परमार राजा विक्रमसिंह के पश्चात उसका प्रपौत्र धारा वर्ष आबू के परमार कुल का प्रसिद्ध राजा है । जिसका उल्लेख सन ११६३ ई0 से १२१९ ई0 तक के शिलालेखों पर उपलब्ध है।
इससे यह भी सिद्ध होता है कि राजा धारा वर्ष परमार ने ६० वर्ष से अधिक राज्य किया। राजा धारा वर्ष परमार की नीतियां बहुत अच्छी थीं । उसने सोलंकी राजाओं के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए और सोलंकी शासकों की तरफ से होने वाली क्षति से अपने आपको बचाया ।इसलिए वह सोलंकियों का भी चहेता हो गया था। धारावर्ष को अपने देश के हित की भी बहुत चिंता थी । वह एक दूरदर्शी राजा था । वह अपने राज्य की प्रतिष्ठा को दूर-दूर तक फैलाना चाहता था।
सन १२०६ ईसवी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने अनहिलवाड़ा पर चढ़ाई की और कायद्रा गांव में आबू के पास धारा वर्ष की और कुतुबुद्दीन ऐबक की लड़ाई हुई। उस समय इस युद्ध में गुजरात के सोलंकी और आबू के परमारों ने मिलकर लड़ाई लड़ी थी और इसमें धारा वर्ष मुख्य सेनापति था। यद्यपि इस लड़ाई में गुजरात का शासक हार गया । परंतु दूसरी लड़ाई में इन्हीं साथियों के सहयोग से गुजरात की विजय हुई तथा शाहबुद्दीन गौरी को यहां से घायल होकर भागना पड़ा था। इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान का बदला इन लोगों के द्वारा लिया गया था।
गुजरात में धारा वर्ष के समय में चार समकालीन राजा कुमार पाल ,अजय पाल ,मूलराज और भीमदेव द्वितीय थे। इनमें भीम देव द्वितीय अल्प वयस्क थे जिसका लाभ उठाकर उसके कई सामंत् व अधिकारी अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर गए थे।
कुछ समय पश्चात गुजरात पर एक ओर से अल्तमस तथा दूसरी ओर से दक्षिण के यादव राजा सिंघल ने आक्रमण कर दिया तो धारावर्ष ने वीरधवल ,वस्तु पाल और तेजपाल द्वारा सहायता का आग्रह स्वीकार किया और गुजरात की सहायता की। यह धारावर्ष की दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि जहां उसने एक ओर सोलंकियों से मैत्री संबंध स्थापित किए वहीं दूसरी ओर नाडोल के चौहान राजा कैलहन की दो पुत्रियों श्रंगार देवी और गीगा देवी को अपनी रानी बनाया। इस प्रकार दोनों पड़ोसियों से उसके अच्छे संबंध हो गए थे । परिणामत: धारावर्ष कूटनीति का एक अच्छा जानकार भी सिद्ध होता है। इसके पराक्रम व शौर्य की गाथा पट नारायण के मंदिर के शिलालेख ईसवी सन १२८७ से मिलती है। राजा धारावर्ष परमार एक ही तीर से तीन भैंसों को एक साथ खड़ा करके बींध दिया करता था।
आबू पर्वत पर अचलेश्वर पर्वत श्रृंखला पर अचलगढ़ का किला है । जिसके सामने एक झील है और झील के किनारे तीन भैंसों की आकृतियां वर्तमान में विद्यमान हैं । यह वही तीन भैसों के प्रतीक हैं जिनको धारावर्ष परमार अपने एक तीर से एक साथ बींध दिया करते थे।
राजा धारावर्ष परमार का काल जन उपयोगी कार्यों के लिए और विद्या की उन्नति के लिए जाना जाता है।
राजा धारा वर्ष परमार का छोटा भाई प्रह्लाद नरदेव भी काफी विद्वान और वीर था । जिसकी वीरता की प्रशंसा कवि सोमेश्वर ने भी अपनी रचना “कीर्ति कौमुदी “नामक पुस्तक में की है।
जिन तीन वीर धवल, वस्तु पाल और तेजपाल के आग्रह से धारावर्ष ने गुजरात के सोलंकी शासकों की सहायता की थी , उनमें से एक तेजपाल ने लवण शाही के स्थान पर एक मंदिर बनवाया था।
प्रहलाद नरदेव प्रमार ने भी सोलंकी राजा अजय पाल और गोहिल वंशीय राजा सामंत सिंह के बीच होने वाले युद्ध में सोलंकी राजा अजय पाल की ही सहायता की थी।
प्रहलाद नरदेव परमार एक अच्छा नाटककार भी था और उसने एक नाटक की रचना की है जिसका नाम है पार्थ पराक्रम व्या योग।
नरदेव ने एक शहर बसाया था जिसका नाम पह्लादनपुर था । जिसको अब पालनपुर कहते हैं।
परमार राजा धारा वर्ष का पुत्र सोमसिंह गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव द्वितीय का सामंत था । उसने अपने पिता से शस्त्र विद्या और अपने चाचा प्रह्लाद नरदेव से शास्त्रों में निपुणता प्राप्त की थी। इसके समय में वस्तु पाल के छोटे भाई तेजपाल ने आबू के दलवाड़ा गांव में लूवन सही नामक नेमिनाथ का मंदिर अपने पुत्र लूवनसही और अपनी स्त्री अनुपमा देवी के श्रेयार्थ करोड़ों रुपए लगाकर बनवाया था।
जिस मंदिर को आजकल दिलवाडे का मंदिर कहते हैं ।
आबू की कलाकृतियों में दिलवाड़ा का मंदिर एकमात्र अपना उच्च स्थान रखता है। धारा वर्ष परमार का पोता प्रताप सिंह था , जिसका युद्ध मेवाड़ के तत्कालीन शासक जैत्र करण से हुआ था। जिसमें जैत्र करण को परास्त करके प्रताप सिंह परमार ने चंद्रावती पर अपना अधिकार स्थापित किया था।
प्रताप सिंह परमार का उत्तराधिकारी विक्रम सिंह था जिसके विषय में कुछ शिलालेखों से यह पता चलता है कि इसके समय से आबू के परमार अपना विरुद रावल(राजकुल) और महाराज कुल या महारावल लिखने लगे थे। जैसा कि मेवाड़ के शासक अपने आपको महाराणा लिखने लगे थे। एक मंदिर में आज भी इस राज्य समाज के रावल कुल के लोग पुजारी के रूप में मैंने कार्य करते देखें हैं । मैं इसको समय की एक मार ही मानता हूं , जैसे आज मुगलों के वंशजों का पता चलता है कि वह रिक्शा चला कर गुजारा करते हैं।
लेकिन उत्थान के साथ पतन और उत्थान के साथ विनाश निरन्तर प्रतिक्षण होता है । उसी प्रकार आबू के परमारों का पतन भी इसी विक्रमसिंह के समय में हुआ । क्योंकि विक्रम सिंह के शासनकाल में जालौर के चौहानों ने आबू के पश्चिम भाग को विक्रमसिंह से छीन लिया और उस पर अपना कब्जा कर लिया इससे बाबू के परमारों की शक्ति क्षीण हो गई । सन १३११ के करीब राव लूंबा ने परमारों की राजधानी चंद्रावती को भी छीन लिया था ।यहीं से आबू के परमार राज्य का अंत हुआ और चौहान राज्य की स्थापना हुई।
King Dharavarsha is a legendary Paramara hero, apparently he could kill three 🐃 with one arrow. There are statues commemorating it shared above.
The idol of Dharavarsh built on the Mandakini Kund of Achaleshwar (Achalgarh) and the three buffaloes pierced across it tell the story of his valour.
Dharavarsha was not only a powerful ruler but also a courageous and astute military leader of the time, playing an important role in the politics of the country.
The title Mandalesvara sambhu reflecting on his being a Saivite in faith. He was also a man of religious temperament.
Dharavarsha Parmar(Marwad Branch of Parmaras)was one of the most distinguished figures of the Indian history, who offered strong resistance(along with Mulraj Solanki) to the Ghurid invaders led by Muhammad of Ghor in the Battle of Kasahrada(1178 A.C).
When Muhammad of Ghor reaching Ābū in his further march, he was opposed by the joint forces of the Chaulukyas,Chahmanas & Parmaras led by Chief Commander Durjanshal Jhala included the armies of thier feudatories __ such as the Abu Parmara ruler Dharavarsha,Naddula Chahamana ruler Kelhanadeva,the Jalor Chahamana ruler Kirtipala.
Muslim forces suffered heavy casualities; a number of there soldiers were killed & Muhammad was wounded.The Muslims thus lost the field and retreated to Guzni.
The great-grandson of Vikramdev Dharavarsha(1163–1219 AD) A forgotten Hero who defeated them and converted most of his army to Hinduism was the powerful ruler of the Paramars of Marwad Branch.
He fought many other battles like Battle of Vasantagadh, between forces of Sultan Iyal Timish and King of Gujrat Viradhavala .
Important role played by Veteran Dharavarsha (Duke of Abu) .
Gujrat repeatedly defeated Sultanate armies till 1290s
Lord Dharavarsha also helped Chauhans to regain Ajmer (unsuccessfully) back in 1190s, Closed all the passes . Must have been a glorious day
King Dharavarsha tried to help Mers and chauhans in capturing ajmer , they succeeded for a time but two fresh armies came from ghazni and ruined his plans.
Droves of Muslims were coming , and all were employed in army . They didnt need to farm , trade etc . They can just leech the Hindus and live off the land.
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