Tuesday, February 1, 2022

LIKE THE TAJMAHAL, I TOO WILL ALWAYS BE REMEMBERED


चंबल नदी का पानी जितना शांत और ठहरा हुआ है दिखता है उसके उलट चंबल के बीहड़ों में जिंदगी उतनी ही उलटफेर से भरी दिखती है। बीहड़ों और गारो से बहता हुआ पानी चंबल में मिलता है उसी तरह डाकुओं के किस्से कही से शुरू हो चंबल में आ जुड़ते है। लेकिन इस बार चंबल ने एक ऐसा डाकू देखा जिसकी उंगलियां एसएलआर या राईफल पर जितनी तेजी से चलती थी उससे भी तेज चलता था उसका दिमाग। चंबल के डाकू की कहानी पांच दशक बाद भी लोगो के जेहन में आज भी ताजा है।


ठाकुर माधौं सिह भदौरिया। एक फौंजी, कंपाउंडर, डाकू, जादूगर, या अभिनेता माधौं सिंह ने अपनी जिंदगी में इन सब किरदारों को निभाया और हर किरदार में एक अलग छाप छोड़ी। चंबल की कहावतों के उलट एक डकैत जो दिल से नहीं दिमाग से काम लेता था। चंबल में कहावत है कि डाकू दिमाग से नहीं दिल से काम लेता है। चंबल में ठाकुर माधौं सिह भदौरिया की कहानी एक बदले की कहानी से शुरू हुई और हाथों में बंदूक थामने तक पहुंची। लेकिन ये एक आम डाकू नहीं बल्कि ऐसा डाकू जिसे चंबल ने कभी चंबल सरकार कहा तो किसी ने मास्टर जी।

चंबल से कूदने से पहले इंसान के जख़्मों पर मरहम रखने वाले ठाकुर माधौं सिह भदौरिया ने जमीर पर जख्म खाएं तो फिर खून की बारिश करने वाला वेरहम डाकू माधौं सिंह बन गया। चंबल सरकार माधौं सिंह। चंबल के डाकुओं के इतिहास में मानसिंह, रूपा, लाखन, मोहर सिंह जैसा नाम चंबल सरकार माधौ सिंह का। दुश्मनी का खात्मा करने के कत्ल किया और फिर चंबल में आतंक और खौंफ का ऐसा साम्राज्य खडा़ कर दिया कि तीन तीन राज्यों की पुलिस रात दिन उसके सफाएं का ख्वाब देखने लगी।

११ साल के बीहड़ों के जीवन में दर्ज सैकड़ों मुकदमें माधौं सिंह और उसके गैंग पर दर्ज हुए। और पुलिस मुठभेड़ों से बार बार बच निकलने वाले माधौं सिंह ने जब समर्पण किया तो अकेले नहीं ५५० बागियों ने उसके साथ बंदूके रख दी। लेकिन माधौं सिंह ने इस बार भी एक नए रूप में जनता के सामने आ गया। और ये था चंबल सरकार डाकू माधौं सिंह दुनिया का सबसे बड़ा जादूगर माधौं सिंह। और बन गया असली जादूगर जिसकी कलाकारी देखने के लिए इलाकों में भीड़ लग जाया करती थी। आज ऐसे ही जादूगर की कहानी के सच तक आपको ले कर चलते है। देखते है माधौं सिंह का सफर कहां से शुरू हुआ कहां तक पहुंचा और फिर कैसे खत्म हुआ।

ये चंबल का इस पार का इलाका है। इस पार यानि उत्तरप्रदेश का हिस्सा। आगरा जिले का पिनाहट थाना। इसी थाने के का गांव गढ़िया बघरैना। चंबल के बीहड़ों में बसे दूसरे छोटे से गांव जैसा। गांव से सटा हुआ बीहड़।

गांव के अंदर जाने पर कुछ पानी सूखने से बस नाम भर के रह गए कुएं और फिर एक पुराने पेड़ के नीचे बना हुआ मंदिर। मंदिर के सामने खुलता हुआ ये दरवाजा। घर को देखकर शायद ही कोई ये अंदाजा लगा सकता है कि इस घर से शुरू हुई चंबल के एक खतरनाक डाकू की कहानी।

ठाकुर माधौं सिह भदौरिया किसान परिवार में पैदा हुआ। उत्तर-प्रदेश का गांव घगरैना की गढ़िया (बघेना) स्थित है विकास खंड पिनहाट, थाना-वासौनी, आगरा जिले की तहसील बाह में इसी गांव के मूल बाशिंदे पोप सिंह भदौरिया के घर में जन्मे थे पांच बच्चे. तीन लड़के (भगवान सिंह, भैरों सिंह और माधव सिंह) और दो लड़कियां (गोमावती और पार्वती). पोप सिंह के बेटे माधव (माधो) का जन्म जन्माष्टमी वाले दिन हुआ था. बाद में माधव सिंह की शादी हुई विमला देवी से जिनकी 6 संतानें हुई. निर्मला, ऊदल सिंह, हरिभान सिंह, शीला देवी, सहदेव सिंह और सुधा यही 6 संतानें थी। पोप सिंह भदौरिया की संतानों में तीसरे नंबर का बेटा माधव सिंह इंटर पास कर चुका था. सौम्य स्वभाव का माधव फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने में माहिर था. 1954 में माधव सिंह सेना में सिपाही भर्ती होने के बाद हवलदार बन गया। पोस्टिंग राजपूताना राइफल्स की 17वीं बटालियन की मेडिकल-कोर में मिली. माधव के बेटे सहदेव सिंह भदौरिया के मुताबिक, ‘भारतीय फौज में पिता माधव सिंह का सीरियल नंबर 2842905 था. सेना में जाने से पहले ही साल 1950 में उनकी (पिता माधव सिंह) की शादी विमला देवी से हो चुकी थी।

शोहरत ने सियासत में फंसवा डाला

माधव सिंह के बेटे सहदेव सिंह बताता हैं ‘पिताजी के ठाठ-बाठ गांव के कुछ लोगों को हजम नहीं हो रहे थे. रही-सही कसर पूरी हो गई जब वे सेना में भर्ती हो गए। साल 1959 में यूपी में प्रधानी के चुनाव का वक्त था. इलेक्शन को लेकर गांव-गांव में पार्टी-बंदी शुरू हो चुकी थी. पिताजी उन्हीं दिनों सेना से 15 दिन की छुट्टी पर गांव आए हुए थे. मौका पाकर विरोधियों ने नबंवर 1959 में पिता के खिलाफ थाना पिनहट में झूठा मुकदमा दायर करा दिया। उसी दौरान पिताजी ने सेना से इस्तीफा दे दिया और फिर घर लौट आए। जहां पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। कुछ दिन जेल में काटकर पिताजी बाहर आ गए'।


अपनी पत्नी के साथ सहदेव सिंह
सेना का हवलदार गरीबों का डॉक्टर बन गया

सेना में छुट्टी मे आने के बाद माधव सिंह ने पैतृक गांव के पास ही स्थित गांव भदरौली में क्लिनिक खोल कर डॉक्टरी शुरू कर दी। सेना के मेडिकल कोर का अनुभव बहुत काम आया। दुश्मनों को यह भी नहीं पचा। विरोधी उग्र हुए तो बे-वजह ही रोज-रोज झगड़े होने लगे। खुद ही दुश्मन बढ़ते गए. चंबल घाटी में उन दिनों थाना पोरसा गांव दर्गदास की गढ़ी के मूल निवासी बागी/डाकू मोहर सिंह तोमर की तूती बोलती थी. वो तीन साल से बागी थे. मोहर सिंह डाकू अक्सर चोरी-छिपे इलाज के लिए माधव सिंह के पास आया करते थे। गांव की ओछी राजनीति के बारे में माधव सिंह से मोहर सिंह को पता चला।

डाकू की गोली ने डॉक्टर को ‘डाकू’ बना डाला

एक दिन मोहर सिंह तोमर डाकू के हुक्म पर गांव में माधव सिंह को न्याय दिलवाने के लिए पंचायत बैठी. पंचायत में माधव सिंह पक्ष के एक आदमी के हाथ-पैर तोड़ दिए गए. इससे बौखलाये चंबल के खूंखार डाकू मोहर सिंह ने भरी पंचायत में गोलियां झोंक दीं. जिसके बाद पुलिस ने पूर्व फौजी माधव सिंह और उसके पक्ष के घायल शख्स को ही मामले में मुजलिम बना डाला. अब तक डाकू मोहर सिंह ने माधव सिंह से यह बात छिपाकर रखी कि वह ही चंबल घाटी के खूंखार डाकू/बागी मोहर सिंह तोमर हैं। बात खुली तो मोहर सिंह तोमर ने माधव सिंह को मशविरा दिया कि वो वापस जाकर सेना की नौकरी करे. गांव में दुश्मनों को वो (डाकू मोहन सिंह तोमर) खुद ही निपटा देंगे. माधव ने मोहर सिंह की बात नहीं मानी. लिहाजा मोहर सिंह तोमर से जिद करके उन्हीं के साथ माधव सिंह भी बंदूक लेकर चंबल के जंगल में बहैसियत-बागी (डाकू) उतर गए।

गांव में दुश्मनी, उबलता हुआ खून, किस्सों में बहादुरी और चंबल का पानी ठाकुर माधौं सिह भदौरिया को बीहड़ में ले आया।

चंबल में डकैतों के गैंग्स हमेशा इंतजार करते रहते है कि कब कोई इंसान कानून की हद पार कर चंबल की सरहद में घुस आए। माधौं सिंह भी अब कानून तोड़ चुका था और उसको चंबल की शरण चाहिए थी। चंबल में उस वक्त दर्जनों गैंग ऑपरेट कर रहे थे लेकिन माधौं सिंह को शऱण मिली जंगा यानि जंगजीत सिंह के गैंग में। जंगजीत सिंह का गैंग उस वक्त उत्तरप्रदेश के इलाके में एक आंतक का प्रयाय बना हुआ था। माधौं सिंह ने कुछ दिन तक इसी गैंग में काम किया और जल्दी ही अपना रास्ता भी तलाश करना शुरू कर दिया। सेना में भले ही माधौं सिंह मेडीकल कोर में था लेकिन उसने सेना के हथियारों की ट्रैनिंग ली थी। फौंज का अनुशासन उसको यहां भी काम आ रहा था। जल्दी ही माधौं सिंह ने कुछ आदमियों को अपने साथ लिया और एक नया गैंग खडा कर लिया। इस गैंग को माधौं सिंह के दिमाग ने एक बड़े गैंग में तब्दील कर दिया।

माधव सिंह भदौरिया
एक रात में पुलिस को परोसीं तीन दुश्मनों की लाशें


चंबल के बीहड़ में उतरने के बाद माधव सिंह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। भादों की एक रात वे हथियार के साथ गांव में पहुंचे। जहां उन्होंने चंद लम्हों में तीन दुश्मनों की लाशें पुलिस की झोली में फिंकवा दीं। इसके डेढ़ साल बाद ही माधव ने गांव में घुसकर चार और दुश्मनों को गोलियों से छलनी करके पिछला बकाया सब हिसाब बराबर कर लिया। माधव सिंह के बेटे सहदेव सिंह ने बेबाक बातचीत में बताया, ‘साल 1964-65 तक पिताजी ने अपने सब दुश्मन निपटा दिए। आठ दुश्मनों के नाम मुझे अब भी याद हैं। पिताजी को बस दुख इस बात का हुआ कि जब उन्होने (माधव सिंह ने) अपने सब दुश्मन निपटा दिए और जब वक्त चंबल में अपना और डाकू मोहर सिंह तोमर का सिक्का चलाने का आया तो 1965 के अंत में मुरैना में हुई मुठभेड़ में मध्य प्रदेश पुलिस ने मोहर सिंह तोमर को मार डाला। उस मुठभेड़ में पिताजी खुद भी साथ थे। यह अलग बात है कि मोहर सिंह तोमर की मौत के बाद उनके छोटे भाई निहाल सिंह तोमर ने गैंग की बागडोर संभाल ली।’

चंबल में पचास के आखिरी दशक में एक के बाद एक हुए बड़े एनकाउंटर्स ने बागियों की एक पूरी खेप का सफाया कर दिया था। मानसिंह, रूपा, पुतली, सुल्ताना जैसे दुर्दांत बागियों को ठिकाने लगाया जा चुका था, ऐसे में माधौं सिंह ने तय कर लिया कि वो अब सिर्फ एक गैंग का नहीं चंबल का सरदार बनेगा। गैंग ने नए ऩए हथियार इकट्ठा करना शुरू कर दिया। माधौं सिंह अपने गांव में धावा बोलकर फिर से अपने दुश्मनों का सफाया कर चुका था। इस दुश्मनी में आठ लोगों का कत्ल हो चुका था। लेकिन अब वापसी की कोई राह नहीं थी सो माधौं सिंह ने अब अपने गैंग से वारदात करना शुरू कर दिया। पहले उत्तरप्रदेश के इलाके को और फिर चंबल पार कर मध्यप्रदेश और उसके बाद राजस्थान के इलाकों में भी अपने पैर जमा लिए। लूट, डकैती और कत्ल गैंग का काम तो यही था लेकिन माधौं सिंह जानता था कि जितनी बार अपनी पनाहगाह से वारदात करने गैंग बाहर निकलेगा उतनी बार पुलिस की निगाह उन पर होगी। इसके अलावा साठ के दशक में डाकुओं का सामना करने के लिऐ सरकार ने गांव गांव में लाईँसेसी हथियार दिए थे लिहाजा गांववाले भी कई बार गैग का सामना कर उठते थे और इससे गैंग को कई बार बड़ा नुकसान हो सकता था। लिहाजा माधौं सिंह ने एक दूसरा आसान रास्ता पकड़ा। पकड यानि अपहरण का धंधा। पहले एक पकड़ फिर दूसरी पकड़ और फिर तीसरी। ये पकड़ का काम माधौं सिंह को रास आ गया।

पकड़ का काम शुरू हुआ तो बढ़ता ही गया। माधौं सिंह गैंग का नाम फैलता जा रहा था। इस वक्त चंबल में एक दूसरा बड़ा गैंग मोहर सिंह का था। जल्दी ही मोहर सिंह के साथ साथ बीहड़ों में माधौंसिंह का नाम भी गूंजने लगा था।

चंबल में माधौं सिंह ने पकड़ को एक उद्योग में बदल दिया। पैसा कमाने का आसान तरीका और इसके लिए भी ऐसा जाल तैयार करना कि शिकार खुद शिकार के पास चल कर आ जाएं। चंबल में माधौं सिंह का सिक्का चल रहा था। पुलिस के पास सिर्फ ईनाम बढ़ाने से ज्यादा कुछ भी नहीं रह गया था। हजार की रकम के जमाने में लाखों का ईनाम। चंबल में माधौं सिंह डेढ़ लाख का ईनामी डाकू जिंदा या मुर्दा। माधौं सिंह ने अपना ठिकाना शिवपुरी के जंगलों में बना लिया था। पकड़ करने के बाद फिरौंती की रकम हासिल करने के नए ऩए तकीरे इस्तेमाल करना शुरू किया। कत्ल और डकैती की वारदात करने की बजाय माधौं सिंह ने पकड़ करने के लिए दुस्साहस दिखाना शुरू कर दिया। एक एक दो की बजाय सामूहिक पकड़ करने के तरीके ने पुलिस फोर्स को सकते में ला दिया। माधौं सिंह ने पकड़ करने के लिए एक से एक तरीके ईजाद कर लिये थे। यहां तक पिकनिक करने आएं हुए लोगो का सामूहिक अपरण करने से गुरेज नहीं किया।

माधौं सिंह ने पुलिस के अधिकारी की वर्दी पहनी और कुंड पर पिकनिक कर रहे लोगो में से एक के किसी वारदात में शामिल होने की बात कही। अपने साथ एक मुखबिर से उसकी पहचान कराने की बात भी कही। मौंके पर मौजूद पुलिस अधिकारी ने आम लोगो को इकट्ठा कर माधौं सिंह के सामने पेश कर दिया। लेकिन असली पुलिस को देखकर मुखबिर फरार हो चुका था अब माधौं सिंह ने फैसला किया कि इन तमाम लोगो को ही पकड बना लिया जाएं। लेकिन इतने लोगो को साथ कैसे ले जाया जाएं। तब माधौं सिंह ने असली पुलिस की मदद ली। माधो सिंह ने कहा कि इन लोगों को सेंटर पर ले जाकर पूछताछ करनी होगी। जिन लोगो को उसने अपने ताबे में लिया उनके हाथ देख कर ये फैसला किया गया था कि ये किस तरह के परिवार से रिश्ता रखता है। अब इतने लोगो को एक जीप में नहीं ले जाया जा सकता है इसीलिए पुलिस के अधिकारी से माधौं सिंह ने पुलिस का ट्रक मांगा। अधिकारी ने आनाकानी की तो माधौं सिंह ने उसको अपने सेना में सीखे गए अधिकारियों के बातचीत के तरीके से विश्वास दिला दिया कि वो एक उच्चाधिकारी है औऱ फिर पुलिस का ट्रक लिया उसमें बैठाकर साथ ले कर चल दिए। कुछ दूर जाने के बाद माधौ सिंह के साथियों को लगा कि पीछे आ रहा एक ट्रक जिसमें भेड़े लदी थी पुलिस का है तब माधों सिंह ने ट्रक के ड्राईवर के पीछे बनी रहने वाली खिड़की से राईफल निकाल कर निशाना लगाया और गोली ने सीधा पीछे वाले ट्रक ड्राईवर का सीना चीर दिया। जैसे ही ट्रक का एक्सीडेंट हुआ तो तमाम शहर में खबर हो गई कि पुलिस के वर्दी में डाकू दर्जनों लोगो को लेकर निकल गए।

पुलिस में हड़कंप मच गया। लेकिन माधौं सिह तो पकड़ लेकर फरार हो चुका था। अब सिर्फ पकड़ का पैसा जाना था सो वो माधौं सिंह के पास चला गया। शिवपुरी के अजय मित्तल जी अब लगभग 80 साल के है लेकििन उनको आज भी याद है कि किस तरह से उनको माधों सिंह ने दो महीने तक जंगलों में रखा। रात भर डकैत चंबल में चलते रहते थे। एक महीने तक नंगे पैर चंबलों के उन बीहड़ों में कांटों ने पकड़ों के हााल खराब कर दिए थे। एक महीने बाद उनको मुरैना के जंगलों मे ंजाकर जूते नसीब हुए थे।अजय जी को याद है कि जिस भी इलाके में माधों सिंह का गैंग पहुंचता था उस इलाके तमाम गैंग आकर माधो सिंह से मिलकर उसका सम्मान करते थे। माधों सिंह से मिलने आने वाले डाकू अपनी हैसियत के हिसाब से कई खेत पहले जूते उतार कर ही माधों सिंह से मिलने पहुंचते थे और मुलाकात के बाद माधों सिंह से उसका निशाना दिखाने के जिद भी करते थे। माधों सिंह आंख पर पट्टी बांध कर फिर तीन आदमियों के बीच में रखे हुए किसी एक बजूके पर निशाना लगाता था अजय जी का कहना है उन्होंने कई बार ये अपनी आंखों से देखा और एक बार बी माधों सिंह का निशाना नहीं चूका था। अजय सिंह दस हजार रूपए के पहुंचने तक माधों सिंह के साथ घूमते रहे। उनके मुताबिक गांव वालों का माधों सिंह को बहुत सपोर्ट था जिस इलाके में भी जाता था गांव वाले अपनी कहानी माधौं सिंह को सुनाने आते थे।माधौं सिंह के अपरहण की कहानी चंबल के बाहर तक आने लगी थी तो फिर माधौं सिंह ने बाहर से भी पकड़ कर ली। इस बार उसका निशाना बना एक मशहूर मूर्ति तस्कर मोहन। माधौं सिंह एक बार दिल्ली में गया था तो वहां उसकी मुलाकात एक होटल में मूर्ति तस्कर से हुई थी। माधौं सिंह ने उसको अपना परिचय मूर्ति चोर के तौर पर दिया। और कहा कियदि उसको मूर्ति चाहिएं तो वो दिलवा सकता है। लालच में मोहन ग्वालियर आ पहुंचा।ग्वालियर आने पर शहर से मुखबिर उसको लेकर ग्वालियर के जंगल में पहुंचा। सड़क से कुछ किलोमीटर जाते ही उसोक दिख गया कि ये लोग तो डाकू है लेकिन उसके हाथ में अब कुछ नहीं था। ड्राईवर को वापस भेज दिया गया और मोहन के बदले उस वक्त तीन लाख रूपए की फिरौती वसूली गई थी। पुलिस ने इस मामले में भागदौड बहुत की लेकिन वो माधौं सिंह के गैंग तक नहीं पहुंचे।

माधौं सिंह गैंग्स पांच सौ से ज्यादा पकड़ कर चुका था। लेकिन पुलिस भी एनिमी नंबर दो यानि दुश्मन नंबर दो बन चुके माधौं सिंह को साफ करना चाहती थी। हर तरफ से पुलिस के मुखबिर माधौं सिंह की तलाश में जंगल जंगल की खाक छानने लगे। इस पर माधौं सिंह ने भी अपनी योजना में तब्दीली करने की सोची। लेकिन उससे पहले ही एक बड़ी मुठभेड़ उसकी पुलिस से हो गई। और मुठभेड़ भी ऐसी की दिन में अंधेरा छा गया। गोलियां ही गोलियों। लगभग तीस घंटें चली इस मुठभेड़ में गैंग में से सिर्फ माधौंसिंह और उसका एक साथी ही निकल पाएं बाकि सभी पुलिस की गोलियों का निशाना बन गए। -घंटों की इस मुठभेड़ में अखबारों में लिखा गया कि माधों सिंह को पुलिस की गोलियों ने छलनी कर दिया है। लेकििन अगले ही दिन माधों सिंह गैंग का एक आदमी परिवार के पास पहुंचा और बताया कि पुलिस की गोलियों से इसब बार भी मास्टर बच निकला लेकिन इस मुठभेड़ ने माधौं सिंह का हौंसला जमीन से मिला दिया।

यही से माधौं सिंह ने रणनीति बदल ली। अब वो विजयपुर के जंगलों में पहुंच गया जहां उस तक सिर्फ कुछ ही लोग पहुंच सकते थे। यहां तक गैंग के मेंबर ही सीधे उस तक नहीं पहुंच सकते थे माधौं सिंह ने वारदात का अपना तरीका बदल लिया। इस वक्त तक चंबल सरकार बन चुका माधौं सिंह का एक खत भी किसी भी संपन्न आदमी की रीढ़ कंपा देता था। माधौं सिंह को नए -नए हथियारों की कमी नहीं थी। पुलिस को जो हथियार 1971 के बाद मिले वो पहले से ही माधौं सिंह के पास थे।

लेकिन 11 साल के चंबल के बीहड़ों के सफर ने माधौं सिंह को थका दिया था। जंगल में रहना है तो जंगल का कानून मानने के हिसाब से माधौं सिंह अब गैंग तो चला रहा था लेकिन उसका मन बीहड़ के बाहर ज्यादा लगने लगा था। माधौं सिंह अब कभी कभी अपने मरने की खबर फैला कर इस दौरान अपने परिजनों के साथ शहरों में रहने चला जाता था या फिर परिवार को अपने पास बुला लिया करता था।

पुलिस के साथ मुठभेड़ें रोज का किस्सा हो गयी थी। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान पुलिस की एक संयुक्त कमान चंबल में डाकुओं के खात्में के लिए पुरजोर कोशिशों में लगी थी। एक के बाद एक मुठभेड़ में डाकू मारे जा रहे थे तो दूसरी और पुलिस डाकुओं का मुखबिर तंत्र तोड़ने में कामयाब हो चुकी थी। गैंग के अंदर पुलिस के मुखबिर धंस चुके थे। ऐसी ही एक मुठभेड़ की प्लानिंग करने वाले आर एल वर्मा जी खुद बता रहे है कि उस दिन क्या हुआ जब चंबल के इतिहास में दर्ज एक बड़ी मुठभेड़ की तैयारी की गई।13 मार्च 1971 की इस मुठभेड़ में पुलिस ने माधौं सिंह के गैंग के सबसे भरोसे के आदमी कल्याण उर्फ कल्ला, गर सिंह , चिंतामण, बाबू, और विशंबर सिंह जैसे 13 डकैतों को ठिकाने लगा दिया। पुलिस ने इस घटना की खबर माधौं सिंह तक पहुंचाने के लिए एक खास इंतजाम किया। आकाशवाणी से ये समाचार सुना



माधौं सिंह कहा था कि रोट खऊवां बच गएं गैंग तो पूरी निबट गई। इस एनकाउंटर ने माधौं सिंह की कमर तोड़़ कर रख दी। माधौं सिंह की सिक्स्थ सेंस ने उसे बता दिया कि चंबल में अब उसकी जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है और तब उसने एक फैसला कर लिया। ये फैसला था बागी जीवन से रिश्ता तोड़ देने का।लेकिन ये काम इतना आसान नहीं। चंबल की सबसे मशहूर कहावतों में से एक कहावत है चंबल में कूदने की तारीख के बाद किसी बागी की जिंदगी में दूसरी तारीख नीम के पत्तों में लिपट कर शहर आने की ही होती है। मुठभेड़ में मारे गए बागियों की लाशों को नीम के पत्तों में लपेट कर ही रखा जाता था। माधौं सिंह को मालूम था कि नीम के पत्तों में लिपटने से बचना है तो योजना कोई शानदार ही होनी चाहिए। और कुछ दिन में ये योजना भी तैयार हो गई।

माधौं सिंह ने सरेंडर करने की सोच ली। चंबल का सबसे बड़ा बागी अब कानून के हाथों में जाना चाहता था। लेकिन पुलिस और कानून तो उसकी तलाश में था ऐसे में फिर माधौं सिंह के शातिर दिमाग ने ऐसी चाल चली कि एक दो दस नहीं बल्कि पांच सौ से ज्यादा बागियों को कानून के सामने ला खड़ा किया। हिंदुस्तान के सबसे बड़े समर्पण की पटकथा लिखने में माधौं सिंह ने फिल्मी उतार-चढ़ाव को भी मात दे दी। माधौं सिंह को याद था कि संत विनोबा भावे चंबल में डाकुओं को समर्पण करा चुके थे। मानसिंह के गैंग के लोकमन दीक्षित और दूसरे डाकुओं ने विनोबा जी के सामने हथियार डाले थे और वो अपनी सामान्य जिंदगी जी रहे थे। और फिर एक दिन संत विनोबा भावे के सामने रामसिेह नाम का शख्स जा पहुंचा और उसने कहा कि चंबल के खूंखार डाकू बंदूकें रखना चाहते है। बिनोबा जी ने कहा कि अब उनका शरीर साथ नहीं दे रहा है लिहाजा वो जे पी को एक खत लिख रहे है चाहे तो वो वहां जासकते है।

रामसिंह जेपी यानि जय प्रकाश नारायण जी के पास पटना जा पहुंचा। जेपी ने पूछा कि आप कौन है और आपका डाकुओं के क्या रिश्ता है।यहां भी तीन दिन तक माधो सिंह ने अपना परिचय राम सिंह ठेकेदार के तौर पर ही दिया लेकिन जब उसन ेदेखा कि जयप्रकाश जी ज्यादा बात नहीं कर रहे है तो उसने खुद खड़ा होकर कहा कि वही कुख्यात डाकू माधों सिंह है

जयप्रकाश जी ये सुनकर चौंक उठे कि ये सामने खड़ा हुआ शख्स और कोई नहीं बल्कि चंबल का सबसे बडा ईनामी डाकू माधौं सिंह है। जिसकी तलाश में पुलिस चंबल का जर्रा-जर्रा छान रही है वो शख्स बेखौंफ उनके सामने खड़ा है। जे पी इस पर तैयार हो गए। लेकिन शर्त रख दी कि ज्यादा से ज्यादा समर्पण हो सिर्फ माधौं सिंह का गैंग नहीं। इस नामुमकिन से काम को भी माधौं सिंह ने अपने हाथ में ले लिया।

सबसे बडा़ रोड़ा था मोहर सिंह गुज्जर । मोहर सिंह गुज्जर पर चंबल के इतिहास का सबसे बड़ा ईनाम था। सबसे बड़ा गैंग था। सबसे ज्यादा मुठभेडे़ पुलिस के साथ थी। कत्ल की इतनी वारदात के बाद मोहर सिंह गुज्जर को लग रहा था कि शायद फांसी का फंदा या फिर पुलिस की गोली ही उसकी नियति है लेकिन ठाकुर माधौं सिंह ने उसको मनाने के लिए कई हथकड़ें आजमाए और आखिर में तैयार कर लिया।

ठाकुर माधौं सिंह ने अपने बेटे सहदेव सिंह के सिर पर हाथ रख कर मोहर सिंह गुज्जर के सामने कसम काई कि अगर उन लोगो को कुछ हुआ तोजे पी अनशन पर चले जाएंगे। मुरैना के पगारा डैम पर इस समर्पण की तैयारी हुई। हजारों की भीड़ डाकुओं को देखने पहुंची। ठाकुर माधौं सिंह और मोहर सिंह गुज्जर सहित 550 डाकुओं ने हथियार डाले। डाकुओं के लिए शर्तों मनवाने के बाद ठाकुर माधौं सिंह ने डाकुओं के शिकार लोगो के लिए भी मुआवजे और मदद की मांग की थी जिसने उसके खिलाफ ज्यादातर लोगों की नफरत खत्म हो गई।

ठाकुर माधौं सिंह को जेल हुई और उसने मुंगावली खुली जेल में अपनी सजा काटी। लेकिन माधौं सिंह हमेशा कुछ नया करने की धुन में रहता था तो यहां भी उसने एक नया काम सीख लिया। लोगो को जादू दिखाने का। चंबल सरकार जो कभी लोगों में खौंफ जगाता था अब वो उनको हैरान कर रहा था अपने जादू की कला से।

ठाकुर माधौं सिंह की कहानी चंबल की हैरंतअगेंज हकीकतों में से एक है। एक सीधे-साधे इंसान के डाकू बनने और फिर डाकू से वापस अकेले नहीं सैकड़ों लोगो को वापस इंसान बनाने की कहानी। पुलिस अधिकारी भी मानते है कि चंबल के उस ऐतिहासिक समर्पण में ठाकुर माधौं सिंह की भूमिका अहम थी

तो ये थी फौंजी माधौं सिंह के चंबल का सरदार माधौं सिंह और फिर जादूगर सम्राट माधौं सिंह बनने की हकीकत। ठाकुर माधौ सिंह ने सालो तक अपनी जादूगरी के कारनामों से लोगो का दिल बहलाया। अपने शो में वो पुलिस वालों को फ्री इंट्री देता था। सालों तक एक दूसरे से खौंफ खाने वाले दुश्मनों की शायद ये नई दोस्ती थी। 1991 में माधों सिंह की मौत हो गई।


Madho Singh, one of the big names among dacoits of the Chambal between 1960 and 1972, eluded the police throughout his notorious career till his surrender with 500 other dacoits to Jayaprakash Narayan. His friendship with Dacoit Mohar singh was well known in valley. He was involved in 23 murders and nearly 500 kidnapping cases, and carried an award of Rs 150,000 on his head. Before taking to the ravines he worked in the Army as a male nurse in the 18th Rajputana Rifles for a year. After that he quit and started practising homeopathy in his village. The fame in village started rivalry and that made him entry to ravines of Chambal. He joined Jangjeeta Singh gang. The commanding nature from Army time very soon made him to form a separate gang and leader of it. He mostly operated in the areas of Sawai Madhopur, Ajmer, Karoli and Jalon. After his surrender he was one of the best magicians of the country. He used to do the disappearing act a long time ago. But gun is gone and in its place has come the magician's wand.


Singh puffs meditatively at his cigar before the show while his son Sahdev (right) sells tickets: Intelligent salesmanship

The former dacoit is obviously a man of many parts. Before taking to the ravines he worked in the Army as a male nurse in the 18th Rajputana Rifles for a year. After that he quit and started practising homeopathy in Gwalior. Restless, he left that too and took to dacoity under the guidance of such stalwarts as Lakhan Singh and Firangi Singh.
Singh's troupe of two dozen is currently holding shows in the historic Phoolbagh in Kanpur, barely 90 km from dacoit Phoolan Devi's territory. Among his group are his son, Sahdev Singh, a school student, and Shoma, an 18-year-old, whom Singh has provided employment since her father, a constable, is in jail. Five members of the troupe are ex-dacoits.
When it comes to salesmanship, the 47-year-old Singh, a matriculate, knows his job well. Though an assistant declares that the show has passed through all the metropolitan cities in the country, Singh admits that the performances have been restricted to dacoit territory - Agra, Firozabad, Gwalior and Lalitpur, and now Kanpur.

The publicity that dacoits receive in this region is obviously good for business. To drive the point home, posters outside stress the magician's antecedents: "Chambal ka sher Sardar Madho Singh, duniya ka sabse bada jadugar." (The tiger of the Chambal Sardar Madho Singh, the world's greatest magician).

Though he was given up the life of violence, he nevertheless praises the dacoits and excuses their actions saying that "dacoits are not born, they are made." "Visit the homes of the dacoits," he declares, "and see for yourself how miserable are their lives. The dacoits want to come out of the ravines and the Government should consider this seriously." He claims that he receives several letters daily from dacoits who want to surrender. On the current crop he remarks: "Malkhan Singh and Chhabiram Pothi's gangs I respect. But as for the others..."


Singh in the act of suspending his assistant Shoma: A subdued audience

The 40 items in his show take 90 minutes but the length of time varies upon the magician's mood and sobriety Singh has a fondness for liquor. During this while, the awe and fear with which his audience regards him is apparent. They clap only when he asks them to; and if he or his assistants make a gaffe, it is not greeted with laughter but with silence. Well-to-do spectators prefer to buy cheaper tickets and sit well away from the dais. Women rarely make an appearance wearing their gold or other jewellery. And if Singh requests one of the audience to appear on the stage, the person does so with obvious reluctance.

An interesting feature of the performance is the presence of a large number of policemen - without tickets. Says Singh: "I do not want people who have hunted me for 13 years, to pay money just to have a look at me." He is partial towards politicians, law enforcers and press men and says that without assistance from politicians and the police, no dacoit can survive. And as for the press, well, the larger the coverage a dacoit receives, the more highly regarded is he in the ravines.

While film music from movies on dacoits like Bindiya Aur Bandook, Mujhe Jeene Do and Sholay fills the air just before the show, it is easy to see the tremendous pride and smugness that is Singh's even to this day. Says he: "I was born in Agra district. Like the Taj Mahal, I too will always be remembered." But in any case in a different context.

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