Sunday, February 28, 2021
1971 WAR HERO COLONEL SHYAM SINGH BHATI SIR -IMMORTAL RAJPUTS
Saturday, February 27, 2021
AN UNRELENTING PATRIOT THAKUR RAO GOPAL SINGH KHARWA - IMMORTAL RAJPUTS
During the British Raj in India, several Rajput kings, princes and chieftains are known to have lent support to the nationalist movement against the colonisers. Most Rajputs exercised their prudence by contributing to the freedom movement on the one hand while maintaining diplomatic ties with the British on the other. When it comes to stories of anti-British nationalism amongst the royals, one hears of legends such as Tantia Tope, Babu Veer Kunwar, Maharaja Mardan Singh Ju dev and Rani Laxmibai of Jhansi to name but a few.
While attending some of the Delhi Durbars around the Swadeshi movement, Rao Gopal Singhji conspired with Jorawar Singhji and Keshvar Singhji of Kota to jointly assassinate the then Viceroy, Lord Hardinge during the Delhi Durbar. The trio were successful in detonating a bomb at the Chandni Chowk intersection, however, their assassination attempt was unsuccessful with Lord Hardinge sustaining minor injuries. Several members of his retinue however, lost their lives. The New York Times, amongst other prominent news papers has duly reported this incident in their issue dated the 12th of December, 1912.
Thereafter, Rao Gopal Singhji and his co-conspirers immediately fled to seek refuge in Ajmer which, by that time had become a hotbed of anti-Raj sentiments and activities. Famous freedom fighters such as Bhagat Singh are said to have taken up temporary refuges in Ajmer as well. For the next few years, Rao Gopal Singhji was to conduct his anti-nationalist operations out of Ajmer and planned another armed attach on the British for the following year, a conspiracy that was caught in time due to being intercepted by the British intelligence. Rao Gopal Singhji and his co-conspirers were thus imprisoned at the neighbouring Todagarh Jail, from which Rao Gopal Singhji is said to have made several daring escapes until his eventual release in 1920.
Upon being released from prison, the die-hard freedom fighter wasted no time in resuming his revolutionary activities in Ajmer. His popularity as not just a regional, but a national a freedom fighter had caught on to an extent that made the British realise the futility in his imprisonment or execution, as that would only make him a martyr in public sentiments and thus, add further impetus to anti-Raj activities. Hence, they released an ultimatum against Rao Gopal Singhji to abdicate his throne in favour of his son, failing which, they would annex Kharwa upon his death and deny his son his regal prerogative. His fear of compromising his ancestral land made Rao Gopal Singhji follow the colonial directives and abdicate his throne to his son and successor, Rao Ganpat Singh. Even after retiring from the active governance of Kharwa, many are convinced of his continued revolutionary activities, although highly clandestine in nature.
A FORGOTTEN HERO, KING DHARAVARSHA PARMAR OF ABU - IMMORTAL RAJPUTS
King Dharavarsha is a legendary Paramara hero, apparently he could kill three 🐃 with one arrow. There are statues commemorating it shared above.
Dharavarsha was not only a powerful ruler but also a courageous and astute military leader of the time, playing an important role in the politics of the country.
The title Mandalesvara sambhu reflecting on his being a Saivite in faith. He was also a man of religious temperament.
He fought many other battles like Battle of Vasantagadh, between forces of Sultan Iyal Timish and King of Gujrat Viradhavala .
Important role played by Veteran Dharavarsha (Duke of Abu) .
Gujrat repeatedly defeated Sultanate armies till 1290s
Lord Dharavarsha also helped Chauhans to regain Ajmer (unsuccessfully) back in 1190s, Closed all the passes . Must have been a glorious day
King Dharavarsha tried to help Mers and chauhans in capturing ajmer , they succeeded for a time but two fresh armies came from ghazni and ruined his plans.
Droves of Muslims were coming , and all were employed in army . They didnt need to farm , trade etc . They can just leech the Hindus and live off the land.
RAO RAJA KALYAN SINGH - IMMORTAL RAJPUTS
शिक्षा हो या स्वास्थ्य, धर्म हो या ढांचागत विकास, हर क्षेत्र में योगदान उन्हें आधुनिक सीकर का जनक बनाता है।
राव राजा कल्याण सिंह जी का जीवन परिचय:
राव राजा कल्याण सिंह का जन्म आषाढ वदि 4 सं. 1943 (20जून 1886) को दीपपुरा में हुआ। माधोसिंह के बाद आषाढ सुदि 15, सं. 1979 (1 जुलाई 1922) को सीकर की गद्दी पर बैठे।
शासन पर आने के बाद राव राजा ने अपने शासन प्रबन्ध में जन कल्याणकारी कार्यों में विशेष ध्यान दिया। प्रशासन व्यवस्था के लिये अलग अलग कार्यो के लिए अलग अलग विभाग कायम किये गये। गरीबी और बेकारी मिटाने के लिए आर्थिक सुधार किये। स्थान स्थान पर लघु उद्योग धन्धे खोलने का प्रयास किया गया। हाथ करघा, रेशम के कीड़े पालना, सड़कों का निर्माण भूगर्भ की खोज कर धातु आदि का पता लगाना, भवन निर्माण यातायात के साधनों का विकास करना इनके मुख्य कार्य थे। सर्व सुलभ न्याय के लिये अपने इलाके में तहसीलों की स्थापना कर प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय श्रेणी के न्यायालयों की स्थापना कर और केंद्र में प्रथम श्रेणी के न्यायधीशों की नियुक्ति कर सर्व साधारण के लिये न्याय का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
जनरक्षा के लिए पुलिस विभाग की स्थापना की। केंद्र में एक पुलिस सुपरिटेण्डेण्ट की नियुक्ति की गई। मुख्य क्षेत्रों में पुलिस स्टेशन बनवाकर थानेदारों की नियुक्तियाँ दी गई। इससे जनता में सुरक्षा की भावना बढी।
कृषकों की भलाई के लिए भूमि सुधार किया। भूमिकर के रूप में ठेकेदारी प्रथा को समाप्त कर निश्चित लगान तय किया गया। प्रत्येक कस्बे में कानून विशेषज्ञ, तहसीलदारों की नियुक्तियाँ की गई। इसके नीचे नायब, तहसील, गिरदावर, पटवारी, घुड़सवार, सिपाही आदि रखे गये। पैमाइश विभाग की स्थापना की गई। 7-8 लाख रूपये व्यय कर सारी भूमि की पैमाइश की गई। एक निश्चित अवधि को ध्यान में रखकर किसान को भूमि का मालिकाना हक प्रदान किया गया।
निर्माण विभाग की स्थापना भी की गई। यह विभाग सुन्दर भवनों का निर्माण एवं पुरातत्व अन्वेषण का कार्य करता था।
हर्षदेव के मंदिर की खंडित मूर्तियों का संग्रह इसी विभाग की देन हैं। रावराजा ने ग्राम पंचायत और नगरपालिकाओं के निर्माण का कार्य भी किया। अलग से स्वास्थ्य विभाग की स्थापना भी की। आम जनता की चिकित्सा के लिये सीकर में आधुनिक सुविधाओं से युक्त अस्पताल भवन का निर्माण करवाया। जो कल्याण अस्पताल के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। इस अस्पताल में एम. बी. बी. एस. मेडिकल अफसर इन्डोर रोगियों के लिए स्थान, भोजन औषधि आदि का प्रबन्ध करवाया। प्रयोगशाला, एक्स रे आदि सुविधाओं से अस्पताल को सुसज्जित किया।
राव राजा ने धनाढय सेठों को भी इन कामों को करने के लिये प्रोत्साहित किया गया। पशु चिकित्सा के कार्य भी रावराजा ने करवाये।
"|| एक राजा जिसकी सुरक्षा के लिए उमड़ पड़ी थी हजारों की भीड़ ||"
आजादी के बाद कांग्रेस ने राजस्थान में सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत बनाये रखने के उद्देश्य से राजाओं, जागीरदारों को लोकतान्त्रिक व्यवस्था से दूर रखने की भरसक कोशिश की। नेहरु ने तो राजाओं को चेतावनी भी दी कि "राजा चुनावी प्रक्रिया से दूर रहे, वरना उनका प्रिवीपर्स बंद कर दिया जावेगा।”
बावजूद जहाँ राजा व जागीरदार चुनाव लड़े, वहां कांग्रेस चारोंखाने चित हुई| राजाओं की इसी प्रसिद्धि को दूर करने के लिए कांग्रेस ने राजाओं द्वारा प्रजा के शोषण की झूठी कहानियां प्रचारित कर दुष्प्रचार किया। लेकिन राजा और प्रजा का सम्बन्ध नीचे की घटना से समझा जा सकता है।
जयपुर और शेखावाटी के राजाओं के मध्य विवाद शुरू से रहा है। अप्रैल 1938 में शुरू हुआ महा. स. मान सिंह II व सीकर के कल्याण सिंह जी के बीच एक विवाद इतना बढ़ गया कि जयपुर महाराजा ने 20 जुलाई 1938 को सीकर के राजा को गिरफ्तार कर जयपुर लाने के लिए सेना भेज दी। जयपुर की सेना के सीकर कूच की खबर आग की तरह फैलते ही सीकर राज्य की प्रजा अपने राजा को बचाने के लिए सीकर गढ़ के बाहर एकत्र हो गई सीकर की फ़ौज ने भी गढ़ के दरवाजों पर तोपें व मशीनगन तैनात कर दी। सीकर की प्रजा के हाथ में जो भी हथियार तलवार, बन्दुक, लट्ठ जो भी मिला लेकर अपने राजा की सुरक्षा में तैनात हो गई और मरने मारने को तैयार प्रजा रातभर पहरा देने लगी।
रींगस स्टेशन जब रेल गाड़ी आकर रुकी, सीकर के लोगों व जयपुर फ़ोर्स के मध्य फायरिंग हुई। स्टेशन पर बैठे बिरजीसिंह, नाथूसर ने आई जी यंग पर गोली चलाई, जो उसके टोप से टच कर निकल गई, जवाबी फायरिंग में बिरजीसिंह मारे गए। इस विवाद में कई दिन सीकर राज्य की प्रजा हाथों में लट्ठ लिए जयपुर की सेना के आगे डटी रही, रातभर जागकर गढ़ व परकोटे के बाहर पहरा देती रही और जयपुर की हथियारबंद सेना को नगर के भीतर घुसने तक नहीं दिया। आखिर 25 जुलाई 1938 जयपुर-सीकर के मध्य समझौता हुआ, तब जाकर यह गतिरोध ख़त्म हुआ।
राव राजा कल्याणसिंह जी की गिरफ्तारी रोकने के लिए जिस तरह प्रजा ने मरने का भय त्याग कर सेना का सामना किया, वह प्रजा के मन में राजा के प्रति प्रेम, विश्वास और आत्मीयता का उत्कृष्ट उदाहरण है।यह घटना कथित सेकुलर गैंग के मुंह पर तमाचा भी है जो राजाओं पर अपनी प्रजा के शोषण का आरोप लगाते है। यदि राजा अपनी प्रजा का शोषण करते तो क्या यह संभव था कि प्रजा उस राजा की सुरक्षा के लिए अपनी जान दाँव पर लगा देती।
राव राजा कल्याण सिंह लोकप्रिय राव राजा थे। इसके साथ वे धार्मिक प्रवृति के शासक थे। वे कल्याण जी के भक्त थे। प्रतिदिन निश्चित समय पर कल्याणजी के मंदिर पंहुचते थे ऐसे धर्म शील व कर्तव्य परायण राव राजा का 7 नवम्बर 1967 वि. 2024 में देहान्त हो गया।
ज्ञातव्य हो कि इन्होंने जितने भी कार्य करवाए उनके नाम अपने नाम पर नहीं बल्कि अपने डिग्गी के कल्याण महाराज के नाम पर करवाए थे।
इनके पुत्र राजकुमार हरदयाल सिंह की पढाई जयपुर सीकर विवाद के कारण बीच में ही छूट गई । कुछ समय यह सवाई मान गार्ड में रहे। राणा बहादुर शमसेर जंग बहादुर नेपाल की पुत्री से हरदयाल सिंह का संबन्ध तय हो गया और शादी हो गई लेकिन उनकी पत्नी का निधन हो गया। अतः दूसरी शादी त्रिभुवन वीर विक्रमशाह नेपाल की पुत्री के साथ सम्पन्न हुई ।
राजकुमार हरदयाल सिंह की मृत्यु माघ वदि 13 वि. 2015 को राव राजा कल्याण सिंह के जीवन काल में ही हुई। इनके कोई पुत्र नहीं था। इनकी कंवराणी सीकर रही और सरवड़ी के नारायण सिंह के पुत्र विक्रमसिंह को भादवा सुदि 15 वि. 2016 को गोद ले लिया। राव राजा के दो पुत्रियां थीं। बडी पुत्री फलकंवर का विवाह उम्मेदसिंह नीमाज के साथ व छोटी पुत्री का विवाह चाणोद के कंवर चिमन सिंह के साथ हुआ।
इनकी मृत्यु के बाद विक्रमदेव सिंह सीकर की संपत्ति के स्वामी हुए।
BATTLE OF TITHWAL - MAHAVIR LIEUTENANT COLONEL KAMAN SINGH PATHANIA - IMMORTAL RAJPUTS
Friday, February 26, 2021
FREEDOM FIGHTER THAKUR ZORAWAR SINGH BARHATT JI
1857 REBELLION AMARVEER THAKUR DAYAL SINGH RAGHUVANSHI - IMMORTAL RAJPUTS
THE CONTRIBUTION OF JAUNPUR IN THE FREEDOM STRUGGLE
Jaunpur of the British period has been a witness to rebellion against the power of the state. A tormenting desire to take part in the revolution of 1857 and secure Independence for India was seen in its every nook and cranny. For the 1857 revolution, posters had been put up everywhere on 31st May. Instructions had been issued to the native soldiers to deposit their arms. The news of the rebellion reached Jaunpur from Benares on the 5th of June, 1857. On September 8, the Gorkha forces arrived in Jaunpur from Azamgarh. On account of this, all the civilian officers who had fled to Benares returned to Jaunpur. The northwest part of Jaunpur was in the flames of the rebellion. The confrontation of the freedom fighters under the leadership of Mata Badal Chauhan with the English Forces took place but fate did not favour them. The English hanged Mata Badal Chauhan and his 13 confederates.
In this conflict, these braves killed one Sergeant Brigade, a legal officer. Thakur Sangram Singh of Nevadhiya village became a Rebel and he defeated the English several times. The English could not cow down the Babu Saltanat Bahadur Singh, the Zamindar of Badlapur. Saltanat Bahadur Singh's son Sangram Singh took on the English on several occasions. Later on, the English tied him to a tree and shot him. Amar Singh, alongwith his 4 sons, attacked the Indigo Godown of Karanja and plundered it. The English attacked his village Adampur during which he was killed fradulently. The Raghuvanshi Rajputs of Dobhi along the Varanasi-Dobhi-Azamgarh highway had never acquiesed to anybody's suzerainity. On hearing of the patriotic uprising against British rule in the surrounding districts of Ghazipur, Azamgarh and Banaras, the proud Rajputs of Dobhi organised themselves into a tough group of armed force and attacked the British and their traitorous Indian collaborators all over the region. During the advance towards Benares, they came face-to-face with the Sikh Army of Taylor. The Rajputs of Dobhi killed the englishmen of the Peshwa's Indigo Godwn. In Senapur village at midnight the English hanged 23 people, while they were asleep, from tree. The English hanged Haripal Singh, Bhikha Singh and Jagat Singh et. al. after a charade of a trial by a kangaroo court.
स्वतंत्रता की धधकती आग में शहीदों का गवाह बना सेनापुर बाग
मेरठ में 1857 में इस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ चिनगारी भड़की तो उसकी आंच जौैनपुर के डोभी में भी महसूस की गई। क्रांति की रोटी यहां पहुंची हो या नहीं लेकिन यहां के रणबांकुरों ने अंग्रेजों से जबरदस्त लोहा लिया। लंबी लड़ाई के बाद सीधे मुकाबले में सफल नहीं होने पर कंपनी के अफसरों ने धोखे से समझौते के लिए सेनपुरा बुलाया बुलाया और 22 रणबांकुरों को फांसी दे दी। उसके बाद उनके सहयोगियों का दमन किया गया।
जौनपुर मुख्यालय से लगभग 40 किमी दूर पूरब केराकत तहसील का सेनापुर गांव हैं। जहां के शहीद बाग में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 22 रणबांकुरों को फांसी दी गई थी। मेरठ में भड़ी चिंगारी पूर्वी उत्तर प्रदेश में आग बनकर धधकने लगी थी। बनारस में जून माह में कंपनी के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ तो उसकी खबर जौनपुर पहुंची तो डोभी और चौदह कोस में फैले कटेहर क्षेत्र के रघुवंशियों ने अपनी सेना गठित कर ली। जौनपुर और वाराणसी की सीमा पर मौजूद दानगंज में दानू अहीर अपने सात पुत्रों के साथ सेनानी बनकर अंग्रेजों पर कहर बनकर टूट पड़ेडोभी के रघुवंशियों ने संगठित होकर सेना का रूप धारण कर लिया। उन्होेंने अंग्रेजों को कई बार खदेड़कर जौनपुर की सीमा से बाहर कर दिया। अंग्रेजी सेना को वाराणसी के बावनबीघा तक खदेड़ने दिया और वाराणसी-आजमगढ़ मार्ग पर कब्जा कर लिया। क्रांतिकारियों ने नील गोदाम पर भी कब्जा कर लिया था। सितंबर माह में गोरखा सेना आई लेकिन उसकी भी एक न चली। बाद में अंग्रेजों ने समझौते के बहाने सेनापुर में पंचायत बुलाई। वहां अंग्रेजों ने डोभी के 22 क्रांतिवीरों को गिरफ्तार कर लिया गया और फांसी दे दी। फांसी पर लटकाने के बाद अंग्रेजों ने उन पर गोलियां चलाईं। 22 शहीदों में सात लोग कौन थे, इसका पता नहीं चल पाया।
सेनपुरा के शहीद बाग के शिलापट्ट पर 10 गांवों के
ठाकुर यदुबीर सिंह,
ठाकुर दयाल सिंह,
ठाकुर शिवब्रत सिंह,
ठाकुर जयमंगल सिंह,
ठाकुर देवकी सिंह,
ठाकुर रामदुलार सिंह,
ठाकुर अभिलाष सिंह,
ठाकुर जयलाल सिंह,
ठाकुर सिंह,
शिवराम अहीर,
किसुन अहीर,
ठाकुर माधव सिंह,
ठाकुर विश्वेसर सिंह,
ठाकुर छांगुर सिंह
एवं ठाकुर रामभरोस
सहिं सहित केवल 15 बलिदानियों के नाम अंकित हैं।
शहीदों की इस पवित्र भूमि की तरफ शासन और जनप्रतिनिधियों की आज तक नजरे इनायत नहीं हुई। ढाई दशक पूर्व तत्कालीन सांसद राजनाथ सोनकर शास्त्री ने एक एकड़ में फैले शहीद बाग की चहारदीवारी बनवाई थी। गांव के जयप्रकाश सिंह ने बताया कि गेट टूटकर गिर गया है। शहीद बाग में हरे पेड़ो की कटाई और खनन किया जाता रहा, जिसे किसी तरह रोकवाया गया। पूर्व प्रधान डा. राम लौटन विश्वकर्मा ने तालाब खुदवाया था किंतु अब खनन से उसका स्वरूप बिगड़ गया हैं। डा. ईश्वरदत्त सिंह, श्याम कन्हैया सिंह, शारदा और बुझारत के कहने पर पूर्वांचल विश्विद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो. शरत कुमार सिंह 1995 में शिलापट्ट और शहीद स्मारक का सुंदरीकरण कराया था। समाजसेवी जयप्रकाश सिंह ने जिलाधिकारी और कबीना मंत्री तथा इस जिले के प्रभारी रीता बहुगुणा जोशी को पत्र देकर शहीद स्थल के सुंदरीकरण की मांग की है।
REFERENCES:-
PN Chopra, YB Chavan, Who’s Who of Indian Martyrs 2 , Vol 3, p. 137
S A A Rizvi, M L Bhargav, Freedom Struggle in Uttar Pradesh: Eastern & Adjoining districts, 1857-59, p. 955
Jaunpur Gazetteer. p. 47-49