Thursday, April 15, 2021

FORGOTTEN 1857 REVOLUTION BRAVEHEART MAHARAJA MARDAN SINGH JU DEV OF BANPUR - CHANDERI - TALBEHAT - IMMORTAL RAJPUTS

'हुकूमत पर कब्जा करके हिंदूसतनिया खां गुलाम नही बनाओ जा सकत, जीते जी मर जहों पर गुलामी ना स्वीकरो' 


- Throughout his captivity MahaRaja Mardan Singh was offered to accept British suzerainty, but he kept on repeating the same line:



महाराजाधिराज मर्दन सिंह एक देशभक्त के रूप में :- 

मर्दन सिंह बुद्धिमान, नीतिकुशल एंव अत्यंत निर्भीक व्यक्तित्व के व्यक्ति थे। लाहौर के अस्सिटेंट-कमिशनर मिस्टर सी.एच मार्शल ने मर्दन सिंह को हाइली इंटेलीजेंट नेटिव जेंटलमेन कहा था। १८४६ में दस्यु समस्या का अंत करने के पश्चात उन्हें मसौरा ग्राम एंव गढ़ी की जागीर प्राप्त हुवी। 

१८५५ में सामर का महसुल लेना बंद न करने पर अंग्रेजी सरकार से प्रथम बार विद्रोह हुवा। १८५७ ई. में चंदेरी दुर्ग पर आक्रमण कर विजयश्री प्राप्त की। 

अपने राज्यकाल में अंग्रेजों से तीन बार युद्ध किये
प्रथम युद्ध नरयावली में।
द्वितिय युद्ध मोपेल में।
तृतिया युद्ध खिमलासा ग्राम में।

महाराजाधिराज मर्दन सिंह ने तीनों युद्धों में विजयश्री प्राप्त की।



ओरछा नरेश बुंदेला महाराजा रामशाह की ग्यारहवी पीढ़ी में महाराजाधिराज मर्दन सिंह का जन्म बानपुर के महाराज मोद प्रहलाद जी के आंगन मे हुवा। १८४२ ईo पिता के देहांत के बाद महाराजा मर्दन सिंह बानपुर की गद्दी पर विराजमान हुवे। 

बानपुर चंदेरी राज्य के शासकों का इतिहास काफी प्राचीन है और यह मुग़ल शासक अकबर के समय से विख्यात रहा है। मूलतः यह राज्य महान ओरछा साम्राज्य का ही एक भूभाग है। जिसे मुग़ल शासक जहांगीर के राज्यकाल में ओरछा से अलग करके एक स्वतंत्र राज के रूप में स्थापित किया गया था। इसी भूभाग को बानपुर चन्देरी के रूप में जाना जाता है, जिसकी प्रसिद्धि महाराजाधिराज मर्दन सिंह जुदेव के राज्यकाल में स्वर्ण अक्षरों से लिखे जाने सुयोग इतिहास को मिला। महाराजा मर्दन सिंह का नाम तो इतिहास में अमर हो गया, लेकिन उनका राज्य एंव उनका परिवार, अपनी शाही आन बान और शान से हाथ धो बैठा। महारानी झांसी के वारिसों की ही भांति जो अब इंदौर में निर्वासित जीवन व्यतीत करने पर मजबूर है, महाराजा मरदान सिंह का परिवार भी छतरपुर में मुकीम है। बानपुर चन्देरी राज परिवार की वंशावली पर भी एक दृष्टि डालना जरूरी है टंकी इस बात की निशानदेही की जा सके की भारत के इतिहास में इस राजपरिवार का क्या स्थान है और इन्होंने शासनकाल में किस प्रकार की शासन नीतियां अपनाते हुवे निर्माण कार्य सम्पन्न करवाये और अपने वंश की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए देश सेवा के माध्यम से कैसे कार्यो को अंजाम दिया। इस बुन्देल राज शाखा के शासकों का क्रम इस प्रकार है।-
ओरछा नरेश महान मधुकर शाह के आठ पुत्रो में राम शाह सबसे बड़े थे और वह अपने पिता की मृत्यु के बाद ओरछा के शासक बने।



रामशाह ओरछा नरेश के रूप में १५९२ से लेकर १६०५ तक रहें फिर उन्हें ओरछा से हटाकर जहांगीर ने चन्देरी क्षेत्र दिया और वह इस क्षेत्र के अधिपति सन् १६१२ तक रहें इस समय दिल्ली पे राज अकबर (१५५६- १६०५) और जहांगीर (१६०५-१६२७) थे। यह एक बड़ा लंबा प्रकरण है कि मधुकर शाह नरेश के पुत्रों राम शाह एंव वीर सिंह देव के बीच आपसी मतभेद जारी रहा और मुग़ल सुल्तान से भी इनकी कभी पट्टी कभी नही पटी। फिर भी बुंदेला राजवंश की अवेहलना दिल्ली के मुग़ल सुल्तान कभी नही कर सके। इतिहास में मुग़ल सुल्तानों के सहायक के रूप में जयपुर एंव ओरछा के ही
 राज परिवार रहें है। जिसमें ओरछा शाखा एंव चन्देरी शाखा ने मुग़ल के राज में बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में सक्रिय भाग लेकर अपने युद्ध कौशल से दिल्ली सुल्तानों को खास तौर पे प्रभावित किया है। इतिहास में मिलता है की राम शाह को सन् १६०९ में बानपुर-चन्देरी  का इलाका राजस्व में १० लाख सालाना का, ओरछा से अलग करके दिया गया था। उस समय मैं। चन्देरी नगर बाबर द्वारा युद्ध किये जाने से लगभग तबाह हो चुका था। इसलिए उन्होंने ने बार कस्बे को अपना अस्थायी केंद्र बनाया। 


उन्होंने बार एंव धमना के मध्य स्थित पहाड़ी पर किले कि नींव डाली और किले के निकट ही पहाड़ियों के बीच रामशाह सागर झील का निर्माण करवाया और तालाब के प्रैशर भाग में एक सुरम्य वाटिका बनवाई ओरछा के इतिहास में उल्लेख है कि बार की रामशाह सागर विशाल पैरियों से बनवाया गया था। तालाब का निर्माण इस अनूठे धांज से किया गया था कि स्त्री - पुरुष साथ-साथ स्नान करते रहने पर भी एक दूसरे को देख नही सकते थे। बुंदेलखंड में इस तरीके का यह ही सरोवर है। महाराजा रामशाह के बड़े पुत्र संग्राम शाह की मृत्यु ओरछा में ही हो गयी थी इस तरह वह दस पुत्रों एंव सात पौत्रों को लेकर बार आये थे। 

बुंदेलखंड के इतिहास में बहुत विस्तार से महाराज रामशाह, वीर सिंह देव एंव मुग़ल सुल्तानों के बीच निरंतर चलने वाली अप्रिय घटनाओं का सटीक चित्रण मौजूद है, इससे येहि निष्कर्ष निकलता है कि भाग्य ने मधुकर शाह के द्वित्य पुत्र यशस्वी वीरसिंह देव का अच्छा साथ देकर उन्हें एक महान नरेश एंव निर्माणकर्ता के रूप में अमर कर दिया, तथा दूसरी और माध्यम श्रेणी का भाग्य महाराजा रामशाह के लिए लिखा, जिन्हें नए सिरे से अपने राज्य, राजधानी एंव परिवार जनो की सुरक्षा के लिए कठिन प्रयास करना पड़ा। परंतु जब इन दोनो रियासतों का विलय हुवा अक्षय यश की धरोहर बानपुर चन्देरी खानदान को उसके अंतिम नरेश मर्दन सिंह  के कार्यकलपो से मिल सकी तथा ओरछा राज्य के शासकों में से कोई भी ऐसा प्रतापी नही निकल सका जो वीर सिंह देव प्रथम के सम्मान भारत के इतिहास में नामी पुरुष के रूप में स्थापित होता। सच पूछा जाए तो १८५७ के संग्राम के भागीदार होने के नाते विश्व के उन तमाम देशों में जहां इस स्वतंत्रता संग्राम पर शोध कार्य हुवा है, हो यह है और आगे भी होगा वहां बानपुर चन्देरी नरेश अमर सेनानी महाराजा मर्दन सिंह का जिक्र बड़े आदर के साथ किया जा रहा है। इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी में जो शोध कार्य हुवा है उनमें महाराजा मर्दन सिंह का जिक्र बहुत सम्मान से किया गया है। महाराजा राम शाह एंव महान वीर सिंह देव को जिन संघर्षो से जूझना पड़ा था वह अलग-अलग तरह के है, जिन्हें स्थानाभाव से प्रस्तूर करना संभव नही है। महाराजा राम शाह का दुर्ग बार में तैयार होना शुरू ही हुवा था कि वे स्वर्ग सिधार गए, उनके जेष्ठ पुत्र संग्राम सिंह के सात पुत्रो में भरत सिंह सबसे बड़े थे और वह इस क्षेत्र के नरेश बने। 

भारत सिंह ने १६१२ से १६३० तक राज्य किया। ओरछा वंश में प्रतापी, होनहार और प्रभावशाली व्यक्तियों के निरंतर जन्मते रहने की परम्परा भी आश्चर्यजनक ही है। सन् १६१६ में भरत सिंह ने चन्देरी के सूबेदार गोदा राय को पराजित किया क्योंकि वह मुगल विरोधी हो गया था। इसपर प्रसन्न होकर सुल्तान शाहजहां ने तीन लाख सालाना का चन्देरी क्षेत्र एक सनद के जरिये भरत सिंह को दे दिया। अब वे बार एंव चन्देरी के शासक हुवे जिसका राजस्व ६ लाख रुपया था। सन् १६१७ में महाराजा भरत शाह ने चन्देरी राजधानी बना ली क्योंकि वहां रिहायशी महलों आदि की मरम्मत एंव निर्माण का कार्य जारी था, वे पराक्रमी एंव योग्य प्रशासक थे। सन् १६१८ ईसवी में उन्होंने तालबेहट का विशाल किला बनवाया और उसको श्रेष्ठ बुन्देली चित्रकारी से सजाया गया जिसके धूमिल अंश आज भी मौजूद है। महाराजा भरतसिंह ने राज्य को छै संभागों में विभाजित करके शासन व्यवस्थित किया। उन्होंने अपने सभी छह भाइयो को जागीरें भी प्रदान की। महाराजा रामशाह का जन्म संवत १५९० और निधन संवत १६६९ में हुवा था। महाराजा भरत सिंह ने १८ वर्ष राज्य किया। जन्होने शाहजहां की और से काबुल और कंधार युद्ध में मुगल सेना की कम्मान संभाली थी। इस समय मुगल दरबार मे जयपुर एंव चन्देरी नरेशो की ही धूम थी।

भरत सिंह जी मृत्यु के उपरांत उनके ज्येष्ट पुत्र महाराजा देवी सिंह गद्दी पर आसीन हुवे। देवी सिंह जी का तो मुग़ल दरबार मे प्रथम श्रेणी का सम्मान था जिसका जिक्र मुगल ग्रंथो में भी अंकित है। उन्हें 'बुंदेलखंड का राजा' कहा जाता था। ओरछा नरेश जुझार सिंह के निधन के बाद उन्हें ओरछा का प्रशासक भी मुगल दरबार ने नियुक्त किया था। सन् १६३२ से १६३४ तक उन्होंने यह उत्तरदायित्व संभाला। शाहजहां ने महाराजा देवी सिंह से प्रसन्न होकर उन्हें गदृल, खिमलासा, इटावा, मालथौन, राहतगढ़, बसौदा, उदैतपुर, बसिया और सिरोंज परगने प्रदान किये थे। देवी सिंह जी ने चन्देरी म् सिंह सागर तालाब सिंहपुरा एंव तालबेहट में सिंह बाग, बल्देवगढ़ का दुर्ग एंव तालाब बनवाया। वे सन् १६६३ में दिवंगत हो गए। 

देवी सिंह के ज्येष्ट पुत्र महाराजा दुर्ग सिंह चन्देरी के शाशक बने। उनके राज्यकाल में १६७६ ई. में मराठा सरदार शंकरराव ने हमला किया था। पर उसे पराजय मिली थी, जैसा कि ओरछा इतिहास में लक्ष्म सिंह ने पृष्ट ६५ पर लिखा है। डॉ काशीप्रसाद ने  मराठा आक्रमण की तिथि १६८६ दर्ज की है और हो सकता है यह प्रूफ की भूल हो क्योंकि यह तथ्य लक्ष्मण सिंह के ओरछा इतिहास से लिया गया है।

महाराजा देवी सिंह के पुत्र दुर्जन सिंह ने चन्देरी १६८७ से १७३६ तक संभाली। मराठों का आक्रमण अब प्रबल रूप लेने लगा था। इन्ही के समय मे पन्ना स्वतंत्र राज बना। बाजीराव प्रथम को बुंदेलखंड में छत्रसाल के तृतिया पुत्र की मान्यता मिली। गोविंद राय पंडित या गोविंद पन्त बुन्देले सागर में मराठा इलाकों के अधिपति नियुक्त हुवे, लक्ष्मण सिंह गौड़ के ओरछा इतिहास पृष्ट ६६ के अनुसार चन्देरी के मालथौन, खिमलासा और राहतगढ़ पर हमला हुआ था तथा भेलसा, उदैतपुर, बसौदा एंव सिरोंज चन्देरी नरेश से छीन लिए गए। 

दुर्जन सिंह के बाद उनके पुत्र मान सिंह १७३६ से १७५० तक चन्देरी नरेश रहे। उन्होंने अपने भाई जोरावर सिंह को पाली, सुबाजु को बार, धीरज सिंह की बानपुर की जागीर प्रदान की।




ऐतहासिक प्रमाणों से सिद्ध होता है कि बानपुर-चंदेरी-तलाभेट के बुन्देल राजवंश के महाराजाधिराज मर्दन सिंह जु देव भारत के उन क्रांतिकारी नेताओ में थे। जिन्होंने १८५७ की क्रांति की घटना से पूर्व ही भारतीय सैनिकों में स्वदेश के प्रति राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने का सफल प्रयास किया था। १८५८ में १० मई मेरठ में ४ जून को कानपुर में एंव ८ जून को झांसी में अंग्रेजो से जमकर लोहा लिया एंव उन्हें नाको चने चबवाये। बुंदेलखंड में अंग्रेजो से युद्ध करके उन्हें भारत से बाहर निकलने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। क्रांति के प्रारंभ होते ही उन्होंने अपने आसपास के क्षेत्रों में अंग्रेजी अलमदारी का विध्वंस किया। महारानी लक्ष्मीबाई की सहायता में उन्होंने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। 


वे सच्चे अर्थों में बुंदेलों के लिए समर्पित थे उनके राज्यभिषेक के समय जब सिंधिया जी ने सुझाव दिया की उन्हें अंग्रेजों की अनुमति प्राप्त कर लेनी चाहिए। तब उन्होंने कहा की राजगद्दी पर बैठने के लिए केवल प्रजा की सहमति आवश्यक होती है। महाराजा मर्दन सिंह एक कुशल योद्धा तथा एक योग्य प्रशासक थे। प्रजा के मध्य अत्यंत लोकप्रिय थे और अंग्रेज भी उनकी प्रशंसा करते नही थकते थे।



इसी से जुड़ा एक प्रेरक प्रसंग :- महाराजाधिराज मर्दन सिंह जूदेव ने जीवन भर वीरता का परिचय दिया। अपने शासनकाल मे महाराजा को बागियों द्वारा जंगल मे अंग्रेज नारियों को पकड़कर घायल करने की सूचना मिली। उन्होंने तुरंत सिपाहियों से अंग्रेज नारियो को मुक्त करवाकर उनका भली प्रकार उपचार करवाया एंव उनके साथ मानवता का व्यहवार प्रदर्शित किया। 


बुंदेलखंड में क्रांति के अग्रदूत का दायित्व निर्वाह करते हुवे उन्होंने अपनी बुद्धि का परिचय दिया था तथा संगठन के सर्जक मर्दन सिंह ने अंग्रेजों की कूटनीतियों को असफल करने के लिए भारतीय इतिहास में अभिनव सहयोग किया। अपनी सेना में हरिजनों और मुसलमानों को लिया। सेनापति मिन्ने मेहतर को बनाया एंव प्रधान तोपची का दायित्व दलेल खां को सौंपकर साम्प्रदायिक भावना की एकात्मकता की ज्योति प्रज्वलित कर समर यज्ञ की ज्वाला को तीव्र किया। २८ सितंबर १८५८ को मुरार में अंग्रेजो ने मर्दन सिंह को बन्दी  बनाके लाहौर की जेल में रखा। यहां भी अंग्रेजों ने उन्हें आधीनता स्वीकारने पर राजपाठ वापस देने की पेशकश रखी। लेकिन उन्होंने वे ठुकरा दी। इस पर १२ दिसंबर १८६० को अंग्रेजों ने महाराजा मर्दन सिंह की रियासत चीन ली। १८७४ से लेके जीवन के अंतिम समय तक अंग्रेज सरकार ने महाराजा मर्दन सिंह को मथुरा की जेल में नजरबंद करके रखा। 

२१ वर्ष की कठोर यातनाएं झेलते झेलते स्वराज का महान तपोनिष्ठ योद्धा २२ जुलाई १८७९ को टूट तो गया पर जीवन मे कभी झुका नहीं। अपने जीवन के अंतिम काल मे महाराजा मर्दन सिंह एहि बात अंग्रेजों के सामने दोहराए रहे कि

'हुकूमत पर कब्ज़ा करके हिन्दुस्तानीयन खां गुलाम नही बनाओ जा सकत, जीते जी मर जेहों पै गुलामी नही स्वीकारों'


इस महान सेनानी का मूक बलिदान तथा क्रांति की तपोभूमि तालबेहट का भारतगढ़ दुर्ग आज समाज और सरकार से उपेक्षा सेहता हुआ मौन है। 







Maharaja Mardan Singh was born in Chanderi in the royal family and was the 11th generation of Legendary Chhatrasal Bundela. Young Prince Mardan Singh grew learning warrior art and listening to stories of bravery of King Chhatrasal and Chatrapati Shivaji Maharaj,his mother had the lion's share in shaping his destiny. His father Mod Pralhad was the ruler of Chanderi-Banpur-Talbehat.However due to his weakness for wine and women he lost Chanderi to Malwa Sultans and Banpur become his new place of residency.


BANPUR


भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम म् सबसे बड़ी आहुति देने में अमर बलिदानी महाराजा मर्दन सिंह को सदैव ही स्मरण किया जायेगा।

मर्दन सिंह का जन्म सन् १८०२ में शरद पूर्णिमा के दिन चन्देरी नगर में चन्देरी के युवराज के रूप में हुवा था लेकिन आगे चलकर युवराज तो बड़ी बात थी। सामान्य राजकुमार की भी स्थिति नही रही क्योंकि उनके पिताजी मोड़ प्रह्लाद को राज्य से हटा दिया गया था। सिंधिया सरकार ने चन्देरी को अपने राज्य में मिला लिया था। चन्देरी का यह राजपरिवार मजबूर होकर बुन्देलों के रजवाड़ों म् जैसे तैसे दिन काटने को विवश हो गया था। युवा होने पर मर्दन सिंह से परिवार की दैन्यता नही देखी गयी उन्होंने अकेले विद्रोह का बिगुल फूंक दिया तथा युवकों को संगठित करके अपनी सेना बनाई। मर्दन सिंह के बढ़ते प्रभाव को आंककर अंग्रेजो और सिंधियों ने समझौता कर पुराने चन्देरी राज्य का तीसरा हिस्सा मर्दन सिंह को दे दिया तथा नए राज्य की राजधानी बानपुर रखी गयी। यह घटना सन् १८३० की है उसी समय ललितपुर व सागर में डाकुओं के प्रधानगढ़ थे इन्हें पकड़ने के लिए अंग्रेज सरकार ने बड़े बड़े इनाम घोषित कर दिए थे। परंतु अंग्रेजो को कोई सफलता प्राप्त नही हुई। जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। मर्दन सिंह से जनता का यह कष्ट देखा नही गया। उन्होंने आत्मबल से १५० डकैतों को पकड़कर अंग्रेज कमिश्नर हैमिलटन को ललितपुर में जिंदा सौंप दिया था इसी घटना से मर्दन सिंह सागर से झांसी तक कि जनता के प्रिय एंव अंग्रेजों के मित्र बन गए सन् १८४४ में ग्वालियर के राजा जानकी जी राव सिंधिया के मरने पर मर्दन सिंह ने अपने समूचे चन्देरी राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। अब चन्देरी व तालबेहट दुर्ग भी उनके कब्जे में आगये तथा अंग्रेजो ने भी इससे मान्यता दे दी। 



Banpur it is located about 37 Kms from lalitpur.It was constructed by King Devi Singh. This fort was home of MahaRaja Mardan Singh till he captured Chanderi and Talbehat.


The fort is surrounded by artificial lakes from three sides,a typical feature of forts of Bundelkhand which not only provides water but also defence to fort.


The Fort played an important role in life of , Mardan Singh from its very ramparts he lead successful campaigns to win back his kingdom of Chanderi and Talbehat. This fort was also an important rallying point in 1857. 


Hugh Rose during his march towards Jhansi captured and blasted the fort,thereby destroying it completely.


In Spite of destruction both by man and nature,some beautiful examples of Bundeli art still remain.







TALBEHAT FORT



तालबेहट का भारतगढ़ दुर्ग सन् १८५७ की क्रांति का केंद्र


वस्तुतः भारतगढ़ दुर्ग सन् १८५७ की क्रांति का सूत्रधार था। महाराजा मर्दन सिंह ने सन् १८५३ में ही झांसी में महारानी लक्ष्मीबाई के समक्ष अंग्रेजों को खदेड़ने का संकल्प लिया था, तत्पश्चात भारतगढ़ दुर्ग के नृसिंह मंदिर प्रांगण में राष्ट्रीय स्तर की बड़ी सभएँ भी आयोजित हुई, जिसमे झांसी महारानी लक्ष्मीबाई, बानपुर महाराजा मर्दन सिंह जु देव , बाँदा के नवाब व अन्य क्रांतिकारी नेतागण मई- जून १८५७ के पूर्व कमल और रोटी देशभर में प्रतीक के रूप में पहुँचाकर एक साथ क्रांति क्रांति कांडा चाहते थे। 



कमल का पुष्प तालबेहट के मसरोवर तालाब व बुब्देलखण्ड के अन्य तालाबों से लेकर गए थे, यह तथ्य महारानी लक्ष्मीबाई और महाराजा मर्दन सिंह के पत्रों से उजागर है तथा यह अन्य स्थानों पर हनुमान जी की प्रतिमाओं में थे। 



उस समय जो कमल जो कमल के फूल स्थापित हुवे थे उन्हें आज भी परख जा सकता है। भारतगढ़ दुर्ग के अंदर नृसिंह मंदिर के पवित्र प्रांगण में स्थापित हनुमान जी की स्वरूप के हाथ में कमल का फूल है। 

Talbehat town is as big as his lake.


Talbehat is counted among young hill forts of India. One of the most important fort of first war of independence,Fort talabhet lalitpur, it was witness to gallant stand by Maharaj Mardan Singh against British ,it took nine days for British to capture this fort. It was built in 1618 by Maharaja Bharat Shah. This fort is situated at the bank of a big lake. Tal Means-lake and behat means-village in language of the Gonds who were earlier chieftains of the area. Area changed hands from Gonds to Pratihara rajputs to Chandelas Rajputs to Gonds, later on becoming a bundela Rajputs stronghold. Bharat Shah brother of Bir Singh laid the foundation of the fort and completed it in 1618. Devi singh later on refurbished the fort.


There are many haunted forts in India, where it is not allowed to go after sunset. One of them is the fort of Talbehat. One of the most striking feature of the fort is a 500 acres lake ,legend says that during severe drought ,brahmins fasted,penance done,followed by human sacrifice,this culminated in sprouting of water from ground,resulting in huge lake.


There are many temples and tales inside the fort waiting to amaze... The Fort has got three temples inside, dedicated to Angad, Hanumanji & Narsingh Bhagwan .


In the premises there is Hazaria Mahadev Temple on the banks of Lake. This is known as Sahasralinga (one thousand Linga). it has total 11 rows, each row having 90 Linga respectively(11x91=1001). Temple overlooking a lake, Talbehat fort, Lalitpur district, Bundelkhand.







With the fall of Mughals, Scindias went on an expansion mode, leading to capture of Talbehat by Scindia’s French commander Jean-Baptiste. Southern part was breached and fort captured.
MahaRaja Mardan Singh who by this time had become great friend of british by capturing 140 dreaded dacoits in and around lalitpur and handing them to british, 


besieged the fort,this time Baptiste was checked by brilliant tactics of MahaRaja Mardan Singh. Negotiations prodded by the british was carried out, thereby Banpur and Talbehat restored to MahaRaja Mardan Singh Bundela.




The well in the fort is dug in single rock and never has it dried.












Few remaining Bundeli rock art




When Rani Laxmibai was struggling against Britishers, it was under the territory of Maharaja Mardan Singh. 

(RARE Document )
PC: Shri Bundela Raj ji

This is the marriage invitation letter of Maharaja Gangadhar Rao & Maharani Lakshmi Bai/Manikarnika, written in Bundelkhandi language.

Written by Gangadhar Rao himself and was sent to Maharaja Mardan Singh Judev of Chanderi & Baanpur.



Samvat 1914 (1857AD), camp Kalpi



Samvat 1914 (1857 AD), camp Jhansi

Invitation to fight together sent by Maharani Lakshmi Bai to Maharaja Mardan Singh.Source: “Bundelkhand Ka Vismrat vaibhav: Banpur” by Kailash Madavaiya, Pub. Manish Prakashan (author), 1978.

She wrote these to the king of her neighbouring estate Banpur – Maharaja Mardan Singh.

Notice that in the second letter she is clearly mentioning (in Braj Bhasha) – 

“हमारी राय है कै विदेसियो का सासन भारत पर न भौ चाहिजै और हमको अपुन कौ बडो भरोसो है और हम फौज की तयारी कर रहे है”


 (Our opinion is that foreign rule should not be allowed to take over Bharat, and we are confident on ourselves, and we are preparing our army).

She is not concerned just about Jhansi, but Bharat. Also notice her use of Vikram Samvat and Hindu calendar (not Hijri prevalent then).

The scheme of revolt of 1857 was formulated by Rani Laxmi bai at Jhansi and MahaRaja Mardan of Talbhet.


Maharaja was chosen as the commander of the revolt as he was holding the highest seat of Bundelas, he captured entire Sagar district & killed british commander Col. Dudley. 


Maharaja Mardan Singh fought along side Rani Laxmi Bai in 1857, but was captured due to treachery of Scindias & his state ws captured by British

Before the final battle of March 1858 , MahaRaja Mardan Singh fought three battles with british,at Naryawali,Malthone,and Khimlasa he won all the three. 

Representative image


For capture of Talbehat the assault was lead by scindia forces with there year old knowledge of capture of fort,they easily blasted the southern wall ,however in a fierce battle the british force had to retreat back..

1882 :: Bhopal State Cavalry  Waiting For Arrival of First Train at Bhopal Railway Station


With arrival of 2000 Lancers given by begum of Bhopal,the tide turned in favour of british.After loot,plunder and massacre was lead by Bhopal lancers and Orchha forces,Hugh Rose marched ahead towards Jhansi.

Destroyed Portion of Wall


MahaRaja Mardan Singh was captured and kept in lahore jail.later on shifted to mathura and kept under house arrest.


Officers & Maharaj was exiled for 27 yrs.

The Giant leader breathed his last on July of 1879.A very popular leader of masses for whom nation remained first above everything.



Yet........






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