हिन्दू धर्म भारत का सर्वप्रमुख धर्म है। इसमें पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। हिंदू धर्म की प्राचीनता एवं विशालता के कारण ही उसे 'सनातन धर्म' भी कहा जाता है। बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी भी व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित किया गया धर्म नहीं, बल्कि प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों एवं आस्थाओं का बड़ा समुच्चय है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। जो निम्नानुसार है :-
1. गर्भाधान :
गर्भाधान संस्कार महर्षि चरक ने कहा है कि मन का प्रसन्न और पुष्ट रहना गर्भधारण के लिए आश्यक है इसलिए स्त्री एवं पुरुष को हमेशा उत्तर भोजन करना चाहिए और सदा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। गर्भ की उत्पत्ति के समय स्त्री और पुरुष का मन उत्साह, प्रसन्नता और स्वस्थ्यता से भरा होना चाहिए। उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है। माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है।
2. पुंसवन :
पुंसवन संस्कार तीन महीने के पश्चात इसलिए आयोजित किया जाता है क्योंकि गर्भ में तीन महीने के पश्चात गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क विकसित होने लगता है। इस समय पुंसवन संस्कार के द्वारा गर्भ में पल रहे शिशु के संस्कारों की नींव रखी जाती है। मान्यता के अनुसार शिशु गर्भ में सीखना शुरू कर देता है, इसका उदाहरण है अभिमन्यु जिसने माता द्रौपदी के गर्भ में ही चक्रव्यूह की शिक्षा प्राप्त कर ली थी।
3. सीमंतोन्नायन :
सीमंतोन्नायन संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। इस दौरान शांत और प्रसन्नचित्त रहकर माता को अध्ययन करना चाहिए।
4. जातक्रम :
बालक का जन्म होते ही जातकर्म संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।
5. नामकरण :
जातकर्म के बाद नामकरण संस्कार किया जाता है। जैसे की इसके नाम से ही विदित होता है कि इसमें बालक का नाम रखा जाता है। शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। बहुत से लोगों अपने बच्चे का नाम कुछ भी रख देते हैं जो कि गलत है। उसकी मानसिकता और उसके भविष्य पर इसका असर पड़ता है। जैसे अच्छे कपड़े पहने से व्यक्तित्व में निखार आता है उसी तरह अच्छा और सारगर्भित नाम रखने से संपूर्ण जीवन पर उसका प्रभाव पड़ता है। ध्यान रखने की बात यह है कि बालक का नाम ऐसा रखें कि घर और बाहर उसे उसी नाम से पुकारा या जाना जाए।
6. निष्क्रमण :
इसके बाद जन्म के चौधे माह में निष्क्रमण संस्कार किया जाता है। निष्क्रमण का अर्थ होता है बाहर निकालना। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि से बना है जिन्हें पंचभूत कहा जाता है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।
7. अन्नप्राशन :
अन्नप्राशन संस्कार संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है। प्रारंभ में उत्तम प्रकार से बना अन्न जैसे खीर, खिचड़ी, भात आदि दिया जाता है।
8. चूड़ाकर्म :
सिर के बाल जब प्रथम बार उतारे जाते हैं, तब वह चूड़ाकर्म या मुण्डन संस्कार कहलाता है। जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवें या सातवें वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है।
9. कर्णवेध :
कर्णवेध संस्कार का अर्थ होता है कान को छेदना। इसके पांच कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से ज्योतिषानुसार राहु और केतु के बुरे प्रभाव बंद हो जाते हैं। तीसरा इसे एक्यूपंक्चर होता जिससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होने लगता है। चौथा इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है। पांचवां इससे यौन इंद्रियां पुष्ट होती है।
10. यज्ञोपवीत :
यज्ञोपवित को उपनय या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। प्रत्येक हिन्दू को यह संस्कार करना चाहिए। उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है। साथ ही उसमें आध्यात्मिक भाव जागृत होता है।
यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है । मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
11. वेदारंभ :
इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है।
ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।
12. केशांत :
केशांत का अर्थ है बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत या कहें कि मुंडल किया जाता है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। प्राचीनकाल में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद भी केशांत संस्कार किया जाता था।
13. समावर्तन :
समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।
14. विवाह :
उचित उम्र में विवाह करना जरूरी है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान ही नहीं दिया जाता बल्कि व्यक्ति के आध्यात्मिक और मानसिक विकास के लिए भी यह जरूरी है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से भी मुक्त होता है।
15. आवसश्याधाम , 16. श्रोताधाम
इस प्रकार हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार किए जाते हैं। :
शारीरिक शिक्षा
“शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्”- शरीर समस्त धर्म का साधन है । हमारी ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति की भी अभिव्यक्ति का माध्यम शरीरी हैं । स्वस्थ काया में स्वस्थ मन निवास करता है । जीवन के सुख के लिए स्वस्थ मन आवश्यक है । इस स्वस्थ मन के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है । शरीर के स्वास्थ्य के लिए शारीरिक शिक्षा का महत्व सभी ने स्वीकार किया है । यह उक्ति प्रसिद्द है कि बहुबल से रक्षित राष्ट्र ही शास्त्र का चिंतन कर सकता है । शारीरिक शिक्षा से बल्किन में जो पौरुष, बल एवं शक्ति का विकास होगा, उसी से हमारे देश में अध्ययन, अनुसन्धान,म देश की सीमा की रक्षा, विश्व में शांति, कल-कारखानों तथा खेत-खलिहानों में उत्पादन की वृद्धि संभव होगी । शारीरिक प्रशिक्षण से छात्रों में सामुहित भावना अनुशासन एवं व्यवस्थित कार्य करने की अभूतपूर्व क्षमता उत्पन्न होती है । उससे स्वस्थ समाज का निर्माण होता है । इस प्रकार शारीरिक शिक्षा व्यक्ति, समाज राष्ट्र एवं विश्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है ।विवेकानंद ने शारीरिक बल पर अत्यधिक आग्रह किया है । उनके शब्दों में –“अनन्त शक्ति ही धर्म है । बल पुण्य है और दुर्बलता पाप । सभी पापों और सभी बुराइयों के लिए एक ही शब्द पर्याप्त है और वह गई-दुर्बलता आज हमारे देश को जूस वस्तु की आवश्यकता है, वह है लोहे की मांसपेशियां और फौलाद के स्नायु, दुर्दमनीय प्रचंड इच्छाशक्ति, जो सृष्टि के गुप्त तथ्यों और रासस्यों को भेड़ सके और चाहे उसके लिए समुब्द्र तल में ही क्यों न जाना पड़े-साक्षात् मृत्यु का ही सामना क्यों न करना पड़े । मेरे नवयुवक मित्रों! बलवान बनो । तुम को मेरी सलाह है । गीता के अभ्यास की अपेक्षा फ़ुटबाल खेलने के द्वारा तुम स्वर्ग के अधिक निकट जाओगे । तुम्हारी कलाई और भुजाएं अधिक सुदृढ़ होने पर तुम गीता को अधिक अच्छी तरह समझोगे । तुम्हारे रक्त में शक्तिकी मात्रा बढ़ने पर तुन श्रीकृष्ण की महान प्रतिभा और अपार शक्ति को अच्छी तरह समझने लगोगे । तुम जब पैरों पर दृढ़ता के साथ खड़े होगे और तुमकों जब प्रतीत होगा कि हम मनुष्य है, तब तुम उपनिषदों को और भी अच्छी तरह समझोगे और आत्मा की महिमा को जान सकोगे।”शारीरिक शिक्षा का शाब्दिक अर्थ तो ‘शरीर की शिक्षा है’ परन्तु इसका भाव शरीर तक सीमित नहीं है । वास्तव में शारीरिक शिक्षा के द्वारा बालक का शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, नैतिक एवं आतिम्क विकास होता है, उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व सुगठित होता है । शारीरिक शिक्षा केवल शारीरिक क्रिया नहीं है । “शारीरिक शिक्षा, शिक्षा ही है । यह वह शिक्षा है जो शारीरिक क्रियाओं द्वारा बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, शरीर, मन एवं आत्मा के पूर्ण विकास हेतु दी जाती है ।”शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति में शारीरिक शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है । खेल के मैदान में, धरती माता की धुल में ही बालक के व्यक्तित्व का वास्तविक गठन होता है । खेलों के द्वारा स्फूर्ति, बल, निर्णय शक्ति, संतुलन, साहस, सतकर्ता, आगे बढ़ने की वृति, मिलकर काम करने की आदत, हार जीत में समत्व-भाव, अनुशासनबद्धता आदि शारीरिक, नैतिक, सामाजिक एवं आत्मिक गुणों का विकास होता है । शारीरिक क्रियाकलापोंव्यक्ति खुलकर बाहर आता है । भीतर की कुछ कुंठाएं, घुटन, निराशा आदि खेल की मस्ती में घुल जाती है । उत्साह उमड़ता है । क्रियाशीलता बढ़ती है, और उसे योग्य दिशा मिलती है । आनंद की प्राप्ति होती है, और आनंद में ही मानव के विकास की प्रेरणा निहित है ।भारतीय मनोविज्ञान में मानव की भौतिक काय को स्थूल शरीर कहा गया है । इस स्थूल शरीर के दो भाग है । स्थूल देह को अन्नमय कोश एवं दुसरे भाग को प्राणमय कोश कहा गया है । अत: शारीरिक शिक्षा के अंतर्गत अन्नमय कोश और प्राणमय कोश-दोनों का विकास सम्मलित है । सामान्य भाषा में अन्नमय कोश के विकास को शारीरिक विकास एवं प्राणमय कोश के विकास को संवेगात्मक विकास कहा जाता है ।उद्देश्य – शारीरिक विकास के तीन प्रधान उद्देश्य है :-शरीर को ह्ष्ट-पुष्ट, सुन्दर, सुडौल बनाना एवं उसकी क्षमताओं का विकास करना ।शरीर के सभी अंगों एवं संस्थानों की क्रियाओं का सर्वांगपूर्ण, प्रणालीबद्ध और सामंजस्यपूर्ण विकास करना ।शरीर का पूर्ण निरोग रहना । यदि शरीर में कोई दोष और विकृति हो तो उसे सुधारना । विशेष रूप से आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियों को निरोग एवं क्षमतावान बनाना ।
शारीरक विकास के निम्नांकित आवश्यक तत्व है :-
भोजन- शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भोजन का संतुलित एवं नियमित होना आवश्यक है । छात्रों को यह ज्ञान होना चाहिए कि संतुलित भोजन क्या होता है और भोजन नियमित समय पर और कितनी मात्र में किस प्रकार करना चाहिए । पानी पीने के नियमों की जानकारी उपयोगी है । भोजन में स्वच्छता एवं पवित्रता का ध्यान रखना चाहिए । यह जानना आवश्यक है कि हम अपने शरीर को सबल और स्वस्थ रखने के लिए भोजन करते है, स्वादेन्द्रिय को सुख देने के लिए नहीं ।
स्वच्छता- शरीर को निरोग एवं स्वस्थ रखने के लिए स्वच्छता आवश्यक है । नियमित स्नान के द्वारा शरीर को स्वच्छ रखना, दांत, नाख़ून, वस्त्र आदि स्वच्छता, रहने, बैठने के स्थान आदि की स्वच्छता-इन पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
विश्राम- शरीर को समुचित विश्राम मिलना चाहिए । विश्राम अथवा सोने की अवधि आयु के अनुसार अलग-अलग हो सकती है । सोने का स्थान बिलकुल शांत और हवादार होना चाहिए । स्नायुओं को आराम पहुँचाने के लिए पूर्ण निद्रा आवश्यक है । प्रत्येक व्यक्ति को जाग्रत अवस्था में मांसपेशियों और स्नायुओं को विश्राम देने की विधि जननी चाहिए । योगासनों में शवासन या शिथिलता की क्रिया इसके लिए बहुत उपयोगी है ।
व्यायाम- शरीर के विकास के लिए मांसपेशियों में अच्छी गति और संतुलित वृद्धि लाने के लिए प्रतिदिन व्यायाम आवश्यक है । बालकों के दैनिक कार्यक्रम में व्यायाम, खेल-कूद को अच्छा स्थान देना चाहिए । रीढ़ की हड्डी और जोड़ो का कड़ा पद जाना रुकना चाहिए । यह शरीर के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । इसके लिए योगासनों का अभ्यास बहुत उपयोगी है । इनसे शरीर नमनीय एवं लचीला, सुन्दर, सुडौल बनता है ।
सद्विचार एवं नियमितता- जीवन में सद्विचार, नियमितता तथा स्वस्थ आदतों का शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहता है । छोटी आयु से ही बालकों में शारीरिक स्वास्थ्य, शक्ति, सामर्थ्य और सुन्दर, सुडौल शरीर के प्रति आदत का भाव सिखाना चाहिए । अच्छी आदतों, अच्छे विचारों का शारीरिक स्वास्थ्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है । ब्रह्मचर्य की साधना शरीर को बलशाली, सुन्दर, सुडौल और अदम्य क्षमतावान बनाती है । इसका महत्व छात्रों को यथासमय बताना चाहिए ।
बच्चों की देखभाल कैसे करे
जो बच्चा जितना अधिक स्वस्थ होता है वह उतना ही सुन्दर व आकर्षक लगता है और उसकी लम्बाई भी उम्र के साथ बढ़ती है तो बच्चे के सम्पूर्ण विकास के लिया गर्भधारण करते ही अपने खान-पान में विशेष बदलाव किजिएं जैसे :-
तला भुना खाने से बचें ।
मिर्च और हर प्रकार के मसालों से दूरी बना लें ।
बाज़ार की मिठाई का सेवन न करें ।
चाय और काफी का सेवन किसी भी रूप में न करें ।
गर्म गोलियों के सेवन से बचे ।
मौसम के विपरीत न खाएं और ज्यादा खाना खाने से बचे ।
प्रतिदन हवन करें ।
ताजा और हरी सब्जी का सेवन करें ।
उचित मात्रा में दूध का सेवन करें । और कभी-कभी हल्दी को दूध में मिलाकर लें ।
मौसम के अनुकूल ताजा फलों का सेवन करें ।
आयुर्वेदिक गोलियों का सेवन करें ।
मौसम के अनुकूल वस्त्र धारण करें ।
मौसम अनुसार हल्का भोजन जैसे:- दलिया, खिचड़ी, हल्वा, खीर आदि का सेवन करें ।
जन्म उपरांत बच्चे को माँ का दूध पिलाए। 6 महीने पश्चात बच्चे का अन्नप्राशन संस्कार करवाएं । फिर उसे भात में घृत व मधु (शहद) मिलकर प्रथम भोजन कराएँ ।
चबाने वाली चीजें देने से बचे ।
बाहरी दूध का सेवन न कराएँ ।
ज्यादा पानी न पिलाएं ।
मिर्च का सेवन कराने से बचे ।
गर्म गोलियां न खिलाएं ।
गिले कपड़े न पहनाएं ।
छ महीने तक माँ के दूध का सेवन कराएँ ।
रसयुक्त पदार्थ खिलाएं । वेदों के अनुसार बच्चे के लिए सबसे चिकना और रसयुक्त पदार्थ उचित होता है । घी सबसे चिकना और रसयुक्त पदार्थ है इसका सेवन कराएँ ।
नरम पदार्थ खिलाएं ।
बच्चे की मौसम के अनुसार उचित देखभाल करें।
आयुर्वेदिक दवा का प्रयोग करें ।
थोड़ा-थोड़ा जूस दे सकते है ।
सिरोलेक्स बच्चे को भूल कर भी न दें ।
तली-भूनी चीजों के सेवन से बचाएं ।
मिर्च-नमक से बच्चों को दूर रखें ।
बाजारी मिठाई के सेवन से बच्चों को दूर रखे ।
चाय-काफी आदि का सेवन न करने दें ।
टी.वी., रिमोट गेम, मोबाइल से बच्चों को दूर रखे । आप पढ़ रहे है बच्चों गाय के दूध का सेवन कराएँ ।
घी का सेवन उचित मात्रा में करें ।
हलवा, खीर, चूरमा घर की बनी हुई मिठाई ही खिलाएं ।
बुखार आदि में हर्बल चाय/आयुर्वेदिक दवाइयों का सेवन कराएँ ।
व्यायाम जरुर कराएँ ।
हवन आदि पवित्र कार्यों में बच्चों को सम्मलित अवश्य करें ।
उचित मात्रा में फलों का सेवन कराएँ ।
बच्चों का मिट्टी के प्रति लागाव बनाये ।
नवजात शिशु की मालिश कौन से तेल से करें ?
नवजात शिशु की मालिश क्यों जरूरी है व किस तेल से करनी चाहिए ??
आज के परिवेश में बच्चों के शारीरिक व मानसिक उन्नति करनी बहुत जरूरी हैं तो बच्चों को जितना खाना पीना जरूरी होता हैं उतनी ही मालिश भी । क्योंकि पूरा दिन बच्चा कुछ न कुछ करता रहता है, अपने आप को व्यस्त रखता है।
मालिश करने के फायदे
शारीरिक थकान दूर होती हौ।
2. सभी अंग आराम की मुद्रा में हो जाते है।
3. स्वास्थ्य बना रहता हैं
4. नींद अच्छी आती है और पांच वर्ष तक कर बालक का जितना अधिक सुलाने का प्रयत्न करें उतना उसके लिए अच्छा रहता है।
5. इसके अलावा बिना तेल के मालिश भी कर सकते हैं ताकि बच्चे के अंगों को आराम मिल सके।
तेल:- वैसे टी बच्चे की मालिश के लिए हम जैतून, तिल, नारियल, सरसों आदि तेल सही हैं। और घरों में भी प्रयोग में लाए जाते हैं। लेकिन कुछ तेलों को गाय के घी में मिलाकर बनाया जा सकता है जो बच्चों के विकास के लिए सर्वोत्तम है।
तेल बनाने की विधि
1. गाय का घी- 50gm
2. सरसों का तेल-10gm
3.नारियल का तेल-20gm
4. जैतुन का तेल-20gm
5. तिल का तेल-50gm
6. बादाम रोगन-20gm
एक शीशी में गाय का घी (पिघला हुआ) डाले उसमें चुटकी भर हल्दी डाल दे इसके बाद बाकी सारे तेल डालकर हिलाते रहे ताकी सब आपस में मिल जाए। बस मालिश के लिए तेल तैयार है इसे आप हर ऋतु में प्रयोग कर सकते है।
उम्र
नवजात शिशु यदि एक दिन का हो तभी भी उसकी मालिश की जा सकती है और सर्दिया और गर्मियों में साधारण रूप से । दूसरा जब तक बच्चा एक महीने का नही होता तब तक उसकी मालिश बहुत नाजुक हाथ से करे, रुई से तेल लगाएं या आटे की गोली बनाकर उसे तेल लगाएं । और से बच्चे की मालिश करें।
सही समय- नवजात शिशु की मालिश नहलाने के 1/2 घंटा पहले करनी चाहिए। उस समय बच्चो को खाना-पीना नहीं करवाना चाहिए। दूध पिलाने के तुरंत बाद मालिश न करें।
जो माता-पिता अपने बच्चों के हितैषी है वह उपरोक्त बातों का ध्यान रखे । ताकि बच्चों के शारीरक और मानसिक विकास अच्छी प्रकार से हो । अगर बच्चा शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होता है तो उसके बीमार होने के 99% चांस कम हो जाते है ।
बच्चों का पालन-पोषण करें इस संस्कार और मर्यादा वाली परिपाटी हम भूल चुके है। आज हम अपने सभी संस्कारो को भूल चुके है। सिर्फ अंतिम संस्कार को छोड़कर। वह माता धन्य है जो गर्भादान से लेकर सभी सौलह संस्कार निभाती है। बच्चा जैसा देखता है वैसा ही उसको जल्दी सिखने की कोशिश करता है क्योंकि इस समय बच्चें का मस्तिष्क बिलकुल खाली होता है जिससे उसकी आस-पास की सभी वस्तुओं को समझने कम समय लगता है।यह ऐसा समय होता है की आप अपने बच्चे को जैसा भी बनाना चाहते है उसे वैसा ही बना सकते है। आज के परिवेश में जब हम अपना सारा समय आधुनिकता में बिता रहे है तो बच्चे पर इसका असर पड़ेगा। और वह बचपन में ही।
आधुनिकता का शिकार हो सकता है। जैसे आज-कल 3-4 वर्ष के बच्चे मोबाइल फ़ोन को अच्छी तरह चलाने में सक्षम है। क्योंकि उनको वह समय से पहले पता लग गई जिसका बहुत बड़ी मात्रा में नुकशान या फायदा हो सकता है।
अपने बच्चों को संस्कारवान कैसे बनाये:-
जितना संभव हो सके अपने बच्चो को टी.वी., मोबाइल फ़ोन, वीडियो गेम आदि से दूर रखें ।
गर्भवती महिलाएं अपने रहने वाले स्थान पर वीर महापुरषो के चित्र लगाएं। जब भी ध्यान महापुरुषों की तरफ जाए तो उनके चरित्र का विचरण करें । और उन्ही जैसे वीर पुत्र/पुत्री की कामना करें ।
महापुरुषों के उपन्यास पढ़े व बालक जब समझने लगे तब उसमें भी स्वदेश प्रेम का जज्बा भरें।
कुश्ती, रेस, तीरंदाजी आदि खेलों में बच्चों का रुझान बनाएं। ताकि मिट्टी से बच्चों का लगाव बढ़े। और उनकी मानसिक और शारिरिक उन्नति हो।
3 वर्ष तक बच्चे को गायत्री मन्त्र व 8 वर्ष तक के बच्चे को संध्या कंठस्त हो जावे ऐसा प्रयास करें। और इसी समय बच्चे का यज्ञोपवित संस्कार करवाएं ।
प्रथम 5 वर्ष तक बच्चे का लालन-पालन करे । 6-16 वर्ष तक बच्चो वैदिक शिक्षा देवे और छोटी-छोटी गलतियों पर ताड़न करें अर्थात पिटाई कर दें। 16 वर्ष पश्चात पुत्र/पुत्री के साथ मित्र जैसा व्यवहार करें। और किसी भी विषय पर मित्र के समान व्यवहार किया करें ।
नित्य प्रतिदिन हवन करें व बच्चों को भी शामिल करें।
किसी भी पौधे को हम जब तक अपने अनुसार ढाल सकते है। जब तक वह पौधा है। लेकिन जब पौधा पेड़ बन जाता है तब उसे मोड़ा नहीं जा सकता केवल तोड़ा ही जा सकता है। जैसा हम बीज बोते है वही बीज एक दिन पेड़ बनता है। और फिर वह भी बीज उत्पन्न करता है। इसी प्रकार बच्चों में भी जिस प्रकार के संस्कार हम अंकुरित करेंगे वैसा ही वह बड़ा होकर बनेगा इसलिए मातृशक्ति को जगाना होगा ताकि सभ्य समाज का निर्माण हो। अगर ऐसे संस्कार सभी माता-पिता अपने बच्चों को परोसने लगे तो यह देश एक बार फिर से विश्वगुरु आर्यावर्त्त कहला सकता है ।
शारीरिक शिक्षा के मूल तत्व
विवेकानंद के शारीरिक शिक्षा के प्रति विचार
शारीरिक शिक्षा का अर्थ
शारीरिक शिक्षा के अंग
शारीरिक विकास
शारीरिक विकास के आवश्यक तत्व
बच्चो की देखभाल कैसे करे ताकि वे शारीरिक और मानसिक रोगी न बने
गर्भधारण के समय क्या न करें :-
गर्भधारण के समय क्या करें :-
जन्म उपरांत बच्चे को क्या न दें :-
जन्म के उपरांत बच्चे को क्या दें :-
अपने बच्चों को इनसे जरुर बचाएं :-
बच्चों के भविष्य के लिए निम्न बातों पर ध्यान दें :-
गाय के घी से बना सर्वोतम तेल नवजात शिशु के लिए अत्यंत लाभदायक
बच्चों को पालन-पोषण कैसे करें ताकि बच्चे शूरवीर बने
क्रांतिकारियों को जन्म देने वाली मात्र शक्ति को बारम्बार नमन ।
हिन्दू धर्म भारत का सर्वप्रमुख धर्म है। इसमें पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। हिंदू धर्म की प्राचीनता एवं विशालता के कारण ही उसे 'सनातन धर्म' भी कहा जाता है। बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी भी व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित किया गया धर्म नहीं, बल्कि प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों एवं आस्थाओं का बड़ा समुच्चय है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। जो निम्नानुसार है :-
4. जातक्रम :
5. नामकरण :
6. निष्क्रमण :
7. अन्नप्राशन :
8. चूड़ाकर्म :
9. कर्णवेध :
10. यज्ञोपवीत :
यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है । मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
11. वेदारंभ :
ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।
12. केशांत :
13. समावर्तन :
14. विवाह :
15. आवसश्याधाम , 16. श्रोताधाम
इस प्रकार हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार किए जाते हैं। :
शारीरिक शिक्षा
“शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्”- शरीर समस्त धर्म का साधन है । हमारी ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति की भी अभिव्यक्ति का माध्यम शरीरी हैं । स्वस्थ काया में स्वस्थ मन निवास करता है । जीवन के सुख के लिए स्वस्थ मन आवश्यक है । इस स्वस्थ मन के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है । शरीर के स्वास्थ्य के लिए शारीरिक शिक्षा का महत्व सभी ने स्वीकार किया है । यह उक्ति प्रसिद्द है कि बहुबल से रक्षित राष्ट्र ही शास्त्र का चिंतन कर सकता है । शारीरिक शिक्षा से बल्किन में जो पौरुष, बल एवं शक्ति का विकास होगा, उसी से हमारे देश में अध्ययन, अनुसन्धान,म देश की सीमा की रक्षा, विश्व में शांति, कल-कारखानों तथा खेत-खलिहानों में उत्पादन की वृद्धि संभव होगी । शारीरिक प्रशिक्षण से छात्रों में सामुहित भावना अनुशासन एवं व्यवस्थित कार्य करने की अभूतपूर्व क्षमता उत्पन्न होती है । उससे स्वस्थ समाज का निर्माण होता है । इस प्रकार शारीरिक शिक्षा व्यक्ति, समाज राष्ट्र एवं विश्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है ।विवेकानंद ने शारीरिक बल पर अत्यधिक आग्रह किया है । उनके शब्दों में –“अनन्त शक्ति ही धर्म है । बल पुण्य है और दुर्बलता पाप । सभी पापों और सभी बुराइयों के लिए एक ही शब्द पर्याप्त है और वह गई-दुर्बलता आज हमारे देश को जूस वस्तु की आवश्यकता है, वह है लोहे की मांसपेशियां और फौलाद के स्नायु, दुर्दमनीय प्रचंड इच्छाशक्ति, जो सृष्टि के गुप्त तथ्यों और रासस्यों को भेड़ सके और चाहे उसके लिए समुब्द्र तल में ही क्यों न जाना पड़े-साक्षात् मृत्यु का ही सामना क्यों न करना पड़े । मेरे नवयुवक मित्रों! बलवान बनो । तुम को मेरी सलाह है । गीता के अभ्यास की अपेक्षा फ़ुटबाल खेलने के द्वारा तुम स्वर्ग के अधिक निकट जाओगे । तुम्हारी कलाई और भुजाएं अधिक सुदृढ़ होने पर तुम गीता को अधिक अच्छी तरह समझोगे । तुम्हारे रक्त में शक्तिकी मात्रा बढ़ने पर तुन श्रीकृष्ण की महान प्रतिभा और अपार शक्ति को अच्छी तरह समझने लगोगे । तुम जब पैरों पर दृढ़ता के साथ खड़े होगे और तुमकों जब प्रतीत होगा कि हम मनुष्य है, तब तुम उपनिषदों को और भी अच्छी तरह समझोगे और आत्मा की महिमा को जान सकोगे।”शारीरिक शिक्षा का शाब्दिक अर्थ तो ‘शरीर की शिक्षा है’ परन्तु इसका भाव शरीर तक सीमित नहीं है । वास्तव में शारीरिक शिक्षा के द्वारा बालक का शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, नैतिक एवं आतिम्क विकास होता है, उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व सुगठित होता है । शारीरिक शिक्षा केवल शारीरिक क्रिया नहीं है । “शारीरिक शिक्षा, शिक्षा ही है । यह वह शिक्षा है जो शारीरिक क्रियाओं द्वारा बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, शरीर, मन एवं आत्मा के पूर्ण विकास हेतु दी जाती है ।”शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति में शारीरिक शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है । खेल के मैदान में, धरती माता की धुल में ही बालक के व्यक्तित्व का वास्तविक गठन होता है । खेलों के द्वारा स्फूर्ति, बल, निर्णय शक्ति, संतुलन, साहस, सतकर्ता, आगे बढ़ने की वृति, मिलकर काम करने की आदत, हार जीत में समत्व-भाव, अनुशासनबद्धता आदि शारीरिक, नैतिक, सामाजिक एवं आत्मिक गुणों का विकास होता है । शारीरिक क्रियाकलापोंव्यक्ति खुलकर बाहर आता है । भीतर की कुछ कुंठाएं, घुटन, निराशा आदि खेल की मस्ती में घुल जाती है । उत्साह उमड़ता है । क्रियाशीलता बढ़ती है, और उसे योग्य दिशा मिलती है । आनंद की प्राप्ति होती है, और आनंद में ही मानव के विकास की प्रेरणा निहित है ।भारतीय मनोविज्ञान में मानव की भौतिक काय को स्थूल शरीर कहा गया है । इस स्थूल शरीर के दो भाग है । स्थूल देह को अन्नमय कोश एवं दुसरे भाग को प्राणमय कोश कहा गया है । अत: शारीरिक शिक्षा के अंतर्गत अन्नमय कोश और प्राणमय कोश-दोनों का विकास सम्मलित है । सामान्य भाषा में अन्नमय कोश के विकास को शारीरिक विकास एवं प्राणमय कोश के विकास को संवेगात्मक विकास कहा जाता है ।उद्देश्य – शारीरिक विकास के तीन प्रधान उद्देश्य है :-शरीर को ह्ष्ट-पुष्ट, सुन्दर, सुडौल बनाना एवं उसकी क्षमताओं का विकास करना ।शरीर के सभी अंगों एवं संस्थानों की क्रियाओं का सर्वांगपूर्ण, प्रणालीबद्ध और सामंजस्यपूर्ण विकास करना ।शरीर का पूर्ण निरोग रहना । यदि शरीर में कोई दोष और विकृति हो तो उसे सुधारना । विशेष रूप से आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियों को निरोग एवं क्षमतावान बनाना ।
शारीरक विकास के निम्नांकित आवश्यक तत्व है :-
भोजन- शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भोजन का संतुलित एवं नियमित होना आवश्यक है । छात्रों को यह ज्ञान होना चाहिए कि संतुलित भोजन क्या होता है और भोजन नियमित समय पर और कितनी मात्र में किस प्रकार करना चाहिए । पानी पीने के नियमों की जानकारी उपयोगी है । भोजन में स्वच्छता एवं पवित्रता का ध्यान रखना चाहिए । यह जानना आवश्यक है कि हम अपने शरीर को सबल और स्वस्थ रखने के लिए भोजन करते है, स्वादेन्द्रिय को सुख देने के लिए नहीं ।
स्वच्छता- शरीर को निरोग एवं स्वस्थ रखने के लिए स्वच्छता आवश्यक है । नियमित स्नान के द्वारा शरीर को स्वच्छ रखना, दांत, नाख़ून, वस्त्र आदि स्वच्छता, रहने, बैठने के स्थान आदि की स्वच्छता-इन पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
विश्राम- शरीर को समुचित विश्राम मिलना चाहिए । विश्राम अथवा सोने की अवधि आयु के अनुसार अलग-अलग हो सकती है । सोने का स्थान बिलकुल शांत और हवादार होना चाहिए । स्नायुओं को आराम पहुँचाने के लिए पूर्ण निद्रा आवश्यक है । प्रत्येक व्यक्ति को जाग्रत अवस्था में मांसपेशियों और स्नायुओं को विश्राम देने की विधि जननी चाहिए । योगासनों में शवासन या शिथिलता की क्रिया इसके लिए बहुत उपयोगी है ।
व्यायाम- शरीर के विकास के लिए मांसपेशियों में अच्छी गति और संतुलित वृद्धि लाने के लिए प्रतिदिन व्यायाम आवश्यक है । बालकों के दैनिक कार्यक्रम में व्यायाम, खेल-कूद को अच्छा स्थान देना चाहिए । रीढ़ की हड्डी और जोड़ो का कड़ा पद जाना रुकना चाहिए । यह शरीर के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । इसके लिए योगासनों का अभ्यास बहुत उपयोगी है । इनसे शरीर नमनीय एवं लचीला, सुन्दर, सुडौल बनता है ।
सद्विचार एवं नियमितता- जीवन में सद्विचार, नियमितता तथा स्वस्थ आदतों का शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहता है । छोटी आयु से ही बालकों में शारीरिक स्वास्थ्य, शक्ति, सामर्थ्य और सुन्दर, सुडौल शरीर के प्रति आदत का भाव सिखाना चाहिए । अच्छी आदतों, अच्छे विचारों का शारीरिक स्वास्थ्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है । ब्रह्मचर्य की साधना शरीर को बलशाली, सुन्दर, सुडौल और अदम्य क्षमतावान बनाती है । इसका महत्व छात्रों को यथासमय बताना चाहिए ।
बच्चों की देखभाल कैसे करे
जो बच्चा जितना अधिक स्वस्थ होता है वह उतना ही सुन्दर व आकर्षक लगता है और उसकी लम्बाई भी उम्र के साथ बढ़ती है तो बच्चे के सम्पूर्ण विकास के लिया गर्भधारण करते ही अपने खान-पान में विशेष बदलाव किजिएं जैसे :-
तला भुना खाने से बचें ।
मिर्च और हर प्रकार के मसालों से दूरी बना लें ।
बाज़ार की मिठाई का सेवन न करें ।
चाय और काफी का सेवन किसी भी रूप में न करें ।
गर्म गोलियों के सेवन से बचे ।
मौसम के विपरीत न खाएं और ज्यादा खाना खाने से बचे ।
प्रतिदन हवन करें ।
ताजा और हरी सब्जी का सेवन करें ।
उचित मात्रा में दूध का सेवन करें । और कभी-कभी हल्दी को दूध में मिलाकर लें ।
मौसम के अनुकूल ताजा फलों का सेवन करें ।
आयुर्वेदिक गोलियों का सेवन करें ।
मौसम के अनुकूल वस्त्र धारण करें ।
मौसम अनुसार हल्का भोजन जैसे:- दलिया, खिचड़ी, हल्वा, खीर आदि का सेवन करें ।
जन्म उपरांत बच्चे को माँ का दूध पिलाए। 6 महीने पश्चात बच्चे का अन्नप्राशन संस्कार करवाएं । फिर उसे भात में घृत व मधु (शहद) मिलकर प्रथम भोजन कराएँ ।
चबाने वाली चीजें देने से बचे ।
बाहरी दूध का सेवन न कराएँ ।
ज्यादा पानी न पिलाएं ।
मिर्च का सेवन कराने से बचे ।
गर्म गोलियां न खिलाएं ।
गिले कपड़े न पहनाएं ।
छ महीने तक माँ के दूध का सेवन कराएँ ।
रसयुक्त पदार्थ खिलाएं । वेदों के अनुसार बच्चे के लिए सबसे चिकना और रसयुक्त पदार्थ उचित होता है । घी सबसे चिकना और रसयुक्त पदार्थ है इसका सेवन कराएँ ।
नरम पदार्थ खिलाएं ।
बच्चे की मौसम के अनुसार उचित देखभाल करें।
आयुर्वेदिक दवा का प्रयोग करें ।
थोड़ा-थोड़ा जूस दे सकते है ।
सिरोलेक्स बच्चे को भूल कर भी न दें ।
तली-भूनी चीजों के सेवन से बचाएं ।
मिर्च-नमक से बच्चों को दूर रखें ।
बाजारी मिठाई के सेवन से बच्चों को दूर रखे ।
चाय-काफी आदि का सेवन न करने दें ।
टी.वी., रिमोट गेम, मोबाइल से बच्चों को दूर रखे । आप पढ़ रहे है बच्चों गाय के दूध का सेवन कराएँ ।
घी का सेवन उचित मात्रा में करें ।
हलवा, खीर, चूरमा घर की बनी हुई मिठाई ही खिलाएं ।
बुखार आदि में हर्बल चाय/आयुर्वेदिक दवाइयों का सेवन कराएँ ।
व्यायाम जरुर कराएँ ।
हवन आदि पवित्र कार्यों में बच्चों को सम्मलित अवश्य करें ।
उचित मात्रा में फलों का सेवन कराएँ ।
बच्चों का मिट्टी के प्रति लागाव बनाये ।
नवजात शिशु की मालिश कौन से तेल से करें ?
नवजात शिशु की मालिश क्यों जरूरी है व किस तेल से करनी चाहिए ??
आज के परिवेश में बच्चों के शारीरिक व मानसिक उन्नति करनी बहुत जरूरी हैं तो बच्चों को जितना खाना पीना जरूरी होता हैं उतनी ही मालिश भी । क्योंकि पूरा दिन बच्चा कुछ न कुछ करता रहता है, अपने आप को व्यस्त रखता है।
मालिश करने के फायदे
शारीरिक थकान दूर होती हौ।
2. सभी अंग आराम की मुद्रा में हो जाते है।
3. स्वास्थ्य बना रहता हैं
4. नींद अच्छी आती है और पांच वर्ष तक कर बालक का जितना अधिक सुलाने का प्रयत्न करें उतना उसके लिए अच्छा रहता है।
5. इसके अलावा बिना तेल के मालिश भी कर सकते हैं ताकि बच्चे के अंगों को आराम मिल सके।
तेल:- वैसे टी बच्चे की मालिश के लिए हम जैतून, तिल, नारियल, सरसों आदि तेल सही हैं। और घरों में भी प्रयोग में लाए जाते हैं। लेकिन कुछ तेलों को गाय के घी में मिलाकर बनाया जा सकता है जो बच्चों के विकास के लिए सर्वोत्तम है।
तेल बनाने की विधि
1. गाय का घी- 50gm
2. सरसों का तेल-10gm
3.नारियल का तेल-20gm
4. जैतुन का तेल-20gm
5. तिल का तेल-50gm
6. बादाम रोगन-20gm
एक शीशी में गाय का घी (पिघला हुआ) डाले उसमें चुटकी भर हल्दी डाल दे इसके बाद बाकी सारे तेल डालकर हिलाते रहे ताकी सब आपस में मिल जाए। बस मालिश के लिए तेल तैयार है इसे आप हर ऋतु में प्रयोग कर सकते है।
उम्र
नवजात शिशु यदि एक दिन का हो तभी भी उसकी मालिश की जा सकती है और सर्दिया और गर्मियों में साधारण रूप से । दूसरा जब तक बच्चा एक महीने का नही होता तब तक उसकी मालिश बहुत नाजुक हाथ से करे, रुई से तेल लगाएं या आटे की गोली बनाकर उसे तेल लगाएं । और से बच्चे की मालिश करें।
सही समय- नवजात शिशु की मालिश नहलाने के 1/2 घंटा पहले करनी चाहिए। उस समय बच्चो को खाना-पीना नहीं करवाना चाहिए। दूध पिलाने के तुरंत बाद मालिश न करें।
जो माता-पिता अपने बच्चों के हितैषी है वह उपरोक्त बातों का ध्यान रखे । ताकि बच्चों के शारीरक और मानसिक विकास अच्छी प्रकार से हो । अगर बच्चा शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होता है तो उसके बीमार होने के 99% चांस कम हो जाते है ।
बच्चों का पालन-पोषण करें इस संस्कार और मर्यादा वाली परिपाटी हम भूल चुके है। आज हम अपने सभी संस्कारो को भूल चुके है। सिर्फ अंतिम संस्कार को छोड़कर। वह माता धन्य है जो गर्भादान से लेकर सभी सौलह संस्कार निभाती है। बच्चा जैसा देखता है वैसा ही उसको जल्दी सिखने की कोशिश करता है क्योंकि इस समय बच्चें का मस्तिष्क बिलकुल खाली होता है जिससे उसकी आस-पास की सभी वस्तुओं को समझने कम समय लगता है।यह ऐसा समय होता है की आप अपने बच्चे को जैसा भी बनाना चाहते है उसे वैसा ही बना सकते है। आज के परिवेश में जब हम अपना सारा समय आधुनिकता में बिता रहे है तो बच्चे पर इसका असर पड़ेगा। और वह बचपन में ही।
आधुनिकता का शिकार हो सकता है। जैसे आज-कल 3-4 वर्ष के बच्चे मोबाइल फ़ोन को अच्छी तरह चलाने में सक्षम है। क्योंकि उनको वह समय से पहले पता लग गई जिसका बहुत बड़ी मात्रा में नुकशान या फायदा हो सकता है।
अपने बच्चों को संस्कारवान कैसे बनाये:-
जितना संभव हो सके अपने बच्चो को टी.वी., मोबाइल फ़ोन, वीडियो गेम आदि से दूर रखें ।
गर्भवती महिलाएं अपने रहने वाले स्थान पर वीर महापुरषो के चित्र लगाएं। जब भी ध्यान महापुरुषों की तरफ जाए तो उनके चरित्र का विचरण करें । और उन्ही जैसे वीर पुत्र/पुत्री की कामना करें ।
महापुरुषों के उपन्यास पढ़े व बालक जब समझने लगे तब उसमें भी स्वदेश प्रेम का जज्बा भरें।
कुश्ती, रेस, तीरंदाजी आदि खेलों में बच्चों का रुझान बनाएं। ताकि मिट्टी से बच्चों का लगाव बढ़े। और उनकी मानसिक और शारिरिक उन्नति हो।
3 वर्ष तक बच्चे को गायत्री मन्त्र व 8 वर्ष तक के बच्चे को संध्या कंठस्त हो जावे ऐसा प्रयास करें। और इसी समय बच्चे का यज्ञोपवित संस्कार करवाएं ।
प्रथम 5 वर्ष तक बच्चे का लालन-पालन करे । 6-16 वर्ष तक बच्चो वैदिक शिक्षा देवे और छोटी-छोटी गलतियों पर ताड़न करें अर्थात पिटाई कर दें। 16 वर्ष पश्चात पुत्र/पुत्री के साथ मित्र जैसा व्यवहार करें। और किसी भी विषय पर मित्र के समान व्यवहार किया करें ।
नित्य प्रतिदिन हवन करें व बच्चों को भी शामिल करें।
किसी भी पौधे को हम जब तक अपने अनुसार ढाल सकते है। जब तक वह पौधा है। लेकिन जब पौधा पेड़ बन जाता है तब उसे मोड़ा नहीं जा सकता केवल तोड़ा ही जा सकता है। जैसा हम बीज बोते है वही बीज एक दिन पेड़ बनता है। और फिर वह भी बीज उत्पन्न करता है। इसी प्रकार बच्चों में भी जिस प्रकार के संस्कार हम अंकुरित करेंगे वैसा ही वह बड़ा होकर बनेगा इसलिए मातृशक्ति को जगाना होगा ताकि सभ्य समाज का निर्माण हो। अगर ऐसे संस्कार सभी माता-पिता अपने बच्चों को परोसने लगे तो यह देश एक बार फिर से विश्वगुरु आर्यावर्त्त कहला सकता है ।
शारीरिक शिक्षा के मूल तत्व
विवेकानंद के शारीरिक शिक्षा के प्रति विचार
शारीरिक शिक्षा का अर्थ
शारीरिक शिक्षा के अंग
शारीरिक विकास
शारीरिक विकास के आवश्यक तत्व
बच्चो की देखभाल कैसे करे ताकि वे शारीरिक और मानसिक रोगी न बने
गर्भधारण के समय क्या न करें :-
गर्भधारण के समय क्या करें :-
जन्म उपरांत बच्चे को क्या न दें :-
जन्म के उपरांत बच्चे को क्या दें :-
अपने बच्चों को इनसे जरुर बचाएं :-
बच्चों के भविष्य के लिए निम्न बातों पर ध्यान दें :-
गाय के घी से बना सर्वोतम तेल नवजात शिशु के लिए अत्यंत लाभदायक
बच्चों को पालन-पोषण कैसे करें ताकि बच्चे शूरवीर बने
क्रांतिकारियों को जन्म देने वाली मात्र शक्ति को बारम्बार नमन ।