (ईस्वी सन् १०४३ ई।) से प्राप्त हुआ। ११२२ (ईस्वी सन् १०६५ ईस्वी) का शिलालेख, चंदेरी से लगभग १२ वीं शताब्दी ईस्वी का एक पत्थर का लिबास और १३ वीं शताब्दी ईस्वी सन् के बारे में जैतुरुवर्मन के शिलालेख प्राप्त होते हैं।

इस वंश की कई ऐतिहासिक गतिविधियों की जानकारी के साथ, उपरोक्त कई शिलालेखों से इस वंश के सभी तेरह शासकों की जानकारी मिलती है। कुछ समय पहले, चंदारी के खंडगिरि जी मार्ग की खुदाई में एक जैन मठ की खुदाई हुई है, जिस पर १३३२ (१२७५ ईस्वी) का वी। शिलालेख अंकित है। जिसमें चंदेरी कीर्तिदुर्ग के एक नए शासक विसलदेव के बारे में जानकारी प्राप्त हुई है। जो अपने पूरे राजबल के साथ इस मंतपंभ में उपस्थित थे।

 वी.वी. नरवर के किले से १३५५ (१२९८ ई।) के शिलालेखों के अनुसार, राजा गोपालदेव के पुत्र गणपति ने कीर्तिदुर्ग पर विजय प्राप्त की। हरिहर निवासी द्विवेदी ने चंदेरी के कीर्तिददुर्ग से कीर्तिदुर्ग की पहचान की है। द्विवेदी के अनुसार, १२९१ ईस्वी में, गोपालदेव ने चंदेरी जीता।

 साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर, १४ वीं शताब्दी ईस्वी की शुरुआत में यह किला अलाउद्दीन के नियंत्रण में आ गया। साक्ष्य के आधार पर (शिलालेखों के आधार पर) १३१२ ई। में, मोहम्मद शाह के सूबेदार तामार सुल्तानी के कब्जे में, १३९२ ई। में, मुगश शाह पुत्र फिरोज शाह की सूबेदार खोरी गोरी, होशंगशाह, महमूद खान खलजी, गयासुद्दीन खिलजी, नसीरशाह के बाद अब्दुल मुजफ्फर, महमूदशाह खिलजी द्वितीय, १५२० ई। में, अहमद शाह के नियंत्रण में, १५२४ ई। में इब्राहीम, शंकरदास लोदी के पुत्र, शेरफ-उल-मुल अधिकार।

 इसके बाद, चंदारी का स्वतंत्र शासक बन गया। जिनको २८ जनवरी, १५२८ में बाबर ने हराया था। तब महारानी मणिमाला ने लगभग १६०० राजपूत महिलाओं के साथ जौहर किया था। तब से, चंदेरी पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध है। जिनकी याद में किले के पास एक जौहर स्मारक बना है, जो २० वीं शताब्दी के आसपास बना है। मदिनाराय से, यह किला और क्षेत्र मुगल साम्राज्य का हिस्सा बन गया। मेदिनीराय और मणिमाला जौहर गाथा के पद का विस्तृत विवरण नीचे दिया है।

 मुगलों से, यह किला लगभग १६०५ ईस्वी के ओरछा के बुंदेला शासक रामशाह को दिया गया था। तब इस किले की हालत बहुत दयनीय थी। रामशाह ने किले की मरम्मत की है। इसके कारण, इस किले का ऊपरी हिस्सा बुंदेला वास्तुकला की झलक दिखाता रहा। लगभग १६१२ ई। में रामशाह अपने परिवार के साथ इस किले में रहने के लिए चंदारी आया था। तब से यह किला बुंदेला शासकों के शासन में था। रामशाह के बाद, बुंदेला शासकों ने १७ वीं शताब्दी ईस्वी में इस किले के पास हवा महल और नखंदरा महल का निर्माण किया। इस क्षेत्र के बाद रामशाह, संग्रामशाह, भरतशाह, देवीसिंह, दुर्गासिंह, दुर्जनसिंह, मानसिंह, अनिरुद्धसिंह, रामचंद्र, प्रजापाल, मोरपालगढ़ और राजा मुरादीनसिंह बुंदेला शासक थे। इसके बाद, यह क्षेत्र १९४७ तक सिंधिया राज्य का हिस्सा था।

मेदिनी राय चंदेरी राज्य का राजपूत शासक था। वह राणा सांगा के सबसे प्रतिष्ठित सेनानायकों में से एक था।

लगभग सन् १५२७ में मेदिनी राय नाम के एक राजपूत सरदार ने चंदेरी में अपनी शक्ति स्थापित की। उस समय तक अवध को छोड़ सभी प्रदेशों पर मुगल शासक बाबर का प्रभुत्व स्थापित हो चुका था।

मेदिनीराय का वास्तविक नाम रायचन्द था, जिन्हें महाराजा संग्रामसिंह (राणासांगा) ने मेदिनीराय की उपाधि से सम्मानित किया था। तभी से रायचन्द मेदिनीराय से विख्यात् हुए। अपने शुरुआती वर्षों में, मेदिनी राय ने मालवा के सुल्तान महमूद द्वितीय की सेवा की और उसे अपने शासन को मजबूत करने में मदद की। महमूद ने उसे अपने दरबार में मंत्री नियुक्त कर दिया। मेदिनी राय ने उत्तरदायित्व के पदों पर हिंदुओ को नियुक्त किया। दरबार में अपना प्रभाव घटते देख कर मालवा के दरबारियों ने उसके विरुद्ध सुल्तान के कान भरे तथा गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह की सहायता से मेदिनी राय को पदच्युत करवा दिया।

विश्वासघात का पता चलने पर, मेदिनी ने चित्तौड़ के राणा सांगा से मदद मांगी और राणा के साथ मिलकर उन्होंने मालवा-गुजरात सेनाओं को हराया और राणा साँगा के अधिपत्य के तहत चेन्देरी सहित पूर्वी मालवा के राजा बन गए। राजपूतों ने महमूद को पकड़ कर अपने सरदारों के संमुख उपस्थित किया। छः महीने बाद राणा सांगा ने वंशानुगत राजपूतोचित दयालुता के कारण महमूद को क्षमा कर दिया तथा मेदिनी राय की सहमति से उसका राज्य उसे वापस लौटा दिया।

चंदेरी पर कब्जा करने से दिल्ली के शासकों को झटका लगा क्योंकि वे राजपूतों से मालवा पर आक्रमण करने की उम्मीद नहीं कर रहे थे। इसके कारण लोदी साम्राज्य और मेवाड़ साम्राज्य के बीच कई झड़पों और लड़ाईयों की शृंखला शुरू हुई। मेदिनी राय ने राणा साँगा को इन लड़ाइयों में सक्रिय रूप से मदद की और उन्हें विजयी होने में मदद की। युद्ध के बाद राणा साँगा का प्रभाव आगरा के बाहरी इलाके में एक नदी पिलिया खार तक फैल गया। मेदिनी राय ने भारत के सुल्तानों के खिलाफ कई अभियानों में राणा साँगा की सहायता की।


चंदेरी युद्ध और महारानी मणिमाला एंव अन्य राजपूत वीरांगनाओं का जौहर करना



आज से ५०० वर्ष पूर्व जहां राजपूती तलवारों की शान में एक और अध्याय अपनी तरफ से आज भी जोड़ रखा है।। 

ये वह शौर्य की गाथा, जब सन १५२८ ईस्वी में चंदेरी की भूमि युद्ध की साक्षी बनने वाली थी। चन्देरी के इतिहास में हिन्दू क्षत्रिय वीरों में मेदिनीराय और बाबर का युद्ध चिरस्मरणीय है। इस युद्ध से प्रज्जवलित हुई ज्वालाएँ आज भी चन्देरी के ऐतिहासिक पृष्ठों पर धधक रहीं हैं। भारत में मुगल आक्रमण इसके इतिहास में नये अध्याय को जोड़ता है। पानीपत की पहली लड़ाई में मुगल बादशाह बाबर का हिंदुस्तान की धरती पर कदम रखना इस बात का संकेत था कि भारत फिर से गुलाम होने वाला था विदेशियों के हाथों। पानीपत और खानवा के युद्ध में विजयी होने के बाद बाबर भारत में अपना पांव पसारने की रणनीति बना रहा था। मकसद था इस दुश्मनों को कुचल देना और इस मकसद का अगला निशाना था राजा मेदनीराय, जिसके साथ चंदेरी का युद्ध लड़ा गया।


शत्रु मित्र भी शत्रु होता है

खानवा के युद्ध में राणा सांगा के घायल होने के बाद वह युद्ध के मैदान में पीछे हट गया था। बाबर विजयी हुआ। राणा सांगा के साथ जो अन्य राजा युद्ध में बाबर के खिलाफ लड़ रहे थे, वह अब बाबर की आंखों की किरकिरी बने हुए थे। दुश्मन की मदद करने वाला भी दुश्मन होता है, इसी नजर से बाबर उन सब को देख रहा था, जिन जिन ने खानवा के युद्ध में मुगल सेना पर हथियार उठाए थें। चंदेरी के राजा मेदनीराय भी खानवा की लड़ाई में राणा सांगा की तरफ से लड़े थे। राणा सांगा के पीछे हट जाने के बाद मेदनी राय समेत सभी राजा अपने-अपने किलो की सुरक्षात्मक दृष्टिकोण को देखते हुए वापस लौट गए थे। मालवा लौटकर मेदनीराय अपने साम्राज्य की सुरक्षा के प्रति चिंतित रहने लगे थे, क्योंकि उन्हें भी मालूम था, बाबर आज नहीं तो कल पलटकर चंदेरी की तरफ रुख जरूर करेगा। हुआ भी कुछ यही, बाबर ने चंदेरी पर हमला करने का मन बना ही लिया।


चंदेरी पर आक्रमण के थें कई कारण


चंदेरी पर आक्रमण करने के कई अन्य कारण भी थे। शत्रु का ममददगार होने के अलावा चंदेरी उस वक्त काफी संपन्न राज्य था। चंदेरी का किला उस दौर के सबसे सुरक्षित किलो में माना जाता था। इसके अलावा चंदेरी रेशम मार्ग व्यापार के लिए भी एक महत्वपूर्ण शहर था। इस पर आक्रमण करके बाबर इस रास्ते से होने वाले रेशम के व्यापार पर पूरी तरह से नियंत्रण रख सकता था, जो उसके लिए बहुत ज्यादा लाभकारी था।


बाबर ने मेदनी राय को संदेश भिजवाया कि चंदेरी का किला मुगलिया हुकूमत के सामने पेश करे और बदले में बाबर के जीते हुए किसी भी किले को अपना बना ले। अपने स्वाभिमान की लगी बोली से राजा मेदनीराय बिल्कुल भी खुश नहीं हुआ और उसने ना में जवाब दिया। इस इनकार ने मुगल हुकूमत को बहाना दे दिया चंदेरी पर आक्रमण करने का। 


एक रात में बीचो-बीच काट डाली पहाड़ी

२७ जनवरी १५२८ ई. की सुवह होने वाली थी। चारों ओर शान्त वातावरण में प्रकृति सोई हुई थी। सूर्य उदय के साथ अचानक रणवाद्य बजने लगते हैं। कीर्तिदुर्ग के प्रहरी सजग हो जाते हैं। वह दृष्टि उठाकर देखते हैं तो उत्तर दिशा से धूल का बवंडर चन्देरी की ओर बढ़ा चला आ रहा था। महाराजा मेदिनीराय ने चारों ओर निरीक्षण किया तो ज्ञात हुआ कि चन्द्रगिरि (वर्तमान चन्देरी नगरी) को बाबर की तापों से सज्जित सेना ने चारों ओर से घेर लिया है। तभी एक प्रहरी ने आकर महाराज मेदिनीराय को सूचना दी कि तुर्क सैनिक बाबर का पत्र लेकर आया है। मेदिनीराय ने पत्र लेकर पढ़ा - कि तुम राणासांगा की मित्रता को त्यागकर मेरे मातहत (गुलाम) बन जाओ। मैं तुम्हें एक दिन का अवसर देता हूँ, इससे ज्यादा रियायत नहीं दूगाँ। खानवा के युद्ध में तुम देख चुके हो। समय रहते समझ जाना काबलियत की निशानी है। अब अपनी अक्ल से काम लेना अपनी औकात को भी नजर अंदाज न करना। 

इस युद्ध की सूचना राणासांगा को भेजी जा चुकी थी, तभी दूसरा प्रहरी राणासांगा (महाराज संग्रामसिंह) का पत्र लेकर आया। पत्र को पढ़कर मेदिनीराय को ज्ञात हुआ कि राणासांगा इस युद्ध में भाग नहीं ले पायेंगे। क्योंकि राणासांगा जो मेदिनीराय के धर्म पिता थे उनका स्वर्गवास हो चुका था। राणासांगा ने अपने अंतिम पत्र में मेदिनीराय से इस युद्ध में भाग न ले पाने की क्षमा याचना लिखी। पत्र को पढ़कर भाव विभोर राणासांगा के मानस पुत्र मेदिनीराय ने संकल्प लिया - 

हे धर्म पिता आपका मानस पुत्र रक्त की सरिता मं स्नान कर तुर्कों के रक्त को अंजुली में भरकर आपका तर्पण करेगा। उसी से आपकी आत्मा तृप्त होगी। तभी बाबर के विशेष दूत जो पत्र लेकर आये थे उन्होंने जबाव माँगा। तो मेदिनीराय ने कहा - 

कोट नवै, पर्वत नवै, माथौ नवाये न नवै।
माथौ सन जू को जब नवै, जब साजन आये द्वार।।

असंभव . . . . . .। मेदिनीराय क्षत्रिय है, भारत के इतिहास में क्षत्रिय भेंट नहीं लेते हैं . . . . फिर सर्मपण क्या होता है। यही हमारा इतिहास है। बाबर भाग्य का धनी है कि राणासांगा इस दुनिया से चले गये। जाओ बाबर को बता दो, दोनों की सेनाओं को क्यों नाहक मरबाता है। हम दोनों मैदान में निपट लेते हैं। जो हार जाये वह हार स्वीकार कर लेगा। बाबर यदि वीर है तो आमने-सामने का युद्ध हो जाये। तोपों की आग क्या दिखलाता है . . . । जितनी आग उसकी तोपों में है, उतनी गर्मी तो हर दिन्द के क्षत्रिय के खून में होती है. . . . .।

बाबर के दूत ने कहा - महाराज ये सियासत नहीं है। आप सियासत की बात करें। तो मेदिनीराय ने सुन्दर जबाव दिया - 

लूटेरों से सियासत की क्या बात करूँ . . . ? 

कह दो जो दूसरों के घर जलाता फिरता है उससे क्या बात करूँ . . .। 

कह दो बाबर से हम युद्ध करेंगे। महाराज मेदिनीराय ने युद्ध की घोषणा कर दी। 

बाहर रणवाद्य बजने लगते हैं और राजपूतों की भुजाएँ फड़क उठती है। 

मेदिनीराय महारानी मणिमाला से विदा लेने आते हैं। प्रिय यह हमारे जीवन का अंतिम मिलन और अंतिम विदा . . .। तब महारानी का भाव विभेर सुन्दर जबाव - संसार में भारतीय नारी के सुहाग को मिटाने वाली शक्ति कौन-सी है ? हाँ इतना अवश्य है कि हमारा आधा अंग (महाराज मेदिनीराय) युद्ध की ओर जा रहा है। यदि कहीं वह रणचण्डी का प्रिय हो जाता है (अर्थात् महाराज वीरगति को प्राप्त होते हैं) तो अबिलम्ब यह दूसरा अंग (महारानी मणिमाला) भी अग्निमार्ग से अपने पथ से अपने आधे अंग से जा मिलेगा। फिर आप कैसे कह सकते हैं कि यह हमारा अंतिम मिलन है।

महारानी ने सैनिकों को संबोधित किया - बन्धुओं, पराधीनता के राज्य का यश, वैभव, हैय और कलंक की कालिमा में लिपटे सुख हैं। क्षणिक सुख के लिए हम अपनी जाति, धर्म और देश की प्रतिष्ठा को बंधक नहीं बना सकते। जीवन-मरण तो ईश्वर के साथ है, हम उसे नहीं रोक सकते। जब मरना निश्चित है तो मरने पर भी अमरपद मिल सके। ऐसी मौत तो मातृभूमि के लिए उत्सर्ग करने से ही मिलती है . . . .। तो आओ चलें महाकाल के चरणों में अमरपद प्राप्त करें। 

अब क्षत्रिय और तुर्की दोनों सेनाएँ आमने-सामने, हर-हर महादेव के जय घोष के साथ क्षत्रिय प्राणों को भूलकर शरीर की ममता को त्याग मौत का खुला आलिंगन करने के लिए मचल कर तुर्की सेना पर अूट पड़े। भले ही राजपूत सेना का संख्या बल कम था पर पहले ही हमले में बाबर की सेना की अग्रिम पंक्ति के सैनिक मारे गये। बाबर के सेनापति ने सैनिकों को बहुत उकसाया, साहस दिलाया लेकिन तुर्की सैनिक पीछे हटने लगे। इस युद्ध में बुन्देलखण्ड के राव, सामंत और लडाकू वीर क्षत्रिय युद्ध के आमंत्रण पर स्वेच्छा से मातृभूमि पर प्राणोत्सर्ग करने आ पहुँचे। महाराज मेदिनीराय ने हुँकार भरते हुए माँ चामुण्ड़ा का जयकारा लगाया। क्षत्रिय सेना वीरता और बलिदान के उभार पर आ गई और तुर्की सेना में हाहाकार मच गया। पानीपत और खानवा के युद्ध का विजेता बाबर भी क्षत्रियों क विकट युद्ध से भयभीत हो गया। इस विपरीत परिस्थिति को देख वह पीछे हट गया और खच्चर की गाड़ियों पर लदी तोपों को आगे बढ़ा दिया। बाबर ने घुड़सवारों को दांये-बायें से आक्रमण करने का हुक्म दिया। मानो भेड़िये सिंहों को घेरने की कोशिश कर रहे हों। युद्ध के नवीन आक्रमण से सिंहों की गति अवरुद्ध हो गई। तोपों के सामने क्षत्रियों की सेना का यह प्रथम युद्ध था। तोपों की मार से चीख-पुकार बढ़ी तो कढ़ती ही गई। इस प्रकार मेदिनीराय की आधी सेना ने तुर्कों की चौगुनी सेना को मारकर वीरगति प्राप्त की। संध्या काल में युद्ध समाप्त हुआ। मेदिनीराय अपनी सेना को लेकर दुर्ग वापस लौटे आये। 

दिन समाप्ति पर बाबर ने चैन की सांस ली और खुदा का शुक्र अदा किया कि राणासांगा मर गया नहीं तो बेतवा के किनारे ही हमारी कब्र बनती। बाबर ने अपने सेनापति व सहयोगियों से मंत्रणा की कि बताओ क्षत्रियों के जुनून के आगे हमार जीत कैसे हो ? तभी बाबर के सेनापति ने कहा गुलाम के रहते आलमपनाह को तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं है। आज ही आधी रात को मेदिनीराय का साथी अहमद खाँ नगर का द्वार खोल देगा और हम रात में ही हमला करेंगे। 

उधर महारानी मणिमाला, मेदिनीराय के घावों पर मरहम लगा रहीं थी और महाराज को विश्राम करने का निवेदन किया। तो मेदिनीराय ने कहा कि अब तो विश्राम रणांगन में ही होगा। तभी हाँफते हुए मेदिनीराय का सेनापति आया कि अहमद खाँ ने नगर का द्वार घोल दिया और बाबर की सेना नगर में प्रवेश कर गई है। मेदिनीराय झटके के साथ उठे और पीछे मुड़कर बस इतना कहा विदा . . . . अंतिम विदा मणि . . . और बाहर निकल गए। महारानी कर्त्तव्यविमूढ़ होकर देखती रही। 

महाराज मेदिनीराय ने नगर के बीच में आकर शंखध्वनि का उद्घोष किया। वीरो मरणहोम में यदि जीवन की आहूति नहीं गिरी तो पुण्य नहीं मिलेगा, कीर्ति मंद पड़ जायेगी। अतएव हमें अपराजेय योद्धा की तरह ही तांडव के ताल पर मृत्यु के साथ नृत्य करना है। रणचण्ड़ी के चरणों में रक्त का अर्घ समर्पित करने का आज सुअवसर है। 



हर-हर महादेव के घोष के साथ क्षत्रिय तुर्कों पर टूट पड़े। तिल-तिल बढ़ना अब तुर्कों के लिए मौत का खुला खेल था। इस परिस्थिति से घबरा कर बाबर ने पुनः तोपों को चलाने का हुक्म दिया। तोपों को रोकने के लिए मेदिनीराय बढ़े तो बढ़ते ही रहे। अब चन्देरी नगर के आकाश में चारों ओर धुआ और धूल के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। दोनों ओर की सेनाओं में अंधाधुंध तलवारे चल रहीं थी। अचनक मेदिनीराय घायल होकर भूमि पर गिर पड़े। महाराज के विशेष सहयोगी मेदिनीराय को उठाकर दुर्ग की ओर बढ़ गये। 

बाबर की सेना ने नगर में आग, लूट और हत्या का तांडव करना प्रारम्भ कर दिया। बाबरनामा के अनुसार चन्देरी नगर में हुए नरसंहार का आकलन करने के लिए बाबर ने मरे हुए राजपूतों के सिर कटवाकर उनकी मीनार (टीला) बनवाया और उस पर अपना झण्ड़ा गाढ़ दिया। मेदिनीराय जैसे ही होश में आये तो दुर्ग से नरमुण्ड़ों पर गढ़ा तुर्कों का ध्वज देखकर चीखकर अपने आपको धिक्कारने लगा। मेरे रहते मेरे नगर पर तुर्कध्वज फहरा रहा है। तभी महारानी मणिमाला ने धनुष उठाकर उस ध्वज के चिथड़े उड़ा दिये। इसी बीच द्वारपाल आया और महाराज से कहा कि महाराज द्वार पर बाबर के दूत आये हैं और संधि करने का प्रस्ताव लाये हैं। कि महल खाली कर दो और चन्देरी के बदले शमशाबाद ले लो। चारों ओर सन्नाटा छा जाता है। तभी मणिमाला अपने वीरों को संबोधित करती हैं। कि यह समय हित-अहित विचारने का नहीं है। मृत्यु तो अवश्यम्भावी है। चाहे वह शयन कक्ष में आये सा रणभूमि में . . .। संधि करने का हक न तो महाराज के पास है न ही पंचों के पास। यदि संधि करनी थी तो हमारे वीरों को मरवाया क्यों ? क्या जबाव देंगे उन माताओं को, उन विधवाओं को जिन्होंने अपने लाल और वीरों को रणचण्ड़ी को भेट कर दिये। नहीं अब समझौता नहीं होगा। हम अपने कुल को कलंकित नहीं होने देंगे। अब अंतिम युद्ध होगा। यह सुनकर सभी ने एक स्वर में बोला हाँ अब अंतिम युद्ध होगा। 

महाराज मेदिनीराय ने खड़े होकर कहा हाँ अब अंतिम युद्ध होगा। जो अपनी स्वेच्छा से युद्ध में चलना चाहते हैं वह केशरिया धारण कर लें तथा जो युद्ध में नहीं जाना चाहते वह दुर्ग से बाहर निकल जाये। दुर्ग से निकलने की व्यवस्था कर दी गई है। महाराज अंतिम युद्ध पर जाने के लिए चन्द्रगिरि के दुर्ग पर मरणोत्सव पर्व की तैयारियाँ शुरू हो गई। महारानी ने आकर कहा कि महाराज को केशरिया पहना कर मृत्यु वरण के लिए तैयार किया और स्वयं के लिए आदेश माँगा कि मुझे भी आदेश दे दीजिए कि मैं जोहर की अग्नि जला आऊँ जो कभी न बुझे। महारानी महाराज के चरणों में गिर जाती हैं। महाराज भावनाओं के समुद्र से बाहर निकल कर शीघ्रता से दुर्ग के बाहर की ओर चल देते हैं। दुर्ग के बाहर शत्रु उनका इंतजार कर रहा था। 

मेदिनीराय ने क्षत्रिय वीरों के साथ हर हर महादेव के जयघोष के साथ कहा इस जीवन के सबसे सुखद और पावन समय को पूर्णतः से ग्रहण करो। यदि काल अमर है तो हम महाकाल बन जायें। हर हर महादेव करते हुए राजपूत दुर्ग के प्रमुख द्वार से बहार आ जाते है और बाबर की सेना पर घायल शेर की भांति टूट पड़ते हैं। इस समय के युद्ध को बाबरनामा में इस प्रकार व्यक्त किया गया है - कि हिन्दू द्वार खोलकर नंगे होकर हम पर टूट पड़े। अंतिम युद्ध लड़ा जाने लगा। मुख्य द्वार से (हवापौर दरवाजा) से रक्त की सरिता वहने लगी, लाशों के ढेर लग गये। युद्ध चलता रहा और मेदिनीराय अपने वीरों के साथ तुर्कों के सिर काटते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये। फिर चारों ओर सन्नाटा छा गया। दुर्ग का द्वार खुला था फिर भी द्वार अंदर आने का साहस शत्रु सेना नहीं जुटा पा रही थी। बाबर जिसके साहस की दन्त कथाएँ सम्पूर्ण एशिया में प्रचलित थीं। वह भी चन्द्रगिरि के दुर्ग में जाने से घबरा रहा था। दुर्ग के प्रथम द्वार पर आकर बाबर के मुँह से घबरा कर निकल गया . . . ओह . . खूनी दरवाजा. . . । 

संभवतः इसी समय से वर्तमान फुहारी वाला दरवाजा खूनी दरवाजे के नाम से विख्यात् हो गया। अंतिम बचे प्रहरी ने महारानी मणिमाला के पास आकर सूचना दी कि महाराज वीरगति को प्राप्त हो गये। मणिमाला काँपकर पाषाणवत् हो गई। फिर अपने आपको संभालकर सुहाग, सिन्दूर, मेंहदी तैयार का पूजा का थाल लेकर बाहर आईं। दुर्ग की स्त्रियों में हाहाकार मच गया। सौन्दर्य और सुहाग की साकार मूर्ति को देखकर चारों ओर का हाहाकार शान्त हो गया। मणिमाला बिना कुछ बोले शिव मन्दिर चली गई (वर्तमान गिलउआ ताल पर) पूजन के उपरांत बाहर आईं तो लगभग १६०० क्षत्राणियाँ खड़ी थीं। तब महारानी ने उनसे कहा - हम प्रत्येक परिस्थिति में जीते हैं, लेकिन पति से अलग होकर हम नहीं जी सकते। पति के उठते पाँव के चिन्हों पर हमें भी पाँव रखना है . . . । 


हमारे प्राण प्रिय से हमारा संबंध मात्र शरीर का नहीं है वरन् आत्मा का संबंध है। उसी आत्मानुभूति से प्रेरित होकर हम आत्मा के मिलन के लिए सुहाग की अमरता पाने पवित्र अग्नि में जा रहे हैं। मेरे जीवन में ही क्या युगों-युगों से भारतीय नारी के जीवन में आग और सुहाग कोई अलग वस्तु नहीं रही है। जब तक इस भारत में इस आग और सुहाग के महत्व को नारी जानती और मानती रहेगी, तब तक एक क्या हजारों बाबर भी एक साथ मिलकर भारत की पावनता और संस्कृति को नहीं जीत सकते। भले ही कुछ समय के लिए निस्तेज हो जायें, छुपी हुई आग का दबा हुआ बीज फिर से फूटेगा अवश्य फूटेगा। फिर सुहागन मणिमाला के संकेत पर वर्तमान खूनी तलैया के किनारे विशाल चिता में अग्नि प्रज्वलित कर दी गई। कुछ ही क्षणों में लपटें आकाश को छूनें लगी और महारानी सहित लगभग १६०० वीरांगनाओं ने अपने जीवन को होमकर दिया। देखते ही देखते सम्पूर्ण दुर्ग आग का गोला बन चुका था। इस चिता की ज्वालाएँ चन्द्रगिरि से लगभग १५-१५ कोस दूर देखी जा सकतीं थीं। जैसे ही बाबर की सेना ने दुर्ग में प्रवेश किया तो शेष सैनिकों ने मोर्चा संभालकर वीरता से युद्ध किया और वीरगति प्राप्त की। 

अब बाबर जलती हुई चिता को अहमद खाँ के साथ निहार रहा था। जीवित जलती कोमलांगियों को देख बेचैन हो गया। उसका कठोर हृदय भी पीडा से कराह उठा। उसी समय चिता के भीतर से एक सनसनाता तीर आया और बाबर की पगड़ी में लगा और वह जमीन पर गिर गई। यह देख बाबर की सेना में आतंक छा गया। बाबर के सैनिकों दौड़कर चिता के पास पहुँचे तो देखा कि महारानी मणिमाला तीर चलाकर धनुष को कंधे पर ले रहीं थीं। बाबर ठगा सा रह गया। भग्न ध्वस्त दुर्ग की सूबेदारी अहमद खाँ को सौपकर तुरंत दिल्ली की ओर चला गया। चन्देरी का जौहर महारानी मणिमाला की वीरता और सतित्व की गाथा है। फरिस्ता के अनुसार इस युद्ध में पाँच-छः हजार राजपूत वीर मारे गए थे। डॉ. रिजवी द्वारा लिखित बाबरनामा पृ. ४४१ मे लिखते हैं कि - ज्ञात होता है कि मेदिनीराय इस युद्ध में नहीं मरे, वरन् मुगलों (बाबर) के द्वारा बन्दी बना लिए गए। बाबर ने पहले उन्हें बलात् मुसलमान बनाया और फिर उनकी हत्या करा दी।

पग पग पर लाल न्यौछाबर हुए।

बजासे लाल भई जा चन्देरी की माटी।।

अत्र सरसतीरे असंख्याता क्षत्रिय वीरांगना। 

सतीत्व रक्षार्थ जौहरेण विधिना ज्वलनं प्रविश्य दिवंगताः।।

- विनम्र श्रद्धान्जलि - 



The Chanderi stone inscription of Jaitravarmana mentions the genealogy of the Pratihar rulers of Chanderi. Which are: 

Nilkantha,

Hariraja,

Bhim,

Ranapala,

Vatsraja,

Swarnpal,

Kirtipal Pratihar,

Abhaypal,

Govindraj,

Rajaraj,

Veeraraj Parihar 

and Jaitravarman.



Interesting factor with respect to Chanderi is its emergence during the early medieval period. The incursion into Chanderi seems to have begun during the time of the Imperial Pratiharas. Chanderi lies mid way between two important political centres of the Imperial Pratiharas.

Two important centres being Gopagiri (Gwalior) and Siyadoni (Sironj Khurd, dist. Lalitpur). While Gopagiri was the military stronghold, Siyadoni was the administrative and mercantile centre under the Pratiharas. Epigraphic records state that Siyadoni branch of Partihars was under

the feudatories of the Imperial Pratihars. The

presence of mercantile communities at both Gopagiri and Siyadoni suggest the presence of long distance trade relations and routes which definitely passed through the Chanderi & therefore necessitated the need for settlement mid-way

Image:Lord Rishabhnath at Kandhagiri 

between the two centres. It would also not come as a surprise that the new settlement partook of the vibrant trading network & developed itself as a mercantile settlement,corroborated by presence of a large Jain community at Chanderi.


Chanderi flourished during the early-medieval period under the Pratiharas which seem to have been originally a feudatory branch of the Imperial Imperial Pratiharas. The idea of the almost contemporaneous existence of different branches of same lineages is not a novel feature, 



In fact, this was a common feature of the different Rajput dynasties based on clan-kinships.Interistingly there appears almost 6 Pratihar lineages between the 7th-10th centuries AD in different parts of Rajasthan, MP & Uttar Pradesh having varying degrees of political ascendancy And as many modern distorians some times skip the fact that all of them traced ancestral ascendancy  from Laksmana of the family of Raghu and hence call themselves as Suryavamsis.


With respect to the Pratiharas of Chanderi it may be mentioned that so long as they served as the feudatories of the Imperial Pratiharas their epigraphic records have not come to light, just in case of most of the Rajput dynasties, as it was seen as frivolous for a feudatory to issue inscriptions in those times. However, with their changed political fortunes after the decline of the Imperial Pratiharas their epigraphical records became ostentatious with genealogies & use of titles like 'Chakravarti' & 'Maharajadhiraja' (Kadwaha inscription of Hariraja).



The fort at Chanderi still marks the brilliance of that era, built by a Pratihara king, Kirti Pal, in the 11th century CE and was referred as Kirti Durg. 


There is a three story palace inside this fort. This palace has a fountain and a tank in its courtyard. 


In this lies the Samadhi of the great musician, Baiju Bawara (1542-1613). Born as Baiju Nath Prasad in Chanderi. He was a reputed Dhrupad singer popularised by of Raja Man Singh of Gwalior. Local legends say that he is said to have defeated Miyan Tansen, the court-poet of Akbar. 

From the Siyadoni stone inscription we learn that during the time of the rule of the Imperial Pratihara kings like Bhoja, Mahendrapala, Kshitipala and Devapala

successively, Siyadoni was administered by four local rulers referred to as 'Mahasamantadhipatra'.

One of the rulers mentioned in the inscription was identified as Durbhata who belonged to the

family of Hariraja. This conclusively proves that the ancestors of Hariraja were the

feudatory rulers (under the Imperial Pratiharas) responsible for the administration of Siyadoni.


At Chanderi after the fall of the Imperial Pratiharas a minor branch of the Pratiharas which so long served as the feudatories of the former exerted their independence. 


One of the initial inscriptions of this branch post independence was Chanderi stone inscription of Jaitravarman. Here the composer of the inscription, a Brahmin named Pandit Sahadena states that the Pratihara family ruling over Candrapura traced their descent from Laksmana, the younger brother of Rama. Further mentions regarding the valour of the rulers of this family were made by comparing them with gods and epic heroes. The feats of Hariraja, the second ruler, are equated with those of Hari (Visnu), while those of Bhimadeva, the third ruler, with those of the epic hero Bhishma. 


Similarly, the Kadwaha stone inscription of Kirttipala states that the Pratihara family traces its origin from the Surya, the Sun-god. The Chanderi fragmentary stone inscription also makes reference to the feats of the different rulers of the Pratihara family (Hariraja, Bhimadeva, Ranapala, Vatsaraja and Abhayapala) and compares them with gods and epic heroes.


From the inscriptional records it becomes clear that Hariraja was the first independent ruler of this dynasty and therefore assumed titles like 'Chakravarti' and 'Maharajadhiraja'.


The Bharat Kala Bhavan copper plate inscription of Hariraja states that at Siyadoni he donated lands in 3 villages to Brahmins on the occasion of a solar eclipse. Kadwaha fragmentary stone inscription also mentions about the gift of some villages by Hariraja to a Shaiva Acharya.

One of the most famous Partihar heroes that we have seen in Middle ages was Medni Rai Pratihar, a trusted general of Rana Sanga of Mewar, and ruled chanderi & much of the Malwa under the lordship of Rana Sanga, who helped him in defeating Sultan of Malwa and conquering Malwa. He Joined the United Rajput Confederacy in Battle of khanwa with a Garrison of 20,000 Rajput soldiers and headed the left wing of Rajputs. The conquest of Malwa shocked the court of Delhi as they were not expecting the Rajputs to invade Malwa. This led to several skirmishes and battles between the Lodi Empire and the Kingdom of Mewar. Medini Rai actively helped Rana Sanga in these battles and helped him score a series of victories. Rana's influence after the war extended to Pilia Khar, a river on the outskirts of Agra.


He assisted Rana Sanga in many campaigns against the Sultans of Delhi. Medini Rai was later killed in the Battle of Chanderi against Babur, where he was given a chance to surrender but chose to die & remain loyal to Rana. Rajput women committed Jauhar after his death. 


Babur offered Medini Rai Shamsabad in exchange for Chanderi. But Medini spurned the offer,& preferred to die fighting. Chanderi fort was invaded by babur in 1528. Medini rai, one of the vassals of Rana Sanga, was ruler of malwa then. 


He was defeated by Babur army, then rajput women organised a johar ceremony to save their honour bcz Mughals were then used to rape even with dead bodies. 


How mentally sick and sadist these Mughals were who wouldn't leave even dead bodies, absolutely satanic monsters


Rajputs under Medini committed Saka (Fight until death)& women of fort committed Jauhar. Today we have a Jauhar Smarak at Chanderi Fort to mark their sacrifice. 






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