जबत करी जागीर, जुलमी बण जोधाणपत।
व्रण चारण रा वीर, जबरा धरणे जूंझिया।।1।।
रचियोड़ी तारीख, आजादी भारत तणी।
सत्याग्रह री सीख, जग ने दीधी चारणां।।2।।
अनमी करग्या नाम, अड़ग्या आहुवे अनड़।
करग्या जोगा काम, मरग्या हठ करग्या मरद।।3।।
लोही हंदा लेख, लड़िया बिण लिखिया सुभट।
रगत तणी इल़ रेख, खेंची खुद रा खड़ग सूं।।4।।
कीकर धरी कटार, डाकी खुद रा डील पर।
मरण तणी मनवार, कवियां आहुवे करी।।5।।
मरणो खातर मान, धरणो आहुवे धर्यो।
जोवो सकल जहान, कवि एहड़ा सूरा कठे।।6।।
टपक्यो खूं जीं ठाण, लक्खावत मैल़ो मंडे।
तीरथ रै उनमान, आहुवा रौ आंगणो।।8।।
साहितकार स्वच्छंद, मरण पंथ रा मारगी।
क्यूं नहि रचिया छंद, वीरगती री वार रा।।9।।
रख लेणो निज मान, दुसमी ने बिण दुख दियां।
गांधी ने यो ग्यान, धरणा सूं चारण दियो।।10।।
मर जाता अरि मार, चारण जो चित चावता।
सत्याग्रह रौ सार, कुण देतो संसार ने।।11।।
कवि कट मिलता खाक, वीर अंग निज वाढता।
शिव खुद देवे साख, पाठ रच्यो नदपाट पर।।12।।
सुमिरण कर्यां सगत्त, व्यापन व्हेतो वीररस।
काट दयी निज हत्थ, कविवर खुद री काय ने।।13।।
अचरज रह्यो अदीठ, जन सूं अर इतिहास सूं।
धन्न चारणां दीठ, वीं धरणा ने धन्न है।।14।।
गिर्यो धरा गोविंद, डाको देतां ढोल रौ।
सोणित भर्यो समंद, उण सूरा रै संग ही।।15।।
खल़कन्ती ज्यूं खाल़, कविता नित ही कंठ सूं।
दुरसा कवि दक्काल, कर्यो वार कट्टार सूं।।16।।
अपजस हंदो डंक, कवि मरिया नृप कारणे।
कमधां तणो कलंक, कीकर मिटसी काल़ सूं।।17।।
नह ली सेजां नीन्द, पितु कायर फिटकारियो।
बण्यो हि जग्गा बीन्द, जाय जुड्यो धरणा जगां।।18।।
जाजम दयी बिछाय, आहुवे शिव थान पर।
चारणपण री चाह, चांपावत गोपाल़ चित।।19।।
मेहाजल़ सामोर, अक्खा संग अणगिण सुभट।
ठावी सुरगां ठोर, धाराल़ी री धार सूं।।20।।
रगत लगे रल़केह, बीत्यां सदियां बाद पण।
नाल़ो जो भर नेह, निजर्यां नाल़ो गोगिया।।21।।
कायर कहूं कपूत, धरणा सूं दूरा रह्या।
सुमिरण जोग सूत, सुमरण धरणो साधियो।।22।।
इतिहासां अध्याय, पढियो अज लग पोथियां।
आहुवे मे आय, ऊजल़ उर उमगित हुयो।।23।।
सक्या न होय शरीक, कवि लक्खा किणि जोग सूं।
भूल निवारी ठीक, अंजस जोग उंकारसी।।24।।
भावां बह भरपूर, उजल़ पच्चिसी अखे।
सत्याग्रह रा सूर, समपूं निज श्रद्धान्जली।।25।।
हिम्मत सिंह उज्ज्वल (भारोड़ी)
1857 के स्वाधीनता संग्राम के दौरान राजस्थान में क्रांति का आउवा एक प्रमुख केन्द्र रहा था। जो आज भी राजस्थान में लोक गीतों के रूप में सुनाई देता है।
ढोल बाजे चंग बाजै, भलो बाजे बाँकियो।
एजेंट को मार कर, दरवाज़ा पर टाँकियो।
झूझे आहूवो ये झूझो आहूवो, मुल्कां में ठाँवों दिया आहूवो।
आउवा तत्कालीन समय में मारवाड़ रियासत का एक ठिकाना था। उस समय आउवा के ठिकानेदार ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत थे। इन्होंने अंग्रेजो को चेलावास के युद्ध में बुरी तरह से हराया था। इतना ही नही आउवा के किले पर मारवाड़ के पोलिटिकल एजेंट मॉक मेसन का सर काट कर लटका दिया था।
कल्पना करीए...करीब तीन हजार की आबादी वाले एक छोटे-से गांव आऊवा के कांतिवीरों ने कैसे फिरंगियों की ताकत को चुनौती दी होगी? जोधपुर रिसायत और अंग्रेजों की तुलना में बहुत कम सैनिक...अल्प संसाधन...फिर भी आजादी के दीवानों का जोश और जुनून इतना था कि फिरंगियों के छक्के छुड़ा दिए। फौलादी हौसलों के सामने अंग्रेजों और जोधपुर रियासत की सेना को भागना पड़ गया था।
आऊवा गांव भले ही छोटा था, लेकिन मारवाड़ रियासत में उसकी ताकत बड़ी थी। जोधपुर के प्रमुख आठ ठिकानों में एक आऊवा भी था। रियासत में अहम हैसीयत के बावजूद तत्कालीन ठिकानेदार कुशालसिंह चांपावत ने आजादी की राह चुनी और फिरंगियों की चूलें हिला दी।
ठाकुरो की और ब्रिटिश जोधपुर संयुक्त सेना की जंग
“ठाकुर कुशाल सिंह आउवा” 1857 में राजस्थान क्रांति के पूर्व जहाँ राजस्थान में अनेक शासक ब्रिटिश भक्त थे, वहीं राजपूत सामन्तों का एक वर्ग ब्रिटिश सरकार का विरोध कर रहा था। अत: उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । इस अवसर पर उन्हें जनता का समर्थन भी प्राप्त हुआ। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि राजस्थान की जनता में भी ब्रिटिश साम्राज्य के
विरुद्ध असंतोष की भावनाएं विद्यमान थी। जोधपुर में विद्रोह जोधपुर के शासक तख्तसिंह के विरुद्ध वहाँ के जागीरदारों में घोर असंतोष व्याप्त था। इन विरोधियों का नेतृत्व पाली मारवाड़ आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह कर रहे थे ।
1857 में आउवा ,पाली के ठाकुर कुशल सिंह जी राठौड़ ने जोधपुर राज्य से बगावत कर दी क्यों की जोधपुर के महाराजा तखत सिंह जी उस वक़्त ब्रिटिश गोवेर्मेंट और ईस्ट इंडिया कंपनी का साथ दे रहे थे ठाकुर कुशल सिंह का गोडवाड़ के ज्यादातर ठाकुरो ने साथ दिया …..
1857 की क्रांति में में मारवाड़ /मेवाड़/गोडवाड़ के 30 से ज्यादा ठाकुरो ने जोधपुर स्टेट से बगावत कर ठाकुर कुशल सिंह जी का साथ दिया जिस में एरिनपुरा सुमेरपुर पाली की राजपूत आर्मी भी शामिल हो गयी अजमेर से पहले पाली अजमेर की सरहद पर भयानक लड़ाई हुयी और ब्रिटिश और जोधपुर राज्य की की सयुक्त सेना की अप्रत्यक्ष रूप से हार हुयी ठाकुर कुशल सिंह ने भंयकर युद्ध किया।
8 सितम्बर 1857। मारवाड़ रियासत के छोटे से गांव आऊवा में हर-हर महादेव...फिरंगियों को मारो...जैसे उद्घोष से आसमां गूंज उठा। तत्कालीन समय में करीब तीन हजार की आबादी वाले आऊवा गांव मेंके आजादी के दीवाने अंग्रेज और मारवाड़ रियासत की सेना पर टूट पड़े। बिठौड़ा के निकट हुए रण में सामने अंग्रेज व जोधपुर रियासत की सेना टिक नहीं सकी। ठीक दस दिन बाद 18 सितम्बर 1857 को जार्ज लारेंस की अगुवाई में आऊवा पर फिर आक्रमण हुआ।
२००० हजार सैनिको को मार डाला और तोपखाने की तोपे छीन ली। ब्रिगेडियर जनरल सर पैट्रिक लारेंस मैदान छोड़ कर भाग गया। इतनी बड़ी पराजय से फिरंगीयों को होश ऊड गये
चेलावास के निकट ठाकुर कुशालसिंह और उनके वीर अंग्रेजों पर टूट पड़े। लॉरेंस को करारी मुंह की खानी पड़ी।
,,,,तभी आउवा ठाकुर वह के कप्तान मोंक मेंसेंन का सिर काट कर आपने घोड़े पर बांधकर आपने किल्ले ले आये दूसरे ठाकुरो ने भी दूसरे ब्रिटिश गोरो का सिर काट अपने साथ ले आये ……….
इस लड़ाई के बाद अँगरेज़ राजपूताने में आपने पाँव नही जमा पाये और पुरे राजस्थान में अजमेर शहर को छोड़ कही अपनी ईमारत तक नही बना पाये …
और उस दिन सारे गाव में जश्न हुआ जो आज भी मेले के रूप में पाली जिले के “आउवा” गाव में मनाया जाता है एक साल बाद बमें अंग्रेजों ने बड़ी सेना के साथ आऊवा किले की घेराबंदी करवाई। फिर आउवा पर अजमेर ,नसीराबाद ,मऊ व नीमच की छावनियो की फोजो आउवा पंहुची। सब ने मिलकर आऊवा पर हमला बोल दिया। कई दिनों तक चले संघर्ष के बाद तोप के गोलों और सुरंगों से किले और गांव को ध्वस्त कर दिया गया। क्रांति कारी सामन्तो के किलों को सुरंग से उड़ा दिया। आउवा को लूटा। सुगली देवी की मूर्ति अंग्रेज उठा ले गये।
हमला हुआ को किल्ले को काफी नुकशान पहुचाया गया
जलाई थी आजादी की चिंगारी, यूं चुकानी पड़ी कीमत
आजादी की चिंगारी जलाने के लिए आऊवा ठाकुर कुशालसिंह चांपावत को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। जोधपुर रियासत के आऊवा ठिकाने को 8 मिसल का ओहदा प्राप्त था। अर्थात शासन के प्रमुख फैसले करने वालों में यहां के ठिकानेदार शामिल थे। 1857 से पूर्व प्रधान की पदवी भी आऊवा के ठिकानेदार को मिली हुई थी। शासक के प्रमुख सलाहकार की भूमिका प्रधान निभाते थे। उन्हें ज्यूडिशियल पावर भी था। किसी भी मामले में वह छह माह तक की सजा दे सकते थे।
आऊवा ठिकाने के अंतर्गत कुल 48 गांवों की जागीर थी। 1857 की क्रांति के बाद 36 गांव जब्त कर लिए गए। बाद में उसके अधीन केवल 12 गांव ही रहे। आऊवा को दोहरी ताजीम थी, जिसके तहत ठिकानेदार को राजा के बराबर सम्मान दिए जाने का प्रावधान था। क्रांति के बाद आऊवा को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। जननायक के रूप में याद ठाकुर कुशालसिंह के संघर्ष ने मारवाड़ का नाम भारतीय इतिहास में उज्ज्वल कर दिया। वे पूरे मारवाड़ में लोकप्रिय हो गए। उन्हें स्वतंत्रता संग्राम का नायक माना गया।
** सलूम्बर के रावत केसरी सिंह के साथ मिलकर जो व्यूह-रचना उन्होंने की उसमें यदि अँग्रेज़ फँस जाते तो राजस्थान से उनका सफाया होना निश्चित था। बड़े राजघरानों को छोड़कर सभी छोटे ठिकानों के सरदारों से क्रांति के दोनों धुरधरों की गुप्त मंत्रणा हुई। इन सभी ठिकानों के साथ घ् जोधपुर लीजन ‘ को जोड़कर कुशाल सिंह और केसरी सिंह ब्रितानियों के ख़िलाफ़ एक अजेय मोर्चेबन्दी करना चाहते थे।
** इसी के साथ आसोप के ठाकुर शिवनाथ सिंह, गूलर के ठाकुर बिशन सिंह तथा आलयनियावास के ठाकुर अजीत सिंह भी अपनी सेना सहित आउवा आ गए। लाम्बिया, बन्तावास तथा रूदावास के जागीरदार भी अपने सैनिकों के साथ आउवा आ पहुँचे। सलूम्बर, रूपनगर, लासाणी तथा आसीन्द के स्वातंत्र्य-सैनिक भी वहाँ आकर ब्रितानियों से दो-दो हाथ करने की तैयारी करने लगे। वही अपने क्षेत्र गोड़वाड के भी बहुत से ठाकुरो ने इनका साथ दिया
** जोधपुर सेना की अगुवाई अनाड़सिंह पंवार ने की थी जो बिथौड़ा के पास हुए इस युद्ध मरे गए तथा अँगरेज़ अफसर हीथकोट भाग खड़ा हुआ
** दुर्गति का समाचार मिलते ही जार्ज लारेंस ने ब्यावर में एक सेना खड़ी की तथा आउवा की ओर चल पड़ा। 18 सितम्बर को फ़िरंगियों की इस विशाल सेना ने आउवा पर हमला कर दिया। ब्रितानियों के आने की ख़बर लगते ही कुशाल सिंह क़िले से निकले और ब्रितानियों पर टूट पड़े। चेलावास के पास घमासान युद्ध हुआ तथा लारेन्स की करारी हार हुई।
Auwa (Marwar), Revolt of 1857
1857 revolt covers areas not just under british rule, but also those where there was british interference, like Jodhpur state. There were efforts to unify Jagirdars from Mewar and Marwar against British. Lasani, Roopnagar, Salumbar, Kothariya were main ones from Mewar. मारवाड़ और मेवाड़ के ठिकाणे, किसी मुगल या पेशवा के नाम पर नहीं, किन्तु अपने राज्यों से ब्रिटिश हस्तक्षेप हटाने की लिए लड़े थे।
Auwa vs British - 1857-58
Thakur Kushal singh Champawat of Auwa (Marwar) was not happy with the british interference in Marwar region & had issues with Jodhpur ruler Takht Singh. After Erinpura revolt soldiers moved towards Delhi with slogan "Chalo Dilli maro firangi". They were aided by Kushal singh who was leading other thakurs against British and Jodhpur ruler. They Defeated combined army if Jodhpur and british. During this crisis King Takhat Singh stood firmly by the paramount power.The Jodhpur State troops were summoned to Ajmer for the protection of the arsenal stationed there. They were sent under Walter to chase mutineers from Nasirabad. They also traversed Jaipur territory in pursuit of Neemuch mutineers.
This pro-British involvement of the Maharaja gave a good opportunity to the refractory nobles among whom the wave of dissatisfaction against the British was more widespread than against the Maharaja. When the Jodhpur Legion rose in arms at Erinpura in August 1857,the Thakur of Auwa admitted its men into his fort and offered them service. The Thakurs of Asop, Goolar, Alaniawas, and Bajuwas went to Auwa with their men and might. Takhat Singh sent a contingent with a British officer against the rebels. The Raj troops were routed on September 8 at Bithoora 5 km. away from Auwa. Their guns and military stores were captured by the rebels. A few days later Lawrence, A.G.G, himself marched against Auwa. He drove the enemy into the fort While the action was in full swing, the Political Agent, Monck Mason, arrived at Auwa with a few men. In the fierce engagement, he was killed. His body was hung upon a tree opposite the gateway of Auwa.
The battle of Chelawas on 18-Sep, 1857, in which Capt. Monck Mason, British Political Agent to Jodhpur was killed, was the second victory for the Rebels of Erinpura Cantt and forces of Auwa, Guler, Alaniyawas and others, first one was in Bithora. Resentments against British were so high, that Capt. Mason’s head was hung at the gates of Auwa. British later buried Capt. Mason in a nameless grave in village of Bar. After retreat of British forces from Auwa in Sep 1857, most of the rebels had left Auwa and marched towards Delhi.
In October 1857, the rebellious legion marched towards Delhi. While the Thakurs of Alaniawas and Goolar accompanied it to Narnol, the Thakur of Asop returned to defend his own jagir.
A contingent of British troops numbering 1500 from Deesa (Palanpur) and Nasirabad attacked Auwa on January 20, 1858. The Raj army with the thakurs of Nimbaj and Ras joined it. The Thakur of Auwa escaped to Mewar on March 23, but his men led by the Thakur of Lambia offered desperate resistance. They were defeated in Narnol by British, with many killed and rest fleeing away.
It was a matter of shame for British that Brig. Gen. Lawrence was repulsed in an attack on a feudal Chief of Marwar and was forced to retire from the field in Chelawas. It was aggravated by the killing of Political Agent Capt. Mason. British now wanted to make an example of Auwa. In Jan 1858, British declared that they are going to destroy Auwa and anyone found helping Auwa will be punished in the same way.British forces of Ajmer were reinforced from Bombay and they besieged Auwa with 1800 men of British Army including 700 cavalry,14 big guns and mortars. With most of the rebels gone, mostly locals and forces of Thakurs who had gathered in Auwa to fight against the British were present in the fort.
On 20-Jan, 1858, in the third and final battle of Auwa, British besieged the fort of Auwa and bombarded it for 5 days. British fired their guns on Auwa constantly, damaging the walls of fort and causing fire inside the fort. Auwa Thakur Kushal Singh went to Roopnagar in Mewar, to gather more support. An assault was ordered on next morning. During the night, some of the garrison escaped under cover of storm and dense darkness but some were caught and killed. British plundered the village mercilessly, tortured villagers, shot many, brought about a complete annihilation of the fort and the palace. So fierce was the spirit of vengeance that even trees were cut down. The fort was blown up and destroyed.
They plundered the town mercilessly and brought about complete destruction of the fort and the palace. The entire jagir of Auwa was confiscated by the Maharaja. Meanwhile, the fiefs of Asop, Goolar, Alaniawas-and Bajuwas were also seized. The capture of Auwa by the British troops and the suppression of the Rising enabled Takhat Singh to inflict heavy punishments on the refractory nobles.
The Thakur of Asop was interned in the fort of Jodhpur and the other rebel Thakurs were declared outlaws. Their allies were also severely dealt with. Defeated and crushed, the martyrs, who laid down their lives, did not, however, die in vain. The first consequence of the uprising was the assumption of the Government of India by the British Crown. The Queen’s Proclamation of November 1, 1858, assured the rulers their territories, rights, and dignity.
Joshi Hansraj who was sent by Jodhpur with British forces saved many from getting killed and took them to his camp.
British took away the idol of Sugali Mata from Auwa, apart from the valuables and ammunition found in the fort.
Sugali Mata - currently at Bangar Museum, Pali
The popular song, sung on the occasion of Holi has immortalised the fighting spirit of people of Auwa.
मांयली तोपां तो छूटै आडावळौ धूजै ओ,
आऊवे रो नाथ तो सुगाळी ने पूजै ओ ,
झगडो आदरियो ।
...
ढोल बाजे, थाली बाजे,
भेळौ बाजै बांकियो ओ,
अजंट ने मारने दरवाजे नांकियो ओ,
जूंझे आऊवो।
Most of the original fort was razed to rubble by a vengeful British after Thakur Kushal Singh and his troops swelled the ranks of the protesting sepoys during the 1857 mutiny. Events turned real ugly when Mason, a captain with the British Army, was shot dead and his head displayed publicly in the village square bang by the entrance to the fort. “It was not just the fort they destroyed but the entire village was decimated,” says Surendra Singh, the sixth generation thakur (‘thakur’ essentially means ‘Lord’ and is a feudal title given to ruling members from Rajput dynasties) from Kushal Singh’s line. “Trees were cut down and the village baolis (wells) were filled up with debris.” The eldest of three generations of Auwa thakurs, Surendra Singh says the killing was an ‘act of war’ but condones the brutality of the manner with which it was carried out. “Kushal Singh ji not only deplored the assassination but the Captain was also given a proper Christian burial right in the village itself.”
The cenotaph of Captain Mason is just one of the historical gems strewn around Auwa village. Though mauled aggressively by thorny babuls from all sides, the rustic villagers have built a small shrine next to it where most evenings a lamp is lit.
Auwa is not just about history and heritage and there is more than experiencing rural Rajasthan with a little bit of the ‘thakur way’ thrown in.
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