Saturday, February 18, 2017

MODERN DAY BHEESHMA - RAWAT CHUNDA JI - IMMORTAL RAJPUTS

पितृ प्रेम, धर्म रक्षा तथा मातृभूमि पर समर्पण तथा त्याग की पराकाष्ठा का उदाहरण

१३९५ ई. में मेवाड़ के महाराणा लाखा की महारानी लखमादे चौहान [खिंची] से एक पुत्र हुआ जिसका नाम चूण्डा रखा गया। चूण्डा बचपन से ही पिता का विशेष आदर करता था और इसीलिए लोग उसे पितृ भक्त युवराज चूण्डा कहने लगे। एक दिन की बात है जब चूण्डा और उसके पिता महाराणा लाखा चित्तोड़ में किले की छत पर खड़े खड़े बाते कर रहे थे तभी अचानक वहां से एक बारात निकली जिसे देख कर महाराणा ने चर्चा से भंग होते हुए एक ठंडी श्वश ली जिसे देखते ही चूण्डा को लगा की उसके पिता की विवाह की इच्छा हुए है तथा वह अभी भी संसार में आसक्त है। 


कुंवर चूण्डा अपने पिता की हर इच्छा पूरी करना चाहते थे, किन्तु इस विषय में लाज के कारण वह खुल कर नहीं कह सका। कुछ दिनों बाद मेवाड़ में मारवाड़- मंडोवर से चूण्डा के लिए राव रणमल अपनी बहन हंसा बाईजी कुंवर का रिश्ता ले कर दरबार में आया और नारियल नज़र किया और कहा '' ये आपके कुंवर चूण्डा के लिए मेरी बहन का रिश्ता कुबूल करने की कृपा बक्षावे '' राव रणमल जो अपने पिता की नाराजगी के कारन मेवाड़ में रह रहा था और दरबार में अपनी प्रतिष्ठा पाने क लिए अग्रसर था, इसी बहाने से यह रिश्ता युवराज चूण्डा के लिए लाया था। रणमल की यह बात सुनकर महाराणा ने दरबार में मजाक में कह दिया 

'' हाँ भाई हमें पता है यह रिश्ता हमारे कुंवर के लिए ही होगा, हमारे लिए थोड़ी होगा, भाई हम तो अब बूढ़े हो चले हैं।’’ 

जिस क्षण महाराणा ने यह वचन कहे देव योग से युवराज चूण्डा वहां आ गए और यह वचन सुनकर तुरंत पिता की इच्छा भांपते हुए उन्होंने शादी से इंकार कर दिया और वह से आज्ञा ले कर चल दिए। उसी रात चूण्डा ने रणमल को यह सन्देश भिजवाया के आपने अब तक हमे एक बार भी गोठ पर नहीं बुलाया, हम अब तक उस दिन का इन्तेजार कर रहे हैं क्यूंकि हमे आपसे कुछ ज़रूरी बातें करनी है। राव रणमल जो इस बात से हैरान था, तुरंत तय्यारी में तत्पर हुआ। भोजन के दोरान जब वार्ता चली तो चूण्डा ने अरज करी के राव रणमल अपनी बहन का रिश्ता उनके पिता से कर दे। इसपर रणमल ने इंकार कर दिया। चूण्डा के बहुत समझाने पर भी जब रणमल नहीं माना तो चूण्डा ने पास खड़े रणमल के चांदन खिडिया चरण से कहा की वह अपने सरदार को समझाए। रणमल ने महाराणा की व्रध्हवस्ता को इंकार का कारन बताया जिसे चूण्डा ने तत्कालीन परम्पराओं का हवाला देते हुए नहीं माना। तब चतुर और चालक चारण बोला के राव साहब को हुजुर की उम्र से कोई तकलीफ नहीं है। किन्तु मेवाड़-राजपूताने के रिवाज़ के तहत महाराणा के बाद उनकी गद्दी का वारिस उनका छोटा पुत्र होगा सो हमारा भानेज एक साधारण ठाकुर बनकर रहेगा और छोटी से जागीर पा कर अपना गुजर बसर करेगा जो राव साहब को पसंद नहीं इसलिए इंकार कर रहे। 


यह उत्तर सुनकर चूण्डा ने तुरंत भीष्म प्रतिज्ञा करते हुए यह प्रण लिया के महाराणा के बाद उनकी गद्दी का वारिस उनसे उत्पन्न पुत्र ही होगा और चूण्डा उसकी सेवा में हमेशा छोटे भाई अथवा रक्षक की तरह आजीवन तत्पर रहेंगे। इसपर रणमल मान गया और अगले ही दिन महाराणा का हंसा कुमारी से विवाह हो गया। तेरह महीने बाद महारानी हंसा बाई के एक पुत्र हुआ जिसका नाम मोकल रखा गया। जब महाराणा की मृत्यु हुई तब रानी हंसा बाई सती होने को तत्पर हुई, और चूण्डा से पूछा की उसने मोकल के लिए कोन्सी जागीर लिखी है ?? तब प्रत्युतर में चूण्डा ने कहा के ''हे माता आपका पुत्र मेवाड़ का महाराणा है और मैं उसका सेवक हूँ , साथ ही आपको सति नहीं होना चाहिए आप तो मेवाड़ बाईजीराज अथवा राजमाता है आपको तो इनका ध्यान रखना चाहिए अभी इनकी आयु बहुत कम है। इस प्रकार चूण्डा ने महाराणा मोकल को मात्रहीन होने से बचाया। इसकारण से चूण्डा की मेवाड़ में बड़ी प्रशंसा होने लगी क्यूंकि कलियुग में ऐसा महान त्याग कौन राजपुत्र कर सकता था। चूण्डा ने न्याय पूर्ण शासन की स्थापना करी और प्रजा और मेवाड़ को मजबूत करने में पूरा ध्यान लगा दिया। चूण्डा के बड़ते प्रभाव से राठोड राव रणमल अपने को कमजोर समझ कर क्षुब्ध हो गया। अतः उसने हंसा बाई को चूण्डा के विरुद्ध भड़काते हुए कान भरने शुरू कर दिए और कहा की चूण्डा ने मोकल को गद्दी पर बिठा कर अपना वचन तो पूरण कर दिया है पैर वह मोकल को कभी भी गद्दी से निष्कासित कर खुद महाराणा बन सकता है इस बात का उसे संदेह है। नादाँ और अनुभवहीन महारानी हंसा बाई ने चूण्डा को बुला कर कहा की 

'' या तो तुम मेवाड़ छोड़ कर चले जाओ या फिर हमे बतला दो की हम कहाँ जाकर रहे। '' 


इस बात से चूण्डा को बड़ी ठेस लगी और चूण्डा ने तत्काल यह प्राण लिया की वह मेवाड़ छोड़ कर जा रहा है और तभी वापिस आयेगा जब महारानी हंसा खुद चूण्डा को आने की आग्या देंगी। महाराणा मोकल की रक्षा और राज्य का प्रबंध के लिए चूण्डा ने केलवाड़े से बुलाकर अपने छोटे भाई राघवदेव को सोंपी जो बड़ा बलवान और कुशल शासन करता था। चूण्डा मेवाड़ से निकल कर मांडू के सुल्तान होशंग शाह के पास जा रहा। मांडू मेवाड़ के करीब था, सो अवसर आने पर तुरंत चित्तोड़ आना सरल रहे। मांडू पहुचने पर सुल्तान होशंग शाह ने चूण्डा का बहुत आदर सत्कार किया और ''रावत'' की उपाधि से नवाजा। इसका कारन यह था की चूण्डा ने गद्दी त्यागने के पश्चात् खुद को युवराज कहलवाना मना करवा दिया था सो सुल्तान उन्हें रावत चूण्डा कहता था। उधर चूण्डा के मेवाड़ से जाते ही रणमल ने धीरे धीरे अपना प्रभाव मजबूत करना शुरू कर दिया। उसने मेवाड़ की सेना की सहायता से मंडोवर के असली शासक सत्ता को मार दिया और स्वयं शासन करने लगा इधर मेवाड़ में भी उसने अपने रिश्तेदारी का हवाला देते हुए बड़े बड़े पदों पर अपने राठोड सामंतो को बिठाने की पूरी कोशिश करी जिसमे राघवदेव की वजह से वह हर बार तो सफल नहीं हुआ किन्तु फिर भी उसने जबरदस्त प्रभाव बड़ा लिया। 


एक दिन महाराणा लाख के पिता महाराणा खेता के पास्वनिये पुत्र चाचा और मेरा ने किसी बात से नाराज़ होकर महाराणा मोकल की हत्या कर दी। इस बात को उचित अवसर जानकार रणमल ने तुरंत चित्तोड़ आ कर चाचा और मेरा को मार कर महाराणा की हत्या का बदला बतलाकर अपना प्रभाव फिर से बड़ा लिया। अब रणमल मेवाड़ और मारवाड़ दोनों जगह अपना शासन करने लगा। उसकी राह में अब सबसे बड़ा कांटा केवल वीर राघवदेव था जो नए महाराणा बालक कुम्भा की रक्षा और मेवाड़ में रह रहे राठोड सामंतो पर हर वक़्त नज़र रखता था और चूण्डा को हर खबर देता रहता था। राघवदेव ने हर तरफ चित्तोड़ के किले पर अपने विश्वस्त सिसोदिये सरदारों को लगा रखा था केवल बहरी जागीरो पर उसकी पकड़ कमजोर थी क्यूंकि जागीरें रणमल महारानी को बहला कर अपने राठोड सिपाहियों को दे रहा था। रणमल को उससे बड़ा भय था और उसको अकेले पकड़ना और काबू में करना मुश्किल था। इसीलिए रणमल ने एक योजना रची और छल से राघवदेव को मारने की ठानी। उसने अपने दो विश्वस्त राजपूतो को एक सुन्दर और बोहोत ही बेशकीमती कुरता जो की बहुमूल्य रत्नों हीरे जवाहरातो से जडित था राघवदेव के पास उपहार स्वरुप भिजवाया जिसके पीछे छुपे कपट से भोला भला राघवदेव अनभिज्ञ था। जब वह दोनों सरदार राघवदेव के पास पहुचे तो पहले तो राघवदेव को कुछ संदेह हुआ किन्तु फिर वह उनकी मीठी बातो में आ गया की वह रणमल को अपना मित्र ही समझे वह सबका भला चाहता है। 


इस बात से राघवदेव आश्वस्त हुआ और उनसे कहा की रणमल जी से कहना की मुझे उनका ये तोहफा बहुत पसंद आया और उनपर इसका उधर बाकि है जो वह भी कभी उतरेंगे ऐसी ही कोई वस्तु भेंट कर के यह कहते हुए राघवदेव ने उन्हें सीख का रक्खा दिया और सकुशल जाने को कहा। किन्तु यह देख प्रत्युतर में उन राजपूतों ने कहा की हुकुम ने फ़रमाया है के यह कुरता आपको पहना हुआ देख कर ही वापस लौटना की उसका नाप सही है या नहीं। ऐसा कहने पर राघवदेव उनकी बातों में आ गया और उसने अपनी तलवार और क़टार दोनों कमर से निकल कर एक और राखी और उस कुरते को पहना। जैसे ही उसने कुरता पहना तो पाया की उसकी दोनों बाहें आगे से सिली हुई थी, इतने में ही जैसे ही उसने ऊपर देखा तो दोनों राजपूत अपनी तलवारें ताने खड़े थे और वीर रघवदेव पर वार पर वार कर उसकी निर्मम हत्या कर दी। इस बात से रणमल को बड़ी रहत पोहोची और उसने महारानी हंसा बाई को यह कहते हुए समझा दिया की न जाने किसने उन्हें मारा होगा वह चिंता न करें वह खुद इसकी तहकीकात करेगा। उसने यह भी कहा की राघवदेव तेज़ मिजाज़ के थे तो जरुर उनकी किसी से शत्रुता हो गयी होगी। जब चूण्डा को इस बात की खबर मिली तो वह बोहोत क्रुद्ध हुआ किन्तु अपने वचन के आगे लाचार था। इस बात से दुखी हो कर उसने इस घटना को एकलिंगनाथ पर ही छोड़ दिया और प्रार्थना करने लगा के किसी भी तरह भोली राजमाता को अपने पिता के बुरे इरादों का पता चल जाये और वह पुनः मेवाड़ में प्रवेश कर रणमल से पुराने सारे घटनाक्रम का बदला लेवे। 


इसी प्रार्थना से एक दिन नशे में चूर राव रणमल ने गलती से अपनी दासी भारमली अपने गंतव्यों के बारे में कह सुनाया की वह महाराणा को अपने रस्ते से हटा कर एक दिन खुद चित्तोड़ का महाराज बनेगा और उसको अपनी रानी बना कर रखेगा। जब यह बात दासी ने सुनी तो वह शांत रही और झूटी मुस्कान बता कर वह से चल दी और तुरंत महारानी हंसा बाई को सारा व्रतांत कह सुनाया। इन सब बातो से महारानी को बड़ी दुःख हुआ पश्चाताप हुआ और इस बात का डर सताने लगा की यदि उसके पिता इन सब योजनाओं में सफल हो गए तो उसे अपने ससुराल के नाश का घोर पाप लगेगा जिसक लिए वह स्वयं को कभी माफ़ नहीं कर पायेगी ,यह सब सोचते हुए महांरानी हंसाबाई ने रावत चूण्डा को यह संदेसा भिजवा दिया की तुम्हारे पिता का राज्य छूट रहा है खबर मिलते हे पधारो और महाराणा की सेवा में रहकर राज्य करो और मेरे बर्ताव के लिए क्षमा करो। ऊँट सवार का यह संदेसा पते हे चूण्डा ने अपने आने का नियता समय बतला दिया और लिखा की जब तक वह नहीं आये महाराणा को किसी गुप्त और सुरक्षित स्थान पर भिजवा दे। 


कुछ ही दिनों पश्चात् तुरंत चूण्डा ससेन्य मेवाड़ में आ पहुंचा और बाकि सिसोदिया सरदारों और अजमल से मिला। अजमल जो की सत्ता का पुत्र था और मंडोवर का का असली हकदार था। सत्ता को रणमल ने मेवाड़ी सेना की मदद से परास्त कर मार दिया था इसी कारन अजमल उससे बदला लेना चाहता था। चूंडा के अजमल से मिलने और सारे सिसोदिया सरदारों को इकट्ठा करने से रणमल को कुछ शक होने लगा जिससे उसने जोधा और अपने परिवार को चित्तोड़ के किले की तलहटी में सुरक्षित पहुंचा दिया और अपने पहरेदारो को सावधान कर दिया। एक दिन महाराणा के आदेश पर दासी भारमली ने रणमल को खूब शराब पिलाई और उसे खाट से बांध दिया। फिर जब उसे कुछ होश न था तब बाहर सारे सिसोदियों ने झगडा शुरू कर दिया। चूण्डा और अजमल, जो की मंडोवर का असली वारिस था एक साथ थे ने मारकाट शुरू कर दी। इधर रणमल को खाट से बंधे हुए ही ३ हजुरियो ने जो की भारमली के सहयोगी थे उसी तरह धोके से मार दिया जैसे रणमल ने राघवदेव को मरवाया था। कहते है रणमल भी आखिर वीर योद्धा था , सो मरने से पहले पास रखे लोटे से २ आदमियों को मार कर खाट से उठ खड़ा हुआ था। जैसे ही रणमल मारा गया तभी किले के किसी ढोली ने यह दोहा कहा - चूण्डा अजमल आविया मांडू से धक् आग, जोधा रणमल मारिया भाग सके तो भाग। इसप्रकार मेवाड़ रणमल के जाल से आजाद हो चूका था चूण्डा ने चित्तोड़ आते हे सारा राज्य कार्य अपनी हाथो में संभाल लिया और फिर मेवाड़ में शांति कायम करी। चूण्डा ने मंडोवर पर कब्ज़ा कर लिया और सड़े सात वर्ष तक मारवाड़ पर मेवाड़ का कब्ज़ा रहा, जब महारानी हंसा बाई ने एक दिन महाराणा से अरज करी की मेरे चित्तोड़ ब्याहने से यहाँ का और मंडोवर का बोहोत नुकसान हुआ है लेकिन अब अगर सब तरफ शांति कायम हो जाये तो मुझे शांति होगी सो आप चूण्डा से कह कर मंडोवर से कब्ज़ा हटवाओ तो मुझे ख़ुशी होगी। महाराणा भी सबका भला चाहते थे सो चूण्डा को वापस आने का फरमान लिख भेजा। 


महाराणा का पत्र पाते हे चूण्डा मंडोवर अपने ३ बेटों कुंतल , मंजा और सुआ के हवाले छोड़ चित्तोड़ रवाना हुआ और पीछे ही जोधा ने मंडोवर पे हमला कर दिया जिसमे उसके तीनो पुत्र काम आये और मंडोवर पे जोधा का कब्ज़ा हो गया। जब चूण्डा चित्तोड़ आया तो महाराणा से मिलकर बड़ा दुखी हुआ, और जैसे हे मंडोवर की खबर मिली तो और ज्यादा क्रोद्धित हुआ और पुनः मंडोवर पे कब्ज़ा करने को तत्पर हुआ। लेकिन इसबार महाराणा ने जोधा और चूण्डा के बीच बैराठगड़ में संधि करवा दी और शांति स्थापित करी। जोधा ने अपनी सम्बन्धी पुत्री श्रृंगारदेवी का विवाह रायमल से करवाया जो महाराणा कुम्भा का पुत्र था। उधर जोधा भी पराक्रमी योद्धा हुआ और बाद में जब मेवाड़ - मारवाड़ संधि हुई, तो जोधपुर अपनी नयी राजधानी कायम करी और नए राज्य की नीव राखी। रावत चूण्डा के विषय में सभी लोगों में केवल यही धरना है के चूण्डाजी ने सिर्फ चित्तौड़ को राव रणमल से आज़ाद कराया और बाकि कोए एतिहासिक जानकारी नहीं मिलती। लेकिन यह एक बोहोत बड़े शोध का विषय है। १४२७ में महाराणा कुम्भा का जन्म हुआ जो १४३३ में गद्दी पर बिराजे जब महाराणा मोकल की हत्या चाचा और मेरा ने की। १४३८ में जब राव रणमल मारा गया था तब कुम्भा ११ वर्ष के हो चुके थे। ग्यारह वर्ष के राणा कुम्भा की नाबालिगी और चित्तौड़ में हुए ताज़ा उथल पथल के कारण गुजरात के सुल्तान अहमद शाह और मालवा के महमूद खिल्जी दोनों सुल्तानों ने १४४० चित्तौड़ पर हमला कर दिया जिसे मेवाड़ी फ़ौज ने हरा दिया इस संय्युक्त सेना को हराने की विजई-ख़ुशी में विजय स्तंभ का निर्माण १४४२ - १४४८ के बीच हुआ। 


विजय स्तंभ जब बनना शुरू हुआ था तब कुम्भा १५ वर्ष के थे और निर्माण पूरा होने तक भी कुम्भा महज अधिक से अधिक २१ के हो चोके थे। तो यह कहना की चूण्डा का इसमें कोई योगदान नहीं था बिलकुल तर्कहीन हे साबित होगा। चूँकि चूण्डा उस मेवाड़ के प्रधान थे और उन्ही के नेतृत्व में मेवाड़ में प्रशासन और राजपाठ चलता था क्यूंकि विजई स्तम्भ की शुरुवात के समय कुम्भा १५ वर्ष के थे सो निर्माण का विचार और उसे पूर्ण करने की जिम्मेदारी चूण्डाजी ने निभाई और अपना इससे महाराणा कुम्भा को समर्पित किया। चूण्डाजी ने अपनी स्वार्थ सिद्धि नहीं चाहते थे तभी संभवतः उन्होंने उसमे कहीं भी अपने नाम का उल्लेख नहीं करवाया। यही कारण था की उन्हें त्यागवीर भीष्म की उपमा से नवाजा गया। युद्ध वीर रावत चूण्डा ने मांडू के सुल्तान महमूद खिल्जी द्वारा १४४२, १४४३ और १४४६ तक लगातार और बार बार हुए आक्रमणों से चित्तौड़ को न केवल बचाया बल्कि सुल्तान को बार बार हराया भी। सुल्तान यह जनता था की चित्तौड़ पर चूण्डा खुद कभी महाराणा नहीं बनेगा और वारिस महाराणा कुम्भा उम्र में छोटा है अगर चूण्डा और कुम्भा दोनों मारे जाएँ तो मेवाड़ पर कब्ज़ा हो सकता है। रावत चूण्डा ने गागरोन के खिंचियों को युद्ध में परास्त किया। १४४३ में जब सुल्तान ने मेवाड़ में लूट और कब्ज़ा जमाया तब उसने गागरोन पर कब्ज़ा कर लिया था। गागरोन मेवाड़ और मालवा की सीमा के बीच में पढता था अतः खिंचियों ने सुल्तान के डर से मेवाड़ में मिलना मन कर दिया था इसी कारन चूण्डा को उनपे हमला करना पड़ा। 


चूण्डा ने टोडा के सगत सिंह सोलंकी को युद्ध में मारा। दूसरी ओर जब १४३८ में रणमल के मरने पर जब कुम्भा केवल ११ वर्ष के बालक थे तब उनकी संभाल के साथ ही साथ सात वर्ष तक मारवाड़ पर पूर्ण कब्ज़ा रखा और १४३८ - १४५३ तब मंडोर पर अपना कब्ज़ा रखा जब तक की खुद महाराणा कुम्भा ने बड़े हो कर एक दिन स्वयं मंडोर से सेना बुलाने का आदेश नहीं दिया। इसका कारण यह था की एक दिन राजमाता हंसा बाई ने कुम्भा से यह निवेदन किया की ''मेरे चित्तौड़ ब्याहने से मेरे कुल का बोहोत नाश हुआ है अब तो पिता रणमल भी नहीं रहे जबकि उन्होंने महाराणा मोकल के हत्यारे चाचा और मेरा का को मारा चित्तौड़ अब आज़ाद है फिर भी जोधा संघर्ष कर रहा है। तुम कहो तो सब और शांति हो सकती है और फिर हर तरफ सुल्तान के आक्रमण का खतरा भी रहता है। '' ऐसा सुन कुम्भा और चूण्डा ने राव जोधा को मंडोर पर कब्ज़ा हो जाने का संदेसा भिजवा दिया। लेकिन राव जोधा ने मंडोर पर हमला कर दिया और चूण्डा के ३ पुत्र कुंतल , मंजा और सुआ मारे गए। जिसका बदला लेने के लिए चूण्डा ने १४५३ मंडोर पर चढाई का फैसला कर दिया। किन्तु तभी अचानक मेवाड़ पर तुर्की मुस्लिमों ने चारों और से हम्ला बोल दिया। क्यूंकि उन्हीं दिनों के आस पास में एक और घटना घटी की महाराणा कुम्भा और चूण्डा ने नागौर पर कब्ज़ा कर लिया था क्यूंकि वहां के सुल्तान शम्स खान ने गुजरात के सुल्तान क़ुतुबुद्दीन से मेवाड़ के खिलाफ संघठन कर लिया जबकि उसको नागौर पर कब्ज़ा करने में मेवाड़ से ही सहायता मिली थी क्यूंकि उसके पिता सुल्तान फ़िरोज़ खान के मरने के बाद उसके चाचा माजिद खान ने नागौर पर कब्ज़ा कर लिया था। 


कुम्भा और चूण्डा ने शम्स खान को नागौर दिलाने का कारण वहां गौ हत्या पर रोक लगाने की संधि करवाना, जोधा के बड़ते कदमों पर लगाम पाना और अंत में नागौर की मुस्लिम सल्तनत में झगडे का फायदा उठाना ही था। १४५३ में शम्स खान को दगाबाजी की सजा तो मिली पर इससे बोखलाए उसके दोस्त गुजरात के क़ुतुबुद्दीन शाह और मांडू के सुल्तान महमूद खिल्जी ने १४४० की पुरानी हार ( जिसमे उस समय गुजरात का सुल्तान अहमद शाह था जिसकी १४४२ में मृत्यु हो गयी थी) का बदला लेने के लिए फिर से चित्तौड़ पर चारो तरफ से हमले शुरू कर दिए। महमूद खिल्जी ने मंडलगड़ और अजमेर पर कब्ज़ा कर लिया और कुतबुद्दीन ने सिरोही पर कब्ज़ा कर कुम्भलगढ़ पर आक्रमण कर दिया। ऐसी विकट स्थिति में कुम्भा ने चूण्डा और राव जोधा के मध्यस्त १४५३ में बैराथ्गढ़ में संधि कराई और फिर मेवाड़ी सेना ने तुर्कों को फिर से पराजित किया जिसमे निस्संदेह चूण्डा ने अभूतपूर्व योगदान दिया और १४५६ तक मेवाड़ पूर्ण रूप से फिर आज़ाद हो गया। 


इतिहास के पन्नो में वीर योद्धा रावत चूण्डा इस घटना के बाद आश्चर्यजनकरूप से अदृश्य हो गया जिसके विषय में सारे इतिहासकार मौन हैं। इसप्रकार वीर, सत्यव्रत, त्यागी, और पित्रभक्त चूण्डा ने अपना सारा जीवन घोर संघर्ष और त्याग में मेवाड़ के लिए न्योछावर कर दिया सो उसके वंशज आगे ''चूण्डावत'' नाम से विख्यात हुए। किन्तु इस त्याग और बलिदान का सिलसिला यही समाप्त नहीं हुआ बल्कि चूण्डा के वंशजो ने इसे कायम रखा और मेवाड़ महाराणा की सहायता और सेवा में कई और कीर्तिमान रचे और बड़ी बड़ी जंगो और खूंखार युद्ध अभियानी में हरावल में रहते हुए सर कटा दिए और भालों और तोप के गोलों को अपने सीने पे झेला लेकिन कभी महाराणा को आंच नहीं आने दी। आगे हम पढेंगे के महाराणा के सम्मान के लिए चूण्डावतों ने कभी अपने इमान को नहीं छोड़ा, कई बार महाराणा चूण्डावतों से नाराज़ भी हुए लेकिन कभी भी चूण्डा के पाटवी वंशजों और उनके भाई-बेटो-सहोगियों ने महाराणा के ऊपर चढाई नहीं की बल्कि हर प्रयास किया के मेवाड़ में शांति कायम रहे और महाराणा सुखी रहे।

रावत चूण्डा ने कुल ५ विवाह करे जिससे उनके कुल १५ संताने हुई –

१. कांधल चूण्डावत

२. कुंतल चूण्डावत (ठि.भरख, ठि.परावल)

३. तेज सिंह चूण्डावत (ठि.सूर्यगड़, ठि.लिम्बोद, ठि.बेगूँ, ठि.कनेरा, ठि.बस्सी)

५. जेत सिंह चूण्डावत

५. मांजा चूण्डावत (कटार और सलूम्बर के पास के कुछ ठिकाने)

६. सुआ चूण्डावत

७. आसा चूण्डावत (ठि.भरचड़ी) - यह एक महान योद्धा था जिसे अपनी तलवार से बड़ा लगाव था जिससे उसने सहस्त्रों शत्रुओं का दमन किया l

८. रासा चूण्डावत

९. रणधीर चूण्डावत - (ठि.काटून्द)

१०. जयमल चूण्डावत

११. पदम् कुंवर चूण्डावत (बाईजीराज)

१२. भीम चूण्डावत

१३. देव चूण्डावत

१५. सांवलदास चूण्डावत

१५. ईसरदास चूण्डावत


Lot of People know the Story of 𝘉𝘩𝘦𝘦𝘴𝘩𝘮𝘢, and How he Refused the Throne for Pleasure of His Father.

What if you hear, That There was Another Modern Day 𝘉𝘩𝘦𝘦𝘴𝘩𝘮𝘢, Merely 600 Years Ago? 


Rao ChundaJi who left the throne for his younger unborn brother and vowed that no one from his family will ever take the throne, and his descendants did get a chance but still rejected, adhering to the vow of their ancestor. Only a true Kshatriya can do that. Same was done in Dwapar Yug by Pitamah Bhishma and in Kalyug by Rao ChundaJi.


Early 14th century MahaRana Lakha was Ruling As 3rd Maharana of Mewar.

He was in His Advanced years, with His Sons Comfortably Settled, when a Marriage Proposal Came From King Of Mandir to Marry his Daughter to Son to Lakha, Rao Chunda. At that Time, Kunwar Chundaji was Not Present in Mewar.

His Father, Lakha informed the Girl's Brother and Joked

"Nobody would send a Marriage Proposal to an Old Man Like me"

When Kunwar Chundaji Heard this, he Thought that his Father still Had a Secret Desire to Marry, and Declined the Proposal. Kunwar Chunda Proposed that Marriage Proposal must be Accepted by His Father.

Girl's Brother, Ran Mal, Agreed Only one 1 Condition.

"Kunwar Chundaji will have to Give Up His Claim on The Throne of Mewar"

Chunda Agreed Without Hesitation. Marriage was celebrated and They had a Son Named Mokal When Mokal was 5 Years old, Rana Lakha Decided to Go for The Final Battle of His Life. He was To Fight in Gaya (Bihar) to remove Jaziya. But he wanted to Nominate a Successor before his Departure. When He asked Chundaji, Kunwar Chunda Ji replied: "Mokal deserves Throne of Chittor"

He Also Suggested that Coronation should be Done Before Rana's Departure. Kunwar Chunda Ji was the First to Pay Homage to 5yr Old Rana Mokal. Then, Rana Lakha Proceeded for Gaya, where he Defeated the Afghans and Freed the Holy Land, But Lost his life in 1421. His Youngest Wife (mother of Mokal) prepared for Sati, But was Persuaded against it by Rao Chunda Ji Himself. Chunda argued that Since New Maharana is Only 5yrs Old, Hence Queen Mother Must Stay behind and Act as Queen Regent.

Queen, Hans Bai, was Surprised at Display of Loyalty by Rao Chunda. Pleased with His Exemplary Conduct, She declared That Rao Chunda Ji will be The First Councillor and Will Confirm Grants Issued by Maharana.

Even Today 𝘛𝘩𝘦 𝘓𝘢𝘯𝘤𝘦 𝘰𝘧 𝘚𝘢𝘭𝘶𝘮𝘣𝘳𝘢 𝘚𝘵𝘪𝘭𝘭 𝘗𝘳𝘦𝘤𝘦𝘥𝘦𝘴 𝘵𝘩𝘦 𝘔𝘰𝘯𝘰𝘨𝘳𝘢𝘮 𝘰𝘧 𝘔𝘢𝘩𝘢𝘳𝘢𝘯𝘢. Descendants of Rao Chunda are Called 𝘊𝘩𝘶𝘯𝘥𝘢𝘸𝘢𝘵. They have Acted as Faithful Watchers to The Throne of Mewar Ever Since Then. Chundawats had the honour of being the vanguard of Mewar army, which was successfully defended during battle of Untala. Salumbar (also famous for Hadi Rani) is the head jagirs of Chundawats, its Rawat had the authority to sign the official documents on behalf of Maharana.







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