Tuesday, April 6, 2021

'YAARON K YAAR' REVOLUTIONARY FREEDOM FIGHTER THAKUR ROSHAN SINGH - IMMORTAL RAJPUTS

' ज़िंदगी ज़िदा-दिली को जान ऐ रोशन

वरना कितने ही यहां रोज फ़ना होते हैं.’

-ठाकुर रोशन सिंह

पूरा नाम - ठाकुर रोशन सिंह

जन्म दिनांक - 22 जनवरी 1892

जन्म स्थान - शाहजहांपुर (उत्तर प्रदेश )

पिता का नाम - ठाकुर जंगी राम

माता का नाम - कौशल्यानी देवी

मृत्यु दिनांक - 1927 (फांसी की सजा )


ठाकुर रोशन सिंह का जन्म 22 जनवरी, 1892 को शाहजहाँपुर में गांव ‘नबादा में राजपूत परिवार मे हुआ था। उनकी माता का नाम कौशल्या देवी और पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था। ठाकुर रोशन सिंह का पूरा परिवार ‘आर्य समाजी था। वे अपने पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। जब गाँधीजी ने ‘असहयोग आन्दोलन शुरू किया, तब रोशन सिंह ने शाहजहाँपुर और बरेली जि़ले के ग्रामीण क्षेत्र में अद्भुत योगदान दिया था। हिन्दू धर्म, आर्य संस्कृति, भारतीय स्वाधीनता और क्रान्ति के विषय में ठाकुर रोशन सिंह सदैव पढ़ते व सुनते रहते थे। ईश्वर पर उनकी आगाध श्रद्धा थी। हिन्दी, संस्कृत, बंगला और अंग्रेज़ी इन सभी भाषाओं को सीखने के वे बराबर प्रयत्न करते रहते थे। स्वस्थ, लम्बे, तगड़े सबल शारीर के भीतर स्थिर उनका हृदय और मस्तिष्क भी उतना ही सबल और विशाल था। 


ठाकुर रोशन सिंह की याद में लगा शिलालेख


ठाकुर रोशन सिंह 22 जनवरी 1892 को पैदा हुए थे. 

ठाकुर रोशन सिंह और पंडित(ठाकुर) रामप्रसाद तोमर ‘बिस्मिल’ में बहुत ही गाढ़ी दोस्ती थी. वे देश सेवा की और झुके और अंतत: रामप्रसाद तोमर 'बिस्मिल' के संपर्क में आकर क्रांति पथ के यात्री बन गए। यह उनकी ब्रिटिश विरोधी और भारत भक्ति का ही प्रभाव था की वे बिस्मिल के साथ रहकर खतरनाक कामों में उत्साह पूर्वक भाग लेने लगे। दोनों में हमेशा इस बात का कॉम्पटीशन रहता था कि ठाकुर रोशन सिंह देश के काम पहले आएगा या रामप्रसाद तोमर ‘बिस्मिल’. रोशन के साथी उनको ठाकुर बोल-बोलकर तंग किया करते थे।


ठाकुर रोशन सिंह 1919 के आस-पास ‘असहयोग आन्दोलन से पूरी तरह प्रभावित हो गए थे।

1921-22 के असहकार आंदोलन के समय बरेली शूटिंग केस मे सजा सुनाई गई थी। जब उत्तर प्रदेश सरकार ने भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के वालंटियर कोर्प्स पर नवम्बर 1921 में बंदी लगा दी थी, तब देश के सभी कोनो से सरकार के इस निर्णय का विरोध किया जा रहा था। ठाकुर रोशन सिंह ने शाहजहांपुर जिले से बरेली भेजे जा रहे आक्रामक सेना वालंटियर्स का नेतृत्व किया था।

पुलिस ने भी जुलुस को रोकने के लिए गोलियों का सहारा लिया था और इसके बाद रोशन सिंह और दुसरे जुलुसकर्ताओ को गिरफ्तार किया गया था। उनपर केस दाखल कर उन्हें 2 साल तक बरेली के सेंट्रल जेल में कैद किया गया था।


हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हुए:

जबसे उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में उनका स्वागत किया गया, तबसे वह क्षेत्र वहाँ की मोटी और असभ्य भाषा के लिए प्रसिद्ध था। जेल में रहते समय जेलर उनसे बुरा व्यवहार करता था, लोगो के अनुसार जेल में ब्रिटिश लोग उन्हें कठोर परिस्थितियों में रखते थे।

रोशन सिंह के लिए इतना पर्याप्त था और तब उन्होंने जेल में ही यह निश्चित कर लिया की वह ब्रिटिश सरकार से उनके असभ्य व्यवहार का बदला जरुर लेंगे। और जैसे ही वे बरेली की सेंट्रल जेल से रिहा हुए वे तुरंत शाहजहांपुर चले गये और वहाँ वे पंडित राम प्रसाद बिस्मिल  से आर्य समय के घर में मिले।

बिस्मिल पहले से ही अपनी क्रांतिकारी पार्टी के लिए किसी अच्छे शूटर की तलाश में थे। इसीलिए बिस्मिल ने तुरंत ठाकुर को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया और उन्होंने ठाकुर को पार्टी के सभी सदस्यों को शूटिंग सिखाने के लिए भी कहा।


बमरौली कारवाई –

25 दिसंबर 1924 की बमरौली डकैती हुई. इस डकैती में रोशन सिंह भी शामिल थे. हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) पैसे जमा करने के लिए काफी संघर्ष कर रहा था। समाज के अमीर लोग इस युवा संस्था को एक पैसा भी देना नही चाहते थे।

जबकि वे कांग्रेस और स्वराज पार्टी को खुले हाथो से पैसा देते थे। तभी ठाकुर रोशन सिंह ने राम प्रसाद बिस्मिल को समाज के अमीर लोगो के घर से पैसा चोरी करने की सलाह दी। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने भी इसे नया मोड़ दिया, और इसे करवाई का नाम दिया गया। कहा जाता है की यह उनकी पार्टी का ही कोड वर्ड था।

25 दिसम्बर 1924 को (क्रिसमस की रात) को बलदेव प्रसाद पर रात में आक्रमण कर HRA के एक्शन-गैंग ने ठाकुर रोशन सिंह के नेतृत्व में हत्या कर दी। बलदेव पैसे उधार देने वाला और सुगर किंग का व्यवसाय करने वाला इंसान था। इस कारवाई में उनके हाथ 4000 रुपये लगे और कुछ हथियार में उन्हें मिले।

गाँव के एक रेसलर मोहन लाल ने उन्हें चुनौती भी दी और गोली भी चलाई। ठाकुर रोशन सिंह जो एक एक बेहतरीन शूटर थे, उन्होंने रेसलर को एक ही गोली में मार दिया और उसकी रिफिल भी जप्त कर ली।


काकोरी षड्यंत्र –

 इतिहास के कुछ जानकारों का कहना है कि 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के करीब काकोरी स्टेशन के पास जो सरकारी खजाना लूटा गया था, उस घटना में ठाकुर रोशन सिंह शामिल नहीं थे.इसके बावजूद उन्हें 19 दिसंबर 1927 को इलाहाबाद के नैनी जेल में फांसी पर लटका दिया गया.

36 साल के ठाकुर रोशन सिंह की उमर के ही केशव चक्रवर्ती काकोरी डकैती में शामिल थे. उनकी शक्ल रोशन सिंह से मिलती थी. अंग्रेजी हुकूमत ने माना कि रोशन ही डकैती में शामिल थे. केशव बंगाल की अनुशीलन समिति के सदस्य थे, फिर भी पकडे़ रोशन सिंह गए. लेकिन अंग्रेजों को सबूत नहीं मिल पा रहे थे ताकि उनकी धरपकड़ कर सकें.

इस बार अंग्रेजों को सबूत हाथ लग गए थे. अब तो अंग्रेज पुलिस ने सारा जोर ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा दिलवाने में लगा डाला. इस डकैती के सबूतों को अंग्रेजों ने काकोरी के लिए इस्तेमाल किया. केशव चक्रवर्ती को उसके बाद ढूंढा तक नहीं गया, और रोशन सिंह को ही काकोरी कांड का आरोपी बना डाला. वो भी उनके आकर्षक व रौबीले व्यक्तित्व को देखकर डकैती के सूत्रधार रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी के साथ उन्हें भी जज ने IPC के सेक्शन 121 (A) और 120 (B) के तहत पाँच साल की सजा के बाद फ़ाँसी की सज़ा दे दी गई। 

19 दिसंबर 1927 का वो दिन आया, जब बिस्मिल और रोशन सिंह साथ में फांसी के तख़्ते पर चढ़ने जा रहे थे. रोशन सिंह ने अपनी रौबीली मूंछ पर ताव देते हुए बिस्मिल (जो कि खुद भी तोमर कुल के ठाकुर थे) से कहा, ‘देख, ये ठाकुर भी जान की बाजी लगाने में पीछे नहीं रहा.’
काकोरी कांड में रोशन नहीं थे शामिल?



दिलेर रोशन सिंह की जबर दिलदारी

काकोरी ट्रेन डकैती के लिए अंग्रेजों ने अशफ़ाक़, ‘बिस्मिल’, राजेंद्र लाहिड़ी के साथ रोशन सिंह को जिम्मेदार माना था. ब्रिटिश अदालत ने चारों को 5-5 साल की बामशक़्क़त क़ैद और फांसी की सजा सुनाई. परमौत का फ़रमान सुनकर ये वीरनौजवान खिलखिलाकर हंस पड़े. फांसी, ताउम्र क़ैद में भी तब्दील हो सकती थी, लेकिन जेल में किसको बैठना था. ये मतवाले तो चाहते थे कि उन्हें फांसी ही हो, और ये बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे. आज़ादी की लड़ाई और धारदार हो जाए. लोगों के दिल में गुस्से का ज्वालामुखी फट पड़े। 

जेल जीवन में पुलिस ने उन्हें मुखबिर बनाने के लिए बहुत कोशिश की, लेकिन वे डिगे नहीं। चट्टान की तरह अपने सिद्धांतो पर दृढ रहे। ‘काकोरी काण्ड के सन्दर्भ में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की तरह ठाकुर रोशन सिंह को भी फ़ाँसी की सज़ा दी गई थी। यद्यपि लोगों का अनुमान था की उन्हें कारावास मिलेगा, पर वास्तव में उन्हें कीर्ति भी मिलनी थी और उसके लिए फ़ाँसी ही श्रेष्ठ माध्यम थी। फ़ाँसी की सज़ा सुनकर उन्होंने अदालत में ‘ओंकार का उच्चारण किया और फिर चुप हो गए। ‘ओम मंत्र के वे अनन्य उपासक थे। अपने साथियों में रोशन सिंह प्रोढ़ थे। इसलिए युवक मित्रों की फ़ाँसी उन्हें कचोट रही थी। अदालत से बहार निकलने पर उन्होंने साथियों से कहा था हमने तो जि़न्दगी का आनंद खूब ले लिया है, मुझे फ़ाँसी हो जाये तो कोई दु:ख नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए मुझे अफ़सोस हो रहा है, क्योंकि तुमने तो अभी जीवन का कुछ भी नहीं देखा। उसी रात रोशन सिंह लखनऊ से ट्रेन द्वारा इलाहाबाद जेल भेजे गए। उन्हें इलाहाबाद की ‘मलाका जेल में फ़ाँसी दिए जाने का फैसला किया गया था। उसी ट्रेन से ‘काकोरी कांड के दो अन्य कैदी विष्णु शरण दुबलिस और मन्मथनाथ गुप्त भी इलाहाबाद जा रहे थे। उनके लिए वहाँ की नेनी जेल में कारावास की सज़ा दी गई थी।



लखनऊ से इलाहाबाद तक तीनों साथी, जो अपने क्रांति जीवन और ‘काकोरी कांड में भी साथी थे, बाते करते रहे। डिब्बे के दूसरे यात्रियों को जब पता चला की ये तीनों क्रन्तिकारी और ‘काकोरी कांड के  वीर हैं तो उन्होंने श्रद्धा-पूर्वक इन लोगों के लिए अपनी-अपनी सीटें ख़ाली करके आराम से बेठने का अनुरोध किया। ट्रेन में भी ठाकुर रोशन सिंह बातचीत के दौरान बीच-बीच में ‘ओम मंत्र का उच्च स्वर में जप करने लगते थे। मलाका जेल में रोशन सिंह को आठ महीने तक बड़ा कष्टप्रद जीवन बिताना पड़ा। न जाने क्यों फ़ाँसी की सज़ा को क्रियान्वित करने में अंग्रेज़ अधिकारी बंदियों के साथ ऐसा अमानुषिक बर्ताव कर रहे थे। फ़ाँसी से पहली की रात ठाकुर रोशन सिंह कुछ घंटे सोए। फिर देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रात:काल शौच आदि से निवृत्त होकर यथानियम स्नान-ध्यान किया। कुछ देर ‘गीता पाठ में लगाया, फिर पहरेदार से कहा- ‘चलो। वह हैरत से देखने लगा कि यह कोई आदमी है या देवता। उन्होंने अपनी काल कोठरी को प्रणाम किया और ‘गीता हाथ में लेकर निर्विकार भाव से फ़ाँसी घर की ओर चल दिए।

ठाकुर रोशन सिंह ने 6 दिसंबर 1927 को इलाहाबाद में नैनी की मलाका की काल-कोठरी से अपने एक मित्र को पत्र लिखा था,


‘इस सप्ताह के भीतर ही फांसी होगी. आप मेरे लिये रंज हरगिज न करें. मेरी मौत खुशी का सबब होगी. यह मौत किसी प्रकार के अफसोस के लायक नहीं है. दुनिया की कष्ट भरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिन्दगी जीने के लिये जा रहा हूं’

बताते हैं कि रोशन सिंह फांसी के पहले ज़रा भी उदास न थे. वो अपने साथियों से कहते रहते थे कि उन्हें फांसी दे दी जाए, कोई बात नहीं. उन्होंने तो जिंदगी का सारा सुख उठा लिया, लेकिन बिस्मिल, अशफाक और लाहिड़ी जिन्होंने जीवन का एक भी ऐशो-आराम नहीं देखा, उन्हें इस बेरहम बरतानिया सरकार ने फांसी पर चढ़ाने का फैसला क्यों लिया?

हुतात्मा ठाकुर रोशन सिंह

फ़ाँसी के फंदे को चूमा, फिर जोर से तीन बार ‘वंदे मातरम का उद्घोष किया। ‘वेद मंत्र का जाप करते हुए वे 19 दिसम्बर, 1927 को फंदे से झूल गए। उस समय वे इतने निर्विकार थे, जैसे कोई योगी सहज भाव से अपनी साधना कर रहा हो। इलाहाबाद में नैनी स्थित मलाका जेल के फाटक पर हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष, युवा और वृद्ध रोशन सिंह के अंतिम दर्शन करने और उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए खड़े थे। जैसे ही उनका शव जेल कर्मचारी बाहर लाए, वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने नारा लगाया रोशन सिंह अमर रहें। भारी जुलूस की शक्ल में शवयात्रा निकली और गंगा-यमुना के संगम तट पर जाकर रुकी, जहाँ वैदिक रीति से उनका अंतिम संस्कार किया गया।


 





Thakur Roshan Singh (22 January 1892, Shahjahanpur district - 19 December 1927, Allahabad) was an Indian revolutionary who was previously sentenced in the Bareilly shooting case during Non Cooperation Movement of 1921-22. After release from Bareilly Central Jail, he joined the Hindustan Republican Association in 1924. Although he had not taken part in the Kakori conspiracy, yet he was arrested and confined to capital punishment of death sentence by the then British Government.


BRIEF LIFE HISTORY

Roshan Singh was born to Kaushalyani Devi and Jangi ram Singh on 22 Jan 1892 in a Rajput family of Navada village. This small village is situated in Shahjahanpur district of Uttar Pradesh. He was a sharp shooter and good wrestler. He had been associated with the Arya Samaj of Shahjahanpur for a long time. When the U.P. Government imposed a ban on Indian National Congress Volunteer Corps in November 1921, it was decided to oppose the decision of government from all corners of the country. Thakur Roshan Singh led the troop of aggressive volunteers sent from Shahjahanpur district to the Bareilly region. Police opened a fire to stop the procession and Roshan Singh was arrested along with other protesters. A case was filed and he was sent for two years' rigorous imprisonment in the Central Jail of Bareilly.


JOINED HRA

Since he hailed from Shahjahanpur district of Uttar Pradesh, a region famous for its coarse & rough language, his stay in the jail prompted the Jailer to behave rudely with him, saying people like him deserved such harsh treatment. For Roshan Singh, this was too much and he decided then in jail itself to take revenge against the inhuman behavior of the British Government. As soon as he was released from Bareilly jail, he went straight to Shahjahanpur and met Pandit Ram Prasad Bismil in the premises of the Arya Samaj. Bismil was already in search of some sharp shooters for his revolutionary party. He immediately enrolled Thakur Roshan Singh in his newly established organisation and allotted him the task of teaching shooting to the youngsters enrolling into the party.


BAMRAULI ACTION

The Hindustan Republican Association (HRA) was struggling hard in collecting the funds. The richest sector of society was not prepared to pay even a single ruppee to the young organisation. Although they were paying to the Congress and Swaraj Party with open hands. Then Thakur Roshan Singh suggested Ram Prasad Bismil to steal money from the richer sector of society through armed terror. Pandit Ram Prasad Bismil gave it a new term as an Action. It was a code word of the party.

On 25 December 1924, (in the night of Christmas Day) a house of Baldeo Prasad was attacked in the night by the Action-Men of HRA in the leadership of Thakur Roshan Singh. Baldeo was a money lender and sugar king. In this they could get Rupees 4000 and good stock of arnaments. Mohan Lal - a wrestler of the village - challenged the persons and opened a fire. Thakur Roshan Singh, who was a sharp shooter, killed him in a single shot and grabbed his rifle.


KAKORY CONSPIRACY

Although Thakur Roshan Singh had not participated in Kakori train robbery even then he was caught, tried and sentenced to death for the murder of Mohan Lal. When the judgement was delivered and Judge announced five years punishment under section 121(A) and 120(B) of I.P.C.

LAST LETTER FROM CONDEMNED CELL

Thakur Roshan Singh had written to his cousin Hukam Singh from the condemned cell of Malaka/Naini Jail of Allahabad - "The life of a man is the best creature of God and I have proved this by sacrificing it for cause of its creature. I am the first man of my native village Nabada who has glorified all of you my brothers and sisters. Why to repent for this mortal human body, it was to be finished any day. I am happy that I could devote more and more time to meditate in the last moments. I know the man who dies in the way of his duty or Dharma gets salvation for ever. You need not worry for my death. I am going to sleep peacefully in the lap of God."




FAMILY FACING HARDSHIP

Thakur Roshan Singh sacrificed for the betterment of a common man but his spouse and children got nothing as a reward for that. After his death, his spouse and family had to face social and economic hardship including problems in finding a matrimonial match for his daughters. If anyone who was ready to marry her then a police officer would threaten members of his family by saying, "if you marry Roshan's daughter then I will announce you as a traitor". His village Nabada is still as backward as it was in the period of British India. Nothing to the mark has been done by the India government for the rural development. Farmers families of backward area are still deprived of their basic needs of the daily routine.









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