वैसे तो हमारे देश में बहुत से हॉन्टेड प्लेस है लेकिन इस लिस्ट में जिसका नाम सबसे ऊपर आता है वो है भानगढ़ का किला (Bhangarh Fort)। जो कि बोलचाल में “भूतो का भानगढ़” नाम से ज्यादा प्रसिद्ध है।
भानगढ़ कि कहानी बड़ी ही रोचक है 16 वि शताब्दी में भानगढ़ बसता है। 300 सालो तक भानगढ़ खूब फलता फूलता है। फिर यहाँ कि एक सुन्दर राजकुमारी पर काले जादू में महारथ तांत्रिक सिंधु सेवड़ा आसक्त हो जाता है। वो राजकुमारी को वश में करने लिए काला जादू करता है पर खुद ही उसका शिकार हो कर मर जाता है पर मरने से पहले भानगढ़ को बर्बादी का श्राप दे जाता है और संयोग से उसके एक महीने बाद ही पड़ौसी राज्य अजबगढ़ से लड़ाई में राजकुमारी सहित सारे भानगढ़ वासी मारे जाते है और भानगढ़ वीरान हो जाता है। तब से वीरान हुआ भानगढ आज तक वीरान है और कहते है कि उस लड़ाई में मारे गए लोगो के भूत आज भी रात को भानगढ़ के किले में भटकते है। क्योकि तांत्रिक के श्राप के कारण उन सब कि मुक्ति नहीं हो पाई थी। तो यह है भानगढ़ कि कहानी जो कि लगती फ़िल्मी है पर है असली। तो आइये अब हम आपको भानगढ़ के उत्थान से पतन कि यह कहानी विस्तार से बताते है।
भानगढ़ का किला, राजस्थान के अलवर जिले में स्तिथ है। इस किले सी कुछ किलोमीटर कि दुरी पर विशव प्रसिद्ध सरिस्का राष्ट्रीय उधान (Sariska National Park) है। भानगढ़ तीन तरफ़ पहाड़ियों से सुरक्षित है। सामरिक दृष्टि से किसी भी राज्य के संचालन के यह उपयुक्त स्थान है। सुरक्षा की दृष्टि से इसे भागों में बांटा गया है। सबसे पहले एक बड़ी प्राचीर है जिससे दोनो तरफ़ की पहाड़ियों को जोड़ा गया है।उस समय भानगड़ की जनसंख्या तकरीबन 10,000 थी। इस किले में कुल पांच द्वार हैं और साथ साथ एक मुख्य दीवार है। इस किले में दृण और मजबूत पत्थरों का प्रयोग किया गया है जो अति प्राचिन काल से अपने यथा स्थिती में पड़े हुये है।
इस प्राचीर के मुख्य द्वार पर हनुमान जी विराजमान हैं। इसके पश्चात बाजार प्रारंभ होता है, बाजार की समाप्ति के बाद राजमहल के परिसर के विभाजन के लिए त्रिपोलिया द्वार बना हुआ है। इसके पश्चात राज महल स्थित है।
इस किले में कई मंदिर भी है जिसमे भगवान सोमेश्वर, गोपीनाथ, मंगला देवी और केशव राय के मंदिर प्रमुख मंदिर हैं। इन मंदिरों की दीवारों और खम्भों पर की गई नक़्क़ाशी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह समूचा क़िला कितना ख़ूबसूरत और भव्य रहा होगा। सोमेश्वर मंदिर के बगल में एक बाबड़ी है जिसमें अब भी आसपास के गांवों के लोग नहाया करते हैं ।
भानगढ़ क़िले को आमेर के राजा भगवंत दास ने 1573 में बनवाया था। भानगढ़ के बसने के बाद लगभग 300 वर्षों तक यह आबाद रहा। मुग़ल शहंशाह अकबर के नवरत्नों में शामिल और भगवंत दास के छोटे बेटे व अम्बर(आमेर ) के महान मुगल सेनापति, मानसिंह के छोटे भाई राजा माधो सिंह ने बाद में (1613) इसे अपनी रिहाइश बना लिया। माधौसिंह के बाद उसका पुत्र छत्र सिंह गद्दी पर बैठा। विक्रम संवत 1722 में इसी वंश के हरिसिंह ने गद्दी संभाली।इसके साथ ही भानगढ की चमक कम होने लगी।
उनके तीन पुत्र थे – सुजान सिंह, छत्र सिंह और तेज सिंह. माधोसिंह की मृत्यु के उपरांत भानगढ़ किले का अधिकार छत्र सिंह को मिला. छत्रसिंह का पुत्र अजबसिंह था. अजबसिंह ने भानगढ़ को अपनी रिहाइश नहीं बनाया. उसने निकट ही अजबगढ़ बसाया और वहीं रहने लगा. उसके दो पुत्र काबिल सिंह और जसवंत सिंह भी अजबगढ़ में ही रहे, जबकि तीसरा पुत्र हरिसिंह १७२२ में भानगढ़ का शासक बना. हरिसिंह के दो पुत्र मुग़ल बादशाह औरंगजेब के समकालीन थे.
यह समय औरंगजेब के शासन का था। औरंगजेब कट्टर पंथी मुसलमान था। उसने अपने बाप को नहीं छोड़ा तो इन्हे कहाँ छोड़ता। उसके दबाव में आकर हरिसिंह के दो बेटे मुसलमान हो गए, जिन्हें मोहम्मद कुलीज एवं मोहम्मद दहलीज के नाम से जाना गया। इन दोनों भाईयों के मुसलमान बनने एवं औरंगजेब की शासन पर पकड़ ढीली होने पर जयपुर के महाराजा सवाई जय सिंह ने इन्हे मारकर भानगढ़ पर कब्जा कर लिया तथा माधो सिंह के वंशजों को गद्दी दे दी।
भानगढ़ का किला दुनिया की चर्चित व प्रसिद्ध भूतहा जगहों में से एक है| उस किले में भूत है या नहीं, उसके उजड़ने से जुड़ी कहानियांकितनी सच है उस पर ज्ञान दर्पण पर पहले ही लिखा जा चुका है आज हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे है भानगढ़ के वीर राजा माधोसिंह का परिचय-
भानगढ़ किला और उजड़ा नगर आमेर के राजा भगवन्तदास जी के दूसरे पुत्र माधोसिंह को भानगढ़ की जागीर मिली थी| मालपुरा भी इनकी जागीर में था| मुहता नैणसी ने अपनी ख्यात में अजमेर भी माधोसिंह की जागीर में होना लिखा है| माधोसिंह ने अपने पिता भगवन्तदासजी और भाई मानसिंहजी के साथ बादशाही सेवा में रहते हुए अफगानिस्तान, कश्मीर, पंजाब आदि कई अभियानों में वीरता प्रदर्शित कर अपनी वीरता का लोहा मनवाया था| आमेर में व आमेर के कछवाहों की इतिहास पुस्तकों में उनकी वीरता, शारीरिक बल, ताकत की अनेक कहानियां प्रचलित है| शाही दरबार में उनका मनसब 3000 जात और 2000 सवार था|
15 जून 1574 ई. को बादशाह पूर्व के लिए रवाना हुआ, उस समय माधोसिंह भी उसके साथ थे| गुजरात युद्धों के साथ ही सरनाल के ऐतिहासिक युद्ध में भी वे लड़े थे| बादशाह के भाई हकीममिर्जा के विरुद्ध काबुल अभियान में ये मानसिंह के साथ थे और मुग़ल सेना की हरावल (अग्रिम पंक्ति) थे| उस युद्ध का वर्णन करते हुए अबुल फजल लिखता है- मुग़ल सेना जिसमें कछवाह हरावल में थे| वह हरावल लोहे की चट्टान की तरह थी अंत में काबुलियों ने हिम्मत हारकर मैदान छोड़ दिया|
हल्दीघाटी के युद्ध में भी माधोसिंह बादशाही सेना की अग्रिम पंक्ति में थे| जब राजा जगन्नाथ कछवाह शत्रुओं से घिर गए थे तब इन्होंने आगे बढ़कर उन्हें बचाया था| राजा मानसिंह आमेर पुस्तक के पृष्ठ 78 पर लेखक राजीव नयन प्रसाद हल्दीघाटी युद्ध पर बदायुनी के उल्लेख का जिक्र करते हुए लिखते है- "उसने यह उल्लेख किया है कि राणा व्यक्तिगत तौर पर माधवसिंह (कुंवर मानसिंह का अनुज) से लड़ने आया|" राणा प्रताप द्वारा माधोसिंह से व्यक्तिगत युद्ध हेतु आने का कारण शायद राजपुरोहित गोपीबल्लभजी द्वारा लिखित और छाजूसिंह बड़नगर द्वारा सम्पादित व अनुवादित पुस्तक "कछवाहों की वंशावली" में लिखी घटना का बदला लेने आना हो सकता है| इस घटना पर उक्त पुस्तक के पृष्ठ 24,25,26 पर लिखा है-
"वापिस आते समय राजा भगवन्तदासजी तो अपनी सेना के साथ आगे रहते थे| वे दिल्ली को वापिस आ गए और मानसिंहजी स्वयं पीछे से आये| गोगुन्दा में से राणा प्रताप को खबर मिली कि मानसिंहजी गुजरात से वापिस आ रहे है और वे इससमय मेवाड़ में है| तब उन्होंने जाकर गोगुन्दा घाटी का रास्ता रोक दिया| तब कुंवर मानसिंहजी घाटी में रुक गए| उन्हें विवश होकर रुकना पड़ा| और राणा प्रताप ने लिख भेजा-
मान्या मऊ न जाण, घर घोघुदो घालसी|
अकबर फूफो आण, सिर सिसोद्धा भांजसी||
हे ! मान्या (मानसिंह) इसे मऊमत जान, यह गोगुन्दा (मेवाड़) की भूमि है| यह गोगुन्दा का मैदान तेरे को नष्ट कर देगा| फूफा अकबर ही आकर के सिसोदियों का सिर तोड़ (पराजित) सकता है|
तन यह खबर (राणा प्रताप ने मानसिंहजी को गोगुन्दा की घाटी में रोक लिया है) माधोसिंहजी (मानसिंहजी का छोटा भाई) ने सुनी| खबर सुनते ही माधोसिंह सांगानेर (चितौड़ के पास का एक गांव) से चढ़ कर आये| मानसिंहजी की सहायतार्थ ससैन्य आये| धर कूंचा-धर कूंचा गए| माधोसिंह के वहां आने की खबर दमामी (नगारची) ने जाकर कुंवर मानसिंहजी को अरज कराई कि माधोसिंहजी आ गए| तब कुंवर मानसिंहजी ने फ़रमाया कि माधोसिंह अभी कहाँ है मेरे पास तो कोई समाचार नहीं आया और तू ऐसे कैसे कह रहा है| तब दमामी ने निवेदन किया- जमनाप्रसाद नगारा थरथराया है, जिससे मैं अरज कर रहा हूँ| इसलिए इसमें कोई कसर (गलती) निकले तो श्रीमान की मरजी में आये वह मेरे साथ करे| जमनाप्रसाद नगारा मानसिंहजी के पास था और नगारी माधोसिंहजी के पास थी| माधोसिंह ने नगारी बजाकर अपने आने की सूचना दी| इसलिए नगारी की दूर से आती हुई आवाज से नगारा जमुनाप्रसाद थरथराया जिससे उनके आने की जानकारी मिली| माधोसिंह ने आकर नाका (घाटी) में राणा प्रताप से युद्ध किया, इसलिए युद्ध में तलवारें चली| उन्होंने राणाजी के कितने ही आदमियों को युद्ध में मार डाला| राणा प्रताप वहां से भाग गए| माधोसिंह अकेले ही राणा प्रताप के पास पहुंचे और जाकर कहा कि तुझे मैं मारूंगा तो नहीं और माधोसिंह की एक निशानी तो लेता जा| अपने घोड़े को दौड़ा कर गए, उनके पास बूड़ी सैल (भाला) का था| उन्होंने सेल की बूड़ी की राणा प्रताप के मुंह पर मार दी| जिससे उनके सामने के दांत टूट गए और उनका होठ टूट (घायल) गया| राणा भाग गए|
घर घरतो घोड़ी करूँ| मऊ मरुँ मैदान||
मुख राणा कै मांडणा| माधो तणां सेनाण||
हे ! राणा प्रताप ! तेरे को घोड़ी बना दूंगा| (एक देशी खेल जिसे बच्चे खेलते है) जिससे तू घरघराट करेगा| मऊ को मैं मैदान (रण क्षेत्र) बना दूंगा| माधोसिंह ने राणा प्रताप के भाले की बूड़ी का ऐसा वार किया कि जिससे उनके मुख पर माधोसिंह का दिया हुआ निशान बन गया|"
इस सम्बन्ध में एक दोहा और भी मिलता है-
गोगुन्दा का घाट पर, मचियो घाण मथाण|
मुख राणा रा मंडना, माधव रा एलाण||
इस घटना की पुष्टि करते हुए राजीव नयन प्रसाद लिखित पुस्तक "राजा मानसिंह आमेर" की भूमिका में भी इसी तरह का विवरण लिखा गया है| माधोसिंह एक बार आमेर आये हुए थे| रात्री के समय महल के झरोखे में बैठे थे| वहां से अचानक गिरने से उनकी मृत्यु हो गई| आमेर के महलों के नीचे उसी स्थान पर स्मारक के रूप में चबूतरा बना है जिसे जनता आज भी पूजती है|
इतिहासकार ओझाजी को भानगढ़ में माधोसिंह जी के दो शिलालेख मिले जो वि.स. 1642 माघबदी एकम का व दूसरा वि.सं. 1655 का है| माधोसिंहजी के तीन पुत्र थे- सुजाणसिंह, छत्रसिंह, तेजसिंह| माधोसिंहजी के निधन के बाद छत्रसिंह को भानगढ़ मिला जिन्होंने अपने दो पुत्रों के साथ खानजहाँ लोदी के साथ युद्ध में वीरगति प्राप्त की| छत्रसिंह के एक पुत्र अजबसिंह ने भानगढ़ के पास ही अपने नाम से अजबगढ़ बसाया| छत्रसिंह (छत्रसाल) के पुत्र उग्रसेन थे जिन्हें शाहजहाँ के दरबार में 800 जात और 400 सवार का मनसब प्राप्त था| माधोसिंहजी के एक वंशज हरिसिंह का वि.सं. 1723 का लिखा एक शिलालेख प्राप्त हुआ है जिसमें लिखा है कि यह वि.सं. 1722 माघ बदी एकम को भानगढ़ की गद्दी पर बैठे| औरंगजेब के काल में माधोसिंह के दो वंशजों ने मुसलमान बनकर अपने नाम मोहम्मद कुलीज और मोहम्मद दहलीज रखा था, उन्हें भानगढ़ की जागीर दी गई| मुगलों का कमजोर पड़ने पर महाराजा सवाई जयसिंह जी ने इन्हें मार कर भानगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया और माधोसिंह जी के अन्य वंशजों को अपने अधीन जागीरदार बना लिया|
सन्दर्भ :
1- कछवाहों की वंशावली, लेखक राजपुरोहित गोपीबल्लभ, 2- राजा मानसिंह आमेर, लेखक राजीव नयन प्रसाद 3- कछवाहों का इतिहास, लेखक कुंवर देवीसिंह, मंडावा
योगी बालूनाथ के श्राप की कहानी (Yogi Balu Nath aur Bhagwan Dash ):-
पहली कहानी के अनुसार जहाँ भानगढ़ किले का निर्माण करवाया गया, वह स्थान योगी बालूनाथ का तपस्थल था. उसने इस वचन के साथ महाराजा भगवंतदास को भानगढ़ किले के निर्माण की अनुमति दी थी कि किले की परछाई किसी भी कीमत पर उसके तपस्थल पर नहीं पड़नी चाहिए.
महाराजा भगवंतदास ने तो अपने वचन का मान रखा, किंतु उसके वंशज माधोसिंह इस वचन की अवहेलना करते हुए किले की ऊपरी मंज़िलों का निर्माण करवाने लगे. ऊपरी मंज़िलों के निर्माण के कारण योगी बालूनाथ के तपस्थल पर भानगढ़ किले की परछाई पड़ गई.
ऐसा होने पर योगी बालूनाथ ने क्रोधित होकर श्राप दे दिया कि यह किला आबाद नहीं रहेगा. उनके श्राप के प्रभाव में किला ध्वस्त हो गया.
दूसरी कहानी राजकुमारी रत्नावती और तांत्रिक सिंधु सेवड़ा :-
कहते है कि भानगढ़ कि राजकुमारी रत्नावती बेहद खुबसुरत थी। उस समय उनके रूप की चर्चा पूरे राज्य में थी और देश के कोने कोने के राजकुमार उनसे विवाह करने के इच्छुक थे। उस समय उनकी उम्र महज 18 वर्ष ही थी और उनका यौवन उनके रूप में और निखार ला चुका था। उस समय कई राज्योi से उनके लिए विवाह के प्रस्ता व आ रहे थे। उसी दौरान वो एक बार किले से अपनी सखियों के साथ बाजार में निकती थीं। राजकुमारी रत्नाथवती एक इत्र की दुकान पर पहुंची और वो इत्रों को हाथों में लेकर उसकी खुशबू ले रही थी। उसी समय उस दुकान से कुछ ही दूरी सिंधु सेवड़ा नाम का व्यnक्ति खड़ा होकर उन्हेा बहुत ही गौर से देख रहा था।
सिंधु सेवड़ा उसी राज्य; में रहता था और वो काले जादू का महारथी था। ऐसा बताया जाता है कि वो राजकुमारी के रूप का दिवाना था और उनसे प्रगाण प्रेम करता था। वो किसी भी तरह राजकुमारी को हासिल करना चाहता था। इसलिए उसने उस दुकान के पास आकर एक इत्र के बोतल जिसे रानी पसंद कर रही थी उसने उस बोतल पर काला जादू कर दिया जो राजकुमारी के वशीकरण के लिए किया था। लेकिन एक विश्वशनीय व्यक्ति ने राजकुमारी को इस राज के बारे में बता दिया।
राजकुमारी रत्नाकवती ने उस इत्र के बोतल को उठाया, लेकिन उसे वही पास के एक पत्थकर पर पटक दिया। पत्थlर पर पटकते ही वो बोतल टूट गया और सारा इत्र उस पत्थर पर बिखर गया। इसके बाद से ही वो पत्थ र फिसलते हुए उस तांत्रिक सिंधु सेवड़ा के पीछे चल पड़ा और तांत्रिक को कुचल दिया, जिससे उसकी मौके पर ही मौत हो गयी। मरने से पहले तांत्रिक ने श्राप दिया कि इस किले में रहने वालें सभी लोग जल्दो ही मर जायेंगे और वो दोबारा जन्मश नहीं ले सकेंगे और ताउम्र उनकी आत्मांएं इस किले में भटकती रहेंगी।
उस तांत्रिक के मौत के कुछ दिनों के बाद ही भानगढ़ और अजबगढ़ के बीच युद्ध हुआ जिसमें किले में रहने वाले सारे लोग मारे गये। यहां तक की राजकुमारी रत्नाचवती भी उस शाप से नहीं बच सकी और उनकी भी मौत हो गयी। एक ही किले में एक साथ
इतने बड़े कत्लेउआम के बाद वहां मौत की चींखें गूंज गयी और आज भी उस किले में उनकी रूहें घुमती हैं।
किलें में सूर्यास्ता के बाद प्रवेश निषेध :-
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा खुदाई से इस बात के पर्याप्त सबूत मिले हैं कि यह शहर एक प्राचीन ऐतिहासिक स्थल है। फिलहाल इस किले की देख रेख भारत सरकार द्वारा की जाती है। किले के चारों तरफ आर्कियोंलाजिकल सर्वे आफ इंडिया (एएसआई) की टीम मौजूद रहती हैं। एएसआई ने सख्तक हिदायत दे रखी है कि सूर्यास्ता के बाद इस इलाके में किसी भी व्यतक्ति के रूकने के लिए मनाही है।
भारतीय पुरातत्व के द्वारा इस खंडहर को संरक्षित कर दिया गया है। गौर करने वाली बात है जहाँ पुरात्तव विभाग ने हर संरक्षित क्षेत्र में अपने ऑफिस बनवाये है वहीँ इस किले के संरक्षण के लिए पुरातत्व विभाग ने अपना ऑफिस भानगढ़ से दूर बनाया है।
भानगढ़ किले के मंदिर :-
भगवान सोमेश्वर का मंदिर
गोपीनाथ का मंदिर
मंगला देवी का मंदिर
केशव राय का मंदिर
जैसा कि हमने आपको बताया कि इस किले में कई मंदिर भी है जिसमे भगवान सोमेश्वर, गोपीनाथ, मंगला देवी और केशव राय के मंदिर प्रमुख मंदिर हैं।
इन मंदिरो कि एक यह विशेषता है कि जहाँ किले सहित पूरा भानगढ़ खंडहर में तब्दील हो चूका है वही भानगढ़ के सारे के सारे मंदिर सही है अलबत्ता अधिकतर मंदिरो से मुर्तिया गायब है। सोमेश्वर महादेव मंदिर में जरूर शिवलिंग है।
दूसरी बात भानगढ़ के सोमेशवर महादेव मंदिर में सिंधु सेवड़ा तांत्रिक के वंशज ही पूजा पाठ कर रहे है। कहते है कि यहाँ भूत है यह बात सही है पर वो भूत किले के अंदर केवल खंडहर हो चुके महल में ही रहते है महल से निचे नहीं आते है क्योकि महल की सीढ़ियों के बिलकुल पास भोमिया जी का स्थान है जो उन्हें महल से बाहर नहीं आने देते है। रात के समय आप किला परिसर में रह सकते है कोई दिक्क्त नहीं है पर महल के अंदर नहीं जाना चाहिए।
तो यह है भानगढ़ कि कहानी अब वहाँ भूत है कि नहीं यह एक विवाद का विषय हो सकता है पर यह जरूर है कि भानगढ़ एक बार घूमने लायक जगह है और यदि आप भानगढ़ घूमने का प्रोग्राम बनाये तो हमारी यह राय है कि आप वहा सावन ( जुलाई -अगस्त ) में जाए क्योकि भानगढ़ तीनो तरफ से अरावली कि पहाड़ियो से घिरा हुआ है और सावन में उन पहाड़ियो में बहार आ जाती है। और यदि आपको सोमेशवर महादेव मंदिर के पुजारी से भानगढ़ का इतिहास सुनना हो तो आप सोमवार के दिन जाए क्योंकि पुजारी जी सोमवार को पूरा दिन मंदिर में रहते है बाकी दिन तो सुबह पूजा करके वापस चले जाते है।
किलें में रूहों का कब्जा :-
इस किले में कत्लेआम किये गये लोगों की रूहें आज भी भटकती हैं। कई बार इस समस्या से रूबरू हुआ गया है। एक बार भारतीय सरकार ने अर्धसैनिक बलों की एक टुकड़ी यहां लगायी थी ताकि इस बात की सच्चाई को जाना जा सकें, लेकिन वो भी असफल रही कई सैनिकों ने रूहों के इस इलाके में होने की पुष्ठि की थी। इस किले में आज भी जब आप अकेलें होंगे तो तलवारों की टनकार और लोगों की चींख को महसूस कर सकतें है।
इसके अलांवा इस किले भीतर कमरों में महिलाओं के रोने या फिर चुडि़यों के खनकने की भी आवाजें साफ सुनी जा सकती है। किले के पिछले हिस्सें में जहां एक छोटा सा दरवाजा है उस दरवाजें के पास बहुत ही अंधेरा रहता है कई बार वहां किसी के बात करने या एक विशेष प्रकार के गंध को महसूस किया गया है। वहीं किले में शाम के वक्त बहुत ही सन्नाटा रहता है और अचानक ही किसी के चिखने की भयानक आवाज इस किलें में गुंज जाती है।
Bhangarh Fort is a historical fort located in the Alwar district of Rajasthan. This fort is known for ghosts in the world along with India, hence it is called “Fort of Ghosts”. This fort was built in 1573 by the King of Amer, Bhagwant Das.
Bhangarh fort of Rajasthan India
The Bhangarh fort is surrounded by four more walls, inside which are the ruins of the Havelis and the front market, both of which and the ruins of the shops are built.
There is a palace built at the end of the fort, which is now almost converted into ruins. The fort of Bhangarh is surrounded by hills all around, due to which in the rainy season, green hills are seen on the hills on every side.
The fort of Bhangarh is also one of the dreaded forts in the world. Entry and stay inside the fort is not allowed after the sunset, because after sunset, the fort souls wake up and there are various voices inside the fort which include screaming, crying of women, The chirping of the chudiya, and the sound of swords.
It is said that whoever stayed in the fort after nightfall has lost his life. Bhangarh Fort is one of the most feared places in the world. It is believed that there are ghosts even today.
Bhangarh fort story (Ghost ) Alwar Rajasthan
There is a famous story about the fort that it is said that the princess of Bhangarh was Ratnayavati Apoorva Sundari, at that time her form was discussed in the whole state and the princes of every corner of the country were willing to marry her.
In the same state, there lived a tantric Sindhiya who was a master of the art magic and wanted to get the princess crazy and the princess.
One day the princess went to the market with her friends and reached a perfume shop and picked up a bottle of perfume in which the tantric by Already the magic was done when the princess realized this, then the princess slammed the nearby stone and the bottle fell on the stone.
Due to which the perfume spread on the stone and that stone followed the Tantrik and later crushed him by the stone. And he died. While dying, the Tantrik cursed that the people residing in the fort will die soon and their souls will continue to wander in this fort.
After this, there was the war between Bhangarh and Ajabgarh in which all the fort dwellers were killed with the princess and due to the curse, their spirits still roam around this fort.
There is another story of the destruction of Bhangarh Fort. The hill on which the fort was built. A sage Guru Balu Nath resided on it, on top of which the hill was built by King Bhagwant Singh.
His only condition for building the fort there was that it would never cast a fortress on his residence.
But when the fort was built, the shadow of the pillars in that fort fell on the house of the ascetic. Due to which curse of angry monk ruined the fort and surrounding villages. A small stone hut, known as the matriarch of the tantrikas, sees the fort.
The truth seems to be that after the death of Chatar Singh, since Ajab Singh had already established a new fort, the population of the region declined.
A famine in 1783 forced the remaining villagers to find new avenues. In 1720, Raja Jai Singh, the grandson of Man Singh, added Bhangarh to his property.
The entrance to Bhangarh is prohibited between sunset and sunrise. It is the most haunted fort in India.
No comments:
Post a Comment