Thursday, December 1, 2022

TOWER OF FAME - THE JAIN KIRTI STAMBH OF CHITTORGARH


जैन कीर्तिस्तंभ से संबंधीत शिलालेख -डा गोपीनाथ शर्मा की पुस्तक राजस्थान के इतिहास के स्रोत में जैन कीर्ति स्तम्भ से संबंधीत कुछ शिला लेखो का वर्णन दिया गया है जो निम्नानुसार है |


जैन कीर्तिस्तंभ से संबंधीत तीन लेख-(१३ वी सदी )


इन तीनो लेखो का सम्बन्ध चित्तोड़ के जैन कीर्ति स्तम्भ से है , क्योकि तीनो में स्तम्भ के स्थापनकर्ता शाह जीजा तथा उनके वंश का विवरण उपलब्ध होता है |वैसे तो इनमे कही भी समय अंकित नहीं मिलता है परन्तु चित्तोड़ की स.१३५७ की एक प्रशस्ति में, जिसका वर्णन ऊपर दिया गया है, जिस गुरु परंपरा का वर्णनमिलता है,उसी का वर्णन प्रथम प्रशस्ति में मिलता है | इससे ये स्पष्ट है की ये प्रशस्तिया भी १३ वि शताब्दी की है |प्रथम लेख में ४५ श्लोक है | इसके प्रारम्भ में दीनाक तथा उसकी पत्नी वाछी के पुत्र नाया के द्वारा एक मंदिर के निर्माण का वर्णन है|नाय की पत्नी नागश्री और उसका पुत्र जीजा थे |इनके सम्बन्ध में उल्लेखित है की इन्होने चित्तोड़ में चंद्रप्रभु मंदिर और खोखर नगर में भी एक मंदिर बनवाया | इनके पुत्र पूण्यसिंह ने अपने धन का उपयोग दान के द्वारा किया | इनके गुरु विशालकीर्ति के शिष्य शुभकीर्ति के शिष्य धर्मचन्द्र थे| महाराणा हम्मीर ने इनका खूब सम्मान किया था | इनके द्वारा कीर्तिस्तंभ की स्थापना करवाई गई थी | चित्तोड़ के वर्णन में वहा वृक्षावली के कारण शीतल वायु का उल्लेख से वहा की जलवायु पर अच्छा प्रकाश पड़ता है |


दुसरे लेख का मुख्य भाग श्याद्वाद के सम्बन्ध में है |इस लेख का नतीम पंक्ति में बघेरवाल जाती के नाय के पुत्र जीजा द्वारा स्तम्भ निर्माण का उल्लेख है |

तीसरे लेख के प्रारम्भ में निर्वाण भक्ति का विवेचन दिया गया है और अन्तिम भाग में जीजा के युक्त संघ की मंगलकामना की गई है |


जैन कीर्तिस्तंभ से संबंधीत खंडित लेख

ये लेख दो खंडो में मिले है जिनके द्वारा जैन कीर्ति स्तम्भ के सम्बन्ध में कुछ अपूर्ण सूचना मिलती है| इनमे किसी में भी तिथियाँ नहीं है |प्रथम खंड में कैलाश शैल शिखर स्थित देवता की तथा अरिस्ठनेमी की स्तुतिया है और पावापुरी का वर्णन है | इसमें कुल १२ श्लोक है | इसके अंत के भाग में 'संघजिजान्वित सहा ' का पाठ मिलता है - 'बघेरवाल जातीय सा.नाय सूत जिजकेन स्तम्भ कारापित '


चित्तोड़ का एक अन्य लेख


यह लेख चित्तोड़ के जैन स्तम्भ के पास किसी मंदिर में लग रहा था , जहा से संभवत किसी तरह इसे हटाया गया हो| अब इसकी तीन चार शिलाओं में से एक ही शिला उपलब्ध है जिसे गोसाईं जी के चबूतरे के पास लगा दिया गया है| इस शिलालेख में २१ से ४५ श्लोक है | श्लोक ४४ में हम्मीर का और श्लोक ४५ में पुण्यसिंह द्वारा मानस्तंभ की प्रतिष्ठा का वर्णन है |अन्य कई श्लोको में श्रेष्ठी पुण्यसिंह का विस्तार से वर्णन है | प्रस्तुत लेख से हम पूर्वमध्यकालीन युग के चित्तोड़ में विधा की प्रगति का अध्ययन कर सकते है |उस काल में जैन साधू विशाल कीर्ति ,शुभकीर्ति आदि साहित्य और दर्शन के प्रकांड विद्वान थे | जैसा की इस लेख से स्पष्ट है , इस लेख से हमें तिथि ,संवत आदि की सुचना उपलब्ध नहीं होती |

प्रसिद्द इतिहासकार श्री रामवल्लभ सोमानी जी की पुस्तक (History of Mewar-from earliest times to 1751 CE.) पृष्ट क्रमांक ९२ के अनुसार।


चितौड़ दुर्ग की राम पोल में प्रवेश करने के बाद उत्तर ( बायीं ) की तरफ जाने पर कुकड़ेश्वर तालाब और रावल रत्नसेन के महल वाले रास्ते में आगे गोलाई में घूमते हुवे लाखोटा बारी से आगे जाने पर दक्षिण दिशा में जाती सड़क के बाई तरफ सात मंजिला कीर्ति स्तम्भ दूर से ही दिखाई दे जाता है | कीर्ति स्तम्भ के पास ही समकालीन महावीर स्वामी को समर्पित जैन मंदिर बना हुवा है | दोनों का निर्माण लगभग साथ साथ चौदहवी शताब्दी के प्रारम्भ का है |

गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार सात मंजिल वाले इस कीर्ति स्तम्भ का निर्माण दिगंबर जैन सम्प्रदाय के बघेरवाल महाजन सेठ नाया के पुत्र जीजा ने (विक्रम संवत १३५७ तदनुसार इसवी संवत १३०१ मे) करवाया था | यह स्मारक जैन सम्प्रदाय के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है | स्तम्भ की चारो दिशाओं में पार्श्व में आदिनाथ जी की चार दिगंबर (नग्न) खड़ी प्रतिमाये लगाईं गई है | कहते है की बिजली गिरने से ये स्तम्भ क्षतिग्रस्त हो गया था और इसकी शीर्ष की छत्री गिर गई थी जिसे तत्कालीन महाराणा फ़तेह सिंह जी ने ठीक करवाया था | स्तम्भ के ऊपर वाली मंजिल में जैन धर्म से सम्बंधित सेकड़ो अद्भुत मानवीय आकृतियों उकेरी गई है| आदिनाथ जी की चारो प्रतिमाओं के नीचे की तरफ भी मूर्ति शिल्पकला को देख कर आप दंग रह जाते है | मूर्तियों में तत्कालीन सामाजिक जीवन का शायद ही कोई विषय अछुता रहा हो| स्तम्भ के चारो और लगी छोटी छोटी नृत्यांगनाओ की मुर्तिया बड़ी सुन्दर तरीके से उकेरी गई है|


जैन मंदिर-


कीर्ति स्तम्भ के पास ही महावीर स्वामी का जैन मंदिर स्थित है जिसके महाराणा कुम्भा के शासनकाल में १४३८ में ओसवाल महाजन गुणराज द्वारा जीर्णोधार करवाने का उल्लेख आता है ऊँची जगती पर बने इस मदिर के पार्श्व की और पीछे की दीवारों में लगी मूर्तियों में कमनीय नायिकाओ का तक्षांकन अद्भुत है।



The Kirti Stambh stands as another famous attraction that was built in the 13th century. Kirti Stambha is located inside the Chittorgarh Fort Complex. Kirti Stambha is dedicated to Sri Adinath, the first Tirthankara in Jain Faith. Figures of Tirthankaras indicate that it belongs to the Digambara sects. Many Jain followers consider Kirti Stambha as a major pilgrimage center. Visiting the Kirti Stambha not only gives you a chance to know about history but also makes you a spectator of a great view.


The temple was built around 1167 Vikram era and the Kirti Stambh was constructed in 12th CE by the Bagherwal Jain merchant Jijaji Rathod during the reign of Rawal Kumar Singh (1179 – 1191 CE). Kirti Stambha is older than another tower in the magnificent Chittorgarh fort, which is Vijay Stambha it is also known as the Tower of Victory. The Kirti Stambha personifies Solanki Style of Architecture at its best. 

An albumen photograph of the Jain temple tower, the Kirti Stambh, by Bourne and Shepherd, 1870's

After becoming ruin , kirti stambh was again renovated by MahaRana Fateh Singhji of Udaipur. The short way near fateh prakash museum leads to a great jain architecture Kirti Stambh or Tower of Fame at chittorgarh fort.


This tower is 22 meter high and have beautiful figures made on it. The ground portion of tower have 30 ft of area and upper part have 15 ft of area. Lot of small images are carved on all sides of the tower.
Kirti stambh have 7 floors and each floor have remarkable structure. Top most floor gives great view of other parts of fort like victory tower, Fateh prakash.

Jain Saint’s figures are neatly carved on the Stambha, adding to more charm are columned balconies and latticed arches, there is an observation hall, which can be reached through a narrow flight of stairs; visitors are awarded a splendid view of the vicinity.


Just near to kirti stambh (tower of fame), a beautiful jain temple is made with unique carving made on it.
The Jain Kirtistambh of chittor is a fine piece of jain art. Numerous inscriptions and casual literary references are known about it. Two fragmentary inscription of 13th century A.D.,collected by G.S. Ojha from the heaps of stones lying at the foot of this edifice, mention the name of one Jija Bagherwal as the constructor of this Kirtistambh. However, these inscriptions are very much damaged and do not throw any light on the history of his family. One of these inscriptions contains 12 verses from the Nirvana-Kand and other some text from jain scriptures.The family of Jija subsequently migrated to central india,where one of his descendants installed an image at Nandganva in V.E.1541 (1484A.D.) and engraved an inscription on its pedestal, which has also a reference that this kirtistambh was completed by Punyasingh son of Jija Bagherwal, one of his ancestors.


There is another group of inscriptions which mention that this pillar was originally get constructed by one kumarpal, while the renovation was done by Gunraj in V.E. 1494( 1438 A.D). In new inscription which has got verses from 21 to 45. A perusal of it proves that the construction was got done by the family of Jija. His father was Naya, who got the Chandraprabha Tample completed at Chittor. He spent lavishly in constructing other numerous jain temples at Chittor,Khohar,Sanchor etc. But his most momentous work was the construction of the jain Kirtistambh. However, he could not see it completed during his own life time and his son Punysingh did it. The consecration ceremony was done by Jain acharya Dharmachandra of Mulasangh. on the basis of another unpublished inscription of V.E. 1357 (1300 A.D.), now lying in the Office of the Central Archaeological Deptt. Chittor, it may be proved that it had been completed by them.



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