Saturday, February 18, 2017

KOIL (ALIGARH) MAHARAJA CHANDRASEN DOR SLAYER OF - IMMORTAL RAJPUTS


“It is not the honour that you take with you, but the heritage you leave behind. Conserve it.”



आजकल क्षत्रिय समाज द्वारा जगह जगह पर महाराणा प्रताप की जयंती मनाई जा रही हैं जो कि अच्छी बात है लेकिन इस सबको देखकर यह लगता है कि इतने विशाल क्षत्रिय समाज में जिसने कई हजार साल तक भारत पर राज किया, दर्जनों चक्रवर्ती सम्राट इस समाज में हुए, उस समाज में महाराणा प्रताप के अलावा कोई और महापुरुष पैदा ही नही हुआ। यहाँ तक की हर क्षेत्र, हर जिले तक में क्षत्रिय समाज के सैकड़ो महापुरुष रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य से इन महापुरुषों को याद करना तो छोड़ो, समाज के लोगो को इनके बारे में कोई जानकारी तक नही है।

इसी तरह बुलंदशहर जिले में क्षत्रिय समाज की बहुत बड़ी आबादी है और इतिहास में अनेको क्षत्रिय महापुरुष इस जिले में पैदा हुए हैं जिनके बारे में यहाँ के बड़े बुजुर्गो को भी ज्यादा जानकारी नही है। इसीलिए उनके बारे में कम से कम संक्षिप्त रूप से बताया जाना जरुरी है। इसी कड़ी में सबसे पहले हैं डोड राजपूत वंश और राव चंद्रसेन डोड।
उत्तर मध्य काल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेरठ से जलेसर, एटा और संभल तक पवार/परमार राजपूत वंश की शाखा डोड राजपूतो का शासन था जिनकी राजधानी बरन(आधुनिक बुलंदशहर) थी। बुलंदशहर में जिस इलाके को आज उपरकोट कहा जाता है वहां इनका किला होता था जिसे बलाई कोट भी कहा जाता था। आज भी वहां की इमारतो के नीचे किले और डोड राजपूतो की विरासत के अवशेष दबे हुए हैं। यही से मिले एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि यहाँ डोड वंश की 16 पीढ़ियों ने राज किया है। जनश्रुतियो के अनुसार राजा विक्रमसेन डोड ने इस राज्य की स्थापना की। इस वंश में प्रतापी राजा हरदत्त डोड हुए जिनको मेरठ, हापुड़(हरिपुर), कोल(वर्तमान अलीगढ़) जैसे नगरो को बसाने का और उपरकोट किले को बनाने का श्रेय जाता है। महमूद गजनी के आक्रमण के समय इन्होने ही बरन(बुलंदशहर) में उसका मुकाबला किया था।


डोर राजपूतों के द्वारा कोल अलीगढ़ में देश धर्म रक्षा युद्ध


कोल अलीगढ़ का देश धर्म रक्षा युद्ध (1194 ई.) - डोर राजपूतों का कोल अलीगढ़ दुर्ग भी भारत के प्रसिद्ध दुर्गों में से था । देश भर में राजपूतो के त्याग, बलिदान, शौर्ये कि सुनने पढ़ने को मिलती है लेकिन हजारों धर्म युद्ध ऐसे भी है जिनकी चर्चा वामपंथी इतिहासकार नहीं करते, ना ही पाठ्यक्रम में इन युद्धों कि जानकारी है, आजाद भारत में लोकतांत्रिक सरकारे भी इस तरफ कभी ध्यान नहीं देती । इतिहासकार राजेंद्र सिंह राठौड़ बीदासर ने अपनी पुस्तक राजपूतों की गौरवगाथा में ऐसे सभी धर्म युद्धों और राजपूत काल में हुवे अरब आक्रमण और राजपूतों कि विजय और संघर्ष के बारे में लिखा है ।

जब कुतुबुद्दीन एबक ने 1194 ई. डोर राजपूतों के कोल अलीगढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया पहले उसका घेरा डाला और 
मोहम्मद गौरी की सेना ने जब बरन पर आक्रमण किया तो उस समय यहाँ राव चंद्रसेन डोड का राज था। गौरी की सेना ने महीनो तक किले(उपरकोट) का घेरा डाला लेकिन उसे सफलता नही मिली। इस दौरान राजपूत बार बार किले से बाहर निकल तुर्को पर हमले करते रहे जिनमे एक हमले में खुद राव चंद्रसेन ने अपने तीर से गौरी के मुख्य सेनापति ख्वाजा लाल अली को मौत के घाट उतार दिया। तुर्को ने राव चंद्रसेन को अनेक प्रलोभन दिए, धर्म परिवर्तन कर बड़ा राज्य प्राप्त करने का प्रलोभन भी दिया लेकिन राव चंद्रसेन ने घुटने नही टेके। परन्तु राव चन्द्रसेन के एक दरबारी जयपाल और पुजारी हीरादास ने गद्दारी कर रात को किले के दरवाजे खोल दिए जिसके बाद किले में भीषण शाका और जौहर हुआ। राव चंद्रसेन के नेतृत्व में हजारो राजपूतो ने लड़ते हुए अपनी जान दी।
जो युद्ध हुआ उसमें बहुत से मुसलमान मारे गए जिनकी कड़ें आज भी बलाई किले में दिल्ली दरवाजे से भन्ज मुहल्ले तक बनी हुई है। इस युद्ध में मुसलमान सफल हुए और उन्होने दुर्ग पर अधिकार कर लिया । जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया उनको छोड़ बाकी को मार डाला गया । यहां एबक को बहुत धन-माल और हजार घोड़े प्राप्त हुए। लेकिन राजपूतों का धर्म रक्षा के लिए संघर्ष अमर हो गया । (सल्तनत काल में हिन्दु प्रतिरोध-डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 123)

गद्दार अजयपाल को बरन नगर की चौधराहट मिल गई और वह मुसलमान बन गया जिसके बाद गौरी ने उसे मलिक मुहम्मद दराज की उपाधि दी। उसके वंशज आज भी उपरकोट इलाके में मिलते हैं जिन्हें चौधरी या तन्ता भी कहा जाता है और 1947 तक ये लोग बुलंदशहर नगर की आधी जमीन के मालिक हुआ करते थे।
इस शाके में क्षेत्र में डोड राजपूत वंश का लगभग खात्मा हो गया और आज बुलंदशहर जिले में सिर्फ एक ही गाँव डोड राजपूतो का मिलता है जहां कई सदियों तक इनका शासन था। अलीगढ़, एटा जिले में कोल, जलाली, अतरंजीखेड़ा आदि से डोड राजपूत लोदी वंश के समय तक शासन करते रहे। जिनमे राव बुद्धसेन और राव मंगलसेन जैसे पराक्रमी शासक हुए। 



जनश्रुतियो के अनुसार राव बुद्धसेन ने गंगा माँ की आराधक अपनी पुत्री के लिए कोल में इतनी ऊँची मीनार बनवाई थी जिसपर चढ़ कर गंगा जी दिखती थीं। यह अंग्रेजो के समय तक थी और उन्होंने बिना किसी कारण उसे डहा दिया। राव मंगलसेन जलाली या अतरंजीखेड़ा से शासन करते थे और उन्होंने कई बार तुर्को का मुकाबला किया। एटा, मैनपुरी क्षेत्र के जिस राजपूत राजाओ के संघ से लड़ते हुए युद्ध में बहलोल लोदी की मौत हुई थी उसमे राव मंगलसेन प्रमुख थे। लोदी शासको से लड़ते हुए ही अतरंजीखेड़ा में राव मंगलसेन के नेतृत्व में शाका हुआ और आज अलीगढ़ जिले के कुछ ही गाँवों में डोड वंश के राजपूत हैं।
मेरठ, मुरादाबाद जिलो में भी पवार वंश के कुछ गाँव मिलते हैं लेकिन वो डोड शाखा से हैं या नही इसकी पुष्टि नही हो पाई है।




लेकिन सबसे दुर्भाग्य की बात है कि बुलंदशहर में उपरकोट से थोड़ी दूरी पर जहां ख्वाजा लाल अली को राव चंद्रसेन ने मौत के घाट उतारा था वहां आज उसकी मजार है जहां मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू मत्था टेकने जाते हैं लेकिन राव चंद्रसेन का स्मारक होना तो दूर बुलंदशहर के क्षत्रिय समाज के लोग तक उनके बारे में जानकारी नहीं रखते।

क्षत्रिय समाज का इतना विशाल इतिहास होने के बावजूद क्षत्रिय समाज अपने इतिहास और पूर्वजो के प्रति जितना उदासीन है उतना दुनिया में कोई और समाज नही है। उत्तर भारत के मैदानों में ही ऐसी मुसलमानों की हजारो मजारे मिल जाएंगी जो राजपूतो के हाथो मारे गए और उन्हें गाजी पीर आदि मान कर पूजा जाता है लेकिन इन्ही मैदानों में हजारो राजपूत योद्धा तुर्को मुगलों से लड़ते हुए खेत रहे जिनके बलिदान के कारण आज हम गर्व से अपने को राजपूत कह पाते हैं लेकिन इन योद्धाओ में से किसी की स्मारक या समाधी होना तो दूर इनके बारे में इनके वंशजो को ही कोई जानकारी नही है ! जिस तरह गुजरात में जगह जगह राजपूत योद्धाओ की समाधियाँ हैं और विस्तार से उनका इतिहास लिखा हुआ है जिस कारण सर्व समाज वहां के राजपूतो का सम्मान करता है उसी तरह उत्तर भारत में भी स्थानीय राजपूत इतिहास को संगृहीत कर हर जिले में कम से कम एक स्मारक ऐसा बनना चाहिए जिसमे उस जिले के इतिहास में क्षत्रिय समाज के ज्ञात अज्ञात हर बलिदानी को श्रधान्जली दी जा सके।
सन्दर्भ- बुलंदशहर गज़ेटियर 1901


MAHARAJADHIRAJ CHANDRASEN DOD

BARAN- In 1193 kutb-ud-din apeeared before baran (Bulandsheher).which was for some time strenuously defended by the Dod Maharaja ChandraSen; but through the treachery of his kinsmen Jaypal Dod and his servant Hira  Das, brahman, the fort was taken.

MAHARAJA CHANDRASEN perished in the assualt but not before he had killed with an arrow Khwajah Lal Ali, whose Dargah still exist to the east of the balai kot to the present day.


The traitor ajaipal was rewarded  wih the title  of Malik Muhammad Daraz Kad. His descendants are still properietors of the portions of the township of baran and profess to have a document in their possesion conferring the right of CHAUDHARISHIP upon them.

The resisting Dod tribe remainants in adjoining areas after the qutub- ud-din  retreat.. were too came in their conquest way who lent his influence against the remaining Dod royals and raised a monument to commemorate a victory that he gained over them . The Dods rapidly decline after the conquest and posses only one entire village in the district.In 10 18, 

The traitorous Hindu accepted the faith of Islam and the Chaudhriship of Baran, where his descendants still reside, and own some small landed property. 


Dor Fortress, one of the major sightseeing attractions, is located on a small hillock in the Upper Kot of the city centre. The testament is named after King Buddhsen Dor., who laid foundation of the testimony.

During olden times, King Dor's court proceedings were organised at the site. Those days the site was known as Mohalla Ghosiyan-Parkatan, which is Police Kotwali's Southern corner at present.

There was a large well, horse stable and a stable for elephants during yesteryears  located in the west of Kotwali. A tall minaret was constructed within this fortress by a Rajput ruler, Mangalsen for his widow daughter who used to view Holy River Ganga from it’s top galleries. The minaret was destroyed due to some reasons by British Governor Admeston in the year 1861-1862.


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