Tuesday, March 10, 2015

THREE SIEGES OF JAISALMER DURG - IMMORTAL RAJPUTS



कभी इस मार्ग पर घोड़े दौड़ते थे , कभी ऊंट दौड़ते थे , पर आज मोटरे दौड़ रही है | कभी इस मार्ग पर फौजे आती थी , कभी नगारे बजते थे , और आज सिर्फ यात्री आ रहे है और यात्री जा रहे है | कभी इस मार्ग पर जिन्दगी के कारवां गुजरते थे , कभी मौत के हरकारे दौड़ते थे पर आज न तो मौत दौड़ रही है न जिन्दगी , केवल सुनसान बैठा हुआ है | अपनी ठुड्डी पर मुट्ठी का अग्र भाग दिए सोच रहा है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'

खुरासान का बादशाह फरिद्शाह दो बार करारी पराजय खा चूका था , इसीलिए महाराजा गज ने गजनी नगर और उसका किला बसाया | कुचला हुआ सांप क्रोधित होकर प्रत्याक्रमण कर सकता है और हुआ भी वही | इस बार रूम का ममरेज शाह भी साथ था | दो बार हार कर गया , किन्तु तीसरी बार शालिवाहन को अपने पिता की रणभूमि ही छोड़कर पंजाब आना पड़ा | आज गाथाओं से सरोबार यह बालू रेत के टीबे और व्यथाओं को समेटे यह पथरीले मगरे अफगानिस्तान की हिम-मंडित और फलों से लदी हुई पहाड़ियों और घाटियों को याद कर सोचते है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'

पंजाब में शालिवाहन ने स्यालकोट बसाया | गजनी तो वापस भी आई , परन्तु अंत में स्यालकोट को भी ले गयी | अपने दादा के वतन को छोड़कर महाराजा भाटी ने भटनेर का किला बसाया | मेरे आस पास खड़े ये सूखे खेजडे , फोग की पसरी हुई झाड़ियाँ और झुलसे हुए आकडे पंजाब के हरे- भरे और लहलहाते मैदानों की याद में वेदना के सागर सुखा रहे है और इधर मेरी स्मृति में भी कांटे चुभ रहे है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'


लेकिन होनहार ने क्या किया है ? कुछ नहीं ! उसने तो सिर्फ नाम बदलें है | भटनेर वहीँ है , नाम बदल गया है - हनुमानगढ़ | भाटी के प्रपोत्र महाराजा केहर ने सिंध में केहरगढ़ बसाया था , आज उस सिंध का सिर्फ नाम बदल गया है - पकिस्तान | होनहार तो सिर्फ नाम बदला करता है | कभी प्रभात को संध्या कर देता है और कभी संध्या को प्रभात | कभी किसी को सम्राट कह देता है , फिर पलट कर उसी को फकीर कह देता है | होनहार वही है , उसकी कलम भी वही है , सिर्फ कागज बदल रहे है , रंग बदल रहे है , नाम बदल रहे है , पात्र और स्थान बदल रहे है पर उनके साथ जमाने भी बदल रहे है |

केहर के पुत्र महाराजा तणुराज का बनाया हुआ तनोटगढ़ खडाल में अभी तक बना हुआ है , पर शासकों के नाम बदल गए | तणु का पुत्र विजयराज चुंडाला था , जिसने भटिंडा के वरिहाहों के दांत खट्टे कर दिए पर होनहार पलटा और उन्ही वरिहाहों ने घात कर विजयराज को मार डाला और उसके पुत्र देवराज पर आफत के पहाड़ चुन दिए | होनहार ने नाम और ज़माने पलट दिए और इतिहासकार सोचता है - ' होनहार ने क्या कर डाला ?'

होनहार से जब पहली बार मैंने बदला लेने की ठानी तब सर्वप्रथम देवराज से उसकी मुटभेड हुई | होनहार ने उसके पिता विजयराज को वरिहाहों से कपटपूर्वक मरवा डाला , तो इसने वरिहाहों का समूल नाश का होनहार के मुंह पर पहला थप्पड़ मारा | होनहार ने उससे तनोट का किला छुड़ाया , तो इसने देरावर बसाया , बदले में भटनेर और भटिंडा हाथ किया और ब्याज में लुद्र्वा को भी छिनकर होनहार के मुंह पर दूसरा थप्पड़ मारा | होनहार ने इसे अपने पैत्रिक राज्य से भ्रष्ट कर महाराजा से दर-दर का भिखारी बना दिया , पर इसने पुरुषार्थ और बल-विक्रम से पुन: महाराजा ही नहीं , महारावल बनकर होनहार के मुंह पट तीसरा थप्पड़ कस दिया |

पुरोहित लांप के पुत्र रतना को इसके साथ भोजन करने के कारण जाति बहिष्कृत किया गया , किन्तु सन्यासी बने सिंहस्थली के इसी पुरोहित को सोरठ से बुलाकर इसने इसकी नई जाति रत्नू चारण बनाकर होनहार के मुंह पर चोथा थप्पड़ मार दिया | मेरे हाथों होनहार ने इतनी चुभती हुई और बेशुमार थप्पड खाई कि उसका मुंह पीड़ा और शर्म से लाल हो गया था | मेरी तो फिर भी शिकायतें रही पर देवराज ने कभी शिकायत नहीं की , कि होनहार ने क्या कर डाला ?


देवराज की चौथी पीढ़ी पर भोजदेव ने शहाबुद्दीन गोरी की फ़ौज का सामना किया उर होनहार ने लुद्र्वा की रौनक सदा के लिए छीन ली | पर जैसल ने भोजदेव के उत्तराधिकारी के रूप में मुझ जैसलमेर दुर्ग को बसाया | संवत १२१२ से आज तक लगभग ८०० वर्षों में मैं इसी स्थान पर खड़ा हुआ , रास्तों को बदलते हुए , धरती को बदलते हुए , इंसान और इतिहास को बदलते हुए देख रहा हूँ | कभी इस जगह घोड़ों और ऊँटो को दौड़ते देखा था आज उन्ही राहों पर मोटरों को दौड़ते देख रहा हूँ | और कभी नगारें बजाती फौजों को देखा था और आज सिर्फ यात्रियों को आते जाते देख रहा हूँ | कभी जिन्दगी के कारवां और मौत के काफिले देखे थे और आज तकदीरों की उथल-पुथल को देख रहा हूँ , जीवित कौम के अंदाजे और नियति की अदाएं देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ - ' होनहार ने क्या कर डाला ? '

एक दिन बड़ी अवेर होनहार ने मेरा दरवाजा खटखटाया | दिन ढल चूका था और संध्या समीप थी | जिसक के पौत्र और राव केल्हण के पुत्र चाचकदेव ने देखा बाल सफ़ेद आ रहे है , जरा ने अपना सन्देश भेज दिया है , अब मृत्यु का मुकाबला खाट पर किया जाय अथवा होनहार को दो हाथ दिखाकर किया जाय | जब चाचकदेव ने मेरी और प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा , तब मैंने भक्तिभाव से उत्तर दिया था - ' नहीं , मेरे मालिक ! होनहार के समक्ष झुको नहीं , उससे रणभूमि में लोहा लो ताकि आने वाली पीढ़ी को मैं कह सकूँ -कि उनके पूर्वज खाट पर पड़े मौत का इन्तजार नहीं किया करते थे ,

किन्तु मौत की खाट पर बैठ कर उसका गला दबोच लेते थे |' और मेरा मालिक मुल्तान के लंगा को रणदान देने गया ' हम ५०० सवार लेकर सिर्फ होनहार से लड़ने आ रहे है | कृपा पूर्वक हमारा रणदान स्वीकार करो | ' ऐसे बांके दानी न लंगा ने कभी देखे और न कभी सुने | मुल्तान का बादशाह तिगुनी फ़ौज लेकर आया उसने देखा - चाचकदेव ने मुट्ठी भर सेना से वास्तव में होनहार के छक्के छुड़ा दिए | रणक्षेत्र में मुल्तान का बादशाह सो गया , चाचकदेव और दोनों सेना के सिपाही सो गए | मौत के समय मेरे मालिक खाट पर नहीं , मौत का सिरहाना देकर कर्तव्य -क्षेत्र में सोया करते थे , फिर होनहार को क्या दोष दूँ कि उसने क्या कर डाला ?

चाचकदेव के पौत्र महारावल जैतसी का राजतिलक संवत १३३२ में हुआ | एक सौ बीस वर्ष का मैं भी जवान हो गया था | मैंने भी सोचा -यौवन की इन उछलती हुई घड़ियों में मौत की ठिठोली कर मैं भी दो एक कहकहे लगा दूँ | महारावल के राजकुमार मूलराज और रतन सिंह को कहा - ' मेरी सगाई करो |' वे नारियल लेकर दूर-दूर तक फिर आये | भक्खर कोट से दिल्ली जाने वाले अल्लाउद्दीन के भरे खजाने लुट लाये | अन्तोत्गात्वा संवत १३६१ में बादशाह अल्लाउद्दीन की और से कमालदीन टीका लेकर आया | बारह वर्ष तक वे मुझे घेरे बैठे रहे और अंत में हारकर वापस जा रहे थे , कि मैंने मूलराज व रतन सिंह से कहा - ' ये तो जा रहे है , फिर मैं तो कुंवारा ही रहूँगा |' तब संवत १३७३ में दरवाजे खोले गए |


मेहमान और मेजबान खूब जी भरकर मिले | इधर तलवारों से तलवारें मिल रही थी , भालों से भाले मिल रहे थे , तीरों से तीर और घोड़ों से घोड़े मिल रहे थे | मिल-मिल कर लौट जाते थे, मेरे चरणों पर | मेरे भाल पर उस दिन अनगिनत टीके लगाये गए | कुमकुम इतना बिखर गया कि उससे धरती और आकाश लाल हो गए , मेरी खुशकिस्मती और बदनसीबी भी लाल हो गयी अंत में वह बहने लगी | निश्चय ही कालिका का खप्पर फूट गया था या फिर भर कर छलछला गया था | होनहार घबडा उठा - बंद करो ये उत्सव | लेकिन मैंने भी होनहार को दंग करने की ठानी थी |

बांह पकड़कर मैं उसको अंत:पुर के भीतर ले आया और उस प्रज्वलित अग्नि को दिखाया , जिसमे रनिवास खुद रहा था | विधाता का दिया हुआ , बुद्धि को बेहोश करने वाला सोंदर्य , कुल-परम्परा का दिया हुआ मस्तक को गर्वोन्नत करने वाला समस्त शील और किस्मत का उदारता से लुटाया हुआ सुहाग भी धधकती हुई अग्नि के भूखे पेट में समा रहा था |

मैंने होनहार से कहा - ' जरा देख ! हिमालय में हड्डियाँ गलाने , काशी में करवट लेने और असंख्य वर्षों तक सृष्टि दहलाने वाली तपश्चर्या के बाद बड़ी कठिनाई से प्राप्त होने वाले राज्य श्री के वैभव -सुख- सुहाग और संपत्ति को मेरे मालिक कितनी बेपरवाही से लुटा रे है |' होनहार क्या देखता ? उसने तो आँखे बंद करली थी और उसकी बंद आँखों से दर्द भरे आंसू टपक रहे थे | सिर धुनते उसने बस इतना ही कहा - ' हृदयहीन ! यह कैसी तेरी सगाई ? यह कैसा उत्सव ? उफ़ ! तुमने यह क्या कर डाला !'



जब सभी मेजबान चले गए , तब चंद मेहमान शेष रह गए और वे भी अंत में तंग आकर ताला लगाकर चले गए | सुनसान मेरा साथी बना | उसने भी एक दिन विदा ली और दुदा और तिलोकसीं आये | सिंहासन हाथ लगाते ही मैंने चेतावनी दी - ' सावधान ! मेरे विवाह का वायदा करो, तो इस सिंहासन पर बैठ सकते हो |' उन्होंने कहा -स्वीकार है | दर्पण ने एक दिन दूदा को कहा - अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो उसे पूरी करने के तुम्हारे दिन ढल रहे है - बालों में एक सफ़ेद बाल आ गया है | ' मेरे मालिक मेरी शादी की तैयारियों में जुट गए | कांगडे वालों की घोड़ियाँ ले आये | लाहोर के पास से बाहेली गूजर की भैंसे और सोने की मथानी ले आये | बादशाह के घोड़ों की सौगात ले आये | आखिर फिरोजशाह तुगलक ने लग्न-पत्री स्वीकार की | फ़ौज बाहर पड़ी रही ,आखिर धेर्य ने मेरी मदद की और संवत १४२८ की विजया दशमी का महूर्त निकल आया |

उस दिन तेल चढ़ने का मुहूर्त था | अग्नि प्रज्वलित की गई और रनिवास फिर उसी आग में चला गया | दुसरे दिन सुबह एकादशी को मैं चंवरी चढ़ने वाला था | तैयारियां पूरी हो चुकी थी | बारातियों ने केसरिया वस्त्र धारण किये | सब ने कसुम्बा पिया , गले लगे और मेरी एतिहासिक बारात के अनमोल बाराती नीचे उत्तर पड़े | शहनाईयां चीख पड़ी , और मारू सिसकने लगे | जीवन के सागर में ज्वार आ रहा था - लहरें -यौवन की लहरें , उमंग , आनन्द और जीवन की लहरें मौज में आई हुई थी |

धरती से उछलकर कभी आकाश के गले में बान्हे डाल रही थी और कभी आकाश से उतर कर धरती को चूम रही थी | घोड़ों की टापों से उड़ रही झीनी-झीनी खेह में पवन गालों में हाथ दिए प्रेम के मधुर-मधुर गीत गा रहा था | मुझ पर चंवर ढुलाई गई , मेरी पीठी की गई , वस्त्रों से सुसज्जित किया गया | उस दिन मैं फूला नहीं समां रहा था | होनहार तो ईर्ष्या से जलभुन गया |


आखिर चंवरी चढ़ी , भांवरे भी खाई | थोड़ी देर के बाद देखा -धूमधाम समाप्त हो गई , बाराती और बारात भी गई , मांढ भी सुनी पड़ी है | न उत्सव करने वाले रहे , न उत्सव देखने वाले रहे | परवाने जल चुके थे , शमाएं बुझ चुकी थी, मनुहारें बंद हो गयी और महफ़िल उठ गई | सुहागरात की सतरंगी शय्या पर दुल्हन भी नहीं , केवल उसका खींचतान से फटा हुआ दामन पड़ा था | मुझे तो मालुम ही नहीं हुआ , कि मैंने मौत से शादी की थी या जिन्दगी से | उस फटे हुए दामन से तो मेरा कफ़न भी नहीं बन सकता था | भयंकर सुनसान को देखकर मुझे होनहार के खेल का सही अर्थ मालुम हुआ और मैंने चीख उठा - ' निर्दयी होनहार ! तुमने यह क्या कर डाला ?'

पर होनहार क्या जबाब देता ? उसने आज तक मेरे किसी सवाल का उत्तर नहीं दिया है | उत्तर तो होनहार की शरारत का मैंने दिया था | महारावल लूणकरण के समय होनहार ने छल करना चाहा था | मैंने अपने मालिक को कहा - 'विवाह तो हो गया पर मेरा गौना कब होगा?'


लूणकरण ने कहा था - ' क्यों अधीर होते हो , अवसर आने पर यह काम मैं कभी भी करवा दूंगा |' वह अवसर तब आया , जब होनहार ने कंधार के अमीर , अमीरअली खां के हाथों संवत १६०७ में डोलियाँ भेजी , कि यह अंत:पुर में मिलना चाहती है | पर मैंने प्रथम द्वार पर ही पहचान लिया , कि होनहार मुझसे शरारत करना चाहता है | उस बेचारे से समझने में भूल हो गयी , कि मैंने मौत से कितनी बार शरारतें की है | इस बार भी वही केसरिया बाना, वही कसूम्बा , वही राग , वही रंग | महारावल लूणकरण अपने चार भाईयों और तीन पुत्रों सहित मेरे गौने के लिए परलोक चले गए और वहां से मेरे लिए दुल्हन भेज दी |

मैंने उसे अंत:पुर में भेज दिया और प्रथम मिलन के मादक क्षणों की उत्सुकता पूर्वक प्रतीक्षा करने लगा | द्वारपाल ने देखा चिता सजाने और आग लगाने जितना समय ही नहीं रहा , तब समस्त अंत:पुर को तलवार के घाट पर धरा स्नान करवा दिया गया | और मेरी दुल्हिन भी प्रेम की दुनिया बसाकर उसी में विरह की आग लगाकर चली गयी | तुम इसे आधा शाका ही कहोगे , पर मेरे लिए पुरे से अधिक था | मेरा घर तो इसी शाके में बन कर उजड़ गया | अब भी खड़ा हुआ मैं संसार में इस बात का गवाही हूँ कि जैसलमेर में ढाई नहीं तीन शाके हुए |

चितौड़ में तीन शाके हुए , यह कहकर मुझे तुम उसकी तुलना में छोटा भले बता लो | मुझे चितौड़ से ईर्ष्या बिलकुल नहीं है , पर होनहार को कभी मुझसे ऊँचा नहीं बता देना | मुझे अपनी आन और मान प्रिय है और इसीलिए रावल लूणकरण की पुत्री उमादे जीवन भर अपने पति मालदेव का परित्याग कर संवत १६१९ की कार्तिक सुदी १२ को उसी पति के पीछे सती हुई | मुझे छोटा बताकर भी तुम मेरे खानदानी रक्त को छोटा मत बता देना | मैंने अपनी खानदानी आन के लिए होनहार का सदैव पीछा किया | वह जब कभी मुझे दिखाई दिया , मैंने खदेड़ कर उसे भगा दिया और उसके पदचिन्हों पर पुरुषार्थ का पानी छिड़क कर तलवारों की छांह में इतिहास और संस्कृति के पौधे लगाए | मेरी सीमा में मैंने होनहार को कभी सांस नहीं लेने दी |


आखिर तंग आकर वह भाग खड़ा हुआ और सुदूर पश्चिम सीमा पर बलोचों से मिल गया | जब बलोचों ने होनहार की शह पाकर उपद्रव खड़े किये , तब मैंने फिर उसका पीछा किया | रोहिड़ी के पास संवत १७५८ में उसके और महारावल अमर सिंह के दो दो हाथ हुए | धार से धार और अणि से अणि जब बजने लगी , तो पृथ्वी त्राहि -त्राहि करती हुई मेरे चरणों में गिर पड़ी और आकाश कांपते हुए सिसकियाँ भरकर कहने लगा - आखिर तुम क्यों होनहार के पीछे पड़े हो ?

इस मनुहार पर मैं लौट पड़ा | लौटते समय आषाढ़ सुदी अष्टमी को उसी युद्ध-क्षेत्र से कुछ दूर पर मेरी कुल-ललनाओं को मैंने सती होते देखा | अब कोई क्या कहेगा कि मैंने यह क्या कर डाला और क्या नहीं कर डाला |
उस दिन के बाद निश्चिन्त होकर ढाई सौ वर्ष तक मैंने खूब भोग भोगे |

उस दिन के बाद निश्चिन्त होकर ढाई सौ वर्ष तक मैंने खूब भोग भोगे | अवर्णीनीय एश्वर्य का उपभोग किया | रंगीन और हसीन महफ़िलों में डूब गया , पर मुझे क्या मालूम था , कि भोग और एश्वर्य के उन मादक प्यालों में होनहार ने ऐसा जहर घोल दिया , कि जिससे क्षण-क्षण मृत्यु समीप आने लगी | अज मैं स्पष्टतया देख रहा हूँ - मेरे थिरकते यौवन पर मनहूस बुढ़ापा छा गया | मेरे क्रोध के दांत टूट गए , मेरी बहादुरी के बाल सफ़ेद हो गए , मेरी उमंग में झुर्रियां पद गयी और मेरे पुरुषार्थ के घुटनों में संक्रामक दर्द शुरू हो गया | मेरे बारह -बारह वर्ष तक के घेरे लगाये गए, पर जब मेरा जीवित मौसर (मृत्युभोज) कर दिया गया ,उस दिन बारह दिन क्या बारह घंटे ही किसी ने शोक नहीं किया |


मेरी अर्थी बनाकर मुझे शमशान भी नहीं पहुँचाया गया और मेरे विजेताओं ने मेरी ही छाती पर दिवालियाँ मना ली | अब लोग मुझे देखने आते है - मैं भारत सरकार के दर्शनीय स्मारकों में हूँ , होनहार ने जीते जी मेरा स्मारक बना दिया | अब मैं जी क्या रहा हूँ , जीने की परिभाषा बदल रहा हूँ | दिल में इतने घाव और स्मृति में इतने फफोले पड़ गए है कि जीवन की परिभाषा समझा भी नहीं सकता |
दर्शक ! मेरी जिन्दगी कितनी रंगीन और खुबसूरत थी , पर मेरी मौत कितनी कमीनी और मनहूस हो गई ? काश ! मैं यह समझ पता , कि होनहार ने क्या डाला ?

होनहार ने मेरे साथ बहुत दगा किया है | उसने मेरी पीठ में छुरी भोंक दी है | मेरी जर्जरावस्था में अब मेरे तीन शत्रु हो गए है - होनहार , जरा और मृत्यु | पर मैं मांचे (खाट) की मौत कैसे मरुँ ? क्या चाचकदेव की संतान ने परिवार नियोजन करा लिया है ? क्या अब दिल्ली और मुल्तान में कोई बादशाह नहीं रहा ? क्या अब सामन्तो की कीमत बीस -बीस तीस-तीस हजार रूपये हो गई है ? क्या अब देवराज, चाचक देव , मूलराज या तिलोकसी कोई भी लौटकर नहीं आएगा ? कोई हर्ज नहीं , न आये ! क्या कह रहे हो - तुम मेरी सहायता करोगे ? हं हं ! तुम्हारे जीते जी मेरी कितनी बुरी हालत हो गई है ; तुम्हारे जीते जी लोग तुम्हारी धरती ले गए , इतिहास और संस्कृति ले गए और तुसे उफ़ कहते नहीं बन पड़ा |

तुम्हारे शत्रुओं ने तुम्हारी छाती पर बैठकर तुम्हारी कुल परम्परा का अपमान किया | और तो और , तुम उस शत्रु के टुकड़ों पर दम हिलाकर तलुवे चाटने लगे | काश ! मुझे फुसलाने के प्रयासों से पहले मेरी जिन्दगी की रंगीनियों को देखते ; मेरी जवानी के इठलाते हुए दिन देखते | मेरी रक्षा और इज्जत के उन हरकारों को देखते | अब तो कारवां गुजर गया , उसकी खेह भी नहीं रही , कि जिसे तुम्हे बता कर प्रमाण ही दे देता कि मैं तुम जैसा नपुंसक नहीं , उस होनहार वंश परम्परा की प्रतीक्षा कर रहा हूँ , जो होनहार के छक्के छुड़ा दे | वह देखो !


मैं उस कारवां की प्रतीक्षा कर रहा हूँ , जो दूर झुरमुट के पीछे आता हुआ दिखाई दे रहा है | झीनी झीनी खेह में , गिरती उठती परछाईयों में , कभी पहाड़ों और कभी बादलों की ओट में , कष्टों से खेलता , जंगलों की ख़ाक छानता हुआ बढ़ा आ रहा है | वर्षों से मैं उसके स्वागत के लिए कुमकुम का थाल लिए खड़ा हूँ | न जाने कब आएगा ? न उसकी गति तीव्र है ; न धीमी | न उसमे उद्वेग का उतावलापन है न निराशा और मोह के कारण विश्राम की कामना | उसी की एक मात्र आशा पर मैं होनहार से लड़ने की ठान रहा हूँ | होनहार भी खेल खेल रहा है , पर अब उसके पास रंग की आखिरी प्याली और काल की चरमराती तुलिका है |

इतिहास के एक दो आखिरी पृष्ट खाली रह गए है , जिन पर मेरी और होनहार की आखिरी मुलाकात होगी ; हम परस्पर प्यार से लड़ मरेंगे और लड़ कर प्यार करेंगे | हमारा आखिरी फैसला उसी दिन होगा - कौन अमर हो जाय और कौन सदा के लिए मर जाए ! बड़ा खार खाए बैठा हूँ | इतना लोमहर्षक संघर्ष करूँगा , पापों का इतना कंपकंपाने वाला प्रायश्चित करूँगा , अपनी अकर्मण्यता की ब्याज सहित इतनी कीमत चुकाऊंगा कि होनहार का निर्माता भी कहेगा - ' यह तुमने क्या डाला , हमें भी तो याद करते |'



Monday, March 2, 2015

3rd SIEGE OF CHITTORGARH - IMMORTAL RAJPUTS



एक तथाकथित उदारवादी मुस्लिम शासक (चित्तौडग़ढ़ का कत्लेआम)
मेवाड़ राज्य की राजधानी चित्तौडग़ढ ़ का राजप्रासाद ।
मेड़तिया राठौड़ जयमल्ल वीरमदेवोत, चूंडावत सरदार रावत साईदास, बल्लू सोलंकी, ईसरदास चहुवान, राज राणा सुलतान सहित दुर्ग के सभी प्रमुख रण बांकुरे सरदारों के तेजस्वी वेहरों पर चिन्ताभरी उत्सुकता दिखाई दे रही थी। सभी की निगाहें बादशाह अकबर के पास समझौता प्रस्ताव लेकर गए रावत साहिब खान चहुवान और डोडिया ठाकुर सांडा पर टिकी थी। अकबर के शिविर से लौटे दोनों ठाकुरों का मौन अच्छी खबरका परिचायक न होने के बावज़ूद भी वे युद्ध टलने की आशा न छोड़ पा रहे थे। वातावरण की निस्तब्धता भंग की जयमल्लने। उसने पूछा- ''क्या बात है सरदारों आपके चेहरों पर खिन्नता क्यों है? क्या बादशाह ने हमारी समझौते की पेशकश ठुकरा दी? अथवा उसमें कोई असंभव सी शर्त लगाई है?''
डोडिया ठाकुर ने मातृभूमि के लिये सरकटाने को तैयार बैठे जुझारू सरदारों की ओर देखा ''आप ठीक समझे। बादशाह चित्तौड़ विजय के साथ महाराणा उदयसिंह का समर्पण भी चाहता है। उसनेकहा है कि महाराणा के हाजिर हुए बगैर किसी भी तरह संधि संभव नहीं है। बादशाह के अमीरों और सलाहकारों ने भीउसे समझौता कर लेने की राय दी थी। लेकिन वह तो राणा के समर्पण के बगैर बात करने को भी तैयार नहीं है। शायद उन्हें कुँवर शक्तिसिंह का बिना आज्ञा शिविर से चले आना अपमान जनक लगा है। खैर बादशाह के मन में चाहे जोटीस हो। लेकिन महाराणा के समर्पण का तो प्रश्न ही नहीं उठता। वे मेवाड़ी सम्मान, आन-बान के प्रतीक हैं। हमारे रहते मेवाड़ी आन पर आंच नहीं आ सकती। हम रहें या न रहें, लेकिन महाराणा के सुरक्षित रहने पर वे कभी न कभी हमलावरों को मेवाड़ से खदेडऩे में सफल हो जाएंगे। महाराणा के समर्पण केबाद तो शेष क्या रह जाएगा?'' रावत पत्ता सारंगदेवोत ने कहा। युद्ध के प्रश्न पर सभी सरदार एकमत थे। अपनी निश्चत पराजय से भिज्ञ होने पर भी लड़े बगैर, प्राण रहते मेवाड़ी गौरव चित्तौडग़ढ ़ बादशाह को सौंप देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। प्राण रहते युद्ध करने के संकल्प के साथ सरदारों की मंत्रणा समाप्त हुई। सन् 1567 में मेवाड़ की राजधानी चित्तौडग़ढ ़ पर हुए मुगलिया हमले का वास्तविक कारण अकबर की सम्पूर्ण भारतपर प्रभुत्व पाने की लालसा थी। किन्तु प्रत्यक्ष कारण एक छोटी सी घटना थी। मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह का छोटा पुत्र शक्तिसिंह पिता से नाराज़ हो कर अकबर के पास चला गया था।31 अगस्त 1567 को मालवा पर फौजकशी के लिये आगरा से रवाना हुए अकबर का पहला पड़ाव धौलपुर के पास लगा। दरबारमें शक्तिसिंह को देख कर अकबर को दिल्लगी सूझी। उसने कहा, शक्ति सिंह हिन्दुस्ता न के बड़े-बड़े राजा हमारे दरबार में आकर हाजिर हुए। लेकिन राणा उदयसिंह अभी तक नहीं आया।इसलिये हम उस पर चढ़ाई करना चाहते हैं। इस हमले में तुम भी हमारी मदद करना। अकबर के कथन की परीक्षा किये बिना ही वह इसे सच समझ बैठा। पिता के प्रति नाराजग़ी होने पर भी उनके विरूद्ध सैनिक अभियान में भाग लेने की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। पिता को समय रहते बादशाही इरादे से अवगत कराने के लिये उसने अपने साथियों के साथ बिना अनुमति लिये बादशाही शिविर छोड़, चित्तौड़ की ओर प्रस्थान कर दिया। शक्तिसिंह की इस हरकत से बादशाह को बहुत क्रोध आया और उसने मेवाड़ पर चढ़ाई का पक्का इरादाबना कर कूच कर दिया। रणथम्भौर के जिले का शिवपुर किला बिना लड़े हाथ आ जाने को अच्छा शगुन मान कर वह कूच करता हुआ कोटा जा पहुँचा। वहाँ के किले और प्रदेश को शाह मुहम्मद कंधारी के सिपुर्द करग् उसने गागरोन को जा घेरा। अकबर ने शाह बदाग खाँ, मुराद खाँ और हाजी मोहम्मद खाँ को माँडलगढ़ विजय के लिये रवाना कर स्वयं चित्तौड़ की ओर कूच किया। उधर शक्तिसिंह ने चित्तौड़ पहुँच कर महाराणा उदयसिंह को अकबर के इरादों की सूचना दी। महाराणा ने मेड़ता के राव वीरम देव के पुत्र जयमल्ल राठौड़,रावत साईंदास चूंडावत, राजराणा सुल्तान, ईसरदास चहुवान, पत्ता चूंडावत, राव बल्लू सोलंखी और डोडीया सांडा के अतिरिक्त महाराज कुमार और प्रतापसिंह और राजकुमार शक्तिसिंह आदि के साथ युद्ध मंत्रणा के दौरान सरदारों ने कहा कि गुजराती बादशाहों के साथ हुए युद्धों के कारण राज्य की सैन्य और आर्थिक स्थिति काफी कम हो गई है, इस कमज़ोर स्थिति में बादशाह अकबर से मुकाबला करने में पराजय निश्चित है। ऐसे में यही उचित होगा कि महाराणा राजकुमारों और रनिवास सहित पहाड़ों में सुरक्षित चले जाएं और हम सभी सरदार यहाँ रह कर मुगलों सेमुकाबला करें। थोड़े से बहस, दबाव के बाद महाराणा अपनी 18 रानियों और 24 राजकुमारों के परिवार और कुछ सामंतोंके साथ अरावली की दुर्गम श्रृंखलाओं में चले गए। वहाँ से गुजरात की ओर रेवा कांठा पर गोडिल राजपूतों की राजधानी राज पीपलां पहुँच गए जहाँ राजा भैरव सिंह ने उनकी बड़ी खातिरदारी की। महाराणा वहाँ चार माह तक रहे। 23 अक्टूबर 1567 को अकबर नेचित्तौड़ से तीन कोस उत्तर में पांडोली, काबरा और नगरी गाँवों के बीचविशाल मैदान में अपना सैन्य शिविर लगाया। पैमायश वालों से किले की लम्बाई-चौड ़ाई नपवा कर, अनेक बाधाओं के बावज़ूद उसने मोर्चाबन्द ी पूरी करडाली। किले के उत्तरी लाखोटा दरवाजे पर अकबर ने स्वयं मोर्चा संभाला । यहाँ किले के अन्दर मेड़तिया राठौड़ जयमल मुकाबले के लिये तैयार खड़ा था।पूर्वी सूरजपोल दरवाजे पर उसने राजा टोडरमल, शुजात खां और कासिम खां को तैनात किया, जिनका मुकाबला चूंडावतोंके मुख्य सरदार रावत सांईदास से था। दक्षिण दिशा में चित्तौड़ी बुर्ज के सामने मोर्चे का इन्तजाम आसिफ खां औरवज़ीर खां को सौंपा गया, जहाँ किले केअन्दर बल्लू सोलंखी आदि की चौकी थी।

इसी प्रकार किले के अंदर पश्चिम में राम पोल, जोड़ला पोल, गणेश पोल, हनुमानपोल और भैरव पोल पर तैनात डोडिया ठाकुर सांडा, चहुवान ईसर दास, रावत साहिब खान और राजराणा सुल्तान आदि सेमुकाबला करने के लिये अकबर ने अपनी सेना के अनेक बहादुर सेनानायकों को नियुक्त किया था। दुर्ग में युद्धरत राजपूतों को बाहरी सैनिक सहायता समाप्त करने के लिये अकबर ने आसिफ खाँ को रामपुरा की ओर रवाना किया। रामपुरा के अच्छे योद्धा तो चित्तौड़दुर्ग में आ गए, जबकि राव दुर्गभाण महाराणा के साथ चला गया था। रामपुरा की रक्षा के लिये छोड़े गए मुठ्ठी भर राजपूत अपने प्राण देकर भी निश्चित पराजय को रोकने में सफल नहीं हो सके। रामपुरा विजय के के बाद थोड़ी सी सेना छोडक़र आसिफ खाँ चित्तौड़ लौट आया। इसी प्रकार उदयपुर और कुंभलगढ़ पहाड़ों की और भेजा गया हुसैन कुली खाँ भी इस क्षेत्र में लूटपाट करता हुआ चित्तौड़ आ गया। दुर्गम पर्वत श्रृंखलाओं , सघन वनों और सुदृढ़ प्राचीरों से घिरे दस वर्ग मील क्षेत्रफल वाले विशाल चित्तौडग़ढ ़ पर आक्रमण यद्यपि आसान न था लेकिन अकबर की एक लाख सेना दुर्ग की घेराबंदी करने में सक्षम थी। बाहर केसभी रास्ते बन्द हो जाने से राजपूत जैसे चूहेदानी में फँस कर रह गए थे। लेकिन एक लाख शाही सेना के मुकाबले में खड़े आठ हजार राजपूतों के हौसलोंमें कोई कमी नहीं थी। संख्या के अनुपात का विषम अन्तर साधनों के मामले में तो तुलना करने जैसा ही नहीं था। अकबर की तोपों बंदूकों के मुकाबले में उनके पास तीर और पत्थर फेंकने वाली गोफनें ही थीं। तलवार, भाले, ढाल, कटार आदि परम्परागत अस्त्रतो आमने-सामने के युद्ध में ही काम आ सकते थे। फिर भी साधनविहीन जुझारू राजपूतों के जवाबी हमलों से शाही सेना को हर बार भारी नुकसान उठाना पड़ता था। किले से होने वाली बक्सरिया मुसलमानों के एक हजार बन्दूकचियो ं की अचूक निशानेबाजी शाही सेना के नुकसान को और बढ़ा कर राजपूतों की हौसला अफजाई करती। किले की उँचाई और विशालता के कारण शाही तोपखाना भी बेअसर सिद्ध हो रहा था।
दो माह गुजऱ जाने पर भी शाही सेना के भारी जानमाल के नुकसान के कारण चित्तौड़ विजय असंभव प्रतीत होने लगीथी। किन्तु युवा अकबर का मनोबल काफी ऊँचा था। उसने बारूदी सुरंगों के द्वारा किले की दीवारें तोडऩे का निर्णय लिया। किले से आने वाले तीरों,पत्थरों और गोलियों की बौछारों के बीच दक्षिण में चित्तौड़ी की बुर्ज के नीचे सुरंगे खोदने का काम आरंभ हुआ। शाही सेना किले से होने वाले हमले का जवाब देती थी, जबकि गोलियों और तीरों की बौछारों के नीचे मजदूर सुरंगें खोदते थे। एक के मर जाने पर दूसरा स्थान लेता था। मजदूरी भी स्वर्ण मुद्राओं में दी जा रही थी। अन्ततः सुरंगें तैयार हुईं। एक में 120 मन और दूसरी में 80 मन बारूद भरा गया. बारूद विस्फोट से दीवार उड़ते ही शाही सेना को जबरदस्त हमले का आदेश था। 17 दिसम्बर 1567 को एक सुरंग में किये विस्फोट से किले का बुर्ज, उस पर तैनात 90 सैनिकों के साथ उड़ गया। उसके पत्थर कई मील दूर जा गिरे। विस्फोट की आवाज पाँच कोस तक सुनी गई थी। बुर्ज उड़ते ही शाही सेना ने हमला कर दिया। किन्तु उनके किले की दीवार के पास पहुँचते ही दूसरी सुरंग में विस्फोट हो गयाग् किले की प्राचीर को जो क्षति पहुँची सो पहुँची लेकिन आक्रमण के लिये आगे बढ़ी शाही सेना के सैंकड़ों सैनिक इसविस्फोट की भेंट चढ़ गए। इनमें बरार के सैयद अहमद का पुत्र जमालुद्दीन , मीर खाँ का बेटा मीरक बहादुर, मुहम्मदसालिह हयात, सुलतान शाह अली एशक आगा, याजदां कुली, मिर्जा बिल्लोच, जान बेग, यार बेग सहित अकबर के बीस महत्वपूर्ण सरदार मारे गए थे। उनके अंग कई मील दूर जा गिरे। विस्फोट में मारे गए सैनिकों की संख्या अकबर नामामें दो सौ बताई गई है और तबकात अकबरी में पाँच सौ बताई है। इस भारी नुकसान से शाही सेना के हौसले पस्त हो गए और वह दुबारा हमला करने का साहस नहीं कर सकी। दूसरी ओर राजपूतों ने रातों रातमरम्मत करके किले को पुनः अजेय बना दिया। इस जबरदस्त दुर्घटना के बावजूदअकबर का मनोबल नहीं टूटा। किले के अन्दर तक तोपों की मार करने के लिये पहाड़ी जैसे किसी ऊंचे स्थान की आवश्यकता थी। किले के आसपास कोई उपयुक्त स्थान न देख उसने कृत्रिम पहाड़ी बनाने का निर्णय लिया। किले के पश्चिमी ओर मजदूरों से मिट्टी डलवाने का काम शुरू हुआ। तीरों और गोलियों की बौछारें मिट्टी डालने वालों को भी मिट्टी में मिला रही थी। प्राणों का डर होने से मजदूर न मिलने पर अकबर ने मिट्टी की टोकरी की मजदूरी एक रूपया कर दी और बाद में तो उसने एक सोने की मोहर प्रति टोकरी भी दी। लालच में आकर सैंकड़ों मजदूर मारे गए। लेकिन अंत में पहाड़ी बन कर तैयार हो गई। मोहरों में मजदूरी दियेजाने के कारण इसका नाम मोहरमगरी पड़ा। इस पहाड़ी पर तोपें चढ़ाने का सिलसिला आरम्भ हुआ। एक तोप के लुढक़ जाने से बीस सैनिक मारे गए। अन्ततः पहाड़ी पर तोपें चढ़ा कर किले में गोले बरसाए गए। शाही सेना के कुशल गोलन्दाज़ो ं ने अचूक निशाने लगा कर किले की दीवार को कई स्थानों से तोड़ दिया। इन टूटे स्थानों से हल्ला मचाती प्रवेश करने बढ़ती शाही सेना को राजपूत तीरों गोलियों के अतिरिक्तगरम तेल और जलते हुए रूई और कपड़ों केगोले फेंक कर रोक रहे थे।


घमासान युद्ध आरंभ हो चुका था। दो रात और एक दिन तो युद्ध के कारण दोनोंपक्षों के सैनिक खाना-सोना तक भूल गए थे। किले के नागरिकों से राजपूतों कोभरपूर सहायता मिल रही थी। वे अपने घरों से ज्वलनशील सामग्री ला लाकर मोर्चों पर पहुँचा रहे थे। शस्त्रों का अनवरत निर्माण कर रहे थे। प्राचीरों पर पत्थरों का ढेर लगा था, यदा कदा स्वयं भी शाही सेना पर पथराव के द्वारा प्रत्यक्ष युद्ध में भाग ले रहे ।

। राजपूताने के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब युद्ध विधा से अपरिचत नागरिकों, स्त्रियों और बालकों तक ने मातृभूमि की रक्षा के लिये युद्ध में भाग लिया था। चारों ओर रण मद छाया था। अपनी कमज़ोर स्थिति के बावज़ूद उनका उत्साह भंग नहीं हो रहा था। नागरिकों का मनोबल देख सैनिकों व सरदारों का हौसला भी दुगुना हुआ जाता था। यह देख रनिवासोंकी राजपूतानिय ाँ भी घूँघट उलट युद्ध में आ कूदीं। उनका मनोबल देख कर किसी भी सरदार कोउन्हें रोकने का साहस नहीं हुआ। जयमल्ल द्वारा उन्हें महलों में रह कर ही युद्ध का परिणाम देखने की बात सुनते ही पत्ता चूंडावतकी माँ सज्जन बाई सोनगरी बिफर उठी। सिंहनी की गर्जना के साथ उन्होंने पूछाग् क्या यह हमारी मातृभूमि नहीं है? क्या इसकी रक्षा की जिम्मेदारी हमारी नहीं है? क्या इससे पूर्व इसी किले में जवाहर बाईके नेतृत्व में राजपूत स्त्रियों ने युद्ध नहीं लडा.? यदि यह सच है तो हमें युद्ध में भाग लेने से कैसे रोका जा सकता है? इसके बाद किसीने उन्हें रोकने का साहस नहीं किया। युद्ध में अकबर चकिया नामक हाथी पर सवार हो कर न केवलसभी मोर्चों को सँभालता था, अपितु सैनिकों के साथ खड़ा हो बंदूकें भी चलाने लगता था। लाखोटा दरवाजे के पासमोर्चे के निरीक्षण के समय किले से आई गोली उसके कान के पास से निकल गई। अकबर ने फुर्ती से दीवार की आड़ ले अपनी जान बचाई। फिर उसने बन्दूक लेकरतरकश की तरफ गोली चलाईग, जिससे किले के बन्दूकचियो ं का सरदार इस्माईल खाँमारा गया. कालपी से लाए एक हजार बक्सरिया मुसलमानों की सेना इस्माईल खाँ के नेतृत्व में राजपूतों की ओर से लड़ रही थी। इस सेना के कुशल बन्दूकचियो ं ने शाही सेना के सैंकड़ों सैनिकों को मारा था। घमासानयुद्ध के दौरान अकबर को एक तीरकश से हजारमेखी सिलह पहने एक सरदार दिखाई दिया। उसे महत्वपूर्ण सरदार जान अकबरने अपनी संग्राम नामक बंदूक से गोली चला दी। गोली जयमल्ल के घुटने में लगी। पैर टूट जाने पर उसने सभी सरदारों को एकत्र कर मंत्रणा की। किले की दीवारें कई जगह से टूट-फूट जाने के अतिरिक्त भारी संख्या में सैनिक मारे जा चुके थे। उधर कड़ी घेराबंदी के कारण किले में खाद्य सामग्री का भी अभाव हो चला था। ऐसे में रनिवासों में शेष रही राजपूत स्त्रियों, कन्याओं और बालकों को जौहर की प्रचण्ड ज्वालाओं में भस्म करने के बाद, शेष राजपूतों को केसरियाबाना धारण कर शत्रुओं पर टूट पडऩे का अंतिम निर्णय ले लिया गया। 25 फरवरी 1568 को अर्धरात्रि में हज़ारों राजपूत वीरांगनाओं ने भीमलत कुण्ड में स्नान कर सौभाग्य चिन्ह धारण किये। हर हर महा देव के अनवरत जयघोषों और ढोल-नगाड़ो ं की ध्वनियों के बीच समिधेश्वर महादेव के दर्शन करवे जौहर स्थल पर एकत्रित हो गईं। इनका नेतृत्व जयमल्ल राठौड़ और पत्ताचूण्डावत की पत्नियाँ कर रही थीं। समिधेश्वर महादेव और भीमलत के बीच विशाल मैदान में लकडिय़ों का विशाल ढेर एकत्रित था। ब्रह्म मुहूर्त में वेद मंत्र ध्वनियों के साथ अग्नि प्रज्वलित की गई । केसरिया वस्त्र पहने राजपूत रक्तिम नेत्रों से अपनी पत्नियों, बालक पुत्रों तथा पुत्रियों को अन्तिम विदा दे रहे थे।विकराल अग्नि शिखाएं आकाश स्पर्श की स्पर्धा में लपलपाने लगीं। मातृभूमि को अन्तिम प्रणाम कर पत्ता की बड़ी रानी जीवाबाई सोलंकी ने पति की ओर देखा, आँखों से ही पति को अन्तिम प्रणाम कर, हर हर महादेव के गगनभेदी जयघोषों के बीच वह अग्निकुण्ड में कूद गई। इसके साथ ही पत्ता की अन्य रानियाँ मदालसा बाई कछवाही, भगवती बाई चहुवान, पद्मावती झाली,रतन बाई राठौड, बालेसा बाई चहुवान, आसाबाई बागड़ेची अपने दो पुत्रों तथा पाँच पुत्रियों के साथ लपलपाती ज्वाला मेंसमा गई। कुछ वर्ष पूर्व गुजरात के बादशाह बहादुर शाह के चित्तौड़ आक्रमण में अपने पति को न्यौछावर करने वाली पत्ता की माँ सज्जन बाई सोनगरी ने पुत्र को केसरिया तिलक लगाकर जौहर किया। विजयी मुगलों सेअपना सतीत्व और बच्चों को मुसलमान बनाने से बचाने के लिये हज़ारों राजपूत वीरांगनाओं ने पत्ता, साहिब खान, ईसरदास की हवेलियों के पास धधक रही चिताओं में अग्निस्नान कर दूसरे लोक में प्रस्थान किया। अंधकार में धधकतीज्वालाएं मीलों दूर तक दिखाई दे रहीथी। आशंकित अकबर को आम्बेर के राजा भगवान दास ने बताया कि अपने स्त्री-बच् चों को अग्नि की भेंट कर महाकाल बने राजपूतों का अन्तिम ओर प्रचण्ड आक्रमण होने वाला है। केसरिया बाना धारण करने के बाद राजपूत स्वयं महाकाल बन जाता है। सुनकर अकबर ने समय नष्ट नहीं किया और फौरन सेना की व्यूह रचना सुदृढ़ कर,राजपूती आक्रमण की प्रतीक्षा करनेलगा।
भोर की प्रथम किरण के साथ किले के द्वार खुल गए। हर हर महादेव के जयघोषों के साथ रण बांकुरे राजपूत मुगल सेना पर टूट पड़े। अकबर की गोली से घुटना टूट जाने के कारण जयमल्ल को घोड़े पर बैठने में असमर्थ देख उसके भाई कल्ला राठौड़ ने अपने कन्धें पर बिठा लिया। दोनों भाई तलवार चलाते हुए शाही सेना में घुस गए। महाकाल बने दोनों भाई दो घड़ी घण्टे तक युद्ध करने के बाद हनुमान पोल और भैरव पोल के बीच मारे गए। 



उधर डोडिया  ठाकुर सांडा भी गम्भीरी नदी के पश्चिम में  बहादुरी के साथ घमासान युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। राजपूतों के प्रचण्ड आक्रमण का सामनाकरने के लिये अकबर ने पचास प्रशिक्षित हाथियों की सूंडों में दुधारे खांडे पकड़ा कर आगे बढ़ाया। इनके पीछे तीन सौ हाथियों की एक और रक्षा पंक्ति सूंडों में दुधारे खांडे पकड़ आगे बढ़ी। इनमें मधुकर, जांगिया, सबदलिया, कदीरा आदि कई विख्यात और कई युद्धों में आजमाये गजराज भी शामिल थे। अकबर स्वयं मधुकरपर सवार होकर युद्ध संचालन कर रहा था। इनके मुकाबले राजपूत सरदार घोड़ों पर शेष सब पैदल थे। लेकिन शौर्य साधनों का मोहताज नहीं होता।

एक राजपूत ने उछल कर वार किया तो अजमतखां के हाथी की सूंड कट कर दूर जा गिरी। घबराया हाथी अपनी ही सेना को कुचलता हुआ भागा। भागते हाथी से गिर कर अजमत खां ने भी दम तोड़ दिया। इसी प्रकार सबदलिया हाथी ने भी सूंड कट जाने पर अपनी ही सेना के पचासों सैनिकों को कुचल डाला। राजपूतों के कड़े प्रतिरोध के बाद भी शाही सेना हाथियों और बंदूकों के बल पर धीरे-धीरे किले में प्रवेश करती जा रही थी। यह देख राजपूतों की ओर से लड़रहे बक्सरिया मुसलमानों की बन्दूक सेना ने भाग निकलने में ही कुशल समझी। वे अपनी स्त्रियों और बच्चों को कैदियों की तरह घेर कर शाही सेना के बीच से निकले। उन्हें अपना सैनिक समझ शाही सेना ने रोक-टोक नहीं की। सूरजपोल पर रावत साईं दास बहादुरी केसाथ लड़ते हुए मारा गया। उसकी मदद को पहुँचे राजराणा जैता सज्जावत और राजराणा सुल्तान आसावत भी वहीं काम आगए। समिधेश्वर महादेव मन्दिर के पास और रामपोल पर पत्ता चूंडावत के नेतृत्व में युद्ध हो रहा था। रणबांकुरा पत्ता चपलता के पूर्वक घोड़ा दौड़ाता हुआ हाथियों की सूंडे काट रहा था। रक्त के धारे बहाते ये शुण्ड विहीन गजराज अपनी ही सेना को कुचलते हुए भाग रहे थे। एक गजराज की सूंड में पकड़े खांडे से घोड़े का पैर कट जाने पर पत्ता जमीन पर कूद पड़ा और पैदल ही मारकाट करता हुआ गम्भीर रूप से घायल हो गया। महावत उसे महत्वपूर्ण सरदार समझ जिन्दा गिरफ्तार करने के लिये हाथी की सूंड में लपेट अकबर की ओर चला। पत्ता की वीरता से प्रभावित बादशाह द्वारा प्राण बचाने के प्रयास करने से पूर्वही उसने दम तोड़ दिया। किले के चप्पे-चप्प े पर हुए घमासान युद्ध मेंरणबांकुरे राजपूत तिल-तिल कट मरे। एकओर जौहर की चिताएं अब भी धधक रही थीं, दूसरी ओर रामपोल से समिधेश्वर तक की जमीन लाशों से ढँक गई थी। किले पर शाही झंडा फहराने के बाद अकबर के चेहरे पर विजय का उल्लास अभी ठीक से फैल भी न सका था कि एक अप्रत्याशि त दृश्य ने स्तंभित कर दिया, वह समझ नहीं पा रहा था कि यह दृश्य वास्तव में हकीकत है या फिर कोई सपना देख रहाहै। ऐसा दृश्य किसी युद्ध में देखना तो दूर सुना तक न था। युद्ध में आम नागरिक सेना की सहायता तो करते हैं किन्तु स्वयं मैदान में नहीं उतरते। लेकिन यहाँ तो अघट ही घट रहा था। किलेकी घेराबंदी से पूर्व आस-पास के गाँवों से किले में आ गए ग्रामीणों ने किले के निवासियों के साथ मिल कर शाही सेना पर हल्ला बोल दिया था। इनके पास न शस्त्र थे और न ही लडऩे का कौशल। जिसके हाथ जो आया उसी से सैनिकों को मारने लगा। ब्राह्मणों नेवेदपाठ छोड़ लाठियाँ उठा लीं। वैश्य-वणिक ों ने तौलने के बांटों से ही कइयों के सर फोड़ डाले। भील, लोहार,धोबी, रंगरेज, जुलाहे, मोची, राज मिस्त्री कोई भी तो पीछे न रहा। लाठी,डंडा, गोफन, पत्थर आदि ही उनके अस्त्र थे। यह विश्व का अनूठा युद्ध था। जहाँ प्रशिक्षित अस्त्र-शस् त्र से सज्जित सेना से शस्त्रविही न देहाती भिड़ रहे थे। 



मुश्किल से हासिल विजय में खलल पड़ता देख तैमूर के वंशज अकबर की आँखों में खून उतर आया। मातृभूमि के प्रति प्रेम से उत्पन्न इस छोटे से प्रतिरोध को बिना खून-खराबे के शान्त करना आसान था किन्तु अकबर ने नृशंस निर्णय लिया। शाही सेना पर हमले के अपराध में उसने कत्ल-ए-आम का आदेश दे दिया। विजय के नशे में चूर मुगल निहत्थे नागरिकों पर टूट पड़े। चारों ओर कोहराम मच गया। खूंखार सैनिकों के सामने जो पड़ा, नृशंसता पूर्वक कत्ल कर दिया गया। स्त्रियों और बच्चों तक को नहींबख्शा गया। चित्तौड़ की आवासीय गलियाँ लाशों से भर गईं। मध्यान्ह सेतीसरे प्रहर तक चला कत्ल-ए-आम अन्तिम व्यक्ति को भी तलवार की भेंट चढाने के बाद ही बन्द हुआ। विश्व के इस सबसेबड़े हत्याकाण्ड में चालीस हज़ार से अधिक नागरिक स्त्री, पुरूष, बालक मारेगए किन्तु इस युद्ध में मारे गए राजपूतों और जौहर की स्त्रियों को भीशामिल करने पर यह संख्या सत्तर हज़ारसे अधिक हो जाती है। जबकि 12 मार्च1739 को नादिरशाह द्वारा दिल्ली में किये कत्ल-ए-आम् में लगभग तीस हज़ार लोग दरिन्दगी की भेंट चढ़ेथे। यह महान कहे जाने वाले अकबर की नृसंसता का घृणित प्रदर्शन ही था कि अपनी सफलता का आकलन करने के लिये उसने मारे गए लोंगों के यज्ञोपवीतो ं को तुलवाया, उनका वजन 7411निकला। उनदिनों मेवाड़ी मन चार सेर का होता था। इससे है हत्या की भयावहता का अनुमान हो जाता है। कार्थाज़ वालों ने भी केना के युद्ध में मारे गए रोमनों की अगूठियाँ तुलवा कर अपनी सफलता का परिणाम आंका था। चित्तौड़ दुर्ग के निवासियों ने ही नहीं वहाँ के भवनों, मन्दिरों, महलों ने भी अकबरी प्रकोप झेला था। अनेकों भवनों, मन्दिरों, महलों को नष्ट कर ख्वाजा अब्दुल मजीद आसिफ खाँ को किले का शासन सौंप कर अकबर आगरा लौटा था। जयमल और पत्ता की वीरता से प्रभावित होकर उसने आगरा के किले में इनकी पत्थर की मूर्तियाँ लगवा कर इनके शौर्य का सम्मान अवश्य किया था।



तथाकथित अकबर महान की असलियत क्या है ??
अकबर के बारे में इसके पहले वाले लेख में काफी बाते बता चूका हु जोयह सिद्ध करती है अकबर एक चरित्रहीन शासक था न की महान शासक आज हम उसके जीवन की और भी बातो खुलासा करेंगे ऐसे अकबर के जीवन के कुछ दृश्य आपके सामने रखते हैं. हम देंगे प्रमाण अबुल फज़ल (अकबर का खास दरबारी) की आइन एअकबरी और अकबरनामा से. और साथ ही अकबर के जीवन पर सबसे ज्यादा प्रामाणिक इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ की अंग्रेजी की किताब “अकबर- द ग्रेट मुग़ल” से. हम दोनों किताबों के प्रमाणों को हिंदी में देंगे ताकि सबको पढ़ने में आसानी रहे.
क्या नेक दिल था अकबर??



१.अकबरनामा के अनुसार जब बंगाल का दाउद खान हारा, तो कटे सिरों के आठ मीनार बनाए गए थे. यह फिर सेएक नया कीर्तिमान था. जब दाउद खानने मरते समय पानी माँगा तो उसे जूतों में पानी पीने को दिया गया.
२.चित्तौड़ पर कब्ज़ा करने के बाद अकबर महान ने तीस हजार नागरिकों का क़त्ल करवाया.
क्या न्यायकारी था अकबर??
३. हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की नीति यही थी कि राजपूत ही राजपूतों के विरोध में लड़ें. बादायुनी ने अकबर के सेनापति से बीच युद्ध में पूछा कि प्रताप के राजपूतों को हमारी तरफ से लड़ रहे राजपूतों से कैसे अलग पहचानेंगे? तब उसने कहा कि इसकी जरूरत नहीं है क्योंकि किसी भी हालत में मरेंगे तो राजपूत ही और फायदा इस्लाम का होगा.
४. अगस्त १६०० में अकबर की सेना ने असीरगढ़ का किला घेर लिया पर मामला बराबरी का था. न तो वह किला टोड पाया और न ही किले की सेना अकबर को हरा सकी. विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि अकबर ने एक अद्भुत तरीका सोचा. उसने किले के राजा मीरां बहादुर को आमंत्रित किया और अपने सिर की कसम खाई कि उसे सुरक्षित वापस जाने देगा. तब मीरां शान्ति के नाम पर बाहर आया और अकबर के सामने सम्मान दिखाने के लिए तीन बार झुका. पर अचानक उसे जमीन पर धक्का दिया गया ताकि वह पूरा सजदा कर सके क्योंकि अकबर महान को यही पसंद था.
उसको अब पकड़ लिया गया और आज्ञा दीगयी कि अपने सेनापति को कहकर आत्मसमर्पण करवा दे. सेनापति ने मानने से मना कर दिया और अपने लड़के को अकबर के पास यह पूछने भेजा कि उसने अपनी प्रतिज्ञा क्यों तोड़ी? अकबर ने बच्चे से पूछा कि क्या तेरा पिता आत्मसमर्पण के लिए तैयार है? तब बालक ने कहा कि उसका पिता समर्पण नहीं करेगा चाहे राजा को मार ही क्यों न डाला जाए. यह सुनकर अकबर महान ने उस बालक को मार डालने का आदेश दिया. इस तरह झूठ के बल पर अकबर महान ने यह किला जीता.
यहाँ ध्यान देना चाहिए कि यह घटना अकबर की मृत्यु से पांच साल पहले की ही है. अतः कई लोगों का यहकहना कि अकबर बाद में बदल गया था, एक झूठ बात है.
अकबर और महाराणा प्रताप
5 ऐसे इतिहासकार जिनका अकबर दुलारा और चहेता है, एक बात नहीं बताते कि कैसे एक ही समय पर राणा प्रताप और अकबर महान हो सकते थे जबकि दोनों एक दूसरे के घोर विरोधी थे?
६. यहाँ तक कि विन्सेंट स्मिथ जैसे अकबर प्रेमी को भी यह बात माननी पड़ी कि चित्तौड़ पर हमले के पीछे केवल उसकी सब कुछ जीतने की हवस ही काम कर रही थी. वहीँ दूसरी तरफ महाराणा प्रताप अपने देश के लिए लड़ रहे थे और कोशिश की कि राजपूतों की इज्जत उनकी स्त्रियां मुगलों के हरम में न जा सकें. शायद इसी लिए अकबर प्रेमी इतिहासकारो ं ने राणा को लड़ाकू और अकबर को देश निर्माता के खिताब से नवाजा है!
अकबर और इस्लाम
7.हिन्दुस् तानी मुसलमानों को यह कह कर बेवकूफ बनाया जाता है कि अकबर ने इस्लाम की अच्छाइयों को पेश किया. असलियत यह है कि कुरआन के खिलाफ जाकर ३६ शादियाँ करना, शराब पीना, नशा करना, दूसरों से अपने आगे सजदा करवाना आदि करके भी इस्लाम को अपने दामन से बाँधे रखा ताकि राजनैतिक फायदा मिल सके.
८. अकबर ने अपना नया पंथ दीन ए इलाही चलाया जिसका केवल एक मकसद खुद की बडाई करवाना था. उसके चाटुकारों ने इस धूर्तता को भी उसकी उदारता की तरह पेश किया!
१०. अकबर ने अपने को रूहानी ताकतों से भरपूर साबित करने के लिए कितने ही झूठ बोले. जैसे कि उसके पैरों की धुलाई करने से निकले गंदे पानी में अद्भुत ताकतहै जो रोगों का इलाज कर सकता है. ये वैसे ही दावे हैं जैसे मुहम्मद साहब के बारे में हदीसोंमें किये गए हैं. अकबर के पैरों का पानी लेने के लिए लोगों की भीड़लगवाई जाती थी. उसके दरबारियों को तो यह अकबर के नापाक पैर का चरणामृत पीना पड़ता था ताकि वह नाराज न हो जाए. अभी बहुत कुछ बाकि है दोस्तों इस विदेशी लुटेरे की सच्चाई बताई जाएगी..... .......... जय प्रताप ...जय दुर्गादास .......... ...जय पृथ्वीराज......