Tuesday, July 13, 2021

सत्य की खोज (भाग - २)

 येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावादविशुद्ध बुद्धयः।

आरूह्म कृचछे़्ण परं पदं ततः पतनतयधोऽनादृतयुष्मदड्घृयः।।


जहाँ योग है, वहाँ भोग नहीं होता और जहां भोग है, वहाँ योग नही होता - यह नियम है। परंतु एक अवस्था। ऐसी भी होती है, जिसमें साधकको योगका, ज्ञानका अथवा प्रेमका अभिमान हो जाता है और वह मान लेता है कि मैं योगी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ अथवा मैं प्रेमी हूँ। कारण की अनादिकाल से जीवमें यह आदत पड़ी हुवी है कि वह जिसके साथ संबंध करता है, उसका अभिमान कर लेता है, जैसे- धन मिलने से 'मैं धनी हूँ' आदि। मैं योगी हूँ - यह वास्तवमें योगका भोग है, क्योंकि इसमें योगका संग है, योग के साथ अहम् मिला हुआ है। मैं ज्ञानी हूँ-यह वास्तव में ज्ञान का भोग है; क्योंकि इसमें ज्ञान का संग है, ज्ञानके साथ अहम् मिला हुआ है। मैं प्रेमी हूँ- यह वास्तव में प्रेमका भोग है, क्योंकि इसमें प्रेमका संग है, प्रेमके साथ अहम् मिला हुआ है। भोग न रहने पर योगी, ज्ञानी और प्रेमी नही रहता अर्थात व्यक्तित्व सर्वथा मिट जाता है। कारण की योग, ज्ञान या प्रेम मिलनेसे मनुष्य उनके साथ एक हो जाता है अर्थात वह योगस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और प्रेमस्वरूप हो जाता है, इसलिए उनका अभिमान नही होता। जबतक व्यक्तित्व रहता है, तब तक पतन की संभावना रहती है। इसलिए जो योगका अभिमानी है, वह कभी भी भोग में फस सकता है;जो ज्ञान का अभिमानी है, वह कभी भी अज्ञानमें फँस सकता है;जो मुक्ति का अभिमानी है, वह कभी भी बंधनमें फँस सकता है; जो प्रेमका अभिमानी है, वह कभी भी रागमें फँस सकता है।

जब योग, ज्ञान और प्रेमका अभिमान (भोग) नहीं रहता, तब साधक मुक्क्त हो जाता है। मुक्क्त होनेपर भी साधन के जिस मत (प्रणाली) - को मुख्यता दी है, उसका एक सूक्ष्म संस्कार रह जाता है, जिसकी अभिमानशून्य अहम् कहते हैं। जैसे भुने हुवे चने खेतिके के काम तो नहीं आते, पर खानेके काम आते हैं, ऐसे ही वह अभिमानशून्य अहम् जन्म- मरण। देंनेवाला तो नही छूट, पर (अपने मतका संस्कार रहनेसे) अन्य दर्शनिकोंसे मतभेद करने वाला होता है। तात्प्रर्य है कि उस सूक्ष्म अहम् के कारण मुक्त पुरुष को अपने मतमें संतोष है, अपनी मान्यता का आदर है, तबतक दूसरे दार्शनिकों के साथ एकता नही होती । साधन तो अलग-अलग होतें है, पर साधन-तत्व एक होता है अर्थात कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि सभी साधन मिलकर साधन तत्व होता है। परंतु वह साधन - तत्त्वको ही साध्य मानकर उसमें संतोष कर लेता है। 

जीव ईश्वरका अंश है, इसलिये वह जिस मतको पकड़ लेता है, वही उसको सत्य दिखने लग जाता है। अतः साधकको चाहिए कि वह अपने मत का अनुसरण तो करे, पर उसको पकंडे नहीं अर्थात उसका आग्रह न रखे। न ज्ञान का आग्रह रखे, न प्रेमका। वह अपने मतको श्रेष्ठ और दूसरे मतको निकृष्ट न समझे, प्रत्युत सबका समानरूप से आदर करे। गीताके अनुसार जैसे 'मोहकलिल' का त्याग करना आवश्यक है (गीता२|५२-५३); क्योंकि ये दोनों ही साधकको अटकानेवाले हैं। इसलिए साधकको जब तक अपनेमें दार्शनिक मतभेद दिखें, सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव न दीखे, तबतक उसको संतोष नहीं करना चाहिए। अपनेमें मतभेद दिखने पर वह साधन-तत्व तक तो पहुंच सकता है, पर साध्य तक नहीं पहुंच सकता। साध्यतक पहुँचनेपर अपने मतका आग्रह नहीं रहता और सभी मत समान दिखते हैं। -

पहुँचे पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और। 

'संतदास' घड़ी अरठ की, ढुरे एक ही ठोर।।

नारायण अरु नगर के, 'रज्जब' राह अनेक।

कोई आवौ  कहीं दिसि, आगे अस्थल एक।।


मतभेद को लेकर आचारयोंमें लड़ाई नही होती, प्रत्युत उनके अनुयायियों में लड़ाई होती है। कारण की अनुयायियों को मुक्तावस्था का अनुभव तो हुवा नहीं, पर मतका आग्रह (पक्षपात) रह गया, जबकि आचार्यों को अनुभव हो चुका है! आचार्यों के मतभेदसे अनुयायियोंमें अपने मतके प्रति राग और दूसरे मतके प्रति द्वेष पैदा हो जाता है। राग द्वेष होनेसे सत्य की खोजमें बड़ी बाधा लग जाती है। परंतु राग-द्वेष न होने पर साधक सत्य की खोज करता हैकि जब वास्तविक तत्व एक ही है तो फिर मतभेद क्यों है? इसलिए वह मुक्तिमें भी संतोष नहीं करता । सत्य की खोज करते-करते वह खुद खो जाता है!

जिस साधकमें पहले भक्ति के संस्कार रहे हैं, उसको मुक्तिमें संतोष नही होता। इसलिये जब उसको मुक्ति का रस भी फीका लगने लगता है, तब उसको प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है। भक्ति साधन भी है और साध्य भी - 'भक्त्या सुज्जाताया भक्त्या' (श्रीमद्भा० ११|३|३१) । साधन-भक्तिमें साधन और साध्य दोनों भगवान होनेसे अपने मतका आग्रह सुगमता से छूट जाता है और साध्य-भक्ति अर्थात प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति स्वतः हो जाती है। प्रेमकी प्राप्ति होने पर 'सब कुछ भगवान ही है' - ऐसे भगवानके समग्र स्वरूपका साक्षात अनुभव हो जाता है और साध्यमें अगाध प्रियता जाग्रत हो जाती है। प्रियता जाग्रत होनेपर किसी एक मतमें आग्रह नही रहता, सभी मतभेद गलकर एक हो जाते हैं। मुक्ति में तो अखंड रस, एकरस मिलता है, पर भक्ति में अनंत रस, प्रतिक्षण वर्धमान रस मिलता है। प्रेम सम्पूर्ण साधनों का अंतिम फल अर्थात साध्य है। प्रत्येक साधक को अपने-अपने साधन के द्वारा इसी साध्य की प्राप्ति करनी है। इश्लिये मनुष्य जन्म परमात्मा प्राप्ति के लिए ही हुवा हैऔर परमात्मप्रेम की प्राप्ति ही मनुष्य जन्म की सफलता है।

मनुष्य और साधक प्रयाय हैं। जो साधक नहीं है, वह वास्तवमें मनुष्य भी नहीं है। जो साधक है, वही वास्तवमें मनुष्य है। मनुष्यका खास कर्तव्य है- सत्त्यको स्वीकार करना। परमात्मा हैं- यह सत्य हैं और संसार नहीं है- यह भी सत्य है। सत्त्यको सत्य मानना भी सत्त्यको स्वीकार करना है और असत्य को असत्य मानना भी सत्य को स्वीकार करन है। जिसके साथ हमारा सम्बन्ध है, उसके साथ सम्बन्ध मानना भी सत्य को स्वीकार करना है और जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है, उसके साथ सम्बन्ध न मानना भी सत्य को स्वीकार करना है। मूलमें एक ही सत्य। है। वह यह है कि एक समग्र भगवानके सिवाए और कुछ है ही नहीं-' वासुदेवः सर्वम्।



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