Wednesday, April 7, 2021

1857 REBELLION AWADH GREAT LEADER RANA BENI MADHAV BAKSH SINGH BAIS - IMMORTAL RAJPUTS

बैस वंश भयों मर्दाना, अवध मा राना भयो मर्दाना।


रायबरेली में आजादी की अनेकों गाथाएं हैं। वीरों की अनेकों कहानी हर किसी के मन में उद्वेलित होती हैं। यह रायबरेली कई महत्वपूर्ण सोपानों का यूं ही अध्याय नहीं बन गई हैं।

उन्नाव के बैसवारा ताल्लुक के राजा राना बेनी माधव सिंह ने रायबरेली के एक बड़े हिस्से में अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ क्रांति की मशाल जलाई थी। अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले राजा बेनी माधव रायबरेली जिले के लिए महानायक बने। सन् १८५७ क्रंाति के दौरान जनपद रायबरेली में बेनी माधव ने १८ महीने तक जिले को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराया था।

विश्व की बड़ी क्रंातियों में एक सन् १८५७ में अग्रेंजी हुकूमत के जुल्मो सितम पर विरोध की चिंगारी ऐसी फूटी कि अवध क्षेत्र के जिलों में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने के लिए कई शूरमा आगे बढ़े इनमें फतेहपुर में अमर शहीद ठाकुर दरियाव सिंह ने ३२ दिनों तक अंग्रेजों से जुल्म की हुकूमत को छीन कर स्वत्ात्र सत्ता बनाई थी। अंग्रेजों से बगावत का सिलसिला शुरू हुआ तो बढ़ता ही गया।

रायबरेली तथा उन्नाव के बड़े हिस्से में सन १८५७ ई. में भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम और क्रांति की जो मशाल जली थी, उसके नायक थे राणा बेनीमाधव बख्श सिंह जिन्होने अंग्रेजी साम्राज्य के दंभ को चकनाचूर कर दिया था. तमाम घेराबंदी के बाद भी अंग्रेज सैनिक राणा बेनीमाधव सिंह बैस तक नहीं पहुंच सके, उस जमाने की संपन्न और ताकतवर रियासत शंकरपुर के शासक राणा बेनीमाधव सिंह बैस प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अगली कतार के प्रमुख नेता और महान संगठनकर्ता थे.

राणा बेनीमाधव का समाज के सभी वर्गो पर असर था. व्यापक जनसमर्थन के सहारे ही अवध के ह्दयस्थल में उन्होने अंग्रेजों के खिलाफ जो गुरिल्ला जंग छेड़ी थी, उसकी काट तलाशने के अंग्रेजों को न जाने कितना जतन करना पड़ा था। रायबरेली, उन्नाव और लखनऊ में अंग्रेजों की दरिंदगी का सामना करने के लिए बैसवारा के राणा बेनीमाधव ने हजारों किसानों, मजदूरों को जोड़ कर क्रंाति की जो मशाल जलाई उससे अंग्रेजों के दंभ को चूरचूर कर दिया गया। अनेक घेराबंदी के बाद भी फिंरगी बेनी माधव को नहीं पा सके। शंकरपुर के शासक राजा बेनी माधव प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख योद्धाओं में से एक बने। अवध क्षेत्र के ह्रदय स्थल रायबरेली में १८ महीने तक अपनी सत्ता बनाने वाले बेनी माधव ने अंग्रेजों के खिलाफ जो गुरिल्ला युद्ध छेड़ा वह किसी मिशाल से कम नही है।


उनकी वीरता से बेगम हजरतमहल भी इतनी प्रभावित थीं कि उनको दिलेरजंग की उपाधि प्रदान की थी, बेगम ने राणा बेनी माधव को अपनी सबसे महत्वपूर्ण रियासत आजमगढ़ की सूबेदारी प्रदान की थी। रायबरेली की जनक्रांति १० जून सन १८५७ ई. को राणा बेणीमाधव के नेतृत्व में शुरू हुई पर रायबरेली के अभियान के पूर्व ३० मई सन १८५७ ई. को राणा लखनऊ में अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ाने के लिए १५,००० हजार जांबाज सैनिकों के साथ पहुंचे थे, इसी जंग में वह दिलेरजंग बने थे. राणा ने शंकरपुर के अलावा कई जगहों पर भारी फौज के साथ अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी और उनके छक्के छुडा़ए.

राणा के भाई जोगराज सिंह बैस भी अपने ७०० सैनिकों के साथ आजादी की जंग में वीरगति को प्राप्त हुए, राणा बेनीमाधव सिंह बैस आजादी के महान क्रान्तिकारी नायकों के लगातार संपर्क रहे और जब उनकी ताकत कमजोर मानी जा रही थी तो जून सन १८५८ ई. में उन्होने बैसवारा में १०,००० हजार पैदल और घुड़सवार सेना फिर से संगठित कर ली थी. अंग्रेजी दस्तावेज बताते हैं कि सन १८५८ ई. के मध्य में वह कानपुर पर भारी खतरा बन गए थे और उनके समर्थकों की संख्या ८५,००० हजार तक पहुंच गयी थी. २४ नवंबर सन १८५८ ई. को राणा बहादुरी से लड़े पर अंग्रेज भारी पड़े.

अवध के दिलेर बागियों में दिसंबर सन १८५८ तक राणा बेनीमाधव बख्श सिंह, ठाकुर नरपत सिंह और ठाकुर गुलाब सिंह लड़ते रहे, १७ दिसंबर सन १८५८ ई. को भीरा गोविंदपुर में राणा बेनीमाधव सिंह बैस और अंग्रेजों के बीच जोरदार मुकाबला हुआ, इस लड़ाई में राणा काफी घायल हो गए थे पर उनका घोड़ा सज्जा उनको हिफाजत से मन्हेरू गांव के पास जंगलों में ले गया और उनकी रात भर रखवाली करता रहा, राणा बेहोश थे,

सुबह राणा के मित्र और मन्हेरू के जागीरदार लालचंद ने संयोग से ही घायल राणा को देखा तो उनको अपने घर लाए और उनकी सेवा की पर इसकी खबर अंग्रेजों तक पहुंच गयी. लालचंद की मदद से अंग्रेज राणा की खोज करना चाहते थे, उनको जागीर तक का प्रलोभन दिया गया पर लालचंद के आगे कुछ नहीं चली.

अंग्रेज सिपाही उनको पकड़ कर ब्रिगेडियर इवली के पास ले गए और भारी यातना दी, पर लालचंद ने कहा - "मुझसे ज्यादा देश को राणा की जरूरत है, मैं प्राण दे दूंगा पर राणा का पता नहीं बताऊंगा." 

लालचंद ने राणा के लिए खुद को बलिदान कर दिया, यही नहीं लालचंद के दोनो पुत्र ठाकुर प्रसाद और गोविंद नारायण राणा के बलिदानी जत्थे में पहले ही शामिल हो गए थे. जब लालचंद की गिरफ्तारी की खबर मिली तो उनकी पत्नी रामा देवी ने खुद को कटार मार कर शहीद कर लिया, राणा को बचाने के लिए इस परिवार ने जो बलिदान दिया उसकी आज भी मिसाल दी जाती है और राणा बेनी माधव बख्श सिंह के साथ हमेशा लालचंद को भी याद किया जाता है. हर साल 26 दिसंबर को लालचंद बलिदान दिवस मनाया जाता है.

रायबरेली के बाद राणा गोमती पार कर फैजाबाद पहुंचे जहां कनर्ल हंट ने उनका रास्ता रोकना चाहा पर वह मारा गया, इसके बाद बहराइच के आसपास राणा गुरिल्ला पद्दति से अंग्रेजों को छकाते रहे, राणा बेनीमाधव बख्श सिंह को अंग्रेजों ने काफी खोजा और उनको तमाम प्रलोभन देकर माफी मांगने को कहा पर राणा ने इंकार कर दिया और आजादी की बलिबेदी पर शहीद होना बेहतर समझा. राणा के नेतृत्व में रायबरेली के बहादुर सैनिको ने जंग जारी रखी. कहा जाता है कि आखिरी समय में राणा के साथ कुल २५० लोग बचे थेे,

जिनके सामने राणा ने अपनी सारी धन दौलत रख कर कहा कि जो भी जाना चाहे मनचाहा धन लेकर लौट जाये और जो वीरतापूर्वक मरना चाहे मेरे साथ रहे, पर दो लोगों को छोड़ कर बाकी सब जंग में आखिर तक रहे, भले ही इस जंग में राणा का परिवार तबाह हो गया और तंगहाली में जीता रहा पर आखिरी सांस तक राणा बेनीमाधव सिंह बैस ने जंग लडी. उनके पास अंग्रेजों की तुलना में हथियार नाममात्र के थे पर देश की आजादी की जज्बा उनमें था और इसी मनोबल के सहारे वे लड़ते रहे. राणा बेनीमाधव बख्श सिंह के आखिरी दिनो के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है.

_/\_अद्भुत सेनानायक राणा बेनीमाधव बख्श सिंह बैस को उनकी २१७ वीं जयंती वर्ष पर शत-शत नमन_/\_


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Rana Benimadhav, ruler of Shankarpur, who was the great leader of the Indian rebellion of 1857, of a major part of Uttar Pradesh, notably Rae Bareli and Unna district. Rana Beni Madhav Bais was strongest leader of rebel forces from Awadh during revolt of 1857, despite multiple offers by Britishers he never surrendered.


He related to Veer Kunwar Singh through marriage of his son to Kunwar Singh's daughter. Rai Bareilly under Rana Benimadhav remained independent for 18 months in 1857-58 and his soldiers also had a special role in the independence of Lucknow. Begum Hazrat Hammad was so impressed by his bravery that he had given Azamgarh a subdivision by honoring him with the title of Hiroshang. When Begum took the actual reins of the rule of Awadh on July 7, 1857, Rana and his guerrilla group became the real helpers. The Jankranti of Rae Bareli began on 10 June 1857 under the leadership of Rana Beni Madhav. On 30 May 1857, before Rae Bareli's campaign, Rana had reached with Lucknow's 15,000 jawans to get rid of the English army's sixes. In this battle, he became impatient.


Apart from Shankarpur, Rana fought with the British in many places besides the soldiers and rescued six hundred. Rana's brother, Joramaj Singh, was also martyred in the battle of freedom with his 700 soldiers. Not only this, the brave soldiers of another freedom wounded Khokar 21 along with their companions were killed in the town hall of Rae Bareli kissing the hanging trunk. Rana Beni madhav was in constant touch with the great heroes of independence and when his power was being considered weak, in June 1858, he again reconstructed 10,000 foot and cavalry troops in Basavara.

English documents show that in the middle of 1858 he had become a huge threat to Kanpur road and the number of his supporters reached 85,000. Obviously, these were mostly typical farmers. After all the fronts, on 11 November 1858, when General Hope Grant reached for the attack on the fort of Rana Benimadha, Rana handed it over to him without any resistance. Rana traveled from the fort with 1,500 people and he camped in Dudja Kheda and in the forests. Rana fought bravely on 24 November 1858, but the British became heavier.

Rana Benimadhav, Narpat Singh, and Gulab Singh fought in Awadh's rebellious battles until December 1858. On December 17, 1858, there was a strong fight between Rana and the British in Bhima Govindpur. In this battle, Rana was badly injured, but his beloved horse siding took him from Haifajat to the jungles near Manheiru village and kept him on guard all night. Rana was unconscious. In the morning, the friend of Rana and Maninderu's Late Lalchand Swarnakar saw the injured Rana accidentally and brought him to his house and served him. But its news reached the British. With the help of Lalchand, the British wanted to search Rana, so they were given the temptation till the manor, but nothing went on ahead of Lalchand.

The British soldiers captured them and took them to Brigadier Ivy and were tortured heavily. But, Lalchand said that the country needs Rana more than me. I will give Prana but I will not tell Rana's address. Lalchand himself killed himself for Rana. Not only this, the two sons of Lalchand had already joined the sacrifice group of Thakur Prasad and Govind Narayan Rana. When news of Lalchand's arrest was found, his wife Rama Devi shot himself and killed him. The sacrifice offered by this family to protect Rana is still illustrated and Lalchand is always remembered with Rana. Lalchand sacrifices day is celebrated on December 26 every year. This is a symbol of the love of the local people towards Rana. Rana had extensive support for all the sections including Pasi, Ahir, Kurmi Lodh, Goldsmith.


After Rae Bareli, Rana crossed into Gomati and reached Faizabad where Connell Hunt tried to stop his path but he was killed. After this, Rana guerrillas around Bahraich continued to seduce the British. Rana Benimadha was searched by the British and asked him to apologize by giving all the temptations, but Rana refused to accept it and considered better martyr on the freedom freedoms. After the announcement of Queen Victoria, brave soldiers of Rae Bareli under Rana's leadership continued the war. Finally, Rana handed over the women and children of his family under the protection of Begum Hazrat Mahal in the valley of Nepal.


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