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जैसलमेर-नरेश महारावल रत्नसिंह अपने किले से बाहर राज्य के शत्रुओं का दमन करने को तैयार थे। जैसलमेर-किले की रक्षा उन्होंने अपनी पुत्री रत्नावती को सौंपी तो राजकुमारी ने हँसकर कहा- पिताजी ! दुर्ग की चिंता ना कीजिए, जब तक उसका एक भी पत्थर से पत्थर मिला हैं. उसकी मै रक्षा करुगी, चाहे अलाहुद्दीन कितनी ही वीरता से हमारे दुर्ग पर आक्रमण करे. आप निर्भय होकर शत्रु लोहा ले. यह जैसलमेर के दुर्गाधिपति रतनसिह की कन्या थी. इस समय बलिष्ट अरबी घोड़े पर चढ़ी हुई थी, और मर्दानी पोशाक पहने थी. उसकी कमर में दो तलवारे लटक रही थी. कमरबंद में पेशकब्ज,पीठ पर तरकश और हाथ में धनुष था.
वह चंचल घोड़े की रास को बलपूर्वक खीच रही थी, जो एक क्षण भी स्थिर रहना नही चाहता था. रतनसिंह जिरहबख्तर पहने एक हाथी के फौलादी होदे पर बैठे आक्रमण के लिए प्रस्थान कर रहे थे. सामने उनके घोड़े हिन्-हिना रहे थे. शास्त्र झन-झना रहे थे, रतनसिंह ने पुत्री के कंधे पर हाथ रखकर कहा- बेट! तुझसे मुझे ऐसी ही आशा हैं, मै दुर्ग को तुझे छोपकर निश्चित हो रहा हु.
देखना सावधान रहना शत्रु केवल वीर ही नही धूर्त और छलिया भी हैं. बालिका ने वक्र द्रष्टि से पिता को देखा और जैसलमेर की राजकुमारी ने हँसकर कहा, नही पिताजी आप निश्चित होकर प्रस्थान करे. किले का बाल भी बांका नही होगा.
रतनसिंह ने तीव्रद्रष्टि अपने किले से धूम से चमकते हुए कंगूरे, पर डाली और हाथी बढाया और गगनभेदी जयनिनाद धरती-आसमान काँप उठे, एक विशालकाय अजगर की भांति सेना किले के फाटक से निकलकर पर्वत की उपत्यनका में विलीन हो गईं. इसके बाद घोर चीत्कार करके दुर्ग का फाटक बंद हो गया.
टिड्डी की भांति शत्रु दल दुर्ग घेर रखा था. सब प्रकार की रसद बाहर से आनी बंद थी. प्रतिदिन यवन दल गोली और तिरो की वर्षा करता था. पर जैसलमेर का अजेय दुर्ग गर्व से मस्तक उठाएं खड़ा था. यवन समझ गये थे, कि दुर्ग विजय करना हंसीहट्टा नही हैं. दुर्ग रक्षिणी राजनन्दिनी रत्नवती निर्भय अपने दुर्ग में सुरक्षित शत्रुओ के डाट खट्टे कर रही थी. उसके सतह में पुराने विश्वस्त राजपूत थे, जो मृत्य और जीवन का खेल समझते थे.
वे अपनी सखियों समेत दुर्ग के किसी बुर्ज पर चढ़ जाती थी. और यवन ठट्ठा उड़ाती हुई वह वहा से सनसनाते तिरो की वर्षा करती | वह कहती -मै स्त्री हू ,पर अबला नही |मुझमे मर्दों जैसा साहस और हिम्मत है | मेरी सहेलियाँ भी देखने भर की स्त्रिया है |मै इन पापिष्ठ यवनों को समझती क्या हू |”
उसकी बाते सुनकर सहेलिया ठठाकर हंस देती थी प्रबल यवनदल द्वारा आक्रांत दुर्ग में बैठना राजकुमारी के लिए एक विनोद था
मलिक काफूर एक गुलाम था जो यवन सेना का अधिपति था वह द्रढ़ता और शांति से राजकुमारी की चोटे सह रहा था उसने सोचा था कि जब किले में खाद्य पदार्थ कम हो जाएगे. दुर्ग वंश में आ जाएगा. फिर भी वह समय-समय पर दुर्ग पर आक्रमण कर देता था. परन्तु दुर्ग की चट्टानें और भारी दीवारों को कोई क्षति नही पहुचती थी.
जैसलमेर की राजकुमारी बहुधा दुर्ग पर से कहती – ये धूर्त गर्द उड़ाकर तथा गोली बरसाकर मेरे दुर्ग को गन्दा और मैला कर रहे हैं. इससे क्या लाभ होगा ?
यवन दल ने ने एक बार दुर्ग पर आक्रमण किया. जैसलमेर की राजकुमारी चुपचाप उस नजारे को देखती रही. जब शत्रु आधी दूर तक दीवारों पर चढ़ आए, तब भारी-भारी पत्थर के ढ़ोके और गर्म रेत की ऐसी मार पड़ी की कि शत्रु सेना छिन्न-भिन्न हो गईं. लोगों के मुह झुलस गये. कितनों की चटनी बन गई. हजारो यवन तौबा-तौबा करके अपने प्राण बचाकर भागे जो प्राचीर तक पहुचे उन्हें तलवार के घाट उतार दिया गया.
सूर्य ढल रहा था, पश्चिम दिशा लाल-लाल हो रही थी. राजकुमारी वहाँ चिंतित भाव से अति दूर पर्वत की उपत्यका में डूबते सूर्य को देख रही थी. उसे चार दिन से पिता का कोई संदेश नही मिला था. वह सोच रही थी, कि इस समय पिता को क्या सहायता दी जा सकती हैं. वह एक बुर्ज पर बैठ गईं. धीरे-धीरे अँधेरा बढने लगा. उसने देखा एक काली मूर्ति पर्वत की तंग राह से किले की ओर अग्रसर हो रही हैं. उसने समझा, पिता का संदेश वाहक ही होगा. वह चुपचाप उत्सुक होकर उधर ही देखती रही. उसे आश्चर्य तब हुआ, जैसलमेर की राजकुमारी ने देखा वह सन्देशवाहक गुप्तद्वार की ओर न जाकर सिंह द्वार की ओर जा रहा था.
तब अवश्य शत्रु हैं, राजकुमारी ने एक तीखा तीर हाथ में लिया और छिपती हुई उस मूर्ति के साथ ही द्वार की पौर के उपर आ गई. वह मूर्ति एक गठरी को पीठ से उतार कर प्राचीर पर चढ़ने का उपाय सोच रही थी. जैसलमेर की राजकुमारी ने धनुष पर बाण चढ़ाकर उन्हें ललकार कर कहा-
“वही खड़ा रह और अपना अभिप्राय कह”
काल रूपी राजकुमारी को सम्मुख देख वह व्यक्ति भयभीत स्वर में बोला-
“मुझे किले में आने दीजिए| बहुत जरुरी संदेश हैं”
“वह संदेश वही से कह”
“वह अतिशय गोपनीय हैं”
कुछ चिंता नही,कह”
“मै किले में आकर कहुगा”
“उससे प्रथम यह तीर तेरे कलेजे को पार हो जाएगा”
महाराज विपत्ति में हैं, मै आपका चर हु”
“चट्टी हो तो फेक दो”
“जबानी कहना हैं”
“जल्दी कह”
“यहाँ से नही कह सकता”
“तब ले”
राजकुमारी ने तीर छोड़ दिया.
वह उसके कलेजे को पार करता हुआ निकल गया. राजकुमारी सिटी दी, दो सैनिक आ हाजिर हुए, राजकुमारी की आज्ञा पाकर रस्सी के सहारे उन्होंने निचे जा मृत व्यक्ति को देखा, वह यवन था. उस व्यक्ति की पीठ पर एक गठरी बंधी हुई थी. यह देख जैसलमेर की राजकुमारी जोर से हंस पड़ी. इसके लिए वह प्रत्येक बुर्ज पर घूम-घूमकर प्रबंध और पहरे का निरिक्षण कर रही थी. फौरन फाटक पर जाकर देखा- द्वार रक्षक द्वार पर नही था. राजकुमारी ने पुकार कर कहा- यहाँ पहरे पर कौन हैं.
एक वृद्ध योद्धा ने आगे बढ़कर राजकुमारी को मुजरा किया उसने राजकुमारी के कान में धीरे से और कुछ कहा . वह हंसती-हंसती बोली-ऐसा,ऐसा ? अब वे तुम्हे घुस देगे बाबा साहब ?
“हां बेटी!-बुढा योद्धा तनिक हंस दिया ! उसने गांठ से सोने की पोटली निकालकर कहा-“यह देखो इतना सोना हैं”
” अच्छी बात हैं, ठहरो. हम उन्हें पागल बना देगे बाबा साहब आधी रात को उसकी इच्छानुसार द्वार खोल देना”
वृद्ध भी हंसता और सिर हिलाता हुआ चला गया.
बारह बज गये थे. चन्द्रमा की चांदनी छिटक रही थी, कुछ आदमी दुर्ग की ओर छिपे-छिपे आ रहे थे. उसका सरदार मालिक कफूर था. उसके पीछे चुने हुए सौ योद्धा थे. संकेत पाते ही द्वारपाल ने प्रतिज्ञा पूरी की. विशाल मेहराबदार द्वार खुल गया. सौ व्यक्ति चुपचाप दुर्ग में घुस गये. अब हमे उस गुप्त मार्ग से दुर्ग के भीतर महल में पंहुचा दो, जिसका तुमने वादा किया था.
राजपूत ने कहा- मै वादे का तो पक्का हु, पर बाकि सौना तो दो.
“यह लो” यवन सेनापति ने मुहरो की थैली हाथ में धर दी. राजपूत फाटक का ताला बंद कर चुपचाप प्राचीर की छाया में चला गया. वह लोमड़ी की भांति चक्कर खाकर कही गायब हो गया.
यवन सैनिक चक्र व्यूह में फस गये. न पीछे का रास्ता मिलता न आगे का. वे वास्तव में कैद में हो गये. और अपनी मुर्खता पर पछता रहे थे. मलिक कफूर दांत पीछ रहा था.जैसलमेर की राजकुमारी और सहेलियाँ इतने चूहों को चूहेदानी में फसाकर हंस रही थी.
यवन सैन्य ने दुर्ग पर भारी घेरा डाल रखा था. खाद्य सामग्री धीरे-धीरे समाप्त हो रही थी. घेरे के बिच से किसी का आना अशक्य था. जैसलमेर की राजकुमारी का शरीर पीला हो रहा था. उसके अंग शिथिल हो गये थे. पर नेत्रों में वैसा ही तेज था. उसे कैदियों के भोजन की बड़ी चिंता थी. किले का प्रत्येक व्यक्ति उन्हें देवी की भांति पूजता था. उसने मलिक कपूर के पास जाकर कहा- “यवन सेनापति, मुझे तुमसे कुछ परामर्श करना हैं, मै विवश हो गई हु. दुर्ग में खाद्य सामग्री बहुत कम हो गई हैं, और मुझे यह संकोच हो रहहीं कि आपकी कैसे अतिथि सेवा की जाएं, अब कल से हम एक मुट्ठी अन्न लेगे और आप आप लोगों को दो मुट्टी उस समय तक मिलेगा.
जब तक दुर्ग में अन्न होगा. आगे ईश्वर मालिक हैं””
मलिक कफूर की आँखों में आँसू भर आए. उसने कहा राजकुमारी जी मुझे यकीन हैं, आप बीस किलों की हिफाजत कर सकती हैं.
“हाँ यदि मेरे पास रसद हो तो”
राज कुमारी चली गईं.
अट्ठारह सप्ताह बीत गये, अलाउदीन के गुप्तचर ने आकर शाह को कोर्निस की.
“क्या ? राजकुमारी किला देने के लिए तैयार…
“नही खुदाबन्द,वहां किसी तरकीब से रसद पहुच गईं हैं.अब किला,नौ महीने पड़े रहने पर भी हाथ नही आएगा. फिर शाही फौज के लिए अब पानी किसी तालाब में पानी नही हैं.
“और क्या खबर हैं?”
“रतनसिंह ने मालवे तक शाही सेना को खदेड़ दिया हैं.
अलाउदीन हतबुद्दि हो गया और महाराज से संधि का प्रस्ताव तैयार किया.
सुंदर प्रभात था, जैसलमेर की राजकुमारी ने दुर्ग की प्राचीर पर खड़े होकर देखा, शाही सेना डेरे डंडे उखाड़कर जा रही थी और महाराज रतनसिंह अपने सूर्यमुखी झंडे को फहराते, विजयी राजपूतो के साथ किले की तरफ आ रहे थे.
मंगल कलश सजे थे,बाजे बज रहे थे. दुर्ग में प्रत्येक वीर को पुरस्कार मिल रहा था. मलिक कफूर महाराज की बगल में बैठे थे. महाराज ने कहा-खां साहब! किले में मेरी गैरहाजिरी में आपकों तकलीफ और असुविधा हुई होगी, इसके लिए आप माफ़ करेगे, युद्ध के नियम सख्त होते हैं. फिर किले पर भारी मुशीबत आ गईं थी. लड़की अकेली थी, जो बन सका किया.
मलिक कफूर ने कहा-महाराज! जैसलमेर की राजकुमारी तो पूजने लायक हैं,इंसान नही फरिश्ता हैं.मै आपकी तजिदगी इनकी मेहरबानी नही भूल सकता’
महाराज ने एक बहुमूल्य सरपेज दिया और पान का बीड़ा देकर विदा किया.
दुर्ग में धौसा बज रहा था.
अलाउद्दीन खिलजी की फौज का बहादुरी से सामना करने वाली जैसलमेर की राजकुमारी रत्नावती 'भाटी के नाम पर जैसलमेर में बनवाया गया "राजकुमारी रत्नावती गर्ल्स हाई स्कूल"
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