*****हिंदुओं का अंतिम गणतंत्र****
ऐसे गणराज्य के क्षत्रियों की अदभुत शौर्य गाथा जिन्होनें दिल्ली के सुल्तानो, शर्की शाशको, मुगलो से लेकर अंग्रेजो तक, अपने से कई गुना शक्तिशाली ताकतो से संघर्ष करते हुए 5 सदीं तक अपने गणतंत्र के स्वतंत्र असतित्व को बनाए रखा ।
जैसा की सभी को पता है की 1947 में विभाजित होकर बचे भारत को 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र घोषित किया गया। हालांकि भारत में गणतंत्र की व्यवस्था का चलन बहुत पुराना है। प्राचीन काल में भारत छोटे छोटे विभिन्न राज्यो में बटा हुआ था जिनमे अनेको क्षत्रिय वंश शाशन करते थे। इनकी शाशन पद्धति दो तरह की थी-
बहुत से राज्यो में वंशानुगत राजतांत्रिक शाशन व्यवस्था थी जिनमे राज्य का एक सर्वशक्तिमान शाशक होता था जो उस राज्य में शाशन करने वाले क्षत्रिय वंश का प्रमुख भी होता था। इन राज्यो में मगध, कौशल, काशी, हस्तिनापुर आदि प्रमुख थे।
दूसरी राजनितिक व्यवस्था गणतंत्र की थी जिसमे राज्य में एक क्षत्रीय वंश के सभी सदस्य शाशन में बराबर के भागीदार होते थे और शाशन से संबंधित निर्णय क्षत्रियो की सभाओँ में किये जाते थे। इन राज्यो को गणराज्य या संघ कहा जाता था। इस प्रणाली पर चलने वाले अनेक राज्य थे जैसे उत्तर बिहार का वृज्जि संघ जिसमे भगवान महावीर पैदा हुए, कपिलवस्तु का राज्य जिसमे गौतम बुद्ध ने जन्म लिया, मल्ल राज्य आदि। उत्तर पश्चिमी भारत के तो अधिकतर राज्य गणराज्य ही थे। लेकिन अधिकतर लोगो को आश्चर्य होगा की आज से करीब 150 साल पहले तक भी एक छोटे से गणराज्य का अस्तित्व इस देश में था।
यह गणराज्य था सेंगर राजपूतो का लखनेसर राज्य जो बलिया जिले में पड़ता है। बलिया जिले का लखनेसर परगना सेंगर राजपूतो के अधीन था लेकिन इनका कोई एक वंशानुगत नेता ना होकर सम्प्रभुता सभी सेंगर राजपूतो में निहित थी। जब भी कोई निर्णय लेना होता था तो सभी राजपूतो की सभा में निर्णय लिया जाता था। कोई भी अकेला व्यक्ति जमीन का स्वामी ना होकर पूरे लखनेसर परगना के सेंगर राजपूत जमीन में बराबर के साझेदार थे। 13वीं सदी में स्थापित हुआ यह गणतंत्र लगभग 500 साल तक जीवित रहा।
***जगमनपुर के राजपूत***
सबसे ज्यादा सेंगर राजपूत जालौन, औरैया, इटावा क्षेत्र में मिलते है जो उनके नाम पर सिंगारत(सिंगार राष्ट्र) या सिंगारघर के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र से ही लखनेसर के सेंगर राजपूतो का निकास हुआ है।
प्राचीन काल में सेंगरो की एक धारा ने जालौन के कनार में आकर राज्य स्थापित किया। इस राज्य में 12वीं सदी में बिसुख देव या सुखदेव नाम के राजा हुए जिन्होंने कन्नौज के गहरवार राजा जयचंद की पुत्री देवकली से विवाह किया। इस विवाह सम्बन्ध की वजह से बिसुख देव की ताकत में वृद्धि हुई और राजा जयचन्द की चंदावर के युद्ध में गौरी के द्वारा हार और मृत्यु के बाद वो और ताकतवर बनकर उभरे और वर्तमान इटावा और औरैया जिले के हिस्सों को भी उन्होंने जीत लिया। यहाँ तक की बसिंध नदी का नाम भी सेंगर रख दिया गया।
बिसुख देव के बाद असाजीत हुए और उनके बाद मदनदेव, मदनदेव के रातहरा देव और उनके बाद सिंगीदेव। सिंगी देव की दो रानीया हुई- पहली इटावा की चौहाननी थी जिनसे मरजद देव हुए जो भरेह के सेंगर राजाओं के पूर्वज है। दूसरी रानी गौड़नी थी जिनसे 6 पुत्र हुए जिनके पट्टी नक्कट, पुरी धर, रूरू के राजा, ककौतु के राव और कुर्सी के रावत वंशधर है। बाद में कनार से बदल कर पास में ही जगमनपुर को राजधानी बनाया गया। आज भी जगमनपुर के राजा सेंगर राजपूतो के प्रमुख माने जाते है। इस क्षेत्र को पाँच नदियोँ के होने के कारण पंचनद भी कहा जाता है।
13वी सदी तक सेंगर राजपूतो ने जालौन से लेकर इटावा के बड़े हिस्से में मेवो को भगाकर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया था। तुर्क हमलावरो के आगमन के बाद यहाँ के सेंगर राजपूतों का तुर्को से संघर्ष शुरू हुआ। सेंगरो ने तुर्को को कभी लगान देना पसन्द नही किया जिस वजह से निरन्तर उनका संघर्ष चलता रहा।
***लखनेसर राज्य की स्थापना***
इसी दौरान इस क्षेत्र के फफूंद से सेंगर राजपूतों का एक साहसिक दल हरी शाह उर्फ़ सूर शाह और बीर शाह नाम के दो भाइयो के नेतृत्व में अपनी किस्मत आजमाने पूर्वांचल की तरफ चला। इन लोगो ने गंगा और घाघरा नदियो के मध्य स्थित क्षेत्र में पहुँचकर अपना राज्य स्थापित करने का निर्णय लिया। इस क्षेत्र के घने जंगल से आच्छादित होने और एकांत में स्थित होने के कारण राजपूतो को ये उपयुक्त स्थान लगा और उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया।
सूर शाह और उनके साथियों ने भरो से लखनेसर परगने को जीतकर राज्य स्थापित किया जबकी उनके भाई बीर शाह के वंशज भी पास ही सिकंदरपुर और जहानाबाद परगना में बसे जिन्हें आज बिरहिया राजपूत कहा जाता है। राज्य स्थापना के बाद इन्होनें पाठक, पांडेय जैसे ब्राहमणों को बुला कर जमीन दान देकर अपने राज्यों मे बसाया।
***लखनेसर की शाशन व्यवस्था***
लखनेसर में स्थापित राज्य में किसी एक नेता का शाशन होने की जगह सभी सेंगर राजा थे और राज्य के शाशन में बराबर के हिस्सेदार थे। सभी सेंगर समान थे, उम्र के अलावा छोटे बड़े का कोई अंतर नही था। शाशन के सभी कार्यो में वरिष्ठ सेंगर मिलकर निर्णय करते थे लेकिन युद्ध के समय सभी पुरुष सेंगर जो हथियार उठाने में सक्षम होते थे हिस्सा लेते थे जिसमे उम्र का कोई भेद नही था।
वो हमेशा अपने को युद्ध के लिये तैयार रखते थे और हर तीसरे वर्ष बैसाख के महीने में सभी समर्थ सेंगर राजपूत पूरी तरह हथियारों से सज्जित होकर रसड़ा(ये उनकी राजधानी थी) में इकट्ठे होते थे जहाँ वंश के वरिष्ठ लोग संघ के योद्धाओं की सामूहिक ताकत का निरीक्षण करते थे। वहा पर वो तरह तरह के युद्ध आधारित खेल और युद्ध कलाओं का प्रदर्शन करते थे। इस वृहत सम्मेलन के गवाह बनने दूर दूर से लोग आते थे और सेंगर राजपूतो की एकता और ताकत से प्रभावित होकर जाते थे।
सेंगर कुलगुरु श्री श्री 1008 बाबा अमरनाथ जी |
रसड़ा में सेंगरो के कुलदेवता श्रीनाथ जी का धाम है जिनका असली नाम अमर सिंह था। सम्मेलन के दौरान इसी धाम के चारो तरफ वंश के सभी लोग जमा होते थे। श्रीनाथ जी के प्रति लखनेसर के सेंगरो में अगाध श्रद्धा है और अपने सभी संघर्षो में विजय के लिये श्रीनाथ जी के आशीर्वाद और ताकत को ही जिम्मेदार मानते हैं। उस समय राज्य के राजस्व का भी एक हिस्सा श्रीनाथ जी को समर्पित किया जाता था।
राज्य की शाशन व्यवस्था बहुत साधारण थी। कृषक और व्यापारिक जातियो से जमीन उपयोग के बदले सामान्य कर लिया जाता था। ब्राह्मण, मजदूरो आदि को उनकी सेवा के बदले जमीन या और तरह के दान दिये जाते थे। बदले में सम्पूर्ण शाशन व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी सेंगर राजपूतो के हाथ में होती थी। न्याय का काम ग्राम पंचायते करती थी जिनमे त्वरित और सस्ता न्याय होता था।
***मुग़लो से संघर्ष***
मध्यकाल में दिल्ली में मुस्लिम सत्ता स्थापित होने के बावजूद देश के अधिकतर हिस्सों में राजपूतो का शाशन बना रहा। राजस्थान के राजपूतों ने ऊची पहाड़ियों पर स्थित किलों से कई सदियों तक तुर्क, पठान, मुग़लो से संघर्ष किया और सफल प्रतिकार किया। इसी तरह उत्तर भारत के मैदानी इलाको में भी अधिकतर राजपूतो ने अपनी स्वतंत्रता अंतिम समय तक बनाए रखी।
मध्यकाल के इतालवी यात्री मनूची के अनुसार मैदानी इलाको के राजपूत जमींदार कभी भी मुग़लो को लगान देना पसन्द नही करते थे और जब सरकारी सेना लगान वसूलने भेजी जाती थी तो सभी राजपूत घने जंगलो में मौजूद अपने किलों/गढ़ीयो में शरण लेकर उनका प्रतिकार करते थे।
मैदानी इलाको में ऊँचे पहाड़ तो नही होते थे जिनका सहारा लेकर प्रतिकार किया जा सके और छोटे-छोटे जमींदारो के संसाधन भी बहुत सीमित होते थे इसलिये यहाँ के राजपूत वंश घने जंगलो का सहारा लेते थे। इसिलिये एक तरफ तो यहाँ राजपूतो द्वारा प्राकृतिक जंगलो का संरक्षण किया जाता था और दूसरी तरफ बांस के घने जंगल बड़ी संख्या में लगाए जाते थे। इन जंगलो के बीचों बीच कच्चे मिट्टी के किले होते थे जिनके चारोँ तरफ गहरी और दलदल से भरी खाई होती थी। इस जंगल को पार कर घुड़सवार सेना और तोपो का आना नामुमकिन होता था। किले के चारों और बांस की इतनी घनी आबादी होती थी की उनसे तोप के गोलों का पार होना संभव नही होता था जबकि किले के राजपूत आक्रमणकारी सेना पर आसानी से निशाना साध सकते थे जिससे वो अपने को सुरक्षित रखकर दुश्मन को ज्यादा से ज्यादा नुक्सान पहुँचाने का सामर्थ्य रखते थे। इन किलों से निकल कर राजपूत बादशाही सेना पर गुरिल्ला हमले भी करते थे।
इस तरह राजपूत अपने से काफी बड़ी और ताकतवर सेना का सफलतापूर्वक सामना करते थे और अधिकतर समय बादशाही सेना राजपूतों को दबाने में विफल रहकर राजपूतो से संधि कर के जो की राजपूतो के पक्ष में होती थी, वापिस जाने में ही अपनी भलाई समझती थी। इस तरह छोटे-छोटे और संसाधनहीन राजपूत राज्य विशाल साम्राजयों के सामने अपनी सत्ता बनाए रखते थे और स्वतंत्र रूप से शाशन करते थे। इन संघर्षों का ही परिणाम है कि जहाँ आज इन विशाल मुस्लिम साम्राजयों का कोई नामलेवा भी नहीं है वहीं विभिन्न राजपूत वंश आज भी अपने इन पुशतैनी इलाको में दबदबे के साथ रहते हैं।
उपरोक्त रणनीति को राजपूतो ने 1857 के संघर्ष में अंग्रेज़ो के विरुद्ध भी इस्तमाल किया था। गौरतलब है की 1857 की क्रांति में सबसे ज्यादा सक्रीय भाग अवध और पूर्वांचल के राजपूतो ने ही लिया था जहाँ पर सैनिक विद्रोह जनविद्रोह बन गया था। अवध में इस रणनीति से अंग्रेज इतने परेशान हो गए थे की बगावत को दबाने के बाद अंग्रेज़ो ने बड़े पैमाने पर जंगलो को काटने और जलाने का अभियान चलाया। जंगल काट कर खेती करने वालो को कई ईनामो की घोषणा करी गई।
इसके अलावा सिर्फ अवध में ही एक साल के अंदर 1783 किलों/गढ़ियों को ध्वस्त किया जिनमे से 693 तोप, लगभग 2 लाख बंदूके, लगभग 7 लाख तलवारे, 50 हजार भाले और लगभग साढ़े 6 लाख अन्य तरह के हथियारों को अंग्रेज़ो ने जब्त करके नष्ट किया। यहाँ तक की अधिकतर संपन्न राजपूतो के घर किलेनुमा होते थे, उन्हें भी नष्ट कर दिया गया। इसके बाद शस्त्र रखने के लिये अंग्रेज़ो ने लाइसेंस अनिवार्य कर दिया जो बहुत कम लोगो को दिया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ की अवध के राजपूत शस्त्रविहीन हो गए।
बहरहाल मध्यकाल में उत्तर भारत के मैदानी इलाको के राजपूतो ने जिनमे आज के हरयाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार के राजपूत शामिल है ने सदियों तक इसी तरह तुर्क, मुग़लो का सामना किया लेकिन इनमे रोहिलखण्ड के कठेरिया राजपूत, अवध के विभिन्न राजपूत वंशो के अलावा लखनेसर के सेंगर राजपूतो का प्रतिरोध सफल होने के साथ साथ उल्लेखनीय भी है।
लखनेसर के सेंगर राजपूतो को कभी कोई ताकत झुका नही पाई और पूरे मुस्लिम काल में वो ना केवल पूर्ण रूप से स्वतंत्र जीवन जीते रहे बल्कि अपनी अनूठी गणतंत्र प्रणाली को बनाए रखा। लखनेसर के सेंगर राजपूतो को उनकी एकता और बंधुत्व की भावना और अपनी स्वतंत्रता के प्रति असीम लगाव होने के कारण कितनी भी बड़ी ताकत द्वारा झुका पाना बहुत मुश्किल था। खून की नदिया बहाए बगैर और हजारों प्राणों का बलिदान देने के बगैर जिनमे राजपूतानियो का बलिदान भी शामिल होता था, उनको झुकाया नही जा सकता था।
इसीलिए अकबर के समय मुग़लो से भीषण संघर्ष के बाद भी आइन-ए-अकबरी के अनुसार लखनेसर के राजपूतो को बहुत मामूली कर देना पड़ता था और उनकी आंतरिक स्वतंत्रता और उनका गणतंत्र बरकरार था। साथ ही उन्हें कोई सैन्य बल भी बादशाही सेना में नही भेजना पड़ता था। अगली सदी में तो क्षेत्र के बाकि राजपूतो की तरह लखनेसर गणराज्य पूर्ण रूप से स्वतंत्र ही रहा।
18वीं सदी की शुरुआत में अवध में सआदत अली खान का राज्य स्थापित होने और पूर्वांचल भी उसके अधिकार क्षेत्र में आने के बाद उसने पूर्वांचल के राजपूतों की ताकत को कुचलने और अपने अधीन करने के लिए अनेको प्रयत्न किये लेकिन वो इस प्रयोजन में असफल ही रहा। पूर्वांचल के अनेको नाज़िमो को राजपूतो को नियंत्रण में रखने में विफल होने के कारण वापिस बुलाना पड़ा।
***बनारस के जमींदार बलवंत सिंह से संघर्ष***
18वीं सदी के मध्य में पूर्वांचल का क्षेत्र एक भूमिहार जमींदार बलवंत सिंह के अधीन आ गया। भूमिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की ताकतवर जाती है जो अपने को ब्राह्मणों से निकला बताते है। बलवंत सिंह का पिता मनसा राम बनारस के नाज़िम रुस्तम अली खान की सेवा में आकर सम्पन्न हो गया और कस्वर का जमींदार बना दिया गया। रुस्तम अली खान के बाद अवध के नवाब ने मनसा राम को बनारस का नाज़िम बना दिया और साथ ही मनसा राम ने अपने पुत्र बलवंत सिंह के लिये पूर्वांचल के जिलो की जमींदारी मंजूर करा ली। मनसा राम के बाद बलवंत सिंह ने कस्वा के राजा की उपाधि धारण की और बनारस का नाज़िम बना। जब बनारस क्षेत्र अवध के नवाब को अंग्रेज़ो को देना पड़ा तो राजा बलवंत सिंह अंग्रेज़ो के अधीन शाशन करने लगा।
पूर्वांचल में बनारस गाजीपुर बलिया आजमगढ़ मऊ सोनभद्र मिर्जापुर और इससे लगता हुआ सारा इलाका राजपूतो का था। काशी के भूमिहार बलवन्त सिंह ने अपनी सत्ता बचाने के लिए इलाके के राजपूत जमीदारो की शक्ति नष्ट करने की नीति अपनाई और अंग्रेज़ सेना की सहायता से जौनपुर के रघुवंशी,पूर्वांचल के गौतम,अगोरी, बिहार के चन्देल आदि राजपूतो पर हमले किये और उनकी शक्ति को काफी आघात पहुंचाया। वो देर रात के समय राजपूत गाँवो पर हमला कर उन्हें नष्ट कर देता था।
क्षेत्र के अधिकांश राजपूत वंश उसकी शक्ति का एकजुट होकर मुकाबला नही कर पा रहे थे। लेकिन हमेशा की तरह बलिया के लखनेसर के सेंगर राजपूतो ने ना केवल डटकर उसका सामना किया बलकि बलवन्त सिंह को उनसे हार माननी पड़ी। लखनेसर के सेंगर ना केवल उसकी राजस्व देने की माँगो को एकदम नकारते थे बल्कि खुलेआम बगावत कर उसके खजाने को लूटने का काम भी करते थे।
इन सबसे बलवंत सिंह ने आग बबूला होकर एक विशाल सेना सेंगरो के खिलाफ झोंक दी और उनकी राजधानी रसड़ा पर आक्रमण कर दिया। सेंगरो ने ब्रह्म हत्या के पाप से बचने को कहते हुए बलवंत सिंह को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा क्योंकि भूमिहार को ब्राह्मण ही माना जाता है, लेकिन बलवंत सिंह नही माना। वो इस बार सेंगरो की ताकत को कुचलने को दृढ़प्रतिज्ञ था और उसने एक के बाद एक कई हमले किये।
मुकाबला बिलकुल असमान था। एक तरफ आधुनिक हथियारों से सज्जित और अंग्रेज़ो द्वारा समर्थित बलवंत सिंह की विशाल सेना थी, वही दूसरी तरफ साधारण हथियारों से लड़ने वाले कुछ हजार सेंगर। इसके बावजूद सेंगर शेरो की तरह लड़े और सभी आक्रमणों को विफल कर दिया। उनका सदियों का स्वतंत्र अस्तित्व खतरे में था और वो किसी भी कीमत पर अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करना चाहते थे। उनकी स्त्रियों ने भी वीरतापूर्वक इस संग्राम में भाग लिया और अपने पतियो के साथ हजारो की संख्या में सती हुई। आज भी इन सती होने वाली देवियो के मन्दिर सैकड़ो की संख्या में रसड़ा के श्रीनाथ जी बाबा के धाम के करीब मौजूद है।
ये खूनी संघर्ष 2 दिन तक चला। दो दिन के आमने सामने के संघर्ष में इतनी जबरदस्त चुनौती के मुकाबले में सेंगर राजपूतो का कितना खून बहा होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इसके बावजूद सेंगरो ने हथियार नही डाले और दृढ़ रहे जिससे बलवंत सिंह को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी। जब लड़ाई में राजपूतो को नही हरा पाया तो बलवंत सिंह ने धोखे का सहारा लिया और कायरता से रसड़ा कसबे को आग के हवाले कर दिया। इससे कस्बे के सामान्य और निर्दोष निवासी बड़ी संख्या में मारे गए और सेंगरो को अपने पाँव पीछे खीचने पड़े। लेकिन सेंगर आखरी दम तक मुकाबले का प्रण कर चुके थे क्योंकि ये उनके स्वतंत्र रहने की आकांक्षा और अपनी पुरखो की सैकड़ो साल की परम्परा को बनाए रखने का सवाल था।
आखिरकार बलवंत सिंह को सेंगरो की अदम्य इक्षाशक्ति के सामने घुटने टेकने पड़े और समझौता करने पर विवश होना पड़ा। उसने मामूली शुल्क के बदले लखनेसर परगने में सेंगरो की संप्रभुता स्वीकार कर ली। सेंगरो द्वारा दिया जाने वाला राजस्व पूरे पूर्वांचल क्षेत्र में सबसे कम था। सेंगरो को परगने के आंतरिक मामलो में पूरी छूट दी गई। उनको लगान वसूलने करने के तरीकों और खर्च को खुद तय करने का अधिकार था। लगान वसूलने के लिए अधिकारी नियुक्त करने का अधिकार भी उन्हें हासिल था। यहाँ तक की लखनेसर का अपना अलग तहसीलदार और शराइस्तदार होता था जिसे सेंगर राजपूतों का भाईचारा खुद नियुक्त करता था। यह अपने आप में एक अनूठा प्रयोग था।
***अंग्रेज़ो का शाशनकाल***
सेंगरो ने अपनी आंतरिक स्वतंत्रता को अंग्रेज़ो के शाशन के शुरुआती काल में भी बरकरार रखा। समस्त पूर्वांचल क्षेत्र में लखनेसर के सेंगर राजपूतो को अत्यधिक स्वतंत्रता प्रेमी और बागी राजपूतो के रूप में जाना जाता था। अंग्रेज़ो के शाशन के पूर्व उन्होंने अपने लिये जो सबसे साहसी, स्वतंत्रता पसन्द और विद्रोह पसंद की जो ख्याति अर्जित की थी उसका लाभ उन्हें अंग्रेजी शाशन में मिला इसीलिये उस वक्त तय की गई लखनेसर परगने की राजस्व की दर भारत की आज़ादी तक बरकरार रही, जो की एक अभूतपूर्व उपलब्धि थी।
हालांकि अंग्रेज़ो ने कई बार लखनेसर के आंतरिक मामलो में दखल देने की कोशिश की लेकिन हर बार राजपूतों के साहसिक विरोध को देखते हुए उन्हें अपने कदम वापिस खीचने पड़े।
एक बार अंग्रेज़ो ने रसड़ा के व्यापारियों पर सेंगरो द्वारा लगाए हुए कर को हटाने की कोशिश करी जिसके खिलाफ सेंगरो ने जंग की तैयारी कर ली। खुद व्यापारियों ने बीच बचाव कर के समझौता कराया और कर का समर्थन किया। इससे पता चलता है कि सेंगर भाईचारे का राज क्षेत्र के निवासियो में कितना लोकप्रिय था।
लेकिन बाद में एक समय लखनेसर की राजस्व मांग अंग्रेज़ो ने दोगुना कर दी और बलवंत सिंह के पोते को वहा का जमींदार बनाकर राजस्व वसूलने की जिम्मेदारी दे दी लेकिन अपने दादा की तरह वह भी सेंगरो के सामने विफल रहा। इसलिये अंग्रेज़ो को लखनेसर परगना पुरानी राजस्व दर से कुछ कम पर ही सेंगरो को वापिस करना पड़ा।
सेंगर अपने राज्य की सीमा में अंग्रेज़ अधिकारियों या किसी और बाहरी ताकत का घुसना भी पसन्द नही करते थे। कई बार अधिकारियों के सिर्फ भ्रमण के लिये आने पर विवाद हो जाता था और राजपूत उस अधिकारी को पकड़ लेते थे लेकिन अंग्रेज़ समझौता करके विवाद से पीछा छुड़ाने में ही भलाई समझते थे।
लेकिन धीरे धीरे लखनेसर गणराज्य आर्थिक कठिनाइयों की वजह से धीरे धीरे कमजोर होने लगा और आखिरकार 1841 में लखनेसर को मिला हुआ अलग राजस्व तंत्र का अधिकार खत्म कर दिया गया और कंपनी के राजस्व तंत्र को लखनेसर में लागू कर दिया गया। इस तरह 500 साल के गणतंत्र की समाप्ति हुई और सेंगर सिर्फ जमींदार बन कर रह गए। हालांकि अभी भी सेंगर गणतंत्र वादी थे और उनका भाईचारा बना हुआ था। अभी भी जमीन के मालिकाना हक में और समस्त आय में सभी सेंगरो की हिस्सेदारी होती थी और कोई भी सेंगर राजपूत अकेला किसी जमीन का मालिक नही था।
इस तरह से 5 सदी पुराना गणतंत्र जिसके अस्तित्व के लिए सेंगर राजपूतो ने अप्रतिम बलिदान दिये वो भले ही खत्म हो गया लेकिन सेंगरो का वर्चस्व क्षेत्र में बना रहा और आज भी सेंगरो का शौर्य, बलिदान और स्वतंत्रता प्रेम की कहानियां क्षेत्र के निवासियो के लिये गर्व करने का विषय है और उनको प्रेरणा देने का काम करते है। सेंगर राजपूतो का गणराज्य होना और अद्वितीय भ्रातत्व की भावना और एकता ही उनकी सफलता का सबसे बड़ा कारण था। गणराज्य भले ही खत्म हो गया हो लेकिन उससे लखनेसर के सेंगरो की महानता कम नही होती और उनकी स्वतंत्रता के लिए अदम्य आकांक्षा और इक्षाशक्ति और जबरदस्त एकता की भावना ने कई पीढ़ियों को प्रेरणा देने का काम किया है।
शायद उन्ही के संघर्ष से प्रेरणा लेकर बलिया की जनता ने स्वाधीनता आंदोलन में अंग्रेज़ो की ईट से ईट बजा दी थी। 1942 में अंग्रेज़ो से स्वाधीन होने वाला बलिया देश का अकेला जिला था। इसीलिए बलिया जिले को बागी बलिया भी कहा गया और आज भी उसकी पहचान इसी रूप में है।
इस गणराज्य की सफलता बाकि राजनीतिक प्रणालियों के मुकाबले क्षत्रिय गणसंघो की ऊपयोगिता भी सिद्ध करती है जिससे आज के दिशाहीन क्षत्रिय प्रेरणा ले सकते हैं।
लेकिन दुर्भाग्य से, ऐसे क्या कारण है कि जहाँ बलिया के मंगल पांडे और चित्तू पांडे को दुनिया जानती है और सम्मान करती है वहीं इसी क्षेत्र के कई सदियों तक संरक्षक रहे और लाखों बलिदान देकर इसे स्वतंत्र रखने वाले सेंगर राजपूतो की इस शौर्य गाथा से देश तो क्या पूर्वांचल के ही बहुत कम लोग परीचित हैं, वो सम्मान मिलना तो दूर की बात हैं??
Lakhnesar, The Last Republic of Hindus.
Many proofs have come to light of the existence, in the distant past, of the republican form of Government in India, and the fact is now so well established that it is not in the least necessary to enumerate them here. There were many republics in India about the beginning of the Buddhistic period- particularly in several of those tribal areas which surrounded the birth place of that great man Siddhartha Gautama, the Buddha (the Enlightened One). But to most of the readers of this article it will come as an agreeable discovery to learn that a republic existed in India till less than 150 years ago. This, however, has really been the case. It was the little republic of Lakhnesar and was founded in the thirteen century of the Christian era by a heroic little band of Sengar Rajputs who had fled from the irresistible onslaught of the Mohamedans. It lasted for about 500 years. This land now forms a pergana of the Ballia district of the United Provinces of Agra and Oudh, but the bulk of it – 83 percent, accounting to the 1907 Gazetter of the district- is still owned and held by the Sengar’s in the bhaiyachara (literally brotherhood) form of tenure.
Let us here reproduce a few lines from the “Gazetteer” of the district.
Historical interest centers mainly in the Rajputs, who secured for themselves a preponderate position, never to be lost throughout the days of Musalman sovereignty. These Rajputs appear to have come from the west, at any rate in most case. Their migration was spread over a considerable period, the dates of their advent given by the different clans ranging from thirteenth to the seventeenth century. *********
Amongst the earliest Rajput immigrants were Sengars. Their history is remarkable, for at all times they were renouned for their strength and courage, but on no occasion do they seem to have had a common Raja, the republican nature of their institutions being illustrated by the facts that the 537 mahals into which the pargana (Lakhnesar) is divided are all held in bhaiyachara tenure. Nevertheless their union was so complete that the Sengars were the only clan who preserved their property rights intact. The democratic sprite was not so strong in the case of the clans in other parganas.
Before proceeding further we shall show how and why our republics differed in one important respect from those ot other countries.
The caste system of us Hindus is older than the age of the great Buddha. The classification of the population of the country into four interdependent divisions (varnas) according to “qualities and action”.
Each division was a no detachable component part of one compact and entire whole with its duties clearly defined for the common good of he nation. The governance and protection of the country fell to the Kshatriya. In their own sphere of life they were the permanent representatives of the remaining three varnas as they (the other varnas) were in theirs.
Separate clans of Kshatriyas formed separate Governments in their respective spheres of influence which. Needless to say, changed with times. In doing so the clansmen either elected one of themselves as their king or carried on the government conjointly in the name of brotherhood. These latter were our republics. The same was doubtless the model of the tribal republics of 2500 years ago that we read of in Buddhist literature. Such clan republics were recognized form of government also in the times of the Maurya King Chandragupta (322-398 BC), whose minister Chanakya alias Kautilya or Vishnugupta, in his now famous “Arthashastra” says “sovereignty may be the property of a clan.” It is mistaken to call them oligarchies or give them any other name, for the simple reason given above, viz., the Kshattriyas were the representatives of the nation as a whole charged with the governance of the country.
At the time of the fall of the Kingdom of Kanauj at hands of Shihabuddin Muhammad Ghori, in 1194, the Sengar Rajputs ruled over that part of the country on either bank of Jumna which now forms the bulk of the Jalaun and Etawah district of the Agra Provence and is locally known after them by the name of Singarat (Sringa-Rashtra) or Singar-Ghar. It had by then been their stronghold for about 250 years. The town of Karnavate (Kanar) situated on the south bank of the Jumna river near were Jagamanpur, the capital of Raja Lokendra Shah Bahadur, the present head and premier prince of the clan, now stands, was their metropolis and the mighty Prince Vishoka Deva, who was the son-in-law of the great Raja Jayachandra Rathor (Gahadwal) of Kanauj, and had added much of his possessions either by conquest or by grants from Kanauj or by both, was their Raja. By reasons of the relationship mentioned he paid no tribute to Kannuj, which was then the Suzerain power of the Eastern Rajputs- the “Prasii” or “Prachyas” of the historians of Alexander the Great and the “Purabia” or “Hindustani” Rajputs of the present day writers.
Sarwan fort |
The more the Mohamedan power increased the less powerful did this kingdom of the Sengars became. The Mohamedans made several of its cadet branches (now represented by the Rajas of Bhareh, Rura and Hardoi; the Diwan of Sarwan; the Raos of Kakhaotu; Bhikra and Riniyan; the Rawats of Kursi; and others) one by one independent of the House of Kanar which the Raja of Jagamanpur now represents and levied tribute from them.
Some liberty loving Sengar Rajputs, mostly from Phaphund, which was also one of the cadet chieftainships, would not stand the humiliation, and, bidding adieu to their kith and kin as well as their own hearths and homes , set out in search of “a place in the Sun” were their own children could live like free men. Two elderly brothers, Hari Sah alias Sur Sah and Bir Sah, headed and led this little adventurous band of great souls.
“Where there is a will there is a way.”
They traveled far to the east and in course of time reached the country between the Ghagra and the Ganges. Its rugged and secluded nature ant its thick primeval forests at once appealed to the military instinct of the Rajputs. In this veritable fastness of nature the planted their colonies here and there and the land stood them in good stead throughout the Mahomedan period.
Sur Sah and his people were more fortunate than the rest of the party. They struck upon the decaying Bhar Principality of Lakhnesar on the sarju in the very heart of the forest, conquered it, and founded, in its stead, the little Republic of Lakhnesar which is the subject of this article. here one thing deserves special notice. The Gautam Kshatriyas, of whom the great Buddha was one, claim, down to the present day, to be a younger branch of the Sengar clan. The foundation of a republic by that great man’s kinsfolk so near his birth place and near were republics had also existed in the past is remarkable and may have had some special significance about it. it is possible that a yearning for the old house of their forefathers or an invitation from their Gautama brethren of the Gorakhpur country on the other side of the Ghaghra was also at the back of the adventurous undertaking which was so successful.
At any rate Lakhnesar was not the first republic of the Sengars, who now represent the ‘Singhoe’ mentioned by the Greek author and ambassador Megasthenes as being one of the people “which are free, have no Kings and occupy mountain heights where they have built cities.” These ‘Singhoe’ cannot but have been the Sengars of Bandhu (Rewah) and Kalinjar, which, according to the traditions of the clan, were among its strongholds in the remote past.
Sengar’s code of government was very simple. They taxed the agriculture and mercantile communities for the use of their land. Priest, village workmen and menials rendered services in lieu of land held by them. the Sengars in return took upon themselves all responsibilities for the government and defense of the country. Justice was cheap, instantaneous and easy to obtain and was in most cases administered by village or caste punchayats, the Sengar elder only interfering in big or complicated cases.
Ordinarily all the routine work of government was attended by the elderly Sengars but in time of war each and every male member of the brotherhood capable of bearing arms deemed it his duty to render military services in the defense of the country. There was no age limit. None but Sengars were liable to a call to arms. They always kept themselves militarily prepared and every third year in the month of Baisakh (Vaisakha) all able bodied Sengars, duly armed and accoutered, met in thousands for a general inspection by the elders of the clan of the combined armed strength of the brotherhood. the meeting place was generally the town of Rasra, to which they had removed the capital, country. While there, they indulged in diverse sorts of manly sports and soldierly performances. Spectators from the neighboring tribal areas also flocked to Rasra in large numbers to witness this triennial military Vrihat-Sammelana of the Sengars and returned to their homes vividly impressed with the unity and strength of the clan.
When they went to Rasra for the Sammelana they had not to report themselves at the door of any particular person there, because they were all brothers and therefore equal, but encamped themselves round the shrine of Shri Nath Ji, a deified hero of the Sengar clan, whose original name was Amar Singh and who is still worshiped by the Sengars of Lakhnesar.
“He is represented as a guardian deity, interfering in various ways, and with constant success, on behalf of his votaries. Their successful resistance to the Rajas of Benares, and the restoration of the pergana to them by the English Government, are regarded as instances of the power and influence of Nath Baba. ******** His shrine is supported, among other offerings, by the voluntary contribution of one pie in the rupee on the Government revenue of pergana Lakhnesar. The Zamindars, indeed, were willing to have this recorded and made a legal claim upon them, but the Government declined to have anything to do with its collection or legal recognition, and it continues to be a voluntary offering.”
In spite of having on more than one occasion had to pay tribute to its contemporary Mohamedan Kings, the Republic enjoyed complete internal independence throughout the Musalam period, with the end of which the days of its misfortune began. But, as we shall see, the Sengars were a hard nut to crack and only yield after they had shed and drawn much blood, and sacrificed and taken lives, in which their heroines also participated.
Akbar’s time Lakhnesar paid a light annual tribute of about Rs 3165, but unlike other tribal areas of the country, furnished no military contingent; vide “Ain-i-Akbari.”
The administrative arrangement of Akbar’s time appear to have remained unchanged till 1722, and for the intervening period the history of the district is a complete blank………..Soon after this the grip of the central and provincial governments in this part of the empire gradually leading to the local Rajput zamindars becoming practically independent. As in former times the Rajputs of this district appear to have been left to themselves. Taking advantage of the chaos, Kunwar Dhir Singh, turbulent Rajput chief of Shahabad (in the State of Bihar) set out with a small force and took possession of a large tract along the banks of the Ghaghra and extended his conquests as far west as Sagri (in Azamgarh). His activities soon attracted the attention of Sarbuland Khan, the governor of Allahabad, who in 1715, aided by he raja of Azamgarh, drove Dhir Singh out almost to Padrauna (in district Deoria where he was killed).
When Muhammad Shah became emperor in 1719, he gave Muriaza Khan (one of his courtiers) the bulk if the tract covering the present district of Ballia in jagir together with the rest of the sirkars of Jaunpur and Ghazipur as well as those of Varanasi (Banaras) and Chunar. Murtaza Khan entrusted the management of these territories to Rustam Ali Khan (a relative) for consideration of five lakhs of rupees annually, the latter having the right to retain the surplus for himself. As he could not realize the revenue from most of the zamindars,
In 1722 Saadat Ali Khan became the Governor of Oudh. He was the first Nawab Vazir of Oudh. about 1728 Murtaza Khan leased the jagir to Saadat Khan (the nawab of Avadh) for an annual sum of seven lakhs of rupees, who allowed Rustam Ali Khan to continue to manage the estate for eight lakhs of rupees annually. From that time Ballia ceased to be subject directly to the imperial administration and its virtual ruler became the nawab of Avadh. Rustam Ali Khan experienced considerable difficulty in reducing the turbulent Rajputs of the Ballia region to order and in realizing revenue from them. He, therefore, set up a large entrenched camp on the banks of the Saryu in pargana Kopachit East, close to the village of Dumre from where he marched against the Rajput chieftains of Sukhpura in pargana Kharid, who were killed in a pitched battle in village Garwar (in tahsil Ballia). From their skulls, Rustam Ali khan constructed a pyramid which, it is said, now forms an elevated mound in Garwar. He and his successors did much to destroy the power of the Rajputs of this part of the country, but with varying success. The later were never completely subjugated and Muhammad Ali Khan, the last representative but one of the Oudh Government, about 1754, had to be recalled because of his
“inability to deal with the Rajput population”
He continued in charge till 1738, when he was replaced by Mansa Ram, one of his deputies, a Gautam Bhuminhar zamindar of Gangapur in Varanasi.
Mansa Ram secured for himself but in the name of his son, Balwant Singh, the office of nazim of the sirkars of Jaunpur, Varanasi and Chunar. Mansa Ram died within a year and was succeeded by his son Balwant Singh who made over the remaining sirkar of Ghazipur to Sheikh Abdullah (a zamindar of Ghazipur who earned the favour of Saadat Khan, the nawab of Avadh) on an annual rent of three lacks of rupees. Sheikh Abdullah died in 1744 leaving four sons, of whom the eldest, Fazl Ali, and youngest, Karam Ullah, had a tussle over the sirkar of Ghazipur and sometimes the former gained charge of it and sometimes the latter. The tussle continued till the death of Karam Ullah in 1748.
The sirkar of Ghazipur remained under the charge of Fazl Ali until his expulsion in 1757 for oppression and misconduct and the sirkar of Ghazipur was re-annexed to the other three sirkars and placed under Balwant Singh’s management. From this time Ballia formed part of the territories held by Balwant Singh (who became raja of Varanasi) as a feudatory of Shuja-uddaula, the nawab vizier of Avadh.
From 1761 to 1781 Raja Balwant Singh of Benares held this part of the country as a feudatory, first of Oudh and then of the East India Company. He also adopted the policy of destroying the power of Rajputs. On several occasions they offered resistance to Balwant Singh, but in only one case were their efforts successful. This exception to the general rule provided by the Sengar republicans of Lakhnesar, who not only treated his demands with contempt but adopted an attitude of open hostility and attacked and pillaged his treasuries
Balwant Singh adopted the policy of destroying the power of the local chieftains. His chief victim in this district was Bhuabal Deo of Haldi, who lost the whole of pargana Ballia. The entire Ballia region (with the exception of pargana Doaba) was placed in the charge of amils, Mir Sharif Ali obtaining Ballia and Kharid; Lakhnesar and Kopachit being given to Balam Das; Shikandarpur to Mudaffar Khan; and Garha and several of the Ghazipur parganas to Bhaiya Ram.
On several occasions the local chieftains offered resistance to Balwant Singh but in only one instance were their efforts successful. This exception was provided by the Sengars of pargana Lakhnesar, who not only treated his demands with contempt but adopted an attitude of open hostility. Not content with the refusal to pay revenue, they attacked and pillaged his treasuries so that eventually, in 1764, he was compelled to proceed against them in person with a large force. Rasra (in pargana Lakhnesar) was then most inaccessible by reason of the jungle which surrounded it and because the houses the Sengar chieftains were all built with a view to defence.
The Raja, incensed at the sprit they displayed, conducted a large force into the heart of their fastness and attacked their capital, Rasra. In vain did they ask him to reconsider his decision and save them the great sin of staining their hands with Brahman blood. He was determined and ordered attack after attack.
In spite of the inequality of the fight, the Sengars fought like lions and smashed all the attacks. They knew their very existence as free men was at stake and were therefore very desperate. Their ladies also stood heroically by them and many of them burnt themselves alive with their fallen husbands. Hundreds of sati monuments sacred to the memory of these heroines surround the large tank near the shrine of Shri Amar Nath (Nath Baba) at Rasra down to the present day.
The bloody conflict lasted for full two days. It can easily be imagined what a tremendous loss of life that duration of a pitch battle against over whelming odds in those days of hand fight with cold steel meant. The Sengars, however, stood firm, and when bravery failed Balwant Singh, he had recourse to treachery and had the cowardice to have the town set on fire so that many helpless and innocent lives were lost and Sengars had to withdraw; but they wavered not in the least vow to fight to the last man, because it was, after all, an unconquerable will to remain free and not the walls that counted and fought.
The competition was completely uneven. On one side there was a huge army of Bhumihar Balwant Singh, equipped with modern weapons and supported by the British, on the other side a few thousand Sengars, fighting with ordinary weapons. Despite this, they fought like lions and thwarted all attacks. Their centuries of independent existence was in danger and they wanted to protect their freedom at any cost. Their women also bravely participated in this struggle and did sati with their husbands in thousands Even today, hundreds of temples of these Sati Devis are present near Shri Amarnathji Baba's Dham at Rasra.
The issue of this famous fight was gratified to the brave clan, and has been the subject of exultation among the descendants down to the present time. The Raja was obliged to agree to a compromise and permitted the Sengars to retain their estates on the payment of small revenue. The fruit of their conspicuously seen now that the country is under the British, for the amount of land revenue annually paid by the Sengars, settled in accordance with the original arrangement made by them with Raja Balwant Singh, is now only nine annas or thirteen pence half penny per acre, the lowest sum paid in the whole of the Benares province excepting the hill people in Mirzapore district.
The annual payment fixed was Rs 20501, and the Sengars were guaranteed the right to manage it in their own fashion. They had their own revenue collector, and the distribution of the demand was affected by themselves without any interference on the part of the Government. The amount then fixed has remained unchanged till independence of India which worked out to “a rate which does not now exceed eight annas per bigha of cultivation.
The Sengars maintained the internal independence of Lakhnesar almost unimpaired down to the early years of British rule which began in 1781 and “When Me. Duncan (appointed Resident in 1787) assumed control of Benaras, the Sengars were considered the most independent and troublesome of all the subjects of the Company. Dr. Wilton Oldham in his ‘Statistical Memoirs of Ghazipur District’ puts it thus: “Before the establishment of the British authority the Sengars of Lakhnesar had managed to establish for themselves an unrivalled reputation for their courage, independence and insubordination. This reputation they preserved unimpaired during the first year of administration.
In 1788 the British Government abolished certain market and other dues which the Sengars used to realize in their chief town Rasra and they were prepared “to resist the order by force till a compromise was suggested by the merchants **** whereby the ground rents (which had not been interfered with by the Government and are still realized) were raised by one-half. That the merchant came to their rescue at such a critical juncture proves beyond doubt that the rule of the Sengars had been popular and that the inhabitations in general were, on the whole, sympathetic with and well inclined to the brave clan under whose protection they had for centuries lived in peace and plenty and had known practically no outside interference with their internal affairs.
In 1793 Mr. Duncan made a tour of Lakhnesar. The Sengars were not much used to such tours and saw in it the thin end of the wedge. They, therefore, attacked his body guards. He was however, a master breaker of men to harness and knew how to deal with the, the offence was condoned and the fiscal arrangement entered into with Balwant Singh was permitted to continue, the entire pergana being settled with their Chaudhris or headmen as the undivided estate of the whole clan And undivided it had always been in spite of the governing clan numbering thousands, because it was founded as a State and not as an Estate.
Somehow or other, in 1796, Lakhnesar fell into arrears, and in 1798 the Collector of Benares had to proceed against the Sengars with military force. In 1801 the first detailed settlement of Lakhnesar was made at Rupees 40738/- The enhanced revenue was, however never paid, with the result that the pergana was sold to the Raja of Benares. He made several attempt to gain possession by means of “a semi-military force” and to accomplish what his famous grandsire had failed in, but with no better result. In 1802 the sale had to be cancelled and old Lakhnesar was once again restored to Sengars. A settlement was carried out again and the original demand of Rs 20501/- was maintained with the deduction of Rupees 1653/- on account of nankar and the salary of a separate revenue establishment.
Sengars along with Sikarwars, Katheriyas, Bhadauriyas were well known forces in that Armed peasntry who even raided British officers.
Check AU Siddiqui on Sengar banditry in 1820s that harmed the east India company in Lateri, Lakhnesar and Balia.
Indian Freedom Movement in Princely States of Vindhya Pradesh |
When the Sengar Rajputs opposed British activities in 1812, Colonel Martindell came with a troop of sepoys to quell them, but the Sengars attacked marching sepoys on Great Deccan Road and several were killed.
In 1841 Lakhnesar’s privileges of maintaining its own Tahsildar and Sarishtadar as distinct from the Government revenue establishment of the district was withdrawn, the duties being performed by the Government Tahsildar and Qanungo of Rasra. This destroyed the very foundation of the Republic and the 500 years of rule came to an end making the Sengars just a zamindar’s. The only difference was they were yet known as Lakhnesar Raj due to the understanding between the brotherhoods. Where every Sengar considered himself to be a republic worker and all income was shared among them self. It was very difficult to understand the ownership at limes of sale, mortgage or auction. “For nearly a century no attempt was made to define the limits of the interests held by the innumerable co-sharers,” further references that we get about the land sharing are “The properties of the different shareholders are intermixed in a most intricate manner. No decree of the civil court giving possession to any purchaser by auction or by private sale, has ever been executed, owing to the impossibility of identifying the property of any one of the proprietors.
1840, in the district of Beneras Rajputs held 72.2% of the whole land while being 6% of the population.
After 1840 a lot of their land was taken away by the combined forces of British+Bhumihar and now Rajputs possessed only 23.7 (What could be the reason?)
In this way the Sengar Rajputs, who had founded the little republic of Lakhnesar and administered and protected it for centuries, became ordinary Zamindars. They yet held about 83 percent of the pergana of Lakhnesar.
Lakhnesar’s struggle for existence was tragic and protracted, but the Sengars of Lakhnesar have nothing to be ashamed of in the way in which their ancestors themselves. They acted their part well, and, as vatican pope had said, “Honour and shame from no condition rise; Act well your part, there all the honour lies.” So all honour to those really great souls.
No comments:
Post a Comment