Monday, December 21, 2020

A FOLK TALE OF FEISTY WARRIOR TEELU RAUTELI - IMMORTAL RAJPUTS


“धन धन छै तु गढ़ की नारी

जै जै हवेली तेरी तीलू रौतेली


उत्तराखंड बहुत से वीर-वीरागनाओं की प्रसूता भूमि रही हैं। जिन्होंने अपने अदम्य शौर्य का परिचय देकर अपना नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज कराया हैं। ऐसी ही एक महान वीरागना का नाम हैं तीलू रौतेली। जिनके नाम पर प्रदेश में प्रतिवर्ष कुछ महिलाओं को पुरस्कृत भी किया जाता हैं। प्रतिवर्ष आठ अगस्त को इनका जन्मदिवस मनाया भी जाता हैं। तीलू रौतेली एक ऐसा नाम हैं जो रानी दुर्गावती, चांदबीबी, जियारानी, लक्ष्मीबाई जैसी पराक्रमी महिलाओं में अपना एक उल्लेखनीय स्थान रखती हैं। १५ से २२ वर्ष की आयु में ७ वर्ष तक लगातार युद्ध लड़ते हुए वीरांगना तीलू रौतेली ने खैरागढ, टिकोलीखाल, उमटागढ़ी, सल्ट महादेव, भिलण भौण, ज्युन्दालु, चौखुटिया, सराईखेत, कालिंका खाल आदि स्थानों के युद्ध जीतकर इतिहास के स्वर्णाक्षरों में अपना नाम अंकित कर दिया ।

उनका मूल नाम तिलोत्तमा देवी था। इनका जन्म ८ अगस्त १६६१ को ग्राम गुराड़, चौंदकोट (गढ़वाल) के भूप सिंह (गोर्ला)रावत राजपूत तथा मैणावती रानी के घर में हुआ। तीलू के दो भाई भगतु और पत्वा थे।

उस समय गढ़वाल में पृथ्वीशाह का राज था। कैंत्यूरी राजा धाम शाही की सेना के साथ तीलू रौतेली ने युद्ध किया था ।इसी धाम शाही ने गढ़वाल के राजा मानशाह पर आक्रमण किया था जिसके कारण तीलू रौतेली के पिता, भाइयों और मंगेतर को जान गंवानी पड़ी थी। पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी ने ‘गढ़वाल का इतिहास’ नामक पुस्तक में लिखा है कि राजा मानशाह १५९१ से १६१० तक गढ़वाल के राजा रहे और १९ साल राज करने के बाद ३४ साल की उम्र में वे स्वर्ग भी सिधार गये थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि तीलू रौतेली का जन्म ईस्वी सन १६०० के बाद हुआ था।

भूप सिंह गोरला जोकि १७ वीं सदी में चौन्दकोट गढ़ का गढ़पति होता था वह गुराड़स्यूं गॉव के गुराड़ का निवासी था. तब रिंगवाडा रावत, सिपाही नेगी व गोरला रावत चौन्दकोट गढ़ के रसूकदार थोकदार माने जाते थे, इडा के सिपाही नेगियों के पास बेहद उन्नत घोड़े व सैन्य टुकड़ी हुआ करती थी जिसका काफी दबदबा भी था इसीलिए उन्होंने तल्ला इड़ा में एक बिशाल क्वाठा (किला) बनवाया था. लेकिन ये भी सच था कि इनकी ज्यादातर जिंदगी गढ़राज्य की सीमा सुरक्षा में ही चली जाती थी. जहाँ इतिहासकार इसे १७ वीं सदी की घटना या वृत्तांत समझते हैं वहीँ मुझे लगता है कि कहीं न कहीं यह लेखकीय गलती है क्योंकि सत्रहवीं सदी तक तो कुमाऊ में चंद वंशीय राजा राज करते थे जबकि तीलू रौतेली का युद्ध कत्युरी काल का है जो संवत ७०० ई. का माना जा सकता है. ऐतिहासिक दृष्टि से अभी इस पर और अधिक कार्य की आवश्यकता है ये मेरा मानना है।


तीलू रौतेली को तीलू रावत या तीलू गोरला क्यों नहीं बोला गया आज तक यह प्रश्न किसी ने नहीं उठाया अत: मैं इस जिज्ञासा को शांत कर दूँ कि तीलू का बचपन से ही शौक मर्दों जैसा रहा. घुड़सवारी करना, तलवार चलाना इत्यादि. वह बचपन से ही अपने को पुरुष कहलाना पसंद करती थी. तीलू को रौतेली इसलिए कहा गया कि चौन्दकोट के सीमान्त क्षेत्र में आज भी ननद को रौतेली ही कहा जाता है।

ज्ञात हो कि १५ वर्ष की आयु में तीलू रौतेली की शघाई इडा गाँव (पट्टी मोंदाडस्यु) के थोकदार भुप्पा नेगी के पुत्र हीरा नेगी के साथ हुई थी ! कहीं पांवडो में हीरा नेगी का नाम आया है फिर भी यह तय नहीं है कि कत्यूरियों से युद्ध करते हुए सराईखेत (कुमाऊ दुशान) में मरने वाला सिपाही नेगी हीरा नेगी वही था जिसकी शघाई तीलू रौतेली से हुई थी. इसी उम्र में गुरु शिबू पोखरियाल ने तीलू को घुड़सवारी और तलवारबाजी के सारे गुर सिखा दिए। उस समय गढनरेशो और कत्यूरियों में पारस्परिक प्रतिद्वंदिता चल रही थी। कत्यूरी नरेश धामदेव ने जब खैरागढ़ पर आक्रमण किया तो गढनरेश मानशाह वहा की रक्षा की जि़म्मेदारी भूप सिंह को सौंपकर स्वयं चांदपुर गढ़ी में आ गया। भूप सिंह ने डटकर आक्रमणकारियों का मुकाबला किया, परंतु इस युद्ध में वह अपने दोनों बेटों, और तीलू के मंगेतर भूप्पा नेगी के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए।

कुछ ही दिनों में काडा गाँव में कौथिग (मेला) लगा और इन सभी घटनाओं से अंजान तीलू कौथिग में जाने की जिद करने लगी तो मां ने रोते हुये जमकर ताना मारा और भाइओं की मौत का बदला लेने को कहा। मां के कटु वचनों को सुनकर उसने कतयूरियों से प्रतिशोध लेने तथा खैरागढ़ सहित अपने समीपवर्ती क्षेत्रों को आक्रमणकारियों से मुक्त कराने का प्रण किया। उसने आस-पास के सभी गांवों में घोषणा करवा दी कि इस बार काडा का उत्सव नहीं अपितु कतयूरियों का विनाशोत्सव होगा। शस्त्रों से लैस सैनिकों तथा बिंदुली नाम की घोड़ी और अपनी दो प्रमुख सहेलियों बेल्लु और देवली को साथ लेकर युद्धभूमि के लिए तीलू ने प्रस्थान किया।


स्वामी गौरीनाथ ने गोरिला छापामार युद्ध की रणकला तीलू को सिखाई। इसी गोरिल्ला युद्ध के दम पर वह कत्यूरियों पर विजय प्राप्त करती आगे बढ़ती रही। पुरुष वेश में तीलू ने सबसे पहले खैरागढ़ को कत्यूरियों से मुक्त कराया। खैरागढ़ से आगे बढ़कर उसने उमटागढ़ी को जीता। इसके पश्चात वह अपने दल-बल के साथ सल्ट महादेव जा पहुंची। छापामार युद्ध में पारागत तीलू सल्ट को जीत कर भिलंग भौण की तरफ चल पड़ी, परंतु दुर्भाग्य से तीलू की दोनों अंगरक्षक सखियों को इस युद्ध में अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। कुमाऊं में जहा बेल्लू शहीद हुई उस स्थान का नाम बेलाघाट और देवली के शहीद स्थल को देघाट कहते हैं। तीलू प्रत्येक गढ़ को जीतने के बाद वहां की व्यवस्था अपने वफादार चतुर सैनिकों के हाथों सुरक्षित करके ही आगे बढ़ रही थी। समय घर लौटते हुए एक दिन तल्ला काडा शिविर के निकट पूर्वी नयार नदी तट पर तीलू जलपान कर रही थी कि तभी शत्रु के एक सैनिक रामू रजवार ने धोखे से तीलू पर तलवार का वार कर दिया। तीलू के बलिदानी रक्त से नदी का पानी भी लाल हो गया। 


नयार में तीलू की आदमकद मूर्ति आज भी उस वीरागना की याद दिलाती है। उनकी याद में आज भी काडा ग्राम व बीरोंखाल क्षेत्र के निवासी हर वर्ष कौथीग (मेला) आयोजित करते हैं और ढ़ोल-दमाऊ तथा निशान के साथ तीलू रौतेली की प्रतिमा का पूजन किया जाता है। तीलू रौतेली की स्मृति में गढ़वाल मंडल के कई गांव में थड्या गीत गाए जाते हैं।

तीलू जहां भी गयी स्थानीय लोगों और वहां के समुदाय प्रमुखों का तीलू को भरपूर समर्थन मिलता था। असल में धाम शाही क्रूर राजा था और वह जनता पर अनाप शनाप कर लगाता रहता था। इससे जनता त्रस्त थी और उन्हें तीलू के रूप में नया सहारा मिल गया था। तीलू रौतेली का शौर्यपूर्ण इतिहास वृत्त आज गढवाली लोक साहित्य की गौरवशाली वीरगाथा का रूप धारण कर चुका है। अनेक गढवाली कवियों ने तीलू रौतेली के वीरता पूर्ण चरित्र पर वीर रस की कविताएं लिखी हैं। इसी संदर्भ में प्रस्तुत हैं विमल साहित्यरत्न विरचित वीर रसीय गढ़वाली कविता ‘तीलू रौतेली -धकी धै धै’ के कुछ अंश –

“आ तीलू को डंका बजीगे मरदो

ओ तीलू को झंडा फहरैगे मरदो

रण भेरी मारू बाजीगे मरदो

ढोल दमौऊं गाजीगे मरदो।

घिमंडु की हुड़की कड़कीगे मरदो

बल्लू की डौरी भड़कीगे मरदो

शूर शार्दूल ऐ गैने मरदो।”

जय सिंह रावत ‘जसकोटी’ ने भी अपनी स्वरचित कविता में तीलू रौतेली के वीरता पूर्ण चरित्र के माध्यम से गढ़ की नारी शक्ति का साहसी, पराक्रमी और मरदानगी भरा चरित्र अंकित किया है। कविता की निम्नलिखित पंक्तियां दर्शनीय हैं –

“धन धन छै तु गढ़ की नारी

जै जै हवेली तेरी तीलू रौतेली

गवे दीन्द तेरी बीरता मर्दानी

ग्वला रौतु की छाई तु निर्भीक सैलाणी

गढ़ म तेरी अलग च मिसाल

लड़ाई लाड़ तिन बिन हथयार

मन म राई तेरी येकी ठान

कैन्तुरा राजा क जैड मिटाण ”


रौतेली की याद में गढ़वाल में रणभूत नचाया जाता है। डा. शिवानंद नौटियाल ने अपनी पुस्तक ‘गढ़वाल के लोकनृत्य’ में लिखा है – जब तीलू रौतेली नचाई जाती है तो अन्य बीरों के रण भूत /पश्वा जैसे शिब्बू पोखरियाल, घिमंडू हुडक्या, बेलु -पत्तू सखियाँ , नेगी सरदार आदि के पश्वाओंको भी नचाया जाता है . सबके सब पश्वा मंडांण में युद्ध नृत्य के साथ नाचते हैं” 

ओ कांडा का कौथिग उर्यो
ओ तिलु कौथिग बोला
धका धै धै तिलु रौतेली धका धै धै (Read धै as Dhai )
द्वी बीर मेरा रणशूर ह्वेन
भगतु पत्ता को बदला लेक कौतिक खेलला
धका धे धे तिलु रौतेली धका धै धै
अहो रणशूर बाजा बजी गेन रौतेली धका धै धै
बोइयों का दूध तुम रणखेतु बतावा धका धै धै
तीलु रौतेली ब्वादा रणसाज सजावा धका धै धै
इजा मैणा यूं बीरूं टीका लगावा , साज सजावा ,धका धै धै
मै तीलु बोदू जौंका भाई होला , जोंकी बैणि होली
ओ रणखेत जाला धका धै धै
बल्लू प्रहरी टु मुलक जाइक धाई लगै दे धका धै धै
बीरों के भृकुटी तण गे धका धै धै
तीलु रौतेली धका धै धै
ओ अब बूड़ी सलाण नाचण लागे धका धै धै
अब नई जवानी आइगे धका धै धै
बेलू देबकी द्वी सखी संग चली गे धका धै धै
ओ खैरा गढ़ मा जुद्ध लगी गे धका धै धै
खड़कु रौत तखी मोरी गे धका धै धै
तीलु रौतेली धका धै धै
ओ काण्ड को कौतिक उर्यो गे धका धै धै
तीलु रौतेली तुम पुराणा हथ्यार पुजावा धका धै धै
अपणि ढाल कटार तलवार सजावा धका धै धै
घिमंडू की हुडकी बाजण लगे धका धै धै
ओ रणशूर साज सजीक ऐगे तीलु रौतेली धका धै धै
दीवा को अष्टांग करी याल धका धै धै
रण जीति घर आइक गाडुल़ो छतर रे धका धै धै
धका धे धे तीलु रौतेली धका धै धै
पौंची गे तीलु रौतेली टकोली भौन धका धै धै
यख बिद्वा कैंत्युरो मारियाले धका धै धै
तब तीलु पौंची गे सल्ड मादेव धका धै धै
ओ सिंगनी शार्दूला धका धै धै
धका धे धे तीलु रौतेली धका धै धै
येख वख मारी कैकी बौडी गे चौखाटिया देघाट धका धै धै
बिजय मीले पण तीलु घिरेगे धका धै धै
बेल्लू देबकी रणखेतुं मा इखी काम ऐन
इथगा मा शिब्बू पोखरियाल मदद लेक आइगे धका धै धै
अब शार्दूला लड़द पौंची कालिंकाखाळ
सराइंखेत आइगे घमासान जुद्ध ह्व़े धका धै धै
शार्दूला की मार से कैंत्युरा रण छोडि भाजी गेन धका धै धै
रण भूत पितरां कल तर्पण दिंऊला धका धै धै
यख शिब्बू पोखरियाल तर्पण देण लग्ये धका धै धै
सराईखेत नाम तभी से पड़े धका धै धै
यख कौतिक तलवारियों को होलो धका धै धै
ये तें खेलला मरदाना मस्ताना रणवांकुर जवान धका धै धै
सरदार चला तुम रणखेत चला तुम धका धै धै
धका धे धे तीलु रौतेली धका धै धै
ओ रणसिंग्या रणभेरी नगाड़ा बजीगे धका धै धै
ओ शिब्बू ब्वाडा तर्पण करण खैरागढ़ धका धै धै
अब शार्दूला पौंची गे खैरागढ़ धका धै धै
यख जीतू कैंत्युरा मारी , राजुला जै रौतेली अगने बढी गे धका धै धै
रण जीति सिंगनी दुबाटा मा नाण लगे धका धै धै
राजुलात रणचंडी छयी अपणो काम करी नाम धरे गे धका धै धै
कौतिका जाइक खेलणो छयो खेली याला
याद तौंकी जुग जुग रहली धका धै धै
तू साक्षी रैली खाटली के देवी धका धै धै
तू साक्षी रैली स्ल्ड का मादेव धका धै धै
ओ तू साक्षी रैली पंच पाल देव
कालिका की देवी लंगडिया भैरों
ताडासर देव , अमर तीलु, सिंगनी शार्दूला धका धै धै
जब तक भूमि , सूरज आसमान
तीलु रौतेली की तब तक याद रैली
धका धै धै तीलु रौतेली धका धै धै

आज भी आप शांत चित्त से अगर पूर्वी नयार के कलकल के बीच तल्ला कांडा के नीचे या आस-पास से गुजर रहे होंगे तो महसूस करेंगे कि घिमडू हुडक्या की “धकी धै धै हुड्क्या बोल हवा में तैरते सुनाई देंगे।

हे वीरांगना तीलू रौतेली हम नमन करते हैं तेरे साहस को,तेरी वीरता को,तेरे उन धन्य माता पिता को जिन्होंने ऐसी वीरांगना को जन्म दिया, और नमन करते हैं गढ़वाल की तेरी उस जन्मभूमि को जहाँ तीलू रौतेली जैसी बेटियां पैदा होती हैं।




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