Sunday, November 29, 2020

REMEMBERING THE WARRIOR QUEEN OF RAMGARH RANI AVANTI BAI LODHI - IMMORTAL RAJPUTS

अंग्रेजो से लोहा लेकर,
डटकर करी लड़ाई थी।
निज धरती, अभिमान, शान,
सम्मान की जोत जलाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर,
लड़ी खूब रानी अवंती बाई थी।



आजादी की लड़ाई में हजारों लोग कुर्बान हुए। उनके बलिदान के कारण हम आजाद हुए और खुली हवा में सांस ले रहे हैं। इन बलिदानियों में एक नाम रामगढ़ की रानी अवंती बाई लोधी का भी है। वे 1857 की क्रांति की प्रणेताओं में अग्रणीं थीं लेकिन इतिहास में समुचित स्थान नहीं पा सकीं। उल्लेखनीय है कि तत्कालीन रामगढ़ राज्य वर्तमान मध्य प्रदेश में मंडला जिले के अंतर्गत चार हजार वर्गमील में फैला हुआ है। इसमें 681 गांव थे। इसका विस्तार सुहागपुर अमरकंटक और कबीर चबूतरा तक था। इसकी स्थापना 1680 ईस्वी में गढ़ा मंडला के शासक नरेन्द्र शाह के सेनापति मोहन सिंह लोधी ने की थी। 

1850 ईस्वी में मोहन सिंह के वंशज विक्रमाजीत रामगढ़ की गद्दी पर बैठे। राजा विक्रमाजीत का विवाह सिवनी जिले के मनकेहड़ी के जागीरदार राव जुझार सिंह की पुत्री अवंती बाई के साथ हुआ। विक्रमाजीत बहुत ही योग्य और कुशल शासक थे किन्तु अत्यधिक धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण वह राजकाज में कम सत्संग एवं धार्मिक कार्यों में अधिक समय देते थे। उनके दो पुत्र शेरसिंह और अमान सिंह अभी नाबालिग ही थे कि विक्रमाजीत विक्षिप्त से हो गए और राज्य प्रबंध का पूरा भार रानी अवंती बाई के कंधों पर आ गया। अवंती बाई द्वारा राजकाज करने का समाचार पाकर गोरी सरकार ने 13 सितंबर 1851 को रामगढ़ राज्य को कोर्ट ऑफ वाइस के अधीन कर राज्य प्रबंध के लिए एक तहसीलदार नियुक्त कर दिया। अंग्रेजों की इसी नीति से क्षुब्ध राजा विक्रमाजीत की असामयिक मृत्यु हो गई। रानी अवंती बाई उस समय तो खून का घूंट पीकर रह गईं किन्तु उन्होंनें प्रतिज्ञा की कि वह इसका बदला लेकर रहेंगी और तब तक चैन से नहीं बैठेंगी जब तक देश की भूमि से अंग्रेजी शासन को न मिटा दिया जाए। 

लार्ड डलहौजी की हड़प नीति का कुचक्र जब संपूर्ण देश में तेजी से चलने लगा तो कई राजा रजवाड़े और जागीरदार अंग्रेजों के खिलाफ संगठित होने लगे। दिल्ली और मेरठ में भड़के विप्लव की आग मध्य भारत और बुंदेलखंड से होती हुई जब गोंडवाना क्षेत्र में पहुंची तो यह समूचा क्षेत्र क्रांति के लिए उठ खड़ा हुआ। रानी अवंती बाई ने आसपास के ठाकुरों, जागीरदारों और राजाओं से संपर्क किया और गढ़ मंडला के शासक शंकर शाह के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के लिए दिन निश्चित किया। क्रांति का संदेश गांव-गांव तक पहुंचाने हेतु अवंती बाई ने अपने हाथ का लिखा यह पुर्जा भिजवाया, कि देश और आन के लिए मर मिटो अथवा चूड़ियां पहनो। तुम्हें धर्म, ईमान की सौगंध है, जो इस कागज का पता बैरी को दो। लेकिन गिरधारीदास नामक देशद्रोही ने इस योजना की सूचना मंडला के डिप्टी कमिश्नर को दे दी। उसने शीघ्र ही 18 सितंबर 1857 को राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को विद्रोह के आरोप में पकड़कर तोप के मुंह से बांधकर उड़वा दिया। इस घटना से क्षुब्ध नेटिव इन्फैन्ट्री के सैनिकों ने सूबेदार बल्देव तिवारी के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। 



विजयराघवगढ़ के राजा सरजूप्रसाद शाहपुर के मालगुजार ठाकुर जगत सिंह, शहपुरा के ठाकुर बहादुर सिंह लोधी एवं हीरापुर के मेहरबान सिंह लोधी भी रानी अवन्ती बाई से आ मिले। अंग्रेजी सेना से रानी की पहली भयंकर मुठभेड़ खैरी में हुई। रानी की तलवार के वार से अंग्रेजी सेनापति वाडिंगटन का घोड़ा दो टुकड़े हो गया और वाडिंगटन रानी से प्राणों की भीख मांगता हुआ जबलपुर भाग गया। इसके बाद अवन्ती बाई ने दिसंबर 1857 से फरवरी 1858 तक गढ़ मंडला पर शासन किया। वाडिंगटन लंबे समय से मण्डला जिले का डिप्टी कमिश्नर था। अंग्रेजी सैनिकों ने छापामार तरीके से युद्ध कर सर्वप्रथम विजयरागवगढ़ पर अधिकार कर लिया फिर 31 मार्च 1858 को घुघरी गांव को विद्रोहियों से छीन लिया। वे शीघ्र की पाटन, संग्रामपुर, स्लीमनाबाद और नारायणगंज को जीतते हुए 2 अप्रैल 1858 को रामगढ़ आ पहुंचे और एक साथ तेजी से रामगढ़ के किले पर आक्रमण कर दिया। अवंती बाई ने किले से बाहर निकलकर देवहरगढ़ के मैदान में युद्ध करना उिचत समझा। इसी समय रानी की सहायता के लिए शहपुरा का लोधी ठाकुर जो मण्डला जिले का सर्वाधिक वीर योद्धा था, अपने सैन्य बल के साथ आ पहुंचा। इसी अंग्रेजों के गुप्तचरों ने खबर दी कि देवहरगढ़ में विद्रोही बहुत भयभीत हो गए हैं। वाडिंगटन एक सप्ताह तक वहीं रुक कर रीवा नरेश की सेना का इंतजार करता रहा। रीवा से सेना पहुंचने पर देवहरगढ़ में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेजों को कई बार पूछे हटना पड़ा लेकिन उन्होंने शीघ्र ही अवनि्त बाई को चारों तरफ से घेर लिया। तब अपने को दुश्मनों के द्वारा पकड़े जाने से उन्होंने आत्म बलिदान करना ही श्रेयस्कर समझा और पलक झपकते ही तलवार अपने पेट में घोपकर शहीद हो गई।

1857 की क्रांति की प्रणेताओं में रानी अवंती बाई लोधी अग्रणीं थीं लेकिन इतिहास में समुचित स्थान नहीं पा सकीं। राजा विक्रमाजीत का विवाह सिवनी जिले के मनकेहड़ी के जागीरदार राव जुझार सिंह की पुत्री अवंती बाई के साथ हुआ। अवन्ती बाई ने दिसंबर 1857 से फरवरी 1858 तक गढ़ मंडला पर शासन किया।



डिंडौरी मुख्यालय से 23 किलोमीटर दूर रानी अवंती बाई की कर्मभूमि और राजधानी रामगढ़ के निशान आज भी मिलते हैं। रामगढ़ महल एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित था, जो खरमेर नदी के किनारे बसा था। रामगढ़ अमरपुर से महज एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पूर्व में रामगढ़ मंडला जिले का हिस्सा था, लेकिन 1998 में मंडला जिले के विभाजन के बाद रामगढ़ डिंडौरी जिले में शामिल हो गया। 1951 तक डिंडौरी क्षेत्र रामगढ़ के नाम से ही जाना जाता था।


रानी अवंतीबाई भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पहली महिला शहीद वीरांगना थीं। 1857 की क्रांति में अवंतीबाई रेवांचल में मुक्ति आंदोलन की सूत्रधार थीं। मुक्ति आंदोलन में रामगढ़ की अहम भूमिका थी, जिससे इतिहास जगत अनभिज्ञ है। 


कभी आलीशान महलों से घिरा रामगढ़ आज एक छोटा सा गांव रह गया


रानी अवंतीबाई के समय में रामगढ़ अपनी भव्यता और किले-अट्‌टारियों के लिए प्रचलित था। इसी वजह से अंग्रेजों की नजर रामगढ़ पड़ी थी। आज यह महज एक छोटा सा गांव है। यहां एक टीलानुमा पहाड़ी पर रानी अवंतीबाई के महल की कुछ दीवारें ही शेष बची हैं। महल के अवशेष के सामने राधा-कृष्ण मंदिर है। मंदिर में भगवान् गणेशजी की प्रतिमा भी है। यह मंदिर रानी के वंशजों ने बनवाया था। एमपी गर्वनमेंट ने 1988-1989 में रानी की याद में यहां एक पार्क का निर्माण कराया। पार्क में घोड़े पर सवार रानी अवंती बाई की भव्य प्रतिमा स्थापित है। हर साल 16 अप्रैल को रानी अवंतीबाई के जन्मदिन और 20 मार्च को उनके बलिदान दिवस पर रामगढ़ में रानी की याद में भव्य आयोजन होते हैं।


4000 वर्गमील क्षेत्र में फैला था रामगढ़, 10 परगने और 681 गांव शामिल थे


रानी के काल में रामगढ़ राज्य की भव्यता के चर्चे दूर-दूर तक फैले थे। तब यह 4000 वर्ग मील तक फैला था। इसमें शाहपुर, शहपुरा, मेहंदवानी, रामपुर, मुकुटपुर, प्रतापगढ़ ,चौबीसा और करोतिया जैसे 10 परगने और 681 गांव थे। इसकी सीमाएं मंडला, डिंडोरी, सोहागपुर और अमरकंटक तक फैली थीं। गोंड राजवंश के समय रामगढ़ राजा संग्राम शाह के 52 गढ़ों में से एक था। तब रामगढ़ को अमरगढ़ कहा जाता था। गोंड राजा निजाम शाह के शासन काल में रामनगर (मंडला) में आदमखोर शेर ने आतंक मचा रखा था, जिसे मुकुट मणि और मोहन सिंह नाम के भाइयों ने मारा था। शेर के साथ लड़ाई में मुकुट मणि मारे गए थे। राजा ने बहादुरी से खुश होकर मोहन सिंह को सेनापति बनाया था। मोहन की मृत्यु के बाद राजा ने गाजी (गज) सिंह को मुकुटपुर तालुका का जमींदार बना दिया। तब मुकुटपुर में डाकुओं और विद्रोहियों का वर्चस्व था। राजा को यहां से राजस्व नहीं मिल पाता था। इस क्षेत्र से गाजी सिंह ने डाकुओं-विद्रोहियों का आतंक समाप्त कर दिया। गाजी की वीरता से प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें रामगढ़ की जागीर देकर राजा की उपाधि प्रदान की। बाद में गाजी सिंह ने रामगढ़ का काफी विकास-विस्तार किया। गाजी के बाद वंश के अगले राजा लक्ष्मण सिंह 1817 से 1851 तक रामगढ़ के शासक थे। उनके निधन के बाद पुत्र विक्रमजीत (विक्रमादित्य) सिंह ने राजगद्दी संभाली। विक्रम का विवाह बाल्यावस्था में ही सिवनी के मनकेहणी के जमींदार राव जुझार सिंह की पुत्री अवंतीबाई से हुआ। विक्रम ज्शदातर पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों में लगे रहते थे। इसलिए राज्य का संचालन उनकी पत्नी रानी अवंतीबाई ही करती रहीं। 


दिल और धड़कन की तरह था रानी अवंतीबाई और रामगढ़ का नाता


रानी अवंतीबाई का जन्म सिवनी के ग्राम मनकेहणी के जमींदार राव जुझार सिंह के घर 16 अप्रैल 1831 को हुआ। अवंतीबाई विवाह के समय 17 साल की थीं। 1851 में राजा विक्रमादित्य ने गद्दी संभाली। इनके दो पुत्र थे- कुंवर अमान सिंह और कुंवर शेर सिंह। दोनों पुत्र बच्चे ही थे कि राजा विक्षिप्त हो गए और राज्य की जिम्मेदारी रानी पर आ गई। यह खबर पाकर अंग्रेजों ने रामगढ़ राज्य पर कोर्ट ऑफ वार्ड्सकार्यवाही की और राज्य के प्रशासन के लिए सरबराहकार नियुक्त कर शेख मोहम्मद और मोहम्मद अब्दुल्ला को रामगढ़ भेज दिया। रानी ने इसे राज्य का अपमान समझा और सरबराहकारों को बाहर खदेड़ दिया। इसी बीच अचानक राजा का निधन हो गया और रानी की परेशानियां बढ़ती चली गईं।


रामगढ़ के सेनापति ने भुआबिछिया को जीता, सिपाहियों ने घुघरी पर जमाया कब्जा


राजा के निधन के बाद 1857 की क्रांति महाकोशल क्षेत्र तक फैल चुकी थी। राजाओं और जमीदारों ने अंगेजों का व्यापक विरोध किया। रामगढ़ के सेनापति ने भुआबिछिया में बने अंग्रेजों के थाने पर चढ़ाई कर उसे जीत लिया। वहीं, रानी के सिपाहियों ने घुघरी पर कब्जा जमाया। यह विद्रोह विद्रोह रामगढ़ और रामनगर (मंडला) में आग की तरह फैल गया। अंग्रेज विद्रोह को दबाने में असफल रहे। इसके बाद 23 नवंबर 1857 को ग्राम खैरी (मंडला) के पास अंग्रेजों और रानी के बीच युद्ध हुआ। इसमें आसपास के जमीदारों ने रानी का साथ दिया। युद्ध में अंगेजों की हार हुई। रानी अवंतीबाई ने दिसंबर 1857 से फरवरी 1858 तक गढ़ा मंडला पर राज किया। दूसरी ओर, अंग्रेज लगातार तैयारी करते रहे और जनवरी 1858 को घुघरी पर नियंत्रण कर लिया। फिर मार्च 1858 में रामगढ़ को घेर लिया। अंग्रेजों ने रामगढ़ के महल को बहुत नुकसान पहुंचाया। इस युद्ध में रीवा नरेश ने अंग्रेजों का साथ दिया था। रानी अवंतीबाई शाहपुर के नजदीक देवहार गढ़ चली गईं। यहां की ऊंची पहाड़ी पर रानी ने मोर्चा बनाया। यहीं रहकर रानी ने गोरिल्ला युद्ध नीति अपनाई। हालांकि तब तक अंग्रेजों ने रानी को चारों तरफ से घेरना प्रारंभ कर दिया था। एक बार फिर रानी और अंग्रेजों के बीच घमासान युद्ध हुआ। शाहपुर के पास बालपुर गांव में 20 मार्च 1958 को रानी ने खुद को घिरता हुआ पाया और वीरांगना दुर्गावती का अनुकरण करते हुए स्वयं को तलवार मार ली, ताकि वो अंग्रेजों के हाथ न आ सकें। रानी के सैनिक गंभीर अवस्था में रानी को रामगढ़ ले जा रहे थे, तभी बालपुर और रामगढ़ के बीच सूखी-तलैया नामक स्थान पर रानी अवंतीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं। रानी के जाते ही इस क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन बेदम हो गया और रामगढ़ भी अंग्रेजों के हाथों में आ गया।


खंडहर में बदल गए रामगढ़ के महल, जर्जर हुई वीरांगना अवंतीबाई की समाधि 


रामगढ़ में महल के अवशेषों से कुछ दूर पहाड़ी के नीचे रानी अवंतीबाई की समाधि बनी है, जो मौजूदा दिनों में बहुत जर्जर अवस्था में है। इसी के पास ही रामगढ़ राजवंश के अन्य व्यक्तिओं की भी समाधियां हैं। युद्ध के बाद रामगढ़ राज्य के टुकड़े हो गए। अंग्रेजों ने रामगढ़ का सोहागपुर क्षेत्र रीवा नरेश को दे दिया। शेष क्षेत्र रामगढ़ के कब्जे में रहा। रानी युद्ध में जाने से पहले पुत्र अमान सिंह और शेर सिंह को अलोनी गांव में छोड़ गई थी। बाद में अंग्रेजों ने रानी के दोनों बेटों को कुछ गांव देकर पेंशन देना शुरू कर दिया। रामगढ़ रियासत के अंतिम राजा इंद्जीरत सिंह थे। इनकी तीन पत्नियां थीं, लेकिन संतान एक भी नहीं थी। रामगढ़ की अंतिम वारिस इंद्रजीत की पत्नी भनिया बाई थीं। भनिया बाई की मौत 1981 में हुई।

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Not much is known about Rani Avantibai who is, today, honoured as a warrior queen and an important, inspirational figure in the history of the Indian freedom struggle – notably, the 1857 War of Independence. Very little has been written about her. Steadfast in her loyalty to her people and throne, Rani Avantibai is an icon of rebellion, sacrifice and martyrdom in a long, brutal history of fighting colonial rule. This is her story.
Early Life

Avantibai was born on 16 August 1831 into a Rajput Zamindar family. She is known to have been extremely independent and well trained in her childhood years. She was not only skilled in military strategy and state affairs but was also fully capable of archery, horse-riding and wielding a sword.

Her political and combat education made her a good candidate for a ruler. With word spreading about her skills and charismatic personality across the Narmada Valley, she was accepted as a suitable bride for the king’s son. At a young age (c.1849) she was married to Vikramaditya Lodhi of Ramgarh (which presently lies in Madhya Pradesh).

Given how accomplished and well-suited she was for taking over the throne, it is no surprise that when her husband became too ill to continue ruling, she was the one who took over in his stead. Although her kingdom flourished under her rule, the British did not approve of her sitting on her husband’s throne.
Court of Wards

After the king fell ill, the British refused to accept Avantibai’s sons (Aman Singh and Sher Singh) as legitimate heirs to the throne, given that they were minors. Seeing as, in their eyes, there was no heir to the Ramgarh throne, it allowed them to install their own administration to replace the Lodhi rule



This was due to a fairly ambiguous annexation policy (the Doctrine of Lapse, commonly associated with Lord Dalhousie) that was applied by the British East India Company before 1858. It allowed the Company to install administration in any princely state if the ruler was incompetent or died without a male heir – taking away Indian rulers’ rights to appoint successors.

On 13 September 1851, Ramgargh was declared the Court of Wards with a British-approved administrator – Sheikh Mohammad – installed in place. This decision did not sit well with Rani Avantibai. Deeply insulted by this act of the British East India Company, she bided her time until she could retaliate.

After the king’s death in 1857, she found the perfect opportunity to respond to the foreign insult. She had the administrator thrown out of the kingdom and declared war upon British rule.
The 1857 Rebellion

By May 1857, news about the incidents in Meerut and Delhi had spread across the subcontinent. For months, people in villages had been preparing for a rebellion after the news of rifles using cow and pig fat began to make rounds. Rani Avantibai, too, decided to send her own message.

Carrying handwritten notes and a set of bangles, emissaries were sent to neighbouring kingdoms to gain support in the war against the British. The message – if they had any semblance of loyalty or honour towards their country, they would pick up arms and fight – or they could sit at home and wear those bangles.

After an incident where the British caught a whiff of rebellion and executed King Shankar Shah, the entire region was incensed and ready to fight back. Rani Avantibai’s own people relied on her to become the leader of the rebellion. Her influence had multiple central provinces joining her armed fight. She raised an army of 4000 people, leading them to the war.

The statue of Rani Avantibai


Rani Avantibai in battle

Rani Avantibai led her troops to a village named Kheri, near Mandla. While the British expected an easy victory, they were shocked to be defeated by her army. They had no choice but to back down while she controlled Mandla from December 1857 to February 1858.

The British did not take this slight with grace. Determined to wipe out her rule, they retaliated with brutal force and attacked Ramgarh – and no amount of passionate patriotism and love for her people could stop them from crushing her army with military strength. They set the region on fire and Rani Avantibai had no choice but to seek safety in the hilly forests of Devharigarh.

Still, the queen did not give up. Utilising guerrilla warfare techniques, she infiltrated General Waddington’s camp and disbanded his forces. Unfortunately, a fighting spirit was not enough against sheer battle power. Eventually, she found herself trapped by British forces, who had surrounded Ramgarh. Knowing that her defeat was imminent, she found it better to sacrifice her life than to be taken at the hands of the enemy.

On 20th March 1858, she fell upon her own sword and became a martyr. Her last words are said to have been: “हमारी दुर्गावती ने जीते जी वैरी के हाथ से अंग न छुए जाने का प्रण लिया था. इसे न भूलना बडों” (Our Durgavati vowed to never let the enemy get their hands on her while she lived. Don’t forget this).
Legacy

While Rani Avantibai’s story did not necessarily make it to mainstream narratives, it continued to live through local folklore, theatre performances and written across the official documents and writings that recorded the events of that time.

Rani Avanti Bai Lodhi Sagar.

The Narmada Valley Development Authority decided to honour the valiant ruler by naming a dam in Jabalpur after her. Called the Rani Avanti Bai Lodhi Sagar, it is a multi-purpose irrigation and hydro-electric project across the Narmada river in Madhya Pradesh. It is located approximately 45 km from the city and aims to provide annual irrigation of 2,19,000 hectares in the Jabalpur and Narsinghpur districts.



The Department of Posts and Maharashtra Government also issued stamps in her honour. After much protest from the BJP and BSP parties, she was also finally added to the NCERT history textbooks in 2011.

In recent years, her name is slowly making its way to the forefront as a reminder. A reminder that, while many well-known freedom fighters have names and histories that we know at the tip of our tongue, many have been lost to the annals of history. As people whose current socio-political life, a difficult but ultimately free life, comes at the expense of these sacrifices, we owe it to these brave-hearts to remember their stories.

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