वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौर का नाम मारवाड़ ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण हिन्दुस्तान के इतिहास में त्याग, बलिदान, देश-भक्ति व स्वामिभक्ति के लिये स्वर्ण अक्षरों में अमर है।
वीरभूमि के विरुद से विभूषित, अनूठे शौर्य एवं औदार्य से अनुप्राणित, चारित्रिक महनीयता से मंडित एवं कर्त्तव्यनिष्ठा की कांति से सुशोभित रणबंके राजस्थान की धरती का इतिहास अतीव गौरवमयी रहा है। यहां के नरपुंगवों ने राव-रंक के भेद को भुलाकर अपने दायित्व-निर्वहन को प्राथमिकता दी है। जान से अधिक आन और प्राण से अधिक प्रण की गर्वोक्ति को पग-पग पर साकार करते उदाहरण इस धरती की अनगिन विशिष्टताओं के साक्षी हैं। आज पद एवं प्रतिष्ठा की लिप्सा ने सबको ऐसा जकड़ा है कि हम अपने अतीत के आदर्शों को भूल रहे हैं। इस धरती का इतिहास इस बात का गवाह है कि यहां के सपूतों ने स्वारथ को कभी सगा नहीं बनाया। उन हूतात्माओं ने अपने स्वाभिमान के सामने किसी प्रलोभन की तो बिसात ही क्या राज-सिंहासन तक को ठुकराने में संकोच नहीं किया। अन्याय का प्रतिकार एवं नीति-न्याय की पैरोकारी यहां के लोगों का सहज स्वभाव रहा है। राजस्थान का असली इतिहास तो उसके वाचिक साहित्य एवं लोकगीतों में है। जो कुछ इतिहास आज हमारे सामने है, वह अधूरा इतिहास है। महल से झोंपड़ी और खेत से रणखेत तक की वीथियों का सूक्ष्म अवलोकन करने पर इस स्वाभिमानी रज को बारम्बार मस्तक पर धारण करने का मन होता है। यहां के जंग हो या राग-रंग, प्रकृति हो या संस्कृति, रीति हो या प्रीति, नीति हो या भक्ति हर क्षेत्र अपनी विरल विशिष्टताओं का पुंज है। यहां की वीर माताएं तो अपने सपूतों को जन्म घूंटी के साथ ही वीरता के संस्कार देना शुरु कर देती है। ऐसी कौनसी धरती होगी जिसकी माताएं पालने में झूलते अपने लालों को मातृभूमि की रक्षार्थ सर्वस्व होम करने की शिक्षा देती हो। माताओं की लोरियों में तो अपने लालों के लिए ऐशोआराम, सुंदर बहु, रमणीय खिलौने तथा खाने-पीने की स्वादिष्ट चीजों के उल्लेख होते हैं परन्तु राजस्थान की वीर नारी की लोरी सुनिए-
इला न देणी आपणी, हालरिया हुलराय।
पूत सिखावै पालणै, मरण बडाई माय।।
बेटा रणभूमि में शहीद हो गया। उसकी मृतदेही को अपने सामने देखकर राजस्थान की वीर मां गश खाकर गिरती नहीं है वरन अपने बेटे को शाबासी देती है। उसकी आंखों से दुख के आंसूं नहीं बहते वरन आल्हाद से उस मां के वक्षस्थल से दुग्ध स्रावित होने लगता है-
बेटा दूध उजाळयो, तूं कट पड़ियो जुद्ध।
नीर न आवै मो नयण, पण थण आवै दुद्ध।।
ऐसी ही महनीय माताओं तथा प्रेरणास्पद पुत्रों के अनुकरणीय सुकृत्यों के परिणाम स्वरूप हमारी इस मरुभूमि को वीर-वसुंधरा एवं ‘रणबंका राजस्थान’ का विरुद मिला है। कहते हैं कि जहां बड़भागी लोग पैदा होते हैं, वहां सारे सुख-वैभव स्वयं ही चल कर आ जाते हैं और उनका लाभ सारी कायनात को मिलता है। पूरे वन में चंदन का पेड़ एक भी होता है तो खुशबू सबको मिल जाती है, उसी प्रकार से हमारी मातृभूमि को अपने सुयश की सुवास से महकाने वाले वरेण्य व्यक्तित्वों के त्याग एवं बलिदान के बल पर हम आज गौरवशाली अतीत के मालिक हैं-
वडभागी जलमै जठै, सब सुख थाय सवाय।
अेक चनण री ओट में, सारौ वन सुरमाय।।
ऐसे शौर्यमयी संस्कारों की धरती का एक अदभुत सूरमा था-वीरवर दुर्गादास राठौड़। दुर्गादास राठौड़ का जीवन वरेण्य व्यक्तित्व एवं अनुकरणीय कृतित्व का अनुपम उदाहरण है। राजस्थान के डिंगल कवियों ने उत्कृष्ट के अभिनन्दन एवं निकृष्ट के निंदन की सतत काव्यधारा प्रवाहित की है। मध्यकालीन इतिहास का अवलोकन करने पर राजस्थान के दो ऐसे वीर सपूतों का जीवन हमारे सामने आता है, जिनके शौर्य पर कवियों ने सर्वाधिक कलमें चलाई। वे हैं अप्रतिम वीर अमरसिंह राठौड़ एवं वीरवर दुर्गादास राठौड़। दुर्गादास राठौड़ के समकालीन चारण कवि तेजसी सांदू ग्राम भदोरा ने दुर्गादास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रभावित होकर लिखा कि महाभारत काल में पांडवों को जिस तरह संघर्ष करते हुए वनवास और अज्ञातवास में रहना पड़ा वैसी ही स्थिति दुर्गादास के सामने रही। पांडवों ने तो छुपकर समय बिताया लेकिन दुर्गादास तो एक दिन भी छुपकर नहीं रहा, अपनी तलवार की धार पर जरूरतमंदों की सहायता करता रहा एवं मुगलों का सुख-चैन काफूर करता रहा-
बारह बरसां बीह, वन पांडव अछता वुहा।
दुरगो हेको दीह, अछतो रयौ न आसउत।।
वीरवर दुर्गादास राठौड़ का जन्म संवत 1695 वि में द्वितीय श्रावण मास की सुदी चवदस सोमवार को गांव सालवा (मारवाड़) में हुआ। इनकी मां भटियाणी थीं तथा पिता आसकरण नींबावत। जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के भाई थे करन। करन से राठौड़ों की करनोत शाखा चली। करन का पड़पोता नींबा राठौड़ था। उनका बेटा आसकरण तथा पोता दुर्गादास हुआ। दुर्गादास इस मरुभूमि का महापराक्रमी सपूत तथा सफल राजनीतिज्ञ था, जिसने अपनी भुजाओं के बल पर मारवाड़ की आन-बान एवं शान को अक्षुण्ण रखा। ऐसे दैदीप्यमान नक्षत्र को नमन करते हुए कवि तेजसी सांदू ने लिखा-
दुरगादास वखांणियो, तद जोधाण तखत्त।
जणणी किण जायो नहीं, नर तो जिसो नखत्त।।
अपनी 80 वर्ष तीन महीने एवं 28 दिन की लंबी जीवन यात्रा में दुर्गादास ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से अनेक कीर्तिमान स्थापित किए। वे कभी राजगद्दी पर नहीं बैठै लेकिन कितने राजा हैं, जो लोगां के दिलों पर राज करते हैं? दुर्गादास उन सौभाग्यशाली लोगों में से हैं, जो जनमानस पर युगों-युगों तक निष्कंटक राज करते हैं। अनुपम वीरता, धीरता, न्यायप्रियता, आत्म सम्मान, त्याग एवं बलिदान से परिपूर्ण व्यक्तित्व के धनी दुर्गादास के व्यक्तित्व को उजागर करती कविz नारायणसिंह शिवाकर के ये पंक्तियां बरबस ही पाठक के मन में उस वीर क्षत्रिय के प्रति अगाध श्रद्धा के भाव पैदा करती है-
निरलोभी निरभै निडर, रीझ खीज इक रास।
प्रजापाळ पणपाळ नर, दीठो दुरगादास।।
डोढी दुरगादास री, रहै खुली दिन रात।
दीन दुखी फरियाद ले, जाय छतीसूं जात।।
बूढो ठाडो मिनख जो, मारग में मिल जाय।
दुरगो आदर देय नै, बाबो कह बतळाय।।
वीरवर दुर्गादास का जीवन अनेक वरेण्य गुणों का समुच्चय है। संवदेना, स्वामिभक्ति, प्रणपालन, अन्याय का प्रतिकार, संयम आदि अनेक ऐसे गुण हैं, जिनको उन्होंने अपने आचरण से पुष्ट किया है। किशोरावस्था में जब वे अपनी मां के साथ लुणावा गांव में रह रहे थे, उस समय की एक घटना लोगों में काफी प्रचलित है। दुर्गादास ने देखा कि राज के रेबारी ऊंटों का टोळा यानी समूह लेकर गांव में आए तथा सत्तामद में अंधे होकर ग्रामीणों के खेतों मे उन ऊंटों को खुला छोड़ दिया। ऊंटों ने जब खेत में फसल नष्ट करनी शुरु की तो खेत के मालिक ने राज के रेबारियों को ऊंट बाहर ले जाने हेतु कहा। इस दौरान किसान एवं रेबारियों के मध्य बात बढ़ गई। रेबारियों ने ऊंट बाहर निकालने की बजाय किसान को पीटना शुरु कर दिया। तेजस्वी किशोर दुर्गादास इस पूरे घटनाक्रम को देख रहे थे। उनसे ये घटना सहन नहीं हुई। यद्यपि वे ऊंट दुर्गादास के खेत में नहीं चर रहे थे और ना ही वह किसान दुर्गादास का कोई भाई-भतीजा था लेकिन जिसकी रगों में क्षत्रियत्व का रक्त प्रवाहित हो रहा होता है, वह अन्याय को देखकर खौल उठता है, वही हुआ। दुर्गादास ने आव देखा न ताव। रेबारियों से जा भिड़े और देखते ही देखते एक का सिर धड़ से अलग कर दिया। ऐसे ही सुदृढ संकल्पी महापुरुषों के सुकृत सातत्य का ही परिणाम है कि भारत की धरती पर ‘असही को नहीं सहने’ की परंपरा बनी। कवि ‘समन’ ने कहा कि दूसरे के बाग में भी यदि गधे दाख खा रहे हों तो (यद्यपि हमारा व्यक्तिगत कुछ नुकशान नहीं है फिर भी) वह हमसे सहन नहीं होता-
समन पराए बाग में, दाख तोड़ खर खाय।
अपना कछु बिगरत नहीं, (पर) असही सही न जाय।।
रेबारियों के साथ घटी इस घटना का राज दरबार को पता चला। दुर्गादास को दरबार में बुलाया गया। पूछने पर जो कुछ जैसा हुआ, वैसा ही जबाब दुर्गादास ने पूर्ण निडरता एवं विश्वास के साथ दिया। लोगों ने सोचा दरबार दुर्गादास को दंडित करेंगे लेकिन उस वीर युवा की निडरता एवं न्यायप्रियता ने महाराजा साहब जसवंतसिंह जी को गदगद कर दिया। उन्होंने दुर्गादास को अपनी सेवा में रख लिया। उसके बाद दुर्गादास जसवंतसिंहजी के साथ ही रहे। वे उनके साथ दक्षिण में, गुजरात में तथा काबुल में सब जगह सेवा में रहे। जसवंतसिंहजी की मृत्यु के साथ ही दुर्गादास के संघर्ष का जीवन शुरु हुआ, जिसने अंत तक रुकने का नाम ही नहीं लिया। लेकिन दुर्गादास विपत्तियों से घबराने वाला व्यक्ति नहीं था। उन्होंने विपत्तियों से ऐसा सामना किया कि दुनियां के सामने उदाहरण बन गया। जैसे-जैसे दुर्गादास का व्यक्तित्व विपत्तियों की आग में तपता गया, वैसे-वैसे वह कुंदन की तरह निखरता गया। कवि शिवाकर तो यहां तक कहते हैं कि धरती पर जितने सुयोग्य नररत्न हुए हैं, वे विखो यानी विपत्तियों से संघर्ष के बाद ही विख्यात हुए हैं, (इतिहास में ऐसे अनगिन उदाहरण है, जिनका उल्लेख विस्तार भय से नहीं करना चाहूंगा)-
बाबाजी हंस बोलिया, वना जाणलो वात।
जोगा नर जितरा हुवा, विखो भुगत विख्यात।।
जोधपुर के किले महरानगढ़ में वीवर दुर्गादास राठौड़ की एक बड़ी प्रतिमा लगी हुई है, उसके नीचे मायड़भाषा राजस्थानी के दोहे उत्कीर्ण है। दोनो ंही दोहे चारण कवियों के लिखे हुए हैं। पहला दोहा दुर्गादास के समकालीन कवि तेजसी सांदू द्वारा तथा दूसरा दोहा आधुनिक राजस्थानी साहित्य के शिखर-पुरुष कविश्रेष्ठ डॉ.शक्तिदान कविया कृत है। संस्कारों की सीर को सदियों तक सरस रखने वाली इस काव्य परंपरा की बलिहारी देखिए दोनों कवियों ने दुर्गादास के त्याग एवं संघर्ष को रेखांकित कर गुणपूजा के आदि-संकल्प को साकार किया।
जसवंत कहियो जोय, गढ़ रखवाळो गूदड़ा।
साची पारख सोय, आछी कीनी आसउत।।
तेजसी सांदू।।
सुवरण थाळां नृप सदा, जीमै जिनस अनेक।
अस चढियो दुरगो उठै, सेलां रोटी सेक।।
कवि डॉ.शक्तिदान कविया लिखते हैं कि राजे-महाराजे जहां स्वर्ण-थाल सजाकर अनेक भांति के व्यंजन आरोगते हैं, वहां वीरवर दुर्गादास अपने घोड़े पर सवार होकर इतनी व्यस्ततम एवं जोखिमभरी जिंदगी जीता है कि अपने लिए रोटी सेंकने के लिए भी अपने भाले को ही काम में लेता है। इसी बात को डिंगल के आधुनिक कवि सोहनदान सिंहढायच ने इन शब्दों में लिखा और कहा कि दुर्गादास ने तो अपनी रोटी सेंकने के लिए आग भी श्मशान भूमि में जलती चिताओं की ही काम में ली अभिप्राय यह कि कितना संघर्षशील जीवन रहा होगा उस वीर का-
कस्यो पिलाण खैंग पे, हस्यो चढ्यो हमेस ही।
रम्योज औरंगेस सूं, भम्यो सुदेस देस ही।
सुसेल रोट सेकियो, ले बासते मसाण रो।
जुट्यो जवान जंग में, सुतान आसतान रो।।
सोहनदान सिंहढायच।।
जरा सी विपत्त आते ही बौखला कर अपनी चाल चूक जाने वाले लोगों के लिए दुर्गादास राठौड़ का जीवन एक अनुकरणीय उदाहरण है। उन्होंने अपनी स्वामिभक्ति की साख को बचाने के लिए कदम-कदम पर कठिन परीक्षाएं दीं लेकिन एक पल के लिए भी उनके कदम डगमगाए नहीं। अपने स्वामी जसवंतसिंह की जमरूद-काबुल में अकस्मात मृत्यु के असहनीय आघात के बावजूद दुर्गादास ने अपनी दृढ़ता को बनाए रखा। उन्होंने जसवंतसिंहजी की दोनों गर्भवती रानियों को सती होने से रोकने के साथ ही काबुल से सुरक्षित जोधपुर लाने के यत्न किए। रास्ते में दोनों रानियो ने लाहोर में एक ही दिन एक-एक पुत्रों को जन्म दिया। नरूकी रानी के गर्भ से पैदा पुत्र दलथंभन का तो यात्रा के दौरान ही देहावसान हो गया लेकिन जादव रानी के पुत्र अजीतसिंह को सकुशल मारवाड़ लाने का काम दुर्गादास ने किया। लेकिन विपत्तियां जब आती हैं तो चारों ओर से आती है। औरंगजेब ने जोधपुर में दखल कर ली तो दुर्गादास ने अपनी सूझबूझ से मेवाड़ के महाराणा राजसिंह से बालक अजीतसिंह को शरण में लेने एवं संरक्षण देने का निवेदन कर अपना फर्ज अदा किया।
वहीं से संघर्ष को अनवरत जारी रखते हुए अजीतसिंह को उसका पैतृक राज्य वापस दिलाने हेतु दुर्गादास ने मारवाड़ के अलग-अलग ठिकानों पर आक्रमण शुरु किए तथा मुगलों के नाक में दम कर दिया। न केवल मारवाड़ वरन मेवाड़ में भी जब महाराणा राजसिंह के स्वर्गारोहण के बाद अस्थिरता आई तो दुर्गादास ने वहां पहुंच कर जयसिंह का राजतिलक करवाने में अहम भूमिका निभाई। जब छत्रपति शिवाजी का स्वर्गवास हुआ तब भी दुर्गादास उनके बेटे शंभाजी की सहायतार्थ दक्षिण में भी गए तथा अपनी दूरदृष्टि के बल पर राजपूत एवं मराठों को एकजुट करके मुगलों के विरुद्ध प्रबल मोर्चा खोलने का संकल्प किया। औरंगजेब ने दुर्गादास को पकड़ने के लिए बहुत प्रयास किए लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। अपनी छापामार युद्धपद्धति के बल पर दुर्गादास ने मुगलों को खूब छकाया।
पर वीर दुर्गादास राठौर जी का संकल्प अडिग था कि जब तक मारवाड़ की धरा आजाद नही करा दूंगा तब तब तलवार म्यान में नही रखुंगा
आपने ओर हमने ठाकुर दुर्गादास राठौर जी को घोड़े पर बैठकर बाटी सेकते हुए की फ़ोटो देखी है , इसी से जुड़े एक प्रसंग का वर्णन............
आठ पहर चौसठ घड़ी , घुड़ले ऊपर बास।
सेला बाटी सेकणी , शमसाणा री आग ।।
रुद्र रूप रण रीठ में , सब सूरा सिरमौर ।
मिणीय माय सुमेर ज्यूँ , रंग दुरगा राठौर ।।
औरंगजेब ओर दुर्गादास जी के सेनिको के बीच चल रहा युद्ध समाप्त हो चुका था। मलेक्छ सैनिक टुकड़ी हार कर बापिस हो चुकी थी , निश्चिन्त हो दुर्गादास जी अकेले ही बापिस हो रहे थे कि राश्ते में उन्हें भूख का एहसास हुआ। आसपास देखने पर उन्हें एक समसान में जलती हुई चिता दिखाई दी जिसकी अग्नि से वे अपना भोजन तैयार कर सकते थे इसी विचार के साथ उन्होंने बाटी बनाकर तैयार की ओर घोड़े पर बैठे ही भाले की नोक की सहायता से बाटी सेकना आरंभ किया अभी भोजन तैयार ही हुआ था कि औरंगजेब के सेनिको ने ( जो कि संख्या में 7 थे ) अच्छा मौका पाकर उन्हें घेर लिया । ( औरंगजेब अच्छी तरह जानता था की दुर्गादास के जीवित रहते हुए उसका मारवाड़ पर कब्जा करना स्वप्न के समान है अतः दुर्गादास को मारने की योजना से उसने सेनिको में इनाम की घोषणा की थी )
तब सेनिको ने दुर्गादास से कहा मरने के लिए तैयार हो जाओ ।
इस पर दुर्गादास जी ने मुस्कराते हुए उनसे पूछा :-
कि में अभी लडूं या पहले भोजन कर लूं ।
सेनिको ने विचार किया कि इसे मरना तो है अतःभोजन कर लेने दे ।
दुर्गादास जी ने निडरता से भोजन समाप्त किया ।
फिर एक सैनिक बोला :-
युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।
दुर्गादास जीे फिर मुस्कराए ओर पूंछा :-
कि तुम सब लोग एक साथ युद्ध करोगे क़ि एक एक करके ।
सेनिको ने फिर विचार किया (चूंकि औरंगजेब द्वारा दुर्गादास जी को मारने का इनाम बहुत ज्यादा था इसलिए प्रत्येक सैनिक उसे अकेले ही प्राप्त करना ) यही सोचकर सेनिको ने कहा कि हम एक एक करके तुमसे लड़ेंगे ।
इस बात पर दुर्गादास जी पुनः मुष्कराये ।
युद्ध सुरु हुआ और देखते ही देखते दुर्गादास जी ने एक एक करके 6 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया , ये देखकर 7वा सैनिक भागने लगा तब दुर्गादास जी ने उसे पकड़ा और उसके 6 साथियों के नाक और कान काटके एक पोटली में रखके उस सैनिक को थमा दी ओर मुस्करा कर कहा :-
ये पोटली औरंगजेब को हमारी तरफ से भेंट में दे देना ।।
हिंदुगौरव मारवाड़ के महानायक वीरदुर्गादास राठौड़
इला न देणी आपणी, हालरिया हुलराय।
पूत सिखावै पालणै, मरण बडाई माय।।
बेटा रणभूमि में शहीद हो गया। उसकी मृतदेही को अपने सामने देखकर राजस्थान की वीर मां गश खाकर गिरती नहीं है वरन अपने बेटे को शाबासी देती है। उसकी आंखों से दुख के आंसूं नहीं बहते वरन आल्हाद से उस मां के वक्षस्थल से दुग्ध स्रावित होने लगता है-
बेटा दूध उजाळयो, तूं कट पड़ियो जुद्ध।
नीर न आवै मो नयण, पण थण आवै दुद्ध।।
ऐसी ही महनीय माताओं तथा प्रेरणास्पद पुत्रों के अनुकरणीय सुकृत्यों के परिणाम स्वरूप हमारी इस मरुभूमि को वीर-वसुंधरा एवं ‘रणबंका राजस्थान’ का विरुद मिला है। कहते हैं कि जहां बड़भागी लोग पैदा होते हैं, वहां सारे सुख-वैभव स्वयं ही चल कर आ जाते हैं और उनका लाभ सारी कायनात को मिलता है। पूरे वन में चंदन का पेड़ एक भी होता है तो खुशबू सबको मिल जाती है, उसी प्रकार से हमारी मातृभूमि को अपने सुयश की सुवास से महकाने वाले वरेण्य व्यक्तित्वों के त्याग एवं बलिदान के बल पर हम आज गौरवशाली अतीत के मालिक हैं-
वडभागी जलमै जठै, सब सुख थाय सवाय।
अेक चनण री ओट में, सारौ वन सुरमाय।।
ऐसे शौर्यमयी संस्कारों की धरती का एक अदभुत सूरमा था-वीरवर दुर्गादास राठौड़। दुर्गादास राठौड़ का जीवन वरेण्य व्यक्तित्व एवं अनुकरणीय कृतित्व का अनुपम उदाहरण है। राजस्थान के डिंगल कवियों ने उत्कृष्ट के अभिनन्दन एवं निकृष्ट के निंदन की सतत काव्यधारा प्रवाहित की है। मध्यकालीन इतिहास का अवलोकन करने पर राजस्थान के दो ऐसे वीर सपूतों का जीवन हमारे सामने आता है, जिनके शौर्य पर कवियों ने सर्वाधिक कलमें चलाई। वे हैं अप्रतिम वीर अमरसिंह राठौड़ एवं वीरवर दुर्गादास राठौड़। दुर्गादास राठौड़ के समकालीन चारण कवि तेजसी सांदू ग्राम भदोरा ने दुर्गादास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रभावित होकर लिखा कि महाभारत काल में पांडवों को जिस तरह संघर्ष करते हुए वनवास और अज्ञातवास में रहना पड़ा वैसी ही स्थिति दुर्गादास के सामने रही। पांडवों ने तो छुपकर समय बिताया लेकिन दुर्गादास तो एक दिन भी छुपकर नहीं रहा, अपनी तलवार की धार पर जरूरतमंदों की सहायता करता रहा एवं मुगलों का सुख-चैन काफूर करता रहा-
बारह बरसां बीह, वन पांडव अछता वुहा।
दुरगो हेको दीह, अछतो रयौ न आसउत।।
वीरवर दुर्गादास राठौड़ का जन्म संवत 1695 वि में द्वितीय श्रावण मास की सुदी चवदस सोमवार को गांव सालवा (मारवाड़) में हुआ। इनकी मां भटियाणी थीं तथा पिता आसकरण नींबावत। जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के भाई थे करन। करन से राठौड़ों की करनोत शाखा चली। करन का पड़पोता नींबा राठौड़ था। उनका बेटा आसकरण तथा पोता दुर्गादास हुआ। दुर्गादास इस मरुभूमि का महापराक्रमी सपूत तथा सफल राजनीतिज्ञ था, जिसने अपनी भुजाओं के बल पर मारवाड़ की आन-बान एवं शान को अक्षुण्ण रखा। ऐसे दैदीप्यमान नक्षत्र को नमन करते हुए कवि तेजसी सांदू ने लिखा-
दुरगादास वखांणियो, तद जोधाण तखत्त।
जणणी किण जायो नहीं, नर तो जिसो नखत्त।।
अपनी 80 वर्ष तीन महीने एवं 28 दिन की लंबी जीवन यात्रा में दुर्गादास ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से अनेक कीर्तिमान स्थापित किए। वे कभी राजगद्दी पर नहीं बैठै लेकिन कितने राजा हैं, जो लोगां के दिलों पर राज करते हैं? दुर्गादास उन सौभाग्यशाली लोगों में से हैं, जो जनमानस पर युगों-युगों तक निष्कंटक राज करते हैं। अनुपम वीरता, धीरता, न्यायप्रियता, आत्म सम्मान, त्याग एवं बलिदान से परिपूर्ण व्यक्तित्व के धनी दुर्गादास के व्यक्तित्व को उजागर करती कविz नारायणसिंह शिवाकर के ये पंक्तियां बरबस ही पाठक के मन में उस वीर क्षत्रिय के प्रति अगाध श्रद्धा के भाव पैदा करती है-
निरलोभी निरभै निडर, रीझ खीज इक रास।
प्रजापाळ पणपाळ नर, दीठो दुरगादास।।
डोढी दुरगादास री, रहै खुली दिन रात।
दीन दुखी फरियाद ले, जाय छतीसूं जात।।
बूढो ठाडो मिनख जो, मारग में मिल जाय।
दुरगो आदर देय नै, बाबो कह बतळाय।।
समन पराए बाग में, दाख तोड़ खर खाय।
अपना कछु बिगरत नहीं, (पर) असही सही न जाय।।
रेबारियों के साथ घटी इस घटना का राज दरबार को पता चला। दुर्गादास को दरबार में बुलाया गया। पूछने पर जो कुछ जैसा हुआ, वैसा ही जबाब दुर्गादास ने पूर्ण निडरता एवं विश्वास के साथ दिया। लोगों ने सोचा दरबार दुर्गादास को दंडित करेंगे लेकिन उस वीर युवा की निडरता एवं न्यायप्रियता ने महाराजा साहब जसवंतसिंह जी को गदगद कर दिया। उन्होंने दुर्गादास को अपनी सेवा में रख लिया। उसके बाद दुर्गादास जसवंतसिंहजी के साथ ही रहे। वे उनके साथ दक्षिण में, गुजरात में तथा काबुल में सब जगह सेवा में रहे। जसवंतसिंहजी की मृत्यु के साथ ही दुर्गादास के संघर्ष का जीवन शुरु हुआ, जिसने अंत तक रुकने का नाम ही नहीं लिया। लेकिन दुर्गादास विपत्तियों से घबराने वाला व्यक्ति नहीं था। उन्होंने विपत्तियों से ऐसा सामना किया कि दुनियां के सामने उदाहरण बन गया। जैसे-जैसे दुर्गादास का व्यक्तित्व विपत्तियों की आग में तपता गया, वैसे-वैसे वह कुंदन की तरह निखरता गया। कवि शिवाकर तो यहां तक कहते हैं कि धरती पर जितने सुयोग्य नररत्न हुए हैं, वे विखो यानी विपत्तियों से संघर्ष के बाद ही विख्यात हुए हैं, (इतिहास में ऐसे अनगिन उदाहरण है, जिनका उल्लेख विस्तार भय से नहीं करना चाहूंगा)-
बाबाजी हंस बोलिया, वना जाणलो वात।
जोगा नर जितरा हुवा, विखो भुगत विख्यात।।
जोधपुर के किले महरानगढ़ में वीवर दुर्गादास राठौड़ की एक बड़ी प्रतिमा लगी हुई है, उसके नीचे मायड़भाषा राजस्थानी के दोहे उत्कीर्ण है। दोनो ंही दोहे चारण कवियों के लिखे हुए हैं। पहला दोहा दुर्गादास के समकालीन कवि तेजसी सांदू द्वारा तथा दूसरा दोहा आधुनिक राजस्थानी साहित्य के शिखर-पुरुष कविश्रेष्ठ डॉ.शक्तिदान कविया कृत है। संस्कारों की सीर को सदियों तक सरस रखने वाली इस काव्य परंपरा की बलिहारी देखिए दोनों कवियों ने दुर्गादास के त्याग एवं संघर्ष को रेखांकित कर गुणपूजा के आदि-संकल्प को साकार किया।
जसवंत कहियो जोय, गढ़ रखवाळो गूदड़ा।
साची पारख सोय, आछी कीनी आसउत।।
तेजसी सांदू।।
सुवरण थाळां नृप सदा, जीमै जिनस अनेक।
अस चढियो दुरगो उठै, सेलां रोटी सेक।।
कवि डॉ.शक्तिदान कविया लिखते हैं कि राजे-महाराजे जहां स्वर्ण-थाल सजाकर अनेक भांति के व्यंजन आरोगते हैं, वहां वीरवर दुर्गादास अपने घोड़े पर सवार होकर इतनी व्यस्ततम एवं जोखिमभरी जिंदगी जीता है कि अपने लिए रोटी सेंकने के लिए भी अपने भाले को ही काम में लेता है। इसी बात को डिंगल के आधुनिक कवि सोहनदान सिंहढायच ने इन शब्दों में लिखा और कहा कि दुर्गादास ने तो अपनी रोटी सेंकने के लिए आग भी श्मशान भूमि में जलती चिताओं की ही काम में ली अभिप्राय यह कि कितना संघर्षशील जीवन रहा होगा उस वीर का-
कस्यो पिलाण खैंग पे, हस्यो चढ्यो हमेस ही।
रम्योज औरंगेस सूं, भम्यो सुदेस देस ही।
सुसेल रोट सेकियो, ले बासते मसाण रो।
जुट्यो जवान जंग में, सुतान आसतान रो।।
सोहनदान सिंहढायच।।
जरा सी विपत्त आते ही बौखला कर अपनी चाल चूक जाने वाले लोगों के लिए दुर्गादास राठौड़ का जीवन एक अनुकरणीय उदाहरण है। उन्होंने अपनी स्वामिभक्ति की साख को बचाने के लिए कदम-कदम पर कठिन परीक्षाएं दीं लेकिन एक पल के लिए भी उनके कदम डगमगाए नहीं। अपने स्वामी जसवंतसिंह की जमरूद-काबुल में अकस्मात मृत्यु के असहनीय आघात के बावजूद दुर्गादास ने अपनी दृढ़ता को बनाए रखा। उन्होंने जसवंतसिंहजी की दोनों गर्भवती रानियों को सती होने से रोकने के साथ ही काबुल से सुरक्षित जोधपुर लाने के यत्न किए। रास्ते में दोनों रानियो ने लाहोर में एक ही दिन एक-एक पुत्रों को जन्म दिया। नरूकी रानी के गर्भ से पैदा पुत्र दलथंभन का तो यात्रा के दौरान ही देहावसान हो गया लेकिन जादव रानी के पुत्र अजीतसिंह को सकुशल मारवाड़ लाने का काम दुर्गादास ने किया। लेकिन विपत्तियां जब आती हैं तो चारों ओर से आती है। औरंगजेब ने जोधपुर में दखल कर ली तो दुर्गादास ने अपनी सूझबूझ से मेवाड़ के महाराणा राजसिंह से बालक अजीतसिंह को शरण में लेने एवं संरक्षण देने का निवेदन कर अपना फर्ज अदा किया।
पर वीर दुर्गादास राठौर जी का संकल्प अडिग था कि जब तक मारवाड़ की धरा आजाद नही करा दूंगा तब तब तलवार म्यान में नही रखुंगा
आपने ओर हमने ठाकुर दुर्गादास राठौर जी को घोड़े पर बैठकर बाटी सेकते हुए की फ़ोटो देखी है , इसी से जुड़े एक प्रसंग का वर्णन............
आठ पहर चौसठ घड़ी , घुड़ले ऊपर बास।
सेला बाटी सेकणी , शमसाणा री आग ।।
रुद्र रूप रण रीठ में , सब सूरा सिरमौर ।
मिणीय माय सुमेर ज्यूँ , रंग दुरगा राठौर ।।
औरंगजेब ओर दुर्गादास जी के सेनिको के बीच चल रहा युद्ध समाप्त हो चुका था। मलेक्छ सैनिक टुकड़ी हार कर बापिस हो चुकी थी , निश्चिन्त हो दुर्गादास जी अकेले ही बापिस हो रहे थे कि राश्ते में उन्हें भूख का एहसास हुआ। आसपास देखने पर उन्हें एक समसान में जलती हुई चिता दिखाई दी जिसकी अग्नि से वे अपना भोजन तैयार कर सकते थे इसी विचार के साथ उन्होंने बाटी बनाकर तैयार की ओर घोड़े पर बैठे ही भाले की नोक की सहायता से बाटी सेकना आरंभ किया अभी भोजन तैयार ही हुआ था कि औरंगजेब के सेनिको ने ( जो कि संख्या में 7 थे ) अच्छा मौका पाकर उन्हें घेर लिया । ( औरंगजेब अच्छी तरह जानता था की दुर्गादास के जीवित रहते हुए उसका मारवाड़ पर कब्जा करना स्वप्न के समान है अतः दुर्गादास को मारने की योजना से उसने सेनिको में इनाम की घोषणा की थी )
तब सेनिको ने दुर्गादास से कहा मरने के लिए तैयार हो जाओ ।
इस पर दुर्गादास जी ने मुस्कराते हुए उनसे पूछा :-
कि में अभी लडूं या पहले भोजन कर लूं ।
सेनिको ने विचार किया कि इसे मरना तो है अतःभोजन कर लेने दे ।
दुर्गादास जी ने निडरता से भोजन समाप्त किया ।
फिर एक सैनिक बोला :-
युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।
दुर्गादास जीे फिर मुस्कराए ओर पूंछा :-
कि तुम सब लोग एक साथ युद्ध करोगे क़ि एक एक करके ।
सेनिको ने फिर विचार किया (चूंकि औरंगजेब द्वारा दुर्गादास जी को मारने का इनाम बहुत ज्यादा था इसलिए प्रत्येक सैनिक उसे अकेले ही प्राप्त करना ) यही सोचकर सेनिको ने कहा कि हम एक एक करके तुमसे लड़ेंगे ।
इस बात पर दुर्गादास जी पुनः मुष्कराये ।
युद्ध सुरु हुआ और देखते ही देखते दुर्गादास जी ने एक एक करके 6 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया , ये देखकर 7वा सैनिक भागने लगा तब दुर्गादास जी ने उसे पकड़ा और उसके 6 साथियों के नाक और कान काटके एक पोटली में रखके उस सैनिक को थमा दी ओर मुस्करा कर कहा :-
ये पोटली औरंगजेब को हमारी तरफ से भेंट में दे देना ।।
ऐसे ही संघर्षपूर्ण जीवन का उदहारण प्रस्तुत करती ये एक और अध्याय जब एक अंधेरी रात ओर अटपटी राह बेचारा घोड़ा अटक अटक के चल रहा था अपने ही घोड़े की टापें अरावली से टकराकर वापस आ रही थी ,धीरगम्भीर मुद्रा मे राजकुमार की सुरक्षा ओर मारवाड़ के धणी जसवंत को दिये वचन की उदेड़बुन मे लम्बे समय से अरावली की पहाड़ियों से अपनी वृद्ध माँ से मिलने कल्याण गढ की राह मे कंटालिया के पास से दो पहर रात बीतने पर वीरदुर्गादास देश की दशा पर खीजता चला जा रहा था अचानक तलवारों की झनझनाहट से सावधान होकर अपनी तलवार खीच उस ओर बढ गया जहा दो राजपूतो को बाईस मुगल सैनिक घेरे हुऐ थे ,क्रोध में दुर्गादास टूट पड़ा मुगल सैनिको पर कुछ मारे गये कुछ पीठ दिखाकर भाग छुटे ।दुर्गादास ने देखा दो राजपूतो मे एक मर चुका था ओर दुसरा घायल था । घायल को उठा ले जाने की सोची ही थी की चांद के प्रकाश मे पच्चीस तीस मुगल सैनिक दौड़े आ रहे है।दुर्गादास ने दुश्मन को इतना मौका ही नही दिया कि वो उसे देख सके दस इग्यार को मार गिराया खून खून जोरावर खां का खून चिलाकर 4 मुगल सैनिक भाग छुटे ः।दुर्गादास ने सोचा अब यहा खड़ा रहना ठीक नही है बस घायल राजपूत को उठकर कल्याण गढ की राह पकड़ी ।थोड़ी रात रहे घर पहुचा ।बुढी माँ दुर्गादास ओर घायल राजपूत को रक्त से नहाया देख घबरा गयी । तुरंत दोनो की मरहम पटी की माँ ने पुछा बेटा तेरी ये दशा कैसे हुइ ,दुर्गादास ने आपबीती बताई माँ ने घायल राजपूत को पहचान कर कहा अरे दुर्गा ये तो महासिह है तूं इतना दुबला पतला कैसे है रे ऐसी क्या विपता आ पड़ी ।महासिह कुछ बोलता उससे पहले ही घर का सेवक नाथू बा दौड़ता हुआ आया ओर बोला महाराज भागो ,हथियारबद्ध मुगल सिपाही चिल्लाते हुऐ आ रहे है ।
माँजी ने कहा बेटा "" बेटा कहीं भागकर अपने प्राण बचाओ मुगल बहुत है तुम अकेले हो महासिंह घायल है मारवाड़ को तुम्हारी जरूरत है महाराजा को दिये प्रण को पुरा करना है ,व्यर्थ मे प्राण देना उचित नही है । दुर्गादास बोला माँजी आप सबको संकट में छोड़कर मै प्राणों की रक्षा करुं ? महासिह ने कहा नही भाई , माँजी का कहना मानो। जिंदा रहोगे तभी देश का उद्वार कर सकोगे । दुर्गादास ने कहा मुगलो की तलवारों की झनझनाहट मे अब भागने का समय कहा है ।
माँजी की जिद व नाथू बाँ के हठ के आगे घर के अंधे कुऐ मे घायल महासिह तेजकरण जसकरण तथा महाराजा की दी संदूकची को उतारा तब तक मुगल घर का दरवाजा तोड़ घर मे दाखिल हो चुके थे दुर्गादास छतनारे बरगद के पेड़ पर चढ गया ।घर का कोना कोना छान मारा दुर्गादास नही मिला ।एक सिपाही वृद्ध माँजी को सरदार मुहम्मद के पास ले गया मुहम्मद ने सिफाही को डांटते हुऐ कहा खबरदार जो मांजी को हाथ लगाया तोःःमुहमदखां माँजी के पास गया ओर नरमी से पेश आते हुऐ कहा माँजी ,दुर्गादास ने कंटालिया के सरदार शमशेर खां के भतीज जोरावर खां को मार दिया है ,बादशाह की आज्ञा ऐसे अपराध की सजा सुली है ,अपराधी को बचाने ओर छिपाने की भी यही सजा है ।माँजी ने कहा यह तूं किससे कह रहा है मै दुर्गादास की माँ हू , क्या एक माँ अपने हाथो से अपने बेटे को सुली पर चढा देगी । यदि प्राण के बदले प्राण तो दुर्गादास निर्दोष है उसने जोरावर खां को एक राजपूत की मौत के बदले मारा है । मुहम्मद खां ने कहा माँजी मुझे ये पता नही था ।मै जाता हूं दुर्गादास को सुर्योदय से पहले किसी अनजान जगह भेज देना ।दुसरे सरदार खोजबीन मे आये तो माँजी ने तुरंत घर छोड़ने का हठ किया तो दुर्गादास ने तेजकरण ओर जसकरण को माँजी के पास छोड़कर जाने को कहा तो माँजी ने हठपूर्वक कहा जसकरण तेजकरण तेरी सुरक्षा मे रहेगे ओर मेरी सुरक्षा मे मेरा सेवक नाथू बा है ।
सवेरा होते होते माँजी को प्रणाम कर अपने भाई व बेटे के साथ घर से निकला जाते जाते नाथू बा को बुलाकर कहा माँजी के कुशल समाचार प्रतिदिन हमे देते रहना मुगलो से सावधान रहना ।इस तरह नाथू को समझाकर सूर्योदय से पहले ही अरावली की पहाड़ियों को चल पड़ा मतवाला।
दिन उगते ही दो सौ मुगल सिपाहियों ने कल्याण गढ को घेरकर बुढी माँ सा व नाथू को पकड़ कर डरा धमकाकर दुर्गादास का ठिकाना बताने को कहा ।बुढी माँं अरावल पहाड़ की तरह अडिग रही , नाथू बा घबरा गयाःअपने लिये नही वृद माँजी के लिऐ नाथू बा सिपाहियों की मजबूत पकड़ में छटपटानै लगा तभी अन्यायी अत्याचारी शमशेर खां ने तलवार निहत्थी माँ जी के सीने के पार उतार दी एक राजपूतनी ने अपने अपने कुल मर्यादा मे अपने प्राणो की आहूति देदी।ये दृश्य देख नाथू बेहोश हो गया ।माँजी के मौत का मंज्जर नाथू बा सहन नही कर सका जब होश आया तो मांजी के खून से शनी शयशेर खां की तलवार लेकर अरावली की पहाड़ियों की तरफ चल पड़ा , दुर्गादास की खोज मे अरावली की पहाड़ियों में बिलखता जाता ओर रुद्धन करता जाता हे राम माँजी से पहले मुझे मौत क्यों नही आई ,हे राम ये तेरी कैसी लीला है जिसके भय से दिल्ली का बादशाह थररहाता है उसकी माँ की हत्या शमशेर खाँ ने कर दी , हे भगवान अब मैं दुर्गादास को क्या कहूगा इसी रुद्धन मे एक पहाड़ी की टेकरी पर निंद्रा के आगोस मे आ गया सुबह आंख खुली तो दुर्गादास को देखकर शमशेर खाँ के कल्याण गढ की लूट के बारे मे बताता लेकिन माँजी के बारे में पुछने पर मौन हो जाता कांपते हाथो से शमशेर की माँजी के रक्त से तलवार दुर्गादास के आगे की ः दुर्गादास ने आंखो से अंगारे लिऐ क्रोधित भाव में कसम खाते हुऐ कहा ःखुनी अत्याचारी महापापी , मेरी माँ के हत्यारे शमशेर खां की हत्याकर माँजी की मौत का बदला नही लेंलूंगा तब तक अन्न जल नही छूउंगा ।
अपने भाई ओर बेटे के साथ अंधेरी रात में माँ की मौत का बदला लेने वीरदुर्गादास निकल पड़ा कंटालिया की ओर ।आधी रात को किले का दरवाजा तोड़ कंटालिया दुर्ग मे पहुच गये जो सामने आया यमलोक पहुचाते गये , तलवारों की झनझनाहट सुन शमशेर खाँ हड़बड़ाकर उठा तो दुर्गादास को सामने देख गिड़गिड़ाने लगा। दुर्गादास ने कहा मै एक राजपूत हू ओर राजपूत निहत्थे पर वार नही करता सम्भल जाः यह कह कर दुर्गादास कहाः ये वही तलवार है जिससें तुझने मेरी ममतामयी माँ की हत्या की थी ओर इसीसे से तेरा सिर धड़ से अलग करुगां। शमशेर खाँ सजग होकर सामने आया. तो दुर्गादासजी ने एक ही वार से उस पापी का काम तमाम कर दिया। तलवार वहीं फेंक कल्याण गढ की तरफ माँ के अंतिम संस्कार के लिऐ अपने साथियो के साथ निकल पड़ा।
दुर्गादास ने कल्याण गढ पहुचकर देखा मुगल सिपाहियों ने दुर्गादास के घर सहीत कल्याण गढ को लूटकर आग के हवाले कर दिया ,गांव कल्याण गढ की यह दशा देखकर आंखों में आंसु आ गये , थोड़ी देर मौन खड़े रहे ओर क्रोधित होकर बोले .भाईयों बिना कोई अपराध किये शत्रुओं ने माँजी को मार दिया , घर गांव को लूट लिया ,आग लगाकर सब तबाह कर दिया , हमारा धर्म केवल पहाडियों में छिपकर जान बचाना नही है।अब गांव घर नही रहने पर मारवाड़ ही हमारा घर हैःः वृद्धा मांजी(माता) की जगह मारवाड़ की पावन धरा ही हमारी माता है,.इसलिए जब तक अपनी माता के संकटो को दूर न कर लूंगा,(म्यान से तलवार निकालकर )तब तक म्यान से निकली हुई तलवार फिर म्यान में न रखुगा ,,
यह प्रण करके वीरदुर्गादास अपने बेटे भाई जसकरण और थोडे से राजपूतो के साथ अरावली पहाड़ की तरफ निकल पड़ा ,एक संकल्प के साथ ।
अहलोके विखै जांणियो औरंग, पूगी मन एही पारीख।
दुसमण नको सरीखो दुरगा, सैण न को दुरगा सारीख।।
पुरुषोत्तम राम के बाद एक आदर्श क्षत्रिय के उज्जवल चरित्र के सभी गुणों का पालन किया तो वो वीर दुर्गादास था जिसने निज स्वार्थ को छोडकर कहाः
खग बालो ,जग बालो , बालो मरुधर देश।
स्याम धरम सदा बालो , नित बालो मरुधर नरेश।।
बालो यानी प्यारा:
वीर दुर्गादास
इतिहास अतीत के देशभक्तों, क्रांतिकारियों के साहसिक कृतियों तथा बलिदानों को वर्तमान में पढ़कर भविष्य संभालने की विद्या है। भारतीय इतिहास के देशभक्तों की त्याग, तितिक्षा तथा बलिदान, विश्व के देशभक्तों से तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात उनकी सीमाएं क्षितिज को लगने लगती हैं। जहां विदेशी इतिहासकारों ने हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को विकृत किया एवं कमतर आंका है, वहीं अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने खोजी प्रवृत्ति को नजरअंदाज कर उसी को आधार बना लिया है। परिणाम स्वरुप भारतीय इतिहास का कुछ अध्याय अभी भी अंधकार युग के नाम से प्रसिद्ध है। परंतु हमारे पास जो भी देशी-विदेशी सामग्री है उसका तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात हमारे देश भक्त सूर्य के समान देदीप्यमान छलकने लगते हैं।
इसी दिशा में जब हम वीर दुर्गादास राठौड़ की जीवनी, मारवाड़ के प्रति इतिहास तथा बलिदान को देखते हैं तो अकेला वह देश भक्त इटली के 3 देशभक्तों- मैजिनी,कैभोर तथा गेरीबाल्डी के बराबर नजर आता है। मैजिनी इटली के एकीकरण का मसीहा है। उसने यंग इटली का निर्माण कर वहां के युवकों को देश भक्ति की ओर उन्मुख किया। उसका मुख्य उद्देश्य ऑस्ट्रिया के प्रभाव से इटली को मुक्त कराकर एकीकरण करना था।कैभोर इटली के एकीकरण की रीढ़ था। वह कूटनीतिज्ञ तथा यथार्थवादी तथा एकीकरण के लिए युद्ध आवश्यक समझता था। गैरीबाल्डी एक महान योद्धा तथा त्यागी था। उसने तलवार के बल पर दक्षिणी इटली के राज्यों को जीतकर इटली के अधीन किया। राजा विक्टर इमैनुएल को जब उसकी देशभक्ति पर संदेह होने लगा तो वह जीते गए राज्य को उन्हें सौंपकर अपने फार्म हाउस को चला गया। उसके त्याग से प्रभावित होकर लाला लाजपत राय ने गैरीबाल्डी पर जीवनी लिखी।
वीर दुर्गादास राठौड़ मैं तीनों देशभक्तों के गुण एक साथ समाहित है। मारवाड़ को मुगलों से मुक्त कराकर अजीत सिंह का राज्याभिषेक करना उनका मुख्य उद्देश्य था। जोधपुर के राजकीय अधिकारी द्वारा किसानों के फसल को जबरन चराने के विरोध स्वरूप उसको एक बार में कत्ल कर देने के साथ उसने अपना साहसिक जीवन आरंभ किया। अन्याई राजदरबार के कर्मचारी के साथ यह बर्ताव युवकों में एक नवचेतना का जागरण पैदा किया जो मेजिनी के यंग इटली का व्यवहारिक स्वरुप था। महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद उनके एकमात्र जीवित पुत्र अजीत सिंह को मारवाड़ के सिंहासन पर आरूढ़ करने के लिए 30 वर्षों तक का साहसिक संघर्ष, एवं कूटनीतिज्ञ युद्ध केभौर के कार्य से कम नहीं था। इसलिए इसके लिए बाल राजकुमार को औरंगजेब के शाही दरबार से मेवाड़ ले जाना फिर कालदिरी गांव के पहाड़ पर बने मठ में रह कर बाहर से पहरेदारी करना, औरंगजेब से 30 वर्षों तक संघर्ष तथा अनगिनत देशभक्तों का बलिदान महत्वपूर्ण है। अशोक के इस अविस्मरणीय संघर्षपूर्ण प्रयास में वीर दुर्गादास घोड़े की पीठ पर बैठकर ही खाना खा लिया करता था। जिस तरह अंग्रेज बाल गंगाधर तिलक को अंग्रेजी राज्य का सिरदर्द कहा करता था, उसी तरह औरंगजेब दुर्गादास को मुगल राज्य को अशांत करने वाला व्यक्ति कहता था। आखिर कैभोर की तरह उनको भी सफलता मिली और अजीत सिंह का राज्याभिषेक हुआ।
यह वीर दुर्गादास राठौड़ की निस्वार्थ सेवा एवं साहसिक कृत्यों का परिणाम था कि अजीत सिंह के प्राण बजे और मारवाड़ को राजा भी प्राप्त हुआ। एक बार बादशाह ने दुर्गादास को दरबार में बुलाकर ₹50000 की एक जड़ाऊ कटार और सिरोपाव के साथ एक उच्च पद देने की इच्छा प्रकट की परंतु इस वीर और त्यागी ने यह कह कर इंकार कर दिया कि जब तक अजीत सिंह को उसका राज्य वापस नहीं मिल जाता तब तक कुछ भी स्वीकार नहीं करूंगा। राठौड़ के संबंध में लेफ्टिनेंट जनरल हिज हाइनेस प्रताप सिंह ने अपने आत्म चरित्र में लिखा है कि 'कई बार औरंगजेब ने दुर्गादास से कहा तुम अपने स्वामी अजीत सिंह को मेरे हवाले कर दो तो मैं तुम्हें मारवाड़ का राजा बना दूंगा। परंतु कोई प्रलोभन उस देशभक्त को विचलित नहीं कर सका।
और संघर्ष जारी रखा। दक्षिण भारत से वापस आए तो मारवाड़ में राड़ तैयार मिली। अजीतसिंह दुर्गादास के प्रभाव एवं यश से ईर्ष्या रखने लगे थे। महाराजा अजीतसिंह और दुर्गादास के बीच मनमुटाव एवं टकराव की स्थितियां बन गई। एक दिन भी आराम शायद कुंडली में लिखा ही नहीं था। अनुभवी कवियों एवं शायरों ने ठीक ही लिखा है कि अपने उसूलों से समझोते नहीं करने वाले लोगों को सांसारिक सुख कम ही नसीब होता है। वही दुर्गादास के साथ हुआ। उसूलों पर आई आंच को कभी सहन नहीं किया और गाअे से आगे टकराव की स्थितियां बनती गईं और परिणाम स्वरुप दुर्गादास अपनी जन्मभूमि मारवाड़ को सदा के लिए जाकर मेवाड़ चले गए। उनका यह क्या गैरीबाल्डी के त्याग के सदृश्य है।
लेकिन वही उसूल वही अनोखी आन एवं वरदान नही तो उनकी शान का कारण बनी। औरंगजेब ने दुर्गादास को अनेक षड़यंत्रों के माध्यम से मरवाना चाहा लेकिन संभव नहीं हुआ। लंबे जीवन की लंबी कहानी है और इस कहानी की हर घटना के पीछे एक अन्य कहानी है, जिसे पढ़ने एवं जानने के लिए लोक की बातों, ख्यातों, गीतों एवं रीतों को समझना पड़ता है। निसंदेह अकेले वीर दुर्गादास राठौड़ का त्याग, बलिदान तथा साहसिक एवं कूटनीति पूर्ण कार्य इटली के एकीकरण के तीनों देशभक्तों के समान है। इतिहासकारों को चाहिए कि इन 30 वर्षों की घटनाओं का आंख खोलकर अध्ययन करें और लिखें जिससे भविष्य के देशभक्तों को प्रेरणा मिल सके। स्थानीय लेखकों तथा इतिहासकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह जनपदीय इतिहास को लिखकर स्थानीय देशभक्तों के त्याग बलिदान तथा साहसिक कार्य को प्रकाश में लाएं।
मेंवाड़ से वे उज्जैन गए, जहां भगवान का ध्यान लगाते समय संवत 1775 मिंगसर सुदी 11 शनिवार को उनका देहावसान हुआ। वहीं सिप्रा नदी के तट पर उनकी पार्थिव देह का अंतिम संस्कार किया गया। दुर्गादास की जीवटता एवं गंभीरता का प्रमाण यह है कि उन्होंने अपने क्षत्रियत्व धर्म को एक पल के लिए भी विस्मृत नहीं होने दिया। राजस्थानी साहित्य-रत्न डॉ़. नारायणसिंह भाटी अपनी कृति ‘दुरगादास’ में लिखते हैं कि दुर्गादास किसी जाति विशेष के दुश्मन नहीं थे वरन उनकी मातृभूमि पर हमला करने वाला हर व्यक्ति उनका दुश्मन था और दुर्गादास का दुधारा उन लोगों का सामना करने के लिए ही चमकता रहा-
दोयण कुण थारा दुरगादास ?
दोयण मां भोम रा तूझ दोयण।
आजीवन मन, वचन एवं कर्म से निष्कलंक रहने वाला वीर दुर्गादास मानवीयता का महान पुजारी था। अपनी तलवार एवं भाले के बल पर उन्होंने अनेक आतताइयों को मौत के घाट उतार कर मातृभूमि की चूनड़ी को सुर्ख़ रंग से रंगने का अहम कार्य किया लेकिन इतने लंबे समय तक के युद्धों के बावजूद उनकी हथेलियों पर अमानुषिक हत्या के खून की एक बूंद तक नहीं लगी। उज्ज्वल एवं निष्कलंक चरित्र पर मोद भरती कवि नारायणसिंह भाटी की कलम से सृजित ये पंक्तियां देखिए-
अस रा असवार ऊजळा/रह्यो ऊजळै वागां
ऊजळी खांगां/ ऊजळै मनां/ राखियो खत ऊजळो
पण असल रंगरेज आस-रा/ थें रंगियो कसूंबल धरा पोमचो
बिनां रंग रंगियां।
ऐसे अनुकरणीय व्यक्तित्व के धनी वीरवर दुर्गादास का जीवन आज की आपाधापी वाली, अधीरता से डगमगाती, नीतिपथ से किनारा करती, परंपरा से मुंह फेरती, स्वारथ से स्नेह बढाती, अनीति से आंख मूंदती, परदुख एंव परपीड़ा देखकर नहीं पिघलती नयी पीढ़ी के लिए जीवटता एवं जीवनमूल्यों को पुनः प्रतिष्ठापित करने वाला साबित हो सकता है। ऐसे महानायकों के जीवन का एक-एक पहलू प्रेरणास्पद होता है। यही कारण है कि महाकवि केसरीसिंह बारहठ (सोन्याणा) ‘दुर्गादास-चरित्र’ नामक अपने ऐतिहासिक पिंगल-प्रबंध काव्य में भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि हे कृपानिधान! हमारी देवियों यानी माताओं को ऐसी शक्ति देना, जिससे वे दुर्गादास जैसे सपूतों को जन्म देती रहे-
देविन को ऐसी शक्ति दीजिए कृपानिधान,
दुर्गदास जैसे माता पूत जनिबो करें।
ऐसी हूतात्माओं के चरित्र पर जितना लिखो, उतना कम है। लेखनी लगातार लिखते रहना चाहती है लेकिन विस्तार भय से अपने विचारों की शृंखला को समापन की ओर ले जाते हुए ध्रुव तारे की तरह अटल आलोकित, स्वामिभक्ति के सिरमौर, मानवता के महनीय पुजारी, शौर्य के सबल अवतार तथा नेतृत्व क्षमता के नायाब नायक वीरवर दुर्गादास को कवि नारायण सिंह शिवाकर के इन दोहों के माध्यम से नमन करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं-
ऊगा नखतर आथिया, जोधाणै इतिहास।
एकज ध्रुव तारो अटळ, दीठो दुरगादास।।
राजवंस नैं राखियो, स्यांम धरम मरुदेस।
बदळा में राखी नहीं, दो गज धर दुरगेस।।
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लेकिन वही उसूल वही अनोखी आन एवं वरदान नही तो उनकी शान का कारण बनी। औरंगजेब ने दुर्गादास को अनेक षड़यंत्रों के माध्यम से मरवाना चाहा लेकिन संभव नहीं हुआ। लंबे जीवन की लंबी कहानी है और इस कहानी की हर घटना के पीछे एक अन्य कहानी है, जिसे पढ़ने एवं जानने के लिए लोक की बातों, ख्यातों, गीतों एवं रीतों को समझना पड़ता है। निसंदेह अकेले वीर दुर्गादास राठौड़ का त्याग, बलिदान तथा साहसिक एवं कूटनीति पूर्ण कार्य इटली के एकीकरण के तीनों देशभक्तों के समान है। इतिहासकारों को चाहिए कि इन 30 वर्षों की घटनाओं का आंख खोलकर अध्ययन करें और लिखें जिससे भविष्य के देशभक्तों को प्रेरणा मिल सके। स्थानीय लेखकों तथा इतिहासकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह जनपदीय इतिहास को लिखकर स्थानीय देशभक्तों के त्याग बलिदान तथा साहसिक कार्य को प्रकाश में लाएं।
दोयण कुण थारा दुरगादास ?
दोयण मां भोम रा तूझ दोयण।
आजीवन मन, वचन एवं कर्म से निष्कलंक रहने वाला वीर दुर्गादास मानवीयता का महान पुजारी था। अपनी तलवार एवं भाले के बल पर उन्होंने अनेक आतताइयों को मौत के घाट उतार कर मातृभूमि की चूनड़ी को सुर्ख़ रंग से रंगने का अहम कार्य किया लेकिन इतने लंबे समय तक के युद्धों के बावजूद उनकी हथेलियों पर अमानुषिक हत्या के खून की एक बूंद तक नहीं लगी। उज्ज्वल एवं निष्कलंक चरित्र पर मोद भरती कवि नारायणसिंह भाटी की कलम से सृजित ये पंक्तियां देखिए-
अस रा असवार ऊजळा/रह्यो ऊजळै वागां
ऊजळी खांगां/ ऊजळै मनां/ राखियो खत ऊजळो
पण असल रंगरेज आस-रा/ थें रंगियो कसूंबल धरा पोमचो
बिनां रंग रंगियां।
ऐसे अनुकरणीय व्यक्तित्व के धनी वीरवर दुर्गादास का जीवन आज की आपाधापी वाली, अधीरता से डगमगाती, नीतिपथ से किनारा करती, परंपरा से मुंह फेरती, स्वारथ से स्नेह बढाती, अनीति से आंख मूंदती, परदुख एंव परपीड़ा देखकर नहीं पिघलती नयी पीढ़ी के लिए जीवटता एवं जीवनमूल्यों को पुनः प्रतिष्ठापित करने वाला साबित हो सकता है। ऐसे महानायकों के जीवन का एक-एक पहलू प्रेरणास्पद होता है। यही कारण है कि महाकवि केसरीसिंह बारहठ (सोन्याणा) ‘दुर्गादास-चरित्र’ नामक अपने ऐतिहासिक पिंगल-प्रबंध काव्य में भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि हे कृपानिधान! हमारी देवियों यानी माताओं को ऐसी शक्ति देना, जिससे वे दुर्गादास जैसे सपूतों को जन्म देती रहे-
देविन को ऐसी शक्ति दीजिए कृपानिधान,
दुर्गदास जैसे माता पूत जनिबो करें।
ऐसी हूतात्माओं के चरित्र पर जितना लिखो, उतना कम है। लेखनी लगातार लिखते रहना चाहती है लेकिन विस्तार भय से अपने विचारों की शृंखला को समापन की ओर ले जाते हुए ध्रुव तारे की तरह अटल आलोकित, स्वामिभक्ति के सिरमौर, मानवता के महनीय पुजारी, शौर्य के सबल अवतार तथा नेतृत्व क्षमता के नायाब नायक वीरवर दुर्गादास को कवि नारायण सिंह शिवाकर के इन दोहों के माध्यम से नमन करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं-
ऊगा नखतर आथिया, जोधाणै इतिहास।
एकज ध्रुव तारो अटळ, दीठो दुरगादास।।
राजवंस नैं राखियो, स्यांम धरम मरुदेस।
बदळा में राखी नहीं, दो गज धर दुरगेस।।
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"Just surrender into ME, I will take care of you and will protect you from everything" - Sri Krishna.
We have to follow the sayings of Partha, so that our life will be happy and prosperous always.
old Durgadas Rathore on a white Marwari horse, leads Rajputs to victory against Mughal invaders, painting at Umaid Bhawan. Jodhpur
अजीत सिंहजी ने हमलावरों की मस्जिदें तोड़ डाली और मंदिरों का पुनर्निर्माण किया। The murti of Bhagwan Krishna was reinstalled and the temple rebuilt at the same site. Construction work completed by Maharaja Vijay Singh.
Brave Durgadas Rathore - who saved Marwar prince Ajit Singh from the fortress of Delhi before Aurangzeb could imprison him
on fight against Mughals for almost 25 years. Shown world How smaller armies can outmaneuver and defeat larger forces was seen in the Rajput War against Aurangzeb. Maharana Raj Singh and Durgadas positioned their forces on the high ground of the Aravalli range, free to attack the enemy while defending their own positions
Rare Rajput personality who combined famed Rajput valour with realpolitics.
Aurangzeb's ascension to the Mughal throne was followed by a wave of rebellions across what was to be his new dominion, inherited from his father and wrested from his brother. To quell the unrest in Kabul (modern day Afghanistan-West Pakistan) he had sent Maharaja Jaswant Singh of Jodhpur of whose effectiveness even Kushal Khan, the celebrated Afghan Chieftain had written in his memoires, albeit and of course begrudgingly.
Rathore Rajputs under Maharaja Jaswant Singh of Jodhpur were the most formidable foe of Aurangzeb.Maharaja Jaswant Singh Rathor, the ruler of Marwar who had fought battle of Dharmatpur with Aurangzeb,
Aurangzeb took no important steps against Hindus as long Raja Jai Singh of Amber and Maharaja Jaswant Singh of Marwar were alive. Aurangjeb reinstated Jaziya in 1679.
But he could only do this, after Maharaja Jaswant Singh of Marwar died in 1678.
Maharaja Jaswant Singh destroyed many mosques who built on temples by desstroying them, during his reign and reinstated temples on them. When Maharaja Jaswant Singh died Aurangzeb said
'Finally the Enemy of Islam has died'
Muslim officers were appointed all over Marwar and the whole country was brought under direct Mughal rule. The death of Maharaja Jaswant had thrown Rathores he imposed Sharia upon the kingdom and even moved his base from Delhi to Ajmer to oversee its subjugation And when the news of the birth of the heir to Marwar’s throne reached him, in confusion. The state was without a head. Jaswant's highest officers and best troops were absent in Afghanistan.
Aurangzeb sent Khan-i-Jahan Bahadur to occupy Marwar on 7th february and demolish its temples and seize property of the late Maharaja.
Aurangzeb took the opportunity to intervene by imposing Muslim rule over Marwar. This formed a part of the Mughal strategy to destroy Hinduism. Aurangzeb forces moved in to occupy the region and "anarchy and slaughter were let loose on the doomed state; all the great towns in the plains were pillaged; the temples were thrown down.
The deployment was however set up from the start, Jaswant Singh was assassinated in Jamrud in December 1678 leaving no male heir - a conspicuous similarity to the assassination of Mirza Raja Jai Singh of Amer. The patriarchs of both the Rajput Kingdoms of Amer and Jodhpur gone, especially the latter dying heirless, gave Aurangzeb the opportunity, to set in motion his long-concealed designs, to finally strike into Marwar - the heart of Rajputana.
Back in Jamrud the funeral pyre of Jaswant Singh was lit, and his queens attained Sati, joining him in the afterlife. Queen Chandravati who stayed back in Jodhpur, ascended the pyre in Mandor with her lord’s Turban, in the ancestral resting place of the Rathore Royal Family. All seemed to be lost, but as destiny would have it, one queen, Jadaman Kanwar, bearing the child that would be the last surviving heir of Jaswant Singh, and bearer of the yet uncertain destiny of Marwar, was prevented from immolating herself by Uda Kumpawat, a Rathore grandee. On 19th of February 1679, she would give birth to Ajit Singh, the only surviving male heir of Maharaja Jaswant Singh. Within days of Maharaja Jaswant Singh’s death, he promptly declared the succession invalid. The tragedy had already befallen upon the rulers, and now it was to befall upon the subjects.
Rathore Rajputs under Maharaja Jaswant Singh of Jodhpur were the most formidable foe of Aurangzeb.Maharaja Jaswant Singh Rathor, the ruler of Marwar who had fought battle of Dharmatpur with Aurangzeb,
Aurangzeb took no important steps against Hindus as long Raja Jai Singh of Amber and Maharaja Jaswant Singh of Marwar were alive. Aurangjeb reinstated Jaziya in 1679.
But he could only do this, after Maharaja Jaswant Singh of Marwar died in 1678.
Maharaja Jaswant Singh destroyed many mosques who built on temples by desstroying them, during his reign and reinstated temples on them. When Maharaja Jaswant Singh died Aurangzeb said
'Finally the Enemy of Islam has died'
Aurangzeb’s grand-plan for Marwar was set in motion, The news reached to the Emperor at Delhi in the fourth week of the month, he immediately hearing this news took steps to seize Marwar.
Muslim officers were appointed all over Marwar and the whole country was brought under direct Mughal rule. The death of Maharaja Jaswant had thrown Rathores he imposed Sharia upon the kingdom and even moved his base from Delhi to Ajmer to oversee its subjugation And when the news of the birth of the heir to Marwar’s throne reached him, in confusion. The state was without a head. Jaswant's highest officers and best troops were absent in Afghanistan.
Aurangzeb sent Khan-i-Jahan Bahadur to occupy Marwar on 7th february and demolish its temples and seize property of the late Maharaja.
Aurangzeb took the opportunity to intervene by imposing Muslim rule over Marwar. This formed a part of the Mughal strategy to destroy Hinduism. Aurangzeb forces moved in to occupy the region and "anarchy and slaughter were let loose on the doomed state; all the great towns in the plains were pillaged; the temples were thrown down.
The deployment was however set up from the start, Jaswant Singh was assassinated in Jamrud in December 1678 leaving no male heir - a conspicuous similarity to the assassination of Mirza Raja Jai Singh of Amer. The patriarchs of both the Rajput Kingdoms of Amer and Jodhpur gone, especially the latter dying heirless, gave Aurangzeb the opportunity, to set in motion his long-concealed designs, to finally strike into Marwar - the heart of Rajputana.
Back in Jamrud the funeral pyre of Jaswant Singh was lit, and his queens attained Sati, joining him in the afterlife. Queen Chandravati who stayed back in Jodhpur, ascended the pyre in Mandor with her lord’s Turban, in the ancestral resting place of the Rathore Royal Family. All seemed to be lost, but as destiny would have it, one queen, Jadaman Kanwar, bearing the child that would be the last surviving heir of Jaswant Singh, and bearer of the yet uncertain destiny of Marwar, was prevented from immolating herself by Uda Kumpawat, a Rathore grandee. On 19th of February 1679, she would give birth to Ajit Singh, the only surviving male heir of Maharaja Jaswant Singh. Within days of Maharaja Jaswant Singh’s death, he promptly declared the succession invalid. The tragedy had already befallen upon the rulers, and now it was to befall upon the subjects.
With their protectors gone, the Hindu race was orphaned, the bells of the temples were muted, the sacred conch didn’t sound at the sunrise, the Brahmins and the priests vitiated their doctrines and learned the creed of the Turks. The Jizya (Capitulation Tax) was imposed and innumerable temples were turned into mosques. After overseeing the destruction and degradation of Marwar, Aurangzeb returned to Delhi in April 1679.
Desperate times bring desperate events, all seemed to be lost, but some believed all was still not done. The nobles of Jodhpur tried their fate one last time in trying to appeal with Emperor Aurangzeb to accept Ajit Singh’s succession. Once the Queen had regained her health and was able to travel, the delegation of the foremost of the nobles of Marwar took her and Ajit Singh to Delhi in the hope that maybe time passed since the death of Maharaja Jaswant Singh may have softened his stance.
Born on 13th of August 1638, Durgadas Rathore was the son of Askaran Rathore, a high ranking noble in the courts of Maharaja Jaswant Singh of Marwar, he too was related to the Royal family, for he was the descendant of the Rao Ranmal, and a prominent noble himself. He was there with Jaswant Singh in Jamrud, and as his lord grew weak from the poison he saw in his eyes the dread and perturbation he had for the continuation of his race, now that he anticipated the Turk’s next moves. He was then promised by Durgadas that he will protect his family and his line, best described in the bardic couplet as…
Bewail not! My beloved Master
Shed aside thy pain
Abandon thy sorrows
For the blossoms of Maroo - None dare to outrage...
Her Modesty - None dare to violate...
On Dec 10, 1678. Durgadas and the Rajput contingent reached Delhi, the capital of Aurangzeb. That the Emperor was a zealot was known to each of them, but what dwarfed his zealotry was his cunning, and as far as his cunning was concerned, every assumed overestimation turned out an underestimation. Aurangzeb not only refused their request but also commanded that the infant should be surrendered in his custody, he insulted them further by asking the Queen to be handed over as a captive and that Ajit Singh be brought up in the Muslim faith in Delhi. He further offered to divide Marwar between them if they agreed to the terms, much to their infuriation. It was then that a voice pierced through the silence of Diwan-e-Aam…
“Our Country is with our sinews, and these can defend both it and our Lord”
With eyes red with rage they left the Diwan-e-Aam, and it was not long before that they realized they were surrounded with the Emperor’s men in his capital, and they had to rescue both the queen and prince Ajit, come what may. Ajit Singh was smuggled away in a basket of sweetmeats as the Rajput contingent prepared to make a stand for their honor. They made oblations to the Gods, took double the portion of opium and mounted on their steeds.
“Let us swim, in the ocean of battle. Let us root up these demons and be carried by the angels to the mansions of the Sun.”
And then spoke Durgadas,
“The teeth of the Turks are whetted, but by the lighting emitted from our swords, Delhi shall witness our deeds, and the flames of our anger shall consume the troops of the Shah”
As the Rajputs gathered and readied themselves for battle, women of Jaswant Singh’s household embraced martyrdom to prevent capture. 250 Rajputs made their stand on the Barahpula (The Bridge with 12 Arches) against the might of the Imperial forces adamant on capturing the prince. The men now with their lances in hand faced the imperial forces descending on them. The bards equated their faces to that of Yama, the God of Death, an appropriate expression for those who come from Marwar, the name, often interpreted as the land of death. Wave followed wave, blood was spilled on the streets, Delhi turned into a battlefield.
Many Rajput warriors attained martyrdom, and their women who now took it upon themselves to complete the ritual of Jauhar, gathered in an apartment, filled it with gunpowder, and set it ablaze.
The determination of the Rajputs defeated the Mughal Imperial Forces and they were forced to retreat. This gave the required opening that they needed to escape the imperial capital before another organized pursuit was to ensue. Ajit Singh was smuggled with the help of a Muslim sweet seller, who religiously executed his trust and handed Ajit over to Durgadas at the appointed spot.
1679, Aug: Mertiya Rathores fight Mughals to death to guard the Varaha Mandir, Pushkar. The survivors who had cut their way through nigh impossible opposition, now marched to Mewar, for Ajit Singh’s mother was also Mewar’s Maharana Raj Singh’s sister.
The Marwari contingent led by Durgadas Rathore escorting Maharaja Jaswant Singh's queen and Prince Ajit Singh into Udaipur. It's the Spring of 1680, the concluding day of the 18-day long celebrations that follow the festival of Holi, Mewar is roused and engrossed in festivities while the Maharana of Mewar, Rana Raj Singh takes a force of a thousand men and storms outside of his capital Udaipur...
"What's the Rani doing here?"
"First of all, you must know, the Rani is now a widow, Raja Jaswant Singh died suddenly in Kabul"
"In Kabul! Whatever was he doing up there?"
"Quelling a rebellion against the Emperor"
"What was the cause of his death?"
"The Rani suspects that he was poisoned at the banquet of victory by orders of the Emperor because, and so she says, Aurangzeb bore a grudge against him for helping his brother Dara and opposing him at Fatehabad."
"I can't believe it. Why would the Emperor murder one of his most capable generals?"
"Well that is what the Rani says because it seems the Emperor is trying to get a more direct control over Jodhpur. It appears when she was returning with her babe Ajit, he sent soldiers to fetch her to his court, saying that he wanted to 'educate' the young prince."
"Was the Rani up there with her lord? If she was brave enough to face the cold why was she not brave enough to face the funeral pyre?"
"Because she is braver than that. She wants to live to establish her son in his rights as Rana over his father's dominions"
"Yes brother, that is truly braver, but did she not say how she escaped from the Emperor's soldiers?"
"That's the most Exciting part of the story..."
A conversation between the Princes Jai Singh and Bhim Singh of Mewar, would foreshadow the beginning of a more than thirty years long struggle for the throne of Jodhpur that was threatened by the malevolence of the Mughal Emperor Aurangzeb "Alamgir".
They were certain that Aurangzeb would be pursuing them there, and he did, only to be defeated by the combined Marwari and Mewari armies, starved, humiliated and abandoned by his own family and forced to flee to Ajmer without any honor to save.
In a twist of fate, Aurangzeb own grandchildren would be brought up in the Mewari royal household instead. The fall of the Mughal Empire had thus begun…
Aurangzeb imposed Jiziya immediately after he forcefully annexed the Marwar & followed by sudden attack on Mewar - two most powerful Hindu states of India. Numerous temples of Rajasthan were destroyed at the same time. 173 temples were destroyed in Udaipur while 63 in Chittor during Aurnagzeb's pesonal visit to Chittor. Perhaps he had grandplans to destroy Hindu stronghold in north in order to smoothly carty out persecution of Hindus in rest of His empire.
After Aurangzeb had left after defeat in Rajputana for the Deccan (1681) his troops continued to hold cities and strategic points of Marwar; but RATHORE patriots remained in a contineous state of war with Mughals for 27 years till 1707,
This struggle is termed as RATHORE WAR OF INDEPENDENCE.
The history of these 27 years (1681-1707) in Märwär falls into 3 well-defined stages:
The result of this sporadic but contineous warfare is graphically described by a bard: "An hour before sunset every gate of Maru was shut. The Muslims held the strongholds, but the plains obeyed Rathors...The roads were now impassable."
Meanwhile, Durgadas Rathore weakened the Mughal offence by making Prince Akbar rebel against Aurangzeb in Jul-Aug 1680.
In 1681, Rajputs had incited Akbar (youngest son of Aurangzeb) to rebel against Aurangzeb. They also reminded him that open bigotry displayed by Aurangzeb in reimposing jaziya and demolishing temples was contrary to policies of his ancestors.
Prince Akbar lent a willing ear to the Rajputs and promised to restore the liberal policies of his ancestors. Therefore, two children of Prince Akbar's were brought up by the Rajputs in kingdom of Marwar.
The 2nd STAGE of the war began in 1687, when Durgă Das Rathor, a gallant Rajput warrior, returned from the Deccan and Ajit Singh, son of Jaswant Singh, took the command of the national forces. Durgā Dās was joined by Hādā Durjan Sāl, the foremost noble of Būndi. Together they slaughtered or drove away most of the Mughal garrisons in Mārwār and carried their advances into Mandal, Pur, Malpura and the imperial territory menacing even Delhi.
Prince Akbar lent a willing ear to the Rajputs and promised to restore the liberal policies of his ancestors. Therefore, two children of Prince Akbar's were brought up by the Rajputs in kingdom of Marwar.
Prince Akbar's reply to Aurangzeb, praising the actions of Durgadas & his men in Delhi. After Akbar was instigated by Durgadas into rebelling, Aurangzeb wrote to the prince rebuking him for his disobedience and urging him to come back from the "prison of the Rajputs, demons in human forms," who can't be trusted, invoking the example of Maharaja Jaswant Singh.
Interestingly Prince Akbar alleges that even after Maharaja Jaswant Singh had betrayed Aurangzeb at the battle of Khajwa and was an active partisan of Dara Shikoh, Aurangzeb feared him and thus let go his acts.
"The ancient and noble families are all extinct. The government...in the hands of low, ill-bred persons..."
Akbar further admonishes his father for his gratuitous wars, oppressive taxes on Hindus and lawlessness plaguing the empire. Prince Akbar ends his letter claiming that he couldn't see the destruction of the country, his father's inability to rule it and was thus forced to rebel, advising Aurangzeb to quit the government and retire to Mecca.
Since asylum with Mewar wasn't favourable, Durgadas Rathore made a daring escape to the Chh. Sambhaji Kingdom and reched around Nov 1681. Akbar & Durgadas were received warmly by Chh.Sambhaji. Aurangzeb diverted almost all the imperial resources for subjugating Deccan.
1686: Chh.Sambhaji planned for Akbar making dash towards North, but were repulsed at Ahmadnagar.
In 1687: Durgadas Rathore returns to Marwar after sending off Akbar to Persia. During 1681-87, Marwaris waged guerilla war vs Mughals.
In 1690, Durgā Dās Rathor defeated the Mughal governor Safi Khan of Ajmer and rendered Marwār so unsafe that Shujaat Khān, the governor of Gujarat, had to take personal charge of affairs in Jodhpur. Aurangzeb wanted to get back his grand-daughter, Safiyat-un-nisā, and negotiations began in 1694. But Durgā Dās Rathor sent her to Aurangzeb unconditionally. Such is the code of chivalry of a Hindu warriors towards women of enemy's side.
When young princess arrived, Aurangzeb immediately made arrangements for teaching her Islamic scriptures, but she informed him that her education had been carefully attended to by Durgā Dās, who had secured a Muslim tutor for her, and that she already knew Qur'ān by heart.
But Aurangzib refused to accede to Durgā Dās's demand for restoring Jodhpur to Ajit Singh. Aurangzīb's idea was to purchase Durgā Dās by the offer of a rich manşab and money, but honest Rāthor spurned all proposals which involved betrayal.
Unfortunately, however, Ajit longed for a truce so as to bring stability in Marwar. After about 2 decades of incessant Mughal war, Marwar had become desolate land prone to famines & drought. Hence, in 1698 Durgā Dās Rathor agreed to surrender Akbar's son, Buland Akhtar, in consideration of Ajit's receiving the parganās of Jhālor, Sānchor and Siwānā and mansab in the imperial army.
BUT the Proud Rathors, Ajit Singh and Durgā Dās, always kept themselves away from the Mughal court. Aurangzeb was always suspicious of both and eventually got frustrated with Rathors.
Hence, after the death of Shujā'at Khān (1701), Aurangzeb sent his son Muhammad A'zam as Governor of Gujarāt with instructions to send Durgā Dās to court, and, if he refused, to kill him.
When young princess arrived, Aurangzeb immediately made arrangements for teaching her Islamic scriptures, but she informed him that her education had been carefully attended to by Durgā Dās, who had secured a Muslim tutor for her, and that she already knew Qur'ān by heart.
But Aurangzib refused to accede to Durgā Dās's demand for restoring Jodhpur to Ajit Singh. Aurangzīb's idea was to purchase Durgā Dās by the offer of a rich manşab and money, but honest Rāthor spurned all proposals which involved betrayal.
Unfortunately, however, Ajit longed for a truce so as to bring stability in Marwar. After about 2 decades of incessant Mughal war, Marwar had become desolate land prone to famines & drought. Hence, in 1698 Durgā Dās Rathor agreed to surrender Akbar's son, Buland Akhtar, in consideration of Ajit's receiving the parganās of Jhālor, Sānchor and Siwānā and mansab in the imperial army.
BUT the Proud Rathors, Ajit Singh and Durgā Dās, always kept themselves away from the Mughal court. Aurangzeb was always suspicious of both and eventually got frustrated with Rathors.
Hence, after the death of Shujā'at Khān (1701), Aurangzeb sent his son Muhammad A'zam as Governor of Gujarāt with instructions to send Durgā Dās to court, and, if he refused, to kill him.
Thus at this point, there started the renewed war (3rd STAGE) of Independence.
Aurangzeb took the usual measure for suppressing the Rāthors, and while the wars were being fought he breathed his last on 3 March,1707. This news reached Ajit on 17 March, and he immediately expelled the Mughal commandant of the garrison at Jodhpur.
Ajit Singh took possession of Jodhpur from which the Muslims fled in all directions in Hindu garb.
"The fort of Jodhpur was purified with Ganges water and tulsi leaves". Ajit Singh sat on his ancestral throne and Durgā Dās Rathor's life-task was crowned with success. Thus the third stage of the Rajput war ended in the complete recovery of Marwar by Ajit Singh and Durga Das Rathor in 1707.
Ajit Singh was proclaimed Maharaja of Jodhpur and went on to rebuild all the temples that had been desecrated by the occupying Muslims.
The Cambridge History of India says of Durga Das Rathor that he displayed a rare combination of dash and reckless valour of a Rajput warrior with the tact, diplomatic cunning and organising power. Fighting against terrible odds, he always kept the cause of his nation triumphant.
This is the story of Rashtra Veer Durgadas
After Maryada Purushottam Sri Ram followed all the qualities of a bright character of an ideal Kshatriya, then it was Veer Durgadas who left his selfishness and said:
खग बालो ,जग बालो , बालो मरुधर देश।
स्याम धरम सदा बालो , नित बालो मरुधर नरेश।।
बालो यानी प्यारा:
वीर दुर्गादास
Our History is the learning of the patriots of the past, the work of the revolutionaries and the sacrifices made by the present to handle the future. After the sacrifice of patriots in Indian history, education and sacrifice, after studying comparatively to the patriots of the world, their boundaries start to appear on the horizon. While foreign historians have distorted and underestimated our glorious history, most Indian historians have ignored the investigative trend and have made it the basis. As a result, some chapters of Indian history are still known as the Dark Ages. But after the comparative study of whatever indigenous and foreign material we have, our country devotees start spilling like the sun.
In this direction, when we look at the biography of Veer Durgadas Rathore, history and sacrifice towards Marwar, that country alone is seen as equal to 3 patriots of Italy - Magini, Cabhor and Geribaldi. Magini is the Messiah of the Unification of Italy. He created Young Italy and oriented the youth of the country towards patriotism. Its main objective was to unify by liberating Italy from the influence of Austria. Cabhor was the backbone of the unification of Italy. He considered diplomacy and realism and war necessary for integration. Garibaldi was a great warrior and renunciate. He conquered the kingdoms of southern Italy by the sword and subdued Italy. When King Victor Emanuel began to doubt his patriotism, he went to his farm house by handing over the won kingdom to him. Impressed by his sacrifice, Lala Lajpat Rai wrote a biography on Garibaldi.
Veer Durgadas Rathore contains the qualities of the three patriots together. His accession was to crown Ajit Singh by freeing Marwar from the Mughals. He started his adventurous life with the state government of Jodhpur slaughtering the farmers at one go as a protest against forcible grazing of the crop. This behavior with the staff of the Anyai Rajdarbar created an awakening among the young people, a practical form of Mezzini's Young Italy. After the death of Maharaja Jaswant Singh, his 30-year-old courageous struggle to ascend the throne of Marwar to his only surviving son Ajit Singh, and the diplomatic war was nothing short of daunting. Therefore, it is important to take the Bal Rajkumar from the royal court of Aurangzeb to Mewar, then to guard him from outside, staying in the monastery on the mountain of Kaladiri village, struggle for 30 years from Aurangzeb and sacrifice of countless patriots. In this unforgettable struggle of Ashoka, Veer Durgadas used to sit and eat on horseback. Just as the British used to call Bal Gangadhar Tilak the beheader of the English state, similarly Aurangzeb Durgadas was called the man who disturbed the Mughal state. After all, like Kaibhor, he too got success and Ajit Singh was crowned.
In the long period till Ajit Singh grew up and sat on the throne, he fought many battles against all the conspiracies conducted by Aurangzeb to save the throne of Jodhpur. Meanwhile, during the struggle of nearly 25 years, Aurangzeb's force or bribery for immense wealth could not deter Veer Durgadas Rathore, and Veer Durgadas Rathore succeeded in securing the throne of Jodhpur on the strength of his valor. In 1708, he not only breathed peace but also fulfilled the promise given to Raja Jaswant Singh by placing Ajit Singh on the throne of Jodhpur.
Last days in Ujjain
After the Battle of Sambhar in 1708, Durgadas lived in Sadri, Mewar till 1716. He had many children, the most noted of whom were Abhaikaran, Tejkaran, Mahakaran, and Inderkaran. 1700s Painting of Abhaikaran hunting boar सूर का वध करते हुए दुर्गादास के पुत्र अभय करण
In the last days of his life, he voluntarily left Marwar and went to Ujjain. On the banks of the river Kshipra, he spent the last days of his life. He died on 22 November 1718 (Maghashirsha Shukla Ekadashi Samvat 1775). His last rites were performed on the banks of river Kshipra as per his wish.
Government of India issued coins
Veer Shiromani Rashtravir Durgadas Rathore will continue to be the inspiration and ideals of valor, patriotism, sacrifice, sacrifice and loyalty for our generations to come.
On 16 August 1988, a ticket of 60 paise was issued by the Government of India in honor of Rashtravir Durgadas Rathore.
At the same time, on 25 August 2003, coins were issued with his picture of various funds, which are popular in public and practice. Today, we salute him in honor of his birth anniversary.
Brave Durgadas Rathore was the sword of Marwar.
~ The above engraving was made by Edward Francis Finden (1791-1857).
The Cambridge History of India says of Durgadas that
" He displayed a rare combination of the dash and reckless valour of a Rajput warrior with the tact, diplomatic cunning and organising power of the best Mughal ministers. But for his twenty-five years of unflagging exertion and skilful contrivance, Ajit Singh could not have secured his father's throne. Fighting against terrible odds, he kept the cause of his nation triumphant, without ever looking to his own gain."
Durgadas Rathore carried out relentless struggle against Mughals controlling Marwar.
He successfully defeated Aurangzeb by guerrilla warfare.. Sad to know that many people still don't know about him..In the end, we offer few lines for this great patriot in his honor -
अपने स्वामी की रक्षा करने का जिसको सेाहस था, ऊमर घोड़े पर गुजारी वह प्रणवीर दुर्गादास राठौड़ थे।
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