राजपूताना इतिहास के पन्नों पर
लिखा गया पन्ना धाय नाम स्वर्णाक्षरों में
जब-जब याद किया जाएगा राजपूती गौरव को
तब-तब याद किया जाएगा उनके त्याग और स्वामिभक्ति को
विश्व इतिहास में पन्ना के त्याग जैसा दूसरा दृष्टांत अनुपलब्ध है। अविस्मरणीय बलिदान, त्याग, साहस, स्वाभिमान एवं स्वामिभक्ति के लिए पन्नाधाय का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। वह एक कर्तव्यनिष्ठ साहसी महिला थी।
वीरांगना पन्नाधाय का जन्म चित्तौरगढ़ के समीप ठिकाना परसोली के हरचंद जी खिंची (चौहान राजपूत)के यहाँ हुआ। इनका विवाह चुंडावतों के ठिकाने देवगढ़ के गांव कमेरी के श्री सूरजमलजी हुआ।
पन्ना खिंची के पति सूरजमल मेवाड़ सेना में एक वीर सैनिक थे और चित्तौड़ राज्य (किले) में सेवारत थे।
बात तब की है‚ जब चित्तौड़गढ़ का किला आन्तरिक विरोध व षड्यंत्रों में जल रहा था। मेवाड़ का भावी राणा उदय सिंह किशोर हो रहा था। तभी उदयसिंह के पिता के चचेरे भाई बनवीर ने एक षड्यन्त्र रच कर उदयसिंह के पिता की हत्या महल में ही करवा दी तथा उदयसिंह को मारने का अवसर ढूंढने लगा। उदयसिंह की माता को संशय हुआ तथा उन्होंने उदय सिंह को अपनी खास दासी व उदय सिंह की धाय पन्ना खिंची को सौंप कर कहा कि,
“पन्ना अब यह राजमहल व चित्तौड़ का किला इस लायक नहीं रहा कि मेरे पुत्र तथा मेवाड़ के भावी राणा की रक्षा कर सके‚ तू इसे अपने साथ ले जा‚ और किसी तरह कुम्भलगढ़ भिजवा दे।”
पन्ना धाय राणा साँगा के पुत्र राणा उदयसिंह की धाय माँ थीं। पन्ना धाय किसी राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। अपना सर्वस्व स्वामी को अर्पण करने वाली वीरांगना पन्ना धाय का जन्म कमेरी गावँ में हुआ था। राणा साँगा के पुत्र उदयसिंह को माँ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना ‘धाय माँ’ कहलाई थी। पन्ना का पुत्र चन्दन और राजकुमार उदयसिंह साथ-साथ बड़े हुए थे। उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान पाला था। पन्नाधाय ने उदयसिंह की माँ रानी कर्मावती के सामूहिक आत्म बलिदान द्वारा स्वर्गारोहण पर बालक की परवरिश करने का दायित्व संभाला था। पन्ना ने पूरी लगन से बालक की परवरिश और सुरक्षा की। पन्ना चित्तौड़ के कुम्भा महल में रहती थी।
चित्तौड़ का शासक, दासी का पुत्र बनवीर बनना चाहता था। उसने राणा के वंशजों को एक-एक कर मार डाला। बनवीर एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या करके उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई। पन्ना राजवंश और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महल से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उसके बारे में पूछा।
पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला। पन्ना अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना धन्य हैं! जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आँखों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।
आईये उस महान वीरता से परिपूर्ण पन्ना की कहानी को इस कविता के माध्यम से समझते है ।।
चल पड़ा दुष्ट बनवीर क्रूर, जैसे कलयुग का कंस चला
राणा सांगा के, कुम्भा के, कुल को करने निर्वश चला
उस ओर महल में पन्ना के कानों में ऐसी भनक पड़ी
वह भीत मृगी सी सिहर उठी, क्या करे नहीं कुछ समझ पड़ी
तत्क्षण मन में संकल्प उठा, बिजली चमकी काले घन पर
स्वामी के हित में बलि दूंगी, अपने प्राणों से भी बढ़ कर
धन्ना नाई की कुंडी में, झटपट राणा को सुला दिया
ऊपर झूठे पत्तल रख कर, यों छिपा महल से पार किया
फिर अपने नन्हेंमुन्ने को, झट गुदड़ी में से उठा लिया
राजसी वसनभूषण पहना, फौरन पलंग पर लिटा दिया
इतने में ही सुन पड़ी गरज, है उदय कहां, युवराज कहां
शोणित प्यासी तलवार लिये, देखा कातिल था खड़ा वहां
पन्ना सहमी, दिल झिझक उठा, फिर मन को कर पत्थर कठोर
सोया प्राणोंकाप्राण जहां, दिखला दी उंगली उसी ओर
छिन में बिजलीसी कड़क उठी, जालिम की ऊंची खड्ग उठी
मांमां मांमां की चीख उठी, नन्हीं सी काया तड़प उठी
शोणित से सनी सिसक निकली, लोहू पी नागन शांत हुई
इक नन्हा जीवनदीप बुझा, इक गाथा करुण दुखांत हुई
जबसे धरती पर मां जनमी, जब से मां ने बेटे जनमे
ऐसी मिसाल कुर्बानी की, देखी न गई जनजीवन में
तू पुण्यमयी, तू धर्ममयी, तू त्यागतपस्या की देवी
धरती के सब हीरेपन्ने, तुझ पर वारें पन्ना देवी
तू भारत की सच्ची नारी, बलिदान चढ़ाना सिखा गयी
तू स्वामिधर्म पर, देशधर्म पर, हृदय लुटाना सिखा गयी
पुत्र की मृत्यु के बाद पन्ना उदयसिंह को लेकर बहुत दिनों तक सप्ताह शरण के लिए भटकती रही पर दुष्ट बनबीर के खतरे के डर से कई राजकुल जिन्हें पन्ना को आश्रय देना चाहिए था, उन्होंने पन्ना को आश्रय नहीं दिया। पन्ना जगह-जगह राजद्रोहियों से बचती, कतराती तथा स्वामिभक्त प्रतीत होने वाले प्रजाजनों के सामने अपने को ज़ाहिर करती भटकती रही। कुम्भलगढ़ में उसे यह जाने बिना कि उसकी भवितव्यता क्या है शरण मिल गयी। उदयसिंह क़िलेदार का भांजा बनकर बड़ा हुआ। तेरह वर्ष की आयु में मेवाड़ी उमरावों ने उदयसिंह को अपना राजा स्वीकार कर लिया और उसका राज्याभिषेक कर दिया। उदय सिंह 1542 में मेवाड़ के वैधानिक महाराणा बन गए।
Contrary to popular belief, Panna Dhai who sacrificed her son to save the prince of Mewar was a Chauhan Rajput woman of Khichi sub clan.
REFER:
https://t.co/m83YnAsn4D p. 61
She was a 16th century Rajput woman of the Kheechee tribe, nursemaid to Udai Singh the fourth son of Maharana SANGRAM SINGH I (SANGA) (1509-1527). Her name, Panna means emerald, and dhai is Hindi for a wet nurse.
She had been given charge of young Udai, breast-feeding him virtually from his birth in 1522, along with her own son Chandan, who was of similar age & Udai's playmate. It was never considered that young Udai, last in line to throne, would ever succeed as Maharana.
However, the 2nd and 3rd decades of 16th century were troubled times, & events moved rapidly. Sanga died of wounds sustained at the Battle of KHANWA (1527) against BABUR. Sanga's eldest son BHOJ RAJ had been killed in battle in 1521. 3 of his other sons died during his lifetime.
His then eldest son succeeded to the throne as Maharana RATAN SINGH II (1527-1531). However, when he died after ruling only four years, the vile-tempered VIKRAMADITYA II succeeded to the throne at the young age of 14. Unfortunately, his unpleasant disposition caused strife at Chittor, so much so that Sultan BAHADUR SHAH of Gujarat, wanting to settle an old score, took advantage of Mewar's unrest, and marched on the fortress in 1534 (see CHITTOR, 2ND SACK).
Vikramaditya took a small force of nobles and their armies into the hills to provide a second attack force; and young Udai Singh was spirited away with a small party that included Panna and her son to safety in Bundi. Chittor was sacked and Bahadur Shah returned to Gujarat. Udai Singh returned to the capital, and Vikramaditya came back to continue his reign. Unfortunately, his temperament had not improved with defeat and, one day in 1536, he physically abused a respected old chieftain at the Court. This proved to be the final straw for the Mewar nobles as they placed Vikramaditya under palace arrest, leaving the object of Panna Dhai's love and loyalty, Udai Singh as heir-elect to the throne. The Court appointed a distant cousin, BANBIR to act as his Regent. He was, allegedly, illegitimate son of Udai's uncle, PRITHVI RAJ (Crown Prince Prithvi Raj had a fight with his younger brother, Sangram Singh, & was sent into exile where he died, never to succeed as Maharana). Banbir, who considered himself to be the rightful heir to throne knew time was right to act. One evening that same year, he assassinated imprisoned Vikramaditya, then hurried towards the rawala to get rid of the only remaining barrier to his ambition, the 14 year old Udai Singh.
Panna Dhai had already fed her beloved son & her royal charge, and put them to bed. A servant (vari) ran in to tell her of nearby assassination. Immediately, the loyal nursemaid realised what Banbir was doing. She also knew that, for the future of Mewar, young Udai must be saved. Urgently, she instructed the servant to put the sleeping prince into a large basket and smuggle him out of the fort to a spot by the nearby river where she would join them later. As soon as the servant left with the basket and its precious royal contents, she summoned an amazing strength of will that is characteristic of so many Rajputs: she lifted her sleeping son, Chandan, from his bed and placed him on the prince's bed, covering him with a blanket.
Within moments, Banbir burst into the room, sword in hand. When asked the whereabouts of the infant Maharana, Panna pointed to the occupied bed ... and watched in horror as the murderer slew her son. Banbir then called a meeting of the Court informed the gathered chiefs that both Vikramaditya and Udai were dead and, claiming his dubious right to the throne, proclaimed himself the new king of Mewar. Meanwhile, the grief-stricken Panna Dhai watched as her son was hastily cremated. She then packed some clothing and meagre supplies into a bag, and hurried from the fort. At the designated spot by the river, she took charge of the young king and urged the servant, in the name of Mewar, not to mention a word of what had transpired that night.
The woman & child then began an amazing trek of endurance, which lasted many weeks. They called at several towns seeking refuge from the local Chieftains.
However, having heard of events at capital, & to evade any repercussions from violent Banbir, the Rawats refused assistance As Panna and Udai struggled on through the rugged valleys of the Aravalli ranges, only the local tribals, the BHILS, traditionally faithful to the Mewar crown, gave the couple food and temporary lodgings.
Finally, they arrived at KUMBHALGARH, many kilometres west of Chittor, where the local governor, a Jain merchant named ASHA DEPURA SHAH, agreed to give the child protection. For a couple of years, Panna and the young king remained at Kumbhalgarh, where he was passed off as Asha Shah's nephew. However, in 1539, a chieftain from Marwar visited the fort, and the 17-year-old Udai was sent to receive him. For a couple of years, Panna and the young king remained at Kumbhalgarh, where he was passed off as Asha Shah's nephew. However, in 1539, a chieftain from Marwar visited the fort, and the 17-year-old Udai was sent to receive him. The youth's dignified manner convinced him he was no nephew of the Jain governor, and rumour quickly spread that Udai Singh might still be alive. A deputy of chiefs from Chittor went in secret to Kumbhalgarh, where they interviewed not only the young man, but also Panna Dhai.
The royal nursemaid, knowing her young charge would now be in safe hands, told them the full story of the deception and the escape. The nobles proclaimed Udai as their Maharana and his coronation was held at Kumbhalgarh. In 1540, backed by a large combined Mewar and Marwar force, Udai Singh, then aged 18 marched on Chittor to reclaim his throne. Hearing of their approach, Banbir the usurper mounted an army and rode out to repel them. They met at Mavli and Banbir was defeated (he was either killed or he escaped, never to return). Maharana Udai Singh rode into Chittor acclaimed by the populace. And at that point, Panna Dhai, the humble nursemaid, disappeared from the pages of Mewar's history.
However, her name and her deeds will live forever as symbols of extraordinary loyalty, patriotism, and personal sacrifice. But for her, the long reign of the House of Mewar would surely have ended, and the city of Udaipur, later founded by Udai Singh, would never have existed.
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