Friday, April 23, 2021

1857 REBELLION MAHARAJA TEJ SINGH CHAUHAN OF MAINPURI - IMMORTAL RAJPUTS


मैनपुरी जिले का इतिहास वीर गाथाओं से भरा पड़ा है। यहां की माटी में जन्मे लालहमेशा गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए हर सम्भव कोशिश करते रहे। ब्रिटिश राजमें स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यहां की माटी वीर सपूतों के खून से लाल हुई है।पृथ्वीराज चौहान के बाद उनके वंश के वीर देशभर में बिखर गए। उन्हीं में से एक प्रतापरुद्र् जो की नीमराना से आये थे। उन्होंने १३१० ई. में मैनपुरी में सर्वप्रथम चौहान वंश की स्थापना की।


यूँ तो मैनपुरी के इतिहास में कई महान राजा हुए हैं ! जिन्होंने चौहान वंश की परंपरा को सदैव गौरवशाली बनाये रखा !

पर महाराजा तेज सिंह वो नाम था जिन्होंने मैनपुरी का नाम स्वर्णिम अक्षरों में पूरे देश लिख दिया ! उनकी बहादुरी और त्याग को आज तक उनकी प्रजा नही भूला पाई है।


आइये जानते है कौन थे महाराजा तेज सिंह व उनका इतिहास !

मैनपुरी में चौहान वंश की स्थापना करीब १४ वीं सदी में हो गयी थी . जब राजस्थान से चौहान वंश की एक शाखा ने मैनपुरी में आकर अपना राज्य स्थापित किया . और ये परम्परा निरन्तर सैकड़ो साल तक चलती रही और इसी वँश में राणा नरपत सिंह के यहाँ सन 1834 में एक पुत्र का जन्म हुआ जिनका नाम रखा गया कुंवर तेज सिंह चौहान . कुंवर तेज सिंह बचपन से ही बड़े बहादुर और देश प्रेमी थी जैसे जैसे कुंवर तेज सिंह बड़े हो रहे थे बैसे बैसे ही उस दौर में अंग्रेजो के अत्याचार प्रजा के प्रति बढ़ रहे थे और इस बात की गमम्भीरता को कुंवर तेज सिंह बखूवी समझने लगे थे । सन १८५१ जब कुंवर तेज सिंह करीब १७ वर्ष के हुए ही थे तभी उनके पिता श्री राजा नरपत सिंह की मृत्यु हो गयी और १७ वर्ष की उम्र में ही कुँवर तेज सिंह को मैनपुरी की गद्दी सभालनी पड़ी और यंही से तेज सिंह को उपाधि मिली मैनपुरी नरेश महाराज तेज सिंह (जूदेव) की ! अभी १७ बर्षीय महाराज तेज सिंह को अपने राज्य और राजनीति का थोड़ा अध्यन हो ही पाया था कि उधर १० मई १८५७ को मेरठ में स्वत्रंत्रता संग्राम की आग भड़क चुकी थी जिसकी खबर जैसे ही महाराजा तेज सिंह को लगी उनका खून खौल उठा और उन्होंने उसी बक्त मन मे प्रण किया कि यही सही मौका है अंग्रेजो को मुंह तोड़ जवाब देने का और मेरठ क्रांति के दो दिन बाद ही महाराजा तेज सिंह ने अंग्रेजो के खिलाफ विगुल फूंक दिया लेकिन महाराज तेज सिंह के चाचा राव भवानी सिंह इस बात से सहमत नही थे ..और उन्होंने महाराज तेज सिंह का साथ नही दिया ….

तत्कालीन अंग्रेजी कलेक्टर जेम्स पावर को जब कलेक्टर जेम्स पावर को जब तक कुछ समझ आता तब तक मैनपुरी नरेश महाराजा तेज सिंह व उनके सैनिकों ने अपनी तैयारी पूरी करली थी और १२ मई को जिले में स्थित अंग्रेजी सैनिकों और ठिकानों पर धावा बोल दिया ये खबर सुनकर जिले के कई जमींदार और युवाओ ने भी महाराजा तेज सिंह का साथ देने का निर्णय लिया. और महाराजा तेज सिंह ने अंग्रेजी ठिकानों पर हमला शुरू कर दिया इसी कड़ी में नेटिव इन्फ़्रेंटी के भारतीय जवानों ने भोगांव की तहसील लूट ली अब कई सामाजिक और सैनिक संगठन मगराजा तेज सिंह के साथ अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई शुरू कर चुके थे..जिंसने कई अंग्रेजी सैनिक मारे जा चुके थे जिले में अंग्रेजो के लगभग सभी ठिकानों पर महाराजा तेज सिंह के सैनिकों का कब्जा हो चुका था।

मैनपुरी में २२ मई को चार बजे जिला कलक्ट्रेट को सूचना मिली कि नौवीं पल्टन ने ईस्ट इंडिया सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया है और भारतीय सैनिक बंदूकों से फायर करते हुए अधिकारियों के स्थानों की तरफ कूच कर चुके हैं। इस स्थिति को देखते हुए ले कोक्स, कै. कैलनर भाग खड़े हुए। तत्कालीन मजिस्ट्रेट जॉन पावर नि:सहाय अवस्था में था। अंग्रेज अधिकारी भागते हुए ईशन नदी के पुल पर जाकर छिप गये, लेकिन वह विद्रोही सैनिकों को चकमा नहीं दे सके। उन्होने मॉन्ट गुमरी और वाटसन के घरों को लूट लिया तथा उनके घरों में आग लगा दी। सैनिकों ने शस्त्रागार को भी पूरी तरह लूट लिया। अनेक अंग्रेजों को विद्रोही सैनिकों ने बंदी बना लिया था।

क्रांतिकारी सैनिकों ने मालखाना लूट लिया था और क्रांति की आग देखते-देखते भोगांव तक पहुंच गयी। २९ मई १८५७ को मेजर हैंस, कै. कैरी और ले. बारबोर फरेर और कर्नल स्मिथ संबद्ध हुये। ले. बारबोर को ३० मई को भोगांव और ३१ मई को कुरावली पहुंचने का आदेश मिला और अंग्रेज सेना ३० मई को भोगांव पहुंच गयी। उस समय भोगांव में वर्तमान जूनियर हाईस्कूल एवं वर्तमान नेशनल महाविद्यालय के मध्य मैदान में अंग्रेजों की पुरबिया पल्टन पड़ी हुई थी। इस पल्टन ने ३१ मई को अंग्रेजी सेना के खिलाफ विद्रोह कर दिया।


विद्रोह का दमन करने मेजर हैंस और कै. कैरी अंग्रेज सिपाहियों की फौज को लेकर एक जून को भोगांव पहुंचे। क्रांतिकारी सेना से उन्होंने सरेंडर करने के लिए कहा तो क्रांतिकारी फौज उनके ऊपर टूट पड़ी। देखते ही देखते अंग्रेजी सेना के तमाम सैनिक घटना स्थल पर धराशायी हो गये । मेजर हैंस और कै. कैरी जान बचाते हुए वहां से भागे। परंतु भारतीय सिपाहियों ने उनकों चारों तरफ से घेर लिया। एक क्रांतिकारी सिपाही ने मेजर हैंस के सिर पर तलवार से इतना तेज वार किया कि वह वहीं पर ढेर हो गया।

कै. कैरी ५० अग्रेज सिपाहियों के साथ किसी प्रकार घोड़े पर चढ़कर मैनपुरी की ओर भागा, जिन्हें घेरकर क्रांतिकारियों ने मार डाला। कुछ दिनों बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी की अंग्रेज सेना पुन: सातवीं घुड़सवार पल्टन लेकर भोगांव आई। क्रांतिकारियों की सेना से अंग्रेजों की भीषण मुठभेड़ हुई। सैकड़ों की संख्या में अंग्रेज यहां भी मारे गये। क्रांतिकारियों ने यहां के थाने पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में क्रांतिकारियों ने ले. कैंटजॉव को इतनी बुरी तरह घायल कर दिया कि आगे चलकर उसकी मृत्यु हो गयी। मारे गये सैकड़ों अंग्रेज सिपाहियों को अंग्रेज सेना मैनपुरी उठाकर ले गयी तथा गोला बाजार के पास एक कब्रिस्तान में दफना दिया।


इसी वजह से इस जगह का नाम कबर का नगला पड़ गया। २१ जून को सूर्योदय के पूर्व क्रांतिकारी फौज ने मैनपुरी जेल का फाटक तोड़ दिया। मुक्त बंदियों और क्रांतिकारियों ने मिलकर अंग्रेजों के घरों के घरों को खूब लूटा तथा उनमें आग लगा दी। जेल के फाटक का टूटना मैनपुरी जनपद से विदेशी सत्ता की समाप्ति का सूचक था। अधिकांश अंग्रेज जान बचाकर आगरा की ओर भाग गये।

१२ मई से २८ जून तक चले इस घमासान के बाद अंग्रेजो ने हार मान ली और भारतीयों का इतना जबरदस्त आक्रोश को देखते हुए तत्कालीन कलेक्टर जॉन पावर अपनी बची सेना के साथ जान बचाकर आगरा भाग गया . लेकिन कलेक्टरेट में रखे खजाने की सुरक्षा में लगे अफसर लारेंस व डेडोवन की मैनपुरी के सैनिकों ने हत्या कर दी और ३० जून को महाराजा तेज़ सिंह ने मैनपुरी को स्वत्रन्त्र राज्य होने की घोषणा कर दी इस साहसी आदेश के बाद मैनपुरी की जनता में महाराजा तेज सिंह के प्रति सम्मान और प्रेम और बढ़ गया था . आगरा – ग्वालियर – कानपुर के अंग्रेजी शासन और अधिकारियों के लिए मैनपुरी सबसे बड़ी समस्या बन चुका था उस समय मैनपुरी इस पूरे क्षेत्र अंग्रेजी सत्ता का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाने लगा था . अगले ५ महीने लगातार संघर्षों से मैनपुरी स्वत्रंत्रता सेनानियो और देशभक्तों का बहुत बड़ा गढ़ बन चुका था .. करीब ५ महीने बाद दिसम्बर के महीने में एक सुनियोजित ढंग से आगरा – ग्वालियर – कानपुर की अंग्रेजी सेनाओं ने मिलकर बिर्गेडियर सीटन के नेतृत्व में मैनपुरी पर बहुत ही बड़ा हमला किया जिसका जवाब महाराजा तेज के अंग्रेजी शासन और अधिकारियों के लिए मैनपुरी सबसे बड़ी समस्या बन चुका था उस समय मैनपुरी इस पूरे क्षेत्र अंग्रेजी सत्ता का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाने लगा था . अगले 5 महीने लगातार संघर्षों से मैनपुरी स्वत्रंत्रता सेनानियो और देशभक्तों का बहुत बड़ा गढ़ बन चुका था .. करीब ५ महीने बाद दिसम्बर के महीने में एक सुनियोजित ढंग से आगरा – ग्वालियर – कानपुर की अंग्रेजी सेनाओं ने मिलकर बिर्गेडियर सीटन के नेतृत्व में मैनपुरी पर बहुत ही बड़ा हमला किया जिसका जवाब महाराजा तेज सिंह ने बखूवी दिया लेकिन अंग्रेजो की बन्दूको का मुकाबला मैनपुरी के भाला और तलवार वाले सैनिक कब तक करते घण्टो की लड़ाई के बाद कई अंग्रेजी सैनिकों के साथ मैनपुरी के सैकड़ो सैनिक व क्रानितकारी शहीद हो चुके थे।..और बचे हुए ग़मम्भीर हालात में थे।


इसके बाद एक छोर से अंग्रेजो ने मैनपुरी किले पर चढ़ाई कर दी थी जिसे देखकर महाराजा तेज सिंह कुछ सैनिकों के साथ कुरावली होते हुए इटावा की तरफ रवाना हुए लेकिन वँहा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया .और बनारस जेल भेज दिया गया जंहा उन्हें नजरबन्द रखा गया और वंही उनको सालों साल सजा के रूप में आगे भी नजरबन्द रखा गया लेकिन सन १८९७ में उनकी बनारस में ही मृत्यु होगयी और भारत के महान स्वत्रंत्रता सेनानी का सूरज अस्त हुआ …मैनपुरी के ऐसे महान शासक और स्वत्रंत्रता सेनानी की बहादुरी और त्याग को पूरा देश हमेशा याद करता रहेगा…

मैनपुरी के इस क्रांतिकारी राजा को उनकी प्रजा की तरफ से शत शत नमन...


आगे का वंशावली--

प्रतापरुद्रजी के दो पुत्र हुये

१.राजा विरसिंह जू देव जो मैनपुरी में बसे।

२. धारक देवजू जो पतारा क्षेत्र मे जाकर बसे


मैनपुरी के राजा विरसिंह जू देव के चार पुत्र हुये।

१. महाराजा धीरशाह जी इनसे मैनपुरी के आसपास के गांव बसे।

२.राव गणेशजी जो एटा में गंज डुडवारा में जाकर बसे इनके २७ गांव पटियाली आदि हैं।

३. कुंअर अशोकमल जी के गांव उझैया अशोकपुर फ़कीरपुर आदि हैं।

४.पूर्णमल जी जिनके सौरिख सकरावा जसमेडी आदि गांव हैं।


महाराजा धीरशाह जी के तीन पुत्र हुये।

१. भाव सिंह जी जो मैनपुरी में बसे।

२. भारतीचन्द जी जिनके नोनेर कांकन सकरा उमरैन दौलतपुर आदि गांव बसे।

३. खानदेवजू जिनके सतनी नगलाजुला पंचवटी के गांव हैंखानदेव जी के भाव सिंह जी हुये।

भावसिंह जी के देवराज जी हुये।

देवराज जी के धर्मांगद जी हुये।

धर्मांगद जी के तीन पुत्र हुये।

१. जगतमल जी जो मैनपुरी मे बसे।

२. कीरत सिंह जी जिनकी संतति किशनी के आसपास है।

३. पहाड सिंह जी जो सिमरई सहारा औरन्ध आदि गावों के आस पास बसे।


मैनपुरी का स्वर्णिम इतिहास अब मिट्टी में लीन होने की कगार पर.....


ये मैनपुरी का वही किला है जंहा आजादी की पहली लड़ाई लड़ी गयी थी . मेरठ के बाद विद्रोह की चिंगारी सीधा यंही आयी थी...जिसने आगरा और कानपुर मंडल के अंग्रजों की हालत पतली करदी थी..उस बक्त के युवा महाराजा तेज सिंह चौहान (जूदेव) ने जो टक्कर अंग्रेजो को दी वो आज भी गजेटियर या ऐतिहासिक दस्ताबेजो में आज भी देखने को मिल जाएगी...मैनपुरी के सेना से करीब २०० जवानों ने अपनी कुर्वानी दी थी ...और अंत मे महाराजा तेज सिंह जूदेव भी गिरफ्तार हुए और उन्हें बनारस जेल में बंदी बनाया गया...और उनकी अंतिम सांस भी वंही निकली....आज किल का ८०% भाग खण्डर हो चुका है।।।


आज ये किला महाराज तेज सिंह जि के रिश्तेदारों की प्राइवेट प्रॉपर्टी है जो की जयपुर रहते है...... और समाज भी खाना पूर्ति के लिए साल में एक जयंती मना लेता है। अगर सच मे महाराजा तेज सिंह जी को श्रद्धांजलि देनी है तो मैनपुरी के घर घर मे महाराजा तेज सिंह की वीरता की कहानी पड़नी चाहिए..


मैनपुरी में सरकारी मदद से एक म्यूज़ियम भी बनना चाहिए...जंहा उनकी विशाल प्रतिमा और उनसे जुड़ी सभी कहानियां का लेख वँहा हो....

MahaRaja Tej Singh Chauhan of Mainpuri (Uttar Pradesh ) and mutiny of 1857 :-

One hundred and fifty miles down the Doab in Mainpuri the district Magistrate John Power, on receipt of the news of the rising at Meerut, at once set out to enlist volunteers to help protect the station. As the Maharaja of Mainpuri Tej Singh was in Naini Tal, Power turned to the raja’s cousin Rao Bhawani Singh, who put together a small force of horse and foot from amongst his Chauhan clansmen. Ten days later, on May 22, the Mainpuri sepoys rose in mutiny, took one Lieutenant De Kantzow prisoner, and marched round to the kachcheri and treasury. Power with six other Europeans was about to rush to De Kantzow’s aid when Bhawani Singh appeared and convinced him that it would be foolhardy to face the mutineers with his tiny band.

Bhawani Singh gave the Europeans shelter in the raja’s fort, while he went himself to parley with the rebels. When they attempted in turn to threaten him, Bhawani Singh quietly told the sepoys that he could not hurt men for whose safety he had taken responsibility, and that if they persisted he had “ten or twelve thousand men of his own kindred’’ ready on all occasions to die with them. Thus rebuffed the sepoys released De Kantzow, and after looting the Quarterguard they marched off to Etah.Once the sepoys had left, Power conveyed the government treasure to the raja’s fort, and then returned to the kachcheri, which he fortified and garrisoned. During the next few days the beleaguered officials raised a small force of irregular cavalry and two hundred matchlockmen, in part through the assistance of Bhawani Singh. For the next several weeks, while Power and his subordinates remained shut up in the kachcheri, this force reconnoitered in the countryside and occasionally punished a refractory village. But British authority was fast ebbing away. By mid-June all the thanadars and tahsildars had left their posts, and the tahsil buildings in Bhongaon had been sacked.


About this time MahaRaja Tej Singh returned to Mainpuri and entered upon a series of inconclusive negotiations with Power and his staff. The Maharaja’s intentions at this stage are by no means clear. He is reported as having told Power shortly after his arrival that he would do his best to help keep order in the town. Yet Power later insisted that Tej Singh had throughout treacherously plotted against the British in nightly meetings at the fort and had sent emissaries in all directions to draw some mutineer force to Mainpuri. In any case the raja did not break off ties with the British until June 29, when a large rebel force of some 1,500 men from Jhansi with two guns was seen approaching the city. Pressed to stand firm against these rebels Tej Singh equivocated. According to one account he told Power that he personally was ready to assist, but that he could not trust his companions.Power at once decided that the time had come to leave Mainpuri. After consigning the government treasure to the joint care of the raja and Bhawani Singh, the garrison marched for Agra. The next day the mutineers entered the city and looted whatever they could lay hands upon.

The raja then took charge of the district administration. He appointed thanadars and tahsildars to restore order and collect revenue and recruited most of the district police into his service. Now firmly committed to the rebel cause, Tej Singh devoted the remainder of the summer to a vigorous assertion of his authority through- out the district. On one occasion, for instance, he marched with a large number of his kinsmen to the village of Bharaul in pargana Shikohabad to punish its Ahir zamindars, who had refused to submit to him. Several were killed, and after putting the rest to flight he plundered the village and fired many of its dwellings. He also repelled at Bewar a proposed invasion of the district by the Nawab of Farrukhabad.

On October 19 a British force under Brigadier Hope Grant occupied the city of Mainpuri without opposition, Raja Tej Singh having already fled. Rao Bhawani Singh remained behind, and handed over to the British some two lakhs worth of the treasure that had been entrusted to his care in June. Hope Grant invested him with the powers of a nazim, and then moved on with his force towards Kanpur. Left by himself, however, Bhawani Singh was unable to sustain his position. He soon had to surrender the reins of administration once again to his rebel cousin Tej Singh, who remained in undisturbed possession of the district for a further two months. On December 27 a British force some 2,000 strong from Delhi reached Mainpuri. This time, supported by a large body of men and six guns, Tej Singh elected to stand and fight.


Decisively worsted in the encounter, his guns captured and 250 of his followers killed, the raja fled toward Lucknow with only sixteen attendants. Mainpuri was restored to British control. Despite his defeat Tej Singh remained for some months a force to contend with. Even as a fugitive his influence over his clan was considerable, and the district as a result only slowly settled down. Disturbances were reported so late as March 1858, and in mid-April Tej Singh with 250 cavalrymen made a dash across the district in the hope of finding sanctuary in Rewah State. Two months later, however, on June 11, promised his life and a confinement free from humiliation, Tej Singh surrendered to A. O. Hume, the Collector of Etawah. He was then sent to Benares, where he was provided with a house and a pension of Rs. 250 a month provided he lived quietly and did not interfere in the affairs of Mainpuri.

MahaRaja Tej Singh Fort, Mainpuri

Bautiful Painting by Artist Shri Lalit Jain Ji

It was a very beautiful piece of ancient art and architecture. It is situated in the older parts of the city Mainpuri which is 120 kms drive from Agra. A land fort is having some fortification, big bastions, gates and some monuments. It’s a private palace fort. The Chauhan Dynasty ruled Mainpuri. Out of the many rulers Maharaja Tej Singh Chauhan was popular as he rose against the English East India Company in India and voiced out against the British.


This fort was made by maharaja tej singh it was located in purani mainpuri it was not well maintained many off wall was broken due to not maintenance and this fort is always says about the breve king of mainpuri who was strongly fight against British rulers and many other enemies.

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