Almost century before independence king named Jang Bahadur singh had ruled amorah. after his death in 1853 his wife Rani talash kunwari led the fight against the british and faced the onslaught for seven days in 1857. later, the colonial army under robert craft once again attacked amorah the same year and this was the last battle of rani talash kunwari, since then amorah had been known as shaheed sthal. Join us to salute the legend who attained martyrdom in Basti Chawani. Which is the Main shelter for Indian freedom fighters during the 1857 mutiny, where on Pipal tree about 250 freedom fighter were hanged by the British occupation Government.
देश की स्वतंत्रता के लिए महिलाओं का योगदान पुरुषों से किसी भी मामले में कम नहीं है। बस्ती जनपद का अमोढ़ा राज्य भी शहादत की गाथाओं को संजोए हुए है। गोरखपुर-लखनऊ राजमार्ग पर बस्ती-फैजाबाद के मध्य बसे छावनी कसबे से महज एक किलोमीटर दूरी पर स्थित बस्ती जिले की अमोढ़ा रियासत एक जमाने में राजपूतों की काफी संपन्न रियासत हुआ करती थी। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाली महारानी तलाशि कुंवरि यहां आज भी लोगों के दिलों में ¨जदा है। उनकी वीरता की कहानियां युवा वर्ग के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। अमोढ़ा रियासत की अंतिम शासक महारानी तलाशि कुंवरि ने अंग्रेजों से लोहा लेते हुए अपनी जान की कुर्बानी दी थी।
स्वतंत्रता संग्राम में अमोढ़ा राज्य का गौरवशाली योगदान शीर्षक किताब में रानी की वीरगाथा लिखने वाले राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक हाकिम ¨सह कहते हैं कि रानी तलाश कुंवरि ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने से पहले ही बस्ती में स्वतंत्रता की अलख जगा दी थी। यही वजह है कि वह अंग्रेजों की कट्टर दुश्मन हो गई थीं।
अमोढ़ा के राजपुरोहित परिवार के वंशज पंडित बंशीधर शास्त्री ने काफी खोजबीन कर अमोढ़ा के सूर्यवंशी राजाओ की २७ पीढ़ी का व्यौरा खोजा है जिसके मुताबिक इसकी २४ वी पीढ़ी में जालिम सिंह सबसे प्रतापी राजा थे। उन्होने १७३२ -१७८६ तक राज किया । इसी वंश की छव्वीसवीं पीढ़ी में राजा जंगबहादुर सिंह ने १८५२ तक राज किया । अंग्रेजों से कई बार मोरचा लिया। उनका विवाह अंगोरी राज्य (राजाबाजार, ढ़कवा के करीब जौनपुर) के दुर्गवंशी दिखित राजपूत राजा की कन्या तलाश कुवर के साथ हुआ। वहां राजकुमाँरियों को भी राजकुमारों की तरह शस्त्र शिक्षा दी जाती थी। इसी नाते रानी बचपन से ही युद्द क ला में प्रवीण थीं।अमोढ़ा राज के खंडहर आज भी अपनी जगह खड़े हैं और रानी अमोढ़ा की बलिदानी गाथा का बयान करते हैं। वर्ष ९१५ ई के पहले अमोढ़ा में भरों का राज था, जिसे पराजित कर सूर्यवंशी राजा कंसनारायण सिंह ने शासन किया । उनके पांच पुत्र थे जिसमें सबसे बड़े कुवर सिंह ने अपना किला पखेरवा में स्थापित किया । आज भी यह उनके किले के नाम से ही मशहूर है। अमोढ़ा के किले और राजमहल के नीचे से पखेरवा तक चार किलोमीटर सुरंग होने की बात भी कही जाती है। उनके कु वर कहे जाते हैं तथा अमोढ़ा के इर्द गिर्द के ४२ गांव अपने आगे कुवर लगाते है । ये सभी काफी बागी गांव माने जाते रहे हैं। १८५८ के बाद इन गांवों पर अंग्रेजों ने भीषण अत्याचार किया गया । विकास की मुख्यधारा से ये गांव आज भी सदियों पीछे हैं।
रानी तलाश कुंवरी का जन्म दुर्गवंशी दिखित राजपूत परिवार में हुआ था उनका विवाह अमोड़ा के राजा जगं बहादुर सिंह कलहंस ( प्रतिहार राजपूतों की शाखा ) के साथ हुआ था। बस्ती-फैजाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर छावनी के निकट स्थित अमोढ़ा रियासत में सन १८५२ में पति राजा जंगबहादुर सिंह के निधन पर राजगद्दी की कमान १८५३ में संभाल लीं। इस बीच अंग्रेजों की नजर रानी के राज्य पर पड़ी। यह राज्य भी डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति का शिकार हो गया।रानी अमोढ़ा भी झांसी की रानी की तरह निसंतान थीं अंग्रेजों ने राज्य हड़पने की साजिश शुरू की, अंग्रेजों ने तरह-तरह से महारानी को परेशान करना शुरू कर दिया। जिसका रानी ने हर मोर्चे पर मुबाकला किया।
१८५७ के महान संग्राम में अमोढ़ा तो कालांतर में बागियों का मजबूत केन्द्र ही बन गया था,जहां बड़ी संख्या में तराई के बागी भी पहुंचे थे। अमोढ़ा की रानी ने इसी जनसमर्थन के बूते अंग्रेजो को लोहे के चने चबवा दिए। रानी तलाश कुंवरि ने १८५७ के क्रांति की खबर मिलने के बाद अपने भरोसेमंद लोगों के साथ बैठक कीं देशी सैनिकों ने बस्ती-फैजाबाद के सड़क और जल परिवहन अंग्रेजों के लिए ठप करा दिया था। रानी तलाश कुंवरि के प्रोत्साहन पर क्षेत्रीय नागरिकों ने अंग्रेजों की छावनी पर हमला बोल दिया था। अंग्रेजों ने नेपाली सेना की मदद ली। जनवरी १८५८ अंग्रेजी सेनाओं ने कर्नल रोक्राफ्ट के नेतृत्व में अमोढ़ा की ओर कूच की। जनवरी १८५८ में हुई लड़ाई में अंग्रेजों को हार का मुंह देखना पड़ा था।
नेपाली सेना की मदद से ५ जनवरी १८५८ को जब गोरखपुर पर अंग्रजो ने अपना कब्जा कर लिया तो उनका ध्यान बस्ती के दो सबसे बागी इलाको की ओर गया । इसमें अमोढ़ा भी एक था। अंग्रेजी सेनाओं ने रोक्राफ्ट के नेतृत्व में अमोढ़ा की ओर कूच किया पर दूसरी तरफ गोरखपुर से पराजय के बाद बागी नेता और सिपाही भी राप्ती पार कर बस्ती जिले की सीमा में पहुंचे और उन्होने उस समय के क्रांति के केन्द्र बने अमोढ़ा के ओर कूच किया । इससे बागियों की संख्या बढ़ गयी। लेकिन अंग्रेजों की लम्बी फिर भी रानी अमोढ़ा के नेतृत्व में अंग्रेजी फौजों को बागियों ने कड़ी चुनौती दी और अंग्रेजी सेना को करारी शिकस्त मिली। पर इस जंग में ५०० भारतीय सैनिक मारे गए।
इसके बाद हालात की गंभीरता को देखते हुए बड़ी संख्या में अंग्रेजी फौज और तोपें जब अमोढ़ा के लिए रवाना की गयी तो हरकारों के माध्यम से बागियों को यह खबर मिल गयी। बागी सैनिक पड़ोस के बेलवा क्षेत्र की ओर कूच कर गए और रानी अमोढ़ा ने भी अपनी रणनीति बदल कर हालत की समीक्षा की और खुद पखेरवा की ओर चली गयीं ताकि किले का जायजा लेकर बाकी तैयारियां कर ली जायें। लेकिन अंग्रेजों ने भी यहां काफी संख्या में खबरची और भेदिए तैनात कर दिए थे। इस नाते अंग्रेजों को जमीनी हकीकत को देखकर यह आभास हो गया था िक नदी के तटीय इलाको में बाढ़ की तरह फैली जन बगावत को आसानी से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। ऐसे में कर्नल रोक्राफ्ट ने नौसेना को भी बुला लिया। नौसेना का स्टीमर यमुना घाघरा नदी पर हथियारों के साथ तैनात रहा। सिख और गोरखे भी इन सैनिको की मदद के लिए पर्याप्त संख्या में तैनात थे। सारे तथ्यों का आकलन करके ही एक अन्य सैन्य अधिकारी ले.कर्नल ह्यूज ने गोंडा की ओर से आकर पखेरवा के करीब रानी पर हमला कर दिया। रानी तथा उनके साथी सैनिको ने बहुत ही बहादुरी से मोरचा संभाला और अंग्रेजी सेना को पीछे हटने के लिए विवश कर दिया। लेकिन इसी बीच कर्नल रोक्राफ्ट भी पूर्व नियोजित रणनीति के तहत बड़ी सेना के साथ वहां पहुंच गया। करीब हर तरफ से घेर ली गयीं रानी घबरायीं नहीं और उन्होने इस बड़ी सेना से मोरचा लेना जारी रखा। मर्दाना भेष में शत्रुओं के छक्के छुड़ा रही रानी का घोड़ा पखेरवा के पास ही घायल होकर मर गया। सैन्य व्यूहरचना को करीब से जाननेवाली रानी को जब यह आभास हो गया कि अब पराजय तय है तो वह पखेरवा किले पर पहुंच गयीं। अपने समर्थको और बागी सैनिको को उन्होने संबोधित करते हुए कहा कि -मैं समझ गयी हूं , अब इस राज्य के आखिरी दिन आ गए हैं। अंग्रेज हमें जीवित या मृत पकडऩा चाहते हैं...ऐसी नौबत अगर आ गयी तो मैं स्वयं अपनी कटार से अपनी जीवनलीला समाप्त कर दूंगी,पर आप लोग मेरी लाश को अंग्रेजों के हाथ नहीं पडऩे देना और जंग जारी रखना।यह दिन था २ मार्च १८५८ । रानी ने खुद अपनी कटार से अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी।
उनको दिए गए वचन के मुताबिक ग्रामीणों ने उनके शव को अमोढा राज्य की कुलदेवी समय भवानी का चौरा के पास दफना दिया और उसके ऊपर मिट्टी के एक टीला बना दिया। यह टीला १९८० तक रानी चौरा के नाम से ही मशहूर रहा और स्थानीय लोग इसकी देवी की तरह पूजा करते रहे।
पर १९८० में एक श्रद्धालु ने समय भवानी का मंदिर बनवाने का बीड़ा उठा लिया और ऐतिहासिक तथ्यों की अज्ञानता के नाते मंदिर विस्तार अभियान में रानी चौरा को भी उसी के साथ विलीन कर दिया। इलाके में ऐतिहासिक स्थलों के संरक्षण में लगे राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित पूर्व शिक्षक तथा समाजसेवी श्री हाकिम सिंह के मुताबिक उन्होने स्वयं दोनो चौरों को कई बार देखा था। दोनो मिट्टी के बने थे और वहां पर हर मंगलवार को मेला लगता है। रानी की शहादत की खबर तो अंग्रेजी खेमे तक पहुंच गयी थी। अंग्रेज अधिकारी बेडफोर्ट ने उनके शव की काफी तलाश की पर वह अंग्रेजों के हाथ नहीं पड़ी। पखेरवा में जहां रानी का घोड़ा मर गया था उसे भी स्थानीय ग्रामीणों ने वहीं दफना दिया। इस जगह पर एक पीपल का पेड़ आज भी मौजूद है। लोगों के लिए ये जगहें किसी बड़े श्रद्दा केन्द्र से कम नहीं हैं। रानी तलाश कुंवारी की मृत्यु के बाद शुरू हुआ अंग्रेजी सेना का दमनचक्र। लेकिन यह ऐतिहासिक तथ्य है कि रानी की शहादत के बाद इलाके में और भी अशांति फैल गयी। यहां ग्रामीणों ने खूनी क्रांति का श्रीगणेश किया तथा जगह-जगह अंग्रेजी फौज को चुनौती दी।
रानी अमोढ़ा की अपनी सेना में ८०० अफ़ग़ान, एक हजार सूर्यवंशी, ८०० विसेन, ३०० चौहान तथा कई अन्य जातियों के लोग थे। इसके अलावा रानी को स्थानीय किसानो और खेतिहर मजदूरों का जोरदार समर्थन भी काफी था क्योंिक अपनी जागीर में वह किसानो का खास ध्यान रखती थीं। रानी अमोढ़ा के सेनापति अवधूत सिंह भी काफी बहादुर थे। उन्होंने रानी की शहादत के बाद हजारों क्रांतिकरिओं को एकत्र कर ६ मार्च १८५८ को अमोढ़ा तथा बाद में अन्य स्थानो पर युद्द किया । वह अपने साथियों के साथ बेगम हजरत महल को नेपाल तक सुरक्षित पहुंचाने भी गए थे। पर वापस लौटने पर अंग्रेजों के हाथ पड़ गए और छावनी मे पीपल के पेड़ पर उनको फांसी दे दी गयी। उनके वंशजों में राम सिंह ग्राम बभनगांवा में आज भी रहते हैं।
सूर्यवंशी राजपूतों के गांव शाहजहांपुर के क्रांतिकरिओं ने अंग्रेजों की छावनी पर हमला करने तक का दुस्साहस उस समय किया । इस घटना के बाद १८५८ में इस गांव का नाम ही गुंडा कर दिया गया। आज भी आजादी के ७२ साल के बाद यह गांव गुंडा कुवर के नाम से जाना जाता है ।
छावनी के पास रामगढ़ गांव में अंग्रेजों का मुकाबला करने की रणनीति बनाने के लिए १७ अप्रैल १८५८ को एक बड़ी बैठक बुलायी गयी थी,जिसमें रामगढ़ के धर्मराज सिंह, बभनगांवा के अवधूत सिंह, गुंडा कुवर के सुग्रीव सिंह, बेलाड़ी के ईश्वरी शुक्ल, घिरौलीबाबू के कुलवंत सिंह, हरिपाल सिंह, बलवीर सिह, रिसाल सिंह, रघुवीर सिंह, सुखवंत सिह,रामदीन सिंह, चनोखा (डुमरियागंज) के जयनारायण सिंह,अटवा के जय सिंह, जौनपुर के सरदार मुहेम सिंह तथा मुशरफ खान, गोंडा के भवन सिंह, करनपुर (पैकोलिया) के रामजियावन सिंह, दौलतपुर के लखपत राय आदि मौजूद थे। बैठक भविष्य में अंग्रेजों के खिलाफ जनक्रांति को कैसे चलाया जाये इसे केन्द्र में रख बुलायी गयी थी। लेकिन इसकी सूचना लेफ्टीनेंट कर्नल हगवेड फोर्ट तक पहुंच गयी और उसने सेना की एक टुकड़ी लेकर यहां धावा बोल दिया । इस हमले में बाकी रणबांकुरे तो बच निकले लेकिन धर्मराज सिंह पकड़ मे आ गए। हगवेड ने उनकी कमर मे कटीला तार बांधकर खुद घोड़े पर बैठ कर उनको घसीटते हुए ले गया। छावनी के उत्तर दिशा की ओर जाते समय उसकी कटार अचानक नीचे गिर गयी।
उसने धर्मराज सिंह को ही यह कटार उठाने का हुक्म दिया। लेकिन बागी धर्मराज ने उसी कटार से हगबेड की जीवनलीला समाप्त कर दी। हगवेड की समाधि छावनी में ही बनी हुई है,जिस पर उसकी शहादत का शिलालेख भी अंग्रेजों ने लगाया है। उसी के पास ही धर्मराज सिंह की शहादत का शिलालेख भी शहीद स्मारक समिति बस्ती के संयोजक सत्यदेव ओझा की मदद से लगाया गया है। हगवैड की हत्या के बाद पूरा इलाका अंग्रेजों के आक्रोश की चपेट में आ गया। लेकिन इसी दौरान बेलवा इलाके में कई हिस्सों से बागी पहुंचे और उनके जोरदार मोरचे से कर्नल रोक्राफ्ट इतना भयभीत हो गया कि वह उधर जाने की हिम्मत नहीं कर पाया। अप्रैल १८५७ के अंत में वह कप्तानगंज लौट आया,जबकि इस बीच में बागी नाजिम मोहम्मद हसन ४००० सैनिको के साथ अमोढ़ा पहुंचा और वहां पर पहले से ही एकत्र देसी फौजों और स्थानीय बागियों के साथ अपनी ताकत को भी जोड़ दिया। इनके दमन के लिए अब मेजर कोक्स के नेतृत्व में बड़ी सेना वहां भेजी गयी जिसने बागियों को अमोढ़ा छोडऩे को विवश कर दिया। १८ जून १८५८ को मोहम्मद हसन पराजित हुआ। पर घाघरा के किनारे आखिरी साँस तक लडऩे के लिए बहुत बड़ी संख्या में बागी डटे हुए थे। उस समय की एक सरकारी रिपोर्ट कहती है-नगर तथा अमोढ़ा को छोड़ कर बाकी शांति है......घाघरा के तटीय इलाके में बड़ी संख्या में बागियों की मौजूदगी है....
बागियों की रामगढ़ की गुप्त बैठक में शामिल सभी लोग जल्दी ही पकड़े गए और इन सबको बिना मुकदमा चलाए फांसी पर लटका दिया गया। जो भी नौजवान अंग्रेजो की पकड़ में आ जाता उसे छावनी में पीपल के पेड़ पर रस्सी बांध कर लटका दिया जाता था। इसी पीपल के पेड़ के पास एक आम के पेड़ पर भी अंग्रेजों ने जाने कितने लोगों को फांसी दी। इस पेड़ की मौजूदगी १९५० तक थी और इसका नाम ही फंसियहवा आम पड़ गया था। पीपल का पेड़ तो खैर अभी भी है पर आखिरी सांस ले रहा है।
इस जगह पर एक पीपल का पेड़ आज भी मौजूद है लोगों के लिए यह जगह श्रद्धा का केन्द्र है। शहीद स्थल पर दर्ज है क्रांतिकारियों के नाम छावनी शहीद स्थल का निर्माण वर्ष १९७२ में प्रदेश सरकार ने कराया था। यहां एक तरफ शिलालेख पर महारानी का जीवन परिचय लिखा है तो दूसरी तरफ शहीदों का नाम अंकित है। हालांकि शिलालेख में सिर्फ १९ शहीदों के ही नाम अंकित है, हाकिम ¨सह कहते है कि उन्होंने और भी शहीदों के नामों की जानकारी हासिल की है। बाकी लोगों के भी नाम खोजने का प्रयास जारी है। जिस दिन यह काम पूरा हो जाएगा उस दिन छावनी के शहीदों को बस्ती की तरफ से सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
इस स्थल पर करीब ५०० लोगों को फांसी दी गयी। बड़ी संख्या में रानी के सैनिक पकड़े गए। मुकदमे का नाटक कर अंग्रेजों ने डेढ़ सौ सैनिकों को छावनी में पीपल के पेड़ से लटका कर मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेजों का खौफ इतना था कि माह भर पेड़ से शहीदों के शव लटके रहे, चील कौवे खाते रहे लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि शवों को उतार ले। अंग्रेजो ने इलाके में दमन राज कायम करने के साथ रानी की सारी संपत्ति छीन ली और इसे बस्ती के राजा शीतला बख्श सिंह की दादी रानी दिगंबरि को इनाम में दे दी गयी।
अंग्रेजों ने प्रतिशोध की भावना से गांव के गांव को आग लगवा दी और इसमें गुंडा कुवर तथा महुआ डाबर सर्वाधिक प्रभावित रहे। इन गांवो से काफी संख्या में लोगों का पलायन भी हुआ। ग्राम रिघौरा के विंध्यवासिनी प्रसाद सिंह, सिकदरपुर के गुरूप्रसाद लाल, भुवनेश्वरी प्रसाद तथा लक्ष्मीशंकर के खानदानकी जायदाद बगावत में जब्त हो गयी थी। पर बलिदानी परिवारों की संख्या हजारों में है। १८५८ से १९७२ तक छावनी शहीद स्थल उपेक्षित पड़ा था।
१९७२ में शिक्षा विभाग के अधिकारी जंग बहादुर सिह ने अध्यापको के प्रयास से एक शिलालेख लगवाया और कई गांव के लोगों से इतिहास संकलन का प्रयास किया । इसी के बाद कई शहीदों के नाम प्रकाश में आए जिनको शिलालेख पर अंकित किया गया। पर इस स्मारक की दशा बहुत खराब है। बस ३० जनवरी को शहीद दिवस पर यहां एक छोटा मेला लग जाता है,दूसरी ओर अमोढ़ा किला तथा राजमहल भी भारी उपेक्षा का शिकार है। इसके खंडहर पर दो शिलालेख लगे हैं, जिसमें एक में राज्य की बलिदानी भूमिका की जानकारी मिलती है। पर इस स्थल के सुन्दरीकरण के लिए न के बराबर कार्य किया गया है।
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