" राम सिमर राम सिमर
एहि तेरे काज रे
माया को संग त्याग
प्रभु जुकी क्षरण लाग"
राम राम राम राम
रामायण और राम भारतीय जनमानस में हमेशा से घुले मिले ही रहे हैं। भारत की संस्कृति को राम से अलग कर के देख पाना मुमकिन नहीं होता। रामायण की ही कहानी का मोटे तौर पर कवियों और लेखकों ने इतनी बार अपनी अपनी समझ के साथ इस्तेमाल किया है । आज सिर्फ भारत में रामायण और रामकथा के हज़ार अलग अलग पाठ मिल जायेंगे। जो विदेशों में भारत के बाहर की भाषाओँ में लिखी गई हैं उनकी तो खैर कोई गिनती ही नहीं। सिर्फ महाभारत का वन पर्व देखेंगे तो युधिष्ठिर का हौसला बढ़ाने के लिए उन्हें तीन बार राम कथा सुनाई गई है। वन पर्व में जब जयद्रथ से छुड़ा कर द्रौपदी को पांडव वापस लाते हैं तो युधिष्ठिर फिर से कहते हैं कि क्या इतनी मुश्किलें किसी और को झेलनी पड़ी होगी ? युधिष्ठिर के ऐसा पूछने पर मार्कंडेय फिर से राम कथा सुनाते हैं। इस तीसरी बार में राम कथा के काफी अंश विस्तार से सुनाये गए हैं। रावण के पूर्वजों, उसके विजय अभियान आदि का जिक्र है तो कुछ हिस्से यहाँ छोड़े भी गए हैं। जैसे ताड़का-सुबाहु वध, शिव धनुष-भंग, या अहिल्या का जिक्र नहीं है। राम रावण युद्ध वाले हिस्से में यहाँ गरुड़ का आकर राम-लक्ष्मण को नाग पाश से मुक्त करना भी नहीं है।
हनुमान द्वारा लंका दहन का तो बताया, लेकिन उनका संजीवनी बूटी लाने जाने का जिक्र भी नहीं है।
यहाँ रावण के पूर्वजों से जुड़ी जानकारी है। कहा गया है कि कुबेर अपने पिता पुलस्त्य ऋषि की सेवा छोड़कर ब्रह्मा की सेवा में चला जाता है जिस से नाराज पुलस्त्य ऋषि विश्रवा का सृजन करते हैं। विश्रवा को उसके तप से डिगाने के लिए कुबेर उनके पास तीन राक्षसियों को भेजता है। पुश्पोतकटा, राका और मालिनी नाम की तीनों विश्रवा की तपस्या भंग करती हैं। पुश्पोतकटा से रावन और कुम्भकर्ण का जन्म होता है, दूसरी राका से खर और शूर्पनखा का, तीसरी मालिन से विभीषण का जन्म हुआ। यहाँ विभीषण वाल्मीकि रामायण की तरह रावण के दरबार में नहीं होते बल्कि वो कुबेर के एक सेनापति बन जाते हैं। रावण के निकालने पर आकर राम से नहीं मिलते बल्कि सीधा कुबेर के पास से राम की मदद के लिए आते हैं। सीता जब रावण की कैद में होती है तो एक अविन्ध्य नाम का राक्षस, त्रिजटा के माध्यम से सीता का हौसला बंधा रहा होता है। इस अविन्ध्य का जिक्र भी वाल्मीकि रामायण में नहीं आता। अविन्ध्य को जो स्वप्न में राम-लक्ष्मण दिखते हैं उसपर भी कई शोधकर्ताओं ने ध्यान दिलाया है। अविन्ध्य को सपने में लक्ष्मण हड्डियों के ढेर पर बैठे दिखते हैं,वो दूध मधु-भात खा रहे होते हैं। ये अविन्ध्य का सपना इसलिए महत्वपूर्ण होता है क्योंकि बाद में महाभारत के युद्ध में कर्ण भी पक्का यही स्वप्न देखता है,सिर्फ कर्ण के स्वप्न में लक्ष्मण की जगह पर युधिष्ठिर बैठे होते हैं। महाभारत में सुनाई जा रही इस कहानी में मंदोदरी का भी जिक्र नहीं है।
यहाँ पर सीता की अग्निपरीक्षा भी नहीं है। यहाँ ब्रह्मा आते हैं और नलकुबेर के शाप के कारण बलात्कार करने में रावण की असमर्थता बताते हैं। जैसे आम तौर पर राम को अवतार या सीधा विष्णु मानकर पूजा जा रहा हो।
वैसे वन पर्व की ये वाली राम कथा नहीं है। ये राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में स्थापित करती है। कैसे वो मनुष्यों के लिए अनुकरणीय हैं, उसपर ध्यान दिलाया गया है। मार्कंडेय ये ध्यान दिलाते रहते हैं कि पांडवों का वनवास तो केवल बारह वर्ष का है जबकि राम का चौदह साल का था।
वो ये भी ध्यान दिलाते हैं कि राम की मदद के लिए अयोध्या से उनकी सेना और भाई नहीं पहुंचे थे, बल्कि उतनी देर में खुद उन्होंने ही वानर-रीछों की सेना खड़ी कर ली थी। जैसा की कई बार भारतीय साहित्य में होता है बिलकुल वैसे ही संघर्ष और संग्राम के जरिये अपना अधिकार ले लेने की अनुशंषा की जा रही होती है। बाकी रहा संघर्ष-संग्राम में किसी विवादित ढांचे के टूटने का सवाल तो नए निर्माण के लिए कुछ तो पुराना तोड़ना ही होगा। जिन्हें लगता है कि भारत संविधान से चलता है, भावना से नहीं, उन्हें याद दिला दें कि खुद संविधान भी जनता को सर्वोपरी मानता है। भारत में जनता, जनता के लिए लिखे गए संविधान से भी ऊपर होती है।
तो बात उस समय की है जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। पांडव जीत गए थे और हस्तिनापुर से राजकाज देखने लगे थे (इंद्रप्रस्थ कर्ण के बेटे को दिया गया था)। युधिष्ठिर दरबार संभालते और रोज काम काज देखते। एक दिन शाम हुई, दरबार उठा सब निकल कर विदा हो गए तो युधिष्ठिर नकुल से कुछ चर्चा कर रहे थे। मंझले भैया भीम भी वहीँ मौजूद थे, इतने में द्वारपाल अन्दर आया।
उसने सूचना दी कि कोई दरवाजे पर किसी काम को लेकर आ खड़ा हुआ है।
शाम ढले, काम काज समेटने के बाद युधिष्ठिर का और प्रार्थियों से मिलने का मन नहीं था। उन्होंने द्वारपाल को आदेश दिया कि जाओ प्रार्थी को कल सुबह आने को कह दो। इतना सुनना था की भीम कूद कर उठे बाहर भागे। जल्दी से उन्होंने सैनिकों को जीत का डंका बजाने का आदेश दिया। भीम मल्लों-सैनिकों के अत्यंत प्रिय थे, उनका आदेश पाते ही सब दुदुम्भी-नगाड़ों पर टूट पड़े।
अचानक दरबार से युद्धक वाद्यों का शोर उठा तो अर्जुन गांडीव संभालते भागे आये। अन्य दरबारी भी जिसके हाथ जो लगा वही लिए लपकते पहुंचे। पता चला ये कोई जीत का डंका नहीं भीम की कारस्तानी है ।
तो सबने पूछा ये किससे किसके जीतने का डंका बजवाया? भीम बोले आपको पता नहीं भ्राता युधिष्ठिर ने काल को जीत लिया है ! सब चौंके, काल को जीता? कब, कैसे जीता?
भीम बोले प्रार्थी को सुबह आने को कह दिया है मतलब कल तक ना वो मरेगा, ना भ्राता युधिष्ठिर, ना कोई आपदा ही आएगी।
अब सत्यवादी भ्राता युधिष्ठिर अगर कल तक का दावा ठोक रहे हैं, तो कम से कम कल तक तो उन्होंने काल को जीत ही रखा है। इतना पता होने पर मैं जीत का डंका कैसे ना बजवाता? युधिष्ठिर को अपनी भूल समझ में आई। द्वारपाल दोबारा दौड़ाया गया और प्रार्थी का काम उसी समय हुआ। छोटे से छोटे व्यक्ति की बात सुने जाने के उदाहरण हमें महाभारत-रामायण काल से ही मिलते हैं। ऐसे में प्रधान जी के किसी को रामायण का उदाहरण देकर चुप करवाने की हम कड़ी निंदा करते हैं। संसद जैसी जगह पर केवल एक बहुसंख्यक धर्म के ग्रन्थ का उदाहरण दिया जाना भी उचित नहीं लगता।
हमारी मांग है कि देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बचाए रखने के लिए उचित होगा कि रेनकोट जैसे उदाहरण ना दें, अगली बार “अलिफ़-लैला” से कुछ निकाला जाए।
No comments:
Post a Comment