अव्यक्तनान्मी परमेशशक्ति-रनाधविद्या त्रिगुणात्मिका परा।
कार्यानुमेया सुधियैव माया यया जगत् सर्वमिदं प्रसूयते ।।
एक राजा थे। युवावस्था होनेसे उन्हें आत्मसम्भावीता प्रिय थी। प्रजागण राजा की भूरी बुरी प्रशंसा करते थे, फिर भी राजा को संतोष न था, इसलिए राजा ने अपनी प्रशंसा प्रसारित करने के लिए एक सर्वसाधारण सभा की। उस सभामें नगर की समस्त प्रजा एकत्रित हुवी। राजा ने प्रजा के बीच में एक ऐसा चक्रवर्ती आसन लगवाया जिसपर आसीन होकर वे सम्पूर्ण जनता को देख सके और प्रजागण भी राजा को देख सके। एक ध्वनि-विस्तारक यंत्र भी लगवा दिया।। राजा ने प्रातः छः बजे सभा प्रारंभ की थी। चार घंटे के लिए सभा का समय निर्धारित था। राजा ने ध्वनि-विस्तारक यंत्र पर कहा-
'प्रिय प्रजागण! में जनता का स्वागत करता हूँ। मैं आप सब से पूछता हूँ कि क्या मेरे पितामह का राज्य सराहनीय या मेरे पिताजी का राज्य काल सराहनीय था अथवा मेरा राज्य सराहनीय है? इस विषयमें सबको ध्वनि-विस्तारक यंत्र पर अपना विचार प्रकट करने का अधिकार है।'
सभामें बाल, वृद्ध, युवा, स्त्री-पुरुष सभु आये हुवे थे। उनमें कुछ लोग राजाके पितामह के, पिताके और राजाके राज्यको जाननेवाले थे। राजाके समक्ष राजाकी बुराई करना सबके लिए दुष्कर थी। राजा भले हैं- ऐसी व्यर्थ प्रशंसा करनी भही समुचित नहीं। राजाके पितामहके राज्याकालमें रहने वाले वयस्क पुरुष भी सभामें उपस्थित थे, फिर भी भला-बुरा कहना बुद्धिमानी नहीं; क्योंकि बीती बातको दुहराना व्यर्थ है- इस प्राकार प्रजागण परस्पर विचार-विमर्श करनी लगे।
समय अधिक बीत जाने पर कोई प्रत्युत्तर न मिलनेके कारण राजाने पुनः कहा- 'क्या मेरे पितामह के राज्यमें और मेरे पिताके राज्यमें अराजकता रही? साथ ही मेरा राज्य सबके लिए दुखदायी प्रतीत होनेसे कोई एक व्यक्ति भी प्रत्युत्तर नहीं प्रदान कर रहा है। तब तो मै राज्य को त्यागकर निर्वासित हो जाऊं।'
राजाको भला-बुरा कौन सुना सकता है? किसीका साहस नही हुआ। कानाफूसी तो सर्वत्र सभामें हो ही रही थी। वर्त्तमान राजाके राज्यकी बुराइयोंकी चर्चा चल रही थी, पर स्पष्ट-रूपसे कहनेमें किसीकी हिम्मत नही हुई।
अन्तमें एक वयोवृद्ध पुरुष खड़ा हुआ। उसे देखकर राजाने मार्ग देने का संकेत किया। वह राजाके समीप आया और ध्वनि-विस्तारक यंत्र पर खड़ा होकर लगा- 'सरकार! आप हमारे सिरके छत्र हैं, प्रजाके मुकुटमणि हैं, राजा ईश्वर का स्वरूप होता है। राजाओंकी निंदा करना महापाप है, निन्दक राजद्रोही कहलाता है। अतएव किसका राज्य श्रेष्ठ रहा, यह तो मैं बता नहीं सकता, किन्तु में अपनी आपबीती कहता हूँ-
'आपके पितामह के राज्य-कालमें मैं सत्रह वर्ष का था।आपके पिताके राज्य-कालमें चालीस वर्ष तक रहा था और आपके राज्यमें लगभग सौ वर्ष की आयु में स्थित हूँ। मैं उन स्वर्गस्थ राजाओंकी कीर्तिका का कितना बखान करुँ बुराइयाँ कम-अधिक प्रायः सभीमें पायी जाती हैं, संसार सागर है, भले पुरुष सभीमें अच्छाई देखते है और बुरे पुरुष बुराइयाँ ही खोजते है। बुराई करनेवालेके मुँहपर पट्टी नहीं बाँधी जा सकती। भगवान्ने मनावमात्रको बुद्धि प्रदान की है, सत्-असत्का निर्णय वह स्वयं कर सकता है। मैं कुछ नहीं जानता, केवल अपनी आपबीती आपको प्रजाके समक्ष सुनाता हूँ। कृपया ध्यानसे सुनें, मेरी धृष्टता पर क्षुब्ध न होइयेगा।
आपके पितामह के राज्याकालमें राजाके सलाहकार मन्त्री, पुरोहित, विरक्त, ऋषि-मुनि, त्यागी, तपस्वी थे। वे यहाँ हवन, देवाराधन, पूजा-पाठ, जप, तप,व्रत कराते थे। प्रजा भी धर्मात्मा थी। देव, ऋषि, पितर प्रसन्न रहते थे। वर्षा बहुत होती अच्छी होती थी, दूध-दही-घी की नदियाँ बहती थीं। मनुष्योंका आहार शुद्ध-सात्विक था, मेरी उस समय सत्रह वर्षकी अवस्था थी। वातावरण प्रेम भक्ति, आत्मीयतासे पूर्ण था। मैं खेतीका काम करता था, मेरा एक बैल मर गया, दूसरा लेनेके लिए एक गाँवकी ओर जा रहा था। आधा रास्ता तय किया तो एक पेड़की आड़ में एक नवविवाहित युवती शिंगारपूर्ण होकर छिपी-सी बैठी थी। सायंकाल हो चुका था। मैंने पूछा - 'बहन! यहाँ तुम संध्या समय अकेली कैसे बैठी हो?' तब उसने कहा- 'भैया! मैं पिहरसे पतिके साथ ससुराल जा रही थी। वे आगे चल रहे थे, मैं कुछ पीछे दूरसे आ रही थी। डाकुओने पतिका पिच किया तो मैं यहाँ आकर छिप गयी हूँ। मेरा पीहर दूर पड़ गया है और ससुराल निकट है। इस समः तुम मेरी सहायता करो।'
'उस समय मैं अविवाहित था, मेरी युवावस्था थी। राज्यका धर्म मय वातावरण था, अतः शुद्ध सात्विक परमाणुओं के कारण मेरे मनमें तनिक भी कुविचार तथा कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ। मैं उस देवीके साथ उसके ससुराल पहुँचाने गया। उसका पति पहले ही अपने घरपर पहुँच गया था। उसने घरवालोंसे कहा- 'डाकुओने मुझे घेरा था, किन्तु मैं तो प्राण बचाकर आ गया हूँ, परंतु स्त्री को उन्होंने आवश्य मार डाला होगा।' वे ऐसी बातें। कर ही रहे थे कि इतनेमें मैं उसके साथ आ पहुँचा। बहूको जीवित आयी देखकर सभी प्रसन्न हो गये। वे साभार प्रकट करते हुवे मेरी प्रशंसा करने लगे। मैंने कहा- 'यह मेरी बहन है, मैं इसे पहुँचाने आया हूँ, इसमे एहसान की कोई बात नही।' उन्होंने मुझे दो दिन अपने यहाँ रखा। बैल भी दिया और मैं सुखसे अपने घर लौट आया।। यह है श्रीमान के पितामह के राज्यकी बात।
आपके पिताके शासनकालमें मेरी अवस्था अधेड़ हों गयी थी। राजाके मंत्री पुरोहित, ग्रहस्थ, ब्राह्मण थे। यज्ञ, हवन, देवाराधन, पूजा, पाठ, जप, तप, व्रत होता था, परंतु स्वार्थभावना होनेसे आधा कार्य सम्पन्न होता था। वे लोग आधा धन हड़प जाते थे, जिससे देव-ऋषि-पितरोंके तृप्त न होनेसे वर्ष कम होती थी, आनाज-घास कम पैदा होनेसे खाध। पदार्थ मात्र पर्याप्त था। लोग रजोगुणी आहार करते थे। तेल, मिर्च, नमकीन, तीक्ष्ण, रक्ष, अम्ल, उष्णमय भोजन करते थे, लोग रजोगुणी, स्वार्थी, तनपोषक तथा शिश्रोदरपरायण थे। मेरी स्त्री मर गयी थी। मैं दूसरी स्त्री के लिए दूसरे गाँव जा रहा था। आधा रास्ता तय किया, संध्या हो गयी। पिछेसे एक स्त्री आवाज करती आ रही थी कि 'ऐ राहगीर! ठहरो!' मैं रुक गया। वह शिंगार से सुसज्जित थी, माथे पर धनकी गठरी लिए हुवे थी। उसने कहा- ' मैं अपने पतिको परित्याग करर आयी हूँ, दूसरे पतिकी खोज में जा रही हूँ। रात हो गयी है, यह धन की पोटली अपने पास रखो, प्रातः मुझे दे देना।' हम दोनों एक छोटे कस्बे में रातको रह गये। प्रातः होते मैंनेभी धनकी पोटली उस स्त्रीको दे दिया। वर्तमान रजोगुणी परमाणुओं के साथ मैंने। अपने मन में कुविचार एंव विकारोंको आने नही दिया। वह चली गयी, मैं अपनी स्त्रीकी खोजमें आगे बढ़ा, परंतु निराश होकर घर लौट आया; क्योंकि समाजके भय, राज्यके भय, धर्मके भय और ईश्वरके भयने मुझे पापसे बचाया। मैंने फिर बिना स्त्रीके जीवन व्यतीत किया। स्वार्थ, रजोगुण एवं विषयविकार मुझे सताता था, फिर भी मैंने संयम से जीवन व्यतीत किया। यह है आपके पिताके राज्यकाल की बात।
'अब अपने शासनकालकी स्थिति सुनिए- 'मैं बहुत ही बुडडा हो गया हूँ। आपके समीप मंत्री, दरोगा, वजीर, गोले एंव निम्न श्रेणीके वर्गवाले है। तमोगुण की प्रधानता होनेके कारण शुभ कार्य- यज्ञ, हवन, देवाराधन, पूजा, पाठ, जप, तप, वृत्त बंद है। चोररी, लूट, मार, व्यभिचार, जुवा, सट्टा, बेईमानी, पापाचार, असदाचार" बढ़ता जा रहा है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, विषयासक्ति प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वर्षा होती नही, अन्न-घास-तृण भी। उत्पन्न नही होते, देव-ऋषि-पितृ-तर्पण, स्वाहा, स्वधा समाप्त हो गये, महामारी, ईति-भीति दैविकोप बढ़ता जा रहा है। तामसी परमाणुओं के कारण मनुष्य मनुष्यका रक्तपात करना चाहता है।
'तमोगुणी वातावरण, तामसी आहार, तमोगुणी राज्यसत्ता, प्रजाकी तामसी प्रकृति के कारण वायुमंडल इतना दूषित हो गया, जो प्राणियोंके हृदयको अधार्मिकताकी और प्रेरित करता है। वह मेरे मनमें भी उतेजना पूर्ण प्रेरणा करते हुए कहता है कि जब तुम अविवाहित था, षोडशवर्षीया नवयुवती शिंगार से सजधजकर एकांतमें जंगलमें अकेली मिली थी, उसे यदि तुम अपनी स्त्री बना ली होती तो कितना सुख मिलता। अरे मूढ़! आया हुआ समय तुमने खो दिया, अब रो माथेपर हाथ रखकर। अपनी वह मूर्खता मुझे कोसने लगी। वह समय गया तो गया बादमें भी एक स्त्री अपने पति का परित्याग कर धनराशि लिये पति की खोजमें निकली थी, उसे अपनी स्त्री बना लेता तो कितना सुंदर रहा होता। आजतक सुखी रहता, धन भी पर्याप्त था। हाय! आये अवसरको मूर्खतावश खो दिया- इस प्रकार मेरे मनमें उद्वेग मचा। अन्याय, अमानुष्यता, अधर्ममय कुविचार मेरे मनमें रह-रहकर तो उठते रहते हैं। यधपि मैं सौ वर्षका वयोवृद्ध हूँ, मेरा शरीर भी शिथिल है, इंद्रियोंमें शक्ति नहीं है, फिर भी दुराशाएँ मेरे मन में घर किये बैठी है। यह सब राज्य-सत्ताके गंदे तमोगुणी वतावरणके कारण ही है। अब मैं रह-रहकर पश्चताप करता हूँ।'
वयोवृद्ध पुरुषने भरी सभामें इतना कहकर राजाको प्रणाम किया और क्षमा माँगी तथा अपनी बैठककी ओर चला गया। बुड्ढेकी महत्वपूर्ण आपबीती बात सुनकर प्रजा और राजाके हृदयकी आंखें खुल गयीं। अन्नदोष, सन्ङ्दोष, असदाचरण और भगवदभजन-विमुखता - इन चार कारणोंसे मनुष्य पतन की ओर जाता है। प्रत्यक्ष प्रमाण मिलनेपर राजाने भरी सभामें प्रवचन करते हूवे कहा- 'बुड्ढेकी बात चातुर्यपूर्ण थी। वयोवृद्ध पुरुष मेधावी होते है। मुझे अपनी भूलें मिल गयीं। अब मैं अपने भविष्यका ध्यान रखकर आर्योंकी वैदिक संस्कृतिके अनुसार धर्मानुकूल बर्ताव करूँगा। प्रजाके हितमें शास्त्रविहित सद्व्यहवार करूँगा।'
तदन्तर सभा समाप्त हो गयी। राजा अपने राज-भवनमें पधारे।। तत्पश्चात उन्होंने निम्न श्रेणीके मंत्रियोंको निकालकर वयोवृद्ध, त्यागी, निष्कामी, ज्ञानी पण्डितोंके मंत्रिपद पर पुरोहित बना लिया। वे राजाके द्वारा धार्मिक कार्य-यज्ञ, हवन, देवाराधन, पूजा-पाठ, जप, तप, व्रत, तीर्थ, दानादि कराने लगे। देवता, ऋषि, पितर प्रसन्न होकार्र समयानुसार श्रेष्ठ वर्षा करने लगे। जलसे खेती, धान्य, घास, वृक्ष आदिमें सर्वत्र हरियाली छा गयी। घी, दही, दूध, फूल, फल, कन्दमूल सरलतासे सबको प्राप्त होने लगे। गौ, ब्राह्मण, विरक्त, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, पशू, पक्षी, जीव-जन्तु सुख-शान्तिसे विचरने लगे। प्रजामें सुखकी वंशी बजने लगी। राजाके धर्मात्मा होनेसे प्रजा भी धर्मात्मा बन गयी।
राजाने प्रजाके लोक-परिलोक के हितमें धर्मशालाएं, देवमंदिर, विद्यालय, चिकित्सालय, गौशालाएँ, प्रौढाश्रम, अनाथाश्रम, ज्ञानभवन, स्वाध्याय-मण्डल, सतसंग-सदन, बावड़ी, नियमसे संत-समागम, सत्संग, देवदर्शन, कथा-संकीर्तन में भाग लेने लगे, फिर तो प्रजा भी उस सन्मार्ग पर चलने लगी। समस्त भूमंडलमें सम्पूर्ण प्राणी सुखी हो गए। राजाकी अप्रमेय अपरिसीम प्रशंसा सर्वत्र जय-जयकार-रूपमें गूँज गयी। मान बड़ाई के लिय्ये मांग नही की जाती और न तो वोट कराए जाते हैं। शुभकार्यमें प्रगति करनेपर स्वतः यश फैल जाता है।। अनिच्छित कीर्ति स्वयं आ मिलती है।
वर्तमान समय में इतना परिवर्तन कैसे? इस कथाके द्वारा हमें वीचारना चाहिये। हम यदि उपर्युक्त बातोंका ध्यान देकर पालन करेंगे तो हमारा व्यक्तिगत, सामाजिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय एंव पारलौकिक कल्याण होना संभव है।
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