असुर भगाया अरबिया, बण बप्पा बिकराल ।
चहुंदिस राज चमकियो, भारत माता भाल ।।
(कॉपीराइट दीपसिंह भाटी, सर्वाधिकार सुरक्षित)
▶राजस्थानी अनुवाद - मेवाड़ रै संस्थापक वीर बप्पा रावल (कालभोज) विकराळ रूप धर अरबी राक्षसां नै मार भगाया जिणसूं भारत माता रै मस्तक माथै च्यारूंकूंट सांवठौ सनातन सैंस्कृति रो शासन भळकण लाग्यो।
▶हिंदी अनुवाद - मेवाड़ के संस्थापक वीर बप्पा रावल (कालभोज) ने विकराल रूप धारण कर अरबी राक्षसों (दुश्मनों) को मार भगाया, जिस से भारत माता के मस्तिष्क; भारत भूमि पर सर्वत्र सनातन संस्कृति का शासन उद्दीप्त होने लगा ।
▶English Translation - Gallant Bappa Rawal (The Kalabhoj), the founder of Mewar, in a vast and horrible form, killed the Arabic demons (enemies), which led to the rise of the rule of Sanatan (eternal, traditional) culture everywhere on the forehead; land of Mother India.
हिंदू कुल सूर्यवंश के रूप में विश्वविख्यात मेवाड़ के गुहिलोत राजवंश का इतिहास भगवान श्रीराम के पुत्र लव के वंशजो से सम्बन्धित है इस क्षत्रिय राजपूत वंश को गुहिल, गहलोत, गोहिल्य गोहिल भी कहा गया है।
मेवाड़ प्रदेश पर सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाला एकमात्र यही राजवंश है जो अपनी गौरवशाली परम्पराओं के कारण हिंदुआ सूरज के नाम से विख्यात है।
महाकवि रणछोड़भट्ट कृत शिलोत्कीर्ण राजप्रशस्ति के अनुसार महाराज सुमित्र के पश्चात् वज्रनाथ, महारथी, अतिरथी, अचलसेन, कनकसेन, महासेन, अंगसेन, विजयसेन, अजयसेन, अभंगसेन, मद्रसेन एवं सिंहरथ नामक इक्ष्वाकुवंश के १२ राजाओं ने अयोध्या पर शासन किया महाराज सिंहरथ के पुत्र महाराज विजयादित्य ने अयोध्या का परित्याग किया और दक्षिणापथगामी होकर वहां के राजाओं को युद्ध मे पराजित किया।
महाराज विजयादित्य ने ई. पू. १३३४ के आसपास अयोध्या के स्थान पर दक्षिण भारत के किसी स्थान को अपना शासन केन्द्र बना लिया था।
इतिहासकार विपिनशाह के अनुसार महाराज सुमित्र के पुत्र महाराज वज्रनाभ मैत्रक की कई पीढ़ियो बाद महाराज कनकसेन हुए जिन्होंने लवकोट (लाहौर) को अपना केन्द्र बनाया।
महाराज कनकसेन की १२वीं पीढ़ी में महाराज वज्रनाभ द्वितीय एवं १५वीं पीढ़ी में महाराज विजयसेन भट्टार्क हुए महाराज विजयसेन भट्टार्क ने वल्लभीपुर के मैत्रक राजवंश की स्थापना की।
वल्लभीपुर के मैत्रक राजवंश के संस्थापक भट्टार्क विजयसेन (४७०-४९२ ई.) के पश्चात् क्रमशः महाराज धरसेन (४९३-४९९ ई.), महाराज द्रोणसेन
(५००-५२० ई.), महाराज ध्रुवसेन
(५२०-५५० ई.), महाराज धरपट्टसेन
(५५०-५५६ ई.) एवं महाराज ग्रहसेन
(५५६-५६९ ई.) वल्लभीपुर के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए।
महाराज ग्रहसेन के समय के कई ताम्रपत्र मिले है जिनमें उनके सुशासन का उल्लेख हुआ है एक ताम्रपत्र में महाराजा ग्रहसेन को कामदेव जैसा रूपवान हिमालय जैसा धैर्यवान समुद्र की तरह गम्भीर बृहस्पति की तरह ज्ञानवान कुबेर जैसा धनवान और महान बताया गया है ये विद्वानों के आश्रयदाता थे।
महाराज ग्रहसेन का प्रथम विवाह चन्द्रावती के परमार नरेश की पुत्री पुष्पावती से और द्वितीय विवाह ईरान के सम्राट नोशेरवां की पुत्री से हुआ था कालान्तर में किसी कारण से ईरान के सम्राट नौशेरवां ने वल्लभीपुर पर आक्रमण कर दिया।
युद्ध में वल्लभीपुर नरेश महाराज ग्रहसेन वीरगति को प्राप्त हुए उस समय महारानी पुष्पावती अपने पिता के राज्य चन्द्रावती में थी वह युद्ध की बात सुनकर वल्लभीपुर के ओर निकल पड़ी मार्ग में युद्ध की समाप्ति और जोहर की बात सुनकर महारानी पुष्पावती सती होने को तैयार हुई किंतु गर्भवती होने के कारण ब्राह्मणों ने उन्हें सती होने से रोक दिया।
मलिया नामक शैल माता की गुफा में उन्होंने पुत्र को जन्म दिया इसके बाद रानी पुष्पावती ने वीरनगर गांव की कमलावती ब्राह्मणी को अपने पुत्र के लालन-पालन का दायित्व सौंपकर सती हो गई।
इसके बाद कमलावती ने रानी के पुत्र अपने पुत्र की भांति पालण-पोषण किया।
कालान्तर में वही पुत्र 'गुहिल' अथवा गुहादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिनके वंशज गोहिल, गहलोत (गुहिलोत) राजपूत कहलाये।
गुहादित्य में क्षत्रियोचित गुण होने से वह भीलों का सरदार बन गया तथा भील राजा माण्डलिक ने ईडर का राज्य गुहादित्य को सौंप दिया इसके बाद गुहादित्य की ८वीं पीढ़ी तक ईडर राज्य पर गुहिलों का शासन रहा।
इस गुहादित्य ने ५६६ ई. के लगभग मेवाड़ के पश्चिमी पहाड़ी क्षेत्र में आकर अपना राज्य स्थापित किया।
राजा गुहादित्य के बाद राजा भोजादित्य, राजा महेन्द्र प्रथम, राजा नागादित्य (राजा नागादित्य ने अपने नाम से नागदा पाटण बसाई), राजा शिलादित्य, राजा अपराजित, राजा महेन्द्र द्वितीय (रूपरावल) आदि शासक बने।
हिंदू सम्राट महाराजा कालभोज (बप्पा रावल)
महाराजा कालभोज का जन्म गुहिल वंश में वि.सं. ७७० में नागदा में पुष्पादेवी के गर्भ से हुआ कालभोज का लालन-पालन एक ब्राह्माण परिवार ने किया।
वैद्यनाथ प्रशस्ति के अनुसार बप्पा का मूल नाम कालभोज था तथा बप्पा इसकी उपाधि थी प्रजा ने महाराजा कालभोज के प्रजासंरक्षण देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही इन्हें बप्पा पदवी से विभूषित किया था।
कालभोज नागदा की पहाड़ियों में एक तपस्वी योगी हारित ऋषि की नियमित सेवा करने लगे हारित ऋषि ने कालभोज की सेवा से प्रसन्न होकर शैवमंत्र की दीक्षा दी तथा एकलिंगजी के दीवान की उपाधि दी कालभोज की निःस्वार्थ भक्ति और प्रगाढ़ शिव पूजन देखकर भवानी भगवती ने प्रकट होकर दिव्यास्त्र देते हुए आशीर्वाद दिया।
बप्पा रावल को नाहरमगरा की तलहटी में स्वयं गुरू गोरखनाथ ने दर्शन दिये हारित ऋषि के आशीर्वाद से श्री गोरखनाथ जी ने बप्पा रावल को दुधारी वाली तलवार भेंट की तथा इनको रावल की पदवी देकर सम्मान बढ़ाया तभी से मेवाड़ के शासक अपने नाम से पूर्व 'रावल' की पदवी लगाते है।
इस दुधारी तलवार में यह गुण था कि मंत्र पढ़कर चलाने से चट्टान के भी टुकड़े हो जाते इस चमत्कारी तलवार को अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण करके प्राप्त की और दिल्ली ले गया था जिसे बाद में भीमसिंह चौहान ने प्राप्त की और तत्पश्चात भीमसिंह चौहान से राणा हम्मीर ने पुनः प्राप्त की।
पृष्ट -२५१ वीर विनोद प्रथम संस्करण कविराज श्यामलदास द्वारा
बप्पा रावल के समय चित्तौड़ पर मोर्य वंश के राजा मान मोरी का शासन था हारित ऋषि के आशीर्वाद से ७३४ ई. में बप्पा रावल ने राजा मानमोरी को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार किया।
बप्पा रावल ने हिंदूसूर्य, राजगुरू और चकवेसार्वभौम की पदवी धारण की।
(बप्पा रावल ने हज्जात की सेना को उनके राज्य तक खदेड़ा)
हज्जात ने सन् ७३५ ई. में राजपूताने पर आक्रमण करने के लिए सेना भेजी बप्पा रावल ने हज्जात की सेना को युद्व में परास्त कर उनके राज्य तक खदेड़ दिया।
(अरब आक्रमणकारियों से ७३८ ई. में युद्ध)
अरब इस्लामियों का सन् ६३२ ई. के पश्चात् अत्यंत प्रेरणादायी रूप से साम्राज्यिक उत्थान हुआ उन्होंने एक सौ वर्ष के भीतर ही अपने साम्राज्य को पश्चिम में स्पेन से पूर्व में चीन तक विस्तारित किया।
इस दौरान अरब इस्लामिक जिस भी प्रदेश को विजय कर लेते वहां के लोगो के पास केवल दो ही विकल्प रखते –वे सभी उनका धर्म स्वीकार कर ले या मौत के घाट उतरे ।
उन्होंने कई महान संस्कृतियों, सभ्यताएं, शिष्टाचारो को रौंध डाला, अनेको मंदिर, चर्च, पाठशालाएं, ग्रंथालय नष्ट कर डाले कला और संस्कृतियों को जला डाला सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मचा रखा था इस तरह उस समय अरबों का रक्तरंजीत साम्राज्य विस्तार सम्पूर्ण विश्व के लिए एक भयावह घटना थी।
ग्रीस, इजिप्त, स्पेन, अफ्रीका, इरान आदि महासत्ताओ को कुचलने के बाद अरबो के खुनी पंजे हिंदुस्तान की भूमि तरफ बढे अरबों ने सम्पूर्ण हिंदुस्तान को जीतकर वहां की संस्कृति को नष्ट भ्रष्ट करने हेतु महत्वाकांक्षी खलीफा ने ई. सं. ७३८ में बगदाद के खलीफा वलीद ने जब सेनापति जुनैद के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण करवाया तो बप्पा रावल के नेतृत्व में भारत के समस्त राजाओं ने जुनैद का सामना किया जिसमें प्रतिहार राजपूत नागभट्ट प्रथम भी थे।
इस युद्ध में बप्पा रावल ने अरबों को अरब तक रौंदते हुए विजय प्राप्त की और काबुल-ईरान तक (तत्कालीन ईरान की सीमा तुर्क तक थी ) अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
इस विजय के उपलक्ष में बप्पा रावल ने अपने इष्ट स्वयम्भू महादेव एकलिङ्गनाथ जी का भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया बप्पा रावल ने एकलिंग नाथ जी को चित्तौड़ का स्वामी और स्वयं को उनका सेवक और दीवान घोषित किया।
यह वंश परम्परा से नियम बना रहा एकलिंग नाथ जी को मेवाड़ के महाराणा मानने और स्वयं को उनका दीवान मानने में गौरव समझते थे धन्य है मेवाड़ राजवंश भगवान शिव के प्रति इतनी भक्ति किसी राजवंश में नहीं दिखती।
बप्पा रावल ने गजनी के शासक सलीम को युद्व में परास्त कर गजनी प्रदेश में अपना सैन्य ठिकाना स्थापित किया जहां से उनके सैनिक अरब सेना की गतिविधियों पर नजर रखते थे।
सन् ७४२ ई. में सामर्रा के हिशाम मलिक ने अपने सेनापति मसलमा के नेतृत्व में लाखो की फौज को सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा इस युद्ध को इतिहास में बाटल ऑफ द् पास कहा गया यह युद्ध बप्पा रावल तथा २००,६२५ जेहादी आक्रमणकारियों के मध्य लड़ा गया था बप्पा रावल ने युद्ध में इन सभी को तलवार से गाजर-मूली की तरह काटते-काटते अरब की सीमा रेखा तक खदेड़ दिया।
सामर्रा के हिशाममलिक को जब यह सूचना मिलती है कि भारतवर्ष के सम्राट बप्पा रावल सेनापति मसलमा को पराजित कर सामर्रा तक रौंद दिया हैं तो वह बप्पा रावल के सामने जाकर आत्मसमर्पण कर देता है भारतवर्ष के सम्राट बप्पा रावल ने सामर्रा पर भगवा ध्वजा लहराकर इसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।
महाराजा कालभोज (बप्पा रावल) ने सन् ७४८ ई में अब्बासी वंश मुहम्मद इब्न मरवान द्वितीय (आर्मेनिया के सुल्तान) एवं उमय्यद वंश के हज्जाज (खुरासान के सुल्तान) पर आक्रमण करने के लिए चढ़ाई करी इन दोनों क्रूर शासकों ने स्पेन पर आक्रमण कर यूरोप की नारियों को गुलाम बना कर रखा था
महाराजा कालभोज इन दोनों पर काल बनकर टूट पड़े।
महाराजा कालभोज ने आर्मेनिया के सुल्तान मुहम्मद इब्न मरवान द्वितीय को मौत के घाट उतार दिया एवं खुरासान के सुल्तान को खुरासान से आगे तक खदेड़ दिया ।
इस तरह अनेक युद्ध अभियानों के द्वारा बप्पा रावल ने अपने शासनकाल में हिंदुस्तान को इस्लामिक आक्रमकारियों से मुक्त करवा कर अनेक प्रदेशों सिंध, बलोचिस्तान, ईरान, इराक, तुर्किस्तान, चित्राल का दुर्गम प्रदेश, मध्य एशिया, चीनी तुर्कीस्तान तक विजय प्राप्त कर अपना साम्राज्य का विस्तार किया।
मुस्लिम इतिहासकारों ने अरबों की पराजय का वर्णन फुतूहूल्बल्दान नामक ग्रन्थ में किया है जिसमें अरब लिखते है कि हिंदुओं ने अरबी मुसलमानों के लिए अल्पमात्र की भूमि भी नहीं छोड़ी इसलिए उन्हें भागकर दरिया के उस पार एक महफूज नगर बसाना पड़ा।
बार-बार भारत में अपनी सेना की हानि होने की वजह से अपनी बची हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के लिए अरबों ने यह निश्चय कर लिया कि भारत के किसी भी हिस्से पर वे कभी भी आक्रमण नहीं करेंगे इसलिए इसके बाद अरबों ने ३५० वर्षो तक भारत के किसी भी हिस्से पर धाक नहीं जमायी।
कालान्तर में शान्ति व्यवस्था होने पर बप्पा रावल ने साम्राज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र खुमाण रावल को सौंपकर तथा साम्राज्य में प्रशासनिक व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिए अन्य छः पुत्रों को प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त कर ७५३ ई. में संन्यास ले लिया आम्र कवि द्वारा लिखित एकलिंग प्रशस्ति में बप्पा रावल के संन्यास लेने की घटना की पुष्टि होती है।
मेवाड़ के वास्तविक संस्थापक, हिन्द के महानतम शासकों में से एक, शौर्य व पराक्रम का पर्याय बप्पा रावल जी के सम्मान में निर्मित पैनोरमा (उदयपुर स्थित कैलाशपुरी के एकलिंगजी मंदिर के निकट)
बप्पा रावल के पुत्रों व इनके वंशजो का विवरण इस प्रकार है–
खुमाण रावल
बप्पा रावल का ज्येष्ठ पुत्र खुमाण रावल प्रथम था जो मेवाड़ राज्य के उत्तराधिकारी हुए रावल खुमान ने राजपूत राजाओं व अन्य सांमतो को एकजुट करके मेवाड़ का शासन कार्य चलाया।
मन्ना रावल
खुमाण रावल के छोटे भाई मन्ना रावल के बलाण रावल (बिल्हण) हुए जिनके रायपालजी व मेहसी हुए जो चित्तौड़गढ़ छोड़कर कुछ समय नागदा पाटन में रहे इन्होंने वि.स. ८६० में गांव घाटा बसाया जो कुम्भलगढ़ के पास में है।
रायपालजी के पुत्र बरपालजी के वंशज बरगट गुहिलोत कहलाते है बरपालजी के वंश में क्रमशः हरपाल जी तरपाल जी हुए तरपाल जी ने दिवेर के समीप तरपालों का खेड़ा बसाया।
तरपालजी के पुत्रों में कानाजी, रेहड़जी, भलियाजी थे
तरपालजी के पुत्र भलियाजी के वंशज "भलियावत गुहिलोत" व कानाजी के वंशज "कनड़ावत गुहिलोत" कहलाये रेहड़जी के नाड़ियाजी के वंशज "नाड़ियावत गुहिलोत" कहलाये।
बरपालजी के भाई सोमेश्वर थे, जिनके पुत्र विहलजी हुए जिनके वंशज "विहलात गुहिलोत" कहलाये, इनके मुख्य ठिकाणे जोड़किया, नाहरपुरा और मारवाड़ क्षेत्र में है।
बलाण रावल के द्वितीय पुत्र मेहसी के कालिया व नागिया हुए कालियाजी के वंशज "कीटावत गुहिलोत" व नागिया के वंशज "चरेड़ गुहिलोत" कहलाते है।
कीटावत गुहिलोत वंशजो के ठिकाणे बादरिया, होकरा, छापली, मिनकियावास, आमेट तथा चरेड़ गुहिलोत वंशजो के ठिकाणे खेड़ाजस्सा, दिवेर आदि है।
बलाण रावल की वंश परम्परा में वजाजी हुए जिनके वंश में क्रमशः तेजाजी, देवसी हुए।
देवसी के दो पुत्र हुए– मन्नो रावल और चन्द्र रावल
मन्नो रावल के वंश में क्रमशः महिपाल, वीरमजी, वेणाजी हुए
वेणाजी के पुत्रो में बाहराजी व कल्लाजी हुए।
बाहराजी के पुत्र गोदाजी के वंशज "गोदावत गुहिलोत" कहलाये जिनके मुख्य ठिकाणे शाहपुरा, उमर बावड़ी, बोरवागढ़ आदि है।
वेणाजी के पुत्र कल्लाजी के वंश में क्रमशः दानाजी, सरवरजी, केलाजी, वेलाजी, भीमाजी हुए।
भीमाजी के वंशज "भूण्डक गुहिलोत" कहलाये जो फताखेड़ा, फतेहपोल व भोजपुरा आदि गांवो में रहते है।
मन्ना रावल के भाई चन्द्र रावल के पुत्र किशना रावल हुए जिनके दो पुत्र महेन्द्र रावल और कुन्दन रावल हुए।
महेन्द्र रावल के वंशज "महेन्द्रावत गुहिलोत" कहलाये, जिनके मुख्य ठिकाणे बोरवा, रामगढ़, ठिकराणा, बाघमाल और मसूदागढ़ है।
कुन्दन रावल के पुत्र मन्ना रावल के वंशज "मन्नावत गुहिलोत" कहलाये।
खेम रावल
बप्पा रावल के पुत्र खेम रावल के वंश में भादूजी हुए जिनके वंश परम्परा में सूडजी के दो पुत्र कच्छजी व खंगारजी हुए कच्छजी के वंशज काछी गुहिलोत कहलाये जो काछिया सवादड़ी, परबतगढ़, जौहरखेड़ा आदि ठिकाणों में रहते है।
खेमरावल की वंश परम्परा में गुरूरावल हुए जिनके वंशज "गरतुण्ड गुहिलोत" कहलाये।
इनके पूर्वज नरवर में रहते थे जो यहीं से निकलकर मसूदागढ़, श्यामगढ़, रतनगढ़, बरसावाड़ा, सेन्दड़ा आदि क्षेत्रों में बस गये।
खेम रावल के वंश में भादू रावल की वंश परम्परा में धवलदेव हुए इन्हीं के वंश परम्परा में गोपालजी हुए जिनके वंश "डींगा गुहिलोत" कहलाये गोपालजी के वंश में पीथाजी का एक वंशज मांगलियावास से आकर सोनियाणा गांव बसाया तथा यहीं से कुछ वंशज निकलकर कूकरखेड़ा बसाया।
खेम रावल के वंश में बावलजी के वंशज "बावलात गुहिलोत", मादाजी के वंशज "मादावत गुहिलोत" धर्मलाजी के वंशज धर्मलात गुहिलोत" कहलाये।
जहरी रावल
बप्पा रावल के पुत्र जहरी रावल के वंश में क्रमशः जलरूप, भीमजी, खेराजी, भूराजी, मालाजी, बालाजी हुए।
बालाजी के वंशज "बालोत गुहिलोत" कहलाये जो नीमड़ी, गढ़ी थोरियान, बोराज आदि ठिकाणों में रहते है।
ईश्वर रावल
बप्पा रावल के पुत्र ईश्वर रावल के वंश में क्रमशः सालभाण, सलवण, हालरावल, नरबदरावल हुए।
नरबद रावल के पुत्र वण रावल के वंशज "वाणियात गुहिलोत" और लेहर रावल के वंशज "लोहरावत गुहिलोत" कहलाये
वाणियात गुहिलोत वंशजो के मुख्य ठिकाणे चांग, सुमेल, रूपाहेली, देवाता, सारोठ, नाहरपुरा, अतीतमण्ड आदि है तथा लोहरावत गुहिलोत के मुख्य ठिकाणे गोहणा, सेदरिया आदि है।
पदम रावल
बप्पा रावल के पुत्र पदम रावल जी के वंश में डागल रावल के वंशज "डागल गुहिलोत" कहलाये, जो शम्भुपुरा, नरबद खेड़ा आदि में रहते है।
पदम रावल के वंश में क्रमशः दादूजी, मणजी, रोहेलाजी, जोधाजी, गोदरसी, करमसी, चन्दाजी आदि हुए।
चन्दा रावल के वंशज कुवाथल, करमाबाड़िया, गिर्वा व मेवाड़ के क्षेत्रों में रहते है रोहेलाजी के वंशज "रहलोत गुहिलोत" कहलाते है।
मोट रावल
बप्पा रावल के पुत्र मोट रावल के वंशज "मोटावत गुहिलोत" कहलाये।
मेवाड़ के गुहिल वंश के शासक बप्पा रावल की २५वीं पीढ़ी में रणसिंह (कर्णसिंह ११५८ ई.) हुये, जिनके पुत्र क्षेमसिंह और राहप हुये राजवंश की परम्परा के अनुसार बड़े पुत्र क्षेमसिंह मेवाड़ के शासक बने तथा छोटे पुत्र राहप ने राणा शाखा की शुरुआत कर सिसोदा ठिकाने की स्थापना की कालान्तर में इसी राणा शाखा के वंशज सिसोदा गांव में निवास करने के कारण ही "सिसोदिया राजपूत" कहलाये।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग के प्रथम साके के समय (१३०३ ई.) रावल रत्नसिंह जब वीरगति को प्राप्त हो गए तब उनके बाद राणा शाखा के सिसोदा ठिकाने वाले राणा अरिसिंह के पुत्र राणा हम्मीर सन् १३२६ ई. में मेवाड़ के शासक बने तभी से मेवाड़ के नरेश महाराणा कहलाने लगे।
गुहिलवंशीय बप्पा रावल (७३४-७५३ ई.) के पश्चात् मेवाड़ के निम्न शासक हुए –
(१). रावल खुमान (७५३- ७७३ ई.)
(२). रावल मत्तट (७७३-७९३ ई.)
(३). रावल भर्तभट्ट (७९३-८१३ ई.)
(४). रावल सिंहा (८१३-८२८ ई.)
(५). रावल खुमान- (८२८-८५३ ई.)
(६). रावल सहायक (८५३-८७८ ई.)
(७). रावल खुमान- (८७८-९४२)
(८). रावल भर्तृभट्ट- (९४२-९४३ ई.)
(९). रावल अल्लट (९५१-९५३ ई.)
(१०). रावल नरवाहन (९७१-९७३)
(११). रावल शालिवाहन (९७३-९७७ ई.)
(१२). रावल शक्तिकुमार (९७७-९९३ ई.)
(१३). रावल अम्बाप्रसाद (९९३-१००७ ई.)
(१४). रावल शुचिवर्मा (१००७-१०२१ ई.)
(१५). रावल नरवर्मा (१०२१-१०३५ ई.)
(१६). रावल कीर्तिवर्मा (१०३५-१०५१ ई.)
(१७). रावल योगराज (१०५१-१०६८ ई.)
(१८). रावल वैरठ (१०६८-१०८८ ई.)
(१९). रावल हंसपाल (१०८८-११०३ ई.)
(२०). रावल वैरसिंह (११०३-११०७ ई.)
(२१). रावल विजयसिंह (११०७-११२७ ई.)
(२२). रावल अरिसिंह (११२७-११३८ ई.)
(२३). रावल चोघसिंह (११३८-११४८ ई.)
(२४). रावल विक्रमसिंह (११४८-११५८ ई.)
(२५). रावल रणसिंह (११५८-११६८ ई.)
(२६). रावल क्षेमसिंह (११६८-११७२ ई.)
(२७). रावल सामंतसिंह (११७२-११७९ ई.)
(२८). रावल कुमारसिंह (११७९-११९१ ई.)
(२९). रावल मंथनसिंह (११९१-१२११ ई.)
(३०). रावल पदमसिंह (१२११-१२१३ ई.)
(३१). रावल जैत्रसिंह (१२१३-१२५३ ई.)
(३२). रावल तेजसिंह (१२६१-१२६७ ई.)
(३३). रावल समरसिंह (१२७३-१३०२ ई.)
(३४). रावल रतनसिंह (१३०२-१३०३ ई.)
(३५). महाराणा हम्मीरसिंह (१३२६-१३६४ ई.)
(३६). महाराणा खेतासिंह (१३६६-१३८२ ई.)
(३७). महाराणा लाखा (१३८२-१४२१ ई.)
(३८). महाराणा मोकल (१४२१-१४३३ ई.)
(३९). महाराणा कुम्भा (१४३३-१४६८ ई.)
(४०). महाराणा उदयकर्ण (१४६८-१४७३ ई.)
(४१). महाराणा रायमल (१४७३-१५०९ ई.)
(४२). महाराणा संग्रामसिंह (१५०९-१५२७ ई.)
(४३). महाराणा रतनसिंह- II (१५२७-१५३१ ई.)
(४४). महाराणा विक्रमादित्य (१५३१-१५३६ ई.)
(४५). महाराणा उदयसिंह (१५३७-१५७२ ई.)
(४६). महाराणा प्रतापसिंह (१५७२-१५९७ ई.)
(४७). महाराणा अमरसिंह (१५९७-१६२० ई.)
(४८). महाराणा कर्णसिंह (१६२०-१६२८ ई.)
(४९). महाराणा जगतसिंह (१६२८-१६५२ ई.)
(५०). महाराणा राजसिंह (१६५३-१६८० ई.)
(५१). महाराणा जयसिंह (१६८०-१६९८ ई.)
(५२). महाराणा अमरसिंह (१६९८-१७१० ई.)
(५३). महाराणा संग्रामसिंह (१७१०-१७३४ ई.)
(५४). महाराणा जगतसिंह- II (१७३४-१७५१ ई.)
(५५). महाराणा प्रतापसिंह - II (१७५१-१७५४ ई.)
(५६). महाराणा राजसिंह- II (१७५४-१७६१ ई.)
(५७). महाराणा अरिसिंह- II (१७६१-१७७३ ई.)
(५८). महाराणा हमीरसिंह- II (१७७३-१७७८ ई.)
(५९). महाराणा भीमसिंह (१७७८-१८२८ ई.)
(६०). महाराणा जवानसिंह (१८२८-१८३८ ई.)
(६१). महाराणा सरदारसिंह (१८३८-१८४२ ई.)
(६२). महाराणा स्वरुपसिंह (१८४२-१८६१ ई.)
(६३). महाराणा शम्भुसिंह (१८६१-१८७४ ई.)
(६४). महाराणा सज्जनसिंह (१८७४-१८८४ ई.)
(६५). महाराणा फतेहसिंह (१८८४-१९३० ई.)
(६६). महाराणा भूपालसिंह (१९३१-१९५५ ई.)
(६७). महाराणा भगवतसिंह (१९५५-१९८४ ई.)
(६८). महाराणा महेन्द्रसिंह ए्वं महाराणा अरविन्द सिंह मेवाड़ (१९८४ ई. से निरंतर.....)
प्राचीन शिलालखों में वर्णन –
बप्पा रावल का ऐतिहासिक वर्णन कुम्भलगढ़ प्रशस्ति, रणकपुर प्रशस्ति, वैद्यनाथ प्रशस्ति, एकलिंग प्रशस्ति, कीर्ति स्तम्भ शिलालेख, आबू के शिलालेख आदि में किया गया है।
बप्पा रावल प्रथम गुहिल शासक था जिसने मेवाड़ में सोने के सिक्के का प्रचलन किया जो उसकी प्रतिभा और वैभव का प्रतीक था इस ११५ ग्रेन के सिक्के पर कामधेनु, बछड़ा, शिवलिंग, नदी, दंडवत पुरूष, मछली, त्रिशुल, सूर्य आदि का अंकन है।
बप्पा रावल ने कैलाशपुरी गांव में अपने कुलदेवता एकलिगजी का मंदिर व इसके पीछे आदिवराह का मंदिर तथा चित्तौड़ में सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया।
इतिहासकारों ने चार्ल्स मार्टेल (मुगल सेनाओं को सर्वप्रथम पराजित करने वाला फ्रांसिसी सेनापति) की तुलना बप्पा रावल से की है (क्योंकि बप्पा रावल ने सबसे पहले विदेशी अरबो को पराजित किया।)
इतिहासकार सी.वी. वैद्य के अनुसार उसकी शौर्य की चट्टान के सामने अरबों के आक्रमण का ज्वारभाटा टकराकर चूर-चूर हो गया उसने ईस्फान, कंधार, इराक, ईरान, तुरान, काफरिस्थान आदि पश्चिमी देशों के शासकों को हराया।
मेवाड़ के मूल शासक - बप्पा रावल बप्पा रावल को "कालभोज" के नाम से भी जाना जाता है जन्म - 713-14 ई. इनके समय चित्तौड़ पर मौर्य शासक मान मोरी का राज था 734 ई. में बप्पा रावल ने 20 वर्ष की आयु में मान मोरी को पराजित कर चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार किया वैसे तो गुहिलादित्य/गुहिल को गुहिल वंश का संस्थापक कहते हैं, पर गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक बप्पा रावल को माना जाता है बप्पा रावल को हारीत ऋषि के द्वारा महादेव जी के दर्शन होने की बात मशहूर है एकलिंग जी का मन्दिर - उदयपुर के उत्तर में कैलाशपुरी में स्थित इस मन्दिर का निर्माण 734 ई. में बप्पा रावल ने करवाया इसके निकट हारीत ऋषि का आश्रम है आदी वराह मन्दिर - यह मन्दिर बप्पा रावल ने एकलिंग जी के मन्दिर के पीछे बनवाया 735 ई. में हज्जात ने राजपूताने पर अपनी फौज भेजी बप्पा रावल ने हज्जात की फौज को हज्जात के मुल्क तक खदेड़ दिया बप्पा रावल की तकरीबन 100 पत्नियाँ थीं, जिनमें से 35 मुस्लिम शासकों की बेटियाँ थीं, जिन्हें इन शासकों ने बप्पा रावल के भय से उन्हें ब्याह दीं..... सिंध में अरबों का शासन स्थापित हो जाने के बाद जिस वीर ने उनको न केवल पूर्व की ओर बढ़ने से सफलतापूर्वक रोका था, बल्कि उनको कई बार करारी हार भी दी थी, उसका नाम था बप्पा रावल। .
इस गौरवशाली वंश में जन्म लेने वाले महाप्रतापी हिंदू सम्राट बप्पा रावल ने ईरानी और अरबी यवन आक्रान्ताओं के इस्लामी साम्राज्यवाद से संघर्ष कर हिंदू धर्म संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा की थी इसी वंश में महाराणा हम्मीर, महाराणा लाखा, पितृभक्त महाराणा चूंडा महाराणा कुंभा जैसे वीर शिरोमणि उदार और महापराक्रमी शासक हुये थे जिन्होंने हमारे राष्ट्र की अस्मिता और अखण्डता के लिए विदेशी आक्रान्ताओं से लगातार संघर्ष किया।
महाराणा प्रताप की वीरता हिंदुत्व का स्वाभिमान तथा भारत भूमि को मुगलों से मुक्त कराने की उत्कट आकांक्षा इसी महान विरासत की देन थी जिसे उन्होंने अपने जीवन में भी कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया।
जय राजपूताना जय मां भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।
the worship of Siva who, as the successor of Rudra, the Vedic storm-god, was originally a terror-inspiring deity, a side of his character only imperfectly veiled by his euphemistic title of Siva,' the blessed or auspicious One.' In his phallic manifestation
his chief shrine is at Eklingji, ' the single or notable phallus,'about fourteen miles north of Udaipur city. The Ranas hold the office of priest-kings, Diwans or prime-ministers of the god.Their association with this deity has been explained by an inscription recently found in the temple of Natha, ' the Lord,'
now used as a storeroom of the Eklingji temple.^ The inscription,dated a.d. 971, is in form of a dedication to Lakullsa, a form of Siva represented as bearing a club, and refers to the Saiva sect known as Lakullsa-Pasapatas. It records the name of a king
named Sri-Bappaka, ' the moon among the princes of the Guhila dynasty,' who reigned at a place called Nagahvada, identified with Nagda, an ancient town several times mentioned in The Annals, the ruins of which exist at the foot of the hill on which
the temple of Eklingji stands. Sri-Bappaka is certainly Bapa or Bappa, the traditional founder of the Mewar dynasty, which had at that time its capital at Nagda. From this inscription it is clear that the Eklingji temple was in existence before a.d. 971, and, as Mr. Bhandarkar remarks, " it shows that the old tradition
about Nagendra and Bappa Rawal's infancy given by Tod had some historical foundation.
Bappa Rawal was one of the most deadly figure during 8th century for enemies/invaders of India. His image is deadlier than shamanist Chengis Khan in front of invaders. The achievements of Bappa Rawal went under many layers as it didn't fit with the leftist historian of our country. The invasion had reached India's part of Sindh during 7th century itself when Raja Dahir, the last hindu king was killed and his daughters (Pramela and Surya devi) were taken captive by Qasim during 712 war and were sent as war booty to the caliphate. Later, the intelligent brave duo tricked caliphate that they were already abused by Qasim before sending which led the death of Qasim and later both girls too were put in the walls alive, when there trick was revealed. This was also the time when richest Multan Surya temple was also taken captive. So, when the invasion of India already started in 7th century than what led islamic invaders to halt their proceedings till 10th century. The answer is proud name of BAPPA RAWAL. The real name of Bappa was Kaal Bhoj and he used to love India very much and was a great patriot. He was the person who established the place Rawalpindi, as checkpoint towards any possible invasion. He slaughtered the mleechas till middle east and drove all of them back to middle east. Arab mlecchas after winning Sindh , got control of parts of Rajasthan and Gujarat by 725. That was the time when they advanced towards Mewad, and Bappa Rawal (the son of Naagditya) took control to fight against Arabs. Till 735, he took back Chittor and other parts and joined it with Mewad. He kept driving the mlecchas army and capturing back all other places. Rawalpindi was the place where Bappas army was strategically placed. He together with other kings, drove the invaders out of Gandhar region. He continuously fought for 16 years against the arab invaders and broke them completely, left right centre. The efforts kept invaders away from mainstream India for almost three centuries. Such great glorious warrior is lost from our today's History.
Having established Bappa on the throne of Chitor S. 784 (a.d. 728), we will proceed to glean from the annals, from the period of his departure for Iran, S. 820 (a.d. 764) to another halting point—
the reign of Samarsi, S. 1249 (a.d. 1193) ; an important epoch, not only in the history of Mewar, but to the whole Hindu race ; when the diadem of sovereignty was torn from the brow of the Hindu to adorn that of the Tatar. We shall not, however, overleap the four intervening centuries, though we may not be able to fill up the reigns of the eighteen princes whose " banner at this time was a golden sun on a crimson field," and several of whose names yet live recorded " with an iron pen on the rock " of their native abodes.
An intermediate period, from Bappa to Samarsi, that of Sakti Kumar, is fixed by the Aitpur inscription in S. 1024 (a.d. 968) ; A new era had commenced, not of Yazdegird's accession, as is supposed, which would have been vain indeed, when the throne was tottering under him, but consequent to the completion of the grand cycle of 1440 years. He was slain at Merv in a.d. 651, the 31st of the Hegira; on the eleventh year of which, or a.d. 632 (according to Moreri), he commenced his reign. Gibbon was wrong.
India afforded them an asylum, and their issue constitutes the most wealthy, the most respected, and the most enlightened part of the native community of Bombay and the chief towns of that presidency. (Gibbon, Miscellaneous Works, ' Sur la Monarchic des Medes,' vol. iii. 4 )
" We now know that Samar Singh was alive up to 1299, only four years before Alau-d-dln's siege of Chitor, and that in several inscriptions his dates are given as 1273, 1274, 1285, etc. . . . Instead of being the father of Karan Singh I., as stated by Tod, Samar Singh came eight genei-ations after him, and was the father of Ratan Singh I., who, according to Muhammadan historians, was the ruler of Chitor during the reign of Alau-d-dln, and the husband of Padmini " (Erskine ii. A. 14 f.)] 5 See Genealogical Table. 6 This, according to the roll, was the standard of Bappa. and from the more perishable yet excellent authority of an ancient Jain HIS.
the era of Allat, the ancestor of Sakti Kumar, was S. 922 (a.d. 866), four generations prior. From Bappa's departure for Iran, in a.d. 764, to the subversion of Hindu dominion in the reign of Samarsi, in a.d. 1193, we find recorded an intermediate Islamite invasion. This was during the reign of Khuman, between a.d. 812 and 836, which event forms the chief subject of the Khuman-Raesa, the most ancient of the poetic chronicles of Mewar.
As the history of India at this period is totally dark, we gladly take advantage of the lights thus afforded. By combining these facts with what is received as authentic, though scarcely less obscure or more exact than these native legends, we may furnish materials for the future historian. With this view, let us take a rapid sketch of the irruptions of the Arabians into India, from the rise of Islamism to the foundation of the Ghaznivid empire, which sealed the fate of the Hindus. The materials are but scanty. El-Makin, in his history of the Cahphs, passes over such intercourse almost without notice. Abu-1-Fazl, though not diffuse, is minute in what he does say, and we can confide in his veracity.
Ferishta has a chapter devoted to this subject, which merits a better translation than yet exists.We shall, however, in the first place, touch on Bappa's descendants, till we arrive at the point proper for the introduction of the intended sketch. Of the twenty-four tribes of Guhilot, several issued from the founder, Bappa. Shortly after the conquest of Chitor, Bappa proceeded to Saurashtra and married the daughter of Yusufgol, prince of the island of Bandardiva. With his bride he conveyed Amongst the passages which Dow [i. 37] has slurred over in his translation is the interesting account of the origin of the Afghans ; who, when they first came in contact with those of the new faith, in a.h. 62, dwelt around the Koh-i-Sulaiman.
Ferishta, quoting authority, says : " The Afghans were Copts, ruled by Pharaun, many of whom were converted to the laws and religion of Moses ; but others, who were stubborn in their worship to their gods, fled towards Hindustan, and took possession of the country adjoining the Koh-i-Sulaiman. They were visited by Kasim from Sind, and in the 143rd year of the Hegira had possessed themselves of the provinces of Kirman, Peshawar, and all within their bounds {sinoran)," which Dow has converted into a province. The whole geographical description of the Kohistan, the etymology of the term Rohilla, and other important matter, is omitted by him [see Briggs, trans, i. 6 f.]. 2 [The island Diu.] Yusufgol is stated to have held Chaul on the main to Chitor the statue of Vanmata, the tutelary goddess of her race, who still divides with Eklinga the devotion of the Guhilot princes. The temple in which he enshrined this islandic goddess yet stands on the summit of Chitor, with many other monuments assigned by tradition to Bappa.
This princess bore him Aparajit, who from being born in Chitor was nominated successor to the throne, to the exclusion of his less fortunate elder brother, Asil (born of the daughter of the Kaba (Pramara) prince of Kalibao near Dwaraka), who, however, obtained possessions in Saurashtra, and founded a race called the Asila Guhilots, whose descendants were so numerous, even in Akbar's reign, as supposed to be able to bring into the field fifty thousand men at arms. We have nothing important to record of the actions of Aparajit, who had two sons Kalbhoj - and Nandkumar. Kalbhoj succeeded Aparajit, and his warlike qualities are extolled in an inscription discovered by the author in the valley of Nagda. Nandkumar slew Bhimsen Dor (Doda), and possessed himself of Deogarh in the Deccan.
Khuman succeeded Kalbhoj . His name is remark able in the history of Mewar. He came to the throne at the land. He was most probably the father of Vanaraja Chawara, the founder of Patan Anhilwara, whose ancestors, on the authority of the Kumarpal Charitra, were princes of Bandardiva, held by the Portuguese since the time of Albuquerque, who changed its name to Deo. [But Yusufgol, if he existed, must have been a Musahnan. Vanaraja Chawara was son of Jayasekhara, said to have been slain in battle, a.d. 696, leaving his wife pregnant (BG, i. Part i. 150 f.). Yusufgol does not appear in the local history.]
[Ferishta (i. 2) calls him Sayyid bin Abiu-1-Aas.]
The ancient roll from which this is taken mentions Asil giving his name to a fortress, called Asilgarh. His son, Bijai Pal, was slain in attempting to wrest Khambayat (Cambay) from Sangram Dabhi. One of his wives, from a violent death, was prematurely deUvered of a boy, called Setu ; and as, in such cases, the Hindu supposes the deceased to become a discontented spirit {churail), Churaila became the name of the tribe. Bija, the twelfth from Asil, obtained Sonal from his maternal uncle, Khengar Dabhi, prince of Girnar, but was slain by Jai Singh Deo, prince of Surat. From these names compounded, Dabi and Churaila, we may have the Dabisalima of Mahmud. [The Asil Guhilots are now included in the Mers of the Kathiawar coast ; their numbers are exaggerated in the text (Ain, ii. 247 ; BG, ix. Parti. 126).] (See Table in below pic). Also called Kama. He it was who excavated the Boraila lake, and erected the grand temple of Eklinga on the site of the hermitage of Harita, whose descendant, the present officiating priest, reckons sixty six descents, while the princes of Mewar amount to seventy-two in the same period.beginning of the ninth century, when Chitor was assailed by another formidable invasion of Muhammadans. The chief object of the Khuman Raesa is to celebrate the defence made on this occasion, and the value of this Raesa consists in the catalogue of the princes who aided in defending this bulwark of the Hindu faith. The bard, in an animated strain, makes his sovereign on this occasion successfully defend the ' crimson standard ' of Mewar, treat with contempt the demand for tribute, and after a violent assault, in which the ' barbarian ' is driven back, follow and discomfit him in the plan, carrying back the hostile leader, Mahmud, captive. With this event, which introduces the name of Mahmud two centuries before the conqueror of Ghazni, we will pause, and resume the promised sketch of the intercourse of Arabia and Hindustan at this period.
The first intimation of the Moslems attempting the invasion of India is during the caliphat of Omar, who built the port of Bassorah at the mouth of the Tigris, chiefly to secure the trade of Gujarat and Sind ; into which latter country a powerful army penetrated under Abul Aas, who was killed in battle at Aror. The Caliph Osman, who succeeded Omar, sent to explore the state of India, while he prepared an army to invade it in person : a design which he never fulfilled. The generals of the Caliph Ali made conquests in Sind, which they abandoned at Ali's death. While Yazid was governor of Khorasan several attempts were made on India, as also during the caliphat of Abdu- Malik, but without any lasting results. It was not till the reign of Walid that any successful invasion took place. He not only finally conquered Sind and the adjoining continent of India, but rendered tributary all that part of India on this side the Ganges.
What an exalted idea must we not form of the energy and rapidity of such conquests, when we find the arms of Islam at once on the Ganges and the Ebro, and two regal dynasties simultaneously cut off, that of Roderic, the last of the Goths of Andaloos, and Dahir Despati in the valley of the Indus. It was in a.h. 99 (a.d. 712, S. 774) that Muhammad bin Kasim vanquished and slew Dahir,
3 Marigny (quoting EI-Makin), Hist, of the Arabians, vol. ii. p. 283 ; Mod. Univ. Hint. vol. ii. p. 47.
prince of Sind, after numerous conflicts. Amongst the spoils of victory sent to the caliph on this occasion were the daughters of the subjugated monarch, who were the cause of Kasim's destruction, when he was on the eve of earrjdng the war against Raja Harchand of Kanauj. Some authorities state that he actually prosecuted it ; and as Sind remained a dependency of the caliphat during several successive reigns, the successor of Kasim may have executed his plans. Little is said of India from this period to the reign of Al-Mansur, except in regard to the rebellion of Yazid in Khorasan, and the flight of his son to Sind. The eight sovereigns, who rapidly followed, were too much engaged with the Christians of the west and the Huns on the Caspian to think of India. Their armies were then in the heart of France, which was only saved from the Koran by their overthrow at Tours by Charles Martel.
Al-Mansur, when only the lieutenant of the Caliph Abbas, held the government of Sind and of India, and made the island of Bakhar on the Indus, and the adjacent Aror, the ancient capital, his residence, naming it Mansura ; and it was during his government that Bappa Rawal abandoned Chitor for Iran. The celebrated Harunu-r-rashid, contemporary of Charle magne, in apportioning his immense empire amongst his sons, gave to the second, Al-Mamun, Khorasan, Zabulistan, Kabulistan, Sind, and Hindustan. Al-Mamun, on the death of Ilarun, de posed his brother, and became caliph in A.ii. 198 or a.d. 813, and ruled to 833, the exact period of the reign of Khuman, prince of Chitor. The domestic history brings the enemy assailant of Chitor from Zabulistan ; and as the leader's name is given Mahmud Khorasan Pat, there can be little doubt that it is an error arising from ignorance of the copyist, and should be Mamun.
The two young princesses, in order to revenge the death of their father, represented falsely to the Khahf that Muhammad bin Kasim had been connected with them. The Khalif , in a rage, gave order for Muhammad bin Kasim to be sewed up in a raw hide, and sent in that condition to court. When the mandate arrived at Tatta, Kasim was prepared to carry an expedition against Harchand, monarch of Kanauj. When he arrived at court, the Khalif showed him to the daughters of Dahir, who expressed their joy upon beholding their father's murderer in such a condition " [Ain/ii. 345 ; Elliot-Dowson i. 209 f.]. 2 Aror is seven miles east of Bakhar. 3 Marigny, vol. iii. p. 83 ; Univ. Hist. vol. ii. p. 162.
Within twenty years after this event, the sword of conquest and conversion was withdrawn from India, and Sind was the only province left to Mutawakkil (a.d. 850 [847 861]), the grandson of Harun, for a century after whom the throne of Baghdad, like that of ancient Rome, was sold by her jiraetorians to the highest bidder. From this time we find no mention what ever of Hindustan, or even of Sind, imtil Sabuktigin, governor of Khorasan, hoisted the standard of independent sovereignty at Ghazni. In A.n. 365 (a.d. 974) he carried his arms across the Indus, forcing the inhabitants to abandon the religion of their ancestors, and to read the Koran from the altars of Balrama and Krishna. Towards the close of this century he made his last invasion, accompanied by his son, the celebrated Mahmud, destined to be the scourge of the Hindu race, who early imbibed the paternal lesson inculcating the extirpation of infidels.
Twelve several visitations did Mahmud make with his Tatar hordes, sweeping India of her riches, destroying her temples and archi tectural remains, and leaving the country plunged in poverty and ignorance. From the effect of these incursions she never recovered ; for though she had a respite of a century between Mahmud and the final conquest, it was too short to repair what it had cost ages to rear : the temples of Somnath, of Chitor, and Girnar are but types of the magnificence of past times. The memorial of Sakti Kumar proves him to have been the contemporary of Sabuktigin, and to one of his son's visitations is attributed the destruction of the ' city of the sun ' (Aitpur), his capital.
Having thus condensed the little information afforded by Muhammadan historians of the connexion between the caliphs of Baghdad and princes of Hind, from the first to the end of the fourth century of the Hegira, we shall revert to the first recorded attack on the Mori prince of Chitor, which brought Bappa into notice. This was either by Yazid or Muhammad bin Kasim from Sind.' Though in the histories of the caliphs we can only expect to find recorded those expeditions His father's name was Aliptigin, termed a slave by Ferishta and his authorities ; though EI-Makin gives him an ancestor in Yazdegird. [He was a slave (Elliot-Dowson iv. 159).]
2 Ait, contracted from Aditya : hence Itwar, ' Sunday.'
3 [This is not corroborated by Musulraan authorities.] which were successful, or had some lasting results, there are inroads of their revolted lieutenants or their frontier deputies, which frequently, though indistinctly, alluded to in Hindu annals, have no place in Muhammadan records.
Throughout the period mentioned there was a stir amongst the Hindu nations, in which we find confusion and dethronement from an unknown invader, who is described as coming sometimes by Sind, sometimes by sea, and not unfrequently as a demon and magician ; but invariably as mlechchha, or ' barbarian.' 1From S. 750 to S. 780 (a.d. 694 to [246] 724), the annals of the Yadus, the Chauhans, the Chawaras , and the Guhilots, bear evidence to simultaneous convulsions in their respective houses at this period.
In S. 750 (a.h. 75) the Yadu Bhatti was driven from his capital Salpura in the Panjab, across the Sutlej into the Indian desert ; the invader named Farid. At the same period Manika Rae, the Chauhan prince of Ajmer, was assailed and slain. Even from the puerilities of Hindu legends something may be extracted. A mendicant dervesh, called Roshan Ali {i.e. the ' light of Ali '), had found his way to Garh Bitli (the ancient name of the Ajmer fortress), and having thrust his hand into a vessel of curds destined for the Raja, had his finger cut off. The disjointed member flew to Mecca, and was recognized as belonging to the saint. An army was equipped in the disguise of horse merchants, which invaded Ajmer, whose prince was slain. May we not gather from this incident that an insult to the first Islamite missionary, in the person of Roshan Ali, brought upon the prince the arms of the Caliph ?
The same Chauhan legends state that Ajaipal was prince of Ajmer at this time ; that in this invasion by sea he hastened to Anjar (on the coast of Cutch), where he held the ' guard of the ocean ' {Samudra lei Chaulci), where he fell in opposing the landing. An altar was erected on the spot, on which was sculptured the figure of the prince on horseback, with his lance at rest, and which still annually attracts multitudes at the ' fair (Mela) of Ajaipal.' The subsequent invasion alluded to in the text, of S. 750 (a.d. 694), is marked by a curious anecdote. When the ' Asurs ' had blockaded Ajmer, Lot, the infant son of Manika Rae, was playing on the battlements, when an arrow from the foe killed the heir of Ajmer, who has ever since been worshipped amongst the lares and penates of the Chauhans ; and as he had on a silver chain anklet at the time, this ornament is forbid to the children of the race. In all these Rajput families there is a putra {adolesceyis) amongst the penates, always one who has come to an untimely end, and chiefly worshipped by females ; having a strong resemblance to the rites in honour of Adonis. We have traced several Roman and Grecian terms to Sanskrit origin ; may we add that of lares, from larla, ' dear ' or ' beloved '?[?].
-[The story is " puerile and fictitious : independent of which the Arabs liad quite enough to do nearer home " (Elliot-Dowson i. 426).]
The first of the Khichi princes who occupied the Duab of Sindsagar in the Panjab, as well as the ancestor of the Haras established in Golkonda, was expelled at the same time. The invader is treated in the genuine Hindu style as a Danava, or demon, and is named Ghairaram [Persian : not a likely name.] (i.e. restless), from Kujliban,,(Signifying ' Elephant forests,' and described in a Hindu map (stamped on cloth and painted) of India from Kujiiban to Lanka, and the provinces west of the Indus to Calcutta ; presented by me to the Royal Asiatic Society.) a term geographically given to a portion of the Himalaya mountains about the glaciers of the Ganges. The ancestor of the founder of Patan was expelled from his petty islandic dominion on the coast of Saurashtra at the same time. This is the period when Yazid was the caliph's lieutenant in Khorasan, and when the arms of Walid conquered to the Ganges ; nor is there a doubt that Yazid or Kasim was the author of all these revolutions in the Hindu dynasties. We are supported in this by the names of the princes contained in the catalogue who aided to defend Chitor and the Mori prince on this occasion. It is evident that Chitor was, alternately with Ujjain, the seat of sovereignty of the Pramara at this period, and, as it became the rallying point of the Hindus, that this race was the first in consequence.^ We find the prince of Ajmer, and the quotas of
3 The list of the vassal princes at the court of the Mori confirms the statement of the bard Ohand, of the supremacy of Ram Pramara, and the partition of his dominion, as described (see p. 63, note) amongst the princes who founded separate dynasties at this period ; hitherto in vassalage or subordinate to the Pramara. We can scarcely suppose the fauiily to have suffered any decay since their ancestor, Chandragupta, connected by marriage with as well as the ally of the Grecian Seleucus, and who held Greeks in his pay. From such connexion, the arts of sculpture and archi tecture may have derived a character hitherto unnoticed. Amidst the ruins of Barolli are seen sculptured the Grecian helmet ; and the elegant ornament, the Kumbha, or ' vessel of desire,' on the temple of Annapurna (i.e. ' giver of food '), the Hindu Ceres, has much affinity to the Grecian device. From the inscription (see No. 2) it is evident that Chitor was an appanage of Ujjain, the seat of Pramar empire. Its monarch, Chandragupta (Mori [Maurya]), degraded into the barber (Maurya) tribe, was the descendant of Srenika, prince of Rajagriha, who, according to the Jain work, Kalpadruma Kalka, flourished in the year 477 before Vikramaditya, and from whom Chandra gupta was the thirteenth in descent. The names as follows : Kanika, Udsen, and nine in succession of the name of Nanda, thence called the Nau-nanda. These, at twenty-two years to a reign (see p. 64), would give 286 years, which— 477 = 191 s.v. + 56 = 247 a.c. Now it was in a.c. 260, Saurashtra and Gujarat [247] ; Angatsi, lord of the Huns ; Busa, the lord of the North ; Sheo, the prince of the Jarejas ; the Johya, lord of Jangaldes ; the Aswaria, the Sepat, the Kulhar, the Malan, the Ohir, the Hul, and many others, having nothing of the Hindu in name, now extinct. But the most conspicuous is ' Dahir Despati from Debal.' This is erroneously written Delhi, the seat of the Tuars ; whereas we recognize the name of the prince of Sind, slain by Kasim, whose expatriated son doubtless found refuge in Chitor. [Much of this needs correction, which cannot be done in the hunts of a note. For the Nanda dynasty see Smith, EHI, 40, and for Chandragupta Maurya and Asoka, 115 ff.]
This attack on the Mori prince was defeated chiefly through the bravery of the youthful Guhilot. The foe from Kujliban, though stated to have advanced by Mathura, retreated by Saurashtra and Sind, pursued by Bappa. He found the ancient seat of his ancestors, Gajni, [This and the second catalogue are fictions. They conflict with the conditions then existing in Gujarat, and such motley arrays are a favourite bardic theme (Forbes, Easmala, 31, note ; A8R, ii. 379).] still in the possession of the ' Asur ' : a term as well as mlechchha, or ' bar barian,' always given to the Islamite at this period. Salim, who held Gajni, was attacked and forced to surrender, and Bappa in according to Bayer, that the treaty was formed between Seleucus and Chandragupta ; so that this scrap of Jain history may be regarded as authentic and valuable. Asoka (a name of weight in Jain annals) succeeded Chandragupta. He by Kunala, whose son was Samprati, with whose name ends the hne of Srenika, according to the authority from which I made the extract. The name of Samprati is well known from Ajnier to Saurashtra, and his era is given in a valuable chronogrammatic catalogue in an ancient Jain manuscript from the temple of Nadol, at 202 of the Virat Samvat. He is mentioned both traditionally and by books as the great supporter of the Jain faith, and the remains of temples dedicated to Mahavira, erected by this prince, yet exist at Ajrr.er, on Abu, Kumbhalmer, and Girnar.
It has already been stated that the ancient name of Cambay was Gaini or Gajni, whose ruins are three miles from the present city [see p. 254 above].
There is also a Gajni on the estuary of the Mahi, and Abu-1 Fazl incidentally mentions a Gajnagar as one of the most important fortresses of Gujarat, belonging to Ahmad Shah; in attempting to obtain which by stratagem, his antagonist, Hoshang, king of Malwa, was made prisoner. I am unaware of the site of this place, though there are remains of an exten sive fortress near the capital, founded by Ahmad, and which preserves no name. It may be the ancient Gajnagar.
[The Author confuses the place in Gujarat with Jajnagar or Jajpur in Orissa, captured through a stratagem by Hoshang {Ain, ii. 219 ; Ferishta iv. 178 ; BG, i. Part i. 359).]
ducted into this stronghold of his ancestors a nephew of his own. It is no less singular than honourable to their veracity that the annals should record the fact, so contrary to their religion, of Bappa having married the daughter of the conquered Salim ; and we have a right to infer that it was from the influence acquired by this union tliat he ultimately abandoned the sovereignty of Mewar and the title of ' Hindua Suraj ' to become the founder of the ' one hundred and thirty tribes of Naushahra Pathans ' of the west. It is fair to conclude from all these notices regarding the founder of the Guhilot race in Chitor that he must have abjured his faith for that of Islam ; and it is probable (though the surmise must ever remain unproved) that, under some new title applicable to such change, we may have, in one of the early distinguished leaders of ' the Faith,' the ancestor of the Guhilots.