Thursday, April 25, 2019

संस्कृत भाषा मे न्याय एंव न्यायालय


भारतीय आर्ष वाङ्मयमें न्याय की पूर्ण प्रतिष्ठा रही है, किन्तु कालक्रमसे उसका स्वरूप नष्ट-सा हो गया है तथापि यहाँपर प्राचीन न्याय-पद्धातिका किच्चित्  विवरण दिया जा रहा है-

चार प्रकार के न्यायालय-
प्राचीन संस्कृत -साहित्यके अध्ययन से ज्ञात है कि न्यायालय चार प्रकार के होते थे- (१) प्रतिष्ठित, (२) अप्रतिष्ठित, (३) मुद्रित तथा (४) शासित।

प्रतिष्ठित - जो किसी पुर या ग्राममें हो।

अप्रतिष्ठित - जो समय-समयपर नाना ग्रामोंमें अवस्थित हो।

मुद्रित - जो राजाके द्वारा नियुक्त हो और मुहर प्रयोगमें ला सके।

शासित - जहाँ राजा स्वयं बैठकर न्याय करे।

न्यायालय के अन्य नाम भी है - सभा  (ऋक्० १ | १२४ | ७), धर्माधिकरण  या अधिकरण (मृच्छकटिक ९; कादम्बरी ८५) और धर्मस्थान अथवा धर्मासन (वसिष्टस्मृति १६ | २ )।

 कादम्बरी में राजप्रासाद का  विस्तृत वर्णन है और उसमें न्यायालय का भी वर्णन है। न्यायालयमें धर्माधिकारी लोग कुर्सी पर बैठते थे। वहाँ यह भी लिखा है कि उसमें  वेत्रासनका प्रयोग होता था।

समय - न्यायालय का समय प्रातः ६ | ३० बजेसे मध्याह्नपर्यन्त माना गया है। कौटल्य ने दिनका दूसरा भाग उपर्युक्त माना।

अवकाश - न्यायालय के अवकाश की तिथि अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा मानी गयी।

न्यायालय या सभाके दस अङ्ग - आचार्य वृहस्पति ने राजा, न्यायाधीश, सभ्य, स्मृतिशास्त्र, गणक (अकाउंटेंट), लेखक, सोना, अग्नि, जल तथा साध्यपाल (पुरुष) - ये दस अङ्ग मने हैं। न्यायधीश को अधिकरणिक भी कहा जाता था और प्राज्वाक भी।

दो न्यायालय - राजाका न्यायालय और मुख्य न्यायाधीश का न्यायालय - ये दो न्यायालय होते थे। अर्थशास्त्र के प्रणेता कौटल्य ने ग्रामकुट न्यायालय का उलेख भी किया है, जिसमें ग्रामके लोग चोरी करनेवाले तथा बेईमान को निष्कासित करते थे।



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