Saturday, April 1, 2023

| ॐ द्यौहा शांतिरान्तरिक्षं शांतिहि |


एक संत एक बार अपने शिष्यों के साथ मछुआरे के जल में मछलियों का फसना देख रहे थे। जाल में कुछ मछलियां शांत थी, कुछ जाल से निकलने का प्रयास कर रही थी और कुछ अपने प्रयत्न से जाल से मुक्त हो गयी थी। संत शिष्यों ने कहा, मछलियों की तरह ही मनुष्य भी तीन प्रकार के होते है। एक तो वे जो बंधन स्वीकार कर भवजाल से मुक्त होने का प्रयास नही करते, दूसरे वे जो वीरों की तरह प्रयास करते हैं पर असफल रहते हैं, तीसरे वे जो अपने चरम प्रयत्न द्वारा ही मुक्ति पाते हैं। इस पर गुरुदेव ने कहा मेरे बच्चों एक चौथी श्रेणी और होती हैं। इसमें लोग उन मछलियों की तरह होते हैं, जो जाल के समीप ही नहीं जाती और उनके फंसने के सवाल ही नही पैदा होता। ऐसा कहते हुवे उन्होंने एक दृष्टांत भी दिया कि एक बार एक महारानी का हार कहीं खो गया । राजा ने नगर में घोषणा कर दी कि जिस व्यक्त्ति को हार मिला हो, वह तीन दिन के भीतर वापस कर दे, अन्यथा उसे मृत्युदंड का भागी होना पड़ेगा। यह संयोग था कि वह हार एक सन्यासी को मिला था। उसने यह सोचकर हार रख लिया कि कोई हार ढूंढता हुवा आएगा तो उसे दे देगा। उसने अगले दिन राजा की घोषणा सुनी, पर वह हार देने नही गया। वह अपनी तपस्या में लीन रहा। जब तीन दिन गुजर गए। तो चौथे दिन सन्यासी हर लेकर राजा के पास गया तो उसे मालूम चला कि वह तीन दिनों से हार अपने पास रखे था। इसपर क्रोधित हुवे राजा बोला, क्या तुमने मेरी घोषणा नही सुनी थी?

सन्यासी ने जवाब दिया, राजन, घोषणा तो मैंने सुनी थी, पर जानभुझकर हार देने नही आया। लोग भी क्या कहते, एक सन्यासी होकर मैं मृत्यु से भयभीत हो गया। संन्यासी की बात पर राजा ने फिर पूंछा, तो आज चौथे दिन क्यो आये हो।

इस पर संन्यासी ने कहा, मुझे मृत्यु का भय नही, पर पाप का जरूर भय है। किसी दूसरे की संपत्ति को अपने पास रखना पाप है। मैं संन्यासी हूँ, पापी नहीं। संन्यासी का ऐसा उत्तर सुन राजा का क्रोध शांत हो गया क्योंकि संन्यासी उस चौथी श्रेणी के जलचर की तरह जल में रहते हुए भी माया जाल से दूर था। इसलिए उसमे फसने से दूर रहा। यही आदर्श स्थिति है कि हम अपनी इच्छाओं, कामनाओं को नियंत्रित रखें और दूसरों से किसी प्रकार के लाभ, सहयोग पक्षपात की अपेक्षा से विरक्त रहें इससे हम मानसिक क्लेश से बच सकते हैं।

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