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धृञ्' धातुसे निष्पन्न 'धर्म'शब्दका अर्थ धारण करना, पालन करना या आश्रय देना आदि है- 'धरति लोकोज्नेन, धरति विश्वम इति, धरति लोकान्, ध्रियते वा जनैरिति।' (अमरकोश १।६।३)
महर्षि कणादपप्रणीत 'वैशेषिक दर्शन' में कहा गया है- 'यतोभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः।'
'धृ' धातु धारण, पोषण और महत्वके अर्थमें प्रयुक्त होती है। इसी धातुसे 'धर्म' शब्द निष्पन्न हुआ है- ' धर्मेति धारणे धातुर्माहात्म्ये चैव पाठ्यते। धरणाच्च महत्वेन धर्म एष निरुच्यते।।' (मत्स्यपु० १३४।१४)
श्रुतिका डींडिम उद्घोष है कि धर्म सर्वोत्कृष्ट है-
धर्मात्परं नास्त्यथो अबलीयान्बलीया ्ँसमाश ्ँसते धर्मेण यथा राज्ञैवं यो वै स धर्मः सत्यं वै तत्तस्मात्सत्यं वदतीत्येतद्धयेवैतदुभयं भवति।।'(बृहदारण्यक० १|४|१४)
अर्थात धर्मसे उत्कृष्ट कुछ नहीं है, इसलिए जिस प्रकार राजाकी सहायतासे (साधारण कुटुम्बी पुरुष) अपनेसे अधिक बलवानको पराभूत करना चाहता है, वैसे ही धर्मके द्वारा दुर्बल पुरुष भी बलवानको जितना चाहता है। जो धर्म है वह निःसंदेह सत्य ही है । इसलिए सत्य बोलने वाले को 'यह धर्ममय वचन बोलता है' तथा धर्ममय भाषण करने वाले को कहते हैं 'यह सत्य भाषण करता है' क्योंकि ये दोनों धर्म ही हैं।
धर्म ही समस्त संसारकी स्थितिका मूल है-
'धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा०'(महानारायणोपनिषद्)
धर्मके प्रति आस्थाका अंकुश अगर मानव-समाजने स्वीकार न किया होता तो निश्चित जानिए की मानवीय सभ्यता आज जीवित न होती । सभी कष्ट अधर्मके कारण हैं और अक्षय सुखका संयोग धर्मसे होता है।
अधर्मप्रभवं चैव दुःखयोर्ग शरीरिणाम्।
धर्मार्थप्रभवं चैव सुखसंयोगमक्षयम्।।
( मनु० ६ | ६४ )
वैज्ञानिकता से अभिभूत मस्तिष्कों में धर्मवाली बात सरलतासे प्रवेश नहीं कर पायेगी। उसके लिए आद्य शंकराचार्य और स्वामी रामतीर्थ- जैसी अनुभूति तथा पार्वती और मीरा- जैसा विश्वास चाहिए, जो यह मानते थे कि केवल बुद्धि पर ही मानव आश्रित नहीं है। इस विराट शक्तिके समक्ष मानव इतना सुक्षमातिसूक्षम है कि 'अणु' कहना भी अतिशयोक्ति होगी। इन्द्रीयजन्य अनुभूतिसे परे भी कुछ है, ऐसा मानना श्रेयस्कर है और वह है 'धर्म'।
विज्ञान एक शक्ति है, यह स्वीकार्य है। पर यह भी ध्रुव सत्य है कि विज्ञानके उप्योगका निर्देश धर्म ही कर सकता है।महर्षि चरक के वचन ध्यातव्य हैं।-
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अभिशापसे भी होनेवाले जनपदोद्ध्वंसका कारण भी अधर्म ही है।जब मनुष्योंकी धार्मिक भावना लुप्त हो जाती है, धन और शक्तिका मद बढ़ जाता है, जब वे पूज्य गुरु, वृद्ध, सिद्ध एंव ऋषियों का तिरस्कार करते हैं और उनके अभिशापसे एक साथ समूल नष्ट हो जाते हैं।
धर्मवीर युधिष्टिर आदि पांडव कौरवों द्वारा दी गयी यातनाको भी सहते रहे। धर्मकी मर्यादा का निर्वाह भी करते रहे, पर प्रतिवाद नही किये, धर्म ही उनकी रक्षा करता रहा। परंतु महाभारतके युद्धमें रथका पहिया धँस जाने पर जब कर्ण अर्जुन को धर्मके लक्षण गिनाकर कर्तव्य समझने लगता है-
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अर्जुन! जो केश खोलकर खडाहो, युद्धसे मुँह मोड़ चुका हो, ब्राह्मण हो, हाथ जोड़कर शरणमें आया हो, जिसके बाण, कवच और दूसरे-दूसरे आयुध नष्ट हो गए हों, ऐसे पुरुषपर उत्तम व्रतका पालन करने वाले शूरवीर शस्त्रों का प्रहार नहीं करते।
तब श्रीकृष्ण स्वयं एक-एक अधर्मपूर्ण कृत्योंकी याद दिलाकर कर्णसे पूछते हैं- छलपूर्वक जुएके समय, भीमको विष देते समय, लाक्षागृह काण्ड में, द्रौपदी चीरहरण एंव अभिमन्यु-वधके समय 'क्व ते धर्मस्तदा गतः?' तब तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था।
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'यदि उन अवसरों पर यह धर्म नहीं था तो आज भी यहाँ सर्वथा धर्मकी दुहाई देकर तालु सुखाने से क्या लाभ?' सत्त्विहीन, प्राणहीन, अर्थहीन शब्दोंसे ऊपर उठने का यह कितना बड़ा सामर्थ्य था श्रीकृष्णमें! धर्मके पाशको विच्छिन्न कर , धर्मके प्राणको विमुक्त करनेकी कैसी निर्भीक घोषणा थी! आज भी आश्चर्य होता है।
'धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।' (मनु० ८|१५)
अर्थात धर्मकी रक्षा करनेपर वह रक्षक बन जाता है और उसका उल्लंघन करनेपर वही धर्म मार डालता है। यह सिद्धांत कितना अटल है-
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
(विष्णुधर्म० ३ | २५३ | ४४ )
अर्थात जैसा व्यवहार आपको अपने प्रश्न रुचता हो, वैसा आप अन्यके प्रति भी न करें। नीतिधर्म कि यह उदघोषणा परम कल्याणकारी है। आप दूसरोंके प्रति वैसा व्यवहार अवश्य करें, जैसा आप उनसे चाहते हैं। 'धर्म चरत मा धर्मेम्' अर्थात सदैव धर्माचरण ही करो, अधर्माचरण कभी भी न करो- इस वचनक पालन करने वाला सदा सुखी रहता है, उसके लोक-परलोक दोनों बन जातें हैं।
पुत्रशोकसे संतप्त गांधारी को जब यह ज्ञात हुआ कि युधिष्ठिर अपने शत्रुओंका संहारकर मेरे पास आये हैं, तब गांधारी ने उन्हें शाप देने की इच्छा की- गान्धारी पुत्रशोकार्ता शप्तुमैच्छदनिन्दिता'। किंतु सत्यवतीनन्दन महर्षि व्यास तो त्रिकालदर्शी ठहरे। वे दिव्य दृष्टिसे तथा अपने मनको समस्त प्राणियोंके साथ एकाग्र करके उनके आन्तरिक भावको समझ लेते थे।
दिव्येन चक्षुषा पश्यन् मनसा तदगतेन च।
सर्वप्राणभृतां भावं स तत्र समबुध्यत ।।
(महाभारत,जलप्रदानिकपर्व १४|५)
महर्षि उस स्थलपर पहुँच गए जहाँ गान्धारी और पाण्डव उपस्थित थे। वे गान्धारी से बोले-
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गान्धार राजकुमारी ! शान्त हो जाओ, तुम्हें पाण्डुपुत्र युधिष्ठर पर क्रोध नही करना चाहिये। अभी-अभी जो बात मुँहसे निकलना चाहती हो उसे रोककर मेरी बात सुनो। प्रतिदिन विजयक़ी कामनासे गत अठारह दिनोंसे तुम्हारे पास तुम्हारा पुत्र आकर कहता था- 'माँ ! मैं शत्रुओंके साथ युद्ध करने जा रहा हूँ। तुम मेरे कल्याण हेतु आशीर्वाद दो।'
जब-जब भी विजयकी कामनासे दुर्योधन समय-समयपर तुमसे प्रार्थना करता था, तब-तब तुम सदा यही उत्तर देती थी कि- 'जहाँ धर्म है, वहीं विजय है।' क्या पाण्डवोंकी विजयके बाद भी तुम्हें विश्वास नहीं कि पाण्डवोंमें धर्म का बल सर्वाधिक है- 'श 'नुनं धर्मस्ततो धिकः'।
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम्।
धर्मेण लभते सर्वे धर्मसारमिदं जगत् ।।
( वा० रा० ३ | ९ | ३० )
अर्थात धर्मसे अर्थ प्राप्त होता है, धर्मसे सुखका उदय होता है तथा धर्मसे सब कुछ पाया जा सकता है। इस संसार में धर्म ही सार है।
प्राणों पर संकट भले ही आ जाएँ। फिर भी अपने धर्मपालन से डिगना नही चाहिये- 'न धर्में त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः।'
मैंने राजपुताना के चुंडावत, झाला, शेखावत, चौहान, राठौड़, राणा, तोमर, सिसोदिया और डोडिया आदि - जैसे क्षत्रिय परिवारोंमें घरोंके प्रवेशद्वार आज भी 'धर्मो रक्षति रक्षितः' का रूपान्तर 'जे दृढ़ राखे धर्म ने, तेहि राखे करतार' सुभाषितलिख हुआ देखा है।
धर्म ही कामधेनु के समान सारी अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला है। संतोष स्वर्गका नन्दन-कानन और विद्या मोक्षकी जननी है, जबकि तृष्णा वैतरणी नदीके समान नरक में ले जानेवाली है-
धर्मः कामदुधा धेनुः संतोषो नन्दनं वनम्।
विद्या मोक्षकरी प्रोक्ता तृष्णा वैतरणी नदी।।
धर्मराज युधिष्ठिर ने ओघवती नदीके तटपर शर-शय्यापर लेते हुए पितामह भीष्म जी से पूछा- ' पितामह ! सर्वोत्तम धर्मका जीवनोपयोगी उपदेश देनेकी कृपा करें।' उन्होंने उत्तर दिया-
एष मे सर्वधर्माणां धर्मोधिकतमो मतः।
यद्भक्त्या पुंडरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा।।
अर्थात मुझे तो सर्वोत्तम धर्म यही लगता है कि मनुष्य सदा भक्तिपूर्वक कमल-दल-नयन श्रीमन्नारायण की स्तवमयी सपर्या-- अर्चा, पूजा करता रहे।
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