भाग्य और पुरुषार्थ में विवाद उठ खङा हुआ । उसने कहा मैं बङा दूसरे ने कहा मैं बङा । विवाद ने उग्र रुप धारण कर लिया । यश ने मध्यस्थता स्वीकार कर निर्णय देने का वचन दिया । दोनों को यश ने आज्ञा दी कि तुम मृत्युलोक में जाओ । दोनों ने बाँहे तो चढा़ ली पर पूछा-'महाराज ! हम दोनों एक ही जगह जाना चाहते हैं पर जायें कहाँ ? हमें तो ऐसा कोई दिखाई ही नहीं देता । यश की आँखें संसार को ढूंढते-ढूंढते हमीर पर आकर ठहर गई ।
वह हठ की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
एक मंगलमय पुण्य प्रभात में हठ यहाँ शरणागत वत्सलता ने पुत्री के रुप में जन्म लिया । वह वैभव के मादक हिंडोली में झूलती, आङ्गन में घुटनों के बल गहकती, कटि किंकण के घुंघरुओं की रिमझिम के साथ बाल-सुलभ मुक्त हास्य के खजाने लुटाती एक दिन सयानी हो गई । स्वयंवर में पिता ने घोषणा की-'इस अनिंद्य सुन्दरी को पत्नी बनाने वाले को अपना सब कुछ देना पङता है । यही उसकी कीमत है ।
वह त्याग की चुनौती थी ।
हमीर ने- 'स्वीकार है ।'
त्याग की परीक्षा आई । सोलहों श्रृंगार से विभूषित, कुलीनता के परिधान धारण कर गंगा की गति से चलती हुई शरणागत वत्सलता सुहागरात्रि के कक्ष में हमीर के समक्ष उपस्थित हुई-
'नाथ ! मैं आपकी शरण में हूँ परन्तु मेरे साथ मेरा सहोदर दुर्भाग्य भी बाहर खड़ा है । क्या फिर भी आप मुझे सनाथ करेंगे ।
वह भाग्य की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
अलाउद्दीन की फौज का घेरा लगा हुआ था । बीच में हमीर की अटल आन का परिचायक रणथम्भौर का दुर्ग सिर उँचा किये इस प्रकार खड़ा था जैसे प्रलय से पहले ताण्डव मुद्रा में भगवान शिव तीसरा नेत्र खोलने के समय की प्रतीक्षा कर रहे हों । मीरगभरु और मम्मूशा कह रहे थे- 'इन अदने सिपाहियों के लिये इतना त्याग राजन ! हमारी शरण का मतलब जानते हो ? हजारों वीरों की जीवन-कथाओं का उपसंहार, हजारों ललनाओं की अतृप्त आकांक्षाओं का बल पूर्वक अपहरण, हजारों निर्दोष मानव-कलिकाओं को डालियों से तोड़ कर, मसल कर आग में फेंक देना, इन रंगीले महलों के सुनहले यौवन पर अकाल मृत्यु के भीषण अवसाद को डालना ।'
वह परिणामों की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
भोज्य सामग्री ने कहा-'मैं किले में नही रहना चाहती, मुझे विदा करो ।'
वह भूखमरी की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
रणचण्डी ने कहा-'मैं राजपूतों और तुम्हारा बलिदान चाहती हूँ । इस चहकते हुए आबाद किले को बर्बाद कर प्रलय का मरघट बनाना चाहती हूँ ।'
वह मृत्यु की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
शाका ने आकर केसरिया वस्त्रों की भेंट दी और कहा-'मुझे पिछले कई वर्षों से बाँके सिपाहियों के साक्षात्कार का अवसर नही मिला । मैं जिन्दा रहूंगा तब तक पता नहीं वे भी रहेंगे या नही ।'
वह शौर्य की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
हमीर के हाथों में लोहा बजने लगा । अन्तर की प्यास को हाथ पीने लगे । उसके पुरुषार्थ का पानी तलवार में चढ़ने लगा । खुन की बाढ़ आई और उसमें अलाउद्दीन की सेना डूब गई । मानवता की सरल-ह्रदया शान्ति ने हमीर की तलवार पकड़ ली और फिर उसे छोड़कर चरणों में गिर पङी ।
वह विजय की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा - स्वीकार है ।
अप्रत्याशित विजय पर हमीर के सिपाही शत्रुसेना के झण्डे उछालते, घोड़े कुदाते रणथंभौर के किले की ओर जा रहे थे । दुर्भाग्य ने हाथ जोड़कर राह रोक ली,-'नृपश्रेष्ठ ! मैं जन्म-जन्म का अभागा हूँ । जिस पर प्रसन्न होता हूँ उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है । मैं जानता हूँ मेरी शुभकामनाओं का परिणाम क्या हुआ करता है परन्तु आप जैसे निस्वार्थी और परोपकारी क्षत्रिय के समक्ष सिर झुकाना भी कृतघ्नता है । आप जैसे पुरुषार्थी मेरा सिर भी फोड़ सकते हैं, फिर भी मेरा अन्तःकरण आपकी प्रशंसा के लिये व्याकुल है । क्या मैं अपनी प्रशंसा प्रकट करुं ?
वह विधाता की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
शत्रु पक्ष के झण्डों को उछलते देखकर दुर्ग के प्रहरी ने युद्ध के परिणाम का अनुमान लगा लिया । बारुद की ढेरी में भगवान का नाम लेकर बती लगा दी गई । आँख के एक झपके के साथ धरती का पेट फूट गया । चहचहाती हुई जवान जिन्दगी मनहूस मौत में बदल गई । हजारों वीराङ्गनाओं का अनुठा सौन्दर्य जल कर विकराल कुरुपता से ऐंठ गया । मन्द-मन्द और मन्थर-मन्थर झोंकों द्वारा विलोङित पालनों में कोलाहल का अबोध शिशु क्षण भर में ही नीरवता का शव बन चुका था । गति और किलोलें करते खगवृन्द ने चहचहाना बन्द कर अवसाद में कुरलाना शुरु कर दिया । जिन्दगी की जुदाई में आकाश रोने लगा । सोती हुई पराजय मुँह से चादर हटाकर खङी हुई । कुमकुम का थाल लेकर हमीर के स्वागत के लिये द्वार पर आई-'प्रभु ! मेरी सौत विजय को तो कोई भी स्वीकार कर सकता है परन्तु मेरे महलों में आप ही दीपक जलवा रहे हैं ।
वह साहस की चुनौती थी ।
हमीर ने-'स्वीकार है ।
हमीर ने देखा, कारवाँ गुजर चुका है और उसकी खेह भी मिटने को है, बगीचे मुरझा गए हैं और खुशबू भटक रही है। जीवन के अरमान मिट्टी में मिलकर धुमिल पङ गए हैं और उसकी मनोहर स्मृतियाँ किसी वैरागी की ठोकर की प्रतीक्षा कर रही हैं । मृत्यु ने आकर कहा-'नरश्रेष्ठ ! अब तो मेरी ही गोदी तुम्हारे लिये खाली है ।'
वह निर्भयता की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
महाकाल के मन्दिर में हमीर ने अपने ही हाथों अपना अनमोल मस्तक काटकर चढा़ दिया । पुजारी का लौकिक जीवन समाप्त हो गया । परन्तु उसके यशस्वी हठ द्वारा स्थापित अलौकिक प्रतिष्ठा ने इतिहास से पूछा- क्या ऐसा कोई हुआ है ? फिर उसने लुटे हुए वर्तमान की गोदी में खेलते हुए भविष्य से भी पूछा-'क्या ऐसा भी कोई होगा ? प्रश्न अब भी जिज्ञासु है और उत्तर निरुतर । रणथम्भौर दुर्ग की लुटी हुई कहानी का सुहाग अभी तक लौटकर नहीं आया । उसका वैभव बीते हुए दिनों की याद में आँसू बहा रहा है ।
यह शरणागत वत्सलता की चुनौती है ।
परन्तु इस चुनौती को कौन स्वीकार करें ? हमीर आत्मा स्वर्ग पहुँच गई, फिर भी गवाक्षों में लौट कर आज भी कहती है-'स्वीकार है ।
यश पुरुषार्थ की तरफ हो गया । भाग्य का मुँह उत्तर गया । नई पीढ़ी आज भी पूछती है -
सिंह गमनं सत्पुरूष वचन कदली फलै इक बार।
तिरिया तेल हम्मीर हठ चढै न दूजी बार।।
जिसके लिये यह दोहा कहा गया है वह रणथम्भौर का हठिला हमीर कौन था ?
तब अतीत के पन्ने फङफङा कर उतर देते हैं-
'वह भी एक क्षत्रिय था।' - रणथंभौर नरेश चौहानकुल भूषण अद्वितीय योद्धा, कुशल शासक औऱ प्रशासक, कुशल सेनानायक
रणनीतिज्ञ तथा विजेता, शौर्य ,वीरता, वचनबद्धता,
शरणागतवत्सलता, वीर हम्मीर देव चौहान।
राजपूतों के छत्तीस राजकुलों में चौहान राजपूतों ने वीरता ,स्वाभिमान ,शौर्यता ,त्याग ,बलिदान और आन -बान -शान का सम्पूर्ण रक्षण करके भारतभूमि की राष्ट्रीयता और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने ब्राहाय् -सुखोपभोगों का ही नही ,प्रियतम आत्मीयजनों का और स्वयं के प्राणों का भी बलिदान करने में सदा उत्सुक और तत्पर रहे।ऐसा सर्वानुमते स्वीकार हुआ है ,और इस प्राचीन व् गौरवशाली वंश के नामांकित राजपुत्रों की प्रशंसा में प्रत्येक भाषा में पूर्वकाल से ही अनेक काव्य ग्रन्थ रचे हुए है ।स्वतंत्रता ,स्वाभिमान और नेक -टेक की धुन में ही मंच -पंच हठीले चौहानों ने वैभव ,सत्ता व् राज्य का लोभ नहीं करते हुये कीर्ति का लोभ रखने के कारण कई महान योद्धा मुग़ल शासन में गमा दिए ।
पृथ्वीराज चौहान के बाद चौहानों के इतिहास में राजा हमीर देव चौहान ही महान व्यकित्तव ,आन -बान वाला साहसी व् तेजस्वी महान योद्धा था ।पूर्वी राजस्थान के सवाईमाधोपुरसे लगभग १२ किलोमीटर दूर रणथम्भोर अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा एक विकट ,अजेय ऐतिहासिक दुर्ग रणथम्भौर चौहान राजाओं का एक प्रमुख साम्राज्य रहा है ।जिसका शासन अंतिम हिन्दू सम्राट परमवीर साहसी पृथ्वीराज चौहान के वंशजों द्वारा किया जाता था ।रणथम्भौर को सर्वाधिक गौरव मिला यहाँ के वीर और पराक्रमी शासक राव हमीर देव चौहान केअनुपम त्याग और बलिदान से । हमीर चौहान वंशी राजा जैत्र सिंह का पुत्र था ।इसका शासन १२८१ - १३०१ तक रहा था।गद्दी पर बैठने के बाद हम्मीर ने दिग्विजय प्राप्त की।इसके बाद उसने १२८८ में अपने कुल पुरोहित विश्वरूपा की देख रेख मेंकोटि यज्ञ किया ।इसके २ वर्ष बाद १२९० ई0 में जलालुदीन ख़िलजी ने रणथम्भौर पर चढ़ाई की तो जेन पर हमीर की सेना ने सेनापति गुरुदास के नेतृत्व में भीषण युद्ध किया ।यह स्थान अब छान का दर्रा कहलाता है ।युद्ध में जब हमीर का सेनापति मारा गयातब सुलतान की सेना दर्रा पार कर रणथम्भौर पहुंची ।किला फतह करने हेतु उसने मंजीकने लगवायेऔर साबातें बनबाई परन्तु सभी अथक प्रयासों के बाद भी सफलता न मिलने पर दिल्ली लौट गया ।इसके दिल्ली लौटते ही हमीर ने जैन को वापस विजय कर लिया ।पुनः १२९२ ई0 में सुलतान जलालुद्दीन ख़िलजी ने हमीर पर चढ़ाई की किन्तु इस बार भी विफल रहा।
जलालुद्दीन को क़त्ल कर उसका भतीजा अल्लाउद्दीन ख़िलजी दिल्ली का सुलतान बन गया था ।उसने सेनापति उलगाखां और नसरतखां को गुजरात विजय करने हेतु भेजाजब इनकी सेना वापस लौट रही थी तो जालोर के पास बगावत हो गई ।वागीदल के नेता मोहम्मदशाह और उसका भाई मीर गाभरू भागकर रणथंभोर के राजा हमीर की शरण में आगये ।उस समय देश भर में ये दोनों सभी राजाओं व् महाराजाओं के पास शरण मांगते फिरे लेकिन किसी भी राजा ने अलाउद्दीन ख़िलजी साम्राज्य के इन भगोड़ों को शरण नहीं दी ।महाजनों ने राजा हमीर से शरण देने का घोर विरोध किया किन्तु हम्मीर ने उन्हें नही हटाया ।ख़िलजी ने भी उन्हें वापस माँगा किन्तु नही दिया इस पर सुलतान ख़िलजी ने अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु सेनापति अलगाखां को सन् १२९९ -१३०० ई0 की शर्दी में रणथंभोर पर आक्रमण करने भेजा लेकिन किले की घेरेबंदी करते समय हम्मीर के सैनिकों द्वारा दुर्ग से की गई पत्थर वर्षा से वह मारा गया ।इस पर क्रुद्ध हो अलाउद्दीन स्वयं रणथंभोर पर चढ़ आया तथा विशाल सेना के साथ दुर्ग को घेर लिया ।पराक्रमी हम्मीर ने इस आक्रमण का जोरदार मुकाबला किया ।हम्मीर की सेना ने दुर्ग के भीतर से ही ख़िलजी की सेना को काफी क्षति पहुंचाई ।इस तरह रणथंभोर का घेरा लगभग एक वर्ष तक चला ।अंततः ख़िलजी ने छल और कूटनीति का आश्रय लिया तथा हम्मीर के दो मंत्रियों रतिपाल और रणमल को बूंदी का परगना इनायत करने का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया ।इस विश्वासघात के फलस्वरूप हम्मीर को पराजय का मुख देखना पड़ा ।
अंततः उसने केसरिया करने की ठानी ।दुर्ग की ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया तथा राव हम्मीर अपने कुछ विश्वस्त सामंतों तथा मह्मांशाह सहित दुर्ग से बाहर आ शत्रु सेना से युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ ।जुलाई १३०१ ई0 में रणथंभोर पर अलाउदीन ख़िलजी का अधिकार हो गया ।इस प्रकार राव हम्मीर चौहान ने शरणागत बत्सलता के आदर्श का निर्वाह करते हुये राज्य लक्ष्मी सहित अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया ।भारतीय इतिहास की यह एक मात्र घटना है ,जिसमें किसी परमवीर महाराजा ने अपनी संप्रभुता अपने राज्य के लिए नहीं ,बल्कि शरणागत मुग़ल के परिजनोंकी रक्षार्थ ,अपने विशाल साम्राज्य ,अपना जीवन २५ हजार,राजपूत वीरांगनाओं और ३ लाख केसरिया वाना पहने राजपूत वीरों का सर्वस्व बलिदान कर दिया ।
हम्मीर के शौर्य और बलिदान की प्रशंसा करते हुये किसी ने लिखा है कि उसमें वे सब गुण थे ,जो एक आदर्श राजपूत चरित्र में होने चाहिए ।राजा हम्मीर के इस अदभुत त्याग और बलिदान से प्रेरित हो संस्कृत ,प्राकृत ,राजस्थानी व् हिंदी आदि सभी प्रमुख भाषाओं में कवियों ने उसे अपना चरित्रनायक बनाकर उसका यशोगान किया है ।
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A Rajput king who routed the army of Dinkhil in 1290 and 1292.
सिंह गमनं सत्पुरूष वचन कदली फलै इक बार।
तिरिया तेल हम्मीर हठ चढै न दूजी बार।।
Another in memory of Hammira of Ranthambhore !
“ Lion shall mate once, A nobleman keep his word, Kadli, flower will blossom only once, A girl will marry once, so does Hammira’s resolve... never waver “
(Every Rajput and Sanatani takes pride in reciting the couplet extolling the bravery and uprightness of Hammir Dev Chauhan.)
Translation: A lioness gives birth to a cub only once; once alone is the word of a good man given; once only does a plantain bear fruit; a woman is anointed only once with oil for marriage; and once alone did Hammira give his irrevocable PROMISE.
Whenever people speak about the history of India the one conception which commonly arises from the thoughts of many is that India was under the rule of foreigners for about 1000 years and the country was open for anyone to be plundered. Sadly the kings and countrymen who fought against the invaders valiantly and defended their invasions are not properly acknowledged. Many historians and common people are totally ignorant about the various rajput kings who served as the greatest defenders of India who kept the invading arab forces, which totally wiped out the Zorastrianism culture of Persia within a century, at check for more than two centuries.
Several Rajput rulers fought the invading forces to avert eradication of the cultural and traditional values of our country. Rajputs are known for their traditions & culture. From ancient times Rajputs were known for their valor and chivalry in battle. Rajput are considered to be formidable warriors even to this day. Rajputs have done great sacrifices for their motherland to keep its pride and culture.One such example can be seen from the plunder of the historic Somnath temple by Alauddin Khilji in which two Rajput rulers, Hammir Dev Chauhan of Ranathambore and Kanhad Dev Sonigara of Jalore, joined together to retrieve the lingam and restored the broken lingam at several Shiva temples in their kingdoms.
Hammir Dev Chauhan was a direct descendant of Prithviraj Chauhan. Almost Everyone Knows About King Prithviraj Chauhan and His Life.
But, What happened to His Dynasty After his death?
After Death of Prithviraj, his son, Govinda was Made Ruler by Ghurids on Heavy Tribute.
His Uncle, (brother of Prithviraj), Hariraja attacked Govinda and Displaced him from Ajmer. Local Chiefs of Hansi and Delhi too rebelled Against Ghurids. However, these rebellions were Not Successful.
Hariraja sent his General Jaitra to attack Delhi, when Ghurids were attacking Kannauj.
Jaitra Attained some success, but ultimately was defeated.
Ultimately, both Jaitra, and Hariraja, fell fighting Against Moslems.
After these events, Govinda Founded the Ranathambhaur Line of Chauhans.
He decided not to oppose Sultanate of Delhi and Paid Heavy tributes to them.
Govinda was succeeded by his son Valhana, who continued same policy
After him came Prahaladna, who Didn't live for long.
After him, came Viranarayana, with his Uncle Vagbhatta as His Regent.
Viranarayana had to fight early Against Iltutamish, but then Iltutamish Offered him Friendship and Had Him poisoned.
His Uncle Vagbhatta had warned him About Iltutamish, and later he left for malwa after his Advice was Rejected.
Vagbhatta carved out a kingdom for himself in malwa.
In 1236, After Death of Iltutamish, Vagbhatta Attacked Ranathambhaur and Recaptured it From Sultanate.
Vāgbhaṭa Chauhan marched his army to Ranthambhore (which was in hands of Delhi Sultanate at that time) & defeated Muzlim garrison stationed in fort.
"पश्यन्नथ-अरिनिर्मुक्त-रणस्तंभपुर-श्रियम्"
"शत्रु से मुक्त हुए रणस्तंभपुर की छवि देखते हुए..."
गजाश्वस्वर्णरत्नाद्यैर्यथास्थाननिवेशितैः।
स चकार धरासार-मंदिरं माद्यदिंदिरं॥
".. उस राजा वाग्भट ने हाथी, घोड़े, स्वर्ण, रत्न को यथास्थान निवेशित करके इस नगर (रणस्तंभपुर) को लक्ष्मी का निवास बना दिया।"
Just FYI, this feat of Vāgbhaṭa (~1236 CE) was years before Khilji attacked Ranthambhore in 1301 CE. Vagbhatta Fought Twice Against Ulugh Khan (Balban), in 1248 and 1253, and was Victorious in both occasions.
He was so powerful that even muslim historians Call him As "Greatest of the Rais of Hindustan"
It's Shameful, the General public knows Nothing about him Today.
Vagbhatta Died Sometime After 1253, and was Succeeded by His son Jaitrasimha.
Malik un Nawab Attacked him in Feb-march 1259.
Jaitrasimha must have Emerged Victorious, because Muslim historians Describe the attack, but they're Suspiciously Silent About the Result.
Jaitrasimha had 3 Sons, last of whom was Hammir dev Chauhan, Who was Annointed in 1282 AD.
Soon after getting crowned, Hammir raided Mount Abu, Bhimaraspura, Dhar, Vardhanpura, Gadhamandala, Champa, Khandela and Kankaroli. All these raids were successful and Hammir became more powerful and rich after these raids.
In 1290, Jalalu Dinkhil the new ruler of Delhi from Khilji dynasty, attacked Hammir because of his rising power. But he suffered a humiliating defeat in the hands of Hammir.
Several years later alaudin khilji army was also routed out by him he did defeat armies of khijis several times.
In 1296, Jalaludin was murdered by his nephew Alauddin who wished to become the emperor himself. In 1297, Allauddin sent an army to plunder Gujarat, under the generalship of Ulugh Khan and Nusrat Khan.
When Ulugh Khan asked Kanhad Dev, the then ruler of Jalore, the sanction to march through Jalore to conquer and destroy the temple at Somnath, Kanhad Dev refused and denounced Khilji’s actions. Due to the risk of an attack, Ulugh Khan had to take a longer route to Gujarat. In 1299, Ulugh Khan defeated Karandev II of Vaghela dynasty and destroyed the Somnath temple. During this destruction, more than 50000 hindu civilians were massacred mercilessly by the army of Khilji and riches beyond calculation were plundered. Ulugh Khan broke the jyotirlinga of Somnath into five pieces and decided to take it to the court of Sultan as a gift.
When the news of this plunder reached Kanhad Dev, he decided to retrieve the broken pieces of the lingam which were being taken to Delhi by attacking the forces of Khilji. When the forces of Khilji reached near his kingdom, Kanhad Dev along with son Biramdev ambushed the forces and retrieved the pieces lingam by defeating it. The pieces of lingam was then washed with Gangajal (water of river Ganga) and established in various temples in Jalore. Muhammad Shah, a neo muslim general in Khilji’s army, helped Kanhad Dev in this war. Neo Muslim generals Muhammad Shah, Kamru, Yalchak and Barq in Khilji’s army attempted to assassinate Ulugh khan because of his cruel massacres of civilians but failed. Hence Muhammad Shah took refuge at Ranathambore under Hammir.
Ulugh Khan went and informed Allauddin about the ambush, who ordered him and Nusrat Khan to conquer Ranathambore. In 1299, they started out with 80,000 cavalry and a large infantry to attack Hammir.
The Muslim governors tried to negotiate with Hammir and demanded for Muhammad shah’s death, 4,00,000 gold coins, 4 elephants and the handover of Hammir’s daughter Devaldevi. The terms were rejected. This resulted in a fierce battle. The forces of Ranathambore fought bravely though being outnumbered greatly and were successful in crushing the attack. Nusrat Khan was killed in the battle but his companion Ulugh Khan eluded and reached Delhi.
Khilji was taken aback by this defeat and wanted revenge. He finally came himself in 1301, and there was a long siege. Hammir was very well prepared and crushed the initial attacks, but famine was a great hurdle to him. When the fort did not fall after repeated bloody skirmishes, Khilji resorted to diplomacy by taking advantage of dissatisfaction due to famine and won over the confidence of two of Hammir’s generals, Ratipal and Ranmal. Khilji bribed these two generals of Hammir’s army. Both the generals along with others slipped away and joined Alauddin’s camp. He then attacked Jalore with a huge army of 50000 men after making sure that no help will reach Jalore from Ranathambore because of the famine. Kanhad Dev with an army of 5,000 men defended Jalore until he and his son Biramdev were both killed.
Finally after waiting for the most opportune time, Khilji attacked Ranathambore when the kingdom was severely attacked by famine. Seeing that defeat was obvious, the women of the kingdom performed Jauhar in order to escape from humiliation after being captured. Hammir and his forces rode out for battle the next morning after performing saka (wearing saffron clothes and garlands of tulsi leaves) one last time.
The forces of Ranathambore though being outnumbered fought valiantly and crushed the front lines of Khilji’s forces. However soon the forces of Ranathambore stumbled in the battle to match the forces of Khilji and were nearing defeat. In such a critical situation, Hammir’s horse was killed. This brave rajput surrounded by enemies then took out his bow and his bag of arrows and started killing the mlechchas around him, one with each arrow after uttering the words, “Hey shambu!! This is my last offering to u..”. Finally after killing all the mlechchas around him and running out of arrows the brave defender of dharma accepted death with smile. After the complete defeat of the Ranathambore forces, Khilji entered the city only to find it empty and hence razed the city to the ground. Thus, the valiant efforts of Kanhad Dev Sonigara and Hammir Dev Chauhan in preserving the traditions of this country from the invasion of foreign forces are sadly ignored by many of our countrymen.
Samrat Hammir was descendent of Samrat Prithviraj Chauhan. Just like his great ancestor, he also conquered nearby kingdoms to strengthen his empire. Under his reign, fortune of Ranthambore rose like never before.
Later on, Sultans of Delhi, Jlal- Ud- Din & Ala-Ud-Din tried to conquer Ranthambore.
Their first 3 attempts failed miserably where Chauhan forces repulsed these Mlechchhas.
Many muslim women were captured & made to sell butter-milk in the villages of the Kingdom. None of Them were r@ped or Converted or Enslaved.None of Them were r@ped or Converted or Enslaved.
"If ever Jalaluddin Khilji and Alauddin Khilji feared someone .... It was Ranthambhore & it's people led by Hatti Hammir Dev Chauhan"
In their 4th attempt, they were joined by the traitors of Ranthambore. They tried everything to conquer the fort but failed. Their soldiers got tired. Therefore, they offered to negotiate. The general Ratipala went for negotiation but betrayed Samrat Hammir.
Sultan Alau'd Din put to Flight; Women of Ranthambhor commit Jauhar. By the family of nainsukh, Kangra c1825 |
When Khilji got to know about the situation inside Ranthambore, he changed his plans.
Queen and princess sacrificed themselves in Jauhar.
Hammīr Sacrifices His Head, 1810, Mandi. |
Samrat Hammir alongside his brother Virama fought bravely till his last breath and offered his head to lord shiv in last when he was about to get captured.
रजवट खूंटो नीमणों
टूटे नांह हिलंत।
विध बांधी बल-बरत सूं
वसुधा देख डिगन्त।
रजवट(क्षत्रियत्व)वह मजबूत खूंटा है जो न तो हिल सकता है,न टूट सकता है इसिलिए विधाता ने इस विचलित होती हुई पृथ्वी को शक्ति की रज्जु से रजवट के खूंटे से बांधा है(क्षत्रिय के शासक होनेका यही सिद्धांत है
The Battis Khamba Chhatri is a three storied cenotaph that rests on 32 pillars. Built over a Shiva Temple to commemorate 32 years of Samrat Hammir's rule, it is one of the few remaining structures that are still intact in the 1500+ years old Ranthambhor Fort (Ranastambhapura).
Prithviraj III’s (Ranthambore) line through Hammir Chauhan survived through Hammir’s only surviving son Ramdeo Chauhan. Ramdeo had two sons: **Takshakdeo ** and Bhojraj.
Some purabiya Chauhans of Rajor( in Mainpuri) , Mainpuri are Descendant of bhojraj.
,A line for Purabiys Chauhan migrated from Rajor to Mewar after the battle of khanwa. And became Umrao of Kothariya.
Whereas Takshak Chauhan migrated to Bahauddinpur village (tehsil Kadipur,Sultanpur) in Awadh and established Bhaddaiyan Raj Taluq in Sultanpur district. Since they were ruling descendants from Prithviraj III through the eldest son of Hammirdev Chauhan, this branch at Bhaddaiyan Raj in Sultanpur became Rajkunwar Chauhans.
The Rajkunwars were the only ruling clans of Sultanpur to unite all the other clans of the area under one flag and form a grand State ...around 16th century under Bariarshah Rajkunwar of Bhaddaiyan Raj but the state and power of Rajkunwars was dissolved after the great uprising of 1857 as they supported the natives.The victorious British forces demoted the state to a zamindari.
Coming to point khilji conquered whole india rc majumdar in his book correctly fully says that islamic sources ignored series of hindu victories .20 years after khiji death entire South was gone out of sultanate rule and 5 years after his death entire rajputana was out of control
Kakataiya dynasty of south also routed out armies of khijis.
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