Sunday, February 26, 2017

क्षत्राणी - हुंकार की कलंगी - IMMORTAL RAJPUTS

मैं वह क्षत्राणी हूँ जो,
तुम्हें तुम्हारे कर्तव्य बताने आई हूँ।
मैं मदालसा का मातृत्व लिए,
माता की माहिमा दिखलाने आई हूँ।
मैं वह क्षत्राणी हूँ जो,
तुम्हें फिर से स्वधर्म बतलाने आई हूँ।
तुम जिस पीड़ा को भूल चुके,
मैं उसे फिर उकसाने आई हूँ।
मैं वह क्षत्राणी हूँ,
जो तुम्हें फिर से क्षात्र-धर्म सिखलाने आई हूँ।

उदयपुर के महलों में राणा जी ने आपात सभा बुला रखी थी। सभा में बैठे हर सरदार के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ़ नजर आ रही थी, आँखों में गहरे भाव नजर आ रहे थे सबके हाव भाव देखकर ही लग रहा था कि किसी तगड़े दुश्मन के साथ युद्ध की रणनीति पर गंभीर विचार विमर्श हो रहा है। सभा में प्रधान की और देखते हुए राणा जी ने गंभीर होते हुए कहा-

“इन मराठों ने तो आये दिन हमला कर सिर दर्द कर रखा है।”

“सिर दर्द क्या रखा है ? अन्नदाता ! इन मराठों ने तो पूरा मेवाड़ राज्य ही तबाह कर रखा है, गांवों को लूटना और उसके बाद आग लगा देने के अलावा तो ये मराठे कुछ जानते ही नहीं !” पास ही बैठे एक सरदार ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा।

“इन मराठों जैसी दुष्टता और धृष्टता तो बादशाही हमलों के समय मुसलमान भी नहीं करते थे। पर इन मराठों का उत्पात तो मानवता की सारी हदें ही पार कर रहा है। मुसलमान ढंग से लड़ते थे तो उनसे युद्ध करने में भी मजा आता था पर ये मराठे तो लूटपाट और आगजनी कर भाग खड़े होते है।” एक और सरदार ने पहले सरदार की बात को आगे बढाया।

सभा में इसी तरह की बातें सुन राणा जी और गंभीर हो गए, उनकी गंभीरता उनके चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रही थी।

मराठों की सेना मेवाड़ पर हमला कर लूटपाट व आगजनी करते हुए आगे बढ़ रही थी मेवाड़ की जनता उनके उत्पात से बहुत आतंकित थी। उन्हीं से मुकाबला करने के लिए आज देर रात तक राणा जी मुकाबला करने के लिए रणनीति बना रहे थे और मराठों के खिलाफ युद्ध की तैयारी में जुटे थे। अपने ख़ास ख़ास सरदारों को बुलाकर उन्हें जिम्मेदारियां समझा रहे थे। तभी प्रधान जी ने पूरी परिस्थिति पर गौर करते हुए कहा-

“खजाना रुपयों से खाली है। मराठों के आतंक से प्रजा आतंकित है| मराठों की लूटपाट व आगजनी के चलते गांव के गांव खाली हो गए और प्रजा पलायन करने में लगी है। राजपूत भी अब पहले जैसे रहे नहीं जो इन उत्पातियों को पलक झपकते मार भगा दे और ऐसे दुष्टों के हमले झेल सके।”

प्रधान के मुंह से ऐसी बात सुन पास ही बैठे एक राजपूत सरदार ने आवेश में आकर बोला –“पहले जैसे राजपूत अब क्यों नहीं है ? कभी किसी संकट में पीछे हटे है तो बताएं ? आजतक हम तो गाजर मुली की तरह सिर कटवाते आये है और आप कह रहें है कि पहले जैसे राजपूत नहीं रहे ! पिछले दो सौ वर्षों से लगातार मेवाड़ पर हमले हो रहे है पहले मुसलमानों के और अब इन मराठों के। रात दिन सतत चलने वाले युद्धों में भाग लेते लेते राजपूतों के घरों की हालत क्या हो गयी है ? कभी देखा है आपने ! कभी राजपूतों के गांवों में जाकर देखो एक एक घर में दस दस शहीदों की विधवाएं बैठी मिलेंगी| फिर भी राजपूत तो अब भी सिर कटवाने के लिए तैयार है। बस एक हुक्म चाहिए राणा जी का! मराठा तो क्या खुद यमराज भी आ जायेंगे तब भी मेवाड़ के राजपूत पीठ नहीं दिखायेंगे।”

ये सुन राणा बोले- “राज पाने व बचाने के लिए गाजर मुली की तरह सिर कटवाने ही पड़ते है, इसीलिए तो कहा जाता है कि राज्य का स्वामी बनना आसान नहीं। स्वराज्य बलिदान मांगता है और हम राजपूतों ने अपने बलिदान के बूते ही यह राज हासिल किया है। धरती उसी की होती है जो इसे खून से सींचने के लिए तैयार रहे| हमारे पूर्वजों ने मेवाड़ भूमि को अपने खून से सींचा है। इसकी स्वतंत्रता के लिए जंगल जंगल ठोकरे खायी है। मातृभूमि की रक्षा के लिए घास की रोटियां खाई है, और अब ये लुटरे इसकी अस्मत लुटने आ गए तो क्या हम आसानी से इसे लुट जाने दे ? अपने पूर्वजों के बलिदान को यूँ ही जाया करें? इसलिए बैठकर बहस करना छोड़े और मराठों को माकूल जबाब देने की तैयारी करें।”

राणा की बात सुनकर सभा में चारों और चुप्पी छा गयी। सबकी नजरों के आगे सामने आई युद्ध की विपत्ति का दृश्य घूम रहा था। मराठों से मुकाबले के लिए इतनी तोपें कहाँ से आएगी? खजाना खाली है फिर सेना के लिए खर्च का बंदोबस्त कैसे होगा? सेना कैसे संगठित की जाय? सेना का सेनापति कौन होगा? साथ ही इन्हीं बिन्दुओं पर चर्चा भी होने लगी।

आखिर चर्चा पूरी होने के बाद राणा जी ने अपने सभी सरदारों व जागीरदारों के नाम एक पत्र लिख कर उसकी प्रतियाँ अलग-अलग घुड़सवारों को देकर तुरंत दौड़ाने का आदेश दिया।

पत्र में लिखा था-“मेवाड़ राज्य पर उत्पाती मराठों ने आक्रमण किया है उनका मुकाबला करने व उन्हें मार भगाने के लिए सभी सरदार व जागीरदार यह पत्र पहुँचते ही अपने सभी सैनिकों व अस्त्र-शस्त्रों के साथ मेवाड़ की फ़ौज में शामिल होने के लिए बिना कोई देरी किये जल्द से जल्द हाजिर हों।”

पत्र में राणा जी के दस्तखत के पास ही राणा द्वारा लिखा था- “जो जागीरदार इस संकट की घडी में हाजिर नहीं होगा उसकी जागीर जब्त कर ली जाएगी। इस मामले में किसी भी तरह की कोई रियायत नहीं दी जाएगी और इस हुक्म की तामिल ना करना देशद्रोह व हरामखोरी माना जायेगा।”

राणा का एक सवार राणा का पत्र लेकर मेवाड़ की एक जागीर कोसीथल पहुंचा और जागीर के प्रधान के हाथ में पत्र दिया| प्रधान ने पत्र पढ़ा तो उसके चेहरे की हवाइयां उड़ गयी। कोसीथल चुंडावत राजपूतों के वंश की एक छोटीसी जागीर थी और उस वक्त सबसे बुरी बात यह थी कि उस वक्त उस जागीर का वारिस एक छोटा बच्चा था। कोई दो वर्ष पहले ही उस जागीर के जागीरदार ठाकुर एक युद्ध में शहीद हो गए थे और उनका छोटा सा इकलौता बेटा उस वक्त जागीर की गद्दी पर था। इसलिए जागीर के प्रधान की हवाइयां उड़ रही थी। राणा जी का बुलावा आया है और गद्दी पर एक बालक है वो कैसे युद्ध में जायेगा? प्रधान के आगे एक बहुत बड़ा संकट आ गया। सोचने लगा-“क्या इन मराठों को भी अभी हमला करना था। कहीं ईश्वर उनकी परीक्षा तो नहीं ले रहा?”

प्रधान राणा का सन्देश लेकर जनाना महल के द्वार पर पहुंचा और दासी की मार्फ़त माजी साहब (जागीरदार बच्चे की विधवा माँ) को आपात मुलाकात करने की अर्ज की।

दासी के मुंह से प्रधान द्वारा आपात मुलाकात की बात सुनते ही माजी साहब के दिल की धडकनें बढ़ गयी-“पता नहीं अचानक कोई मुसीबत तो नहीं आ गयी?”

खैर.. माजी साहब ने तुरंत प्रधान को बुलाया और परदे के पीछे खड़े होकर प्रधान का अभिवादन स्वीकार करते हुए पत्र प्राप्त किया। पत्र पढ़ते ही माजी साहब के मुंह से सिर्फ एक छोटा सा वाक्य ही निकला-“हे ईश्वर ! अब क्या होगा?” और वे प्रधान से बोली-“अब क्या करें ? आप ही कोई सलाह दे! जागीर के ठाकुर साहब तो आज सिर्फ दो ही वर्ष के बच्चे है उन्हें राणा जी की चाकरी में युद्ध के लिए कैसे ले जाया जाय ?

तभी माजी के बेटे ने आकर माजी साहब की अंगुली पकड़ी। माजी ने बेटे का मासूम चेहरा देखा तो उनके हृदय ममता से भर गया। मासूम बेटे की नजर से नजर मिलते ही माजी के हृदय में उसके लिए उसकी जागीर के लिए दुःख उमड़ पड़ा। राणा जी द्वारा पत्र में लिखे आखिरी वाक्य माजी साहब के नजरों के आगे घुमने लगे-“हुक्म की तामिल नहीं की गयी तो जागीर जब्त कर ली जाएगी। देशद्रोह व हरामखोरी समझा जायेगा आदि आदि।”

पत्र के आखिरी वाक्यों ने माजी सा के मन में ढेरों विचारों का सैलाब उठा दिया-“जागीर जब्त हो जाएगी ! देशद्रोह व हरामखोरी समझा जायेगा! मेरा बेटा अपने पूर्वजों के राज्य से बाहर बेदखल हो जायेगा और ऐसा हुआ तो उनकी समाज में कौन इज्जत करेगा? पर उसका आज बाप जिन्दा नहीं है तो क्या हुआ ? मैं माँ तो जिन्दा हूँ! यदि मेरे जीते जी मेरे बेटे का अधिकार छिना जाए तो मेरा जीना बेकार है ऐसे जीवन पर धिक्कार। और फिर मैं ऐसी तो नहीं जो अपने पूर्वजों के वंश पर कायरता का दाग लगने दूँ, उस वंश पर जिसनें कई पीढ़ियों से बलिदान देकर इस भूमि को पाया है मैं उनकी इस बलिदानी भूमि को ऐसे आसानी से कैसे जाने दूँ ?

ऐसे विचार करते हुए माजी सा की आँखों वे दृश्य घुमने लगे जो युद्ध में नहीं जाने के बाद हो सकते थे- “कि उनका जवान बेटा एक और खड़ा है और उसके सगे-संबंधी और गांव वाले बातें कर रहें है कि इन्हें देखिये ये युद्ध में नहीं गए थे तो राणा जी ने इनकी जागीर जब्त कर ली थी। वैसे इन चुंडावतों को अपनी बहादुरी और वीरता पर बड़ा नाज है हरावल में भी यही रहते है।” और ऐसे व्यंग्य शब्द सुन उनका बेटा नजरें झुकाये दांत पीस कर जाता है। ऐसे ही दृश्यों के बारे में सोचते सोचते माजी सा का सिर चकराने लगा वे सोचने लगे यदि ऐसा हुआ तो बेटा बड़ा होकर मुझ माँ को भी धिक्कारेगा।

ऐसे विचारों के बीच ही माजी सा को अपने पिता के मुंह से सुनी उन राजपूत वीरांगनाओं की कहानियां याद आ गयी जिन्होंने युद्ध में तलवार हाथ में ले घोड़े पर सवार हो दुश्मन सेना को गाजर मुली की तरह काटते हुए खलबली मचा अपनी वीरता का परिचय दिया था। दुसरे उदाहरण क्यों उनके ही खानदान में पत्ताजी चुंडावत की ठकुरानी उन्हें याद आ गयी जिसनें अकबर की सेना से युद्ध किया और अकबर की सेना पर गोलियों की बौछार कर दी थी। जब इसी खानदान की वह ठकुरानी युद्ध में जा सकती थी तो मैं क्यों नहीं ? क्या मैं वीर नहीं ? क्या मैंने भी एक राजपूतानी का दूध नहीं पिया ? बेटा नाबालिग है तो क्या हुआ ? मैं तो हूँ ! मैं खुद अपनी सैन्य टुकड़ी का युद्ध में नेतृत्व करुँगी और जब तक शरीर में जान है दुश्मन से टक्कर लुंगी। और ऐसे वीरता से भरे विचार आते ही माजी सा का मन स्थिर हो गया उनकी आँखों में चमक आ गयी, चेहरे पर तेज झलकने लगा और उन्होंने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ प्रधान जी को हुक्म दिया कि-

“राणा जी हुक्म सिर माथे ! आप युद्ध की तैयारी के लिए अपनी सैन्य टुकड़ी को तैयार कीजिये हम अपने स्वामी के लिए युद्ध करेंगे और उसमें जान की बाजी लगा देंगे।”

प्रधान जी ने ये सुन कहा- “माजी सा ! वो तो सब ठीक है पर बिना स्वामी के केसी फ़ौज ?

माजी सा बोली- “हम है ना ! अपनी फ़ौज का हम खुद नेतृत्व करेंगे।”

प्रधान ने विस्मय पूर्वक माजी सा की और देखा। यह देख माजी सा बोली-

“क्या आजतक महिलाएं कभी युद्ध में नहीं गयी ? क्या आपने उन महिलाओं की कभी कोई कहानी नहीं सुनी जिन्होंने युद्धों में वीरता दिखाई थी ? क्या इसी खानदान में पत्ताजी की ठकुरानी सा ने अकबर के खिलाफ युद्ध में भाग ले वीरगति नहीं प्राप्त की थी ? मैं भी उसी खानदान की बहु हूँ तो मैं उनका अनुसरण करते हुए युद्ध में क्यों नहीं भाग ले सकती ?

बस फिर क्या था। प्रधान जी ने कोसीथल की सेना को तैयार कर सेना के कूच का नंगारा बजा दिया। माजी सा शरीर पर जिरह बख्तर पहने, सिर पर टोप, हाथ में तलवार और गोद में अपने बालक को बिठा घोड़े पर सवार हो युद्ध में कूच के लिए पड़े।

कोसीथल की फ़ौज के आगे आगे माजी सा जिरह वस्त्र पहने हाथ में भाला लिए कमर पर तलवार लटकाये उदयपुर पहुँच हाजिरी लगवाई कि-“कोसीथल की फ़ौज हाजिर है।

अगले दिन मेवाड़ की फ़ौज ने मराठा फ़ौज पर हमला किया। हरावल (अग्रिम पंक्ति) में चुंडावतों की फ़ौज थी जिसमें माजी सा की सैन्य टुकड़ी भी थी। चुंडावतों के पाटवी सलूम्बर के राव जी थे उन्होंने फ़ौज को हमला करने का आदेश के पहले संबोधित किया- “वीर मर्द राजपूतो ! मर जाना पर पीठ मत दिखाना। हमारी वीरता के बल पर ही हमारे चुंडावत वंश को हरावल में रहने का अधिकार मिला है जिसे हमारे पूर्वजों ने सिर कटवाकर कायम रखा है। हरावल में रहने की जिम्मेदारी हर किसी को नहीं मिल सकती इसलिए आपको पूरी जिम्मेदारी निभानी है मातृभूमि के लिए मरने वाले अमर हो जाते है अत: मरने से किसी को डरने की कोई जरुरत नहीं! अब खेंचो अपने घोड़ों की लगाम और चढ़ा दो मराठा सेना पर।”

माजी सा ने भी अन्य वीरों की तरह एक हाथ से तलवार उठाई और दुसरे हाथ से घोड़े की लगाम खेंच घोड़े को ऐड़ लगादी। युद्ध शुरू हुआ, तलवारें टकराने लगी, खच्च खच्च कर सैनिक कट कट कर गिरने लगे, तोपों, बंदूकों की आवाजें गूंजने लगी। हर हर महादेव केनारों से युद्ध भूमि गूंज उठी। माजी सा भी बड़ी फुर्ती से पूरी तन्मयता के साथ तलवार चला दुश्मन के सैनिकों को काटते हुए उनकी संख्या कम कर रही थी कि तभी किसी दुश्मन ने पीछे से उन पर भाले का एक वार किया जो उनकी पसलियाँ चीरता हुआ निकल गया और तभी माजी सा के हाथ से घोड़े की लगाम छुट गयी और वे नीचे धम्म से नीचे गिर गए। साँझ हुई तो युद्ध बंद हुआ और साथी सैनिकों ने उन्हें अन्य घायल सैनिकों के साथ उठाकर वैध जी के शिविर में इलाज के लिए पहुँचाया। वैध जी घायल माजी सा की मरहम पट्टी करने ही लगे थे कि उनके सिर पर पहने लोहे के टोपे से निकल रहे लंबे केश दिखाई दिए। वैध जी देखते ही समझ गए कि यह तो कोई औरत है। बात राणा जी तक पहुंची-

“घायलों में एक स्त्री ! पर कौन ? कोई नहीं जानता। पूछने पर अपना नाम व परिचय भी नहीं बता रही।”

सुनकर राणा जी खुद चिकित्सा शिविर में पहुंचे उन्होंने देखा एक औरत जिरह वस्त्र पहने खून से लथपथ पड़ी। पुछा –

“कृपया बिना कुछ छिपाये सच सच बतायें ! आप यदि दुश्मन खेमें से भी होगी तब भी मैं आपका अपनी बहन के समान आदर करूँगा। अत: बिना किसी डर और संकोच के सच सच बतायें।”

घायल माजी सा ने जबाब- “कोसीथल ठाकुर साहब की माँ हूँ अन्नदाता !”

सुनकर राणा जी आश्चर्यचकित हो गए। पुछा- “आप युद्ध में क्यों आ गई?”

“अन्नदाता का हुक्म था कि सभी जागीरदारों को युद्ध में शामिल होना है और जो नहीं होगा उसकी जागीर जब्त करली जाएगी। कोसीथल जागीर का ठाकुर मेरा बेटा अभी मात्र दो वर्ष का है अत: वह अपनी फ़ौज का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं सो अपनी फ़ौज का नेतृत्व करने के लिए मैं युद्ध में शामिल हुई। यदि अपनी फ़ौज के साथ मैं हाजिर नहीं होती तो मेरे बेटे पर देशद्रोह व हरामखोरी का आरोप लगता और उसकी जागीर भी जब्त होती।”

माजी सा के वचन सुनकर राणा जी के मन में उठे करुणा व अपने ऐसे सामंतों पर गर्व के लिए आँखों में आंसू छलक आये। ख़ुशी से गद-गद हो राणा बोले-

“धन्य है आप जैसी मातृशक्ति ! मेवाड़ की आज वर्षों से जो आन बान बची हुई है वह आप जैसी देवियों के प्रताप से ही बची हुई है। आप जैसी देवियों ने ही मेवाड़ का सिर ऊँचा रखा हुआ है। जब तक आप जैसी देवी माताएं इस मेवाड़ भूमि पर रहेगी तब तक कोई माई का लाल मेवाड़ का सिर नहीं झुका सकता। मैं आपकी वीरता, साहस और देशभक्ति को नमन करते हुए इसे इज्जत देने के लिए अपनी और से कुछ पारितोषिक देना चाहता हूँ यदि आपकी इजाजत हो तो, सो अपनी इच्छा बतायें कि आपको ऐसा क्या दिया जाय ? जो आपकी इस वीरता के लायक हो|”

माजी सा सोच में पड़ गयी आखिर मांगे तो भी क्या मांगे|

आखिर वे बोली- “अन्नदाता ! यदि कुछ देना ही है तो कुछ ऐसा दें जिससे मेरे बेटे कहीं बैठे तो सिर ऊँचा कर बैठे|”

राणा जी बोले- “आपको हुंकार की कलंगी बख्सी जाती है जिसे आपका बेटा ही नहीं उसकी पीढियां भी उस कलंगी को पहन अपना सिर ऊँचा कर आपकी वीरता को याद रखेंगे|”

Saturday, February 18, 2017

MAHARANA MOKAL - THAKUR MALSINGH DODIYA - IMMORTAL RAJPUTS







1433 ई.महाराणा मोकल भी मेवाड़ी फौज के साथ चित्तौड़ से निकलेमहाराणा के साथ चाचा व मेरा (महाराणा क्षेत्रसिंह की अवैध सन्तानें) भी थे, जो महाराणा को मारने की फिराक में थे* महाराणा मोकल ने बागौर में पड़ाव डालाचाचा व मेरा ने महाराणा के बहुत से आदमियों को अपनी तरफ मिला लिया, पर मलेसी डोडिया ने महाराणा का साथ नहीं छोड़ाचाचा, मेरा व महपा पंवार ने अपने 20-30 आदमियों के साथ महाराणा के खेमे में प्रवेश करना चाहा, पर डोडिया मलेसी ने रोकने की कोशिश कीसब लोग महाराणा के खेमे में पहुंचेमहाराणा मोकल, महारानी हाड़ी व मलेसी डोडिया..... ये तीनों कुल 19 दगाबाजों को मारकर वीरगति को प्राप्त हुएचाचा व महपा पंवार जख्मी होकर अपने बाल-बच्चों समेत कोटड़ी चले गए

BRAVE RAO JAIMAL VIKRAM RATHORE- IMMORTAL RAJPUTS





बात उस समय की है जब चित्तोर पर अकबर का आक्रमण होने वाला था और राणा उदय सिंह को मेवाड़ के सरदारो ने सुरक्षित रखने के लिए कुम्भलगढ़ भेज दिया था तथा उदयसिंह ने राव जयमाल मेड़तिया को सम्पूर्ण चित्तोर का भार सौप सेनापति नियुक्त किया था ये महाराणा प्रताप के सैनिक गुरु भी थे जयमल मेडतिया| मेड़ता छोड़ने के बाद वह अपने परिवार व साथी सरदारों के साथ वीरों की तीर्थ स्थली चितौड़ के लिए रवाना हो गया | 

उस ज़माने में चितौड़ देशभर के वीर योद्धाओं का पसंदीदा तीर्थ स्थान था मातृभूमि पर मर मिटने की तम्मना रखने वाला हर वीर चितौड़ जाकर बलिदान देने को तत्पर रहता था | 

जयमल का काफिला मेवाड़ के पहाड़ी जंगलों से होता हुआ चितौड़ की तरफ बढ़ रहा था कि अचानक एक भील डाकू सरदार ने उनका रास्ता रोक लिया अपनी ताकत दिखाने के लिए भील सरदार ने एक सीटी लगाई और जयमल व उसके साथियों के देखते ही देखते एक पेड़ तीरों से बिंध गया | 
जयमल व साथी सरदार समझ चुके थे कि हम डाकू गिरोह से घिर चुके है और इन छुपे हुए भील धनुर्धारियों का सामना कर बचना बहुत मुश्किल है वे उस क्षेत्र के भीलों के युद्ध कौशल के बारे में भलीभांति परिचित भी थे | 
कुछ देर की खामोशी के बाद राव जयमल के एक साथी सरदार ने जयमल की और मुखातिब होकर पूछा - "अठै क उठै " | जयमल का जबाब था "उठै " |

 जयमल के जबाब से इशारा पाते ही काफिले के साथ ले जाया जा रहा सारा धन चुपचाप भील डाकू सरदार के हवाले कर काफिला आगे बढ़ गया | डाकू सरदार को हथियारों से सुसज्जित राजपूत योद्धाओं का इस तरह समर्पण कर चुपचाप चले जाना समझ नहीं आया | और उसके दिमाग में "अठै क उठै " शब्द घूमने लगे वह इस वाक्य में छुपे सन्देश को समझ नहीं पा रहा था और बेचैन हो गया आखिर वह धन की पोटली उठा घोडे पर सवार हो जयमल के काफिले का पीछा कर फिर जयमल के सामने उपस्थित हुआ और हाथ जोड़करजयमल से कहने लगा -- हे वीर ! आपके लश्कर में चल रहे वीरों के मुंह का तेज देख वे साधारण वीर नहीं दीखते | 

हथियारों व जिरह वस्त्रो से लैश इतने राजपूत योद्धा आपके साथ होने के बावजूद आपके द्वारा इतनी आसानी से बिना लड़े समर्पण करना मेरी समझ से परे है कृपया इसका कारण बता मेरी शंका का निवारण करे व साथ ही मुझे "अठै क उठै" वाक्य में छिपे सन्देश के रहस्य से भी अवगत कराएँ | तब जयमल ने भील सरदार से कहा -- मेरे साथी ने मुझसे पूछा कि "अठै क उठै" मतलब कि (अठै) यहाँ इस थोड़े से धन को बचाने के लिए संघर्ष कर जान देनी है या यहाँ से बचकर चितौड़ पहुँच (उठै ) वहां अपनी मातृभूमि के लिए युद्ध करते हुए प्राणों की आहुति देनी है |

 तब मैंने कहा " उठै " मतलब कि इस थोड़े से धन के लिए लड़ना बेकार है हमें वही अपनी मातृभूमि के रक्षार्थ युद्ध कर अपने अपने प्राणों को देश के लिए न्योछावर करना है | इतना सुनते ही डाकू भील सरदार सब कुछ समझ चूका था उसे अपने किये पर बहुत पश्चाताप हुआ वह जयमल के चरणों में लौट गया और अपने किये की माफ़ी मांगते हुए कहना लगा -- हे वीर पुरुष ! आज आपने मेरी आँखे खोल दी , आपने मुझे अपनी मातृभूमि के प्रति कर्तव्य से अवगत करा दिया | मैंने अनजाने में धन के लालच में अपने वीर साथियों के साथ अपने देशवासियों को लुट कर बहुत बड़ा पाप किया है आप मुझे क्षमा करने के साथ-साथ अपने दल में शामिल करले ताकि मै भी अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ अपने प्राण न्योछावर कर सकूँ और अपने कर्तव्य पालन के साथ साथ अपने अब तक किये पापो का प्रायश्चित कर सकूँ और वह भील डाकू सरदार अपने गिरोह के धनुर्धारी भीलों के साथ जयमल के लश्कर में शामिल हो अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ चितौड़ रवाना हो गया और जब अकबर ने 1567 ई. में चितौड़ पर आक्रमण किया तब जयमल के नेत्रित्व में अपनी मातृभूमि मेवाड़ की रक्षार्थ लड़ते हुए शहीद हुआ| 1567 में जयमल और चित्तोर के वीरो ने 6 महीने तक मुगलो को किल्ले में घुसने नही दिया अंत में जब किल्ले का राशन ख़तम हो गया तब 11000 राजपूत वीरांगनों ने जौहर किया और राजपूतो ने शाका तथा 8000 राजपूत वीर 60000 कि अकबर कि सेना पर भूखे शेर कि तरह टूट पड़े और युद्ध के अंत में कुल 48000 सैनिक मारे गए जिनमे मुग़ल 40000 और राजपूत 8000 थे।

Brave Jaimal Vikram Rathore


“मरण नै मेडतिया अर राज करण नै जौधा “
“मरण नै दुदा अर जान(बारात) में उदा ” 

उपरोक्त कहावतों में मेडतिया राठोडों को आत्मोत्सर्ग में अग्रगण्य तथा युद्ध कौशल में प्रवीण मानते हुए मृत्यु को वरण करने के लिए आतुर कहा गया है मेडतिया राठोडों ने शौर्य और बलिदान के एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए है और इनमे राव जयमल का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है | कर्नल जेम्स टोड की राजस्थान के प्रत्येक राज्य में “थर्मोपल्ली” जैसे युद्ध और “लियोनिदास” जैसे योधा होनी की बात स्वीकार करते हुए इन सब में श्रेष्ठ दिखलाई पड़ता है | जिस जोधपुर के मालदेव से जयमल को लगभग २२ युद्ध लड़ने पड़े वह सैनिक शक्ति में जयमल से १० गुना अधिक था और उसका दूसरा विरोधी अकबर एशिया का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति था |अबुल फजल,हर्बर्ट,सर टामस रो, के पादरी तथा बर्नियर जैसे प्रसिद्ध लेखकों ने जयमल के कृतित्व की अत्यन्त ही प्रसंशा की है | जर्मन विद्वान काउंटनोआर ने अकबर पर जो पुस्तक लिखी उसमे जयमल को “Lion of Chittor” कहा |

जयमल विक्रम राठौड़

राव जयमल का जन्म आश्विन शुक्ला ११ वि.स.१५६४ १७ सितम्बर १५०७ शुक्रवार के दिन हुआ था | सन १५४४ में जयमल ३६ वर्ष की आयु अपने पिता राव विरमदेव की मृत्यु के बाद मेड़ता की गद्दी संभाली | पिता के साथ अनेक विपदाओं व युद्धों में सक्रीय भाग लेने के कारण जयमल में बड़ी-बड़ी सेनाओं का सामना करने की सूझ थी उसका व्यक्तित्व निखर चुका था और जयमल मेडतिया राठोडों में सर्वश्रेष्ठ योद्धा बना | मेड़ता के प्रति जोधपुर के शासक मालदेव के वैमनस्य को भांपते हुए जयमल ने अपने सीमित साधनों के अनुरूप सैन्य तैयारी कर ली | जोधपुर पर पुनः कब्जा करने के बाद राव मालदेव ने कुछ वर्ष अपना प्रशासन सुसंगठित करने बाद संवत १६१० में एक विशाल सेना के साथ मेड़ता पर हमला कर दिया | अपनी छोटीसी सेना से जयमल मालदेव को पराजित नही कर सकता था अतः उसने बीकानेर के राव कल्याणमल को सहायता के लिए ७००० सैनिकों के साथ बुला लिया | लेकिन फ़िर भी जयमल अपने सजातीय बंधुओं के साथ युद्ध कर और रक्त पात नही चाहता था इसलिय उसने राव मालदेव के साथ संधि की कोशिश भी की, लेकिन जिद्दी मालदेव ने एक ना सुनी और मेड़ता पर आक्रमण कर दिया | पूर्णतया सचेत वीर जयमल ने अपनी छोटी सी सेना के सहारे जोधपुर की विशाल सेना को भयंकर टक्कर देकर पीछे हटने को मजबूर कर दिया स्वयम मालदेव को युद्ध से खिसकना पड़ा | युद्ध समाप्ति के बाद जयमल ने मालदेव से छीने “निशान” मालदेव को राठौड़ वंश का सिरमौर मान उसकी प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए वापस लौटा दिए | 


मालदेव पर विजय के बाद जयमल ने मेड़ता में अनेक सुंदर महलों का निर्माण कराया और क्षेत्र के विकास के कार्य किए | लेकिन इस विजय ने जोधपुर-मेड़ता के बीच विरोध की खायी को और गहरा दिया | और बदले की आग में झुलसते मालदेव ने मौका देख हमला कर २७ जनवरी १५५७ को मेड़ता पर अधिकार कर लिया उस समय जयमल की सेना हाजी खां के साथ युद्ध में क्षत-विक्षत थी और उसके खास-खास योधा बीकानेर,मेवाड़ और शेखावाटी की और गए हुए थे इसी गुप्त सुचना का फायदा मालदेव ने जयमल को परास्त करने में उठाया | मेड़ता पर अधिकार कर मालदेव ने मेड़ता के सभी महलों को तोड़ कर नष्ट कर दिए और वहां मूलों की खेती करवाई | 

आधा मेड़ता अपने पास रखते हुए आधा मेड़ता मालदेव ने जयमल के भाई जगमाल जो मालदेव के पक्ष में था को दे दिया | मेड़ता छूटने के बाद जयमल मेवाड़ चला गया जहाँ महाराणा उदय सिंह ने उसे बदनोर की जागीर प्रदान की | लेकिन वहां भी मालदेव ने अचानक हमला किया और जयमल द्वारा शोर्य पूर्वक सामना करने के बावजूद मालदेव की विशाल सेना निर्णायक हुयी और जयमल को बदनोर भी छोड़ना पड़ा | अनेक वर्षों तक अपनी छोटी सी सेना के साथ जोधपुर की विशाल सेना मुकाबला करते हुए जयमल समझ चुका था कि बिना किसी शक्तिशाली समर्थक के वह मालदेव से पीछा नही छुडा सकता | और इसी हेतु मजबूर होकर उसने अकबर से संपर्क किया जो अपने पिता हुमायूँ के साथ मालदेव द्वारा किए विश्वासघात कि वजह से खिन्न था और अकबर राजस्थान के उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक मालदेव को हराना भी जरुरी समझता था | 

The capture of Fort Mertha in Rajasthan, 1561.


जयमल ने अकबर की सेना सहायता से पुनः मेड़ता पर कब्जा कर लिया | वि.स.१६१९ में मालदेव के निधन के बाद जयमल को लगा की अब उसकी समस्याए समाप्त हो गई | लेकिन अकबर की सेना से बागी हुए सैफुद्दीन को जयमल द्वारा आश्रय देने के कारण जयमल की अकबर से फ़िर दुश्मनी हो गई | और अकबर ने एक विशाल सेना मेड़ता पर हमले के लिए रवाना कर दी | अनगिनत युद्धों में अनेक प्रकार की क्षति और अनगिनत घर उजड़ चुके थे और जयमल जनता जनता को और उजड़ देना नही चाहता था इसी बात को मध्यनजर रखते हुए जयमल ने अकबर के मनसबदार हुसैनकुली खां को मेड़ता शान्ति पूर्वक सौंप कर परिवार सहित बदनोर चला गया | और अकबर के मनसबदार हुसैनकुली खां ने अकबर की इच्छानुसार मेड़ता का राज्य जयमल के भाई जगमाल को सौंप दिया |


अकबर द्वारा चित्तोड़ पर आक्रमण का समाचार सुन जयमल चित्तोड़ पहुँच गया | २६ अक्टूबर १५६७ को अकबर चित्तोड़ के पास नगरी नामक गांव पहुँच गया | जिसकी सूचना महाराणा उदय सिंह को मिल चुकी थी और युद्ध परिषद् की राय के बाद चित्तोड़ के महाराणा उदय सिंह ने वीर जयमल को ८००० सैनिकों के साथ चित्तोड़ दुर्ग की रक्षा का जिम्मा दे स्वयम दक्षिणी पहाडों में चले गए | विकट योद्धों के अनुभवी जयमल ने खाद्य पदार्थो व शस्त्रों का संग्रह कर युद्ध की तैयारी प्रारंभ कर दी | उधर अकबर ने चित्तोड़ की सामरिक महत्व की जानकारिया इक्कठा कर अपनी रणनीति तैयार कर चित्तोड़ दुर्ग को विशाल सेना के साथ घेर लिया और दुर्ग के पहाड़ में निचे सुरंगे खोदी जाने लगी ताकि उनमे बारूद भरकर विस्फोट कर दुर्ग के परकोटे उड़ाए जा सकें,दोनों और से भयंकर गोलाबारी शुरू हुई तोपों की मार और सुरंगे फटने से दुर्ग में पड़ती दरारों को जयमल रात्रि के समय फ़िर मरम्मत करा ठीक करा देते।


Verses by Jaimal Mertiya before final battle of Chittorgarh Mewar 

जयमल भज जगदीश को, झूटा तजदे फोड़
अंत समय भिळसी अवस ठीक राख मन ठोड़।

लाज रखे तो जीव रख लजवन जीव रख 
साईं तो सूँ वीनती दोनुं भेळा रख।

बिना लाज जीवण बुरो, अकबर सुं जुद्ध आज 
राखी ज्यूँ अब राखजे लघु जयमल की लाज। 

अनेक महीनों के भयंकर युद्ध के बाद भी कोई परिणाम नही निकला | चित्तोड़ के रक्षकों ने मुग़ल सेना के इतने सैनिकों और सुरंगे खोदने वालो मजदूरों को मारा कि लाशों के अम्बार लग गए | बादशाह ने किले के निचे सुरंगे खोद कर मिट्टी निकालने वाले मजदूरों को एक-एक मिट्टी की टोकरी के बदले एक-एक स्वर्ण मुद्राए दी ताकि कार्य चालू रहे | अबुलफजल ने लिखा कि इस युद्ध में मिट्टी की कीमत भी स्वर्ण के सामान हो गई थी | बादशाह अकबर जयमल के पराकर्म से भयभीत व आशंकित भी थे सो उसने राजा टोडरमल के जरिय जयमल को संदेश भेजा कि आप राणा और चित्तोड़ के लिए क्यों अपने प्राण व्यर्थ गवां रहे हो,चित्तोड़ दुर्ग पर मेरा कब्जा करा दो मै तुम्हे तुम्हारा पैत्रिक राज्य मेड़ता और बहुत सारा प्रदेश भेंट कर दूंगा | लेकिन जयमल ने अकबर का प्रस्ताव साफ ठुकरा दिया कि मै राणा और चित्तोड़ के साथ विश्वासघात नही कर सकता और मेरे जीवित रहते आप किले में प्रवेश नही कर सकते |


The following verse is a famous but rare Rajputana ballad, which can still be heard from the old timers of Chittorgarh.This ballad has been passed down through several generations. It contains the words ofRaja Jaimal Rathore, commander of the Chittor fort during the 3rd siege, conveyed to the Mughal Emperor Akbar by the Dodiya Thakur of Lava Sardargarh -Thakur Sanda Sinh Ji*:

"Jaimal likhe Jawab jad Sun je Akbar Shah
Aan phire Garh Utra Tuta Sir Pat Sah
Hai Garh Mano Ghu Ghani Asur Tere Simhaar
Uncheyea Garh Chittod Ri Bhedi Mohi Deewar"

The English translation is --

Oh Shahinshah Akbar! Listen carefully the answer of our chief - Jaimal.
You can not set your foot in our pious fort of Chittor, as long as Jaimal Rathore is alive.
Unless you walk over my corpse, you cannot enter our Garh - Chittor.

Because, right now this Garh of Chittor is MINE.
My master, The Rana - His Majesty has appointed me to take care of this fort.
He has given the keys of this Fort to me.
Forget entering the Fort, as long as i'm alive, the enemy(demon) can't even set it's eyes at my pure fort.
Jaimal is a wall which has to be crossed to enter the Fort of Chittor

.{* More about the Brave Dodia Thakur of SardarGarh can be read in other post.}



Rathores of Bednore, amongst the 16 Umraos of Mewar sat at the right side of Ranas.

Jaimal Rathore chose Mewar as his Karmabhoomi & died a most glorious death at the Third Siege of Chittorgarh, 1568, 23 Feb.

His elder son, Rao Mukund died defending Kumbhalgarh, 1568 campaign.

His younger son, Rao Ram Singh who led the Haraval (Vanguard) at Haldighati, died there, 1576 !

Jaimal’s nephew, whom Fazl calls an inspiration for Rajputs, Kalla ji died with Jaimal at Bhairav Pol on day of Saka, 23 Feb 1568…

He was a direct descendant of Rao Jodha(1415-1489), the king who founded of thecity of Jodhpur in 1459. 

Rao Jodha had a son named Rao Dudha(1440-1515) from his queen, Rani Champa Bai Songara Chauhan. Rao Dudha was given the estate ofMerta, and hence, he established the Merta offshoot of Rathores here.Born on 17th September 1507, 


Jaimal was a grandson of Rao Dudha. son of Biramdev, ruler of Merta was Famous Meera Bai first cousin.

He was granted the estate of Bednor by Rana Udai Singh in 1554, in recognition of his exceptional services. Before Chittor siege, In 1557, Battle of Harmada, the forces of Rao Maldeo defeated forces of Udai Singh of Mewar and Merta was captured and assigned to Maldeo’s trusted chief Jagmal. Rao Maldeo Rathore, broke the Rajput tradition of primogeniture (eldest son takes his father seat) and named his third son Rao Chandra Sen as his successor. Chandrasen Rathore crowned himself in the capital Jodhpur and ousted his elder brother, Rao Udai Singh (Marwar).

1562: Battle of Merta

As per Nainsi, in 1562, Jaimal of Merta (brother of Jagmal), presented himself at Sambhar and sought his help against Maldeo. Interested in taking advantage of these internal situation, Akbar responded favourably to request of Jaimal and appointed Sharifuddin Husain Mirza along with Jaimal and Lonkarn Shekhawat to march against Rao jagmal.

The city was captured and was given back to Rao Jaimal.

Consequence:

Jaimal became the governor of Merta under Sharifuddin Husain Mirza. But soon, Mirza revolted against Akbar and created disorder in the region of Ajmer and Nagaur. Akbar sent an army under the command of Hussain Quli Khan-i- Jahan who successfully suppressed the rebellion and brought Ajmer and Nagaur under imperial control.

The fort of Merta which Jaimal held with the approval of Mirza Sharifuddin was transferred again back of Jagmal. Jaimal was dethroned and moved to seek refuge with Rana Udai Singh of Mewar.

In 1562, Akbar with the help of Rajas from Bikaner and Amer defeated Rao Chandra Sen in Battle of Merta and advanced towards Jodhpur.

There is another veraion which says Jaimal had earlier, fought a pitched battle against Mughal Subedar Sharf-ud-din, brother-in-law of Mughal Emperor Akbar, in the Battle of Merta in 1562-63. This was also a siege of several months. 

Finally, being outnumbered, Merta was lost to Mughals, after carrying out the Jauhar and Saka. Later, JaiMal shifted to his other estate of Bednor.

The sequence of rulers is :
Rao Jodha(Jodhpur) -> Rao Dudha(Merta) -> Rao Vikram(Merta) -> Rao JaiMal(Bednor).

The famous Jaimal Rathore Along with Patta Chundawat, he took the reins of Chittor during of Siege of Chittorgarh,1567-68. When Turk lutera Jalaludin Mohamad laid a siege to the Fort of Chittor. He is said to have died from a bullet fired from the match-lock - Sangram, of Mughal Emperor Akbar. Akbar accidentally shot him which led to the II Jauhar &
Saka of Chittorgarh.

Akbar on the rt shot Jaimal. AbulFazl, "he killed Jaimal", fact is he was hit in the knee. Next day Saka was led by Jaimal & Patta.
Jaimal Ji, fought riding shoulders of his nephew Kalla Ji. Earning epithet, CHARBHUJA, 4 armed. Horses abandoned, no one leaves alive is SAKA. 


But, Rajputana sources give a slightly different account. According to them, Jaimal was wounded, not died. According to one of the sources - 

" Udaipur Ka Itihaas " , which when read, says, Jaimal died between the place called "Hanuman Pol and BhairavPol" while fighting a soldier's death.Jaimal was indeed wounded during the attempt to fill a breach created by the Mughal mining. Due to this wound he was unable to mount a horse. Hence, when the Mughal soldiers started pouring in the morning after Jauher, he sat on the shoulders of a soldier and wielding swords in both his hands fought bravely like a normal soldier, not like a battle general, before he finally fell fighting near the SurajPol.

Akbarnama records Jaimal's end as follows: On Tuesday, February 23, 1568, Akbar noticed at the breach a personage wearing a chief's cuirass who was busy directing the defence. Without knowing who the chief might be, Akbar aimed at him with his well-tried musket Sangram. When the man did not come back, the besiegers concluded that he must have been killed. Less than an hour later reports were brought in that the defences were deserted and that fire had broken out in several places in the fort. Raja Bhagwan Das, being familiar with the customs of his country, knew the meaning of the fire, and explained that it must be the jauhar performed at Chittor.

Early in the morning the facts were ascertained. The fortress, chief whom Akbar's shot had killed proved to be Jaimal Rathor of Bednor, who had taken command of the fortress. As usual in India the fall of the commander decided the fate of the garrison. Shortly before Jaimal was killed a gallant deed was performed by the ladies of the young chieftain Patta, whose name is always linked by tradition with that of Jaimal.

Sons: we know the details of 2 of his sons.-> 

His eldest son Rao Mukund Rathore perished in the Battle at Kumbhalgarh Fort, during the Siege of Chittor in 1568. As we know, this battle was fought not only for Chittor, but also for the supremacy of other fortresses of Mewar. At other fronts also the battle was continuing.-> 

His younger son Rao Ram Rathore perished in the Battle of Haldighati, 18th June 1576, fighting against forces of Mughal Emperor Akbar, alongside Maharana Pratap.

Mother:

His mother is said to be Rani Gorajia Kanwar, Chief Queen of his father. It is not 100% sure to me if she was his biological mother. She was the daughter of Rana Raimal of Mewar(died 1508) and sister of Rana Sanga(died 1527). Hence, JaiMal was also related to Mewar just like Patta.

Father::

His father was (the son of above mentoned Rao Dudha) - Rao Vikram Rathore, the ruler of Merta till his death in 1544.

Brothers:

About his siblings, we know of one. His elder brother was Pratap Rathore, who also gave his life in the Saka at Chittor in 1568. 

He was the ruler of the strategically important estate of Ghanerau, in present day Pali district of Rajasthan. Present on outskirts of Udaipur.His son Gopal Rathore, actively served Mewar till his death in 1626, and constructed a beautifulcastle here in 1606.

View of GhaneRau Castle


Conclusion:

The bitter victory document issued by Mughal Emperor Akbar after the victory at Chittor bears testimony to the fact - 



the havoc wrecked across the Mughal ranks by the 2 Chiefs - Jaimal and Patta.

Though bitter, but still, the victory document of Mughal Emperor Akbar recognizes the bravery of these two 'enemies' in following words -"Jaimal and Patta who are renowned for their valoramong the infidels.......aresingly considered to beequal to a thousand horsemen in intrepidity and prowess.......

"The names of Jaimal and Patta have become synonymous with the House of Mewar and the Fort of Chittor. Whenever, one talks about Chittor, names of Jaimal and Patta surely come to one's mind. 

Their deeds evoke a sense of deep respect and a pride to be cherished by the posterity.There are lesser known heroes who have earned a place even in the Mughal records for their valor, 

Especially the name of Isar Das Chauhan - who fought an elephant with a bare knife, when it was sent to spread rampage and destruction in the battle-field. First, 50 and then 300 elephants were let loose after arming their trunks with swords in the battle-field. Among them was a favorite elephant of Akbar named Madukar, and Abu'l Fazl records,

Isar Das took hold of it's tusk and stabbed it with a dagger and asked him to "convey his(Isar Das's) regards to His Master(Akbar)" in the following words - 

"Be good enough to convey my respects to your world adorning appreciator of merit".

Every one loves his/her land. In a war, there are two sides. For one side, the other side is an enemy. Same was the case here. Akbar wanted to capture Chittor. These people wanted to defend it. 

The war was different because this is one war, where one gets the written evidence of involvement of women-folk fighting alongside men for their beloved motherland.

This post is a homage to those warriors who staked theirallin fight for their principles.

Note

Rawat Chundavat also gave his life in the Saka at the Battle of Chittor on 24th February 1568. Along with him, his ONLY son Kunwar Amar also died on the same day in the Saka at the Fort of Chittor.




















KOIL (ALIGARH) MAHARAJA CHANDRASEN DOR SLAYER OF - IMMORTAL RAJPUTS


“It is not the honour that you take with you, but the heritage you leave behind. Conserve it.”



आजकल क्षत्रिय समाज द्वारा जगह जगह पर महाराणा प्रताप की जयंती मनाई जा रही हैं जो कि अच्छी बात है लेकिन इस सबको देखकर यह लगता है कि इतने विशाल क्षत्रिय समाज में जिसने कई हजार साल तक भारत पर राज किया, दर्जनों चक्रवर्ती सम्राट इस समाज में हुए, उस समाज में महाराणा प्रताप के अलावा कोई और महापुरुष पैदा ही नही हुआ। यहाँ तक की हर क्षेत्र, हर जिले तक में क्षत्रिय समाज के सैकड़ो महापुरुष रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य से इन महापुरुषों को याद करना तो छोड़ो, समाज के लोगो को इनके बारे में कोई जानकारी तक नही है।

इसी तरह बुलंदशहर जिले में क्षत्रिय समाज की बहुत बड़ी आबादी है और इतिहास में अनेको क्षत्रिय महापुरुष इस जिले में पैदा हुए हैं जिनके बारे में यहाँ के बड़े बुजुर्गो को भी ज्यादा जानकारी नही है। इसीलिए उनके बारे में कम से कम संक्षिप्त रूप से बताया जाना जरुरी है। इसी कड़ी में सबसे पहले हैं डोड राजपूत वंश और राव चंद्रसेन डोड।
उत्तर मध्य काल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेरठ से जलेसर, एटा और संभल तक पवार/परमार राजपूत वंश की शाखा डोड राजपूतो का शासन था जिनकी राजधानी बरन(आधुनिक बुलंदशहर) थी। बुलंदशहर में जिस इलाके को आज उपरकोट कहा जाता है वहां इनका किला होता था जिसे बलाई कोट भी कहा जाता था। आज भी वहां की इमारतो के नीचे किले और डोड राजपूतो की विरासत के अवशेष दबे हुए हैं। यही से मिले एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि यहाँ डोड वंश की 16 पीढ़ियों ने राज किया है। जनश्रुतियो के अनुसार राजा विक्रमसेन डोड ने इस राज्य की स्थापना की। इस वंश में प्रतापी राजा हरदत्त डोड हुए जिनको मेरठ, हापुड़(हरिपुर), कोल(वर्तमान अलीगढ़) जैसे नगरो को बसाने का और उपरकोट किले को बनाने का श्रेय जाता है। महमूद गजनी के आक्रमण के समय इन्होने ही बरन(बुलंदशहर) में उसका मुकाबला किया था।


डोर राजपूतों के द्वारा कोल अलीगढ़ में देश धर्म रक्षा युद्ध


कोल अलीगढ़ का देश धर्म रक्षा युद्ध (1194 ई.) - डोर राजपूतों का कोल अलीगढ़ दुर्ग भी भारत के प्रसिद्ध दुर्गों में से था । देश भर में राजपूतो के त्याग, बलिदान, शौर्ये कि सुनने पढ़ने को मिलती है लेकिन हजारों धर्म युद्ध ऐसे भी है जिनकी चर्चा वामपंथी इतिहासकार नहीं करते, ना ही पाठ्यक्रम में इन युद्धों कि जानकारी है, आजाद भारत में लोकतांत्रिक सरकारे भी इस तरफ कभी ध्यान नहीं देती । इतिहासकार राजेंद्र सिंह राठौड़ बीदासर ने अपनी पुस्तक राजपूतों की गौरवगाथा में ऐसे सभी धर्म युद्धों और राजपूत काल में हुवे अरब आक्रमण और राजपूतों कि विजय और संघर्ष के बारे में लिखा है ।

जब कुतुबुद्दीन एबक ने 1194 ई. डोर राजपूतों के कोल अलीगढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया पहले उसका घेरा डाला और 
मोहम्मद गौरी की सेना ने जब बरन पर आक्रमण किया तो उस समय यहाँ राव चंद्रसेन डोड का राज था। गौरी की सेना ने महीनो तक किले(उपरकोट) का घेरा डाला लेकिन उसे सफलता नही मिली। इस दौरान राजपूत बार बार किले से बाहर निकल तुर्को पर हमले करते रहे जिनमे एक हमले में खुद राव चंद्रसेन ने अपने तीर से गौरी के मुख्य सेनापति ख्वाजा लाल अली को मौत के घाट उतार दिया। तुर्को ने राव चंद्रसेन को अनेक प्रलोभन दिए, धर्म परिवर्तन कर बड़ा राज्य प्राप्त करने का प्रलोभन भी दिया लेकिन राव चंद्रसेन ने घुटने नही टेके। परन्तु राव चन्द्रसेन के एक दरबारी जयपाल और पुजारी हीरादास ने गद्दारी कर रात को किले के दरवाजे खोल दिए जिसके बाद किले में भीषण शाका और जौहर हुआ। राव चंद्रसेन के नेतृत्व में हजारो राजपूतो ने लड़ते हुए अपनी जान दी।
जो युद्ध हुआ उसमें बहुत से मुसलमान मारे गए जिनकी कड़ें आज भी बलाई किले में दिल्ली दरवाजे से भन्ज मुहल्ले तक बनी हुई है। इस युद्ध में मुसलमान सफल हुए और उन्होने दुर्ग पर अधिकार कर लिया । जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया उनको छोड़ बाकी को मार डाला गया । यहां एबक को बहुत धन-माल और हजार घोड़े प्राप्त हुए। लेकिन राजपूतों का धर्म रक्षा के लिए संघर्ष अमर हो गया । (सल्तनत काल में हिन्दु प्रतिरोध-डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 123)

गद्दार अजयपाल को बरन नगर की चौधराहट मिल गई और वह मुसलमान बन गया जिसके बाद गौरी ने उसे मलिक मुहम्मद दराज की उपाधि दी। उसके वंशज आज भी उपरकोट इलाके में मिलते हैं जिन्हें चौधरी या तन्ता भी कहा जाता है और 1947 तक ये लोग बुलंदशहर नगर की आधी जमीन के मालिक हुआ करते थे।
इस शाके में क्षेत्र में डोड राजपूत वंश का लगभग खात्मा हो गया और आज बुलंदशहर जिले में सिर्फ एक ही गाँव डोड राजपूतो का मिलता है जहां कई सदियों तक इनका शासन था। अलीगढ़, एटा जिले में कोल, जलाली, अतरंजीखेड़ा आदि से डोड राजपूत लोदी वंश के समय तक शासन करते रहे। जिनमे राव बुद्धसेन और राव मंगलसेन जैसे पराक्रमी शासक हुए। 



जनश्रुतियो के अनुसार राव बुद्धसेन ने गंगा माँ की आराधक अपनी पुत्री के लिए कोल में इतनी ऊँची मीनार बनवाई थी जिसपर चढ़ कर गंगा जी दिखती थीं। यह अंग्रेजो के समय तक थी और उन्होंने बिना किसी कारण उसे डहा दिया। राव मंगलसेन जलाली या अतरंजीखेड़ा से शासन करते थे और उन्होंने कई बार तुर्को का मुकाबला किया। एटा, मैनपुरी क्षेत्र के जिस राजपूत राजाओ के संघ से लड़ते हुए युद्ध में बहलोल लोदी की मौत हुई थी उसमे राव मंगलसेन प्रमुख थे। लोदी शासको से लड़ते हुए ही अतरंजीखेड़ा में राव मंगलसेन के नेतृत्व में शाका हुआ और आज अलीगढ़ जिले के कुछ ही गाँवों में डोड वंश के राजपूत हैं।
मेरठ, मुरादाबाद जिलो में भी पवार वंश के कुछ गाँव मिलते हैं लेकिन वो डोड शाखा से हैं या नही इसकी पुष्टि नही हो पाई है।




लेकिन सबसे दुर्भाग्य की बात है कि बुलंदशहर में उपरकोट से थोड़ी दूरी पर जहां ख्वाजा लाल अली को राव चंद्रसेन ने मौत के घाट उतारा था वहां आज उसकी मजार है जहां मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू मत्था टेकने जाते हैं लेकिन राव चंद्रसेन का स्मारक होना तो दूर बुलंदशहर के क्षत्रिय समाज के लोग तक उनके बारे में जानकारी नहीं रखते।

क्षत्रिय समाज का इतना विशाल इतिहास होने के बावजूद क्षत्रिय समाज अपने इतिहास और पूर्वजो के प्रति जितना उदासीन है उतना दुनिया में कोई और समाज नही है। उत्तर भारत के मैदानों में ही ऐसी मुसलमानों की हजारो मजारे मिल जाएंगी जो राजपूतो के हाथो मारे गए और उन्हें गाजी पीर आदि मान कर पूजा जाता है लेकिन इन्ही मैदानों में हजारो राजपूत योद्धा तुर्को मुगलों से लड़ते हुए खेत रहे जिनके बलिदान के कारण आज हम गर्व से अपने को राजपूत कह पाते हैं लेकिन इन योद्धाओ में से किसी की स्मारक या समाधी होना तो दूर इनके बारे में इनके वंशजो को ही कोई जानकारी नही है ! जिस तरह गुजरात में जगह जगह राजपूत योद्धाओ की समाधियाँ हैं और विस्तार से उनका इतिहास लिखा हुआ है जिस कारण सर्व समाज वहां के राजपूतो का सम्मान करता है उसी तरह उत्तर भारत में भी स्थानीय राजपूत इतिहास को संगृहीत कर हर जिले में कम से कम एक स्मारक ऐसा बनना चाहिए जिसमे उस जिले के इतिहास में क्षत्रिय समाज के ज्ञात अज्ञात हर बलिदानी को श्रधान्जली दी जा सके।
सन्दर्भ- बुलंदशहर गज़ेटियर 1901


MAHARAJADHIRAJ CHANDRASEN DOD

BARAN- In 1193 kutb-ud-din apeeared before baran (Bulandsheher).which was for some time strenuously defended by the Dod Maharaja ChandraSen; but through the treachery of his kinsmen Jaypal Dod and his servant Hira  Das, brahman, the fort was taken.

MAHARAJA CHANDRASEN perished in the assualt but not before he had killed with an arrow Khwajah Lal Ali, whose Dargah still exist to the east of the balai kot to the present day.


The traitor ajaipal was rewarded  wih the title  of Malik Muhammad Daraz Kad. His descendants are still properietors of the portions of the township of baran and profess to have a document in their possesion conferring the right of CHAUDHARISHIP upon them.

The resisting Dod tribe remainants in adjoining areas after the qutub- ud-din  retreat.. were too came in their conquest way who lent his influence against the remaining Dod royals and raised a monument to commemorate a victory that he gained over them . The Dods rapidly decline after the conquest and posses only one entire village in the district.In 10 18, 

The traitorous Hindu accepted the faith of Islam and the Chaudhriship of Baran, where his descendants still reside, and own some small landed property. 


Dor Fortress, one of the major sightseeing attractions, is located on a small hillock in the Upper Kot of the city centre. The testament is named after King Buddhsen Dor., who laid foundation of the testimony.

During olden times, King Dor's court proceedings were organised at the site. Those days the site was known as Mohalla Ghosiyan-Parkatan, which is Police Kotwali's Southern corner at present.

There was a large well, horse stable and a stable for elephants during yesteryears  located in the west of Kotwali. A tall minaret was constructed within this fortress by a Rajput ruler, Mangalsen for his widow daughter who used to view Holy River Ganga from it’s top galleries. The minaret was destroyed due to some reasons by British Governor Admeston in the year 1861-1862.


GINDOLI - JAGMAL IMMORTAL LOVE STORY

 


रिमझिम रिमझिम बरखा की फुहारें पड़ रहीं थीं | महेबा की धरती हरी भरी हो उठी थी | पेड़ों पर नए नए पत्ते उस हरीतिमा में नया उजास पैदा कर रहे थे | मंद मंद चलती पवन और आकाश में तैरती घन-घटाएं सिणली के तालाब व उसकी पाल की शोभा चौगुनी कर रहीं थीं | बादलों की गर्जन के साथ ही मोरों का बोलना और किरतियों के झूलरे सी तीजणियों की कलकल हंसी सिणली के तालाब पर इत्र सी तैर रही थी कि अचानक झूलों की गति थम गई | तीजणियां ‘बचाओ!बचाओ! करतीं चारों तरफ भागने लगी | सुगंध के झोंके की जगह मारकाट और चिल्लाहटें पसर गईं | गाँव तक खबर पहुँचती तब तक पाटण का सूबेदार हाथीखान तीजणियों का हरण कर भाग चुका था | गाँव के लोग हाथ मलते रह गए | महेबा का राजकुमार जगमाल महेबा से दूर था और गाँव में हाथीखान का पीछा करने का बल नहीं था |

महेबा में आक्रोश उतर आया था | यह विक्रम की 15 वीं शताब्दी थी | रावल माला महेवा में तप रहे थे | यह रावल माला अपनी भक्तिमति राणी रूपांदे की संगति में रावल मल्लीनाथ कहलाए | वे जबरदस्त योद्धा और संत हुए हैं | आज उन्हीं के नाम से यह अंचल मालाणी कहलाता है | कहावत भी है – 

‘तेरे तुंगा भांगिया माले सलखाणी |’

इन्ही रावल मल्लीनाथ का राजकुमार जगमाल बड़ा ही युद्ध-विशारद, तलवार का धनी और महत्वाकांक्षी था | जब वह बाहर से आया तब उसका खून खौल उठा | गुजरात हाथीखान से टकराने और तीजणियों को मुक्त कराने के लिए कसमसाने लगा | उसकी आँखों में खून उतर आया था | उसने अपने प्रधान भौपतजी हुल से कहा –‘ ठाकरां ! देश की इज्जत उतार कर हाथीखान ज़िंदा बैठा है और हम हैं कि अन्न खा रहे हैं | धिक्कार है इस तरह ज़िंदा रहने पर | भौपतजी तब नम्रता से बोले थे – ‘कंवरां ! धेजो राखो | अगर इस अपमान को ब्याज सहित नहीं धोया तो मेरा नाम भी भौपत हुल नहीं | मैं गुजरात की छाती चीर कर तीजणियों को इसी महेबे में लाऊँगा और सिणलै तालाब की पाळ पर वे आपको लूहरें गातीं और झूले झूलतीं दिखेंगी | पर राजकुमार जगमाल को चैन कहाँ? उसने तो पगड़ी नहीं बाँधने, हजामत नहीं बनाने और धुले कपडे नहीं पहनने की प्रतिज्ञा कर ली, आखड़ी ले ली | सिर पर काला कपड़ा बांध लिया | वह अहमदाबाद पर चढ़ाई करने की योजना बनाने लगा |

उधर तीजणियों का बुरा हाल था | लुटी-पिटी वे पाटण के किले में कैद कर दी गईं | हाथीखान लुटेरा था, जो अहमदाबाद के सेनापति महमूद बेग को सदैव प्रसन्न रखने का प्रयत्न करता था | इस बार अच्छा मौक़ा था, अपने मालिक को खुश करने का | यद्यपि उसके सैनिक-सिपहसालार चाहते थे कि इन रूपसी-तीजणियों का बंटवारा कर लिया जाय, पर उसने किसी की भी नहीं सुनी | उसे अपने की नजरों में चढ़ने का लोभ थाऔर वह उसे पूरा करने की योजना बनाने लगा था | 

इधर पाटण के किले में बंद तीजणियों ने अन्न-पानी लेने से इन्कार कर दिया था | वे हाथीखान से बोलीं थीं – ‘ हरामी! ऐसे जीवन से तो हम मरना पसंद करेंगी | लानत है ऐसे जीने पर | मन में भी पर-पुरुष का नाम आना पाप समझतीं हैं हम |’ सुनकर हाथीखान उबाल खा गया था | पर होनी को कुछ और ही मंजूर था | इस घटना की खबर अहमदाबाद पहुँच गयी थी | महमूद बेग की पुत्री शहजादी गींदोली ने इस खबर को सुना | तीजणियों के प्रण से वह प्रभावित हुई | उसे आश्चर्य हुआ कि कोई राजपाट भी ठुकरा सकता है ? उसे इन रूपसियों ने ललचाया | अपने पिता महमूद बेग से गिंदोली बोली – 

‘ अब्बा हुजूर ! सुना है आपके सिपहसालार हाथीखान ने महेबा लूटा है और लूट का बहुत सा माल लाए हैं | ‘तुमने ठीक सुना है शहजादी ! हाथीखान एक बहादुर सिपाही है, उसने हमारा नाम रौशन कर दिया है|’ 

‘पर सुना है अब्बा हुजूर ! सुना है कि लूट में वे औरतें भी लाए हैं और उसे आपके हरम में भेजना चाहते हैं, यह तो ठीक नहीं है अब्बा हुजूर!’

‘मर्दों की बातों में दखलंदाजी नहीं किया करते हैं, शाहजादी !’ महमूद बेग तीखेपन से कह तो गया, पर जब शाहजादी गिंदोली की आंखों में आंसू देखे तो वह तड़फ उठा – रोओ मत ! रोओ मत ! मेरी दुलारी, क्या चाहती हो तुम?’ 

‘मैं उन औरतों से मिलना चाहती हूँ अब्बा हुजूर ! सुना है उन्होंने अन्न-पानी छोड़ दिया है | फिर वे जिन्दा कैसे रहेंगी अब्बू !’ गिंदोली ने भोलेपन से पूछा तो महमूद बेग बड़बड़ाया – ‘यही तो मुसीबत है ! मरने पर तुल जाती है ये हिन्दू औरतें | लाहौलविलाकुब्ब्त ! किसी की किसी की बात मानती भी तो नहीं है ?’

पर शहजादी गिंदोली ने अपने अब्बू को मना लिया था | वह तीजणियों से मिलने पाटण जा पहुंची | उन तीजणियों की हालत देखी तो उसका हृदय चीख उठा | वह सुख-सुविधाओं में पली थी, तकलीफ कैसी होती है, वह जानती ही नहीं थी | बंदी औरतों को देखकर वह सिहर उठी | उसने एक तीजणी से कहा – ‘ बहन! क्यों सता रही हो, अपने आप को ? मान जाओ इन लोगों की बात | औरत को आखिर क्या चाहिए घर-बार, धन-दौलत, देह-सुख ? महेबा से तुम्हें यहाँ ज्यादा सुख मिलेगा | मेरी बात....., शहजादी ने वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि एक झन्नाटेदार हाथ पड़ा, उसके गाल पर | उस औरत ने थू कहते हुए थूक दिया था जमीन पर | शहजादी की रुलाई फूट पड़ी | सैनिकों ने उस औरत की पिटाई करनी शुरू कर दी थी, पर गिन्दोली ने उन्हें रोक दिया था | गिंदोली ने आखिरकार उन तीजणियों को मना ही लिया था| उसने आश्वासन दिया कि वह उन्हें यहाँ से निकालने में मदद करेगी | तीजणियां रोटी-पानी लेने लगीं थीं |

शहजादी गिंदोली ने अपने अब्बा से कहकर पाटण के एक बाग़ में उन तीजणियों को ठहरा दिया| ‘अच्छी जगह पर रखने और अच्छे व्यवहार से शायद रूपसियों का मन बदल जाय |’ महमूद बेग भी खुश था | हाथीखान अपनी तरक्की इंतजार कर रहा था | उसने पाटण के बाग़ की चौकसी के पुख्ता प्रबंध कर दिए थे | समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था | 

उधर प्रधान भौपतजी हुल परेशान था | कुंवर जगमाल जब जिद ठान लेते हैं तो उसे पूरा करके ही दम लेते हैं | पर पाटण के किले को भेदना और तीजणियों को छुड़ाना बड़ा ही टेडा काम था | महेबा की शक्ति और सामर्थ्य से बाहर | पर वह हार मानने वाला नहीं था | उसने अपने हेराऊ (जासूस) पाटण भेज दिए थे और वह तैयारी कर रहा था | कुंवर जगमाल का मान कैसे रखा जाय, प्रधान हुल इसे अंजाम देने में लगा था | वह घोड़ों को घी पिला रहा था, पाटण और अहमदाबाद के मार्गों पर उन्हें दौड़ा रहा था, ताकि जब अवसर आए तब वे अड़ें नहीं | भौपतजी हुल ने अपने विश्वस्त साथियों में से इक्कीस जवान छांट लिए थे | उन्हें पाटण के मार्गों से परिचित कराया | 

दिन और रात अपनी गति से चल रहे थे | प्रधान हुल बाट देख रहा था और आखिरकार अवसर हाथ आ ही गया | पाटण में गणगौर की सवारी ठाट-बाट से निकली | पूरे सुरक्षा घेरे में सवारी थी और शहजादी गिंदोली भी शाही सवारी में गणगौर के काफिले के साथ चल रहीं थीं | वह आई तो तीजणियों को मानाने थी, पर उनके सानिध्य में पाटण की होकर रह गई थीं |हाथीखान भी खुश था, वह शहजादी की खुशामद में लगा था, शायद शहजादी रीझ कर उसे ही पति बना ले | फिर तो पूरे गुजरात में उसका डंका बजेगा | शहजादी गिंदोली की वह हर इच्छा पूरी कर रहा था | इसीलिए न चाहते हुए भी उसने शहजादी को गणगौर की सवारी देखने जाने दिया | 

तीजणियों के बगीचे की चौकसी बढ़ा दी थी | शायद त्यौहार का फायदा उठाकर जगमाल यहाँ तक नहीं पहुंच जाय | पर जो डर था, वह नहीं हुआ और जिसका डर नहीं था, वह हो गया | प्रधान भौपतजी हुल के प्रशिक्षित साथी अचानक प्रकट हुए और गिंदोली को पालकी से उठाकर छूमंतर हो गये | जैसे धरती फोड़कर निकले हों और आकाश में समा गये हों | बस भौपतजी हुल के शब्द हाथीखान के कानों में गूँज रहे थे –‘ महेबा के कुंवर जगमाल का प्रधान भौपत हुल शहजादी को ले जा रहा है, हिम्मत हो तो पकड़ लो |’

और फिर पाटण-अहमदाबाद के मार्गों पर दौड़े हुए प्रधान भौपत हुल के एराकी-घोड़े बाज की तरह महोबे के मार्गों पर झपटने लगे | हाथीखान के घुड़सवारों ने जब तक पचास कोस तय किए, तब तक प्रधान भौपत हुल के एराकी-घोड़े महोबे की राजधानी खेड़ पहुँच चुके थे | मैले कपड़े, बढ़ी हुई दाढ़ी और काला कपड़ा सिर पर बांधे कुंवर जगमाल उदास बैठे थे, कि प्रधान भौपत हुल ने जुहार कर कहा –‘महमूद बेग अहमदाबाद के सेनापति की शहजादी गिंदोली हाजिर है हुकम ! गुजरात की सबसे बड़ी तीजणी |’ 

मलिन मुख जगमाल ने देखा, जैसे आसमान का चाँद धरती पर उतर आया हो | गिंदोली थर-थर काँप रही थी | वह चेतना-शून्य सी हो गई थी | जगमाल ने खारी नजरों से भौपतजी हुल को देखा और बोले – ‘वाह ठाकरां, वाह ! अच्छा बदला लिया, अच्छी रजपूती दिखाई | मुझे तीजणियां चाहिए, किसी दूसरे की बहन-बेटी नहीं |’

‘इसीलिए तो यह सब किया है कंवरां ! अब तो हाथीखान खुद हाजिर होगा तीजणियों को लेकर |’

हुल की नीति सुनकर जगमाल चुप हो गया | हुल ने गिंदोली का अलग डेरा लगा दिया | पूरी चौकसी बरती गई | गिंदोली को सातों सुख थे, पर वह बंदिनी थी | अब उसे तीजणियों की स्थिति मालूम हुई | 

‘सच्चा सुख स्वतंत्रता है, मन का सुख |’ उसे एक तीजणी की कही बात याद आई | एक तीजणी ने उसे कहा था – ‘ कंवर जगमाल और भौपतजी हुल हमें जरूर छुड़ाने आयेंगे |’ एक दूसरी बोली थी – ‘जगमाल की तलवार का पानी अभी मरा नहीं है शहजादी !’ तीसरी ने कहा था – ‘ जगमाल जोधा है |’ ‘जगमाल रणबंका है |’ जगमाल महेबे का रतन है |’ तीजणियों की बातें सुनते सुनते उसके कान पक गये थे | वही रणबंका जगमाल आज गिंदोली के सामने था | पर जगमाल के मन में गिंदोली के प्रति कोई आकर्षण नहीं था | आँखें तक नहीं मिलाई थीं उसने | कैसा है यह जगमाल ? उसके मन में जगमाल के लिए पहली बार एक अंकुर फूटा | दूसरे दिन जगमाल उसके डेरे में हाजिर था | छाया की तरह साथ में भोपत हुल | जगमाल की तरह के मलिन वेश-भूषा में पचासों योद्धा, सिर पर काले कपड़े लपेटे, दाढ़ियाँ बढाए | गिंदोली की सेवा में लगी डावड़ी ने भी जगमाल की वीरता का वैसा ही वर्णन किया जैसा वर्णन तीजणियों ने किया था | वही जगमाल आज उसके डेरे में आया था | गिंदोली के मन में फिर एक लहर उठी, उसे नजर भर देखने की | पर वह परदे की ओट से ही बोला – ‘शहजादी ! प्रधानजी आपको उठा लाए, इसके लिए मैं शर्मिंदा हूँ| आपको आपके अब्बा हुजूर के पास बाइज्जत पहुंचा दिया जायेगा, बस आप अब्बा हुजूर को तीजणियों को छोड़ने का कागद लिख दें |’ 

गिंदोली ने सिर हिलाकर स्वीकृति दे दी थी | वह तो तीजणियों की मुक्ति चाहती ही थी | उन्हें छुडाने की तजबीज देख ही रही थी, कि उसका खुद का अपहरण हो गया | महेबा के लोग उससे मिले थे | तीजणियों के सम्बन्धी माँ-बाप, बहन-भाईयों को उसने आश्वस्त भी किया था | यद्यपि वह खुद अपहृत थी, पर अब वह खुश थी | उसके मन में एक चाहना पनपने लगी थी |पर उसके फलवती होने में बड़ी देर थी | बड़ा फासला था |

गिंदोली के कागद का जवाब महमूद बेग ने तुरंत ही दिया था, बड़ी उतावली के साथ | वह अपनी बेटी को देखने को तड़फ रहा था | गिंदोली उसे जान से भी प्यारी थी, उसे छुडाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था | वह हाथीखान को उस दिन के लिए कोसने लगा, जिस दिन वह तीजणियों का अपहरण कर लाया था | न तो हाथीखान तीजणियों का अपहरण कर लाता और न ही शहजादी दुश्मन के हाथों में पड़ती | पर अब क्या हो सकता था ? वह बेबस बैठा हाथ मल रहा था कि जगमाल का दूत गिंदोली का कागद लेकर पहुंचा | उसके जान में जान आई | दूत को उसने मान-सम्मान के साथ विदा किया और अपना हरकारा संदेश के साथ महेबे दौड़ाया | जगमाल का दूत वापिस पहुंचता उससे पहले ही महमूद बेग का हरकारा खेड़ पहुँच चुका था | लिखित फरमान लाया था हरकारा | उसने सन्देश पढ़ा – ‘अहमदाबाद के जाँबाज नवाब महमूद बेग ने फरमाया है कि आपके प्रधान ने बड़ा ही खराब काम किया है | इसे हम कभी भी माफ़ नहीं करेंगे |’ दूत के वाक्य पूरा करने से पहले ही भौपतजी हुल की तलवार म्यान से बाहर निकल आई | कुंवर जगमाल ने उसे शांत किया |

‘अपनी बात आगे बढाओ दूत |’ जगमाल शान्ति से बोला | दूत बोला – ‘नवाब साहब अपनी शहजादी के बदले में तीजणियों को छोड़ने को तैयार हैं, पर पहले शहजादी को हमारे साथ भेजना होगा |’ दूत के लिए आराम की व्यवस्था कर जगमाल ने प्रधान के साथ विचार-विमर्श किया | यह टी रहा कि नवाब तीजणियों को लेकर मालाणी की कांकड़ तक आए और बदले में शहजादी को ले जाए | दूत जवाब लेकर चला गया | जगमाल तीजणियों के आने के दिन का इन्तजार करने लगा | 

गिंदोली अपने डेरे में अपनी आजादी के दिन का इन्तजार कर रही थी, पर उसके मन पर जगमाल की तस्वीर रचने लगी थी | जगमाल राजपूती का प्रतीक था | वीरता का दहकता पुंज | शौर्य का आगार | खूबसूरती का खजाना | पौरुष का प्रतीक | घोड़े दौडाता, तलवार चमकता जगमाल | 

गिदोली के मन पर छाने लगा था वह रूप | तीजणियों के साथ हुई उनकी बातचीत उसके मन में उभरने लगी | ‘हिन्दू नारी जीवन में एक ही पुरुष की कामना करती है शहजादी ! हम सात जन्मों में भी वही वर चाहती हैं |’ गिंदोली परेशान हो रही थी | उसके मन में जगमाल की तस्वीर बन रही थी और जगमाल था कि पर्दा हटाकर उसे एक नजर भी नहीं देख रहा था | नवाब के दूत का संदेश लेकर आने पर जगमाल स्वयं गिंदोली से मिला था | पर्दे की ओट से ही उसने बात की थी – ‘शहजादी ! आपके अब्बा हुजूर का सन्देश आया है, आप जल्द ही आजाद होंगी | हमें हमारी तीजणियों के आने का इन्तजार है | इस बीच आपको इस तकलीफ में रखना पड़ रहा है, इसके लिए हमें अफ़सोस है |’

जगमाल का पौरुष में सना स्वर, उसका संयम, उसकी इंसानियत गिन्दोली की आत्मा में उतर गई | जगमाल को उत्तर उसके मन ने दिया | उसके मन ने तड़फ कर कहा – ‘कुंवरजी ! मुझे नहीं जाना अहमदाबाद के महलों में | आपके खेड़ का यह डेरा ही मेरा जीवन है |’ पर वह कह नहीं सकी | उसके बीच हिदू-मुसलमान की दीवार खड़ी थी | बादशाह अलाऊद्दीन की पुत्री और सोनगरा वीरमदेव की कहानी वह सुन चुकी थी | मरने से पहले तक वीरमदेव ने ‘हाँ’ नहीं कही थी शादी की | ‘पर प्रेम जात-पांत नहीं देखता है |’ गिन्दोली का मन बोल उठा | मैं शादी करूंगी तो जगमाल से ही | उसने मन ही मन जगमाल का वरण कर लिया | वह अपनी डावड़ी से हिन्दू रीति-रिवाज पूछने लगी थी | डावड़ी हंसकर बोली थी – ‘शहजादी साहिबा ! आप क्यों पूछ रहीं हैं यह सब ?’ तब गिंदोली ने उसे अपने मन की बात बताई थी | डावड़ी का तो मुंह खुला का खुला ही रह गया था | वह चेतना लौटने पर बोली – ‘ऐसा संभव नहीं है शहजादी, यह सब तो किस्से-कहानियों में होता है |’ फिर तो में भी एक किस्सा बन जाऊंगी |’ कहते हुए वह डावड़ी से लिपट गई थी | उसने डावड़ी से अलग होते हुए कहा – ‘ मेरी बहना ! प्रेम छोटा-बड़ा, जात-पांत, मान-अपमान नहीं देखता है | 

जिसको मन चाहने लगता है तब संसार में उसे दूसरा दिखाई ही नहीं देता है |’ डावड़ी की तो दुनिया ही बदल गई | एक गुलाम को शहजादी ने बहन कहा | उसकी आँखें बहने लगीं | गिंदोली ने उसे फिर प्रेम से चिपकाकर थपकी दी | डावड़ी बहनापा जताते बोली – ‘भगवान करे आपकी जोड़ी सारस और चकवा की जोड़ी बने |’ गिंदोली के पौर-पौर में प्रेम का तार समा गया | चकवा और सारस के बाद वह तीसरी जोड़ी बनाएगी – ‘गिंदोली-जगमाल’ | उसके मन का प्रेम हँस पाबासर में तैरने लगा | उसके मन में प्रेम फुहार बरसने लगी | वह उस फुहार में नहाने लगी | उसके मन-सरोवर में प्रीत-कमल खिलने लगे | मन हिरणी सा प्रेम की कुलांचें भरने लगा | जगमाल की बोली उसके रोम-रोम में समा गई | इधर गिन्दोली प्रेम समन्दर में नहा रही थी, उधर इन सबसे अनजान था जगमाल | उसकी तो चिंता थी, तीजणियों को जल्द से जल्द महेबा लाने की | उसने प्रधान हुल से कह रखा था – ‘प्रधानजी ! कहीं हाथीखान धोखा तो नहीं देगा ? हम तीजणियों के महेबे की धरती पर पाँव धरने के बाद ही शहजादी को छोड़ेंगे |’

पर अड़ गया था हाथीखान – ‘पहले हमारी शहजादी हमारे पास आएगी, फिर हम तीजणियों को छोड़ेंगे | महेबे की धरती पर तीजणियों के पाँव पहले नहीं पड़ सकते |’ जगमाल को इस झंझट का पता था | उसने भी तलवार म्यान से बाहर निकाल ली थी – ‘किसकी तलवारों में पानी है जो कांकड़ पर आई हुई तीजणियों को रोक सके ?’ हाथीखान इस जवाब के लिए तैयार नहीं था | ऐसा बढ़ता जवाब दिया था जगमाल ने कि उसके मन ने चाहा कि महेबे की धरती को रौंद डाले ? पर सवाल शहजादी का था | वह मन मसोस कर रह गया | तीजणियों और शहजादी को एक खुले मैदान में लाया गया | महमूद बेग ने पहले तीजणियों को छोड़ने का हुक्म दिया | इधर शहजादी जाकर अब्बा के कलेजे से लिपट गई | प्रधान भौपतजी हुल सावधान था | तीजणियों को सुरक्षित घेरे में खेड़ रवाना किया ही था कि हाथीखान जगमाल के दल पर टूट पड़ा | पर यहीं भूल कर गया था हाथीखान | जगमाल के तीन तालियाँ बजाते ही सैकड़ों-हजारों जगमाल प्रकट होने लगे | बड़गड़ां बड़गड़ां बड़गड़ां घोड़े दौड़ने लगे | खचाक खचाक खचाक तलवारें चलने लगीं | रुण्ड तलवारें चलाते धरती पर गिरने लगे | मुंड हवा में उड़ने लगे | जिधर देखो उधर ही काला कपड़ा सिर पर बांधे, मैले वस्त्र पहने, बढ़ी हुई दाढ़ियों के साथ शत-शत योद्धा | हाथीखान और महमूद बेग जान बचाकर भाग छूटे | उसकी सेना में अफवाह फैल गयी थी कि जगमाल को भूत सिद्ध है |चारों तरफ जगमाल जैसे हजारों भूत | जगमाल की इस युद्ध-पद्धति का शिकार हो गए थे हाथीखान और महमूद बेग | चारों तरफ जगमाल के लोकाख्यान तैरने लगे थे –

पग पग नेजा पाड़िया, पग पग पाड़ी ढाल |

बीबी पूछे खान ने, जग कैता जगमाल || 

रोता- पिटता महमूद बेग अहमदाबाद पहुंचा |जगमाल के भूतों से घबराया वह शहजादी को भी भूल गया | शहजादी वहीं छूट गई थी, महेबे की कांकड़ पर | पर अब क्या हो सकता था ?

और उधर महेबे में घर-घर में घी के दीप जल उठे | बरखा की फुहारों से महेबे की धरती भीग उठी | रूंखों की डालों पर फिर झूले लहराने लगे | 

जगमाल ने उस दिन नए कपड़े पहने | सिर पर केसरिया पाग बाँधी | दाढ़ी बनाने के बाद सांवला मुखड़ा खिल उठा | अपनी नोकदार मूंछें संवारता वह अपने डेरे से निकला ही था, कि डावड़ी ने आकर जुहार की – ‘खम्मा घणी हुकम ! शहजादी गिंदोली तो अपने डेरे में ही बैठी है | 

‘शहजादी अपने डेरे में बैठी है ? ऐसा कैसे हो सकता है ?’ जगमाल उतावली से बोला | डावड़ी बोली – ‘हुकम आप खुद चलकर अपनी आँखों से देख लें |’ जगमाल गिंदोली के डेरे पहुंचा | सामने खड़ी शहजादी गिंदोली मुस्करा रही थी | आज बीच में कोई पर्दा नहीं था | शहजादी जगमाल को एकटक देखती खड़ी रही | जगमाल जड़ हो गया था | 

उसने कहा – ‘शहजादी आप यहाँ ?’ 

‘हाँ कंवरां ! मुझे महेबा छोड़ना अच्छा नहीं लगा ?’ 

‘पर आप यहाँ कहाँ रहेंगी, आपके अब्बा हुजूर परेशान होंगे, हम आज ही आपको अहमदाबाद पहुंचाने का प्रबंध कर देते हैं |’ एक ही सांस में कह गया जगमाल |

पर गिन्दोली ने जाने से इन्कार कर दिया | उसने अपने मन की बात बता दी थी जगमाल को - ‘वह यहीं रहेगी, महेबे में, खेड़ में |’ प्रकट ही शहजादी बोली – ‘मैंने आपको पति स्वीकार कर लिया है, अब इस जन्म में तो आप ही मेरे पति हैं|’ जगमाल हतप्रभ रह गया | ‘यह क्या हो गया?’ उसने सपने में भी कभी ऐसा नहीं सोचा था ? उसके सामने धर्म-संकट पैदा हो गया | ‘वह यह सम्बन्ध स्वीकार नहीं सकता | दुनिया क्या कहेगी ?’ उसने मन ही मन सोचा और गिन्दोली से बोला – ‘शहजादी ! ऐसा नहीं हो सकता ? दुनिया क्या कहेगी?’ पर गिंदोली ने भी निर्णय सुना दिया था- ‘ वह यहीं रहेगी|’ बात महेबे के घर-घर में फैल गई |’ ‘गिंदोली कुंवर जगमाल से प्रेम करती है |’ जितने मुंह उतनी बातें | लोग जगह जगह चर्चा करने लगे | आखिरकार जगमाल शहजादी से बोला – ‘शहजादी साहिबा ! हमारी इज्जत पर बन आई है, आप मान जाएं, मैं आपको अहमदाबाद पहुंचाने की व्यवस्था कर देता हूँ |’

पर शहजादी अपने निश्चय पर अटल थी, अविचलित | बात उन तीजणियों के कानों तक भी पहुंची, जिनकी आपातकाल में शहजादी गिंदोली ने सुरक्षा की थी | ‘गिन्दोली जगमाल से प्रेम करती है | उसने जगमाल को पति रूप में स्वीकार कर लिया है | पर कुंवर जगमाल के सामने जात-धर्म आड़े आ रहे हैं |’ तीजणियों के मन को ठेस लगी | शहजादी ने उनकी संकट काल में मदद की थी, इस समय शहजादी संकट में है, हमें उनकी मदद करनी चाहिए | तीजणियों ने एक दूसरे से सम्पर्क किया | उन्होने अपने अपने घरों में चूल्हे नहीं जलाए | अन्न-जल नहीं लिया | लोगों ने रावल मल्लीनाथ के पास जाकर पुकार की |रावल मल्लीनाथ ने जगमाल को समझाया | रावल मल्लीनाथ जात-धर्म से ऊपर उठे योगी थे | जगमाल गिंदोली के प्रेम की तरलता के आगे पराजित हो गए | उनकी आँखों में भी गिंदोली का प्रेम लहरा उठा | पाबासर का प्रीत का हँस जगमाल के मन-सरोवर में तैरने लगा | उसने गिंदोली के डेरे की तरफ कदम बढाए | हवाओं में खुशबू तैरने लगी | रूंखों पर प्रीत के पंछी कलरव करने लगे | शहजादी गिंदोली की सवारी महलों की तरफ बढ़ने लगी थी | तीजणियों ने इस प्रीत की स्वीकृति की तान छेड़ी –

आगे आगे गींदोलणी 

पाछै जगमाल कुँवार 

धीर रो ए जगमाल कुँवार 

म्हारौ छैल रुस्यौ जाय ए, गींदोलणी |

आज भी गिन्दोली-जगमाल की प्रीत के गीत गाए जाते हैं | गणगौर भौळाने (विसर्जन)के दिन सारा राजस्थान इस प्रीत को याद करता है | तीजणियाँ आज भी शहजादी गिंदोली याद करती घूमर रमती हैं | प्रेमी चितवनों में आज भी पाबासर के हँस तैरने लगते हैं | लोकाख्यानों में इस अमर - प्रीत का यह दोहा पाबासर के हँस सा तैर रहा है –

गींदोली गुजरात सूं, असपत री धी आण |

राखी रंग-निवास में, थें जगमाल जुवाण ||



GARHMUKTESHWAR - DOR, DODA / BARAN, HARIPUR, KOIL - IMMORTAL RAJPUTS





COLONEL JAMES TOD QUOTE REGARDING DOR OR DODA TRIBE OF RAJPUTS :-

We have little to say of this race, though occupying a place in AU the genealogies,
Time has destroyed all knowlege of the past history of the Doda tribe, 
To gain a victory over whom was deemed by prithviraja worthy of a tablet.

The Dors give a' curious account of the derivation of their tribal name. They state that one of their kings offered his head to some local goddess, and was thus called Dundy which was afterwards corrupted into Dor, They claim kinship with the country and their name is certainly found in the genealogical tables of that tribe. The Dors are supposed to have emigrated from the middle to the upper Doab, early in the 9th century. They appear to have held a large tract of country between the Jumna and the Ganges, long anterior to the Muhammadan invasions. Hardatta, a Dor chieftain, who founded Meerut and built Hapur (Haripur), preserved possession of his family domain at Baran (Bulandshahr) by paying a large ransom to Mahmud of Ghazni. About the beginning  lof the 12th century, the power of the Dors began to wane- They were attacked by Meos, who at last became such a source of trouble to the Dor Raja, that he was glad to call in others to aid him in restoring order. A large hand of Bargurjars were on their way from ' Alwar to aid Pirthviraj in his war with the Mahoba Chandels. To Raja Partap Singh, the leader of the party, was entrusted the duty of subduing the Meos, and after a long and determined struggle he succeeded in driving them out. As a reward the Dor Raja gave him his daughter in marriage, with a dowry of 150 villages. The Bargurjars remained nominal feudatories of the Dors until 1193, when the latter were again attacked by the Mosalmins under Kutub-ud-din Aibeg, who captured Meerut and Baran. 

King Chandra Sen who was the Dor Raja at this time, repelled the attacks of the enemy with great vigour, until betrayed by his kinsman Ajaipal, and a confiden- tial Brahman retainer. King Chandra Sen perished in the assault of his fort, but not before he had killed with an arrow Khwaja Lal Ali, the leader of the Muhammadan troops. 

The power of the Dors rapidly declined after this, and the clan has now but little influence and no land. 

History. Geographical distribution 

The Rajputana Dors are found in small number in Mewar and Dungarpur. In the North-West Provinces they are chiefly settled in _ .... til® Meerut, Aligarh, Bulandshahr, Moradabad and Banda districts. Their total male population is about 1,000. A few Dors are also scattered through- out the Sagar district of the Central Provinces.

Dors contract marriages with Rajputs of the following clans Give their daughters to Take wives from Gahlot* Gaur.
To qwan Janghra Chauhan. Gautam* Bargurjar* Katheriya. Chauhan• Samwal. Pundir. Jhotiyana*

ALIGARH - ( KOIL )
  

The town of Kol or Koil is of undoubtedly great antiquity. Legend connects the foundation of Koil with the Dor tribe of Rajputs, of whom so much has been said in the Bulandshahr District. The story runs that in 429 Sambat (or 372 A.D.) Raja Vikrama Sen, of the Dor tribe, ruled at Baran (Bulandshahr), and his brother Kali held Jalali, 

Vikrama Sen had two sons, Indur and Mokindur; the former succedcd his father in Baran, and the latter his uncle at Jalali. 

Mokindur was succeeded by Gobind Sen, and 

He by Nahar Singh, the founder of Sambhal. 

After him came his grandson Dasrath Singh, the founder of Jalesar, who, dying childless,

Succeeded by his brother Bijai Ram, and 

He was followed by Budh Sen.

 "One day as Budh Sen was riding from Jalali to Dehli, considerably ahead of his followers, he came to a jhil (called in old Hindi 'koV) and dismounted. Whilst waiting for his retiune a fox came up and barked at him, which so irritated the Raja that he drew his axe and struck the fox.
The fox retreated to a hole and continued to bark at the Raja and attack him until his suite arrived. 
After consoling their master, they suggested that there must be some excellent inherent quality in the soil which had imparted to a contemptible creature like the fox, vigour and audacity enough to enable him to set at nought a royal Rajput; and  that therefore it would be a desirable site for the foundation of a city and fort. Raja Budh Sen, after consulting his astrologer, found that it was an auspicious moment for the purpose, so at once he dug up a little clay from the jhil with his own dagger, and laid the foundation of a city which he named Koil after the jhil. 

In a few years the fortress and city were finished, and the seat of government was removed from Jalali to Koil, which became the capital of a large kingdom, comprising Patiali, Jalesar, Budaon, Sambhal, Kampil, and Baran. 

After a reign of 55 years the Raja was suoceeded by his son Mangal Sen. Thelatter made an alliance with the Raja Bena of Atranji and Etawa, and gave his danghter Padmavati in marriage to the heir of the Etawa Raja. 


On Raja Bena's death his sons deposed and murdered their eldest brother, and Padmavati returned a widow to her father's house at Koil. She became a devotee of Ganga, and her father built for her a lofty column in the centre of his fortress, from whence she might be able to view daily the sacred river. Another version of the legend is that the unfortunate Padmavati was built up alive in this column".



This much, however, may be said, that some time before the Musalman invasion the district was held by the Dor Rajputs, and that in the time of Mahmud of Ghazni the chief of the Dors was Hardatta of Baran. 

Koil continued an outpost of the Raja of Baran until the close of the twelth century.Kutubuddin, fully trained in treachery by his Muslim masters, feigned friendly alliance with the Dor Rajputs who ruled in Bulandshahr alias Baran, and by deceit and treachery had their leaders kidnapped and held as hostages.


Later under threat of torture and murder of the hostages, he made the Rajput garrisons surrender. Raja Chandrasen, a Dor chieftain put up a brave fight against Kutubuddin but one of his relations, Ajaypal, defected to the Muslim enemy for a big bribe and abetted the destruction of his own patriotic Hindu kinsmen.This victory brought Meerut under Muslim sway. In 1193 A.D. 

Kutubuddin deposed the Tomar ruler of Delhi on the plea that he had failed to show enough hospitality to the barbarous Muslim hordes billeted in the metropolis. That marked the beginning of Muslim rule in India from the throne of Delhi.One of Prithvi Raj's brothers, Hemraj, besieged the Muslim-held fort of Ranthambhore which was garrisoned by Aibak's commander Kiwan-ul-Mulk. 

In Ajmer, some Chauhan noblemen seized power from Prithvi Raj's son who had accepted Ghori tutelage bringing shame to his brave and patriotic father's name and house. 

This shows how dynamic Hinduism never tolerated weak and unpatriotic rulers. Prithvi Raj's son had to flee from Ajmer. Aibak left at the head of Ghori's Muslim desperadoes and re-established Muslim power in Ranthambhore and Ajmer. Prithvi Raj's son was once more restored to his tutelage in Ajmer but the brave Hemraj was still unvanquished. 

The Dor Rajputs of Koil under Raja Anang now reasserted their independence and Aibak had to rush his army across the Yamuna. It was at this time that he captured what has since come to be called Aligarh.The Aligarh town, its so called Muslim University and the so called Muslim residents there ought to recall that day on which Aibak forcibly converted their Hindu ancestors to Islam, and changed the name of the town to Aligarh. 

Their pride in that conversion is totally misplaced. That was a day of personal humiliation, terror and torture to their Hindu ancestors and of shame to entire Hindusthan and Hindudom. India would be a happy and more united country if Aligarh town resumed its ancient name and its citizens once again returned to the Hindu faith which their terrorized ancestors were forced to forsake.



ABOUT DOR FORTRESS-


Dor Fortress, one of the major sightseeing attractions, is located on a small hillock in the Upper Kot of the city centre. The testament is named after King Buddhsen Dor., who laid foundation of the testimony.

During olden times, King Dor's court proceedings were organised at the site. Those days the site was known as Mohalla Ghosiyan-Parkatan, which is Police Kotwali's Southern corner at present.

There was a large well, horse stable and a stable for elephants during yesteryears located in the west of Kotwali. A tall minaret was constructed within this fortress by a Rajput ruler, Mangalsen for his widow daughter Padmawati who used to view Holy River Ganga from it’s top galleries. The minaret was destroyed due to some reasons by British Governor Admeston in the year 1861-1862. 

Some time before the Muslim invasion, Kol was held by the Dor Rajputs. At the time of Mahmud of Ghazni, the chief of the Dors was Hardatta of Baran.[3] Statues of Buddha and other Buddhist remains have been found in excavations where the citadel of Koil stood, indicating a Buddhist influence. Hindu remains indicate that the citadel probably had a Hindu temple after the Buddhist temple.

In 1194, Qutb-ud-din Aibak marched from Delhi to Kol, "one of the most celebrated fortresses of Hind". Qutb-ud-din Aibak appointed Hisam-ud-din Ulbak as the first Muslim governor of Koil.




HAPUR - ( HARIPUR )


In Lok-shruti (local legend) says that Hapur was founded by Dod Ke Sardar, Hardatta, in 983. After this Hapur was called Haripur. It is also said that Hapur came from the word 'Hapar' which means garden. Hapur is located at . It has an average elevation of 213 meters (699 feet). It is bound on the north by Meerut, in the south by Bulandshahr while Ghaziabad form the southern and western limits. Jyotiba phule nagar district lies to the east of the district. The river Ganges forms the eastern boundary and home to the sacred place known as `Garhmukteshwar` where lakhs of people come every year for pilgrimage. The ground is not rocky and there are no mountains. The soil is composed of pleistocene and sub-recent alluvial sediments transported and deposited by river action from the Himalayan region. These alluvial deposits are unconsolidated. Lithologically, sediments consist of clay, silt and fine to coarse sand.


BULANDSHAHER - (BARAN)


This town was earlier known as Vana (वाणा). This was ruled by Dod Kshatriyas, foundation of the town laid by Raja Vikrama Sen of Dod Rajputs. Succeeded Indur sen During reign of Prithvirah the ruler of this area was Anang. Anang had left a grant of v.s. 1233 (1176 AD). According to this grant 16 generations of Dods ruled here. 



When Mahmud Gazanvi attacked Mathura, Bulandshahr was ruled by Hardatt Dod. 

In 1193 kutb-ud-din apeeared before baran (Bulandsheher).which was for some time strenuously defended by the Dod Maharaja ChandraSen; but through the treachery of his kinsmen Jaypal and his servant Hira Das, the fort was taken. 

MAHARAJA CHANDRASEN perished in the assualt but not before he had killed with an arrow Khwajah Lal Ali, whose Dargah still exist to the east of the balai kot to the present day. 




The traitor ajaipal was rewarded wih the title of Malik Muhammad Daraz Kad. His descendants are still properietors of the portions of the township of baran and profess to have a document in their possesion conferring the right of CHAUDHARISHIP upon them.

The resisting Dod tribe remainants in adjoining areas after the qutub- ud-din retreat.. were too came in prithviraj way who lent his influence against the remaining Dod royals and raised a monument to commemorate a victory that he gained over them . The Dods rapidly decline after the conquest and posses only one entire village in the district.

Raja Hardatta, son of Yashodharman dor a leader of the Dor Rajputs, who took possession of Meerut, Koil, and Baran, and built at each place a fort. The ruins known as the Balai Kot, or upper fort, at Bulandshahr are pointed out as the remains of the buildings erected by Hardatta. One of the earliest authentic references in Musalman histories to this district is connected with Raja Hardatta. The author of the 7'dr(kh-i- Yam'mi mentions that in 1018-19 A. D. Mahmud of Ghazni arrived at Baran, the fort of Hardat, who was one of the Rais of the country. When Hardat heard of the approach of the invader he trembled greatly and feared for his life. "So he reflected that his safety would be best secured by conforming to the religion of Islam, since God's sword was drawn from the scabbard and the whip of punishment was uplifted. He came forth, therefore, with ten thousand men, who all proclaimed their anxiety for conversion and their rejection of idols." Baran was there upon restored to Hardatta.
One of the immediate consequences of this raid of Mahmud was a general upheaval of the western tribes and a marked immigration towards the Duah. Tradition has it that the Mewatis or Meos, about this time, entered the district in large numbers and sett!sd towards the southern borders. Undeterred by the presence of the Dors, 1 Duwsou's Elliot, IX., 4».
they pursued their hereditary occupation of thieving and murder, and became such a source of trouble to the Dor chieftain Raja chait singh that he was glad to call in others to aid him in restoring order. A large party of Badgujars were on their way from Raju in Alwar to aid Prithiraj in his war with the Mahoba Chandels. To Raja Part&p Singh, the leader of this party, was intrusted the duty of clearing out the Meos, and after a long and determined struggle he succeeded in ousting them from Pahasu, Dihai, and Anupshahr. He made Chaundera his head-quarters, and gradually acquired other villages by marriage, purchase or violence. The Badgujars were nominally feudatories of the Dors, and the supreme power remained in the family of Hardatta until the arrival of the Mu
salman general Kutb-ud-din Aibak, who in 1193 A.D. Kutb-ud-din, 1193 A. D. captured Meerut and Baran, and- established his own officers in each place as governors. Chandrasen was the king at this time, and he repelled the attacks of the enemy with great vigour until betrayed by his kinsman Ajayapal Dor and his servant Hira Singh, Brahman, the fort was taken.



King Chandrasen perished in the assault, but not before he had killed with an arrow Khwajah Lai Ali, whose dargah still exists to the east of the Balai Kot to the present day. The traitor Ajayapal was rewarded with the office of Chaudhri of Baran, and on his conversion to Islam received the title of Malik Muhammad Daraz Kad. His descendants are still proprietors of portions of the township of Baran, and profess to have a document in their possession conferring the right to the Chaudhriship upon them.1 The governorship was bestowed upon one Kazi Niir-ud-din Ghaznavi, whose descendants still reside in the town and bear the hereditary honorific title of Kazi. Prithiraj, too, lent his influence against the Dors, and raised a monument to commemorate a victory that he gained over them.


The Dors rapidly declined after the conquest, and, now, possess only one entire village in the district. The Meo's date their arrival in the north of the district from the Musalman conquest; they came from Gujrat in the Panjab. The fourteenth century is also marked by a general immigration of Rajptft tribes. The Bhals under Kirat Singh invaded the south of the district and expelled the Meos 

Bhawan Bahadur Naqar, a village of parganah Sayana and tahsil Baran of the Bulandshahr district, lies 5 miles west of Sayana and 16 miles north of the civil station. The population in 1865 was 3,301, and in 1872 was 3,306. It was founded by a Dor Rajput during the rule of that dynasty, t>ut about 1104 A.D. the Dors were supplanted by one Bhojraj Taga, from whose descendants the proprietary right was purchased in 1761 A.D, by the Kuchchesar talukadar. There is a school and a fine masonry haveli here.

the founder of the town, and who are now found all over India. The office of kanungo has been until lately hereditary in their family. One of them, Sital Das, kanungo, mentioned below, immortalized himself by founding a gar.j in the city and calling it by his name. The Chaudhris, called also Tantas, are the descendants of one of the men who in the time of Chandrasen opened the gates of the fort to Muhammad Ghori. For this service he was rewarded by the conqueror with the Chaudhriship of the parganah, and, on his becoming a Musalman, with the title of M&lik Muhammad. These Chaudhris have a bad reputation for irascibility, and have shown themselves to be dangerous and untrustworthy on more than one occasion. True to their blood they aresaid to have opened the gates of the upper town to the Sikhs in 1780, and during the disturbances of 1857 to have been the first to plunder the bazar.

Baran is a place of some antiquity, and even to the present day coins of Alexander the Great and the Indo-Bactrian Kino-8 of History. . upper India are found in and around the town. The
late Mr. G. Frceling collected a large number. Its early history is given in the history of the district (page 82). First called Banchati, it subsequently received the name of Baran from Raja Ahibaran, and again from its position the name of Unchhanagar, which has been Persianised into the form Bulandshahr, or "high town." Hardatta, Dor, who ruled here at the time of Mahmud's invasion of India, bought off the conqueror by large presents, or, as some say by his apostacy to Islam. The last Hindu Raja was Chandrasen, Dor, who gallantly defended his fort against Muhammad Ghori. With his own hand he slew Khwajah Lai Ali, one of the principal officers of the invading army, whose tomb still stands about 900 yards to the east of the town. But his valour was of no avail, since two of the Raja's own servants opened the gates to the enemy. The Raja was himself killed in the defence.