Thursday, April 29, 2021

FORGOTTEN SAGA OF CHANDERI

  पग पग पर लाल न्यौछाबर हुए।

बजासे लाल भई जा चन्देरी की माटी।।


मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले में स्थित चंदेरी एक छोटा लेकिन ऐतिहासिक नगर है। मालवा और बुन्देलखंड की सीमा पर बसा यह नगर शिवपुरी से १२७ किलोमीटर, ललितपुर से ३७ किलोमीटर और ईसागढ़ से लगभग ४५ किलोमीटर की दूरी पर है। बेतवा नदी  के पास बसा चंदेरी पहाड़ी, झीलों और वनों से घिरा एक शांत नगर है, जहां सुकून से कुछ समय गुजारने के लिए लोग आते हैं। राजपूतों और मालवा के सुल्तानों द्वारा बनवाई गई अनेक इमारतें यहां देखी जा सकती है। इस ऐतिहासिक नगर का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। ११वीं शताब्दी में यह नगर एक महत्वपूर्ण सैनिक केंद्र था और प्रमुख व्यापारिक मार्ग भी यहीं से होकर जाते थे।

प्रतिहार नरेश कीर्तिपाल द्वारा स्थापित कीर्तिदुर्ग (चंदेरी,मध्यप्रदेश) 

वर्तमान चंदेरी शहर की स्थापना के कई दिलचस्प अवलोकन हैं। जिसमें एक अनुवर्ती आपको प्रस्तुत किया जाता है। कई शताब्दियों तक यह दुर्ग प्रतिहार राजपूतों के नियन्त्रण में रहा, चन्देरी राज्य की स्थापना १०वीं शताब्दी में हुई थी और तभी इस चंदेरी दुर्ग का निर्माण हुआ। ११ वीं शताब्दी ईस्वी में, पुराने चंदेरी के उत्तराधिकारी प्रतिहार वंश का शासक कीर्तिपाल था। कदवाहा अभिलेख में कीर्तिपाल को सूर्यवंशी बतलाया है। महाराज कीर्तिपाल कुष्ठ रोग से घातक हो गए थे, और इसी कारण से उन्हें कूर्मदेव के नाम से भी जाना जाता था। एक दिन, कुर्मदेव शिकार करने के लिए जंगल में गए। शिकार करते हुए, वह बहुत दूर और प्यासा हो गया, उसने पानी की तलाश शुरू कर दी। जब राजा ने एक पेड़ पर देखा, तो उसने देखा कि कुछ पक्षी आकाश में तैर रहे हैं। जिससे उन्हें विश्वास था कि वहां पानी उपलब्ध होगा। जब वह उस स्थान पर पहुंचा, तो उसने पानी का एक स्रोत देखा। महाराज कूर्मदेव घोड़े से उतरे और पानी में चले गए और उन्होंने अपने हाथ पानी से धोए, तब वह आश्चर्यचकित थे कि उनका कुष्ठ रोग समाप्त हो गया। उसके बाद उसने अपने कपड़े उतार दिए और पूरा स्नान किया, फिर उसकी पूरी बीमारी खत्म हो गई। यह चमत्कारी स्थान और कोई नहीं भगवान टांडा लक्ष्मण जी मंदिर चंदारी था। तब उन्होंने इस स्थान पर अपना निवास स्थान बनाने का फैसला किया।

तब उन्होंने चंडारी की पहाड़ी पर एक कीर्तिदुर्ग, एक कीर्तिसागर और एक कीर्तिनारायण मंदिर का निर्माण किया। सफल प्रतिहार वंश के तेरह राजकुमारों का वर्णन "चंदेरी क्षेत्र के उत्तराधिकारी प्रतिहार वंश के शासक" के पिछले पोस्ट में किया गया है। महाराजा कीर्तिपाल इस वंश के सातवें शासक थे। वर्तमान चंद्र नगर की स्थापना किसने की। इस वंश के अंतिम शासक जैतवर्मन का एक शिलालेख चंदारी से लिया गया है, जिसमें चंदेरी (तब चंद्रपुर नाम दिया गया था) में कीर्तिदुर्ग, कीर्तिसागर और कीर्तिनारायण मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। कीर्ति नाम के आधार पर, पुरातत्वविदों ने इसे कीर्तिपाल द्वारा निर्मित किया जाना बताया है।

इस वंश के कई शिलालेख चंदारी, कदवाहा, थूबोन और पचराई से प्राप्त हुए हैं। इस आधार पर, इस राजवंश का राज्य इन क्षेत्रों में कहीं अधिक विस्तृत माना जाता है। वी। सी। १०४० ईस्वी सन् (१०८३ ई।) के महाराज हरिराज का ताम्र पत्र, १०५५ ई। (९९८ ई।) का थुबन पत्थर लेख, १० वीं -११ वीं शताब्दी ईस्वी के शिलालेख, कदवाहा (इसहागढ़), महाराजा रणपाल का शिलालेख। पचराई (शिवपुरी) के श्री शांतिनाथ मंदिर से प्राप्त देव ११०० (ईस्वी सन् १०४३ ई।) से प्राप्त हुआ। ११२२ (ईस्वी सन् १०६५ ईस्वी) का शिलालेख, चंदेरी से लगभग १२ वीं शताब्दी ईस्वी का एक पत्थर का लिबास और १३ वीं शताब्दी ईस्वी सन् के बारे में जैतुरुवर्मन के शिलालेख प्राप्त होते हैं।

इस वंश की कई ऐतिहासिक गतिविधियों की जानकारी के साथ, उपरोक्त कई शिलालेखों से इस वंश के सभी तेरह शासकों की जानकारी मिलती है। कुछ समय पहले, चंदारी के खंडगिरि जी मार्ग की खुदाई में एक जैन मठ की खुदाई हुई है, जिस पर १३३२ (१२७५ ईस्वी) का वी। शिलालेख अंकित है। जिसमें चंदेरी कीर्तिदुर्ग के एक नए शासक विसलदेव के बारे में जानकारी प्राप्त हुई है। जो अपने पूरे राजबल के साथ इस मंतपंभ में उपस्थित थे।

 वी.वी. नरवर के किले से १३५५ (१२९८ ई।) के शिलालेखों के अनुसार, राजा गोपालदेव के पुत्र गणपति ने कीर्तिदुर्ग पर विजय प्राप्त की। हरिहर निवासी द्विवेदी ने चंदेरी के कीर्तिददुर्ग से कीर्तिदुर्ग की पहचान की है। द्विवेदी के अनुसार, १२९१ ईस्वी में, गोपालदेव ने चंदेरी जीता।

 साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर, १४ वीं शताब्दी ईस्वी की शुरुआत में यह किला अलाउद्दीन के नियंत्रण में आ गया। साक्ष्य के आधार पर (शिलालेखों के आधार पर) १३१२ ई। में, मोहम्मद शाह के सूबेदार तामार सुल्तानी के कब्जे में, १३९२ ई। में, मुगश शाह पुत्र फिरोज शाह की सूबेदार खोरी गोरी, होशंगशाह, महमूद खान खलजी, गयासुद्दीन खिलजी, नसीरशाह के बाद अब्दुल मुजफ्फर, महमूदशाह खिलजी द्वितीय, १५२० ई। में, अहमद शाह के नियंत्रण में, १५२४ ई। में इब्राहीम, शंकरदास लोदी के पुत्र, शेरफ-उल-मुल अधिकार।

 इसके बाद, चंदारी का स्वतंत्र शासक बन गया। जिनको २८ जनवरी, १५२८ में बाबर ने हराया था। तब महारानी मणिमाला ने लगभग १६०० राजपूत महिलाओं के साथ जौहर किया था। तब से, चंदेरी पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध है। जिनकी याद में किले के पास एक जौहर स्मारक बना है, जो २० वीं शताब्दी के आसपास बना है। मदिनाराय से, यह किला और क्षेत्र मुगल साम्राज्य का हिस्सा बन गया। मेदिनीराय और मणिमाला जौहर गाथा के पद का विस्तृत विवरण नीचे दिया है।

 मुगलों से, यह किला लगभग १६०५ ईस्वी के ओरछा के बुंदेला शासक रामशाह को दिया गया था। तब इस किले की हालत बहुत दयनीय थी। रामशाह ने किले की मरम्मत की है। इसके कारण, इस किले का ऊपरी हिस्सा बुंदेला वास्तुकला की झलक दिखाता रहा। लगभग १६१२ ई। में रामशाह अपने परिवार के साथ इस किले में रहने के लिए चंदारी आया था। तब से यह किला बुंदेला शासकों के शासन में था। रामशाह के बाद, बुंदेला शासकों ने १७ वीं शताब्दी ईस्वी में इस किले के पास हवा महल और नखंदरा महल का निर्माण किया। इस क्षेत्र के बाद रामशाह, संग्रामशाह, भरतशाह, देवीसिंह, दुर्गासिंह, दुर्जनसिंह, मानसिंह, अनिरुद्धसिंह, रामचंद्र, प्रजापाल, मोरपालगढ़ और राजा मुरादीनसिंह बुंदेला शासक थे। इसके बाद, यह क्षेत्र १९४७ तक सिंधिया राज्य का हिस्सा था।

मेदिनी राय चंदेरी राज्य का राजपूत शासक था। वह राणा सांगा के सबसे प्रतिष्ठित सेनानायकों में से एक था।

लगभग सन् १५२७ में मेदिनी राय नाम के एक राजपूत सरदार ने चंदेरी में अपनी शक्ति स्थापित की। उस समय तक अवध को छोड़ सभी प्रदेशों पर मुगल शासक बाबर का प्रभुत्व स्थापित हो चुका था।

मेदिनीराय का वास्तविक नाम रायचन्द था, जिन्हें महाराजा संग्रामसिंह (राणासांगा) ने मेदिनीराय की उपाधि से सम्मानित किया था। तभी से रायचन्द मेदिनीराय से विख्यात् हुए। अपने शुरुआती वर्षों में, मेदिनी राय ने मालवा के सुल्तान महमूद द्वितीय की सेवा की और उसे अपने शासन को मजबूत करने में मदद की। महमूद ने उसे अपने दरबार में मंत्री नियुक्त कर दिया। मेदिनी राय ने उत्तरदायित्व के पदों पर हिंदुओ को नियुक्त किया। दरबार में अपना प्रभाव घटते देख कर मालवा के दरबारियों ने उसके विरुद्ध सुल्तान के कान भरे तथा गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह की सहायता से मेदिनी राय को पदच्युत करवा दिया।

विश्वासघात का पता चलने पर, मेदिनी ने चित्तौड़ के राणा सांगा से मदद मांगी और राणा के साथ मिलकर उन्होंने मालवा-गुजरात सेनाओं को हराया और राणा साँगा के अधिपत्य के तहत चेन्देरी सहित पूर्वी मालवा के राजा बन गए। राजपूतों ने महमूद को पकड़ कर अपने सरदारों के संमुख उपस्थित किया। छः महीने बाद राणा सांगा ने वंशानुगत राजपूतोचित दयालुता के कारण महमूद को क्षमा कर दिया तथा मेदिनी राय की सहमति से उसका राज्य उसे वापस लौटा दिया।

चंदेरी पर कब्जा करने से दिल्ली के शासकों को झटका लगा क्योंकि वे राजपूतों से मालवा पर आक्रमण करने की उम्मीद नहीं कर रहे थे। इसके कारण लोदी साम्राज्य और मेवाड़ साम्राज्य के बीच कई झड़पों और लड़ाईयों की शृंखला शुरू हुई। मेदिनी राय ने राणा साँगा को इन लड़ाइयों में सक्रिय रूप से मदद की और उन्हें विजयी होने में मदद की। युद्ध के बाद राणा साँगा का प्रभाव आगरा के बाहरी इलाके में एक नदी पिलिया खार तक फैल गया। मेदिनी राय ने भारत के सुल्तानों के खिलाफ कई अभियानों में राणा साँगा की सहायता की।


चंदेरी युद्ध और महारानी मणिमाला एंव अन्य राजपूत वीरांगनाओं का जौहर करना



आज से ५०० वर्ष पूर्व जहां राजपूती तलवारों की शान में एक और अध्याय अपनी तरफ से आज भी जोड़ रखा है।। 

ये वह शौर्य की गाथा, जब सन १५२८ ईस्वी में चंदेरी की भूमि युद्ध की साक्षी बनने वाली थी। चन्देरी के इतिहास में हिन्दू क्षत्रिय वीरों में मेदिनीराय और बाबर का युद्ध चिरस्मरणीय है। इस युद्ध से प्रज्जवलित हुई ज्वालाएँ आज भी चन्देरी के ऐतिहासिक पृष्ठों पर धधक रहीं हैं। भारत में मुगल आक्रमण इसके इतिहास में नये अध्याय को जोड़ता है। पानीपत की पहली लड़ाई में मुगल बादशाह बाबर का हिंदुस्तान की धरती पर कदम रखना इस बात का संकेत था कि भारत फिर से गुलाम होने वाला था विदेशियों के हाथों। पानीपत और खानवा के युद्ध में विजयी होने के बाद बाबर भारत में अपना पांव पसारने की रणनीति बना रहा था। मकसद था इस दुश्मनों को कुचल देना और इस मकसद का अगला निशाना था राजा मेदनीराय, जिसके साथ चंदेरी का युद्ध लड़ा गया।


शत्रु मित्र भी शत्रु होता है

खानवा के युद्ध में राणा सांगा के घायल होने के बाद वह युद्ध के मैदान में पीछे हट गया था। बाबर विजयी हुआ। राणा सांगा के साथ जो अन्य राजा युद्ध में बाबर के खिलाफ लड़ रहे थे, वह अब बाबर की आंखों की किरकिरी बने हुए थे। दुश्मन की मदद करने वाला भी दुश्मन होता है, इसी नजर से बाबर उन सब को देख रहा था, जिन जिन ने खानवा के युद्ध में मुगल सेना पर हथियार उठाए थें। चंदेरी के राजा मेदनीराय भी खानवा की लड़ाई में राणा सांगा की तरफ से लड़े थे। राणा सांगा के पीछे हट जाने के बाद मेदनी राय समेत सभी राजा अपने-अपने किलो की सुरक्षात्मक दृष्टिकोण को देखते हुए वापस लौट गए थे। मालवा लौटकर मेदनीराय अपने साम्राज्य की सुरक्षा के प्रति चिंतित रहने लगे थे, क्योंकि उन्हें भी मालूम था, बाबर आज नहीं तो कल पलटकर चंदेरी की तरफ रुख जरूर करेगा। हुआ भी कुछ यही, बाबर ने चंदेरी पर हमला करने का मन बना ही लिया।


चंदेरी पर आक्रमण के थें कई कारण


चंदेरी पर आक्रमण करने के कई अन्य कारण भी थे। शत्रु का ममददगार होने के अलावा चंदेरी उस वक्त काफी संपन्न राज्य था। चंदेरी का किला उस दौर के सबसे सुरक्षित किलो में माना जाता था। इसके अलावा चंदेरी रेशम मार्ग व्यापार के लिए भी एक महत्वपूर्ण शहर था। इस पर आक्रमण करके बाबर इस रास्ते से होने वाले रेशम के व्यापार पर पूरी तरह से नियंत्रण रख सकता था, जो उसके लिए बहुत ज्यादा लाभकारी था।


बाबर ने मेदनी राय को संदेश भिजवाया कि चंदेरी का किला मुगलिया हुकूमत के सामने पेश करे और बदले में बाबर के जीते हुए किसी भी किले को अपना बना ले। अपने स्वाभिमान की लगी बोली से राजा मेदनीराय बिल्कुल भी खुश नहीं हुआ और उसने ना में जवाब दिया। इस इनकार ने मुगल हुकूमत को बहाना दे दिया चंदेरी पर आक्रमण करने का। 


एक रात में बीचो-बीच काट डाली पहाड़ी

२७ जनवरी १५२८ ई. की सुवह होने वाली थी। चारों ओर शान्त वातावरण में प्रकृति सोई हुई थी। सूर्य उदय के साथ अचानक रणवाद्य बजने लगते हैं। कीर्तिदुर्ग के प्रहरी सजग हो जाते हैं। वह दृष्टि उठाकर देखते हैं तो उत्तर दिशा से धूल का बवंडर चन्देरी की ओर बढ़ा चला आ रहा था। महाराजा मेदिनीराय ने चारों ओर निरीक्षण किया तो ज्ञात हुआ कि चन्द्रगिरि (वर्तमान चन्देरी नगरी) को बाबर की तापों से सज्जित सेना ने चारों ओर से घेर लिया है। तभी एक प्रहरी ने आकर महाराज मेदिनीराय को सूचना दी कि तुर्क सैनिक बाबर का पत्र लेकर आया है। मेदिनीराय ने पत्र लेकर पढ़ा - कि तुम राणासांगा की मित्रता को त्यागकर मेरे मातहत (गुलाम) बन जाओ। मैं तुम्हें एक दिन का अवसर देता हूँ, इससे ज्यादा रियायत नहीं दूगाँ। खानवा के युद्ध में तुम देख चुके हो। समय रहते समझ जाना काबलियत की निशानी है। अब अपनी अक्ल से काम लेना अपनी औकात को भी नजर अंदाज न करना। 

इस युद्ध की सूचना राणासांगा को भेजी जा चुकी थी, तभी दूसरा प्रहरी राणासांगा (महाराज संग्रामसिंह) का पत्र लेकर आया। पत्र को पढ़कर मेदिनीराय को ज्ञात हुआ कि राणासांगा इस युद्ध में भाग नहीं ले पायेंगे। क्योंकि राणासांगा जो मेदिनीराय के धर्म पिता थे उनका स्वर्गवास हो चुका था। राणासांगा ने अपने अंतिम पत्र में मेदिनीराय से इस युद्ध में भाग न ले पाने की क्षमा याचना लिखी। पत्र को पढ़कर भाव विभोर राणासांगा के मानस पुत्र मेदिनीराय ने संकल्प लिया - 

हे धर्म पिता आपका मानस पुत्र रक्त की सरिता मं स्नान कर तुर्कों के रक्त को अंजुली में भरकर आपका तर्पण करेगा। उसी से आपकी आत्मा तृप्त होगी। तभी बाबर के विशेष दूत जो पत्र लेकर आये थे उन्होंने जबाव माँगा। तो मेदिनीराय ने कहा - 

कोट नवै, पर्वत नवै, माथौ नवाये न नवै।
माथौ सन जू को जब नवै, जब साजन आये द्वार।।

असंभव . . . . . .। मेदिनीराय क्षत्रिय है, भारत के इतिहास में क्षत्रिय भेंट नहीं लेते हैं . . . . फिर सर्मपण क्या होता है। यही हमारा इतिहास है। बाबर भाग्य का धनी है कि राणासांगा इस दुनिया से चले गये। जाओ बाबर को बता दो, दोनों की सेनाओं को क्यों नाहक मरबाता है। हम दोनों मैदान में निपट लेते हैं। जो हार जाये वह हार स्वीकार कर लेगा। बाबर यदि वीर है तो आमने-सामने का युद्ध हो जाये। तोपों की आग क्या दिखलाता है . . . । जितनी आग उसकी तोपों में है, उतनी गर्मी तो हर दिन्द के क्षत्रिय के खून में होती है. . . . .।

बाबर के दूत ने कहा - महाराज ये सियासत नहीं है। आप सियासत की बात करें। तो मेदिनीराय ने सुन्दर जबाव दिया - 

लूटेरों से सियासत की क्या बात करूँ . . . ? 

कह दो जो दूसरों के घर जलाता फिरता है उससे क्या बात करूँ . . .। 

कह दो बाबर से हम युद्ध करेंगे। महाराज मेदिनीराय ने युद्ध की घोषणा कर दी। 

बाहर रणवाद्य बजने लगते हैं और राजपूतों की भुजाएँ फड़क उठती है। 

मेदिनीराय महारानी मणिमाला से विदा लेने आते हैं। प्रिय यह हमारे जीवन का अंतिम मिलन और अंतिम विदा . . .। तब महारानी का भाव विभेर सुन्दर जबाव - संसार में भारतीय नारी के सुहाग को मिटाने वाली शक्ति कौन-सी है ? हाँ इतना अवश्य है कि हमारा आधा अंग (महाराज मेदिनीराय) युद्ध की ओर जा रहा है। यदि कहीं वह रणचण्डी का प्रिय हो जाता है (अर्थात् महाराज वीरगति को प्राप्त होते हैं) तो अबिलम्ब यह दूसरा अंग (महारानी मणिमाला) भी अग्निमार्ग से अपने पथ से अपने आधे अंग से जा मिलेगा। फिर आप कैसे कह सकते हैं कि यह हमारा अंतिम मिलन है।

महारानी ने सैनिकों को संबोधित किया - बन्धुओं, पराधीनता के राज्य का यश, वैभव, हैय और कलंक की कालिमा में लिपटे सुख हैं। क्षणिक सुख के लिए हम अपनी जाति, धर्म और देश की प्रतिष्ठा को बंधक नहीं बना सकते। जीवन-मरण तो ईश्वर के साथ है, हम उसे नहीं रोक सकते। जब मरना निश्चित है तो मरने पर भी अमरपद मिल सके। ऐसी मौत तो मातृभूमि के लिए उत्सर्ग करने से ही मिलती है . . . .। तो आओ चलें महाकाल के चरणों में अमरपद प्राप्त करें। 

अब क्षत्रिय और तुर्की दोनों सेनाएँ आमने-सामने, हर-हर महादेव के जय घोष के साथ क्षत्रिय प्राणों को भूलकर शरीर की ममता को त्याग मौत का खुला आलिंगन करने के लिए मचल कर तुर्की सेना पर अूट पड़े। भले ही राजपूत सेना का संख्या बल कम था पर पहले ही हमले में बाबर की सेना की अग्रिम पंक्ति के सैनिक मारे गये। बाबर के सेनापति ने सैनिकों को बहुत उकसाया, साहस दिलाया लेकिन तुर्की सैनिक पीछे हटने लगे। इस युद्ध में बुन्देलखण्ड के राव, सामंत और लडाकू वीर क्षत्रिय युद्ध के आमंत्रण पर स्वेच्छा से मातृभूमि पर प्राणोत्सर्ग करने आ पहुँचे। महाराज मेदिनीराय ने हुँकार भरते हुए माँ चामुण्ड़ा का जयकारा लगाया। क्षत्रिय सेना वीरता और बलिदान के उभार पर आ गई और तुर्की सेना में हाहाकार मच गया। पानीपत और खानवा के युद्ध का विजेता बाबर भी क्षत्रियों क विकट युद्ध से भयभीत हो गया। इस विपरीत परिस्थिति को देख वह पीछे हट गया और खच्चर की गाड़ियों पर लदी तोपों को आगे बढ़ा दिया। बाबर ने घुड़सवारों को दांये-बायें से आक्रमण करने का हुक्म दिया। मानो भेड़िये सिंहों को घेरने की कोशिश कर रहे हों। युद्ध के नवीन आक्रमण से सिंहों की गति अवरुद्ध हो गई। तोपों के सामने क्षत्रियों की सेना का यह प्रथम युद्ध था। तोपों की मार से चीख-पुकार बढ़ी तो कढ़ती ही गई। इस प्रकार मेदिनीराय की आधी सेना ने तुर्कों की चौगुनी सेना को मारकर वीरगति प्राप्त की। संध्या काल में युद्ध समाप्त हुआ। मेदिनीराय अपनी सेना को लेकर दुर्ग वापस लौटे आये। 

दिन समाप्ति पर बाबर ने चैन की सांस ली और खुदा का शुक्र अदा किया कि राणासांगा मर गया नहीं तो बेतवा के किनारे ही हमारी कब्र बनती। बाबर ने अपने सेनापति व सहयोगियों से मंत्रणा की कि बताओ क्षत्रियों के जुनून के आगे हमार जीत कैसे हो ? तभी बाबर के सेनापति ने कहा गुलाम के रहते आलमपनाह को तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं है। आज ही आधी रात को मेदिनीराय का साथी अहमद खाँ नगर का द्वार खोल देगा और हम रात में ही हमला करेंगे। 

उधर महारानी मणिमाला, मेदिनीराय के घावों पर मरहम लगा रहीं थी और महाराज को विश्राम करने का निवेदन किया। तो मेदिनीराय ने कहा कि अब तो विश्राम रणांगन में ही होगा। तभी हाँफते हुए मेदिनीराय का सेनापति आया कि अहमद खाँ ने नगर का द्वार घोल दिया और बाबर की सेना नगर में प्रवेश कर गई है। मेदिनीराय झटके के साथ उठे और पीछे मुड़कर बस इतना कहा विदा . . . . अंतिम विदा मणि . . . और बाहर निकल गए। महारानी कर्त्तव्यविमूढ़ होकर देखती रही। 

महाराज मेदिनीराय ने नगर के बीच में आकर शंखध्वनि का उद्घोष किया। वीरो मरणहोम में यदि जीवन की आहूति नहीं गिरी तो पुण्य नहीं मिलेगा, कीर्ति मंद पड़ जायेगी। अतएव हमें अपराजेय योद्धा की तरह ही तांडव के ताल पर मृत्यु के साथ नृत्य करना है। रणचण्ड़ी के चरणों में रक्त का अर्घ समर्पित करने का आज सुअवसर है। 



हर-हर महादेव के घोष के साथ क्षत्रिय तुर्कों पर टूट पड़े। तिल-तिल बढ़ना अब तुर्कों के लिए मौत का खुला खेल था। इस परिस्थिति से घबरा कर बाबर ने पुनः तोपों को चलाने का हुक्म दिया। तोपों को रोकने के लिए मेदिनीराय बढ़े तो बढ़ते ही रहे। अब चन्देरी नगर के आकाश में चारों ओर धुआ और धूल के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। दोनों ओर की सेनाओं में अंधाधुंध तलवारे चल रहीं थी। अचनक मेदिनीराय घायल होकर भूमि पर गिर पड़े। महाराज के विशेष सहयोगी मेदिनीराय को उठाकर दुर्ग की ओर बढ़ गये। 

बाबर की सेना ने नगर में आग, लूट और हत्या का तांडव करना प्रारम्भ कर दिया। बाबरनामा के अनुसार चन्देरी नगर में हुए नरसंहार का आकलन करने के लिए बाबर ने मरे हुए राजपूतों के सिर कटवाकर उनकी मीनार (टीला) बनवाया और उस पर अपना झण्ड़ा गाढ़ दिया। मेदिनीराय जैसे ही होश में आये तो दुर्ग से नरमुण्ड़ों पर गढ़ा तुर्कों का ध्वज देखकर चीखकर अपने आपको धिक्कारने लगा। मेरे रहते मेरे नगर पर तुर्कध्वज फहरा रहा है। तभी महारानी मणिमाला ने धनुष उठाकर उस ध्वज के चिथड़े उड़ा दिये। इसी बीच द्वारपाल आया और महाराज से कहा कि महाराज द्वार पर बाबर के दूत आये हैं और संधि करने का प्रस्ताव लाये हैं। कि महल खाली कर दो और चन्देरी के बदले शमशाबाद ले लो। चारों ओर सन्नाटा छा जाता है। तभी मणिमाला अपने वीरों को संबोधित करती हैं। कि यह समय हित-अहित विचारने का नहीं है। मृत्यु तो अवश्यम्भावी है। चाहे वह शयन कक्ष में आये सा रणभूमि में . . .। संधि करने का हक न तो महाराज के पास है न ही पंचों के पास। यदि संधि करनी थी तो हमारे वीरों को मरवाया क्यों ? क्या जबाव देंगे उन माताओं को, उन विधवाओं को जिन्होंने अपने लाल और वीरों को रणचण्ड़ी को भेट कर दिये। नहीं अब समझौता नहीं होगा। हम अपने कुल को कलंकित नहीं होने देंगे। अब अंतिम युद्ध होगा। यह सुनकर सभी ने एक स्वर में बोला हाँ अब अंतिम युद्ध होगा। 

महाराज मेदिनीराय ने खड़े होकर कहा हाँ अब अंतिम युद्ध होगा। जो अपनी स्वेच्छा से युद्ध में चलना चाहते हैं वह केशरिया धारण कर लें तथा जो युद्ध में नहीं जाना चाहते वह दुर्ग से बाहर निकल जाये। दुर्ग से निकलने की व्यवस्था कर दी गई है। महाराज अंतिम युद्ध पर जाने के लिए चन्द्रगिरि के दुर्ग पर मरणोत्सव पर्व की तैयारियाँ शुरू हो गई। महारानी ने आकर कहा कि महाराज को केशरिया पहना कर मृत्यु वरण के लिए तैयार किया और स्वयं के लिए आदेश माँगा कि मुझे भी आदेश दे दीजिए कि मैं जोहर की अग्नि जला आऊँ जो कभी न बुझे। महारानी महाराज के चरणों में गिर जाती हैं। महाराज भावनाओं के समुद्र से बाहर निकल कर शीघ्रता से दुर्ग के बाहर की ओर चल देते हैं। दुर्ग के बाहर शत्रु उनका इंतजार कर रहा था। 

मेदिनीराय ने क्षत्रिय वीरों के साथ हर हर महादेव के जयघोष के साथ कहा इस जीवन के सबसे सुखद और पावन समय को पूर्णतः से ग्रहण करो। यदि काल अमर है तो हम महाकाल बन जायें। हर हर महादेव करते हुए राजपूत दुर्ग के प्रमुख द्वार से बहार आ जाते है और बाबर की सेना पर घायल शेर की भांति टूट पड़ते हैं। इस समय के युद्ध को बाबरनामा में इस प्रकार व्यक्त किया गया है - कि हिन्दू द्वार खोलकर नंगे होकर हम पर टूट पड़े। अंतिम युद्ध लड़ा जाने लगा। मुख्य द्वार से (हवापौर दरवाजा) से रक्त की सरिता वहने लगी, लाशों के ढेर लग गये। युद्ध चलता रहा और मेदिनीराय अपने वीरों के साथ तुर्कों के सिर काटते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये। फिर चारों ओर सन्नाटा छा गया। दुर्ग का द्वार खुला था फिर भी द्वार अंदर आने का साहस शत्रु सेना नहीं जुटा पा रही थी। बाबर जिसके साहस की दन्त कथाएँ सम्पूर्ण एशिया में प्रचलित थीं। वह भी चन्द्रगिरि के दुर्ग में जाने से घबरा रहा था। दुर्ग के प्रथम द्वार पर आकर बाबर के मुँह से घबरा कर निकल गया . . . ओह . . खूनी दरवाजा. . . । 

संभवतः इसी समय से वर्तमान फुहारी वाला दरवाजा खूनी दरवाजे के नाम से विख्यात् हो गया। अंतिम बचे प्रहरी ने महारानी मणिमाला के पास आकर सूचना दी कि महाराज वीरगति को प्राप्त हो गये। मणिमाला काँपकर पाषाणवत् हो गई। फिर अपने आपको संभालकर सुहाग, सिन्दूर, मेंहदी तैयार का पूजा का थाल लेकर बाहर आईं। दुर्ग की स्त्रियों में हाहाकार मच गया। सौन्दर्य और सुहाग की साकार मूर्ति को देखकर चारों ओर का हाहाकार शान्त हो गया। मणिमाला बिना कुछ बोले शिव मन्दिर चली गई (वर्तमान गिलउआ ताल पर) पूजन के उपरांत बाहर आईं तो लगभग १६०० क्षत्राणियाँ खड़ी थीं। तब महारानी ने उनसे कहा - हम प्रत्येक परिस्थिति में जीते हैं, लेकिन पति से अलग होकर हम नहीं जी सकते। पति के उठते पाँव के चिन्हों पर हमें भी पाँव रखना है . . . । 


हमारे प्राण प्रिय से हमारा संबंध मात्र शरीर का नहीं है वरन् आत्मा का संबंध है। उसी आत्मानुभूति से प्रेरित होकर हम आत्मा के मिलन के लिए सुहाग की अमरता पाने पवित्र अग्नि में जा रहे हैं। मेरे जीवन में ही क्या युगों-युगों से भारतीय नारी के जीवन में आग और सुहाग कोई अलग वस्तु नहीं रही है। जब तक इस भारत में इस आग और सुहाग के महत्व को नारी जानती और मानती रहेगी, तब तक एक क्या हजारों बाबर भी एक साथ मिलकर भारत की पावनता और संस्कृति को नहीं जीत सकते। भले ही कुछ समय के लिए निस्तेज हो जायें, छुपी हुई आग का दबा हुआ बीज फिर से फूटेगा अवश्य फूटेगा। फिर सुहागन मणिमाला के संकेत पर वर्तमान खूनी तलैया के किनारे विशाल चिता में अग्नि प्रज्वलित कर दी गई। कुछ ही क्षणों में लपटें आकाश को छूनें लगी और महारानी सहित लगभग १६०० वीरांगनाओं ने अपने जीवन को होमकर दिया। देखते ही देखते सम्पूर्ण दुर्ग आग का गोला बन चुका था। इस चिता की ज्वालाएँ चन्द्रगिरि से लगभग १५-१५ कोस दूर देखी जा सकतीं थीं। जैसे ही बाबर की सेना ने दुर्ग में प्रवेश किया तो शेष सैनिकों ने मोर्चा संभालकर वीरता से युद्ध किया और वीरगति प्राप्त की। 

अब बाबर जलती हुई चिता को अहमद खाँ के साथ निहार रहा था। जीवित जलती कोमलांगियों को देख बेचैन हो गया। उसका कठोर हृदय भी पीडा से कराह उठा। उसी समय चिता के भीतर से एक सनसनाता तीर आया और बाबर की पगड़ी में लगा और वह जमीन पर गिर गई। यह देख बाबर की सेना में आतंक छा गया। बाबर के सैनिकों दौड़कर चिता के पास पहुँचे तो देखा कि महारानी मणिमाला तीर चलाकर धनुष को कंधे पर ले रहीं थीं। बाबर ठगा सा रह गया। भग्न ध्वस्त दुर्ग की सूबेदारी अहमद खाँ को सौपकर तुरंत दिल्ली की ओर चला गया। चन्देरी का जौहर महारानी मणिमाला की वीरता और सतित्व की गाथा है। फरिस्ता के अनुसार इस युद्ध में पाँच-छः हजार राजपूत वीर मारे गए थे। डॉ. रिजवी द्वारा लिखित बाबरनामा पृ. ४४१ मे लिखते हैं कि - ज्ञात होता है कि मेदिनीराय इस युद्ध में नहीं मरे, वरन् मुगलों (बाबर) के द्वारा बन्दी बना लिए गए। बाबर ने पहले उन्हें बलात् मुसलमान बनाया और फिर उनकी हत्या करा दी।

पग पग पर लाल न्यौछाबर हुए।

बजासे लाल भई जा चन्देरी की माटी।।

अत्र सरसतीरे असंख्याता क्षत्रिय वीरांगना। 

सतीत्व रक्षार्थ जौहरेण विधिना ज्वलनं प्रविश्य दिवंगताः।।

- विनम्र श्रद्धान्जलि - 



The Chanderi stone inscription of Jaitravarmana mentions the genealogy of the Pratihar rulers of Chanderi. Which are: 

Nilkantha,

Hariraja,

Bhim,

Ranapala,

Vatsraja,

Swarnpal,

Kirtipal Pratihar,

Abhaypal,

Govindraj,

Rajaraj,

Veeraraj Parihar 

and Jaitravarman.



Interesting factor with respect to Chanderi is its emergence during the early medieval period. The incursion into Chanderi seems to have begun during the time of the Imperial Pratiharas. Chanderi lies mid way between two important political centres of the Imperial Pratiharas.

Two important centres being Gopagiri (Gwalior) and Siyadoni (Sironj Khurd, dist. Lalitpur). While Gopagiri was the military stronghold, Siyadoni was the administrative and mercantile centre under the Pratiharas. Epigraphic records state that Siyadoni branch of Partihars was under

the feudatories of the Imperial Pratihars. The

presence of mercantile communities at both Gopagiri and Siyadoni suggest the presence of long distance trade relations and routes which definitely passed through the Chanderi & therefore necessitated the need for settlement mid-way

Image:Lord Rishabhnath at Kandhagiri 

between the two centres. It would also not come as a surprise that the new settlement partook of the vibrant trading network & developed itself as a mercantile settlement,corroborated by presence of a large Jain community at Chanderi.


Chanderi flourished during the early-medieval period under the Pratiharas which seem to have been originally a feudatory branch of the Imperial Imperial Pratiharas. The idea of the almost contemporaneous existence of different branches of same lineages is not a novel feature, 



In fact, this was a common feature of the different Rajput dynasties based on clan-kinships.Interistingly there appears almost 6 Pratihar lineages between the 7th-10th centuries AD in different parts of Rajasthan, MP & Uttar Pradesh having varying degrees of political ascendancy And as many modern distorians some times skip the fact that all of them traced ancestral ascendancy  from Laksmana of the family of Raghu and hence call themselves as Suryavamsis.


With respect to the Pratiharas of Chanderi it may be mentioned that so long as they served as the feudatories of the Imperial Pratiharas their epigraphic records have not come to light, just in case of most of the Rajput dynasties, as it was seen as frivolous for a feudatory to issue inscriptions in those times. However, with their changed political fortunes after the decline of the Imperial Pratiharas their epigraphical records became ostentatious with genealogies & use of titles like 'Chakravarti' & 'Maharajadhiraja' (Kadwaha inscription of Hariraja).



The fort at Chanderi still marks the brilliance of that era, built by a Pratihara king, Kirti Pal, in the 11th century CE and was referred as Kirti Durg. 


There is a three story palace inside this fort. This palace has a fountain and a tank in its courtyard. 


In this lies the Samadhi of the great musician, Baiju Bawara (1542-1613). Born as Baiju Nath Prasad in Chanderi. He was a reputed Dhrupad singer popularised by of Raja Man Singh of Gwalior. Local legends say that he is said to have defeated Miyan Tansen, the court-poet of Akbar. 

From the Siyadoni stone inscription we learn that during the time of the rule of the Imperial Pratihara kings like Bhoja, Mahendrapala, Kshitipala and Devapala

successively, Siyadoni was administered by four local rulers referred to as 'Mahasamantadhipatra'.

One of the rulers mentioned in the inscription was identified as Durbhata who belonged to the

family of Hariraja. This conclusively proves that the ancestors of Hariraja were the

feudatory rulers (under the Imperial Pratiharas) responsible for the administration of Siyadoni.


At Chanderi after the fall of the Imperial Pratiharas a minor branch of the Pratiharas which so long served as the feudatories of the former exerted their independence. 


One of the initial inscriptions of this branch post independence was Chanderi stone inscription of Jaitravarman. Here the composer of the inscription, a Brahmin named Pandit Sahadena states that the Pratihara family ruling over Candrapura traced their descent from Laksmana, the younger brother of Rama. Further mentions regarding the valour of the rulers of this family were made by comparing them with gods and epic heroes. The feats of Hariraja, the second ruler, are equated with those of Hari (Visnu), while those of Bhimadeva, the third ruler, with those of the epic hero Bhishma. 


Similarly, the Kadwaha stone inscription of Kirttipala states that the Pratihara family traces its origin from the Surya, the Sun-god. The Chanderi fragmentary stone inscription also makes reference to the feats of the different rulers of the Pratihara family (Hariraja, Bhimadeva, Ranapala, Vatsaraja and Abhayapala) and compares them with gods and epic heroes.


From the inscriptional records it becomes clear that Hariraja was the first independent ruler of this dynasty and therefore assumed titles like 'Chakravarti' and 'Maharajadhiraja'.


The Bharat Kala Bhavan copper plate inscription of Hariraja states that at Siyadoni he donated lands in 3 villages to Brahmins on the occasion of a solar eclipse. Kadwaha fragmentary stone inscription also mentions about the gift of some villages by Hariraja to a Shaiva Acharya.

One of the most famous Partihar heroes that we have seen in Middle ages was Medni Rai Pratihar, a trusted general of Rana Sanga of Mewar, and ruled chanderi & much of the Malwa under the lordship of Rana Sanga, who helped him in defeating Sultan of Malwa and conquering Malwa. He Joined the United Rajput Confederacy in Battle of khanwa with a Garrison of 20,000 Rajput soldiers and headed the left wing of Rajputs. The conquest of Malwa shocked the court of Delhi as they were not expecting the Rajputs to invade Malwa. This led to several skirmishes and battles between the Lodi Empire and the Kingdom of Mewar. Medini Rai actively helped Rana Sanga in these battles and helped him score a series of victories. Rana's influence after the war extended to Pilia Khar, a river on the outskirts of Agra.


He assisted Rana Sanga in many campaigns against the Sultans of Delhi. Medini Rai was later killed in the Battle of Chanderi against Babur, where he was given a chance to surrender but chose to die & remain loyal to Rana. Rajput women committed Jauhar after his death. 


Babur offered Medini Rai Shamsabad in exchange for Chanderi. But Medini spurned the offer,& preferred to die fighting. Chanderi fort was invaded by babur in 1528. Medini rai, one of the vassals of Rana Sanga, was ruler of malwa then. 


He was defeated by Babur army, then rajput women organised a johar ceremony to save their honour bcz Mughals were then used to rape even with dead bodies. 


How mentally sick and sadist these Mughals were who wouldn't leave even dead bodies, absolutely satanic monsters


Rajputs under Medini committed Saka (Fight until death)& women of fort committed Jauhar. Today we have a Jauhar Smarak at Chanderi Fort to mark their sacrifice. 






Tuesday, April 27, 2021

Anjaniputra - the epitome of selflessness, ultimate strength, bravery, and unparalleled devotion


यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं
तत्र तत्र कृतमस्तकांजलिम् |
वाष्पवारिपरिपूर्णालोचनं
मारुतिं नमत राक्षसान्तकम् ||


Shri Hanuman Ji is present wherever praise of Sri Rama is sung, with joyous tears and bowed down head.

श्री हनुमान जी महाराज, श्री हनुमान गढ़ी अयोध्या धाम के आज के अद्भुत एवं अलौकिक दर्शन।

चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि भगवान श्री हनुमान जी के अवतरण उत्सव की पर्व, पर श्री हनुमान जी की कृपा सभी पर बनी रहे।।


A Theertha Kshetra Kishkindha is situated in present day Hampi (Vijayanagara) on the banks of River Tungabhadra in Vijayanagara district.


क्षत्रियकुलरत्नगर्भा वीरकेसरीवंशशिरोमणि छद्मयुद्धकलाप्रतिपादक इक्ष्वाकुवंशतारक अयोध्याधीश प्रभुश्रीरामचंद्रभक्तशिरोमणि जेठवाकुलवंशपूर्वज महाबली बाबा श्रीहनुमानजी के प्राकट्योत्सव पर्व की सभी सनातन अनुयायियों को हार्दिक शुभकामनाएं।


भक्त श्रीओमणि हनुमान जी का नाम लेने से ही सारे संकट दूर हो जाते हैं। उनकी जन्म कथा कई रहस्यों से भरी है। भूख लगे तो सूर्य को निगलने दौड़ पड़े, संजीविनी बूटी न मिली तो पूरा पर्वत ही उखाड़ लिया, आइये जाने, ऐसे तेजसवी एंव बलशाली हनुमान जी का अवतार किस प्रकार हुवा....

श्री हुनमान जी के अवतरण की पुराणों में कई कथाएं मिलती है परंतु सर्वमान्यता है कि वह भगवान शिवजी के ११वें रुद्र अवतार हैं। 

वायु पुराण में बताया गया है:
" अंजनीगर्भ सम्भूतो हनुमान पवनात्मजः।
यदा जातो महादेवो हनुमान सत्य विक्रमः।।

स्कन्दपुराण में हनुमान जी को साक्षात शिव जी का अवतार माना गया है ः
यौ वै चैकादशो रुद्रो हनुमान सः महाकविः।
अवतीर्णः सहायतार्थ विष्णोरमित तेजड:।।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने दोहावली में कहा है:
"जेंहि शरीर रति राम सौं सही आदरहि सुजान।
रुद्रदेह तजि नेहबस वानर में हनुमान।।

वायु पुराण के अनुसार त्रेतायुग में रामअवतार के पूर्व एक बार समाधि टूटने पर शिवजी को अति प्रसन्न  देखकर माता पार्वती ने कारण जानने की जिज्ञासा प्रकट की। शिवजी ने बताया कि उन्हें इष्ट श्री राम, रावण संहार के लिए पृथ्वी पर अवतार लेने वाले है। अपने इष्ट की सशरीर सेवा करने का उनके लिए यह श्रेष्ठ अवसर है। पार्वती जी दुविधा में बोली- "स्वामी इससे तो मेरा आपसे विछोह हो जाएगा। दूसरा, रावण आपका परम भक्त है। उसके विनाश में आप कैसे सहायक हो सकते है?" पार्वती जी की शंका का समाधान करते हुवे शिवजी ने कहा की 'निस्संदेह रावण मेरा परम भक्त है, परंतु वह आचरणहीन हो गया है। उसने अपने दस सिर काट कर मेरे दस रूपों की सेवा की है। परंतु मेरा एकादश रूप अपूजित है। अतः में दस रूपों में तुम्हारे पास रहूंगा और एकादश के अंशावतार रूप में अंजना के गर्भ से जन्म लेकर अपने इष्ट श्री राम द्वारा रावण के विनाश में सहायक बनूंगा।'

अंजना देवराज इंद्र की सभा में पुंचिकस्थला नाम की अप्सरा थी जिसको ऋषि श्राप के कारण पृथ्वी पर वानरी बनना पड़ा। बहुत अनुनय विनय करने पर ऋषियों ने श्रापानुग्रह करते हुवे उसे रूप बदलने की छूट दी, की वह जब चाहे वानर और जब चाहे मनुष्य रूप धारण कर सकती है। पृथ्वी पर वह वानर राजकेसरी की पत्नी बनी। दोनो में बहुत प्रेम था।

अपने संकल्प के अनुसार शिवजी ने पवन देव को याद किया तथा उनसे अपना दिव्य पुंज अंजना के गर्भ में स्थापित करने को कहा । एक दिन जब केसरी और अंजना मनुष्य रूप में उद्यान में विचरण कर रहे थे उस समय एक तेज हवा के झोकें ने उसका आँचल सर से हटा दिया और उसे लगा कि कोई उसका स्पर्श कर रहा है। उसी समय पवन देव ने शिवजी के दिव्य पुंज को कान के द्वारा अंजना के गर्भ में स्थापित करते हुवे कहा, " देवी मैंने तुम्हारा पतिव्रत भंग नही किया है। तुम्हें एक ऐसा पुत्र रत्न प्राप्त होगा जो बल और बुद्धि में विलक्षण  होगा, तथा कोई उसकी समानता नही कर सकेगा। में उसकी रक्षा करूँगा और वह भी श्री राम का अति प्रिय बनेगा।"

अपना कार्य सम्पूर्ण कर पवनदेव जब शिवजी के सामने उपस्थित हुवे तब उन्होंने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने को कहा। पवनदेव ने स्वयं को अंजना के पुत्र का पिता कहलाने का सौभाग्य मांगा और शिवजी ने तथास्तु कह दिया। इस प्रकार हनुमानजी 'शंकर सुवन केसरी नंदन' तथा 'अंजनी पुत्र पवनसुत नामा' कहलाय। चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार को रामनवमी के तुरंत बाद अंजना के गर्भ से भगवान शिव वानर रूप में अवतरित हुए।

शिवजी का अंश होने के कारण वानर बालक अति तेजस्वी था और उसे पवनदेव ने उड़ने की शक्ति प्रदान की थी। अतः वह शीघ्र ही अपने माता-पिता को अपनी अद्भुत लीलाओं से आश्चर्यचकित करने लगे। एक दिन माता अंजना बालक को अकेला छोड़कर फल-फूल लाने गयी। पिता केसरी भी घर पर नही थे। भूख लगने पर बालक ने इधर-उधर खाने की वस्तु ढूंढ़ी। अंत मे उसकी दृष्टि प्रातः काल के लाल सूर्य पर पड़ी और वह उसे एक स्वादिष्ट फल समझकर पाने के लिए आकाश में उड़ने लगे। देवता, दानव, यक्ष सभी उसे देखकर विस्मित हुवे। पवनदेव भी अपने पुत्र के पीछे-पीछे चलने लगे और हिमालय की शीतल वायु छोड़ते रहे। सूर्य ने देखा कि स्वयं भगवान शिव वानर बालक के रूप में आ रहे हैं तो उन्होने भी अपनी किरणें शीतल कर दी। बालक सूर्य के रथ पर पहुंच गया और उनके साथ खेलने लगा।
उस दिन ग्रहण लगना था। राहु भी सूर्य ग्रसने के लिए आया। वानर बालक को रथ पर देखकर उसे आश्चर्य हुआ परंतु उसकी परवाह नही की। सूर्य को ग्रसित करने के प्रयास करने पर बालक ने राहु को पकड़ लिया। तब उसने किसी प्रकार अपने को छुड़ाके कर सीधे इंद्र से शिकायत की क्या आपने सूर्य को ग्रसने का अधिकार किसी और को दे दिया है? 'इंद्र ने राहु' को फटकार कर पुनः सूर्य के पास भेज दिया। दुबारा राहु को देखकर वानर बालक को अपनी भूख याद आ गई और वह राहु पर टूट पड़े। राहु डर कर इंद्र को पुकारने लगा। इंद्र को आता देख बालक राहु को छोड़कर इंद्र को पकड़ने दौड़े। इंद्र ने घबराकर उनपर अपने वज्र से प्रहार किया जिस्से बालक की बाई हनु(ठुड्डी) टूट गयी और वह घायल होकर पहाड़ पर गिर पड़े। पवनदेव बालक को उठाकर गुफा में ले गए। उन्हें इंद्र पर बड़े क्रोध आया और उन्होंने अपनी गति बन्द कर दी। सबकी सांस घुटने लगी। देवता भी घबरा गए और इंद्र ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी ने वृतांत सुनकर गुफा को प्रस्थान किया और बालक पर अपना हाथ फेर कर उसे स्वस्थ कर दिया। पवनदेव प्रसन्न हुवे और उन्होंने पुनः जगत में वायु संचार कर दिया। ब्रह्माजी ने देवताओं को बताया कि यह बालक साधारण नही है। वह देवताओं का कार्य करने के लिए प्रकट हुवे है। इसलिए वह सब उन्हें वरदान दे। 
इंद्र ने कहा- 'मेरे वज्र के द्वारा उसकी हनु टूट गयी है। इसलिए इनको हनुमान जी कहा जायेगा और कभी भी मेरा वज्र उन पर असर नही करेगा।'
सूर्य ने कहा कि 'मैं अपना शतांश तेज इन्हें देता हूं। मेरी शक्ति से यह अपना रूप बदल सकेगे और मैं इन्हें सम्पूर्ण शास्त्रों का अध्यन करा दूंगा।'
वरुणदेव ने उन्हें अपने पाश से और जल से निर्भय होने का वर दिया।
कुबेर ने भी हनुमान को वर दिया तथा विश्वकर्मा ने उन्हें अपने दिव्य अस्त्रों से अवध्य होने का वर दिया।
ब्रह्माजी ने ब्रह्मज्ञान दिया और चिरायु करने के साथ ही ब्रहास्त्र और ब्रह्मपाश से भी मुक्क्त कर दिया।
चलते समय ब्रह्माजी ने वायुदेव से कहा- 'तुम्हारा पुत्र बढ़ा ही वीर, इच्छानुसार रूप धारण करने वाला और मन के समान तीव्रगामी होगा।
उसकी कीर्ति अमर होगी और राम-रावण युद्ध में राम का परम सहायक होगा। इस प्रकार सारे देवताओं ने हनुमान को अतुलित बलशाली बना दिया।

बचपन मे हनुमान जी बड़े नटखट थे। एक तो वानर, दूसरे बच्चे और तीसरे देवताओं से प्राप्त बल। रुद्र के अंश तो वह थे ही। प्रायः वह ऋषियों के आसन उठाकर पेड़ पर टांग देते, उनके कमंडल का जल गिरा देते, उनके वस्त्र फाड़ डालते, कभी उनकी गोद में बैठकर खेलते और एकाएक उनकी दाड़ी नोचकर भाग खड़े होते। उन्हें कोई रोक भी नही सकता था। अंजना और केसरी ने कई उपाय किये परंतु बाल हनुमान जी राह पर नही आये। अंत में ऋषियों ने विचार करके यह निश्चय किया कि बाल हनुमान जी को अपने बल का घमंड है अतः उन्हें अपने बल को भूलने का श्राप दिया जाए और जब तक कोई उन्हें उनके बल का समरण नही कराएगा वह भूले रहेंगे। इसके बाद केसरी जी ने हनुमान जी को सूर्य के पास विद्याध्यन के लिए भेज दिया और वह शीघ्र ही सर्वविद्या पारंगत होकर लोटे। 

सीताहरण के बाद हनुमान जी ने श्री राम और सुग्रीव की मित्रता कराई। सीता जी का पता लगाने के समय जाम्बवन जी के याद दिलाने पर उन्हें अपनी आपार शक्ति की पुनः याद आ गयी और उन्होंने समुद्र लांघ कर अशोक वाटिका में सीता जी का पता लगाया तथा लंका दहन किया। उनका बल पौरुष देखकर सीता जी को बड़ा संतोष हुवा और उन्होंने हनुमान जी को अष्ट सिद्धियों और नौं निधियों के स्वामी होने का वरदान दिया। इस प्रकार हनुमान जी सर्वशक्तिमान देवता बने और श्री राम जी की सेवा में रत रहे।

हनुमान जी ने अपने भक्तों के संकट क्षण मे हर लेते है। (संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।)

वह शिवजी के समान अपने भक्तों पर शीघ्र प्रसन्न हो जाते है उन्हीं की भांति अपने उपासकों को भूत-पिशाच के भय से मुक्त रखते है। चाहे कैसे भी दुर्गम कार्य हैँ उनकी कृपा से सुगम हो जाते है। उनकी उपासना से सारे रोगों और सभी प्रकार के कष्टों का निवारण हो जाता है।

अतुलित बलधाम स्वर्ण शैलाभ देहं दनुज वन कृशानुं ज्ञानिनामग्रगणयम् सकल गुण निधानं वानराणामधीशं।
रघुपति प्रिय भक्तं वातजात नमामि।।



Shri Hanumanji is Chiranjeev.He is still alive and visits incognito wherever Ramji worship is practised.


It gives u immense strength.Just by looking at his swaroop and remembering him makes you feel like half of your problems are over. You feel the strength and inner peace inside you.




Sunday, April 25, 2021

FORGOTTEN FORTIFIED KINGDOM OF ORCHHA - MYSTERIOUS AND ABANDONED HERITAGE - IMMORTAL RAJPUTS



"The Pride of Bundelkhand"


Stunning & incredible fort city of Madhyapradesh, Orchha, meaning "a hidden place", is undoubtedly a gem of Madhya Pradesh. Vivid places like fort, palace, cenotaphs, wildlife sanctuary, river bank, river rafting, village visit, temples etc leave tourists with a lifetime memory.


Resting royally on the banks of river Betwa, Placed along Kanchana Ghat located in the Orchha Fort Complex, these 14 Chhatris raised in honor of Orchha's erstwhile rulers, tell tales of Orchha's glory.⁣⁣ The size of each cenotaph is symbolic of the time period for which each king ruled the city.⁣


This palace possesses the glorious past and mythological attachments 


Orchha’s Ram Raja Temple is the Only Temple In India where Lord Ram Is worshipped like a King.


The brainchild of Bundela Rajput Chief, Rudra Pratap, Orchha features brilliant architecture in the form of beautiful display of Rajput palaces, temples and royal chhatris. Frozen in time, this town seems to retain the original grandeur of the monuments, even till this date.


The foundation of architectural activity in Orchha was laid down by Raja Rudra Pratap who chose a rocky island on loop of River Betwa as the construction site for Orchha fort. 

The complex is divided into 2 wings, the Darbar-I-Aam and Darbar-I-Khas.
Orchha, MP, 16th cent 



The Diwan E Aam of Orchha Fort complex has some of the finest murals on its walls and ceilings. Influenced by the Persian carpet designs in a Hindu settings these will drag to its curious visitors into a fairytale setting of 16th century India.


A trail of greenery that goes for 25 km without any empty patches is a view to be memorized forever. Among the many other things to do in Orchha, a stroll in the Orchha Natural Reserve will bring you closer to peace and calmness.

This natural reserve lies at the junction of the river Betwa and Jamni. The only thing missing from this reserve is the big cats of the Indian Subcontinent.

Home to many endangered species of birds and trees, this natural reserve is next to heaven for birdwatchers. When the sky is not filled with the 200 species of birds, they can be spotted hunting and enjoy a bath in the water of these rivers.


A true adventure sports activity that the Betwa river offers. The most easily spotted monuments along the kayaking course are the 14 Chattris, which stand tall and reflect in the river.



Another key part of Orchha, the river takes the kayakers along the boundary of the Orchha Natural Reserve. This gives the adventure sports lovers a closer look at the vivid species of birds that have made the reserve their home.

With Grade I and Grade II type rapids making the river a magnet for kayakers, the experience of kayaking is enhanced by the forest and historic monuments along the bank of the river.



Being located in a place that is covered with forests and the river Betwa splitting into seven channels, this town was given the name Orchha, meaning ‘a hidden place’. With every turn the river makes, one can find historical landmarks on either side of the river.


Built on an island on the Betwa river, this architectural marvel houses many temples and palaces. 


There are three important palaces encapsulating history in its purest form: Jahangir Mahal, Raj Mahal, and the famous Rai Praveen Mahal.


The Jahangir Mahal is the supremacy of the architecture that prevailed in Orchha.


The Jahangir Mahal is multi-storeyed and offers a spectacular view from its balconies, 


giving you a taste of what the royals used to enjoy back in the glorious days of Orchha, counted as one of the best places to visit in Orchha.


 Originally, the construction of Jehangir Palace had begun in the 16th century A.D. but Veer Singh Bundela completed it before arrival of Jehangir in 1606 A.D. and the upper portion was decorated in 1618 A.D. The palace was named after Jehangir as a mark of respect to the Mughal Emperor. Jahangir Mahal is a palace that was exclusively built to humor the Mughal emperor Jahangir who was a guest of the Maharaja 4 one night only.



The square-shaped palace has a bastion at each corner crowned by sexagonal chhatris. The chhajjas of the first floor are based on peahen shaped todis having figures of elephant carved on them.


Hindola arched gate and inverted lotus structure representy Rajput school of architecture whereas in the upper portion the domes and decorated octagonal and lotus strudctures on the chhatris are example of Bundela architecturte. The interior decoration of the rooms of the palace, paintings and exterior decoration exemplify a synthesis of different styles of architecture, which was common in medieval architecture.




The Raj Mahal is one of the most historic monuments in the fort.


Rai Praveen Mahal


Rai Praveen Mahal which once was beautiful now is left with stories of the glorious past in its ruins. The palace was built by Indrajit Singh the younger brother of Orchha’s ruler Maharaja Ramshah (1592-1605 A.D.) Raja Indrajir Singh was also the caretaker ruler. Praveen Rai was a famous dancer of Orchha’s royal court and was also a poetess, a singer and an expert rider. Mahakavi Keshavdas wrote “ Kavipriya” in praise of his disciple Praveen Rai. When Praveen Rai visited the Mughal Durbar on the invitation of Akbar, she greatly impressed the Mughal emperor by this book. Akbar sent her back to Orchha with due honour.


The two-storyed building was constructed in two phases. In the first phase the double spacious hallway and square rooms on both sides were built on the ground floor and a verandah and rooms were built on the first floor. This construction belongs to the 17th century A.D. in which the verandah, underground baradari, garden and eastern portion were built.


The northern jharoka of Anand Mandal belongs to the first phase where Praveen Rai used to compose poems. The paintings of Praveen Rai and Indrajit Singh are typical of Bundela School of painting. The architecture of the palace represents feature of both Rajput and Bundela styles.


The magnificent history of Orchha is displayed beautifully at the light and sound show at Orchha Fort. The brilliance of the medieval Indian architecture can be easily noticed when the palace turns into a digital orchestra.



CHATURBHUJ TEMPLE which was constructed by the Bundela Hindu
Rajputs of the kingdom of Orchha. Its construction was begun by  Madhukar Shah and completed by his son, Raja Bir Singh Deo in early 16th century and at present dedicated it to Shri Krishna.


The Chaturbhuj temple is an important monument from the the historical and archaeological point of view. The construction of the temple was started by Maharaja Madhukar Shah (1554-1592 A.D.) in 1574 A.D. Maharani Ganesh Kunwari wanted to instal the idol of Lord Rama in this temple but its construction could not be completed due to Mughal invasion on western Bundelkhand and death of prince Horaldev. Therefore, the queen installed the idol in her own palace. The second phase of the temple was completed by Maharaja Veer Singh (1605-1627 A.D.).


This most enormous temple of Orchha is raised on a high plinth and its ground plan consists of garbha-griha, antaral, and ardha-mandapa. 


There are shikhars of Nagara style on the garbha-griha  and the cells built at all corners of it.


The mandapa  is crowned with a dome-shaped shikhar.


The construction of second phase of this temple, made of bricks and lime, is an important example of architectural perfection of Bundela style.


Built in between 1558 and 1573, this temple is one of the oldest architectural marvels of the Bundela time in the town. The temple is dedicated to Lord Vishnu and houses an idol of the Lord with four arms. However, the temple was originally meant for Lord Rama’s idol. The story behind this unique history is very fascinating.


Chaturbhuj Temple is a twin Temple of Ram Raja Temple at Orcha, which is the only temple where Lord Rama is Worshipped as Raja Ram and Daily Gaurd of Honour and Gun salutes are given to Lord Rama as a Raja would get.


There is a story behind this legend The enshrined deity at Ram Raja Temple(below) was Originally meant for Chaturbhuj Temple but had to be finally enshrined at Ram Raja Temple only.


According to the legend, the temple was built after the queen had a "dream visitation" by Lord Ram directing her to build a temple for Him; while Raja Madhukar Shah was a devotee of Krishna, his wife's dedication ws to Rama. 


Following the approval to build the Chaturbhuja Temple, the queen went to Ayodhya to obtain an swaroop of bhagwan Shri Ram Jii that was to be enshrined in her new temple. When she came back from Ayodhya with the Swaroop of Bhagwan Shri Ram Ji, initially she kept the idol in her palace, called Rani Mahal, as the Chaturbhuj Temple ws still under construction. 


She was, unaware of an injunction that the image to be pratishthit in a temple couldn't be kept in a palace


Once the temple construction was completed and the idol of the lord had to be moved for installation at the Chatrubhuj Temple, it refused to be shifted from the palace. Hence, instead of the Chaturbuj temple, the Rama's idol remained in the palace 


whereas the Chaturbhuj Temple remained without an idol in its sanctum, a new radh-krishna idol was placed and prayed in the chaturbhuj temple. 


As Rama was worshiped in the palace it was converted into the Ram Raja Temple.


Shri Ram is sitting in Padmasan postion, with only left leg crossed ovr the right thigh though (both legs arent crossed unlike in the usual Padmasan). 


It is believed when visiting the Raja Ram Darbaar if worshippers look at the left foot's big toe then their wish gets fulfilled.

Adjacent to the Ram Raja Temple lies a row of fountains, which culminates in an eight pillared pavilion. A subterranean structure below the pavilion, the Tehkhana, was the summer retreat of the kings of Orchha. The tehkhana was cooled by a cleverly constructed Persian cooling unit, which was made up of two adjoining Dastagirs (wind-catching towers). The towers were named after the two spring months in the Indian calendar - SawanBhado.


The towers were perforated on the top, to allow them to catch the wind, while their lower part was connected to a reservoir of water. The towers, the aqueducts, and the underground reservoir of water were ingeniously connected to a Chandan Katora (fountain) in the pavilion above the retreat. The water from the underground reservoir was pushed up into the Chandan Katora, from where it rained on the roof of the retreat to cool the Tehkhana. This is perhaps the only example of the Persian system of cooling in India.


The Laxmi Narayan Temple


The temple is one of the three most important temples in Orchha, offering a perfect and unique mix of fort and temple architecture. The fascinating thing about this temple is that despite its dedication to Goddess Laxmi, there is no idol of the Goddess kept inside.


The triangular temple is built on a square courtyard. Polygonal starred bastions are built at the corners of the temple’s rampart.


The entrance gate has been built in one of them. Made of bricks and lime the temple resembles a fortress.



Its shikhar is high and octagonal which looks like a minaret. 


The temple was built by Vir Singh Deo around 1622 but inadequate maintenance brought down the magnificence of the temple. It was reconstructed around 1793 by Prithvi Singh and brought it back to its glory.


The walls of the galleries, temple and the ceiling are decorated with beautiful paintings depicting various episodes of the Ramayana, Shrimadbhahvat Gita as well as an unique painting depicting the war betness the Rani of Jhansi and the British during 1857. 


The walls and ceilings of the Laxmi Temple, are adorned with astonishing artwork in vibrant, attention grabbing hues with details so mesmerising that it's almost impossible to look away.⁣⁣⁣


The style of these paintings developed in Bundelkhand region from the 17th century A.D. to the 19th century A.D.
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Highlight: The current structure stands firmly with frescoes and paintings hanging on the temple walls. Based on certain social and secular themes, the vivid colours of the frescoes are still intact. The temple also has geometrical carvings of scenes from the life of Lord Krishna. Situated Opposite to the Orchha Fort, Orchha, Madhya Pradesh.


Kalyanrai Temple


The temple was built by Kalyanrai in 1738 A.D. during the reign of Maharaja Prithvi Singh. The idols of Lord Krishna and Radha were installed in 1795 V.S. here, which are no more in the temple.

The ground plan of the east-facing temple consists of garbha-griha, antaral and mandapa. The elevation plan consists of vedibandh, jangha and shikhar of Nagara style. The exterior plan has jangha shikhar of pancharathi style. The shikhar has urishringas. The garbha-griha is square and its walls have gawakshas and niches. The doorframes of the gate of antaral and the garbha- griha are made of stone. The ceiling of the mandapa is chaityakar. The ceilings of the garbha-griha and antaral have lotus decoration.


Vallabh Temple


The temple is situated near southern gate of the rampart of the fort. There once existed the house of Pujari Purushottam Das near it. Now only walls of this house are available. On the basis of style the temple seems to have been built in the 17th century A.D. Its plan constists of a small square two-storeyed garbha-griha having entrance gates on three sides. There is a flight of steps on both sides of the gate leading to the upper story. The dome-shaped ceiling has four ventilator and there are mini chhatris at the corners. The central dome has an inverted lotus carved on it. Outside, there are bloomed lotus and vertical row of niches carved on both sides of the arched gate.


Panchamukhi Mahadev Temple


The Panchamukhi Mahadev temple is surrounded by a strong enclosing wall. In addtion to the main temple there exist two other temples, which are similar in size and style. The ground plan of the temple consists of vedibandh, jangha and shikhar of Nagara style. On the basis of style the temple was built in the 17th century A.D. Although its shikhar is of Nagara style, the ashtabhadra shakhas and urushringar of Bhumij style represent a synthesis of styles. The synthesis started in Orchha at the time of Maharaja Veer Singh (1605-1627A.D.) On regional basis it can be considered a part of Bundela school of architecture.


Radhika Bihari Temple


The east-facing temple was built by Orchha’s ruler Veer Singh Bundela (1605-1627 A.D.).The ground plan of the temple consists of garbha-griha, antaral and mandapa. The elevtion plan consists of vedibandh, jangha and shikhar of Nagara style. The mandapa has large trabeated domes. On the shikhar of the pancharathi garbha-griha each rath, anurath and konak portions have urushringars of Khajuraho style of temple architecture. The walls of square garbha-griha have arched an oriels and niches. The doorjambs of the entranced gate are made of stone. The lalat –bimbs of the entrance gate of the antaral and the garbha-griha are carved with images of Ganesha and the doorjambs are carved with images of Dwarpals. The mandapa is rectangular but at the center the ceiling of the square portin is dome-shaped. There are small chatris at all four corners with a shikhar of Nagaar style and at the center there are small dome-shaped chhatris based on four pillars. On the large dome in palce of a kalash there is a small chhatris supported by six pillars. The imposing temple is a fine example of Bundela School of temple architecture.



Vanvasi Ram Temple


The temple was built by Maharaja Veer Singh Bundela (1605-1627 A.D.) The ground plan of the east-facing temple consists of garbha-griha and antaral. The walls of the square garbha-griha have arched oriels. There is ventilator on the oriels on northern and southern walls. At the center there is Dev Kakshasana, which was occupied by an idol of Vanvasi Rama. This idol is now enshrined in the Ram Raja temple by the same name. The antaral is rectangular. The extesior plan consists of vedibandh in ashtabhadra style, jangha and shikhar of Nagara style. Above it there are urushringars. The top of the shikhar has amalak and padma kalash.


Yajnashala


The monument is situated in northern corner of the fort’s rampart with a square compound wall on all four sides. The monument ha arched gates on all four sides. It is crowned with a high dome-shaped ceiling, ventilator and a huge dome. There exist small chhatris at all four corners of the dome and in the center outside the ventilator there are structures of pillars and oriels. The ceiling is carved with images of Ganesha, Kartikeya, Hanuman, Shiva, Nandi etc.


Oontkhana


Built on a square plan on a high hillock behind Jehangir palace, the monument was originally a baradari built in the 16th century A.D. but in the later part of the 17th century A.D. a high corridor was built around it which has five arched gates each on every side. These corridors were used for keeping camels. The baradwari and the mandapa in the center are decorated. The hooks fixed in them might have been used for hanging swings.


Sheesh Mahal


The palace was built by Orchha’s ruler Maharaja Udot Singh in 1763 V.S. (1706 A.D.). It is fitted with ornamented colour glasses and tiles, hence it is called Shish Mahal.The two-storyed building is rectangular with a spacious hall based on pillars and rooms on both sides. There are beautiful an oriels on the rooms to west on the second story having palanquin-shaped roofs.


While the beautiful jharokhas are of Rajput style the ornamented an oriels of Bundela style add to the splendidness of the top portion of the palace. At present the palace houses a hotel of the M.P.State Tourism Development Corporation.
The luxury hotel was once the residence of Raja Udait Singh, Maharaja of Orchha.


With the perfect blend of old-world charm, contemporary facilities, and the impeccable Indian hospitality is what the Sheesh Mahal offers. The sophisticated décor is coupled royally with the enchanting colors which magnify the glorious history of Orchha.



Phool Bagh Mahal


The palace was built by Maharaja Veer Singh Dev (1605-1627 A.D.) simultaneously with the construction of Phoolbagh. In the lower northern portion of the palace there is a mandapa towards Phoolbagh based on pillars. Beyond it there are mandapas  based on two pillars in front of which there exists a stone fountain in the shape of a decorated bowl and other fountains in the garden. On the first floor the square room is crowned with a large dome. The an oriels and domes are of Bundela style. Near the basement stand aircooling pillars called Sawan Bhado. The holes of the pillars are meant for aircooling of the basement. The basement was used for escaping excessive heat.


The highly polished aesthetic sagacity of the Bundelas is carefully preserved in the Phool Bagh. The beautifully laid garden in Orchha served as a summer retreat for the kings. 

The garden was built in the memory of Dinman Hardaul, the prince of Orchha, who died a martyr to prove his innocence to his elder brother. 

The engineering of the place is done in a magnificent way. A stroll in the park is one of the many ways to get in touch with the serenity of the town.

The garden houses the Badgir Sawan Bhadon towers which were built to provide a cooling effect to the place. The water ventilation connects the palace with Chandan Katora, a beautiful fountain driving all the attention to itself. Situated in Palaki Mahal, Orchha, Madhya Pradesh.


Palaki Mahal


Situated opposite the Hardaul Baithka in Phoolbagh premises, the palace was built during the time of Maharaja Veer Singh (1625-1627 A.D.). The two-storeyed building is rectangular. On the ground floor there are rectangular rooms on both sides of the three-arched verandah. The stone pillars and palanquin-shaped roof were added at the time of construction of Hardaul Baithka in the later half of the 17th century A.D.) It is called Palki Mahal due to the large palanquin-shaped roof of the central hall.


Chhatri / Cenotaphs





The Chattris are the memorials to the rulers of Orchha. There are 14 Chattris to be explored when one seeks to plan out the things to do in Orchha.


Situated opposite to the Orchha Sanctuary, near the banks of the Betwa river.


Each Chattri is different from the rest in size, resembling the length of the reign of those rulers over Orchha. These cenotaphs recite the stories of the kings on its colossal structure.



Chhatri of Maharaja Prithvi Singh, Orchha


After the death of Maharaja Udot Singh in1736 A.D. his son Maharaja Prithvi Singh succeded him on the throne of Orchha.Maharaja Prithvi Singh founded Prithvi Nagar and got the Laxmi Mandir renovated and paintings executed. After his death in 1752 A.D. his grand son Sawant Singh built his cenotaph.
The ground plan of the cenotaph consists of a square garbha-griha and a rectangular mandapa. The garbha-griha has arched oriels. The arches are polygonal with diagonal ventilator above them. The mandapa has a three- arched gate and the ceiling is chaityakar. The elevation of the east-facing cenotaph is a two-storeyed structure. The first story is crowned with a dome and there are small chatris with shikhars of Nagara style at all four corners.The roofs above the oriels are gajprishthakar. The roofs of oriels of the walls of the ambulatory path are pananquin-shaped. The cenotaph is built in Bundela School of architecture.



Chhatri of Raja Bharti Chandra, Orchha

The first Bundela ruler of Orchha, Raja Bharti Chandra( 1531-1554 A.D.) died in 1554 A.D. The cenotaph was built during the period of Raja Madhukar Shah (1554-1592 A.D.) From architectural point of views the cenotaph seems to have been built in two phases. The first phase was built in the 16th century A.D. Raised on a square platform the cenotaph has a square garbha-griha with a rectangular corridor on all sides, which is divided in the form of square rooms at the corners. The roof of the garbha-griha is flat, but dome-shaped shikhars were added in the 17th centuryA. D. Beautiful paintings were executed below the balcony. The southern and eastern walls below the balcony of the central dome have inscriptions of 1735, 1732 and 1740 V.S. The cenotaph is a prime example of the architecture of Orchha.



Chhatri of Maharaja Madhukar Shah, Orchha


Maharaja Madhukar Shah (2554-1592 A.D.) was the second ruler of Orchha. He was not only a religious person but also a brave and bold ruler. The Chaturbhuj temple and Deewan-e-Am of the Raj Mahal were built by Madhukar Shah. After the death of Madhukar Shah, the construction of this cenotaph was started during the reign of Rama Ram Shah (1592-1605 A.D.) but the upper portion was completed by Veer Singh. The cenotaph was built in temple style of architecture. Its ground plan constists of garbha-griha, antaral and mandapa, but the elevation consists of vedibandh, jngha and shikhar of Nagara style. Small structures of shikhar are built at all four corners of the shikhar. Marble sculptures of Maharaja Madhukar Shah and his wife Ganesh Kunwari are attached to the an oriels of the sidewalls of the garbha-griha.


Chhatri of Pahar Singh, Orchha


Situated in southeast corner of the northern portion of the group of Chhatris on the bank of Betwa river the cenotaph of Pahar Singh represents a developed stage of Bundela cenotaph architecture. Orchha’s ruler Raja Pahar Singh (1641-1663 A.D.) was the son of Maharaja Veer Singh and younger brother of Maharaja Jujhar Singh. After his death his son and successor Raja Sujan Singh (1663-1672 A.D.) built this cenotaph.

The ground plan of the cenotaph consists of a square garbha-griha on a square platform with a verandah on all sides having an arched gate. The garbha-griha is of sarvatobhadra style. Its exterior portion shows jangha and chhajji on the third floor. The three-storeyed structure is crowned with a shikhar of Nagara style. At the corners there exist square cells crowned with domes. The domes and Nagara shikhar are variously decorated representing integrated Bundela style.


Chhatri of Maharaja Veer Singh, Orchha


Amidst the group of these spire shaped structure is a cenotaph that is not of the Rajput architecture. This Chattri was built in the memory of Bundela chieftain, Maharaja Veer Singh Bundela (1605-1627 A.D.) was the most illustrious ruler of Orchha. His period is described as golden period in the history of Bundela dynasty. A large number of buildings were constructed and Bundela architecture flourished during this period.

The cenotaph was built by Maharaja Veer Singh’s elder son Maharaja Jujhar Singh (1627-1634 A.D.) but due to political instability its shikhar could not be completed. The three-storeyed grand cenotaph is built on a square plan on a square platform. The central square garbha- griha has corridors and arched gates on all four sides. In the exteior plan there are rows of niches and a balcony based on todis. Although the shikhar is incomplete, it clearly reflects panchayatan plan.


Chhatri of Raja Sujan Singh, Orchha


Maharaja Sujan Singh (1663-1672 A.D.) died in 1672 A.D. His younger brother and successor Raja Indramani (1672-1675 A.D.) started construction of the cenotaph, which his son Raja Jaswant Singh (1675-1684 A.D.) completed.

The cenotaph is situated in northwest corner of the courtyard enclosed by a compound wall. The structure represents a developed stage of Bundela chhatri architecture. The ground plan of the cenotaph is built on a square platform. At the center exists a square garbha-griha with verandahs on all four sides having arched gates. At the corners there are square cells. The central garbha-griha is of sarvatobhadra style with entrance gates on all four sides. Its ceiling is high and its exterior shows jangha and a balconyon the third floor. The three-storyed structure is crowned with a shikhar of Nagara style. At the corners exist square cells crowned with domes. The cenotaph is an important heritage of Bundela architecture.


Chhatri of Maharaja Indramani, Orchha


Maharaja Sujan Singh was issuless. After his death his younger brother Indramani succeded him on the throne of Orchha. Maharaja Indramani (1672-1675 A.D.) was succeded by his son Jaswant Singh (1675-1684 A.D.) who built the cenotaph.

Situated in southwestern corner of the enclosed premises the cenotaph has a square garbha-griha with a verandah on all four sides having three arched gates on each side. The garbha-griha is of sarvatobhadra style that means it has entrance gates on all four sides. The similar structure exists on the first and second floor. At the corners there are square cells crowned with domes and at the center exists a shikhar of Nagara style. The central huge shikhar and the domes on all sides are of panchayatan style. The outer niches, arched gates, lotus decoration, padma kalash and other ornamentations represent an advanced statge of Bundela architecture of the 17th century A.D.


Chhatri of Maharaja Jaswant Singh, Orchha


Maharaja Jaswant Singh ruled over Orchha from 1675 A.D. to 1684 A.D. He received Khillat from Mughal emperor Aurangzeb in 1740 V.S.(1683 A.D.) and died in 1741 V.S.( 1684 A.D.) The cenotaph was built by Maharani Amar Kunwari.

Covered by a rampart the cenotaph is located in northeast corner in the premises and its ground plan is square. In the center there exists a sarvatobhadra garbha-griha with rectangular verhandahs on all sides having three arched gates on all sides. The elevation consists of a three-storyed structure of cenotaph. The exterior plan of the third floor consists of jangha portin of the shikhar of Nagara style and square cells at all corners crowned with domes. The decoration of Nagara shikhar and domes, padma kalash, niches and ornamentation of arched gates represent the Bundela style. The central Nagara shikhar and the domes at all four corners are of panchayatan style.


Chhatri of Maharaja Bhagwant Singh, Orchha


Maharaja Jaswant Singh died in 1684 A.D. and his minor son Bhagwant Singh succeded him. Raja Bhagwant Singh ruled from 1684 to 1689 A.D. under the patronage of his grand mother Rani Amar Kunwari. After his premature death Rani Amar Kunwri , the wife of Maharaja Indramani) adopted Udot Singh who was the Jagairdar of Bangaon, belonging to the fourth generation of Hardaul.Udot Singh built the cenotaph in 1689 A.D.

The cenotaph is located in the east and center of the premises covered by a rampart. The ground plan of the cenotaph is square. In the center there exists the sarvatobhadra square garbha-griha with a verandah having three arched gates on all sides. Each corner has a square cell, which open into the verandah on both sides. The huge shikhar of Nagara style in the center on the upper portin of the three-storeyed cenotaph and the domes crowning the square cells at the corners represent panchayatan style. There is a balcony and jangha portion below thecentral shikhar of Nagara style. The decoration of domes, shikhar, an oriels, niches and gates are of Bundela style.


Chhatri of Maharaja Sawant Singh, Orchha


Kunwar Pooran Singh, the son of Maharaja Prithvi Singh (1736-1752 A.D.) died while hunting a tiger. His son Sawant Singh succeded his grant father (Maharaja Prithvi Singh) in 1752 A.D. Sawant Singh ruled till 1765 A.D. Mughal emperor Shah Alam, during his visit to Orchha, conferred the title of “ Mahendra” on Maharaja Sawant Singh. After the death of Sawant Singh in 1765 A.D. his son Hate Singh (1765-1768 A.D.) built this cenotaph.

Located in southeast corner of the premises covered by a rampart this cenotaph is different from others in size and type. In the ground plan the cenotaph is square. The garbha-griha in the center is square with decorated corridor on all sides. The shikhar, domes, small chhatris and paintings are a fine example of Bundela art and architecture.


Despite being the capital of the Bundela Rajput kings, Orchha seldom witnessed ferocious battles, leading to unscratched monuments that would help you visualize the earlier phases the town has witnessed.

The place is not on many tourist maps but that only tells how unexplored it really is. Less crowd and more peace, this place is just 16 km away from the city of Jhansi. The best way to reach here from Jhansi is by the ever-reliable auto rickshaw. Passing through the narrow winding roads, a time travel back to a more peaceful era is evident.

The best time to visit this town of solitude is from October to March when the cool breeze adds on to the serenity of the place. 

"Orchha" may Finds a place in UNESCO World Heritage Site. ( ASI has submitted an application to UNESCO to recognise Orchha as a WHS on 15/04/2019.)

Right now it is only in Tentative List of UNESCO! 

Not yet approved as a WHS!