Thursday, July 5, 2018

RANA VEERDHAVAL VAGHELA - IMMORTAL RAJPUTS

बात उस समय की हे जब अणहिलवाड पाटण पर भीमदेव सोलंकी (द्वित्य) का राज था। अंधाधुँधी और घोर युध्धो के उस समय मे पाटण का राज छिन्न भिन हो रहा था। पाटण के सामंत राजा ओर अमात्य स्वतंत्र होकर सत्ता हथिया रहे थे, लेकिन धोळका मंडल के वाघेला राणा पाटण के प्रति हमेशा वफादार रहते आए थे।पीढ़ी दर पीढ़ी वाघेला राणाओ ने पाटण की रक्षा के लिये अपनी कुर्बानीया दि थी।जब भीमदेव (द्वित्य) के ही दुसरै सामंतो ने राज हडपना चाहा तब धोळका के राणा अर्णोराज वाघेला ने भीमदेव के पक्ष मे रहकर युध्ध किया था और सोलंकीयो के राज को बचाया था। 

वोह युद्ध मे ही वीरगति को प्राप्त हुए और गुजरात की रक्षा की जिम्मेदारी अपने पुत्र लावण्यप्रसाद को देते गए थे। लावण्यप्रसाद वाघेला भी पाटण के सब से वफादार सामंत एवं सेनापति बन के रहै। पाटण के राज की रक्षा के लिये अपना पुरा जीवन समर्पित कर दिया। धोळका मे रहकर भी पुरे राज्य की बागडोर संभालते रहे इसलिए वह "सर्वेश्वर" के नाम से भी जानें गये। इन्ही के पुत्र थे वीरधवल वाघेला! 

वीरधवल बड़े पराक्रमी और शुरविर थे। पाटण के लिये उन्होंने जिंदगी भर लडाईया लड़ी। विरधवल ने सभी सामंत राजाओ को हराया। खंभात के सामंतशंख (संग्रामसिंह) को हराकर वफादार मंत्री वस्तुपाल को सोप दिया। 

गोधरा के कुख्यात लुटैरे और भील सरदार घुघुल का वध किया। इस तरह राणा विरधवल ने पाटण के सभी सामंतो को अपने वश मे कर के पाटण को अंदर से मजबूत और सुरक्षित बनाया। वीरधवल और लावण्यप्रसादजी ने एक सच्चे राजपूत की तरह वफादारी और कर्तव्य निभाकर पाटण को मजबुत बनाया और जीवनभर पाटणपति की सेवा की। अगर ऊन्होने चाहा होता तो आसानी से राज हडप् कर जाते कयोकी वो इतने पराक्रमी ओर बलवान थे। मगर उन्होंने पाटणपति को ही अपना स्वामी माना और जीवनभर पाटण की तरफ से युध्ध ही किये। उनकी राजभक्ति को मेरुदंड समान अचल माना गया है।गुजरात का सुगठित और सुरक्षित समय काल राणा वीरधवल वाघेला का कहा जा सकता हे, राणावीरधवल वाघेला प्रजाप्रेम और शौर्य का समन्वय थे, वीरधवल के समयकाल में उनकी प्रजा आपसी मन-मिटाव भूलकर हिलमिल कर रहती थी, जंगल के भीलो को भी उन्होंने अपने वश में किया था।राजा के डर से चोर भी चोरी जैसा निच काम भूल गए थे। राणा वीरधवल ने उनको खेत उपयोगी सामान देकर महेनत कर पेट भरने वाले बना दिए थे।

पाल विस्तार में ऐसा कहा जाता था की वहा से अगर कोई व्यक्ति अपने पहने हुए कपडे भी सही सलामत लेकर आ जाये तो वो धन्य हे, ऐसे प्रदेश में भी राणा वीरधवल ने कांटो की जालों को सुवर्ण आभूषण मूल्यवान वस्त्रो आदि से सुशोभित कर बिना चोकी पहरे के खुले छोड़ रखे थे, पर फिर भी उसे वहा से चुराने की कोई हिम्मत नही कर सकता था।इस बात से आप अंदाजा लगा सकते हो की राणावीरधवल का राज्य कितना सुगठित और संस्कारी होगा। वीरधवल के डर से उनके राज्य में व्यभिचार बिलकुल बंध हो गया था। गुणिकाए भी बहु-पति छोड़ एकपति के साथ अपना जीवन निर्वाह करने लगी थी।ऐसी मर्यादाए राणा वीरधवल ने अपनी प्रजा हेतु बंदोबस्त की थी और गुजरात को समृद्ध और संस्कारी बनाया था। राणा वीरधवल ने अपने सामंतो से कर वसूल कर गुजरात को फिर से धन-धान्य से समृद्ध किया था, देश विदेशो में गुजरात की कीर्ति फैलनी लगी थी। और गुजरात की ऐसी ख्याति सुन कर दक्षिण का सिंधण राजा अपनी विशाल सेना के साथ गुजरात पर अपने अधिपत्य जमाने के मनसूबे से आया। 

गुजरात की प्रजा के मन में डर व्याप्त होने लगा शत्रुओ की सैन्य की विशालता देखकर, पर राणावीरधवल वाघेला ने अपनी प्रजा के मन से डर दूर किया उनको दिलासा दिया। सिंधण की सेना गुजरात की सिमा में दाखल हुई, और गुजरात के गाँवों को जलाती, प्रजा को मारती, परेशान करती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। सिंधण की सेनाओ ने जलाये हुए गाँवों से उठते धुंए से सूर्य भी नही दिख रहा था, इसी पर से सिंधण की सेना की विशालता का अंदाजा लगाया जा शकता हे।वाघेला राणा वीरधवल और उनके पिताजी लावण्यप्रसादजी ने अपनी सेना को सज्ज किया। सिंधण के मुकाबले वाघेला की सेना संख्या में बहुत कम थी, पर पराक्रम, शौर्य और युद्धकला में सिंधण को मात दे शके एसी गुजरात की सेना थी। सिंधण की सेना तापी नदी के किनारे तक पहुच चुकी थी,दोनों सेनाए आमने-सामने आ गयी,और गुजरात के इतिहास में उस युद्ध का प्रारंभ हुआ जो शौर्य में अव्वल कहा जा शके पर बहुत कम लोगो को इस पराक्रमी युद्ध के इतिहास का पता होगा, इतिहास में कुछ एसी बाते दब कर रह गयी हे जो साहस शौर्य में अव्वल रहनी चाहिए, यह हमारा कम नसीब हे की ऐसी गाथाये, कहानिया,इतिहासिक बाते चर्चा का विषय न बनकर मात्र कुछ किताबो में बंध पड़ी रही है, खैर मूल बात पर वापस आते हे. लावण्यप्रसाद अपने दोनों हाथो में आयुध धारण कर, मुखमंडल पर क्रोध की रेखाए अंकित हो चुकी थी, सिंधण सेना को त्राहिमाम कराने लगे थे। पर गुजरात का भविष्य धुंधला सा होने लगा था।

कहा जाता हे की कोई संकट आता हे तो अकेला नही आता... उस हिसाब से, मारवाड़ पंथक के 4 राजाओ ने गुजरात की सेना को सिंधण के युद्ध में व्यस्त देख गुजरात पर कब्जा जमाने हेतु अपनी सेनाओ के साथ आ गए, इस तरह राणा वीरधवल वाघेला की सेना को दुगना संकट खड़ा हो गया, एसी विकटस्थिति में भी वीरधवल ने स्वयं पर संयम बनाये रखा और एक तरफ मारवाड़ की सेना के सामने भी युद्ध आरंभ हुआ। मारवाड़ी सेना और सिंधण के सेना से युद्ध चालु ही था, पर वाघेला वीरधवल के लिए समस्या और भी बढ़ने ही वाली थी।भरुच और गोधरा के राजा राणा वीरधवल वाघेला के सामंत थे। वे दोनों इस युद्ध में राणा वीरधवल वाघेला की और से लड़ने आये थे। पर शत्रु ओ की बढ़ती संख्या देख उन दोनों ने क्षत्रित्व को कलंक लगाने वाला अति हीन काम किया, गुप्त तरीके से वे दोनों मारवाड़ी राजो से मंत्रणा करने लगे। उन दोनों राजवी ओ को पाटण के सामन्त पद से स्वतंत्र होने का यह बहोत ही अच्छा मौका दिख रहा था। और वे दोनों ने अपनी सेना मारवाड़ी सेना के साथ मिला दी और गुजरात के विरुद्ध हो गए।वाघेला राणा वीरधवल की सेना और भी कम हो गयी। पर वीरधवल मजबूत मनोबलि व्यक्तित्व धारी थे। उनको पता था की ऐसे राजा और उनकी सेना अपने साथ होकर भी न होने के बराबर थी। 

क्योंकि जो अन्तःकरण से अपना न हो वह अपने लिए बहोत बड़ा खतरा बन शकता हे। संकट बहोत बड़ा हो गया था पर फिर भी वीरधवल ने हार नही मानी और युद्ध चालू रखा। इस समय 4 मारवाड़ी राजा, दक्षिण का सिंधण राजा और दो फूटे हुए सामंत- गोधरा और भरुच के राजा, मतलब एक साथ 7 राजाओ का सामना करना पड रहा था। पर इस बात से लावण्यप्रसादजी और वीरधवल की मुखमुद्रा पर कोई भय यादिलगीरी की रेखा नही दिखी। सम्पूर्ण क्षात्रत्व धारी थे वे दोनों पिता-पुत्र। सच्चा क्षत्रिय व्ही हे जो राजसभा और युद्ध दोनों ही स्थलो पर समान स्थिति में रहे, जरा भी विचलित न हो। और होना भी नही चाहिए, अन्यथा बहोत बड़ा नुकशान हो सकता हे।

उन्होंने सिंधण की सेना के साथ बहोत ही वीरता और शौर्य के साथ युद्ध किया। वृद्ध लावण्यप्रसादजी ने पूरी बहादुरी के साथ सिंधणकी बहोत सी सेना को काट डाला और सिंधणका बल कम किया। उसके बाद वे मारवाड़ी सेना पर टूट पड़े। सिंधण की सेना वाघेलाओ से इतनी ज्यादा त्रस्तहो गयी थी की जिस समय लावण्यप्रसादजी पुरेजोश के साथ मारवाड़ी सेना को मार रहे थे उस समय वे चाहते तो वाघेला ओ को परेशान कर शकते थे। पर शेर के मार्ग में, अगर शेर गुफा से दूर भी गया होतो भी हिरण उस मार्ग से नही चल शकता। इसी तरह सिंधण की सेना वाघेला ओ के पीछे नही जा शकी, इतना डर उनके मन में बैठ गया वाघेलाओ के प्रति, अगर वे वीरधवल से पुनः युद्ध करते तो वे जित सकते थे। लावण्यप्रसादजी को 4 मारवाड़ी राजाओ और अपने 2 विश्वासघाती सामंतो पर अतिशय क्रोध आया, जो उनको हराने के पश्चात ही शांत होने वाला था। पर एक तरफ नयी मुसीबत खड़ी हो उठी थी।

सिंधु के बेटे शंख जो घोघा बन्दर के पास वडुआ बेट का राजा था, उसने दूत द्वारा वीरधवल के मंत्री वस्तुपाल को युद्ध के लिए तैयार होने का संदेश भिजवाया।

प्रसंग कुछ यु हुआ था की - एक बार जब धोळका से वस्तुपाल, राजा की आज्ञा से खंभात(खंभात वीरधवल वाघेला का राज्य का ही एक प्रदेश/बंदर) गया, वहा पुरे खंभात नगर ने उसकी आगता-स्वागता की, अमीर-उमराव उस से मिलने आये, दरबार में उसे बहुत मान मिला, पर एक सदीक नामक अमीर मिलने नही आया, वस्तुपालने सेवक भेज कर उसे मिलने बुलाया पर सदीक ने सेवक से कहा"में कोई अधिकारी से मिलने नही जाता, और ना ही किसी अधिकारी के सामने झुकता हु, पर अगर आप मुझसे मिलने आओ तो में आपकी हर इच्छा पूरी करूँगा, पर में आपसे मिलने नही आऊंगा॥"

सदीक खंभात नगर का एक बहुत अमीर आदमी था, अहंकारी और घमंडी भी था, घोघा के पास वडुआ बेट का राजा शंख उसका मित्र था, साथ में हंमेशा हथियारधारी आदमी रखकर राजा-महाराजा जैसा दंभ भी करता था, जिस वजह से वस्तुपाल ने दबाव बनाया की अगर मिलने नही आओगे तो दंड होगा।

सदीक ने अपने मित्र शंख से इस बारे में सहायता मांगी जिस पर शंख ने दूत भिजवाकर वस्तुपाल से कहा की "सदीक मेरा मित्र हे उसे परेशान ना करे अन्यथा परिणाम अच्छा नही होगा"

वस्तुपाल ने उसी दूत से कहवाया की "आप वडुआ के राजा हे और यह हमारा आपसी मामला हे, खंभात हमारा प्रदेश जिस पर आप दखलअंदाजी नही कर सकते और आप को लड़ने की इच्छा हो तो आप ख़ुशी से आ सकते हे..."

अब जहा एक साथ 7 राजाओ से युद्ध चल रहा था उस समय शंख ने अपना दूत भेजा यह सोचकर की यह अच्छा समय हे खंभात पर कब्जा ज़माने के लिए। वाघेलाओ की सेना वेसे ही 7 राजाओ से युद्ध में व्यस्त हे, वस्तुपाल के पास दूत भिजवाकर कुछ इस तरह संदेश भेजा "हे चतुर मंत्री, तू समजदार हे और बहादुर भी, तेरे राजा पर बहुत बड़ा संकट आ गया हे, तुजे भी पता ही होगा की खंभात हमारे पूर्वजो की नगरी हे, वोह अब हमें वापस चाहिए, अगर तुजे उस नगर का मंत्री बनना हे तो तू मुझे आकर सलाम कर, में तुजे उस नगरी का हमेश के लिए मंत्री नियुक्त करूँगा, तुजे इनाम और जमीने दूंगा, पर यदि तूने मेरी बात स्वीकार नही की तो में खंभात तुम लोगो से छीन लूंगा, तेरी जगह पर किसी और को नियुक्त करूँगा, तूभी जानता हे तेरा अकेला राजा एक साथ 8 बड़े राजाओ से जित नही पायेगा, या मेरी बात मान ले या युद्ध के लिए तैयार हो जा."

ये बात वस्तुपाल को वज्र के घाव बराबर लगी, पर वह चतुर वणिक मंत्री ने बिना अभिमान दूत को उत्तर दिया "भले ही तेरा राजा युद्ध के लिए आ जाये, हम युद्ध के लिए तैयार हे, यदि गंगा नदी पर अगर हवा के साथ कुछ धूल-मिटटी या कचरा आकर गिरे तो वह नदी को मलिन नहीं कर शकता, पर नदी उस धूल-कचरे को कादव बनाकर पानी के निचे दबा देती हे, और स्वयंम असल स्थिति के मुताबिक़ निर्मल ही रहती हे। इसी लिए तुम लोग आकर खंभात पर कब्जा कर सको यह होना असंभव हे। शूरा क्षत्री राजाओ का तो धर्म ही हे की उसे अपना कर्तव्य कर के यश प्राप्त करना, पर तेरे जेसे के डराने से डर जाए वह नामर्द ही हो सकता हे। तेरा स्वामी राजा होकर भी खंभात मांग रहा हे, जब की हमारे राजा ने शस्त्रो के जोर पर खंभात को प्राप्त किया हे। अगर तेरे राजाको खंभात वापस चाहिए तो आयुध के जोर पर ही लेने की आशा रखे, तेरा राजा कहता हे की वीरधवल अकेला कैसे एक साथ सब से मुकाबला कर पायेगा? तो उसे कहना की वे दृढ और निश्चल पुरुष है, उनकी सहायता से वे कितने भी कठिन युद्ध में विजयश्री को हासिल करते हे, इस लिए हमें परमेश्वर पर पूरा विश्वास हे, खंभात नगरी का पति राणा वीरधवल वाघेला हे और हमें एक पति छोड़ कर दूसरा पति लाने की कोई इच्छा नही हे। इसी लिए अगर खंभात नगरी तेरा राजा अपनी करना चाहता हे तो वो मारा जायेगा"एसा संदेश दूत ने अपने राजा को सुनाते ही शंख क्रोधायमान हुआ, अपनी सेना को सज्ज कर तुरंत तीव्र गति से वह खंभात के सरोवर किनारे आकर अपनी सेना को तैयार किया, वस्तुपाल को युद्ध के लिए सूचित करने हेतु जोर जोर से ढोल बजवाये.वस्तुपाल जानता ही था की शंख जरूर आएगा इस लिए वह भी युद्ध की पूर्ण तैयारिया कर के तैयार ही था और भीषण लड़ाई हुई, वस्तुपाल खुद जैनधर्मि था और जैन धर्म में हिंसा बहुत बड़ा पाप हे, पर फिर भी वह अपने राजा वीरधवल के प्रति पूरी वफादारी और कर्मनिष्टता से बाण-वर्षा करने लगा।

मैदानी युद्ध में वस्तुपाल के दो श्रेष्ट क्षत्री वीर भुवनादित्य और संग्रामसिंह को शंख ने मार दिया जिस से वस्तुपाल क्रोधित हो उठा, वाचिंगदेव, उदयसिंह, विक्रमसिंह, सोमसिंह, भुवनपाल और हिरप्रधान की राजपूत टुकड़ी अपने जाबांज की शहादत देख शंख पर टूट पड़ी, शंख घोड़े से निचे गिर गया और भुवनपाल या वस्तुपाल ने उसे मोत के घाट उतार दिया। चारों ओर जोर से विजयनाद हुआ।

उस तरफ वीरधवल वाघेला से त्रस्त सिंधण ने बहुत बड़ी रकम का दंड भर कर संधि कर ली, मारवाड़ी और फूटे हुए सामंत को हार का मुह देखना पड़ा, चारों ओर वीरधवल की जयकार हो चली, गुजरात पुनः एक बार अपना सर आसमान से ऊँचा कर गौरवान्वित हो गया था।शत शत नमन वंदन ऐसे वीरो को जिन्होंने इतने बड़े संकट में भी अपने आप पर संयम बनाये रख कर बुलंद हौसले के साथ एक समेत 8 राजाओ को हरा दिया।

पुस्तक : वाघेला वृतांत


Vaghela sardar Army of Patan, Veerdhaval ji n Bhimdev Solanki (2nd)of Patan, fought with Huge army of Mhmd Ghori, in the mountains of Abu n crushed down his army n Successfully defeted him..!! Veerdhavalji n Bhimdev also defetd Kutu- buddin Aibak n drove his army away of Gujarat..!!





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