Monday, November 2, 2020

VALIANT NURU BARHATT JI AND 20 MACHATOR WARRIORS - IMMORTAL RAJPUTS


कहिया नरपाल़ आविया कटकां। घूण छड़ाल़ धरापै धौल़।।
पौल बड़ा गज बाज पामतो। पड़तै भार न छोडूं पौल़ ।।१।।


मेवाड़ (उदयपुर) के सारे दरवाजे जैसे उदयपोल, किशनपोल, एकलिंगगढ़, ब्रह्मपोल,चांदपोल,गड़िया देवरा पोल ,हाथीपोल और दिल्ली दरवाजे बंद किये जा चुके थे। लेकिन उस रात दिवाली मनायी गयी थी मेवाड़ के हर दरवाज़े पर सैकड़ो मशालें और दीप जलायें थे नरु के साथियों ने।

1679ई. तक औरंगज़ेब समूचे उत्तर भारत के मंदिरों को लूट चूका था। शहर के शहर बरबाद करता चला जाता उसका कारवाँ। उसके सिपाही न सिर्फ लूटपाट करते बल्कि राज्य की खूबसूरत महिलाओं के साथ बलात्कार करते या उन्हें बन्दी बनाकर सिपाहियों के हरम में ले जाते। सिपाहियों का हरम किसी नरक (दोज़ख ) से कम नहीं होता जहाँ बमुश्किल ही कोई सात दिन जी पाता हो ! बच्चों और आदमियों को उनके सामने पहले की मार दिया जाता वो भी वीभत्स मौत के साथ।

1679 ई.से ही औरंगज़ेब के जेहन में राजपुताना के एक ही रियासत ‘मेवाड़’ को रौंदने का मन था और जनवरी 1680 की तेज़ कड़कड़ाती ठण्ड में उसकी सेनाओं ने मेवाड़ की सीमा पर आकर डेरा डाल लिया। सैनिक इतने जितने मेवाड़ में नागरिक नहीं और हर मेवाड़ी योद्धा के सामने औरंगज़ेब के 10 योद्धा थे।

तत्कालीन शूरवीर महाराणा राजसिंह द्वारा फौजी जमावड़ा महीनों पहले से चल रहा था। उन्हें पता था कि किस तरह जनता को सबसे पहले बचाना है। बादशाह औरंगज़ेब ने शहज़ादे मुहम्मद आज़म, सादुल्ला खां, इक्का ताज खां और रुहुल्ला खां को उदयपुर पर हमला कर वहां के मन्दिर वगैरह तोड़ने के साथ उदयपुर को लूटने भेजा।

महाराणा राजसिंह ने अपने जिग़र के टुकड़े को गिर्वा की पहाड़ियों पर कुँवर जयसिंह (महाराणा के पुत्र व भावी महाराणा) को तैनात कर दिया। देसूरी की नाल के इलाक़े में बदनोर के सांवलदास राठौड़ को कमान सौंपी गयी थी। बदनोर-देसूरी के पहाड़ी भाग पर विक्रमादित्य सौलंकी व गोपीनाथ घाणेराव युद्ध के लिए तैयार थे। मालवा सीमा पर मंत्री दयालदास को नियुक्त किया गया। देबारी,नाई और उदयपुर के पहाड़ी नाकों पर स्वयं महाराणा राजसिंह तैनात हुए।

वो दिन आ ही गया जब मुगल फौज लड़ते हुए उदयपुर आ पहुंची, तो वहां इन्होंने पूरा उदयपुर खाली पाया। महाराणा राजसिंह प्रजा व सेना सहित अरावली के पहाड़ों में जा चुके थे। सादुल्ला खां व इक्का ताज खां फौज समेत उदयपुर के जगदीश मंदिर के सामने पहुंचे, जो कि उदयपुर के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक था व इसको बनाने में भारी धन (उस समय के लगभग 6 लाख रूपये ) खर्च हुआ था।

इस मंदिर की रक्षा के लिए नरू बारहठ सहित कुल 20 राजपूत योद्धा तैनात थे, जिसका विवरण सुनकर आप की आँखे भीग जाएँगी। जब महाराणा राजसिंह राजपरिवार व सामंतों और जनता सहित पहाड़ों में प्रस्थान कर रहे थे तब किसी सामन्त ने महाराणा के बारहठ नरू को ताना दिया कि 

” जिस दरवाज़े पर तुमने बहुत से दस्तूर (नेग) लिए हैं, उसको लड़ाई के वक़्त ऐसे ही कैसे छोड़ोगे ?”


नरू बारहठ साहब एक क्षण मौन के बाद हुंकारे – 

“जब तक नरु बारहठ के धड़ पर शीष रहेगा तब तक ठाकुर जी (जगदीश मन्दिर) की सीढ़िया कोई आतातायी नहीं चढ़ सकेगा। एकलिंग विजयते नमः”।

नरू बारहठ के अपने 20 साथी भी कहाँ मानने वाले थे और वे भी उनके साथ यहीं रुक गए।

पूरा उदयपुर ख़ाली था। घण्टाघर से हाथीपोल तक संन्नाटा। एक भी आदमी नहीं। यहाँ तक कि शहर के स्वानो तक को अनहोनी की आशंका हो गयी थी शायद। वो भी गायब थे लेकिन तोते और चिड़ियाओं की आवाज़े सुनसान मरघट जैसे सन्नाटे को यदा कदा चीर रही थी।

सबसे पहले नरु के साथियों ने शहर के सारे मंदिरों की पूजा की।कई शंख एक साथ ऐसे बजाये गए मानों सैकड़ो लोग रणभेरी बजा रहे हो। ठण्ड की इस रात में भी सभी की भुजाएँ फड़क रही थी। मौत का कोई खौंफ नहीं। आँखों में इतना तेज़ मानो सूरज की रश्मियाँ हो।
निर्देशानुसार रात सभी लोग जगदीश मंदिर आ गए।

मेवाड़ (उदयपुर) के सारे दरवाजे जैसे उदयपोल, किशनपोल, एकलिंगगढ़, ब्रह्मपोल, चांदपोल,गड़िया देवरा पोल ,हाथीपोल और दिल्ली दरवाजा बंद किये जा चुके थे। लेकिन उस रात दिवाली मनायी गयी थी मेवाड़ के हर दरवाज़े पर सैकड़ो मशालें और दीप जलायें थे नरु के साथियों ने।

मुग़ल फौज इतनी खौफ़जदा थी कि उसने रात में शहर पर हमला करने की हिम्मत न की। उधर नरु और साथियों ने आखिरी आरती की जगदीश मन्दिर में। एक दूसरे को बधाइयाँ दी गयी शहीद हो जाने की ख़ुशी में। शस्त्रों की पूजा के बाद अश्वों की पूजा की गयी।

केसरिया बाना (पगड़ी) पहने हर योद्धा इतरा रहा था। सभी मन्दिर के पीछे अपने घोड़ों के साथ मरने के लिए तैयार खड़े थे। एक ही सुर में तेज़ आवाज़े जगदीश मंदिर से पूरे शहर में गूंझ रही थी ” एकलिंगनाथ की जय !जय माता दी ! हर हर महादेव। हर हर महादेव। हर मेवाड़ी योद्धा की आँखों में ख़ून उतर आया था।


आखिर वो घडी आ गयी जब सारे दरवाजे तोड़ते हुए सुबह 9 बजे के के करीब मुगल फौज जगदीश मंदिर के पास ढलान पर भटियाणी चौहटा और घण्टाघर तक आ गयी। औरंगज़ेब के शहज़ादे मुहम्मद आज़म, सादुल्ला खां, इक्का ताज खां और रुहुल्ला खां की सेना अब भी आगे बढ़ने से कतरा रही थी क्योंकि पूरा उदयपुर खाली था और रात तक शंख नाद की आवाज़े आ रही थी। हुंकारे आ रही थी। सेना के साथ शहज़ादे मुहम्मद आज़म भी किसी अनहोनी की आशंका में थे। सादुल्ला खां ने अपने खास 50 सिपाहियों की टोली को आगे टोह लेने भेजा। जगदीश चौक तक आते आते सब के सब 50 हलाक कर दिए गए। खून से सड़क लाल हो चुकी थी। रक्त बहता हुआ ढलान में मुग़ल सेना की ओर आता दिखा। मुग़ल सेना में हड़कम्प मच गया।



स्थिति को इक्का ताज खां और रुहुल्ला खां ने सम्भाला और सेना से आगे बढ़ने को कहा। तभी हर हर महादेव के नारे बुलंद हो उठे। सुनसान शहर थर्रा उठा। मंदिर की उत्तर वाले दरवाज़े (जहाँ आज स्कूल है )से एक योद्धा लड़ने के लिए बाहर आया और ऐसी गति मानों बिजली चलीं आ रही हो।केसरिया बाना पहने पहला माचातोड़ यौद्धा अपना अंतिम कर्तव्य निभाने निकल चूका था। हर हर महादेव के हुंकार और घोड़े की टाप की आवाज़ों के साथ पत्थर सड़को पर खुर ज्यादा ही आवाज़ कर रहे थे।हर माचातोड़ यौद्धा कम से कम 50 दुश्मनों को मारकर ही अपना जीवन धन्य समझता। जैसे ही एक माचातोड़ यौद्धा शहीद होता उसी समय दूसरा माचातोड़ यौद्धा ढलान मे हूंकार भरता हुआ नीचे मुग़ल ख़ेमे में घुस कर कई मुग़लो को फ़ना कर देता।ऐसे ही मंदिर से एक-एक कर माचातोड़ यौद्धा बाहर आते गए। शाम होने चली आयी थी।

मुग़ल सेना सदमे में डरी हुई थी और हैरान भी थी माचातोड़ यौद्धा की वीरता पर। मुग़ल सेना में माचातोड़ यौद्धा को लेकर फुस फुसाहट हो रही थी और हर कोई नए माचातोड़ यौद्धा का इंतज़ार कर रहा था। किसी को पता नहीं था ऐसे कितने ओर माचातोड़ यौद्धा अभी भी छिपे है ऊपर मन्दिर की ओर ?

लेकिन समय और नियति पहले ही नरु बारहठ की वीरता का किस्सा लिख चुकी थी। आखिर में नरू बारहठ बाहर आए और बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। केसरिया बाना पहने जिन्दा रहते हुए उनकी तलवार ने कई मुग़ल सिप्पसालारो को हलाक कर दिया। शीश कटने के बाद भी उनका धड़ तलवार चलाता रहा। मुग़ल सैनिक इधर उधर भागते फ़िरे। नरू बारहठ के शहीद होते ही मुग़ल सेना ने डर कर एक घण्टे ओर इंतज़ार किया। उसके बाद बादशाही फौज ने जगदीश मंदिर में मूर्तियों को तोड़कर मंदिर को तहस-नहस कर दिया।

बाद में इनकी स्मृति में एक चबूतरा मंदिर के पास ही बनवाया गया था लेकिन बाद में किसी ने इस चबूतरे पर मजार बनवा दी।

बाद में दोबारा यह मंदिर बनवाया गया था। यह मन्दिर महाराणा जगत सिंह जी प्रथम ने 6 लाख रूपये लगाकर दुबारा 1652 ईस्वी में बनवाया था लेकिन औरंगजेब द्वारा नुकसान पहुंचाने पर महाराणा संग्राम सिंह ने इसे फिर दुरूस्त करवाया। आज भी जगदीश मन्दिर की बाहर तक्षण शैली की मुर्तियां खण्डित है।


इसका निर्माण गुंगावत पंचोली कमल के पुत्र अर्जुन की निगरानी में भंगोरा वर्तमान में भगोरा सुथार गोत्र भाणा और उसके पुत्र मुकुंद की अध्यक्षता में 13 मई 1652 बैशाखी पुर्णिमा पर भव्य प्राण प्रतिष्ठा हुई।

बाद में गुस्से मे महाराणा राजसिंह ने अपने पुत्र भीम सिंह जी को गुजरात भेजा जिसने एक बडी और तीन सौ छोटी मस्जिदो को ध्वस्त कर इसका बदला लिया। महाराणा राज सिंह मारवाड़ के अजीत सिंह के मामा थे। एक बार मुगलों से एक राजकुमारी को बचाने के लिए और एक बार औरंगजेब द्वारा लगाए गए जजिया कर की निंदा करके राज सिंह ने औरंगजेब का कई बार विरोध किया। राणा राज सिंह को मथुरा के श्रीनाथजी की मूर्ति को संरक्षण देने के लिए भी जाना जाता है, उन्होंने इसे नाथद्वारा में रखा था। कोई अन्य हिंदू शासक अपने राज्य में श्रीनाथजी की मूर्ति लेने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि इसका मतलब मुगल सम्राट औरंगजेब का विरोध करना होगा, जो उस समय पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली व्यक्ति था। राणा को अंततः अपने ही प्रमुखों द्वारा जहर दिया गया था, जिन्हें मुगल सम्राट द्वारा रिश्वत दी गई थी।

जगदीश मंदिर को बचाने की इस गौरव गाथा के बाद विडम्बना ही है कि इस मंदिर में आने वाले प्रतिदिन सैंकड़ों श्रद्धालुओं को इस अभूतपूर्व बलिदान की भनक तक नहीं है | मेवाड़ के दुर्ग तो दुर्ग सही, यहां का हर मंदिर राजपूतों के बलिदान की खूनी गाथा अपने अंदर समेटे हुए है।


The Defence of Jagannath Rai (Jagadish) Temple, Udaipur.

January 1680

The sketch portrays a famous incident in the history of Mewar which had come out in open support of the Rathors of Marwar, then fighting for the very survival of their State (Jodhpur) which Aurangzeb had resumed with darkest of intentions. War was on and the Maharana and his people evacuated Udaipur and withdrew to the mountains and valleys of Mewar.

In front of the Maharana’s palace was the grand Temple of Jagannath Rai, which was “one of the rarest buildings of the age.” It was built by Maharana Jagat Singh at a cost of several lakhs of rupees. The pratistha ceremony of the Temple was held on the 13th May 1652. It was a Vishnu Panchayatan Temple in which, the Temples of Siva, Ganapati, Surya and Devi were in the four directions, in the Parikrama, and the main Temple of Vishnu in the centre. Ruhillah Khan and Yakka Taz Khan were sent to demolish it. Saqi Musta’ad Khan writes in Maasir-i-‘Alamgiri, “Twenty  machator Rajputs were sitting in the Temple vowed to give up their lives; first one of them came out to fight, killed some and was then himself slain, then came out another and so on, until every one of the twenty perished, after killing a large number of the imperialists.” After the last brave Rajput had fallen, the Muslim troops entered the Temple and the hewers broke the image.

_/\_जय मेवाड़नाथ एकलिंग जी की_/\_

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