Saturday, March 26, 2022

1971 INDO PAK WAR HERO ROBINHOOD OF THAR - IMMORTAL RAJPUTS

इस ऐतिहासिक घटना के महानायक जिनका इतिहास की किताबों में मिल पाए, ये लगभग नामुमकिन है। भारत-पाकिस्तान का युद्ध जो १९७१ में बांग्लादेश को लेकर लड़ा गया था।


उसी युद्ध के दो महानायकों में से एक, जो पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात और पाकिस्तान के सिंह प्रान्त के बाहुबली और डकैत कहे जाने वाले और गरीबों व मज़लूमो के ‘रॉबिन हुड’ बलवंत सिंह बाखासर जी। राजस्थान के बाड़मेर जिले के बाखासर में चौहानों की नाडोला उप शाखा में हुआ| उनका नाम बलवंत सिंह चौहान था लेकिन राजपूतों में अपने गाँव का नाम भी अपने गौत्र के स्थान पर प्रयोग करने का चलन है इसी कारण वे बलवंत सिंह बाखासर के नाम से जाने जाते थे। ठाकुर बाखासर का प्रारंभिक जीवन बाड़मेर, कच्छ (गुजरात) और पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में गुजरा| इसलिए आप इन क्षेत्रों के चप्पे चप्पे से भली-भांति परिचित थे| ठाकुर बलवंत सिंह का विवाह कच्छ (गुजरात)  के विजेपासर गाँव में जाडेजा राजपूतों के ठिकाने में हुआ|


भारत की आज़ादी के उपरान्त बाड़मेर सीमा पर दोनों देशों की सीमा खुली हुई होने के कारण सिंध प्रान्त के मुसलमान भारत के बाड़मेर व अन्य सीमान्त इलाकों में आकर लूट-मार किया करते थे इसी के कारण बलवंत सिंह से यौवन की दहलीज़ पर कदम रखने के साथ ही हाथ में बन्दूक थाम ली थी |

बाखासर बलवंत सिंह सांचोर मेले को भय से मुक्त रखने के लिए अपने ऊंट पर बैठ कर पहरा दिया करते थे, बाड़मेर सांचोर और उत्तरी गुजरात, कच्छ और रण क्षेत्र में आज भी लोग बलवंत सिंह बाखासर की वीरता और अन्य गुणों का बखान करते हुए अनेक गीत और भजन गाते हैं। ६० से ७० तक के दशक में पश्चिमी राजस्थान में बलवंत सिंह बाखासर एक कुख्यात डकैत के रूप में चर्चित थे। उन पर लूट और हत्या सहित अनेक केस दर्ज थे।

उस दौर में सिंध के मुस्लिम लुटेरों का आतंक व्याप्त था वहीँ दूसरी ओर बलवंत सिंह बाखासर इन लुटेरों और सरकारी खजानों से माल लूट कर सारा धन बाड़मेर, गुजरात और सिंध प्रान्त के गरीब और बेसहारा लोगों में बाँट दिया करते थे और ग्रामीणों की हर संभव मदद को सदा तैयार रहते थे। जिसके चलते सांचोर (बाड़मेर), उत्तरी गुजरात के वाव थराद एवं बॉर्डर पर बसे गाँव वालों की नज़रों में वे रॉबिन हुड या किसी मसीहा से कम नहीं थे| बलवंत सिंह जब भी किसी गाँव में रुकते तो गाँव के निवासी ही उनके लिए सभी प्रबंध करते थे और वक़्त के साथ बलवंत का नाम मशहूर होता गया। सिंध के लुटेरे बलवंत सिंह बाखासर के नाम से ही कांपने लगे थे| तत्कालीन प्रशासन भी उनसे हमेशा खौफ़ खाने लगा था।


गौ वंश की रक्षा कर हुए चर्चित बलवंत सिंह बाखासर-


एक बार बलवंत सिंह को यह ख़बर मिली कि मीठी पाकिस्तान के सिन्धी मुस्लिम लुटेरे १०० से अधिक गायों को यहाँ से सिंध ले जा रहे हैं | सूचना मिलने के साथ ही बलवंत सिंह बाखासर अपने घोड़े पर सवार होकर बिजली की गति से लुटेरों के पास जा पहुंचे और अकेले ही ८ लुटेरों को मौत की नींद सुला दिया।

उनके रौद्र रूप को देख कर बाकी बचे लुटेरे गायों को छोड़कर भाग खड़े हुए और बलवंत सिंह अकेले ही सभी गायों को मुक्त कराकर वापस ले आये।


कुख्यात लुटेरों का काल बने बलवंत बाखासर-


चौहटन (बाड़मेर) का मो. हुसैन एक लुटेरा था जिस पर स्मगलिंग के भी संगीन इलज़ाम थे, इसे ठाकुर बलवंत सिंह बाखासर ने मार गिराया और ऐसे ही मो. हयात खान नाम के लुटेरे को भी बाखासर जी ने काल के गाल में पहुंचा दिया था।


३ दिसम्बर, १९७१ को पाकिस्तान के हमले के साथ हुई युद्ध की शुरुआत-

भारत के साथ पाकिस्तान के सम्बन्ध आरम्भ से ही तनावपूर्ण रहे है पाक १९६५ की हार से तिलमिलाया बैठा था और उसने ३ दिसम्बर को एक बार फिर भारत पर हमला कर दिया। जवाबी कार्रवाई करने के लिए १० पैरा बटालियन को आवश्यकता थी एक ऐसे आदमी की जो बाड़मेर के रेगिस्तान और पाकिस्तान के सिंध प्रान्त के छाछरो तक के चप्पे चप्पे से परिचित हो और बटालियन के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेट कर्नल महाराज भवानी सिंह की तलाश आकर पूरी हुई ठाकुर बलवंत सिंह बाखासर जी पर|


जयपुर महाराजा भवानी सिंह ने देश हित के लिए बाखासर से मांगी मदद-


लेफ्टिनेट कर्नल भवानी सिंह को ज्ञात हुआ कि बलवंत सिंह बाखासर अकेला ऐसा शख्स है जो सेना के लिए सहायक हो सकता है।

भवानी सिंह ने बाखासर से देश रक्षा के लिए मदद मांगी और कहा कि आप की सहायता भारत के सेना रेगिस्तानी भूल भुलैया में ही फंस कर रह जायेगी केवल तुम ही एक ऐसे व्यक्ति हो जो इस समय मेरी मदद करके भारत की जीत सुनिश्चित कर सकते हो और बलवंत सिंह ने हामी भर दी। बाखासर ने भारत की सेना को गुप्त रास्तों से बड़ी ही ख़ामोशी के साथ ७ दिसम्बर को पाकिस्तान के सिंध प्रांत के तहसील मुख्यालय छाछरो पहुँचाया दिया जहाँ पर पाक रेंजर्स का मुख्यालय था।

बलवंत सिंह बाखासर बड़ी चतुराई से भारत की सेना को रण क्षेत्र के रास्ते वहाँ लाये जिससे पाक रेंजर्स धोखा खा गए और ये समझ बैठे कि हमारी सेना मदद के लिए आ पहुंची है। इससे पहले कि पाक सेना के रेंजर्स ये समझ पाते कि ये पाकिस्तान की सेना है या नहीं, उससे पहले ही लेफ्टिनेट कर्नल भवानी सिंह के नेतृत्व में १० पैरा स्पेशल बटालियन ने पाक रेंजर्स को संभलने का मौका दिये बगैर अंधाधुंध धावा बोल दिया।

जिसमे अनेक पाक सैनिक मारे गए और शेष पोस्ट छोड़ कर भाग खड़े हुए और ७ दिसम्बर, १९७१ सुबह ३ बजे ही छाछरो पर भारत का कब्ज़ा हो गया।

भारत की सेना छाछरो पर कब्ज़ा करके ही नहीं रुकी, वह आगे बढ़ी मगर सामने पाकिस्तान का तोपखाना था और भारत की सेना का आगे बढ़ना संभव नहीं था।


लेफ्टिनेट कर्नल भवानी सिंह ने बाखासर पर विश्वास जताया और उन्होंने बलवंत सिंह बाखासर को सेना की एक बटालियन और ४ जोंगा जीपें भी सौंप दी।


बलवंत सिंह बाखासर यहाँ सेना की अगुवाई कर रहे थे उन्होंने और भवानी सिंह ने मिलकर एक योजना बनाई और जोंगा जीपों के साइलेंसर हटा दिए जिससे रात के अँधेरे में पाक सेना को भ्रम हुआ कि भारत की टैंक रेजिमेंट ने हमला बोल दिया है और जोंगा में लगी MMG और LMG से ही पाकिस्तान तोपखाने को तहस नहस कर दिया। भारतीय सेना ने लगभग १७ पाक सैनिकों को बंदी बना लिया था और उनसे भारी मात्र में अस्ला-बारूद अपने कब्जे में लिया।

हिन्दुस्तान की  सेना ने ७ दिसम्बर, १९७१ से १० दिसम्बर, ७१ तक ४ दिन में ही सिंध प्रान्त के छाछरो व अमरकोट सहित ३६०० वर्ग किमी।

इलाके पर अपना कब्ज़ा जमा लिया और वापस बाड़मेर लौट आई इस दौरान सिंध प्रांत में बलवंत सिंह बाखासर की लोकप्रियता देख कर भारतीय सेना दंग रह गई क्योंकि बाखासर को देखने के लिये पाक के सुदूर हिस्सों से ग्रामीण कई किमी. पैदल चल कर आये थे।


भारतीय सरकार ने बलवंत सिंह बाखासर की देशभक्ति की भावना और सेना की उनके द्वारा की गई सहायता के लिए आभार जताते हुए उनके खिलाफ चल रहे सभी केसों को खत्म कर दिया था और दो हथियारों के लिए आल इंडिया लाइसेंस भी दिया था। अभी इनके पोत्र रतन सिंह जी बाखासर अहमदाबाद में रह रहे है।

बाड़मेर का बाखासर इलाके गुजरात के कच्छ भुज से सटा हुआ है। ऐसे में बाड़मेर जैसलमेर और कच्च भुज क्षेत्र में डाकू बलवंत सिंह की बहादुरी के चर्चे आज भी होते हैं। बलवंत सिंह की छवि यहां डाकू नहीं बल्कि रॉबिन हुड की है कि आज भी राजस्थान ,गुजरात,कच्छ और रण क्षेत्र इनकी वीरता के वीर रस भजन आज तक गाए जाते है।


This modern Robinhood had played crucial role in the victory of India in the western theatre during 1971 war

Thakur Balwant Singh Nadola Chauhan was a native of Bakhasar village in Barmer district of Rajasthan. After the partition of the country, bandits from Sindh province of newly carved Pakistan often raided the border villages of our side of the landscape and carried away the livestock, aided by poorly organised guard of the border then.

Thakur Balwant Singh decided to fend the livelihood of his people by resorting to similar methods deployed by the marauders. He chased bandits right into their territories, recovering loot, killing the culprits & soothing helpless. In a couple of decades his name was synonymous to terror among banditry of the neighbouring country, compelling them to give up targeting Indian territory for their pastime.
The populace on either side, however, was greatly relieved; in return arranging facilities for his camping.

During the 1971 war when a bandit not only fought against the enemy along with the Indian Army, but also captured over 100 villages of Pakistan.


Thakur Balwant Singh Chauhan Bakhasar, a dacoit, resident of village Bakhasar in Barmer district of Rajasthan had captured over a hundred villages of Pakistan in the 1971 Indo-Pak war. During the Indo-Pak war in 1971, the Barmer region on the Rajasthan border was being commanded by Colonel Bhavani Singh, who with his troops had reached the Bakhasar area. However, due to the Thar Desert on the battlefield, it was not easy for the Indian Army to find easy routes to move forward like Pakistan.


It was at this moment when Colonel Maharaja Bhavani Singh ji remembered Balwant Singh Bakhasar, the dacoit of Bakhasar, and asked him for help. Bandit Balwant Singh was a dreaded dacoit at that time, well-known in the100-km radius on both sides of the Indo-Pak border. Well versed with the border, Balwant Singh knew all possible roads and trails made in the sea of sand as he also used to travel to Chhochro region of Pakistan. When asked for help by Colonel Bhavani Singh during the ongoing war between Indo-Pak, While demonstrating patriotism and utmost bravery, dacoit Balwant Singh took up arms to march towards Pakistan and along with the army marched towards Pakistan. 


The Indian Army handed over a battalion and 4 Jonga Jeeps to bandit Balwant Singh. This battalion did not have tanks, but in front, was a tank regiment of Pakistan. However, Balwant Singh and the battalion acted cleverly and took out the silencers of the Jonga Jeep so that the Pakistani Army would believe that the Indian Army was moving with tanks. At the same time, Balwant Singh and the Indian Army giving a major blow to Pakistan took over 100 villages in the vicinity, including Pakistan’s Chhachro checkpoint.


Displaying such indomitable courage in the 1971 war, Balwant Singh became a hero before the country. The Rajasthan government not only withdrew all the cases of murder, robbery, dacoity lodged against Balwant Singh but also licensed two weapons to him apt for the soldierly acts he performed.

Since then, the image of Balwant Singh in and around the Bakhsar area of Barmer which is adjacent to Kutch Bhuj in Gujarat is not that of a robber but “Robin Hood”.

Monday, March 7, 2022

QUITE IN TATTERS ONE HELL OF A TALE

 आप बंदूक मत लो ये हमारे लिए ही बहुत है।

परिवार छोड़ना पड़ता है, अपना ही अलग देश बनाना पड़ता है।।।


रमेश सिंह सिकरवार के दस्यु बनने की कहानी भी बिल्कुल जुल्मी है, जिसके खिलाफ उन्होंने बंदूक उठाई थी, वह जब ७वीं में पढ़ते थे. तभी उनके चाचा ने उनके पिता को घर से निकाल दिया था. तब वे अपने चाचा से बदला लेने के लिए बागी बन गए थे. हालांकि, पुजारी के जीवनदान मांगने के बाद उन्होंने चाचा को तो नहीं मारा, लेकिन ७५ से ज्यादा हत्या कर चुके हैं। उनका कहना है कि अगर प्रशासन और पुलिस ठीक तरीके से काम करे तो किसी को डकैत बनने की नौबत ही नहीं आएगी।

खुद की जमीन अपने चाचा के कब्जे से छुड़ाने के लिए उसका सीना गोलियों से छलनी कर दिया और सर पर कफन बांधकर चंबल के बीहड़ में बंदूक थामकर बागी बन गया. एक दशक तक चंबल की घाटियों में बागी बनकर समय गुजारा. फिर एक दिन पिता के कहने पर उसने सरकार के सामने पूरी गैंग के साथ आत्मसमर्पण कर दिया. सजा काटकर जेल से बाहर आए. लेकिन यहां से उन्होंने वो रास्ता अपनाया, जिसके लिए आज उनकी एक अलग पहचान बन चुकी है. जी हां ये कहानी है श्योपुर (sheopur) के रहने बाले पूर्व दस्यु रमेश सिकरवार (ramesh sikarwar) की. जो कभी बागी के तौर पर जाने जाते थे. लेकिन आज वे गांधीवादी रास्ते पर चलते हुए समाज के गरीब और कमजोर वर्ग के लोगो के की मदद कर रहे हैं।


रमेश सिकरवार इस तरह बने बागी


रमेश सिकरवार की बागी बनने की कहानी किसी फिल्मी स्टोरी से कम नहीं है. श्योपुर (sheopur) जिला तब मुरैना (morena) का हिस्सा था, ७० साल के हो चुके पूर्व दस्यु रमेश सिकरवार का परिवार कराहल तहसील के लहरोनी गांव में रहता था. दरअसल, रमेश सिकरवार की जमीन पर उनके ही सगे चाचा ने दबंगई से कब्जा कर लिया था. जिस वक्त ये सब हुआ उस वक्त रमेश ७वीं कक्षा में पढ़ते थे. पिता ने भाई से जमीन वापस लेने के लिए उसकी खूब मिन्नते की, समाज और रिश्तेदारों का सहारा भी लिया. लेकिन उनके भाई ने उन्हें जमीन का एक इंच भी देने से मना कर दिया. अपने पिता के साथ हुई इस नाइंसाफी को बचपन में देखने वाले रमेश ने जब होश संभाला तो अपनी जमीन को वापस लेने की ठानी. जिसके बाद जमीन के लिए शुरू हुई जंग को रमेश सिकरवार ने अपने चाचा को मौत के घाट उतरते हुए अंजाम तक पहुंचाया।


चाचा की हत्या के बाद नहीं लौटे घर

चाचा की हत्या के बाद रमेश वापस अपने घर नहीं लौटे बल्कि बंदूक थामकर बागी का टीका अपने माथे पर लगाकर चंबल के बीहड़ों में डकैत बन गए. धीरे-धीरे उनकी गैंग में और सदस्य जुड़ने लगे. उस वक्त उनकी गैंग में २५ सदस्य थे. अपने दस्यु जीवन में उन्होंने २५० से ज्यादा डकैती की वारदात और ७० से ज्यादा लोगों की हत्याएं की थी. करीब एक दशक से भी ज्यादा वक्त तक रमेश, चंबल में बागी बनकर बीहड़ों की खाक छानते रहे।


अर्जुन सिंह के सामने किया आत्मसमर्पण

साल १९८४ में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने बागियों के आत्मसमर्पण करने का अभियान चलाया. तब रमेश सिकरवार के पिता ने भी उन्हें आत्मसमर्पण करने की सलाह दी, पिता की बात मानते हुए रमेश सिकरवार ने २७ अक्टूबर १९८४ को १८ शर्तों के साथ अपनी पूरी गैंग के साथ मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, जहां उन्होंने मुरैना की सबलगढ़ जेल में अपनी सजा काटी।

जेल से रिहा होने के बाद गांधीवादी रास्ता अपनाया

खास बात यह है कि जेल में सजा काटते हुए रमेश सिकरवार ने अपने आगे का जीवन सच्चाई और गरीबों की मदद करते हुए बिताने का संकल्प लिया. जेल से छूटने के बाद रमेश श्योपुर में आदिवासियों के हक की लड़ाई के लिए जल-जंगल-जमीन का नारा देने वाली गांधीवादी विचारधारा के तहत बनाई एकता परिषद से जुड़ गए. जहां उन्होंने देखा कि वर्षों पहले जिस जमीन के खातिर वे बागी बने थे. चंबल में आज भी वह समस्या जस की तस बनी हुई थी।

क्षेत्र के रसूखदार और दंबग आज भी आदिवासियों की जमीनों कब्जा कर लेते थे. ऐसे में उन्होंने इन जमीनों पर से कब्जा छुड़ाने की ठानी. लेकिन इस बार रास्ता बगावत नहीं बल्कि अहिंसा का चुना. उन्होंने आदिवासियों की जमीनों को दबंगो से मुक्त कराने के लिए अभियान चलाया और गांधीवादी रास्ते पर चलते हुए कई लोगों उनकी जमीनें वापस दिलवाई।


क्षेत्र के लोग मानते हैं मसीहा


आदिवासियों की जमीन किसी खून खराबे के मुक्त कराने के चलते आज क्षेत्र के लोग उन्हें अपना मसीहा बताते हैं. स्थानीय आदिवासी लोग कहते हैं कि रसूखदार लोगों ने उनकी जमीनों पर सालों से कब्जा कर रखा था. वे अपनी ही जमीन पर बंधुआ मजदूरी करने को मजबूर थे. लेकिन उनके जीवन में उम्मीद की किरण बनकर रमेश सिकरवार पहुंचे. जिन्होंने गांधीगिरी से लड़ाई लड़ते अब तक वे 100 से ज्यादा लोगों को उनकी जमीनें वापस दिलवा चुके हैं।


प्रशासनिक अधिकारियों की भी करते हैं मदद

पूर्व दस्यु रमेश सिकरवार की इस मुहिम की सराहना प्रशासन भी करता है. अधिकारी कहते हैं कि जिले के कई गांवों में उन्होंने खुद देखा कि जो जमीन विवाद कोर्ट कचहरी से भी नहीं सुलझता है, उस विवाद को रमेश सिकरवार आपसी सहमति से राजीनामा करवा देते हैं. जिससे बिना विवाद के ही समस्या का हल हो जाता है. कई बार तो ऐसा होता है कि अगर कही कोई जमीनी विवाद होता तो प्रशासनिक अधिकारी भी उनकी मदद लेने पहुंचते हैं. अपनी जमीन को छुड़ाने के लिए रमेश सिकरवार ने अपनों का ही खून बहाया था. लेकिन आज रमेश सिकरवार किसी ओर को जमीन की लड़ाई की खातिर बागी नहीं बनने देते. वे कहते हैं कि जो लड़ाई अहिंसा से लड़ी जा सकती है अब उसके लिए हिंसा नहीं होनी चाहिए. इसलिए वे अपनी इस मुहिम को आगे भी जारी रखेंगे।


Dacoit Ramesh Singh Sikarwar was less famous than Malkhan or Phoolan, but his list of atrocities is too long. In less than five years, the gang ran up 91 crimes: 29 cases of murder, two of dacoity with murder, 29 kidnappings, 6 dacoities, and 25 other crimes. He came into focus in 1982; in February that year he is alleged to have killed six Harijans in a dispute over their entry into a temple in Shivpuri district. And in May, 13 cowherds met their death because Sikarwar suspected them of being police informers. The latter deed did not get much publicity because the bodies were recovered over an extended period. But when, in early 1983, his gang kidnapped 17 persons from a bus going from Sheopur in Morena district to Shivpuri (India Today March 31), there was a hue and cry in the state Assembly. Seven hostages were then released (although one was killed) in a police encounter on March 6. But for the rest, it was a long wait for freedom – at a price. For a feared gang, Sikarwar and his men were poorly equipped indeed. When they surrendered in 1984, all they had on them were three 303 rifles (one of them out of order), four 12-bore guns, and two muzzle-loaders.


A quiet affair

There was neither pomp nor show. Almost before the ceremony started in the district headquarters of Morena last month, it was over. And with it ended the criminal career of Ramesh Sikarwar, the long-haired bandit of the Chambal, who evaded the police for nearly five years.

The price he and his eight men carried was Rs 1.45 lakh, Sikarwar's share alone being Rs 50,000. In stark contrast to the well-publicised surrenders of Malkhan Singh (India Today July 15, 1982) and Phoolan Devi (India Today February 28, 1983) who laid down arms before Chief Minister Arjun Singh, Sikarwar's surrender was extremely low-key. He turned himself in to Madhya Pradesh Director-General of Police B.K. Mukherjee, and even the press was not informed.

Although Sikarwar is less infamous than Malkhan or Phoolan, his list of atrocities is just as long. In less than five years, the gang ran up 91 crimes: 29 cases of murder, two of dacoity with murder, 29 kidnappings, 6 dacoities, and 25 other crimes.

He came into focus in 1982; in February that year he is alleged to have killed six Harijans in a dispute over their entry into a temple in Shivpuri district. And in May, 13 cowherds met their death because Sikarwar suspected them of being police informers. The latter deed did not get much publicity because the bodies were recovered over an extended period.

But when, in early 1983, his gang kidnapped 17 persons from a bus going from Sheopur in Morena district to Shivpuri (India Today March 31), there was a hue and cry in the state Assembly. Seven hostages were then released (although one was killed) in a police encounter on March 6. But for the rest, it was a long wait for freedom - at a price.

The last to be released was 10-year-old Rinkoo, who was reunited with his parents after nine months. Throughout, however, the police kept up the pressure and carried out more than 300 raids. Said Inspector General (Anti-Dacoity) J.M. Qureshi: "Sikarwar may make any brave statement he chooses now. But the truth is he couldn't take the police pressure any more. He was just waiting for a chance to give up."

For a feared gang, Sikarwar and his men were poorly equipped indeed. When they surrendered, all they had on them were three 303 rifles (one of them out of order), four 12-bore guns, and two muzzle-loaders. But they made up for this by their great cunning, large chunks of luck and, most important, a terrain that evened the odds. By police estimates, their area of operation spanned a 8,000 sq km tract of heavily wooded and hilly Shivpuri and Morena districts.

The surrender was initiated by Virendra Singh Bhadoria, a bearded former subedar who lives in village Richhapura in Agra district. Bhadoria, who was first arrested for allegedly harbouring Malkhan, was later instrumental in his surrender.

On September 27, Bhadoria met Sikarwar's mother Katori Devi in the jail at Sabbalgarh, 70 km from Morena, where she had been detained under the Madhya Pradesh Dacoity and Kidnapping Affected Areas Act 1981.

He then met his father, Pritam Singh - who is in his early 80s - because he needed their help to persuade Sikarwar. But it was not until October 6, after walking about 110 km through shrub and jungle that Bhadoria was able to meet the dacoit. "It took so long because he constantly kept changing camp," says Bhadoria. The first meeting with the suspicious Sikarwar was brief.

On October 9, Bhadoria met Sikarwar again, 30 km from the first spot. This time he took the parents along. This meeting lasted four hours and this time "Sikarwar was 50 per cent convinced (about surrender)".



But he stipulated some conditions. First of all, he wanted a guarantee of safe conduct. There were other demands too - like an end to harassment of his family, release of relatives from jail, and gun licences and jobs for some relatives.

D.C. Jugran, deputy inspector general (Chambal range) recalls that when Bhadoria first got in touch with him, he was sceptical. He asked Bhadoria to go ahead but refused to let the police get involved. Bhadoria met the dacoit gang on October 11 and then, from October 13 onwards started spending the nights with them as reassurance, though he was in constant touch with jugran.

The gang stopped moving on October 22 and parked in a forest, 20 km from the nearest police station. Meanwhile, orders had gone out from Gwalior asking the police to stop the combing operations: the reason given out was that a commando group of the Special Armed Force was about to get into the act.

On October 25, a convoy of nine jeeps arrived at the hide-out and at 11.30 p.m. the convoy - code-named 4 Down Express - headed for Morena 190 km away. It got to Morena at 9.20 a.m. and in 10 minutes, the surrender was completed.

The police claim that Sikarwar gave in to pressure. Bhadoria confirms that when he met them they were in tatters and quite tired. Says Qureshi: "In order to make up for his limited strength, he tried to join up with three Rajasthan gangs: those of Makhan Baba, Nirpat Gujar and Dooji Meena but members of all these gangs were killed and that must have really scared Sikarwar." Adds Morena Superintendent of Police B.L. Handa: "Our flow of information improved and moreover, we weaned some of his harbourers to our side. He could rely on no one. He had no alternative but surrender."


A major factor in the surrender was the large-scale arrest of gang members' relatives under the anti-dacoity act. Even Sikarwar's aged parents were among about 200 relatives who were either arrested or detained illegally. Says one officer: "Strictly speaking, many of these arrests were not correct. But when you are up against an opponent like Sikarwar who doesn't play by the rules, what do you do?"

With Sikarwar's surrender, only two small listed gangs remain in the area, one a three-man force led by Ghanshyam, who gave up along with his men and the Phoolan group, but later escaped from jail. Laughed one police official in Gwalior: "At this rate, we'll soon be out of business with nothing to do." However, he added: "But you can trust this area to produce more dacoits in the coming years." Until then there will be some peace in the Chambal.

Isolated from the 55 other prisoners, Ramesh Sikarwar and his eight mates relax in the 90-bed Sabbalgarh subjail 70 km from the district headquarters of Morena in Madhya Pradesh.